वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ

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डॉ. वीरेन्‍द्र सिंह यादव, एसोसिएट, भारतीय उच्‍च अध्‍ययन संस्‍थान, राष्‍ट्रपति निवास, शिमला भूमण्‍डलीकरण के आक्रामक तेवर के जरिए विश्‍व...

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डॉ. वीरेन्‍द्र सिंह यादव, एसोसिएट, भारतीय उच्‍च अध्‍ययन संस्‍थान, राष्‍ट्रपति निवास, शिमला

भूमण्‍डलीकरण के आक्रामक तेवर के जरिए विश्‍व व्‍यापार के लिए संसार को एक करने की दृष्‍टि संसार के जनहित के विपरीत आर्थिक साम्राज्‍यवाद से जुड़ी हुई है क्‍योंकि वर्तमान में भूमण्‍डलीकरण, (1) मशीनीकरण (2) और उदारीकरण(3) ने सम्‍पूर्ण परिवेश को बदल दिया है। गांवों का अर्थ बदला है, शहरीकरण बढ़ा है। गांवों में भी शहरी संस्‍कृति बढ़ी है और ऐसे में नया व्‍यवसाय, नई सोच और नये कार्यों का सृजन हुआ है। पुराने कार्यों को सलीके से करने की नई तकनीक(4) विकसित हुई है। शिक्षित बेरोजगार बढ़ रहें हैं। अर्थात्‌ इस नई आर्थिक नीति(5) ने अर्थशास्‍त्र(6) के बनते-बिगड़ते रूख और ग्‍लोबलाइजेशन(7) ने दलितों के समक्ष नयी चुनौतियां(8) पेश की हैं। वैश्‍वीकरण की इस प्रक्रिया ने भारतीय समाज के भीतर परिवर्तन की लहर को तेज कर दिया है।

परिवर्तन की यह लहर एल0 पी0 जी0 गैस से भी तेज ज्‍वलनशील है। यहां एल0 से तात्‍पर्य-लिबलराइजेशन, पी0 से तात्‍पर्य प्राइविटाइजेशन, जी0 से तात्‍पर्य ग्‍लोबलाइजेशन से है। इन शब्‍दों को हिन्‍दी में क्रमशः उदारीकरण, निजीकरण एवं भूमण्‍डलीकरण कहते हैं। इस नई आर्थिक नीति का असर सम्‍पूर्ण भारत में शुरू हो चुका है। इस सच्‍चाई से कोई आँख नहीं चुरा सकता है कि इसकी चालक शक्‍ति या संचालन (रिमोट) परम्परा वादी पूँजीपतियों (9) के हाथ में है। इस नीति को दलितों(10 )के परिप्रेक्ष्‍य में देखा जाए तो परिणाम इसके काफी निराशाजनक हैं। यहां कई प्रश्‍न अनुत्‍तरित हैं- स्‍वास्‍थ्‍य, शिक्षा(11), बेरोजगार जैसी महत्‍वाकांक्षी योजनाओं का जो शिगूफ़ा दलित वर्ग के लिये छोड़ा गया है। उससे वास्‍तविक लाभ किसको मिलेगा ? या मिला है ? इसके साथ ही निवेश नीति, आर्थिक सुरक्षा के अन्‍य उपाय, भ्रष्‍टाचार(12)और भारतीय आर्थिक नीति से दलितों के आर्थिक, सामाजिक उत्‍थान में क्‍या प्रगति हुई है? यही नहीं इसके लिये हमें राजनीतिक व्‍यवस्‍था (13) के तहत भी इन सवालों का हल ढूँढ़ना होगा कि क्‍या केवल दलितों के लिये ये संरक्षण कारी उपाय पर्याप्‍त हैं ? या इसके लिये और प्रयासों के लिये आवश्‍यकता है ? सबसे अहम सवाल यह है कि इस नई आर्थिक नीति के सन्‍दर्भ में निजी क्षेत्र में आरक्षण (14) लागू करना, ऐसे हालातों में कितना सच होगा? इन यक्ष प्रश्‍नों के लिये हमें अतीत की ओर जाना पड़ेगा।

      भारत सरकार ने जब मंडल कमीशन(15) की रिपोर्ट स्‍वीकार की और इसके साथ ही आरक्षण नीति(16) की घोषणा सार्वजनिक हुई तो इसके फलस्‍वरूप पक्ष एवं विपक्ष में जो प्रतिक्रिया देखी गई वह ऐतिहासिक थी परन्‍तु वर्तमान में वह सब अतीत की बात हो गई लगती है। आरक्षण के नाम पर अब बहुत शोर शराबा नहीं होता है उसका प्रमुख कारण यह है कि केन्‍द्र सहित राज्‍य सरकारों के पास वित्‍त का अभाव है इसलिए सरकारी विभागों(17) में भर्तियों के न होने से आरक्षण को नीरस (बेमतलब) बना दिया है। स्‍वैच्‍छिक सेवानिवृत्‍ति, संविदा भर्ती आदि अस्‍थाई व्यवस्थाएं(18) इन्‍हीं आर्थिक नीतियों का आविष्‍कार(19) हैं। परन्‍तु यहाँ वास्‍तविकता यह है कि जैसे ही वैश्‍वीकरण(20) और उदारीकरण की नीति भारत ने स्‍वीकार की वैसे ही एक बार आरक्षण का मुद्दा फिर प्रबल (गर्म) हो उठा है और यह बात जोरदार ढंग से उठ रही है कि जो आरक्षण सार्वजनिक क्षेत्र(21) में मान्‍य था वह अब भी उसी स्‍थिति में निजी क्षेत्र में लागू हो।

निजी क्षेत्र जिसका एकमात्र उद्‌देश्‍य व्‍यवसाय उत्‍थान तथा अधिक से अधिक लाभ कमाने से है इसके साथ ही इन पर अधिकार भी लगभग वर्ग विश्‍ोष के लोगों का है। क्‍या ऐसी स्‍थिति में उसकी आर्थिक� नीति-नीति के पैरोकार इसे लागू होने देंगे ? कहा नहीं जा सकता है क्‍योंकि अभी तक किसी प्राइवेट सेक्‍टर के मालिक ने यह नहीं कहा कि हम अपने सेक्‍टर में सार्वजनिक आरक्षण को बहाल करेंगे। फिर आखिर आरक्षण का औचित्‍य ही क्‍या रहेगा, यह भी दलितों, पिछड़ों(22) के लिये विचारणीय प्रश्‍न है। क्‍या वैश्‍वीकरण का झुनझुना थमाकर आरक्षण व्‍यवस्‍था को एक सोची समझी साजिश के तहत हमारे संविधान(23) में प्रदत्‍त मूल अधिकारों के साथ छेड़छाड़ होने जा रही है ? तस्‍वीर बहुत कुछ साफ हो गयी है और इन नव-मनु ब्राह्मण वादी(24)� सोच के लोगों ने अपना जाल फैलाना शुरु कर दिया है एक बार पुनः दलित वर्ग को उसी दलदल में फँसाने की साजिश शुरू हो गई है। जरूरत है इस नई आर्थिक नीति के तीनों ज्‍वलनशील शब्‍दों उदारीकरण, निजीकरण, भूमण्‍डलीकरण को समझने की।


      महान्‌ विचारक अरस्‍तू के शब्‍दों में कहें तो ‘‘असमानता(25) क्रांति का मौलिक कारण है और क्रांति(26)� की ज्‍वाला सम्‍पूर्ण समाज(27) को भस्म सात कर देती है। अतः समाज में विकास, समृद्धि एवं अमन चैन के लिये समानता का होना नितांत आवश्‍यक है।'' इस कथन की सत्‍यता को हमारे मनीषियों एवं समाज सुधारकों ने अपने जीवन में उतारकर समाज के दबे-कुचले वर्ग के प्रति एक संघर्ष का उन्‍हें सबके समान लाने की महान कोशिश्‍ों कीं। जब देश को आजादी मिली तो उसमें सभी को समान अधिकारों के साथ आरक्षण (समतामूलक समाज में सभी को समान हिस्‍सेदारी) की व्‍यवस्‍था की गई। बाबा साहब द्वारा किया गया संघर्ष सार्वभौमिक है परन्‍तु आज बाबा साहब(28) भीमराव अम्‍बेडकर का सामाजिक न्‍याय का सपना गर्दिश में है और वर्तमान में दलितों की समस्‍याओं का समाधान आशानुरूप फलीभूत नहीं हो पा रहा है। हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा किये गये प्रयास कुंद एवं धूमिल हो रहे हैं क्‍योंकि इस नई आर्थिक नीति से जो अधिकारों की बात की जा रही है वह सब बेईमानी एवं संदेहास्‍पद सी लगती है।


      नई आर्थिक नीति भारत सरकार का अलग से कोई लिखित दस्‍तावेज नहीं है, बल्‍कि परिवर्तनों की महज एक प्रक्रिया है जिसकी शुरुआत 24 जुलाई, 1991 से हुई थी। इसके तहत वैश्‍वीकरण को बढ़ावा दिया गया है क्योंकि वैश्‍वीकरण एकरूपता एवं समरूपता की वह प्रक्रिया है, जिसमें सारा विश्‍व सिकुड़कर समा जाता है। उदारीकरण वह आर्थिक प्रक्रिया है, जिसमें कठोरताएं न हों और प्रक्रिया सम्‍बन्‍धी अनावश्‍यक विलम्‍ब न हो- अर्थात उदारीकरण से तात्‍पर्य अनियंत्रित एवं विनियमित अर्थव्‍यवस्‍था, मतलब लाइसेंस, कोटा, परमिटराज के स्‍थान पर बाजार केन्‍द्रित अर्थव्‍यवस्‍था के चलन से है अर्थात्‌ इसके द्वारा प्रतिस्‍पर्धात्‍मक एवं कार्य कुशलता को बढ़ावा दिया जाता है या यूं कहा जाये कि उदारीकरण के द्वारा संरक्षण की नीति को शनैः-शनैः समाप्‍त किया जाना सुनिश्‍चित सा लगता प्रतीत होता है। हमारी अपनी जड़ें ग्रामीण परिवेश से जुड़ी हुईं हैं यह बात सच है कि हमारे देश भारत के लगभग 80 प्रतिशत लोगों का निवास स्‍थान गांव ही है इसमें कोई दो राय नहीं कि इनमें से अधिकांश सदियों से शोषित एवं दयनीय स्‍थिति के गरीब तबके के लोग हैं जो निम्‍न स्‍थान पर धकेल दिये गये हैं साथ ही सदियों से इन्‍हें अवसरों से वंचित रखा गया है।

इन लोगों का जीवन यापन (रोजी-रोटी) लघु(29) एवं कुटीर उद्योग(30) ही रहे हैं। हमें यह स्‍वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि इनमें श्रम करने की कोई गहन तकनीक नहीं होती है। इसलिये इसमें रोजगार के अधिकतम अवसर सहज रूप में उपलब्‍ध हो जाते हैं जो दलित वर्ग को अधिक लाभ प्रदान करता है अर्थात्‌ इसके द्वारा दलितों को अधिक से अधिक रोजगार मुहैया होता है। सरकार की नई आर्थिक नीति में एक साजिश के तहत इन निकायों को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है जो समाज के एक वर्ग विश्‍ोष तक ही सीमित है। यह ध्रुव सत्‍य है कि जिस वर्ग ने सदियों से दलित वर्ग का दमन-शोषण किया, वह क्‍यों चाहेगा कि अपने निजी पैसे (व्‍यवसाय) से उनको लाभ पहुँचाये। आरक्षण की तो कल्‍पना ही नहीं कर सकते। यदि ऐसा होता है कि दलित वर्ग इसमें कार्य करें तो उनमें अनेक तरह की कमियां निकाल कर (उनकी कुशलता पर प्रश्‍नचिन्‍ह लगाकर) बाहर� का रास्‍ता भी तैयार कर दिया जाता है।

      नई आर्थिक नीति का दूसरा कुचक्र दलित वर्ग के लिए निजीकरण का तिलिस्‍म(31)है जिसमें यह माना गया है कि सार्वजनिक सेवाओं को पूर्णता या अंशतः निजी हाथों में सौंपने के साथ ही इसमें प्रतिस्‍पर्धात्‍मक, उत्‍पादकता, (32) कुशलता, गुणवत्‍ता इत्‍यादि के द्वारा विकास की बात कही गई है। यह तभी हो सकता है जब इन सेक्‍टरों को (सार्वजनिक) या तो निजी व्‍यक्‍ति के अधीन कर दिया जाय या कुछ हिस्‍सों को निजी क्षेत्रों को दे दिया जाय। कहने का तात्‍पर्य यह है कि इन दोनों की स्‍थितियों में हमारी आरक्षण की व्‍यवस्‍था पर ही चौतरफा हमला हो रहा है, क्‍योंकि निजी क्षेत्र का फलसफा है कि अधिक से अधिक कमाई हो, आरक्षण किस चिड़िया का नाम है इससे उन्‍हें कोई मतलब नहीं है।

निष्‍कर्षतः यह कहा जा सकता है कि निजीकरण की प्रक्रिया होने से हमारी सार्वजनिक सेवाओं, शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, रोटी, कपड़ा, मकान एवं यातायात, दूरसंचार(33) ऊर्जा(34) में वर्ग विश्‍ोष का कब्‍जा हो जाने से दलित वर्ग को मजबूरन इन मूलभूत सुविधाओं से वंचित होना पड़ेगा क्‍योंकि निजी क्षेत्र में आरक्षण का अभाव है। आरक्षण के अभाव में निजीकरण दलित वर्ग के लिए जानमारीकरण सिद्ध होगा। कितना विरोधाभास है कि एक ओर हमें आरक्षण जैसा संरक्षणवादी हथियार देकर हमारा सामाजिक, आर्थिक एवं मानसिक उत्‍थान(35) करने की बात की जाती है वहीं दूसरी ओर उदारीकरण एवं निजीकरण जैसी शक्‍तिशाली बाजारवादी नीतियों(36) की व्‍यवस्‍था के तहत हमारे मूल अधिकारों को खारिज किया जा रहा है। इनकी ये नीतियाँ आरक्षण व्यवस्था को सिरे से खारिज करती नजर आ रही है। यह मनुवादी (ब्राह्मणवादी षड्यन्त्र) सोच दलितों के समक्ष निकट भविष्‍य में एक नया संकट पैदा कर रही हैं।

      नई आर्थिक नीति का तीसरा कुचक्र भूमण्‍डलीकरण के रूप में दलितों के समक्ष एक नया षड्यंत्र है। भूमण्‍डलीकरण के द्वारा सम्‍पूर्ण विश्‍व में प्रतिबंधों एवं अवरोधों को पूरी तरह से समाप्‍त कर सार्वभौमिक(37) व्‍यवस्‍था कायम करने की बात कही जा रही है। इसका प्रमुख लक्ष्‍य मुक्‍त विश्‍व बाजार व्‍यवस्‍था से है और मुक्‍त विश्‍व बाजार की दिशा प्रतिभा या योग्‍यता पर निर्भर करती है न कि जाति वर्ग विश्‍ोष पर, आज भी भारतीय समाज में अधिकांशतः पिछड़ापन दलित वर्ग में ही है जो विकास में बाधक (भूमण्‍डलीकरण के तहत) है। जब पहले से ही लोगों में यह सोच बरकरार है तो दलित वर्ग इस व्‍यवस्‍था में अपने आपको कैसे फिट पायेगा, कहा नहीं जा सकता है। रोजगार भी इस व्‍यवस्‍था के तहत न के बराबर ही है। वास्‍तविकता भी है कि शोषित, पीड़ित वर्ग इस व्‍यवस्‍था में अपने आपको फिट नहीं कर पायेगा। फलतः शोषण/उत्‍पीड़न दलित वर्ग की दास्‍तां सी लगती है। यह शोषण असमानता को बढ़ायेगा और यह असमानता की खाई अरस्‍तू के शब्‍दों में ताकत प्रदान करती है' अर्थात्‌ क्रांति का जन्‍म असमानता ही है। परिणाम स्‍वरूप हमारा विकसित समाज एकबार फिर आपसी फूट का शिकार नजर आयेगा। अर्थात्‌ यह नई नीति दलितों के लिये पुरातन संस्‍कारों की ओर लौटने जैसी ही है क्‍योंकि जो विधान मनु ने दलितों के लिये बनाया था उसमें समाज के कुछ तथाकथित कुलीनवर्ग को ही स्‍थान था परन्‍तु, जो दूसरा संविधान हमारे बाबा साहेब ने बनाया उसमें सभी को समान स्‍थान पर रखा गया है। फलतः इस नई नीति के तहत ये नवमनु ब्राह्मणवादी मस्‍तिष्‍क के लोग एक षडयंत्र के तहत तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।


      इस प्रकार हम देखते हैं कि इस नई आर्थिक नीति के परिणामों ने आज दलित-शोषित(38) समाज के समक्ष नवीन यक्ष चुनौतियां पैदा कर दी हैं, परन्‍तु हम यहाँ यह कहना चाहेंगे कि हर कारण के पीछे एक वैज्ञानिक(39) नियम(40) हुआ करता है जिसके पीछे निश्‍चित तथ्‍य होते हैं और दलितों की इस नई नीति के पीछे भी मनुवादी ताक़तों का हाथ है। इन चुनौतियों से हमें घबड़ाना नहीं चाहिए बल्‍कि इसमें दलित वर्ग के हितों को बेहतर तरीके से मांग रखनी चाहिए। अब सिद्ध हो चुका है कि जब दलितों एवं पिछड़े वर्ग की सरकारें सत्‍ता में आयीं तभी ये हमें मालूम पड़ा है कि कितने सरकारी पदों पर किस वर्ग का कब्‍जा है और कितने पद अनारक्षित (खाली) हैं। इसका वृहद परिणाम बैकलॉग की भर्ती की स्‍थिति है। अर्थात्‌ आरक्षण का कोटा विगत बासठ वर्षों से पूर्णतः सम्‍पन्‍न नहीं हो पाया है।

एक बात का सदैव मनुवादी (नव ब्राह्मणवादी)(41) सोच के लोग ढिंढोरा पीटते रहते हैं कि आरक्षण से प्रतिभाओं का क्षरण हो रहा है। हमारे समक्ष कई ऐसे प्रमाण एवं प्रतिभाओं का भण्‍डार है जो दावे के साथ सफलता के सर्वोच्‍चतम बिन्‍दुओं पर खड़े हैं और दलित/पिछड़ा वर्ग ऊँचे से ऊँचे पदों पर बैठकर सफलतापूर्वक अपने कार्यों को पूरा कर रहे हैं। आज आवश्‍यकता इस बात की है कि शासन एवं प्रशासन में बैठे उच्‍च मानसिकता की सोच रखने वाले लोग अपनी नीति एवं नियति में परिवर्तन कर दलित वर्ग के प्रति अपनी पूर्वाग्रह से ग्रसित� भावनाओं को निकालें साथ ही नई संभावनाओं के साथ सच को स्‍वीकार करें कि बौद्धिकता/कुशलता पर जन्‍मना किसी का कापीराइट नहीं होता, वरन्‌ यह चमड़ा, मांस, रक्‍त के चलते फिरते हर प्राणी में अपने आप प्रवेश हो जाते हैं। अतः समाज के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी अपनी मनोवृत्‍ति एवं मनोदशा को शिक्षारूपी (मानसिक टॉनिक)(42) औषधि से बदलने का प्रयास करें तभी हम अपने समाज सुधारकों एवं मनीषियों के सपने को फलीभूत करने में सहायक होंगे।


सन्‍दर्भ ग्रन्‍थ सूची ः-
1. कृतिका, सम्‍पादक-डॉ0 वीरेन्‍द्र सिंह यादव, अंक जुलाई-दिसम्‍बर 2008, पृष्‍ठ 57
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4. रिसर्च जनरल्‌ ऑफ सोशल एण्‍ड लाइफ सांइस, सं0-प्रो0 ब्रजगोपाल, पृष्‍ठ 692 (जन0-जून 2009)
5. भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था, सम्‍पादक-मिश्र पुरी 1997, पृष्‍ठ 864
6. कृतिका, सम्‍पादक-डॉ0 वीरेन्‍द्र सिंह यादव, अंक जुलाई-दिसम्‍बर 2008, पृष्‍ठ 57
7.शोध संम्‍वेत, सम्‍पादक-डॉ0 श्‍याम सुन्‍दर, अंक अप्रैल-सितम्‍बर 2008, पृष्‍ठ 137
8. चिंतन की परम्‍परा और दलित साहित्‍य, सं0-डॉ0 श्‍यौराज सिंह बेचैन, डॉ0 देवेन्‍द्र चौबे, पृष्‍ठ 126
9. हिन्‍दी साहित्‍य में दलित चेतना, सम्‍पादक-डॉ0 आनंद वास्‍कर, पृष्‍ठ 298
10. दलित विमर्श ः सन्‍दर्भ गाँधी, सम्‍पादक-गिरिराज किशोर, पृष्‍ठ 142
11. भारत में जाति प्रथा, सम्‍पादक-जय प्रकाश कर्दम, पृष्‍ठ 59
12. कृतिका, सम्‍पादक-डॉ0 वीरेन्‍द्र सिंह यादव, अंक जुलाई-दिसम्‍बर 2008, पृष्‍ठ 59
13. दलित साहित्‍य का सौन्‍दर्यशास्‍त्र, सम्‍पादक-ओम प्रकाश वाल्‍मीकि, पृष्‍ठ 19
14. दलित विमर्श ः विकल्‍प का साहित्‍य, कुछ टिप्‍पणियां, कुछ सवाल, सं0-मूलचन्‍द्र सोनकर, पृष्‍ठ 10
15. गुलामगीरी, सम्‍पादक-डॉ0 विमल कीर्ति, पृष्‍ठ 06
16. दलित दखल, सम्‍पादक-डॉ0 श्‍यौराज सिंह बेचैन, डॉ0 रजतरानी ‘मीनू' , पृष्‍ठ 48
17. आपका आइना, सम्‍पादक-डॉ0 राम आशीष सिंह, अंक जनवरी-मार्च 2009, पृष्‍ठ 13
18. गिरिराज किशोर की कहानियों में युग चेतना, सम्‍पादक-डॉ0 सुरेश कानडे, पृष्‍ठ 232
19. हिन्‍दी साहित्‍य में दलित चेतना, सम्‍पादक-डॉ0 आनंद वास्‍कर, पृष्‍ठ 228
20. दलित साहित्‍य वार्षिकी 2005, सम्‍पादक-डॉ0 जय प्रकाश कर्दम, पृष्‍ठ 16
21. अम्‍बेडकर मिशन पत्रिका, सम्‍पादक-बुद्धशरण हंस, अंक जुलाई 2008, पृष्‍ठ 10
22. चिंतन की परम्‍परा और दलित साहित्‍य, सं0-डॉ0 श्‍यौराज सिंह बेचैन, डॉ0 देवेन्‍द्र चौबे, पृष्‍ठ 16
23. भारतीय समाज और दलिम राजनीति, सम्‍पादक-चन्‍द्रभान प्रसाद, पृष्‍ठ 32
24. दलित साहित्‍य का सौन्‍दर्यशास्‍त्र, सम्‍पादक-ओम प्रकाश वाल्‍मीकि, पृष्‍ठ 19
25. भारत में जाति प्रथा, सम्‍पादक-जय प्रकाश कर्दम, पृष्‍ठ 155
26. दलित विमर्श ः विकल्‍प का साहित्‍य, कुछ टिप्‍पड़ियां, कुछ सवाल, सं0-मूलचन्‍द्र सोनकर, पृष्‍ठ 11
27. चिंतन की परम्‍परा और दलित साहित्‍य, सं0-डॉ0 श्‍यौराज सिंह बेचैन, डॉ0 देवेन्‍द्र चौबे, पृष्‍ठ 290
28. गिरिराज किशोर की कहानियों में युग चेतना, सम्‍पादक-डॉ0 सुरेश कानडे, पृष्‍ठ 232
29.ऋग्‍वैदिक असुर और आर्य, सम्‍पादक-डॉ0 एस0 एल0 सिंह, पृष्‍ठ 387
30. शिक्षा कलश, सम्‍पादक-विपिन कुमार सिंह, अंक दिसम्‍बर 2008, पृष्‍ठ 128
31. दलित साहित्‍य का सौन्‍दर्यशास्‍त्र, सम्‍पादक-ओम प्रकाश वाल्‍मीकि, पृष्‍ठ 29
32. प्रमुख राजनीतिक विचार धाराएं, सम्‍पादक-डॉ0 कमलेश कुमार सिंह, पृष्‍ठ 123
33. कृतिका, सम्‍पादक-डॉ0 वीरेन्‍द्र सिंह यादव, अंक जनवरी-जून 2009, पृष्‍ठ(।)
34. रिसर्च जनरल्‌ ऑफ सोशल एण्‍ड लाइफ सांइस, सं0-प्रो0 ब्रजगोपाल, पृष्‍ठ 692 (जन0-जून 2009)
35. हिन्‍दी अनुशीलन, सम्‍पादक-डॉ0 राम कमल, अंक सितम्‍बर 2004, पृष्‍ठ 37
36. रिसर्च जनरल्‌ ऑफ सोशल एण्‍ड लाइफ सांइस, सं0-प्रो0 ब्रजगोपाल, पृष्‍ठ 692 (जन0-जून 2009)
37. भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था, सम्‍पादक-मिश्र पुरी 1997, पृष्‍ठ 750
38. गिरिराज किशोर की कहानियों में युग चेतना, सम्‍पादक-डॉ0 सुरेश कानडे, पृष्‍ठ 237
39. दलित साहित्‍य का सौन्‍दर्यशास्‍त्र, सम्‍पादक-ओम प्रकाश वाल्‍मीकि, पृष्‍ठ 31
40. दलित दखल, सम्‍पादक-डॉ0 श्‍यौराज सिंह बेचैन, डॉ0 रजतरानी ‘मीनू' , पृष्‍ठ 180
41. दलित मुक्‍ति का प्रश्‍न और दलित साहित्‍य, सम्‍पादक-दिनेश राम, पृष्‍ठ 75
42. कृतिका, सम्‍पादक-डॉ0 वीरेन्‍द्र सिंह यादव, अंक जनवरी-जून 2009, पृष्‍ठ (।)

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           युवा साहित्‍यकार के रूप में ख्‍याति प्राप्‍त डाँ वीरेन्‍द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्‍थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्‍त किया है। आपके पांच सौ से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्‍तर की स्‍तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्‍त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्‍दी में अनेक पुस्‍तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्‍द्र ने विश्व की ज्‍वलंत समस्‍याओं को शोधपरक ढंग से प्रस्‍तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्‍बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्‍व0 श्री हरि ठाकुर स्‍मृति पुरस्‍कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्‍बेडकर फेलोशिप सम्‍मान 2006, साहित्‍य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्‍मान 2008 सहित अनेक सम्‍मानों से उन्‍हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्‍च शिक्षा अध्‍ययन संस्‍थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ
वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ
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