सामंती मूल्य दृष्टि और पुरुष प्रधान पितृसत्तात्मक समाज के पुरजोर प्रयासों के बावजूद मीरा लोक स्मृति में बची रही इसका क्या कारण है ? ...
सामंती मूल्य दृष्टि और पुरुष प्रधान पितृसत्तात्मक समाज के पुरजोर प्रयासों के बावजूद मीरा लोक स्मृति में बची रही इसका क्या कारण है ? हाल में आई पुस्तक 'मीरा ः एक पुनर्मूल्यांकन' इन सवालों के गिर्द मीरा के साहित्य और व्यक्तित्व का नया विश्लेषण प्रस्तुत करती है। पल्लव के संपादन में इस पुस्तक के अधिकांश लेख समकालीन विमर्शों की रोशनी में तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक परिस्थितियों में एक स्वतंत्र चेता नारी के संघर्ष के विभिन्न पहलूओं से देखने का प्रयास करते हैं। यह पुस्तक भक्तों के जैकारा (जयकारा) साहित्य से बिल्कुल अलग सामंती ढांचे की निरंकुशता, सामाजिक जकड़बन्दियों पितृसत्तात्मक समाज की कैद में छुटकारा पाने और अपना मुकाम हासिल करने की मीरा की संघर्ष गाथा को समझने और परखने का उपक्रम करती है।
मीरा पर उपलब्ध ढेर सारी सामग्री के बीच एक और पुस्तक की क्या जरूरत है ? इस संबंध में संपादक पल्लव का कहना है- ' बावजूद छोटी बड़ी पुस्तकों के मीरा की कविता का सही महत्त्व अभी पहचाना नहीं जा सकता है। प्रयत्न रहा है कि मीरा के व्यक्तित्व और उनकी कविता पर पडे़ आवरणों से हटकर उनका सही मूल्यांकन किया जाए।'
इस मूल्यांकन की दिशा के बारे में अंदाजा हम सुरेश पंड़ित के लेख की इन पंक्तियों में लगा सकते है- ' मीराबाई कृष्ण के प्रति अटूट भक्ति के कारण जितनी लोकप्रिय हुई, उतनी अपने समय के सामंतवाद, पुरूष वर्चस्व, कुलीन रीति रिवाज आदि के विरुद्ध बगावत का बिगुल बजाने वाली एक अपराजेय महिला के रूप में क्यों नहीं हुई ? ' कुल छब्बीस लेख मीरा की कविता और जीवन को विभिन्न कोणों से विश्लेषित करते है अतः मत विभिन्नताएं भी है जो स्वाभाविक है, ये विभिन्नताएं ही पुस्तक की खूबी भी है स्त्री विमर्श के आलोक में अनुराधा, अनामिका, चन्द्रा सदायत, शिव कुमार मिश्र, मधु किश्वर व रुथ वनिता के लेख मीरा के जीवन और कविता का मूल्यांकन करते है, पितृसत्ता-राजसत्ता के शोषणकारी स्वरूप को सामने लाते है। हिमांशु पंड्या का आलेख बताता है कि मठाधीशों को स्वतंत्र स्त्री का अस्तित्व किस कदर असहनीय है, कोई भी धर्म इस स्वतन्त्रता की इजाजत नहीं देता। पंड्या अपने आलेख में बताते हैं कि हिन्दी की प्रगतिशील आलोचना मीरा के मूल्यांकन के संदर्भ में किस रुढ़ दृष्टि का शिकार रही। पंकज बिष्ट अकादमिक लेखों की गंभीरता के बीच सरस, आत्मीय व विरासत को तत्कालीन व समकालीन संदर्भों में विश्लेषित करते हैं। मीरा से जुड़े विभिन्न स्थलों पर लिखे उनके यात्रा संस्मरण‘विद्रोह की पगडंडी' में पैनी निरीक्षण दृष्टि उजागर होती है। इसमें उन्होंने मेड़ता और चित्तौड़गढ़ की यात्राओं पर लिखते हुए मीरा की कविता और जीवन पर सहृदयता से विचार किया है।
लेखकों ने मीरा के जीवन और संघर्ष को अपने ढंग से देखा है अतः विचारों की बहुलता के साथ-साथ सहमतियां असहनीय भी है। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है- मीरा भक्त थी, भक्त होना न तो बुरी बात है न आपत्तिजनक, यदि व सभी लोगों की तरह घर में रहकर पूजा-पाठ करके भक्ति करके अपना वैधव्य काटती रहती तो राणा को क्या आपत्ति होती। आपत्ति का कारण साधु-संगति ही ज्ञात होता है मीरा केवल भक्त नहीं थी वह राजमहल की वधू भी थी, वह सामान्य भक्ति की तरह सामान्य लोगों से मिलती जुलती थी तो राणा कुल की मर्यादा कैसे न भंग होती'। वरिष्ठ समालोचक नवलकिशोर ने अपने आलेख ‘मीरा चर्चा में जैनेन्द्रीय सुनीता प्रसंग‘ में इस सवाल पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। यहाँ वे एक ओर जैनेन्द्र के चर्चित उपन्यास सुनीता का प्रसंग लाकर मीरा की नयी अर्थवत्ता की तलाश करते हैं तो दूसरी ओर विमर्श प्रसंग पर उनका मत है - ‘मीरा का साहित्येतर अनुशीलन कितना ही वांछनीय हो - उनके समग्र अध्ययन के लिए वह बहुत जरूरी भी है - उनके काव्य का सौन्दर्यात्मक अनुभव हम काव्य रसिक के रूप में ही कर सकेंगे। इस दिशा में हमारी आलोचना - परंपरा हमारे लिए साधक और बाधक दोनों हैं। हम उनके काव्य को भक्ति काव्य की परिधि में ही पढ़ते और सुनते हैं तो उनके काव्य में मन्द-मुखर आत्मकथा और समाजाख्यान को सुन ही नहीं पाएंगी लेकिन उनके प्रेम निवेदन का उनकी भक्ति और उसकी परंपरा से उसे अलगा कर विखंडन करते हैं तो हमारी सारी उद्घोषणाएं आरोपणाएं होंगी - मीरा के काव्य और काल से संदर्भित स्थापना नहीं।‘
पुस्तक में आये अपने आलेख में प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने मीरा के संघर्ष और प्रतिरोध का बारीक विश्लेषण किया है, वे लिखते हैं-'मीरा का विद्रोह अन्धे के हाथ लगा बटेर नहीं है। वे अपने संघर्ष की परिस्थितियों के बारे में पूरी तरह सजग हैं। विरोधी शक्तियों के खूंखार स्वभाव और अपनी स्थिति की पहचान के बाद ही उन्होंने कहा था कि-तन की आश कबहुं नहिं कीनो, ज्यों रण मांही सूरो। उनका संघर्ष सचमुच असाधारण है।' वहीं शिव कुमार मिश्र अपने लेख में मीरा के विद्रोह के अलक्षित पक्षों का संधान करते हैं- 'पदों का साक्ष्य देखे तो मीरा का यह विद्रोह उनका एकदम निजी व्यक्तित्व विद्रोह ही लगता है वह व्यजंक है परन्तु वह व्यक्तित्व विद्रोह ही। 'हमें मीरा के ऐसे पद ही मिलते जिनमें उनका यह विद्रोह उनके 'स्व' से आगे जाकर स्त्री जाति की यातना और मीरा जैसी उनकी मनोकांक्षा से जुड़ा हो, बंधनों से अपनी 'मुक्ति' का आग्रह मीरा में जरूर है परन्तु उस मुक्ति की आकांक्षा के तार-स्त्री जाति की वैसी ही मुक्ति से सीधे नहीं जुड़ते' इसी लेख में वे आगे विचार व्यक्त करते है-' मीरा तो प्रतिरोध में है- मुक्त होगी जैसा कि वे हुईं- पर मीरा की मुक्ति से भी ज्यादा अहम सवाल हमारे लिए यह होना चाहिये कि मीरा की उस सास और ननद की मुक्ति भी स्त्री-मुक्ति के अभियान से जुड़ी हुई है, मुक्त उन्हें भी होना है, जिसके लिए सचमुच गुलाम होने का सुख बहुत बड़ी यातना है।' अपने विश्लेषण में वे आगे जोड़ते हैं-' मीरा ने अपने समय में अपनी सीमाओं में जो किया बड़ा काम था, उनका महत्व इस बात में है कि मुक्ति के सपनों के उन्होंने पराधीनों की आंखों में जीवित रखा।'
'मीरा का मर्म' शीर्षक से लिखे अपने आलेख में प्रो. रामबक्ष ने बताया है कि मीरा ने स्त्री के मूल अधिकार 400 वर्ष पहले मांग लिए और वह 'बावरी' करार दे दी गई। वे मीरा के दर्द की नयी व्याख्या करते हैं-'कौन विरोध कर रहा है ? कौन समर्थन कर रहा है ? कौन प्रेम के वशीभूत होकर समझा रहा है ? कौन मुझसे चिढ़ रहा है ? यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। मेरी सबसे बड़ी चिन्ता यह है कि कोई मेरे दर्द को समझ नहीं रहा है। जो मित्र है, शुभचिन्तक है, वह भी नहीं समझ रहा है और जो विरोधी है, वह भी बिना जाने समझे विरोध कर रहा है। इसलिए दोनों नादान हैं और इसलिए क्षम्य हैं। मीरा के पदों में बार-बार गूंजता रहता है कि हेरी मैं तो दरद दीवाणी, म्हारो दरद न जाणे कोय। यह दर्द सबसे बड़ा है और यह दर्द मीरा के समकालीनों को बहुत बाद में समझ में आया। साथ रहने वालों में से तो किसी के भी समझ नहीं आया।' डॉ. चन्द्रा सदायत का आलेख 'मीरा और भारतीय भक्त कवयित्रियाँ' एक तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है। मीरा के काव्य की विशिष्टता के बारे में उनका कहना है- 'काव्यानुभूति की व्यापकता और गहराई काव्य की भाषा की सहजता और लोकोन्मुखता तथा पदों की संगीतमयता के कारण जैसी अखिल भारतीय ज्योति मीरा की है वैसी किसी अन्य भक्त कवयित्री की नही।' यहां वे हिन्दी पाठ्यक्रम में मीरा के काव्य की उपेक्षा के कारणों में उस विचारधारा को उजागर करती है जो- 'मीराबाई को प्रयत्नपूर्वक पाठ्यक्रम से अलग और नई पीढ़ी से दूर रखती है।' डॉ. आशीष त्रिपाठी का आलेख भी पर्याप्त बहस का अवसर देता है क्योंकि वे जहाँ मीरा के भक्ति तत्व का विश्लेषण करते है वहीं मीरा की मध्यकालीन सीमाओं को पहचान कर उनके भाग्यवाद की आलोचना भी करते हैं। इस अन्तर्विरोध का कारण वे यह बताते हैं कि मीरा की वैचारिकता आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण सी नहीं हो सकती थी और उनका प्रेम भी एक हद तक भावावेषी था। लेकिन डॉ. त्रिपाठी लिखते है कि अपनी सीमित क्रान्तिकारिता के बावजूद आज भी मीरा के विद्रोह का आत्यंतिक महत्व है क्योंकि मीरा का समाज एक मायने में आज भी मौजूद है। जिस समाज ने आज से लगभग पांच सौ बरस पहले मीरा को बिगड़ी हुई लोक लाज हीन, कुलनासी, भटकी हुई और बावरी कहा था, वही समाज आज तसलीमा नसरीन को ‘नष्ट लड़की‘ तथा किश्वर नाहिद को ‘बुरी औरत‘ कहकर संबोधित कर रहा है।
कहना न होगा कि किसी मध्यकालीन रचनाकार का ऐसा नया मूल्यांकन इधर कम ही हो पाया है। संपादक ने परस्पर संवादधर्मी आलेख एकत्र कर नयी बहस की संभावना बनाई है। परिशिष्ट में रामचन्द्र शुक्ल और मिश्र बन्धुओं के इतिहास अंश दिये हैं, बेहतर होता कि ऐसे सभी महत्त्वपूर्ण इतिहास ग्रन्थों के मीरा सम्बन्धी वर्णन पर एक आलेख ही दे दिया जाता।
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'मीरा ः एक पुनर्मूल्यांकन'/सं.पल्लव/आधार प्रकाशन, पंचकूला/मूल्य 450 रु.
लक्ष्मण व्यास
सी 20 आकाशवाणी कालोनी, उदयपुर 313002
सही कहा । आज के इस दौर में अतीत से कहां न्याय हो पा रहा है।
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