13 दिसम्बर 1929 को रामपुर हवेली, जिला सहरसा (बिहार) में राजकमल चौधरी का जन्म हुआ। उनका वास्तविक नाम मणीन्द्र चौधरी था, राजकमल उ...
13 दिसम्बर
1929 को रामपुर हवेली, जिला सहरसा (बिहार) में राजकमल चौधरी का जन्म हुआ। उनका वास्तविक नाम मणीन्द्र चौधरी था, राजकमल उनके साहित्य जगत का नाम है। राजकमल चौधरी ने कविता, उपन्यास और कहानी विधा में रुचि दिखाई। उनके द्वारा लिखित कथा-साहित्य में ‘नदी बहती थी', ‘देहगाथा' एवं ‘मछली मरी हुई' काफी चर्चित उपन्यास हैंं। ‘शहर था या नहीं था', ‘अग्निस्नान', ‘एक अनार एक बीमार', ‘बीस रानियों का बाईस्कोप' और ‘अरण्यक' उनके अन्य उपन्यास हैंं। राजकमल ने लगभग एक सौ कहानियां भी लिखी, लेकिन उनकी प्रिय विधा कविता ही थी। राजकमल के ‘स्वरगंधा', ‘कंकावती', ‘मुक्तिप्रसंग', ‘इस अकाल वेला में' और ‘विचित्रा' नामक काव्य संकलन है। इसके पश्चात 2006 में देवशंकर नवीन के संपादन में ‘अॉडिट रिपोर्ट' नामक कविता संकलन प्रकाशित हुआ। इस संकलन में राजकमल की अधिकांश कविताएँ संकलित हैं। पर अभी भी यह कहने का साहस नहीं किया जा सकता कि राजकमल की सारी कविताएँ आ गई। फिर भी पूर्व प्रकाशित सभी कविता संग्रह की महत्त्वपूर्ण कविताओं को इस संग्रह में देखा जा सकता है।
राजकमल का जीवन, लेखन, मृत्यु सभी कुछ विवादास्पद रहा। उनकी मृत्यु के बाद उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व और विवादास्पद हो गया। एक तरफ समीक्षकों ने उनके काव्य को अश्लील और अपाठ्य घोषित करते हुए कहा- अच्छा हुआ साला मर गया पूरी न्यू राईटिंग को करप्ट कर रहा था तथा वह तो साला फ्रॉड था फ्रॉड। 1 एक समय ऐसा भी आया जब उन्हें साहित्य की दुनिया से बाहर कर देने की साजिश की गई। संक्षेप में उनके साहित्य और व्यक्तित्व संबंधी जितने अपशब्द कहे जा सकते थे, कहे गए। दूसरी तरफ हिन्दी की अनेक लघु पत्रिकाओं युयुत्सा, लहर, आधुनिका, दर्पण, निवेदिता, आरंभ, नईधारा आदि के अतिरिक्त मैथिली पत्रिकाओं ने राजकमल विशेषांक प्रकाशित किए, जिनमें प्रकाशित सभी लेख उन अपशब्दों का विरोध करते हैं और राजकमल की प्रशंसा। समकालीन कवियों ने उनके लेखन को संबोधित कर जितनी कविताएँ लिखी, उतनी हिन्दी के किसी बड़े से बड़े लेखक की मृत्यु पर शायद ही लिखी गई हो। इन दोनों पक्षों की सबसे बड़ी वजह राजकमल का खुला जीवन था जिसमें न दीवार, न दरवाजे, न खिड़कियां और न परदे थे। शायद इसी के चलते उन्हें अपने 37 वर्षों के अल्पजीवन में घोर उपेक्षा, अपमान और आत्मनिर्वाचन का शिकार होना पड़ा था। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि वे अपनी पीढ़ी के कुछ थोडे़ से ईमानदार कवियों और व्यक्तियों में से एक थे। उनकी इसी ईमानदारी की सजा उन्हें मरणोपरान्त भी मिलती रही, जिन्हें आज तक हिन्दी जगत ने संभवतः माफ नहीं किया है। उनकी गलती सिर्फ इतनी थी कि उन्होंने अपनी हर गलती को न केवल सार्वजनिक स्तर पर स्वीकार किया बल्कि उसे हुबहु लिखा भी। 2
साधारणतया राजकमल चौधरी का नाम लेते ही अश्लीलता, नग्नता और विद्रूपता अथवा कथ्य और टेक्नीक के धरातल पर अश्लील एवं अपाठ्य कवि दिखते हैं, जैसा कुछ कवि और समीक्षक बताते भी हैं। लेकिन वास्तविकता यह नहीं है। राजकमल की कविता की आलोचना करने वाले लोग प्रायः उनकी कविता में खुले शब्दों में सेक्स की चर्चा करने से बिदकते हैं। लेकिन उनकी कविताओं में केवल देह की राजनीति नहीं है।'3 ‘निषेध' एवं ‘अकविता' के पक्षधर कवियों में राजकमल चौधरी का नाम उल्लेखनीय है। वे ‘भूखी' और ‘बीट' पीढ़ी का प्रतिनिधित्व भी करते हैं। लेकिन राजकमल का महत्वपूर्ण कार्य कथ्य और टेक्नीक का एक नया धरातल स्थापित करना रहा। इस नये धरातल का उनके जीवनकाल में कम महत्त्व मिला, पर बाद में इसी कारण राजकमल को महत्त्वपूर्ण कवि तक घोषित किया गया। समकालीन लेखकों में इसे काफी लोकप्रियता भी मिली। यह कथ्य और टेक्नीक अनैतिक नहीं है बल्कि परम्परागत मूल्यों का विध्वंस, राजनीतिक पूंजीवादी व्यवस्था से विद्रोह और नगरीय विद्रूपताओं का पर्दाफाश करता है। कुछ कविताएँ ऐसी भी हैं जो सामान्यतः बकवास सी लगती हैं, किन्तु जब राजकमल का मन्तव्य और कविता का मूल अर्थ खुलता है तब कविता की सार्थकता उभरती है। हो सकता है इसे कुछ विद्वान स्वीकार न करें, लेकिन यह सत्य है। वैचारिक परिपे्रक्ष्य के आधार पर कई बार रचनाकार रद्द कर दिये जाते रहे हैं पर उनके अनुभव जगत में छिपा तनाव बावजूद इसके आने वाले समय के लिए भी प्रासंगिक बना रहता है- राजकमल चौधरी ऐसे ही कवियों में से एक हैं।'4.
स्वतन्त्रता के पश्चात आम भारतीय ने एक सुनहरा सपना देखा था। कुछ वर्षों तक आशाएँ भी बनी रही, लेकिन दूसरे आम चुनाव (1957) के बाद स्थिति धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगी। भविष्य के जो सपने आम भारतीय ने देखे थे वो पूरे होते नहीं दिखे। उस समय राजनीतिक भ्रष्टाचार चारों तरफ फैला हुआ था। ऐसी स्थिति में एक सजग रचनाकार का जो दायित्व होता है उसे राजकमल ने बखूबी समझा और अपनी कविताओं के माध्यम से कटु यथार्थ हमारे सामने रखा। वैसे कविता के साथ राजनीति का संबंध पुराना और गहरा है लेकिन कविता के इस साठोत्तरी दौर में राजनीति केंद्रीय स्थिति पा जाती है और राजकमल ने इसे क्रूर और नंगे अमानवीय रूप में हमारे सामने प्रस्तुत किया है। आजकल कांग्रेस सरकार में कैसे-कैसे व्यक्ति मंत्री बन रहे हैं, उनकी योग्यताऐं क्या हैं। राजकमल के शब्दों में-
कोई भी भारतवासी
हत्या बलात्कार आगजनी काला बाजार दवाओं में
पत्थरों का चूरन भरने के
समस्त अपराध लगातार 18 वर्षों
करते रहने के बाद ही कांग्रेसी सरकारों का
मंत्री उपमंत्री राज्य मंत्री हो सकता है।
जिस व्यक्ति में नैतिकता ही नहीं बची हो तथा जो अपराध में संलग्न हो- वह भी लगातार अठारह वर्षों तक। वह जब राजनेता अथवा मंत्री बनने लगे तो जनता के प्रति उत्तरदायी कैसे हो सकता है ? ऐसे अपराधियों (नेताओं) से देश का भविष्य क्या होगा ? आसानी से सोचा जा सकता है।
आज़ादी के बाद पंचवर्षीय-योजनाओं का क्रियान्वयन किया गया। जिससे देश की समृद्धि के साथ विकास हो सके, लेकिन हुआ क्या ? कुछ नहीं। ये योजनाऐं खोखली साबित हुई। इन योजनाओं के मोहजाल में आम-आदमी फंसा रहा। आकाशवाणी केवल पंचवर्षीय- योजनाओं की बातें करती रही, लेकिन जब योजनाओं की असफलता समझ आई तो राजकमल क्षुब्ध हो उठे और कहने लगे-
सतरह साल हो गए पूरे सतरह
साल। चौथी योजना भी
अब पूरी होने को आई
लेकिन
क्या हुआ ? किसके लिए
उत्तर कोई नहीं देगा
उत्तर नहीं है।
राजकमल की कविताएँ निरन्तर राजनीतिक व्यवस्था का यथार्थ चित्रण करती हैं। राजकमल आगे बताते हैं कि अन्न मंत्री किस तरह देश के अन्न संकट का गलत कारण बताकर बरगलाते हैं। खाद्य विभाग के अन्नमंत्री अपने बजट पर बहस का उत्तर किस तरह देते हैं देखिए-
लोकसभा में अन्नमंत्री कहते हैं कोई पांच अरब चूहे
इस देश में
बजट के अंको टेक्सों के रेखागणित में डूबे हुए इस देश में
चूहों की जनसंख्या सबसे भयानक प्रश्न है।
कुछ इसी तरह राज्यसभा में अन्न उपमंत्री बयान देते हैं-
राज्य सभा में अन्न उपमंत्री ने बताया है-देश में
बसते हैं
कोई पौने पांच अरब चूहे
(और बिल्लियां ? कुत्ते ?)
सुनो हम अपने नाटक में कुत्ते बिल्लियों की संख्या
निर्धारित करें....................।
यहाँ राजकमल मंत्री नेताओं को चूहों से ज्यादा खतरनाक मानते हैं। देश में भुखमरी है और लोकसभा में अन्नमंत्री तथा राज्यसभा में अन्न उपमंत्री भुखमरी के संबंध में बयानबाजी करते हैं कि चूहों की जनसंख्या निर्धारित करें। चूहों की बहुलता खेत में फसलों को नुकसान पहुँचाती है जिसके कारण पैदावर अच्छी नहीं हो पाती। बाकी पैदावर चूहे अन्नगृहों में खा जाते हैं। इस कारण देश में अन्न की कमी है। इस अन्न की कमी को पूरा करने के लिए हमें अमेरिका से गेहूं के लिए हाथ फैलाने पड़ते हैं। देश के विकास के लिए हमें विश्व-बैंक से ऋण लेना पड़ता है और इस भीख और ऋण के चलते चाहे पूरा देश ही क्यों न बिक जाए-
आदमी वर्ल्ड-बैंक से तीस करोड़ डालर ले जाए
आदमी खुद बिके अथवा बेच डाले अपनी स्त्री अपनी आंखे अपना देश।
कवि कहता है कि आम-आदमी के लिए विकास की बात करना निरर्थक है क्योंकि आम-आदमी विकास की बात पेट भरने के लिए गेहूं और सोने के लिए गंदे बिस्तर मिलने के बाद सोचता है। उसके लिए दूसरी चिंताओं का कोई अर्थ नहीं है। पेट की चिंता सबसे बड़ी चिंता है-
मगर भीड़ अब खाने के लिए गेहूं
और सो जाने के लिए किसी भी गंदे बिस्तर के सिवा कोई बात
नहीं कहती है
प्रजाजनों के शब्दकोश में नहीं रह गये हैं दूसरे शब्द दूसरे वाक्य
दूसरी चिंताऐं नहीं रह गई हैं।
आज आमजन बढ़ती मंहगाई, बेरोजगारी और भुखमरी से चिंतित है देश के विकास को लेकर नहीं। राजनेता विकास के नाम पर विदेशियों से भीख मांगने में जरा भी संकोच नहीं करते। जब भिक्षा के रूप में उन्हें कुछ विदेशी मुद्रा मिल जाती है तो वे इस मुद्रा का उपयोग देश के विकास के लिए कम और आत्मविकास के लिए अधिक करते हैं। विदेशों से भिक्षा मांगने में नेता कैसे पारंगत होते जा रहे हैं राजकमल चौधरी के शब्दों में-
हमारे भाग्य विधाता डॉलर रूबल पौंड
क्षेत्रों की भिक्षाटन-यात्राओं में क्रमश निर्लज्ज पारंगत होते जा
रहे हैं साहसी।
स्वतन्त्रता का सपना सुखदायी और सुन्दर था किन्तु वह विकृत और वीभत्स साबित हुआ। स्वतन्त्रता का रूप ‘पागल काली मरी हुई स्त्री' है जो पानी और अपना पेट भरने के लिए अनाज हेतु सरकार से भीख मांगती है। लेकिन उसे कुछ नहीं मिलता । वह राजनीतिज्ञों के कृत्यों से गंभीर रूप से आहत है। राजकमल कहते हैं आजादी का अर्थ ही क्या है जबकि हम पानी और अनाज जैसी बुनियादी समस्याओं का समाधान नहीं कर पाए। राजकमल की ‘मुक्तिप्रसंग' कविता की यह पंक्तियां इसी खोखले राजतन्त्र और स्वतन्त्रता के पश्चात की घोर निराशा को व्यक्त करती हैं-
ग्यारह बजकर उनसठ मिनट पर हर रात
शहीद स्मारक के नीचे नंगी होती है
पागल काली मरी हुई स्त्री
उजाड़ आसमान में दोनों बाहें फैलाकर
रोने के लिए
रोते हुए जाने के लिए पानी और अनाज
के देवताओं से भीख मांगती है।
लोकतन्त्र का अर्थ होता है लोक का शासन। क्या आजादी के बाद सही मायनों में लोकतंत्र स्थापित हो पाया। लोकतांत्रिक व्यवस्था के संबंध में अंतिम निर्णय लोगों का होना चाहिए। क्या ऐसा हुआ है ? बिलकुल नहीं। इसलिए राजकमल आम-आदमी को लोकतंत्र की इस सरकार से अलग होने के लिए कहते है अर्थात् ऐसे लोकतन्त्र को अस्वीकार करते हैं यथा-
आदमी को तोड़ती नहीं हैं लोकतांत्रिक पद्धतियां केवल पेट के बल
उसे झुका देती हैं धीरे-धीरे अपाहिज
धीरे-धीरे नपुसंक बना लेने के लिए उसे शिष्ट राजभक्त देशप्रेमी नागरिक
बना लेती हैं
आदमी को इस लोकतंत्री सरकार से अलग हो जाना चाहिये।
जिसे जनतंत्र कहा जाता था, लोकतांत्रिक व्यवस्था की जो विशेषताएं थी और होनी चाहिए, वही आज संक्रामक रोग बन गई है। सत्ताधारियों ने हमारे देश को रोग-पीड़ित बना दिया है-
जिसे कहते थे समय दरअसल जनतंत्र है
संसदीय लोकतांत्रिक समाज-शैलिक मानव धर्मी धर्म सम्मत धर्म निरपेक्ष
यह संक्रामक रोग।
राजकमल का विद्रोह सिर्फ राजनीति के प्रति ही नहीं, उन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था की विद्रूपता का भी चित्रण किया है। आज़ादी के बाद यह सोचा गया था कि पूंजीवादी व्यवस्था देश से समाप्त हो जाएगी किन्तु इसके विपरीत पूंजीवादी व्यवस्था स्थापित हो गई। आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक सारे क्षेत्रों पर पूंजीवादियों ने एकाधिकार स्थापित कर लिया। राजकमल चौधरी सदैव पूंजीवादी व्यवस्था और विचारों का विरोध करते रहे। वे ‘मुक्तिप्रसंग' कविता में पूंजीवादी व्यवस्था की विद्रूपता को इस तरह अभिव्यक्त करते हैं-
केवल हवा, कीडे़ ज़ख्म और गंदे पनाले है अधिकस्थानों पर इस देश में
जहां सड़क फट गई है नसें, वहां हवा तक नहीं
ऊपर की त्वचा चीटने पर आग नही निकलेगी नहीं धुआं
जठाराग्नि.................दावानल..................
सब बुझ गए अचानक पहले पन्द्रह अगस्त की पहली रात के
बाद अब राख ही राख बच गया है पीला मवाद।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि राजकमल चौधरी की कविताओं में राजनीतिक चेतना का विद्रोही स्वरूप देखा जा सकता तथा उनकी कविताएँ आम जनमानस को ललकारने और उसे अपनी उस ताकत की याद दिलाने का गीत है, जिसे व्यवस्था की चकाचौंध रोशनी में या बेहताशा शोरगुल में जनता भूल गई थी।
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पताः-गजेन्द्र कुमार मीणा द्वारा राजेन्द्र खराड़ी
305 ‘बी' ब्लॉक हिरण मगरी सेक्टर-14
उदयपुर (राज.) 313001
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1. युयुत्साः राजकमल अंकः राजकमल की स्मृति, कुछ ईमानदार प्रतिक्रियाऐं- भीमसेन त्यागी 1966-67
2. कवियों की पृथ्वी- डॉ. अरविन्द त्रिपाठी पृ.सं. 80 आधार प्रकाशन पंचकूला, हरियाणा प्र.सं. 2004
3. मेरे साक्षात्कार- मैनेजर पाण्डेय पृ.सं. 24 किताब घर प्रकाशन, नई दिल्ली प्र.सं. 1998
4. कविता की संगत- विजय कुमार पृ.सं. 42 आधार प्रकाशन पंचकूला, हरियाणा प्र.सं. 1995
5. समस्त उद्वरण ऑडिट रिपोर्ट- राजकमल चौधरी से उद्धृत वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली प्र.सं. 2006
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