कमलेश्वर ने नयी कहानी के नामकरण का श्रेय दुष्यन्त कुमार को दिया है। वैसे उनके विचार में कहानी को नया रूप देने की शुरूआत जितेन्द्र ...
कमलेश्वर ने नयी कहानी के नामकरण का श्रेय दुष्यन्त कुमार को दिया है। वैसे उनके विचार में कहानी को नया रूप देने की शुरूआत जितेन्द्र और ओमप्रकाश ने की (नयी कहानी की भूमिका) राजेन्द्र यादव ने नयी कहानी की बात उठाने का श्रेय दुष्यन्त कुमार के साथ नामवर सिंह को भी दिया है (कहानी ः स्वरूप और संवेदना)। इन्द्रनाथ मदान विश्वास के साथ नहीं कह पाते हैं कि इसकी शुरूआत नामवर सिंह द्वारा हुई। भैरव प्रसाद गुप्त यह श्रेय स्वयं ओढ़ लेते हैं। डॉ. बच्चन सिंह शिवप्रसाद सिंह की कहानी ‘दादी माँ' से नयी कहानी का प्रारम्भ मानते हैं। यह कहानी सन् 1950 में छपी थी। सुरेश सिन्हा, राजेन्द्र यादव को नयी कहानी की शुरूआत से जोड़ते हैं, जबकि नामवर सिंह निर्मल वर्मा कृत ‘परिन्दे' को नयी कहानी की प्रथम कृति मानकर निर्मल वर्मा को भी प्रकारान्तर से पहले कहानीकारों की पंक्ति में रख देते हैं। डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित के विचार में ‘‘निस्संग भाव से देखा जाये तो कमलेश्वर, मोहन राकेश और राजेन्द्र यादव तीनों इस श्रेय के अधिकारी हैं।''
वास्तव में एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों को किसी आन्दोलन का पूरा श्रेय देना या उन्हें आरम्भ बिन्दु के रूप में स्वीकारना संकुचित दृष्टिकोण का परिचायक है। किसी भी सशक्त साहित्यिक आन्दोलन के पीछे समूह की मानसिकता होती है, जो आन्दोलन को बल देती है। हाँ यह अवश्य है कि प्रत्येक आन्दोलन के कुछ विशेष प्रवक्ता और नेता होते हैं। नयी कहानी आन्दोलन में इन भूमिकाओं को राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश, शिवप्रसाद सिंह आदि कथाकारों और नामवर सिंह, भैरव प्रसाद गुप्त, श्रीपत राय आदि समीक्षकों-सम्पादकों ने निभाया है।
प्रेमचन्द्र तक आते-आते जहाँ एक ओर हिन्दी कहानी की मुख्यधारा-सामाजिक यथार्थ की ओर अभिमुख कथाधारा-निश्चित हो चुकी थी, वहीं कहानी का ढर्रा बहुत कुछ रूढ़ भी हो चला था। अपने अन्तिम दिनों में प्रेमचन्द्र ने भी अनुभव किया था कि कहानी की एकरसता को तोड़ने की आवश्यकता है। ‘कफन', ‘पूस की रात' आदि कहानियाँ इसी चेतना की उपज हैं। ‘कफन' में बाद की नयी कहानी की प्रायः सभी विशेषताएँ मौजूद हैं। इस प्रकार नयी कहानी का बीजवपन प्रेमचन्द्र के द्वारा ही होता है, लेकिन जीवन की सच्चाईयों को कहानी के जरिये समझने का सामूहिक प्रयास स्वतन्त्रता परवर्ती परिवेश में ही सम्भव हो सका है, जबकि मिलती-जुलती विचारधारा के समानधर्मी युवा कहानीकार एक साथ इस दिशा में सक्रिय हुये। इस बीच यशपाल, रांगेय राघव, भैरव प्रसाद गुप्त आदि ने ‘कफन' की शुरूआत को जब-तब सामाजिक प्रतिबद्धता की कहानियाँ लिखकर जिन्दा रखने की कोशिश की। लेकिन उनमें इतना ‘प्रकथनात्मक विस्तार' था कि सूक्ष्म सौन्दर्य बोध को उससे सन्तोष नहीं मिलता था। ‘‘इसके अतिरिक्त जिस जीवन के अन्तरंग चित्र वे प्रस्तुत कर रहे थे, वह बहुत पहले जिया जा चुका जीवन था-चेतना के वर्तमान क्राइसिस के साथ उनका सम्बन्ध नहीं के बराबर था। क्योंकि उनकी रचना दृष्टि इस क्राइसिस के पहले प्रौढ़ता प्राप्त कर चुकी थी, इसलिये एक गुजरे हुये समय के घात-प्रतिघातों को चित्रित करने तक इनके कृतित्व का सीमित ही रहना अस्वाभाविक नहीं था।'' वर्तमान ‘क्राइसिस' को उस पीढ़ी ने जिया और भोगा, जो स्वतन्त्रता मिलने के समय वयस्क हो रही थी। इसलिये उनके लेखन में ताजगी थी। उनकी कहानियों का ‘कथ्य' नया था। यदि उसे ‘नयी कहानी' कहा गया तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि छठे दशक की कहानी पूर्ववर्ती कहानी से मिजाज और लिबास की दृष्टि से एक नयापन लिये हुये है।
नयी कहानी को कई तरह से समझाया गया है। कभी उसे ‘प्रक्रिया' तो कभी ‘पहचान' के रूप में आंका गया है। डॉ. सुरेश सिन्हा के शब्दों में ‘‘नयी कहानी सामयिक सीमाओं के अन्तर्गत अपने यथार्थ, युग, समय, परिवेश और व्यक्ति को देखने परखने और मूल्यांकित करने की प्रक्रिया है, जो यथार्थ को उचित, सन्दर्भों में सप्राणता के साथ अभिव्यक्ति देने का प्रयत्न करती है।'' डॉ. रामदरश मिश्र ने ‘नयी कहानी' की चेतना को परिवेश से जुड़े हुये व्यक्तिमन की चेतना के रूप में देखा है। उन्हीं के शब्दों में ‘‘.......... वह न तो बाहरी यथार्थ की अनुभूतिहीन फार्मूलाबद्ध कथा कहती है और न बाहरी परिवेश से विच्छिन्न होकर या बाहरी परिवेश को केवल अवचेतन की दुनिया से संदर्भित कर मात्र व्यक्ति मन का चित्रण करती है। वह जीवन परिवेश के दबाव में बनते-बिगड़ते मानवीय रिश्तों, मूल्यों, संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है।'' वकील रघुवीर सिन्हा का मानना है कि ‘ये वे कहानियाँ थीं, जो अपने ‘कथ्य' में न केवल नया विषय, चरित्र के नये पैमाने, एक नया अन्दाज लेकर आईं अपितु अपनी भाषा और ‘ट्रीटमेंट' में भी एक दम नयी लगीं।'' लेकिन डॉ. गोरधन सिंह शेखावत जैसे समीक्षक नयी कहानी को पुरानी कहानी का ही विकसित रूप मानते हैं ः ‘‘सन् 50 के पश्चात् कहानी की वस्तु एवं शिल्प में जो परिवर्तन आया उसी के लिये ‘नयी' शब्द की संज्ञा दी गई है। ‘नयी कहानी' की कोई अलग विधा न होकर पुरानी कहानी का ही विकसित रूप है।''
नयी कहानी की व्याख्या या चर्चा करते समय कुछ आलोचक ऐसा दिखाते हैं कि नयी कहानी पुरानी कहानी से एकदम अलहदा और अप्रत्याशित चीज है। ऐसे लोग बेहद चालाकी से न केवल अज्ञेय, इलाचन्द्र जोशी, यशपाल को खारिज करते हैं, अपितु प्रेमचन्द्र को भी अप्रासंगिक करार देते हैं। वस्तुतः नयी कहानी का एक बड़ा हिस्सा, उस हिन्दी कहानी का विकास है, जिसकी नींव को पुख्ता करने और उसे जीवन के बुनियादी प्रश्नों से जोड़ने का श्रेय प्रेमचन्द्र को है। प्रेमचन्द्र की परम्परा को आगे बढ़ाती हुई जो कहानियाँ 50 से लेकर 60-62 की अवधि में लिखी गयीं उन्हें ‘नयी कहानी' कहा गया है। राजेन्द्र यादव, अमरकान्त, मन्नू भण्डारी, कमलेश्वर, मार्कण्डेय, शिवप्रसाद सिंह, हरिशंकर परसाई आदि के द्वारा बहुत सी अच्छी कहानियाँ इस अवधि में लिखी गयीं और चर्चित हुईं। 62 के बाद राष्ट्रीय स्तर पर मोहभंग और भ्रमभंग का एक लम्बा दौर चला, ‘नयी कहानी' जिसे समझने या आंकने में अधिक सफल नहीं रही। इसके अलावा व्यावसायिकता और नेतागिरी की प्रवृत्ति ने भी ‘नयी कहानी' की शक्ति को कम किया। अतः आन्दोलन के रूप में ‘नयी कहानी' मुख्यतः छठें दशक की रचनात्मक उपलब्धि है। यही वह समय है जब कहानी को ‘केन्द्रीय विधा' के रूप में प्रतिष्ठित होने का अवसर और गौरव प्राप्त होता है।
नयी कहानी के नयेपन को व्यक्त करने वाली विशेषतायें इस प्रकार है ः-
(1) अनुभव की प्रामाणिकता
(2) समकालीन जीवन की व्यापक पहचान
(3) मध्यवर्गीय मूल्यबोध
(4) यातनामय प्रतीक्षा और आशावाद के स्वर
(5) स्थापित नैतिक बोध को चुनौती
(6) आधुनिकता बोध की विशिष्ट भंगिमा
(7) सांकेतिकता
(8) भाषा की सचेत, सर्वजनात्मक और वैविध्यपूर्ण, बनावट
(9) नवीन और सामर्थ्यपूर्ण अभिव्यंजना
नयी कहानी ः दशा और दिशा
प्रत्येक युग की अपनी दृष्टि और सृष्टि होती है। बदलते संदर्भों में जिस दृष्टि का विकास होता है, उससे प्रेरित होकर ही साहित्य-सृष्टि के नये आयाम प्रस्तुत होते हैं। कोई भी साहित्य युग-निरपेक्ष नहीं रह पाता है। उसके मूल में इतिहास और जीवन, परिवेश और वातावरण तथा परम्परा व प्रगति की नयी भंगिमायें सदैव क्रियाशील रहती हैं। सृजन यदि अपने समकालीन परिवेश से आँखें चुरा लेता है तो वह न तो जीवन्त व यथार्थ बन पाता है और न उसका प्रभाव स्थाई होकर किन्हीं मूल्यों को उत्प्रेरित ही करता है। अपने चारों ओर फैले परिवेश के दबाव को प्रत्येक नये संवेदनशील रचनाकार ने सहा है, भोगा है कभी चाहे-कभी अनचाहे। वह विक्षुब्ध हो उठा है उसका मन प्रतिक्रियात्मक हो गया है। समकालीन रचनाकार मानव मूल्य; नैतिकता, अनैतिकता, वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के बीच, भूख, नवीन परिस्थिति में यौन सम्बन्ध आदि प्रश्नों के विविध पक्षों के समाधान ढूंढ़ना चाहता है। स्वातंत्र्योत्तर काल में विकसित व्यक्तिगत स्वार्थ, अवसरवादिता, अनिश्चितता, आलसता, ग्लानि, असमंजस और रिक्तता बोध से घिरकर साहित्य की मनः शक्तियाँ काँप उठी हैं। उसकी चेतना भूमि में जो भी अंकुर पड़ता है, वह विकृत है, खण्डित है। उसकी संवेदना से सिक्त होकर जो चित्र उभर रहे हैं वे भी भयावह, दंशक बाधाओं को कंपा देने वाले, भूख, भोग, अनैतिकता और टूटते बिखरते सायों के ही प्रतिबिम्ब हैं।
वर्तमान में कहानी अपनी कहानीनुमा तस्वीर को लेकर नये विशेषण के साथ अवतरित हुई है। स्वातंत्र्योत्तर काल में लिखी जाने वाली कहानियों की नवीनता रूप शिल्प और मानवीयता दोनों की है। पत्र-पत्रिकाओं में नई पीढ़ी के कहानीकारों और तरुण आलोचकों ने वर्तमान कहानी को लेकर पर्याप्त विवाद उत्पन्न किये हैं। फलस्वरूप ‘कहानी' नयी कहानी की संज्ञा से अभिषिक्त होकर गद्य साहित्य की विधाओं में अग्रिम मोर्चे पर खड़ी है। आजादी ने जो नयी चेतना प्रदान की है, उसमें आस्था व आशा का स्वर प्रमुख रहा है। जैसे-जैसे सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य बदला है वैसे-वैसे ही उसमें साँस लेने वाला व्यक्ति भी बदल गया है। आजादी के पहले जो प्रश्न-उप प्रश्न और समस्यायें थीं, वे आजादी के बाद एक नये रूप में सामने आई हैं। कारण मानव के अनुभवों की श्रृंखला में बेहिसाब नये अनुभव आकर जुड़ गये। उसकी समस्याओं की परिधि न केवल चौड़ी हुई है, वरन उसकी बाहरी सीमा कँटीले तारों से घिरी हुई है। ऐसी स्थिति में कहानी का नया हो जाना परिवेश की मांग है। नयी कहानी से तात्पर्य उस कहानी से है जो सन् 1950 ई. के आस-पास से नये युग-बोध के रंग में रंगी यथार्थ की रेखाओं से लिखी गयी है। ‘‘नयी कहानी की शुरूआत किसी एक व्यक्ति से नहीं हुई है। उसकी एक पीढ़ी है और उसी पीढ़ी की प्रगतिशील दृष्टि भी है। इस दृष्टि के वाहकों में कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश, अमरकांत, निर्मल वर्मा, मन्नू भण्डारी और मार्कण्डेय आदि का नाम शीर्ष पर स्थित है। इस पीढ़ी के कहानीकारों ने जीवन की विसंगतियों, विडम्बनाओं और त्रासदियों से सीधा साक्षात्कार करके अपनी प्रामाणिक अनुभूतियों को प्रस्तुत किया है। यही कारण है कि ये सभी नये कहानीकार परिवेश से प्रतिबद्ध हैं। इसका मानस सजग है, आँखें खुली हैं एवं प्रज्ञा और संवेदना के स्तर सजग हैं। तभी तो ये मानवीय स्थितियों और सम्बन्धों को यथार्थ की कलम से उकेर सके हैं।''1
उपेन्द्रनाथ अश्क की दृष्टि में ‘‘ये ऐसे कहानीकार हैं जो पुरानों के नये तक पहुँचाने में समर्थ हैं।''2 दूधनाथ सिंह की दृष्टि में इनमें ‘राकेश' का नाम सर्वाधिक उपयुक्त है ‘‘क्योंकि ‘उसकी रोटी' की पुरातनता से ‘मिसपाल' और ‘परमात्मा का कुत्ता' की आधुनिक तथा हास्यास्पदता और व्यंग्य का चित्रण राकेश को एक मौलिक और ‘जेनुइन' लेखक के रूप में प्रस्तुत करता है।''3(कहानी के इर्द-गिर्द में प्रकाशित अश्क के साक्षात्कार से उद्घृत- दूधनाथ सिंह) इन कहानीकारों ने जीवन की सच्चाई को आन्तरिक जटिलता और संश्लिष्टता के साथ उभारा है। गाँव और नगर दोनों के यथार्थ-जीवन को रूपायित करने तथा खोखले एवं थोथे आदर्शों को छोड़कर नये जीवन-मूल्यों की प्रस्थापना का संकल्प व ललक इन कहानीकारों में मिलती है। परिवेश की जटिलता के बिम्ब, यथार्थ के सन्दर्भ, सूक्ष्मातिसूक्ष्म अनुभूतियों के प्रति लेखकीय सतर्कता, बौद्धिकता, रचना-तंत्र की नयी बुनावट और प्रतीकान्वेषी वृत्ति व बिम्बोद्भावक क्षमता नयी कहानी के प्रत्यक्ष गुण हैं। इन्हीं विशेषताओं के कारण नई कहानी अनुभव का प्रामाणिक दस्तावेज बन गई है। वह यथार्थ अनुभव जनित संवेदना की नयी राह पर चल रही है।
नयी कहानी विशेष सन्दर्भों की कहानी है। इसमें परिवेश के प्रति प्रतिबद्धता और जागरूकता तो मिलती ही है, यथार्थ ग्रहण के प्रति जीवन दृष्टि भी मिलती है। वह नयी इसलिये है कि आज का नया कहानीकार यथार्थ को रूबरू देखने की दिशा में सक्रिय है। उसमें हर पारम्परिक दृष्टि को छोड़ने का आग्रह है-दुराग्रह नहीं। वस्तुतः नये कथ्य की समृद्धि को अनुभव करते हुये तत्कालीन परम्परा के प्रति यह असंतोष और वितृष्णा ही लेखक को नया बनाते हैं, मात्र समवयस्क या समकालीन होना ही काफी नहीं है। नयी कहानी में जो कथ्य और शिल्प की नवीनता है वह स्वातंत्रयोत्तर भारत की गतिविधियों का परिणाम है। राजेन्द्र यादव के अनुसार - ‘‘वस्तुतः स्वतंत्रता के पश्चात के कथाकार का एक संसार वह है जो उसके आस-पास फैला हुआ है, जिससे उसे घृणा है, लेकिन उसकी मजबूरी यह है कि वह उसमें रहने, टूटने और घुटने व समझौता करने के अलावा कोई दूसरा मार्ग नहीं देख पाता है। दूसरी दुनियाँ वह है जिसे उसने अपने भीतर से निकाल कर बाहर फेंक दिया है। इसका निर्माण उसने खुद किया है। कथाकार अपने टूटने, घुटने और घिसटने की तस्वीर पूर्ण असामर्थ्य, पराजय और हताशा के साथ व्यक्त करता है। यही उसकी नियति है। उसे खुद नहीं मालूम कि जिस कुरूप, घिनौनी और चिपचिपी सृष्टि का जिम्मेदार उसे ठहराया जाता है, उसमें उसकी जिम्मेदारी कितनी है ? जिस रंग-बिरंगे, लकदक सलमे-सितारे मढ़े संसार को उस पर लाद दिया गया है, उसकी कुरूप सिसकती आत्मा को खींचकर बाहर निकाल देना अपराध है या अपनी आंतरिक कुरूपता की कीचड़ को कला के माध्यम से औरों तक फैलाना। कलाकार का अपराध कहाँ है-कला धर्म का निर्वाह या न निर्वाह कर सकने की मजबूरी में।''4
नयी कहानी कल्पना लोक से उतरकर समाज के धरातल पर प्रतिष्ठित हुई है उसमें यथार्थ का स्तर न केवल साफ है, अपितु तीखा और तिलमिला देने वाला भी है। मेरी दृष्टि में नयी कहानी वह है जो आजकल लिखी जा रही है और जिसमें आज की अनुभूति व आज के युग का ज्वलंत बोध है। नयी कहानी पुरानी कहानी से भिन्न है। इस भिन्नता को कमलेश्वर ने इन शब्दों में प्रकट किया है ः ‘‘पुरानी कहानी में व्यक्ति शारीरिक रूप से आता था और वैचारिक रूप से कथाकार के रूप में। नयी कहानी में यह विचार उसी शरीर में अवस्थित बुद्धि से उपजता है जिसे प्रस्तुत किया जाता है। तब विचारों को हाड़-मांस प्रदान किया जाता था, अब हाड़-मांस के इंसान के विचारों को प्रस्तुत किया जाता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश और कमलेश्वर आदि ने कहानी का यही रूप स्वीकार किया है। नयी कहानी का नया बोध मूलतः नैतिक मूल्यों से सम्बन्धित है। नयी कहानी मानवीय मूल्यों से संरक्षण और जीवनी शक्ति के परिप्रेषण की दिशा में यत्नशील है।''5 स्पष्ट है कि वह तो ध्वंसोन्मुखी आदर्शों की पुर्नस्थापन हेतु बदलते मूल्यों और टूटती मर्यादाओं के प्रति प्रबुद्ध और भावाकुल दिख रही है। फर्क है तो केवल यही कि वह पारंपरिक आदर्शों व प्रतिमानों के अवमूल्यन या ध्वंस पर झोंका कुल नहीं है। वह तो स्थिति, परिवेश और आस-पास बिखरे जीवन से प्रेरित हो नये प्रतिमानों के प्रस्तुतीकरण के निमित्त व्यग्र व इच्छुक है। नयी कहानी ने स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों की साहसपूर्ण वास्तविकता, परिवेश और हाड़-मांस का सत्य अंकित किया है। जीवन का घिनौनापन उसका प्रतिपाद्य नहीं है। यही कारण है कि ‘नयी कहानी' सेक्स की अपेक्षा ‘सेक्स साइकोलॉजी' को प्रस्तुत कर रही है। उसमें अश्लीलता की अपेक्षा बौद्धिक निर्लिप्तता अधिक है।
कमलेश्वर जी नयी कहानी को रेखांकित करते हुये लिखते हैं कि ‘‘आज की कहानी घटनाओं का संपुंजन या कथानक का मनोवैज्ञानिक विकास भर नहीं है, उसकी यात्रा घटनाओं या संयोगों से न होकर प्रसंगों की आंतरिक प्रतिक्रियाओं के बीच होती है और संवेदना के सूक्ष्म तन्तुओं पर धीरे-धीरे आघात करती हुई वह एक सम्पूर्ण अनुभव से गुजर जाती है, इसलिये वह कथा यात्रा नहीं, पाठक के उस अनुभव से स्वयं की यात्रा हो जाती है।''6 दूसरी ओर अश्क जी की धारणा है कि ‘‘नयी कहानी में सबसे महत्व की चीज वस्तु और देखने वाली दृष्टि है। इसके बाद शिल्प का स्थान आता है।''7 इसी संदर्भ में मोहन राकेश का कथन है कि - ‘‘कहानी कविता या चित्रकला के गुण से कहानी नहीं बनती, अपने गुण से कहानी बनती है - सजीव और सशक्त भाषा में यथार्थ के प्रामाणिक चित्र प्रस्तुत करते हुये उनके माध्यम ने एक संकेत देकर।''8 राजेन्द्र यादव ने नयी कहानी के संदर्भ में प्रामाणिकता की बात कही है। वे प्रामाणिकता की खोज उसका सम्पूर्ण स्वीकार और अप्रामाणिकता के अस्वीकार को ही नयी कहानी का धरातल मानते हैं। इस प्रामाणिकता में दोनों गुण हैं - ‘अथेंटिसिटी और बैलेडिटी'। तात्पर्य यह है कि वह तो यथार्थ का सत्य-परक चुनाव ही है। प्रत्येक यथार्थ कहानी का कथ्य नहीं बन सकता है जो - ‘वैलिड' है वही नयी कहानी का यथार्थ है। इसी से स्पष्ट है कि नयी कहानी संदेश नहीं अनुभव का खरापन अपने पाठकों को सौंपती है।
नयी कहानी के सम्बन्ध में जिन विशिष्ट कहानीकारों ने अपने विचार प्रकट किये हैं। उनमें मार्कण्डेय प्रमुख हैं आपके अनुसार - ‘‘नयी कहानी से हमारा मतलब उन कहानियों से है जो सच्चे अर्थों में कलात्मक निर्माण है, जो जीवन के लिये उपयोगी है और महत्वपूर्ण होने के साथ ही, उसके किसी न किसी नये पहलू पर आधारित है या जीवन के तत्वों को एकदम नई दृष्टि में दिखाने में समर्थ है .......... नवीनता इसमें नहीं है कि उसमें किसी अछूते भू-भाग के अजीब प्राणियों का वर्णन है, बल्कि इसमें है कि साधारण मानव में वह कौन सा विशेष नयापन है जो सामाजिक परिस्थितियों के परिवर्तन के कारण पैदा हो गया है, या बिना किसी परिवर्तन के भी जीवन का कौन सा ऐसा पहलू है जो साहित्य में एकदम अछूता है।''9
मार्कण्डेय के महत्वपूर्ण कथन से स्पष्ट है कि वे नयी कहानी उसे मानते हैं जिसमें नया भावबोध हो और जीवन के नये संदर्भों का उद्घाटन हो।
नयी कहानी में निरूपित नये भावबोध को स्वीकार करके डॉ. नामवर सिंह लिखते हैं कि ‘‘अभी तक जो कहानी सिर्फ कथा कहती थी या कोई चरित्र पेश करती थी या एक विचार का झटका देती थी वही ‘निर्मल' के हाथों में जीवन के प्रति एक नया भावबोध जगाती है ........ दुर्लभ अनुभूति चित्र प्रदान करती है।''10
वास्तविकता यह है कि नयी कहानी किसी बिन्दु पर केन्द्रित प्रभाव की कहानी नहीं है, अपितु जीवन के एक संश्लिष्ट खण्ड में व्याप्त संवेदना की कहानी है। आज भी कहानी में प्रभावान्विति का महत्व उतना नहीं जितना अनुभूति जनित प्रभाव की गहराई और घनता का है। कहने का तात्पर्य यह है कि नये कहानीकार में अपने आस-पास के परिवेश की स्वीकृति है और वह पूर्वाग्रह रहित है। उसकी कहानी का विषय उसका भोगा हुआ यथार्थ है साथ ही इस भोगे हुये यथा की अनुभूति की घनता और परिवेशव्यापी अनुभवों, घटनाओं, सन्दर्भों की प्रामाणिक किन्तु यथार्थ प्रस्तुति और वह भी परिचित शिल्प में, नयी कहानी का महत्वपूर्ण आयाम है।
आज की कहानी का सूत्रपात कब हुआ, यह शोध का विषय है। कुछ लोग उसे निर्मल वर्मा (1992) की ‘परिन्दे' कहानी से स्वीकार करते हैं और कुछ लोग सन् 1950 ई. के आस-पास डॉ. शिवप्रसाद सिंह की ‘दादी माँ' से। यह अनुचित तर्क हैं। वर्तमान कहानी अपनी पिछली परंपरा का युगानुकूल स्वाभाविक विकास है। कहानी के सम्बन्ध में नयेपन का प्रश्न डॉ. नामवर सिंह ने ‘कहानी' के वार्षिक विशेषांक में और दुष्यंत कुमार ने ‘कल्पना' में 1954-55 ई. में उठाया था, किन्तु ‘नया' शब्द दलबंदी और घुटन या दुःस्वप्न मात्र बनकर रह गया। ‘नयी कहानी' के नामकरण को लेकर भी अनेक विवादों ने जन्म लिया और समाप्त होते चले गये। कुछ लोगों ने इसे ‘कहानी', ‘एन्टीस्टोरी', सचेतन कहानी और ‘आज की कहानी' भी कहा, किन्तु ये नाम आधारहीन हैं। आजकल समानांतर कहानी की विशेष चर्चा है। वास्तव में नयी कहानी विषय और शिल्प की नवीनता के साथ-साथ अनुभव के खरेपन को व्यक्त करती है। ऐसी स्थिति में उसे ‘नयी कहानी' का अभिधा से मंडित करना सर्वथा उपयुक्त प्रतीत होता है। इस सन्दर्भ में मोहन राकेश की बात अधिक सत्य प्रतीत होती है - ‘‘ ‘नयी कहानी' नाम तो मात्र एक अनुबंध है, प्रश्न वास्तव में दो अलग-अलग दृष्टियों का है। नयी कहानी के साथ शब्द ‘नयी' का प्रयोग केवल विभाजन की सुविधा के लिये है - एक सीमांत के बाद कहानी के विकास की अलग दिशा का संकेत देने के लिये है। मैं नहीं समझता कि आज के किसी कहानीकार को इस बात का मोह होगा कि उसकी कहानी भविष्य में ‘कहानी' के रूप में न मानी जाये, नयी कहानी के रूप में जानी जाये। हाँ, उसका यह चाहना और इस बात का दावा करना कि उसके आज के प्रयोग पहले के प्रयोगों से भिन्न हैं, उसका दुराग्रह नहीं है।''11
वास्तविकता यह है कि नयी कहानी और पुरानी कहानी के मध्य दो संस्कारों की टक्कर है और यह टकराहट प्रमाणित करती है कि हिन्दी की आज की कहानी न केवल पहले की कहानी से अपनी दृष्टि और ‘एप्रोच' में भिन्न है, अपितु उसका अपना एक निजी धरातल भी है। वस्तु, शिल्प और भावभूमि - सभी दृष्टियों से नयी कहानी अपनी एक पहचान बना चुकी है। उसकी अपनी उपलब्धियाँ हैं। कमलेश्वर की दृष्टि में नयी कहानी की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उसने जैनेन्द्र और अज्ञेय की नितांत व्यक्तिवादी, अहंवादी और रूग्ण मानसिकता से हिन्दी कहानी को मुक्त किया है। मोहन राकेश के अनुसार - ‘‘रचना-दृष्टि और जीवन-दर्शन अलग-अलग बातें हैं जहाँ तक नयी कहानी के जीवन-दर्शन का प्रश्न है, वह अपनी मुख्यधारा में यथार्थपरक समाजवादी विचारधारा से सम्बद्ध रही हैं, पर अपनी रचना दृष्टि में उसने स्वार्थ के आंतरिक घात-प्रतिघातों में से ही अपने संकेत ग्रहण किये हैं।''12
अद्यतन दृष्टि से अवलोकन करें तो नयी कहानी जिस स्थिति में है, उसमें उसका स्वरूप काफी हद तक बदल चुका है क्योंकि आज का रचनाकार पूर्वाग्रहों और पारम्परिक स्वीकारों से मुक्ति चाहता है एक उदाहरण द्वारा इसे समझा जा सकता है - ‘पुराने कुएं का पानी मीठा और स्वास्थ्य के लिये उपयोगी तो हो सकता है, किन्तु वह हर युग में नयी उभरती पीढ़ी को भी वैसा ही उपयोगी लगे यह आवश्यक नहीं है। सरोवर का जल निर्मल कितना ही हो, कंकड़ी फेंकने पर उसमें अनगिनत लहरें भले ही उत्पन्न हों, उसकी कोई भी बूँद वैसा स्फुरण और संवेदन नहीं जगा सकती है जैसा कि झरने से छूटते पानी के किंचित स्पर्श से ही जग जाता है। इसके कारण और कितने भी हों, किन्तु एक अहम कारण है कि प्रत्येक युग की दृष्टि अपने अनुकूल सृष्टि रचती है। उसे अपनी सर्जना से अधिक आत्म सन्तुष्टि मिलती है। फिर आज जबकि साहित्यकार की चेतना शतगुणित होती हुई परिवेश के समूचे फैलाव को अपने भीतर समाहित करती जा रही हो तो ऐसे में स्पष्ट है कि समकालीन परिवेश की बाहों का सहारा लिये बिना एक कदम भी चल पाना असंभव नहीं तो कठिन और बेमतलब अवश्य लगता है। यही कारण है कि आज का सर्जक परिवेश बोध की संवेदना को आत्मसात करके जी रहा है। वह अपने अन्तस और ब्राह्म की असंगतियों, कटुताओं और अन्तर्विरोध जनित रिक्तताओं को झेल रहा है। जीने और झेलते जाने के इस क्रम में उसे आदर्श का मृदु जल भी बेस्वाद अनुपयोगी और व्यर्थ प्रतीत होने लगा है। फलतः वह नये सिरे से व्यक्ति-व्यक्ति के सम्बन्धों और व्यक्ति व समाज के सम्बन्धों का न केवल पुनरुवेषण कर रहा है, अपितु उन्हें एक नये अर्थ से भी जोड़ रहा है। यद्यपि ऐसा करते जाने में अनेक बाधायें और खतरें हैं, किन्तु वह नये मानवीय क्षितिजों की खोज के लिये खतरे उठाने को तैयार है। खतरों और बाधाओं के बीच चलते-चलाते वह भटक भी रहा है और कभी-कभी अटक अटक कर स्वयं को ही प्रश्निल दृष्टि से तौल भी रहा है। उसने अपने भीतर की अनमापी गहराइयों के बीच से जो स्वर ग्रहण किया है, वह एकदम निरर्थक नहीं है। उसकी सार्थकता यह है कि उसमें निरर्थकता भी एक मूल्य बन गयी है। अर्थहीनता में सार्थकता की खोज, व्यक्ति-व्यक्ति के सम्बन्धों का नया संदर्भ और सामाजिक विषमताओं व विद्रूपताओं के बीच भी जीने की शक्ति प्रेरित कामना ही आज के कथा साहित्य में निरुपित हो रही है। यह निरुपण इस तथ्य का प्रत्यक्ष गवाह है कि आज की कहानी कहानीकार की कहानी से बहुत बदल गई है। परिवर्तन की यह प्रक्रिया कहानी की वस्तु और दृष्टि भंगिमा में स्पष्टतः लक्षित की जा सकती है। कहानी के बीच व्यक्ति की शक्ति और सामाजिक कटुताओं का यह प्रक्षेपण साक्षी है कि आज कहानी सैद्धान्तिक व बौद्धिक आवरण को चीरकर धरती के आग, पानी को ही अपना धन समझ रही है। इसी में इसमें चित्रित व्यक्ति प्रेमचन्द्र के पात्रों की घुलनशील वृत्ति की केंचुल उतारकर विषमताओं, स्थापित व्यवस्था और समस्त अत्याचार ग्रस्त परिवेश के विरूद्ध अपने विश्वास का ध्वजारोहण कर रहा है क्योंकि ‘‘आज का नया कहानीकार एक ऐसे संधिस्थल पर खड़ा हुआ है, जहाँ उसके लिये पुराना टूट रहा है, नया बन रहा है, उभर रहा है। नया बनने की आकुलता में वह स्वयं भी अपनी बाहें फैलाये विराट एवं व्यापक मानवीय चेतना को आत्मसात करने की प्रयत्नशीलता में आतुर है। स्थिति यह नाजुक है। इससे पीछे जाना, या स्थिति को नकारना उसकी सारी सृजनशीलता का नाश कर सकती है, इसलिये नये कहानीकार ने चयन शक्ति की सक्षमता के सम्बन्ध में अधिक सर्तकता अपनायी है और बड़ी सावधानी से उसने सामाजिक यथार्थ की नब्ज पहचान कर उसे नये शिल्प एवं स्वविधान में प्रस्तुत किया है।''13
स्पष्ट है कि नयी कहानी ने पूर्वाग्रहों से मुक्ति प्राप्त कर ली है। वह इन्द्रधनुषी रंगों और कल्पना के सतरंगे आग्रहों से मुक्त होकर यथार्थ की ऊबड़-खाबड़, किन्तु ठोस धरातल पर आ गई है। उसने पुराने व अव्यावहारिक मूल्यों पर प्रश्न चिन्ह् लगा दिया है तथा असमय वृद्ध सांस्कृतिक मूल्यों का था तो नवीनीकरण किया है या उन्हें नये मूल्यों के प्रकाश के समक्ष मृत घोषित कर दिया है। आज हम जिस युग में जी रहे हैं, वह वास्तविकताओं की पहचान का युग है। कहानीकार में यह पहचान कविता की अपेक्षा अधिक तेजी से घटित हो रही है, यही कारण है कि कहानी लिखने की प्रेरणायें भी असीमित हो गई हैं। हमारे चारों ओर बिखरे हुये जीवन का हर पल, हर सन्दर्भ और हर स्थिति कतिपय प्रभावों से आन्दोलित हो रही है। सजग कहानीकार के पास इस सबको पहचानने की सहज क्षमता है, गहरी अनुभूति है और अनुभव के उस यथार्थ को व्यक्त करने के लिये सशक्त शिल्प है। ‘‘ऐसी स्थिति में जीवन का हर पल, डर संदर्भ और अपने आस-पास का सब कुछ कहानी बनता जा रहा है। परिणामतः हम जहाँ पर दो पल विराम कर सांस लेते हैं वहाँ एक आदमी कसमसाने लगता है। जिस राह से गुजरते हैं वहाँ पैरों के बने निशान एक करुण गाथा छोड़ देते हैं। धरती के गर्भ में छिपा बीज जब अंकुरित होकर हवा में लहराता है, तो उसका एक इतिहास लिख जाता है जिसे कहानी बनते देर नहीं लगती। इतना ही क्यों वर्तमान परिस्थितियों में अनेक संकटों को झेलते मानव के चेहरे के भाव-अभाव, तनाव और सलवटों, सभी में एक-एक कहानी लिखी दिखाई देती है।''14
आज का सचेतन कहानीकार जब लगातार रौंदी जाने वाली सड़क के दिल की धड़कन भी सुन लेता है तो फिर मेहनत मजदूरी करने वाले आदमी के पसीने की बूँदों में, बीमारी और दर्द से पीड़ित मरीज की कराह में, अनेक संगतियों के बीच द्वन्द्व और तनाव झेलते स्त्री-पुरुषों में, निरन्तर टूटते मानवीय रिश्तों, किसी घायल, गरीब और बेसहारा की विवशता में और किसी प्रेम के मारे असफल और पूरी तरह टूट चुके आदमी में छिपी कहानी क्यों बाहर नहीं आ सकती ? आज की कहानी यही है उसकी संवेदना यही है और उसका परिवेश भी ऐसी ही अनेक स्थितियों से सम्बद्ध है।
यशपाल, जैनेन्द्र, अज्ञेय, इलाचंद्र जोशी अश्क और प्रेमचन्द्र ऐसे ही विशिष्ट भावबोध वाले कहानीकार हैं। जैनेन्द्र और अज्ञेय ने मानवीय आंतरिकता को मनोविश्लेषणात्मक कहानियों के सहारे अभिव्यक्त किया है। ‘यशपाल' की कहानियों में सामाजिक वर्ग-वैषम्य की भावना और पात्रों की मनोग्रंथियों का विश्लेषण करके मध्य-कालीन बोध को तोड़ने का प्रयत्न दिखाई देता है। अश्क में सामाजिक भावना और वैयक्तिक जीवन-प्रसंगों के आपसी संयोग से एक समीकरणात्मक मानवीय चेतना की अभिव्यंजना दिखाई देती है। सामाजिक बोध की भूमिका पर विकसित चेतना का स्फुरण और अभिव्यंजन अश्क, अमृतलाल नागर, चन्द्र किरण सौनरिक्सा, भैरव प्रसाद गुप्त, भीष्म साहनी और धर्मवीर भारती की कहानियों में उपलब्ध होता है। परिस्थितियों की जटिलता और विषमता ने जीवन बोध और उसके स्तर को भी बदल दिया है। इतना ही नहीं मानवीय सम्बन्ध, रिश्ते-नाते और पारिवारिक एवं वैयक्तिक सन्दर्भों ने नई स्थितियाँ पैदा कर दी हैं। फलतः जीवन-निर्वाह का प्रश्न जटिल हो जाता है। उसके लिये न केवल पति वरन पत्नी भी नौकरी के क्षेत्र में उतर रही है। कहीं कहीं यह भी हुआ कि पति, पत्नी की कमाई पर पल रहा है। इसके साथ ही कहीं सामाजिक दायित्व के निर्वाह अथवा दबाव के कारण लड़कियाँ नौकरी कर रही हैं। उनकी इच्छाओं का रंग महल परिस्थितियों के दबाव के कारण खण्डहर होता जा रहा है। कभी वे अविवाहित होकर विवाहित का, कभी विवाहित होकर अविवाहित का और कभी प्रेम के नाम पर कलंकिनी बनाकर ठुकराई हुई अपेक्षिताओं का जीवन बिता रही हैं। इतनी पीड़ा को सहने पर भी उन्होंने अपने अस्तित्व को बनाये रखा है। अनेक रोजगार दफ्तर खुलने के बाद भी नयी पीढ़ी का अधिकांश जीवन निरर्थक और बेरोजगार हो गया है-परिणाम सामने हैं, काफी हाउसों, टी स्टालों और सिनेमाघरों पर भीड़ इकट्ठी होती जा रही है। भीड़ बढ़ रही है, उसका दबाव बढ़ रहा है और व्यक्ति अकेलेपन का बोझ लिये जीवन की रही-सही साँसों को जैसे-तैसे गिन रहा है। सामाजिक और पारिवारिक दायित्वबोध बढ़ने के कारण व्यक्ति की विवशताएँ बढ़ रही हैं। तब भी व्यक्ति के जीवन की गाड़ी चलती रहती है। शिवप्रसाद सिंह लिखते हैं - ‘‘मनुष्य और उसकी जिन्दगी के प्रति मुझे मोह है। जो अपने अस्तित्व को उबारने के लिये विविध क्षेत्रों में विरोधी शक्तियों से जूझ रहा है। अंधविश्वास, उपेक्षा, विवशता, प्रताड़ना, अतृप्ति, शोषण, राजनीतिक, भ्रष्टाचार और क्षुद्र स्वार्थान्धता के नीचे पिसता हुआ भी जो अपने सामाजिक और मनोवैज्ञानिक हक के लिये लड़ता है, हँसता है, रोता है, बार-बार गिर कर भी जो अपने लक्ष्य से मुँह नहीं मोड़ता है, वह मनुष्य तमाम शारीरिक कमजोरियों और मानसिक दुर्बलताओं के बावजूद महान है।''15
शहरीकरण और नगरीकरण की प्रक्रिया तेजी से घटित हुई है और अभी भी हो रही है। कस्बाती जीवन जीने का आदी बुद्धिवादी व्यक्ति रोजगार पाकर भी महानगरीय जीवन की चकाचौंध और तड़क-भड़क में खोता जा रहा है। एक ओर यह नगरीय जीवन है और दूसरी ओर वह अतीत है जिसकी स्मृतियाँ उसके जगत (मन) में कौंधती हुई उसे इन्सानी रिश्तें से जोड़ती हैं। इस पीड़ामय द्वन्द्व में वह भटक गया है। व्यक्ति का निजीपन अनजाने महानगरों की भीड़ में आकर छूट गया है उसे केवल ऊब, उदासी और अपरिचय के बीच रहना पड़ रहा है। विवशता की प्रक्रिया यहीं समाप्त नहीं हो रही है। जो व्यक्ति कस्बाती जीवन को छोड़कर यहाँ आया है वह केवल व्यक्ति नहीं है, वह किसी का पिता, किसी का पति और किसी असहाय वृद्धा का बेटा है। ऐसी स्थिति में उसे अपने पीछे छोड़ आये परिवार के लिये रोटी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था भी करनी है। व्यवस्था जुटाने की आशा लेकर आया हुआ यह व्यक्ति महानगरीय जीवन में आकर स्वयं अव्यवस्थित होता जा रहा है। यह वह व्यक्ति है जो अपने किशोरकाल में भावी जीवन के सपनों का संसार संजोये हुये था। उसकी कल्पना थी कि शिक्षा समाप्त करके वह जीवन को नई दिशा देगा। उसे अच्छी नौकरी मिलेगी, अच्छा जीवन स्तर होगा, किन्तु इस ‘किन्तु' ने ही तो उसे प्रश्नों और समस्याओं के जंगल में भटका दिया है। यह तो था उसकी कल्पना का जीवन और जब उसे इसमें उतरने का अवसर मिला तो सारी स्थितियाँ उलट गईं, कल्पनायें यथार्थ के ताप से तपकर न केवल झुलस गईं अपितु उनकी स्थिति एक प्रश्न बन गई। स्थिति यह हुई कि उसका विवाह तो हुआ, किन्तु नौकरी न मिली और हर साल बाद वह अपने ‘फ्रस्टे्रशन' को एक-एक बच्चे के रूप में जन्म देता रहा। स्वच्छ महान की कल्पना सीलन और बदबूदार ‘अँधेरे बन्द कमरों' में बदल गई। उसकी पत्नी का सौंदर्य झुर्रियों में बदल गया और बच्चे सही परिवेश और पोषण न पा सकने के कारण न केवल दुर्बल हो गये वरन् चिड़चिड़े भी हो गये। नौकरी मिली तो है, किन्तु सारे दिन दफ्तरी जीवन में सिर खपाते रहने के बाद जब वह घर लौटता है तो उसका दम घुटता है; बच्चों की मांगों और चीख पुकार से कान के पर्दे फटते दिखाई देते हैं। पुरुष-पत्नी की खीज से भीतर ही भीतर घुलता जा रहा है। नतीजा यह कि वह वापस अपने अतीत में लौट जाना चाहता है। वह व्यवस्था में परिवर्तन करना चाहता है कि सारे जीवन-तंत्र को नया रूप देना चाहता है, किन्तु हो कुछ नहीं पाता वह विवश भाव से इन सभी स्थितियों को स्वीकार कर लेता है। यह टूटन, यही विवशता और ऊब व निराशा नयी कहानी में प्रतिरूपित हो रही है।
एक दूसरी स्थिति शिक्षित दम्पत्ति भोग रहे हैं। दोनों का समान शिक्षित होना, नौकरी करना और कुछ व्यक्तिगत कारणों से इच्छाओं के विपरीत तनाव में जीते चले जाना, एक दूसरे को अपने अनुपयुक्त समझकर नये ढंग से जीने का प्रयत्न आदि कुछ ऐसी स्थितियाँ हैं जिनमें कुछ घर टूटते हैं तो कुछ नये बनते दिखाई देते हैं। बच्चे पिता से छूट जाते हैं और पति-पत्नी एक दूसरे से। स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों की यह स्थिति इतनी दारुण और यातनामयी हो जाती है कि दोनों अलग अलग रहकर भी जी नहीं पाते। सम्बन्धों के बीच आई यह दूरी फिर एक नया आकर्षण पैदा करती है। दोनों के बीच एक नया सेतु बनते-बनते रह जाता है। वे अलग-अलग स्थितियों में जीते हुये एक दुर्निवार पीड़ा व टूटन को झेलते हुये जीवन के अन्तिम रूप में समा जाते हैं। स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों की यह स्थिति और परिणति पूरी कचोट भरी वेदना के साथ नयी कहानियों में आकार पा रही है। जीवन की विसंगतियों से उपजा यह पीड़ा बोध वर्तमान पीढ़ी का पीड़ा बोध है, अपितु समूची कथा-पीढ़ी द्वारा चित्रित कहानी यात्रा का एक अनिवार्य सोपान भी है।
निष्कर्ष के रूप में मैं राजेन्द्र यादव के शब्दों में अपनी बात समाप्त करना चाहूँगा कि - ‘‘आज हमारी नयी कहानी जहाँ आ गयी है, वह उसका समाप्त होना नहीं है, आगे गति न हो पाने के कारण बिखर जाना है ........ किसी बड़े प्रारम्भ के बाद दरवाजों पर सिर पटककर साँस तोड़ देना है .......... शायद जिन्दगी भी किसी ऐसे ही बन्द प्रारम्भ की दहलीज पर आ गयी है .......... मगर जिन्दगी और कहानी को दरवाजा तो खोजना ही होगा। इस वर्तमान को किसी-न-किसी भविष्य तक तो खींचना ही होगा, उस आशा को तो प्राप्त करना ही होगा जो अनागत है, अगले जीवन और अगली कहानी की थीम है।''16
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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1.-कहानीकार मोहन राकेश- डॉ0 सुषमा अग्रवाल, पृ0 40
2- कहानी के इर्द-गिर्द' उपेन्द्रनाथ अश्क, पृ0 65
3 -कहानी के इर्द-गिर्द में प्रकाशित अश्क के साक्षात्कार से उद्घृत- दूधनाथ सिंह
4- एक दुनिया ः समानान्तर- राजेन्द्र यादव, पृ0 19
5 -नयी कहानी की भूमिका- कमलेश्वर, पृ0 70
6 -नयी कहानी की भूमिका- कमलेश्वर, पृ0 72-73
7 -नयी कहानी एक पर्यवेक्षण लेख से- उपेन्द्रनाथ अश्क
8- कहानी नये सन्दभो्रं की खोज लेख से - मोहन राकेश
9 -हंसा जाई अकेला भूमिका भाग से - मार्कण्डेय
10 -कहानी ‘नयी कहानी' - डॉ0 नामवर सिंह, पृ0 68
11-साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टि - मोहन राकेश, पृ0 48
12-साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टि - मोहन राकेश, पृ0 78
13-नयी कहानी की मूल संवेदना - डॉ0 सुरेश सिन्हा, पृ037
14-नयी कहानी की संवेदना निबन्ध से - डॉ0 हरिचरण शर्मा
15-कर्मनाशा की हार - शिव प्रसाद सिंह, पृ0 6
16-एक दुनिया ः समानांतर - राजेन्द्र यादव, पृ0 7
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डॉ. वीरेन्द्र सिंह यादव
संपर्क- वरिष्ठ प्रवक्ता हिन्दी विभाग डी0 वी0 (पी0जी0) कॉलेज उरई (जालौन) उ0प्र0 भारत 285001
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बहुत ही ग्यानवर्द्धक आलेख है नये कहानी कारों के लिये उपयोगी और संग्रहणीय आभार्
जवाब देंहटाएंकहानी के विविध पक्षों पर सार्थक चर्चा।
जवाब देंहटाएं( Treasurer-S. T. )
thoughprovoking article. nice job.
जवाब देंहटाएंइस नएन कहानी के विविध समर्थक चर्चा
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