सन् 1928 से लेकर 1935 के दस वर्ष के अछूतोद्धार आंदोलन का आकलन करें तो पुष्टि होगी कि यह आंदोलन दलितों के मंदिर प्रवेश तक केन्द्रित रहा। हिन्...
सन् 1928 से लेकर 1935 के दस वर्ष के अछूतोद्धार आंदोलन का आकलन करें तो पुष्टि होगी कि यह आंदोलन दलितों के मंदिर प्रवेश तक केन्द्रित रहा। हिन्दू महासभा धर्म के नाम पर, गांधी जी राजनीति के प्लेटफार्म पर तथा मुंशी प्रेमचंद अपनी कहानियों, उपन्यासों और विचारों के माध्यम से अछूतों के लिए मंदिर प्रवेश की मुहिम छेड़े थे। इनका एक मात्र ध्येय यह था कि दलित अपनी दरिद्रता के बावजूद हिन्दू बने रहें। हिन्दू संस्कारों से सराबोर प्रेमचंद मंदिर मूर्ति को हिन्दुत्व का सच और सत मानते हैं।
प्रेमचन्द की 'मंत्र' 'सौभाग्य के कोड़े', 'मंदिर' जैसी कहानियाँ आईना हैं।
रंगभूमि उपन्यास तथा उनके मूल विचार भी इसी सूझ के संवाहक है। रंगभूमि में वे सूरदास नामक पात्र से अपनी मंशा प्रकट कराते हैं - ''यही अभिलाषा थी कि यहां एक कुआं और छोटा सा मंदिर बनवा देता, मरने के पीछे अपनी कुछ निशानी रहती।'' (रंगभूमि-भाग-7)
उन दिनों शिक्षा का प्रसार-प्रचार बहुत तेजी से हो रहा था, प्रेमचंद की प्रगतिशीलता यह थी कि वे मंदिर की बजाय शालाएं बनवाते। कहना होगा की मंदिर बनवा कर भी सूरदास का उस पर हक नहीं रह पाता। वहां कोई पुरोहित हक जमा लेता है और छुआछूत बढ़ती है। जहां मंदिर है, उनके ईद-गिर्द अस्पृश्यता उत्साही है।
सन् 1927 में लिखी गई विवेच्च कहानी 'मंदिर' पर एक नज़र।
प्रेमचंद 'मंदिर' कहानी में विधवा सुखिया, जो अछूत, अनपढ़ और अज्ञानी है, में मंदिर और मूर्ति के प्रति श्रद्धा की बारूद भरते हैं। उसे पति-दर्शन का स्वप्न दिखाया जाता है। स्वप्न की यह कला प्रवीणता तांत्रिक क्रिया में स्थान पाती है।
''तीन पहर रात बीत चुकी थी। सुखिया का चिंता-व्यथित चंचल मन कोठे-कोठे दौड़ रहा था। किस देवी की शरण जाए, किस देवता की मनौती करे, इस सोच में पड़े-पड़े उसे एक झपकी आ गई। क्या देखती है कि उसका स्वामी बालक के सिरहाने आ कर खड़ा हो जाता है और बालक के सिर पर हाथ फेर कर कहता है-''रो मत सुखिया, तेरा बालक अच्छा हो जाएगा। कल ठाकुर जी की पूजा कर दे, वही तेरे सहायक होंगे।'' यह कह कर वह चला गया। सुखिया की आंख खुल गई। अवश्य ही उसके पतिदेव आये थे। इसमें सुखिया को जरा भी संदेह नहीं हुआ। उन्हें अब भी मेरी सुधि है। यह सोच कर उसका हृदय आशा से परिप्लावित हो उठा। पति के प्रति श्रद्धा और प्रेम से उसकी आंखें सजल हो गईं। उसने बालक को गोद में उठा लिया और आकाश की ओर ताकती हुई बोली - ''भगवन, मेरा बालक अच्छा हो जाए, तो मैं तुम्हारी पूजा करूंगी, अनाथ विधवा पर दया करो।''
''उसी समय जियावन की आंखें खुल गईं। उसने पानी मांगा। माता ने दौड़ कर कटोरे में पानी लिया और बच्चे को पिला दिया।''
सपने जो प्रायः अवास्तविक और मिथ्या हुआ करते हैं, कहानी में यथार्थ और रूबरू बताया है। किसी विधवा की शोक संतप्त भावनाओं को भुनाने का इससे कारगर स्वांग दूसरा नहीं हो सकता। विश्वास और आस्था का इससे बड़ा सेतु और क्या हो, किसी का दिवंगत पति स्वप्न में आ कर यह यकीन दिला दे कि उसका बीमार बेटा ठाकुर जी की अर्चना से ठीक हो जाएगा। भूत-प्रेत, भाग्य-भगवान के प्रति अज्ञान वैसे ही उर्वरा है।
प्रेमचंद विधवा सुखिया के बच्चे का इलाज किसी डाक्टर, वैद्य अथवा हकीम से कराने की बजाय मूर्ति से करते हैं। वे उसमें मूति के प्रति ऐसी अंधश्रद्धा पैदा करते हैं कि सुखिया पागलपन की हद तक पहुंच जाती है।
कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम की गोली कह कर उसे बेजरूरी बताया, प्रेमचंद धर्म को संजीवनी बूटी बता कर जीवन का सार सिद्ध करते हैं। धर्म दवा या दुआ के रूप में इंसान का हितैषी नहीं रहा। वह दगा या धूर्त्तता के बाने आदमी पर हावी रहा है। आदमी गरीब या अज्ञानी हो, धर्म जोंक बन जाता है। मंदिर और मूर्ति धर्म के निवेशी रूप है।
स्वामी विवेकानंद जो प्रेमचंद की ही जात विरादरी के थे, उन्होंने एक बात पते की कही है। संभवत प्रेमचंद का ध्यान उधर नहीं गया।
स्वामी जी कहते हैं- ''यदि ईश्वर है, तो हमें उसे देखना चाहिए, अगर आत्मा है, तो हमें उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति कर लेनी चाहिये। अन्यथा उन पर विश्वास न करना ही अच्छा है। ढोंगी बनने की अपेक्षा स्पष्ट रूप से नास्तिक बनना अच्छा है।''
यहां ढोंग 'मंदिर' कहानी का केन्द्रीय कथानक है।
स्वामी दयानंद सरस्वती जिनका बचपन का नाम मूलशंकर था, वे अपने घर परिवार में एक धार्मिक अनुष्ठान में उपस्थित हुए। जब सब सो गये, मूलशंकर के बालमन में भगवान के अस्तित्व के बारे में एक जिज्ञासा उत्पन्न हो गई। देखूं ईश्वर का रूप क्या है? बीती रात तक मूर्ति से भगवान प्रकट नहीं हुआ। हाँ सन्नाटे से आश्वस्त एक भूखा चूहा अपने भोजन के लिए भटकता हुआ वहां आया। वह बेखौफ वहां रखे ठाकुर जी के प्रसाद को खाता रहा। जब अफर गया, मूर्ति के पैर से होता उसके सिर चढ़ बैठा। बालक मूलशंकर को ज्ञान आया। इस ज्ञान ने उसकी समूची जिंदगी ही बदल दी। जो भगवान चूहे जैसे एक छोटे से जीव से अपने प्रसाद और खुद की सुरक्षा नहीं कर पाता, वह सर्वशक्तिमान और जग का पालनहार कैसे हुआ? भगवान मिथ्या है। आगे चल कर स्वामी जी ने भगवान के इसी मिथ्या रूप को जन-जन तक पहुंचाने के लिए सन् 1875 में आर्य समाज की स्थापना की। आर्य समाज ने न केवल भगवान के अस्तित्व को ही नकारा, बल्कि मंदिर और मूर्तिपूजा का भी पुरजोर खण्डन किया।
जो ठाकुर जी चूहे जैसे एक छोटे से जीव से अपने प्रसाद की रक्षा नहीं कर पाये, प्रेमचंद उन्हीं ठाकुर जी की मूर्ति की पूजा अर्चना के लिए सुखिया को प्रेरित करते हैं, कि उसका मरणासन्न पुत्र स्वस्थ हो जायेगा। बात यहां नोक बन जाती है कि स्वयं आर्यसमाज से जुड़े रह कर भी प्रेमचंद ने मंदिर कहानी लिखी। प्रगतिशील विचारों का कोई भी शख्स इसे बुद्धि का दिवालियापन कहे बिना नहीं सकता।
प्रेमचंद का ध्येय अछूतों को मंदिर प्रवेश तक ही था। अछूतों को आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बनाने, शैक्षणिक दृष्टि से उनका उन्नयन कराने, सामाजिक दृष्टि से समानता लाने, छुआछूत मिटाने और सामूहिक भोज कराने की महात्मा फूले और गांधीजी जैसी प्रगतिशील सोच में उनकी दिलचस्पी कतई नहीं थी।
वे कहते हैं - ''खाने पीने की सम्मिलित प्रथा अभी हिन्दुओं में नहीं है, अछूतों के साथ कैसे हो सकती है? शहरों में दो चार सौ आदमियों के अछूतों के साथ भोजन कर लेने से यह समस्या हल नहीं हो सकती, शादी ब्याह इससे भी कठिन प्रश्न है। जब एक ही जाति की भिन्न-भिन्न शाखाओं में शादी नहीं हो सकती, तो अछूतों के साथ यह संबंध कैसे हो सकता है ?
(प्रेमचंद के विचार भाग-2, हरिजनों का मंदिर प्रवेश का प्रश्न, पृष्ठ-16, नवम्बर 14,1932)
प्रेमचंद के ये विचार डॉ. अम्बेडकर के विचारों का भी सीधा प्रतिकार है। डॉ. अम्बेडकर अपनी हर सभा में कहते थे कि साथ-साथ रहने, सामूहिक भोजों का आयोजन करने तथा अन्तर्जातीय विवाहों की परम्परा प्रारंभ करने से ही जातिभेद और अस्पृश्यता का विनाश हो सकता है।''
बाबा साहब के प्रयास से नागपुर में अछूत छात्रों के लिए एक अलग छात्रावास बना था, ताकि वे छात्र छुआछूत और जात-पांत के साया से दूर, यहां रह कर अपना शैक्षणिक विकास कर सकें। यह सद्कार्य प्रेमचंद की आंख की किरकिरी बन गया।
''नागपुर में हरिजन बालकों के लिए एक अलग छात्रावास बनाया गया हैं। इससे तो अछूतपन मिटेगा नहीं और दृढ़ होगा। उन्हें तो साधारण छात्रालयों में बिना किसी विचार के स्थान मिलना चाहिये। (प्रेमचन्द के विचार भाग-2/हरिजन बालकों के लिए छात्रालय/पृष्ठ 20/5 दिसम्बर, 1932)
प्रेमचंद अपने विचारों की एकरूपता से पीछे हटते हैं। 14 नवम्बर, 1932 के लेख में ये कहते हैं कि खाने पीने की सम्मिलित प्रथा अभी तक हिन्दुओं में ही नहीं है, अछूतों में कैसे हो सकती है? इसके 21 दिन बाद अर्थात 5 दिसम्बर, 1932 के लेख में लिखते हैं कि उन्हें तो साधारण छात्रालयों में बिना किसी विचार के स्थान मिलना चाहिये। (बिन पेंदे का लौटा उन्हीं का ईजाद किया मुहावरा है) यानि दलितों के प्रत्येक साहसिक कदम का उन्होंने विरोध किया।
अगर प्रेमचंद की बात भारत में लागू हो जाती, तो करोड़ों-करोड़ दलित छात्र-छात्राओं का भविष्य नहीं बन पाता। एक अनुमान के अनुसार आज भी पूरे भारत में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए जो पृथक छात्रावास संचालित किये जा रहे हैं, उनमें 80 लाख छात्र-छात्राएं अध्ययन कर रहे हैं। राजस्थान सरकार के छात्रावासों में 28 हजार विद्यार्थी रहते हैं। प्रेमचंद के विचारों में दकियानूसीपन और विचलन दोनों ही थे।
वे दलितों के साथ खान-पान और अलग छात्रावास बनाने का भी विरोध जताते हैं। उनका आशय प्रत्यक्षतः यह हैं कि दलितों को शिक्षा से अलग किये रखो, तभी वे मंदिर और मूर्ति में आस्था रख हिन्दू धर्म को बहुसंख्यक बनाये रहेंगे।
आइये 'मंदिर' कहानी की ओर बढ़े -
''दिनभर जियावन की तबीयत अच्छी रही। ...... जाड़े के दिन झाडू-बुहारी, नहाने-धोने और खाने-पीने में कट गये। मगर जब संध्या समय फिर जियावन का सिर भारी हो गया, तब सुखिया घबरा उठी। तुरंत मन में शंका उत्पन्न हुई कि पूजा में विलंब से ही बालक फिर से मुरझा गया है। अभी थोड़ा सा दिन बाकी था। बच्चे को लेटा कर वह पूजा का सामान तैयार करने लगी। फूल तो जमींदार के बगीचे से मिल गये। तुलसीदल द्वार पर ही था। पर ठाकुर जी के भोग के लिये कुछ मिष्ठान चाहिये, नहीं तो गांव वालों को बांटेगी क्या? चढ़ाने के लिए कम से कम एक आना तो चाहिए। सारा गांव छान आयी कहीं पैसे उधार नहीं मिले। अब वह हताश हो गयी। हाय रे अदिन! कोई चार आने पैसे भी नहीं देता। आखिर उसने अपने हाथों के चांदी के कड़े उतारे और दौड़ी हुई बनिये की दुकान पर गई। कड़े गिरो रखे, बताशे लिए और दौड़ी हुई घर आई। पूजा का सामान तैयार हो गया, तो उसने बालक को गोद में उठाया और दूसरे हाथ में पूजा की थाली लिए मंदिर की ओर चली।'' (मंदिर)
सुखिया का लड़का जियावन दिन भर ठीक रहता है। संभवतः उसे मियादी बुखार जैसी कोई बीमारी हो। इस बीमारी के चलते मरीज दिन में अपेक्षाकृत स्वस्थ महसूस करता है, लेकिन संध्या होते उसकी तबीयत नासाज होने लगती है।
यहां कहानी अंधविश्वास के पहलू में चली जाती है। बालक की बीमारी से आजिज सुखिया बालक को गोदी में लिए तथा दूसरे हाथ में पूजा का थाल लिए मंदिर के द्वार पर जा खड़ी होती है।
पुजारी बोले- ''तो क्या भीतर चली आएगी? हो तो चुकी पूजा। यहां आकर भी भ्रष्ट करेगी?''
सुखिया ने बड़ी दीनता से कहा- '' ठाकुर जी के चरण छूने आई हूं, सरकार पूजा की सब सामग्री लाई हूं।''
पुजारी- ''कैसी बेसमझी की बात करती है, रे। कुछ पगली तो नहीं हो गई। भला तू ठाकुर जी को कैसे छुएगी?''
सुखिया को अब तक ठाकुर द्वारे में आने का अवसर नहीं मिला था। आश्चर्य से बोली- ''सरकार वे तो संसार के मालिक हैं, उनके दर्शन से तो पापी भी तर जाता है, मेरे छूने से उन्हें कैसे छूत लग जाएगी?''
पुजारी- ''अरे, तू चमारिन है कि नहीं रे?
सुखिया- ''तो क्या भगवान ने चमारों को नहीं सिरजा है? चमारों का भगवान कोई और है? इस बच्चे की मनौती है सरकार।'' इस पर वहीं एक भक्त महोदय, जो अब स्तुति समाप्त कर चुके थे, बोले- 'मार कर भगा दो चुड़ैल को। भ्रष्ट करने आई है। फेंक दो थाली वाली। संसार में तो आप ही आग लगी हुई है। चमार भी ठाकुर जी की पूजा करने लगेंगे, तो पिरथी रहेगी कि रसातल को चली जाएगी।'
यहां रूढ़िवादिता है। धर्म का महिमा-मण्डन कहानी का देशकाल बन जाता हैं। धर्म भीरूता कहानी के रोंए रेशे हो जाते हैं। कहानी में ब्राह्मणत्व और शूद्रत्व का वर्ण व्यवस्था की दृष्टि से नाप-जोख होती है। कहानी सनातनी संस्कारों में पलती बड़ी होती है, जहां एक जाति विशेष के प्रति पूर्वाग्रह पानी पर काई की तरह तैरते हैं, वहीं कहानी मानवीय संवेदनाओं, सामाजिक सरोकारों और समय सापेक्ष बदलाव से पूरी तरह मुंह फेरे है। ''कलम का सिपाही'' भीख को सम्मान और श्रम को अपमान मानता है।
मुंशी प्रेमचन्द दलितों के प्रति जिस भाषा का प्रयोग करते हैं, वह भी हृदय चीरती है। चूंकि पूरी तरह दुराग्रही, फूहड़ और असंतुलित है। उनकी कहानियों और उपन्यासों में चमारिनों के लिए चुड़ैल और चमारों तथा आदिवासियों के लिए चाण्डल जैसे निकृष्टतम शब्द बहुधा प्रयुक्त हुए हैं। लांछनिक भाषा का यह प्रयोग खून निकालता है। वरिष्ठ लेखक विभूति नारायण राय की बात जंचती है। परोक्षतः उनका संकेत प्रेमचन्द द्वारा दलित पात्रों के लिये अपनायी भाषा की ओर है।
''देश के जिन भागों पर वर्णव्यवस्था की जकड़न जितनी मजबूत थी, उनकी भाषा उतनी ही क्रूर और दुर्बल विरोधी थी। हिन्दी का उदाहरण लें तो स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। दलितों और स्त्रियों को ले कर तमाम गालियां हैं।'' (वर्णाश्रमी असभ्यता/विभूतिनारायण/अन्यथा/अंक-4/अगस्त, 2005/पृष्ठ 83)
''मंदिर'' कहानी धर्मान्धता की ओर बढ़ चली है। 'पुजारी संभल कर बोले- ''अरी पगली ठाकुर जी भक्तों के मन के भाव देखते हैं, कि चरणों पर गिरना देखते हैं। सुना नहीं है - 'मन चंगा तो कठौती में गंगा।' मन में भक्ति न हो तो लाख कोई भगवान के चरणों में गिरे, कुछ न होगा। मेरे पास एक जंतर है। दाम तो उसका बहुत है, पर तुझे एक ही रूपये में दे दूंगा।''
सुखिया - ''ठाकुर जी की पूजा न करने दोगे?''
पुजारी - ''तेरे लिए इतनी ही पूजा बहुत है। तू यह जंतर ले जा, भगवान चाहेंगे, तो रात ही भर में बच्चे का क्लेश कट जाएगा। किसी की दीढ़ पड़ गई हैं। है भी तो चोंचाल। मालूम होता है, छतरी बंस है।''
''मालूम होता है, छतरी बंस है।''
यहां सुखिया के चरित्र पर सीधा लांछन है, चरित्र हीनता का। प्रेमचन्द कहना यह चाहते हैं कि वह लड़का उसके मृत पति का खून नहीं, किसी गैर (क्षत्री) की जारज संतान है। सुखिया गरीब है। चमार है। बीमार बच्चा उसकी गोदी में है, चारों ओर से बिंधी क्या कहे बेचारी। महिलाओं के चरित्र को ले कर प्रेमचंद कुछ ज्यादा ही संशयी और अविश्वासी रहे हैं।
''गोदान'' के नारी पात्रों में सिलिया का चरित्र सबसे पतित है, क्यों कि वह चमार है। ''मंदिर'' की सुखिया चमारिन पर सीधा यह लांछन है कि उसका बेटा छतरी बंस है। क्यों कि वह चमार है। यहां छतरी बंस होना कहानी की मांग नहीं है, लेकिन वर्णवादी मानसिकता लेखक का पीछा नहीं छोड़ती। अपनी यौन शुचिता के कारण जहां गांव को स्वर्ग कहा गया है, वहीं प्रेमचन्द ग्रामीण पात्रों में यौनिक व्यवहार की अति दिखाकर गांव को नरक सिद्ध करते हैं।
एक सृजन होता है, सार्वभौम, और दूसरा होता है, स्वभौम। स्वभौम लेखन में अपने आग्रहों, पूर्वाग्रहों और कुंठाओं के चलते लेखक खुद आनंद विभोर रहता है। दलित पात्रों को गढ़ते प्रेमचंद ने चटकारों के साथ खूब मजे लिए हैं, चाहे दूसरों को खून निकलने लगे।
''रात के तीन बज गये थे। सुखिया ने बालक को कंबल से ढक कर गोद में उठाया, एक हाथ में थाली उठाई और मंदिर की ओर चली। घर से बाहर निकलते ही शीतल वायु के झोंकों से उसका कलेजा कांपने लगा। शीत से पांव शिथिल हुए जाते थे। उस पर चारों ओर अंधकार छाया हुआ था। रास्ता दो फर्लांग से कम न था। पगडंडी वृक्षों के नीचे-नीचे गई थी। कुछ दूर दाहिनी ओर एक पोखरा था, कुछ दूर बांस की कोठियां। पोखरें में एक धोबी मर गया था और बांस की कोठियों में चुडैलों का अड्डा था। ...... चारों ओर सन्न-सन्न हो रहा था, अंधकार सायं-सायं कर रहा था। सहसा गीदडों ने कर्कश स्वर ने हुआं-हुआं करना शुरू किया। हाय! उसे कोई एक लाख रूपये भी देता, तो भी वह इस समय न आती, पर बालक की ममता सारी शंकाओं को दबाये हुए थी। हे भगवान! अब तुम्हारा ही आसरा है। यह जपती मंदिर की ओर चली जा रही थी।''
यहां प्रेमचंद अंधविश्वास के पम्फलेट के रूप में प्रस्तुत हुए हैं। किसी पात्र के संवाद स्वरूप नहीं, खुद की अभिव्यक्ति लेकर। भूतप्रेत, प्रेतात्मा, चुडैलों, भाग्य-भगवान, पुनर्जन्म तथा मंदिर-मूर्ति को लेकर प्रेमचंद की पच्चीस-तीस कहानियां है। जाहिर है, इन सबमें उनकी अटूट आस्था थी।
''बांस की कोठियों में चुडैलों को अड्डा था''।
यहां प्रेमचंद कहानी में किसी तांत्रिक के मायाजाल की भांति विश्वास जताते हैं, मानो चुडैलें शरीरी हो। लेखक उनके अड्डे पर बैठ कर उनसे बोले हों, बतियाते हों। अगर अंध के प्रति सृजन का यही यकीन प्रगतिशीलता की श्रेणी में आता है, तो प्रगतिशीलता का नाम फरेब, पाखण्ड या रूढ़िवादिता रख दें!
अपने बीमार बच्चे को कंबल में लिपटा कर गोदी में लिए दूसरे हाथ में पूजा की थाली लेकर सुखिया भरी रात मंदिर द्वार पहुंच गई है। मंदिर के गेट पर ताला पड़ा था। पुजारी मंदिर में बनी कोठरी में किवाड़ बंद किये सो रहा था। कहानी के अनुसार चहुंओर घना अंधकार छाया था। सुखिया ने चबूतरे के नीचे से ईंट उठा ली और जोर-जोर से ताले पर पटकने लगी।
विरोधाभास के कारण यहां कहानी लचर हो जाती है। कहानी में आये विभिन्न घटनाक्रम के अनुसार सुखिया का टाबर तीन साल से सात साल तक बैठेगा। जब वह उसे खेत में साथ ले जाती है और उसके लिए घास छीलने के लिए छोटी सी खुरपी और झीका बनवाने की कहती है, वहां वह बालक निश्चित तौर पर 3-4 साल का है। रात जब वह थोड़ा ठीक होता है और जिस तरह बतियाता है और गुड़ खाने की जिद्द कर गुड़ की डली खा जाता है। वहां वह बालक 4-5 साल का है और जब वह घर से चल कर मंदिर तक खेलने चला आता है, वहां बालक जियावन निश्चित तौर पर 6-7 वर्ष का है। यानि 6-7 वर्ष का बालक कंबल में लिपटा था, दूसरे हाथ में पूजा की थाली थी, सुखिया चबूतरे के नीचे से ईंट उठा, मार-मार ताले को तोड़ डालती है।
जब कोई आदमी अंदर सोता है तो स्वाभाविक है कि वह ताला भी अंदर की ओर ही लगा कर सोएगा। मंदिरों के गेट भी लकड़ी के भारी तख्तों के हुआ करते थे, जो गांव के छुट्टे सांड और भैंसे की धूण से ना हिलें। यहां यह बात पाठक की समझ से परे है कि गोदी में कंबल लिपटा बीमार बच्चा, दूसरे हाथ में पूजा की थाली लिये सुखिया गेट के अंदर लगे ताले को ईंट मार-मार कर तोड़ती है।
द्वार पर ताला टूटने की आवाज सुन कर कोठरी में सोया पुजारी लालटेन हाथ में लिए बाहर निकल आया। उसने जोर-जोर से हल्ला करके गांव जुटा लिया था।
फिर क्या था, कई आदमी झल्लाये हुए लपके और सुखिया पर लातों और घंूसों की मार पड़ने लगी। सुखिया एक हाथ से बच्चे को पकड़े थी और दूसरे से उस की रक्षा किये थी।
पूजा की थाली ''मंदिर'' कहानी का जीव है। सुखिया एक हाथ से बच्चे को पकड़े थी और दूसरे हाथ से उसकी रक्षा किये थी। थाली न छिटकी, न गिरी, न उछली फिर गई तो गई कहां। सुखिया जब ईंट उठा कर ईंट मार-मार कर गेट का ताला तोड़ती हैं तब भी थाली ओझल रहती है। जितना बड़ा लेखक, उससे बड़ी चूक।
''बीमार बच्चा सुखिया के हाथ से छिटक कर फर्श पर गिरा और ठण्डा हो गया। अपने कुलदीपक के बुझते ही सुखिया बिफर पड़ी। उसकी दोनों मुट्ठियां बंध गईं। दांत पीस कर बोली- ''पापियों, मेरे बच्चे के प्राण ले कर दूर क्यों खड़े हो?''
आंसू बहाती सुखिया कहती है - ''तुम सबके सब हत्यारे हो। निपट हत्यारे। डरो मत, मैं थाना कचहरी नहीं जाऊंगी। मेरा न्याय भगवान करेंगे। अब उन्हीं के दरबार में फरियाद करूंगी।''
इतना कह कर सुखिया भी मूर्च्छित होकर वहीं गिर पड़ी और उसके प्राण पंखेरू उड़ जाते हैं। लेखक ने ठाकुर जी की मनौती के लोभ में उसके गहने ठगा दिये। इकलौते पुत्र की नृशंस हत्या करा दी। सुखिया का आत्मघात करा दिया।
हद यहां की प्रेमचंद सुखिया को थाना कचहरी न पहुंचा कर भगवान के दरबार में फरियादी के रूप में भेजते हैं। किसी न किसी कथानक के बहाने दलितों की हत्या कराना, उन्हें मरवान, कुटवाना, पशुवत व्यवहार, दलित औरतों को रखैल बना देना प्रेमचन्द के सृजन का सूत्र रहा है। यह सूत्र मनुस्मृति का मानस- पुत्र है।
प्रेमचंद कहानी के अंतिम वाक्य में दकियानूसी की जड़ों को और मजबूती प्रदान करते हैं।
''माता तू धन्य है। तुझ जैसी निष्ठा, तुझ जैसी श्रद्धा, तुझ जैसा विश्वास देवताओं को भी दुर्लभ है।''
प्रेमचंद का यहां आशय यह है कि विधवा सुखिया ने अपने बीमार बच्चे की दवा मूली कराने की बजाय मंदिर और मूर्ति (भगवान) में जो विश्वास व्यक्त किया, वैसा देवताओं को भी दुर्लभ है। कितना बड़ा वितंडा है। यह सोच प्रगतिशीलता है? आश्चर्य यह है कि यह कहानी वर्षों विभिन्न कक्षाओं के पाठ्यक्रम में रही।
प्रेमचंद को साहित्य जगत में मूर्ति मान लिया गया। मूर्ति के प्रति, सिर्फ आस्था ही प्रकट की जा सकती है। उसके चरित्र, अस्तित्व, आकार-प्रकार और नखशिख की आलोचना करने वाला विधर्मी माना जाता है। दरअसल प्रेमचंद को आज तक आराधना की दृष्टि से पढ़ा गया है। अलोचना की दृष्टि से उनके लेखन का अध्ययन नहीं हुआ। यदि उनके सृजन में आई अपरिपक्वता, अव्यावहारिकता, खामियों, पाखण्ड, ईश्वरवाद और उनके कट्टरपंथी बाना पर शोध कार्य हो तो इसके 'आऊटपुट' से कई किताबें निकल सकती हैं।
पुनश्चः - 'मंदिर' जैसी कहानी राजेन्द्र यादव को हंस के लिए भेजी जाये, तो वे उसे गीताप्रेस गोरखपुर का प्रोडेक्ट मान कर अविलंब लौटा दें।
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रत्नकुमार सांभरिया
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बहुत-बहुत धन्यवाद श्रीमान जी आज आपने मुंशी प्रेमचंद के बारे में इतनी सारी समीक्षा करके मेरे खुद के भरम तोड़ दिया आपने पहले मैं समझता था कि मुंशी प्रेमचंद जी हमेशा ग्रामीण इलाके और समाज द्वारा एक अलग रखे गए लोगों की आवाज है और उनकी जीवंत कहानी लिखते हैं आज पता चला कि वास्तव में एक लेखक की लिखने के पीछे कितनी सारी धारणाएं होती है धन्यवाद
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