उसका नाम ड्रीमलेट था. पहाड़ी गांव की एक निश्छल, चंचल लड़की... पहाड़ी झरनों सी जंगल में भटकती थी. अपने गांव के अलावा उसे बाकी दुनिया के ...
उसका नाम ड्रीमलेट था. पहाड़ी गांव की एक निश्छल, चंचल लड़की... पहाड़ी झरनों सी जंगल में भटकती थी. अपने गांव के अलावा उसे बाकी दुनिया के बारे में पता नहीं था. उसे बस चीड़ के पेड़ों, जंगल में उगी ऊंची-ऊंची घास ... सरसराती हुई ठण्डी हवा और पहाड़ी फूलों के बारे में पता था... और अगर पता था तो अपनी बकरियों, मुर्गियों और बत्त्ाकों का... हां उसने सुना था कि दक्षिण में जहां और भी ऊंचे पहाड़ हैं, एक शहर शिलांग है, जहां उसका बाप कभी-कभी खरीददारी के लिए जाता था.
हरी-भरी वादियों में खेलते-कूदते और बकरियां चराते वह जवान हो गई. खासी परम्परा के अनुसार उसके मां-बाप ने उसे पूरी छूट दे रखी थी कि वह अपनी पसंद के लड़के से शादी कर ले. फिर भी लेसमन लिण्डो का लड़का एल्विस लिण्डो खास पसंद था. वह मेहनती था, शराब का सेवन केवल विशेष अवसरों पर ही करता था. ज्यादा बातचीत करने का आदी नहीं था. ड्रीमलेट के मां-बाप का आदर भी करता था. अतः वे जब-तब एल्विस को अपने घर बुलाते रहते थे, ताकि ड्रीमलेट का झुकाव उसकी तरफ बढ़ सके. वरना क्या पता, जंगल में भटकते-भटकते वह किसी और लड़के के सपने न देखना शुरू कर दे. लड़कियों का क्या भरोसा... जवान होते ही ऐसा खिल उठती हैं कि लड़के भंवरों की तरह उनके ऊपर छा जाते हैं. फिर ऐसे में क्या कोई फूल अपनी खुशबू बचाए रख सकता है ?
पर ड्रीमलेट का इन सब बातों से कोई सरोकार न था. वह बकरियां चराती, जंगल में तितलियां पकड़ती और जंगली बेरों की तलाश में न जाने कहां-कहां भटकती-फिरती... मन ही मन पहाड़ी गीत गुनगुनाती... बकरियों के बच्चों को गोद में लेकर किसी पेड़ की निचली शाखा में बैठ जाती और बेर या प्लम खाती रहती.
अचानक एक दिन गांव में कुछ बाहरी लोगों का आगमन हुआ. उन्होंने गांव के नीचे एक खुली जगह में, जिसके पास से एक स्वच्छ जल का पहाड़ी सोता बहता था, अपने तंबू गाड़े. मुख्य सड़क से गांव तक आने के लिए कोई सड़क नहीं थी. परन्तु कुछ ही दिनों में पत्थरों को तोड़कर वहां एक कच्चा रास्ता बना दिया गया था. अब वहां एक जीप आसानी से आ-जा सकती थी.
ड्रीमलेट, जिसने अपने गांव के बाहर कभी कदम नहीं रखा था, बाहरी लोगों के क्रिया-कलापों को बड़े आश्चर्य से देखती. उसे उनका पहनावा बड़ा अच्छा लगता. उसके गांव के सारे लड़के ढीले-ढाले चोगे टाइप के कपड़े पहनते थे, परन्तु इन लोगों के कपड़े कितने साफ-सुथरे थे... और वह पता नहीं कौन सी भाषा बोलते थे, जो ड्रीमलेट की समझ में ही न आती थी. सुबह वे लोग पहाड़ों के ऊपर चले जाते और सारा दिन पता नहीं क्या नाप-जोख करते रहते, कागज में कुछ लिखते. फिर छोटे-छोटे यन्त्रों को चलाकर पता नहीं क्या-क्या करते रहते जो ड्रीमलेट की समझ के बाहर की चीज थी.
गांव के बच्चों के लिए यह सब किसी अजूबे से कम नहीं था. सारा दिन वे उन लोगों के पीछे-पीछे दौड़ते रहते. आपस में बातें करते और खिलखिलाकर हंसते रहते. ड्रीमलेट की दिनचर्या में भी अब परिवर्तन आ गया था. बकरियां चराने की तरफ अब उसका ध्यान नहीं था. जंगल में उनको चरने के लिए छोड़कर वह उन लोगों के पीछे दौड़ती रहती. उनकी बातें तो वह न समझ पाती, परन्तु आश्चर्य-मिश्रित खुशी से उनके कार्यों को देखती रहती.
धीरे-धीरे गांव के लोगों से वे हिल-मिल गये. गांव का मुखिया कई बार शिलांग जा चुका था, अतः वह टूटी-फूटी हिन्दी बोल लेता था. उसी ने बाहरी लोगों से बात करके पता किया था कि वे लोग वहां खनिज पदार्थों की खोज करने आए थे तथा कई-एक महीने रहेंगे.
ड्रीमलेट सबसे ज्यादा आकर्षित थी उस युवक से जिसके पास एक ऐसा रेडियो था, जिसमें मन-पसन्द गाने आते थे. यूं तो वह हिन्दी समझती नहीं थी, परन्तु उन गानों की धुनें इतनी दिलकश होती थीं कि वह सुनकर झूम जाती. वह हंसकर पूछता-
‘‘तुमको हिन्दी गाने अच्छे लगते हैं ?''
वह खिलखिलाकर हंस देती... और हंसती ही रहती. हंसी का जैसे कभी खतम न होने वाला एक झरना था उसके पास... उज्ज्वल, निर्मल... इस हंसी का क्या एक कतरा वह अपने दामन में भर सकता था ?
‘‘तुमको हिन्दी नहीं आती ?'' वह फिर पूछता. कोई जवाब नहीं... बस हंसी... अनवरत बहने वाली हंसी.
‘‘अंग्रेजी...?'' हंसी रोककर वह सिर हिला देती. पर उसने ऐसे ढंग से सिर हिलाया था, जो हां भी हो सकता था और न भी. आदित्य उसकी परेशानी समझ गया, परन्तु विचार व्यक्त करने के लिए भाड्ढा रुकावट नहीं होती. उन दोनों के बीच मौन वार्तालाप होता. इशारों में एक दूसरे के मन की बातें जानने-समझने लगे. एक दिन आदित्य ने अपने टेप-रिकार्डर में ड्रीमलेट की आवाज टेप करके सुनाई, तो वह खिलखिलाकर हंस पड़ी. उसकी निश्छल और अबोध हंसी... आदित्य बस उसे निहारता रह गया.
पहले शाम होते ही ड्रीमलेट बकरियां लेकर घर पहुंच जाती थी. उन्हें बाड़े में बन्द करके घर के काम-काज में मां का हाथ बंटाती. एल्विस आ जाता तो उसके साथ बातें करती. परन्तु अब पहले जैसी बात नहीं थी. बीती रात तक वह आदित्य के साथ किसी पेड़ के नीचे बैठी रहती. पहले गाने सुनने के शौक में आया करती थी... और अब... गाने तो पुराने हो चुके थे. आदित्य उसे हिन्दी के शब्दों से परिचित कराता और उससे खासी भाषा सीखता. वह अब काफी हद तक एक दूसरे की बातें समझ लेते थे.
आदित्य सर्वे करने के बहाने पहाड़ियों के उस पार निकल जाता, जहां ड्रीमलेट अपनी बकरियां लेकर जाती थी. वहां एकान्त होता था... दूर-दूर तक चीड़ और सागौन के पेड़ नजर आते थे. हवा के साथ उनके सरसराने की आवाज एक अजीब सा माहौल पैदा कर देती थी. उसमें एक नशा था... जिंदगी के सारे गम भुला देने वाला नशा. दोनों पहाड़ी फूल इकट्ठा करते रहते. जब खूब सारे फूल इकट्ठा हो जाते तो उनका बिस्तर बनाकर लेट जाते.
‘‘तुमने कभी शहर देखा है ?''
‘‘उहूं...'' वह हल्की मुस्कान के साथ कहती.
‘‘मेरे साथ शहर चलोगी ?''
‘‘हूं... लेकिन यहां मेरे मां-पिता अकेले रह जाएंगे. मैं उनकी इकलौती लड़की हूं. मेरे बाद उनकी देखभाल कौन करेगा ?''
खासी परम्परा के अनुसार शादी के बाद लड़की अपनी ससुराल नहीं जाती. लड़का ही लड़की के घर आकर रहने लगता है. लेकिन मां-बाप की सम्पत्ति की इकलौती वारिस केवल छोटी लड़की होती है. ड्रीमलेट तो खैर अपने मां-बाप की इकलौती बेटी थी. सम्पत्ति उसे ही मिलनी थी. परन्तु आदित्य... क्या वह यहां नहीं बस सकता ? वह थोड़ा दुविधा में पड़ गई. परन्तु ज्यादा चिन्ता करने की आदत उसे नहीं थी. वह अजीब थी ... सांसारिक ज्ञान का उसमें अभाव था. दुनिया बस उसे एक गांव सी नजर आती थी. जिसमें वह निर्द्वन्द घूम सकती थी. कोई रोक-टोक नहीं थी. बस चारों तरफ फूल खिले हुए नज़र आते.
मां-बाप ड्रीमलेट की तरफ से बेखबर थे, ऐसी बात नहीं थी. पहाड़ दूर से सुंदर नज़र आते हैं, बाहर का आकर्षण ही कुछ ऐसा होता है. ड्रीमलेट बाहरी चमक-दमक से चकाचौंध थी. घर के अंधेरे उसे भाते न थे. उन्हें लड़की के बाहर घूमने-फिरने, किसी से घुलने-मिलने में कोई आपत्ति या परेशानी नहीं थी. बस उन्हें एक ही चिन्ता थी कि ड्रीमलेट एल्विस को बिलकुल भी नहीं चाहती थी. जबसे ये बाहर के लोग आए थे, तब से वह उससे मिलना भी पसन्द नहीं करती थी. बात करना तो दूर की बात रही.
सूरज पहाड़ों के पीछे छिप चुका था. गांव में अंधेरा दबे पांव उतरने लगा था. ड्रीमलेट बकरियों के साथ उछलती-कूदती घर की तरफ लौट रही थी. रास्ते में एल्विस खड़ा था. गौर से उसे देख रहा था. सोचा, ड्रीमलेट कुछ बोलेगी, परन्तु वह देखकर भी अनदेखा कर गई, तो उसे ही बोलना पड़ा, ‘‘ड्रीमलेट सुनो...!''
‘‘क्या है ....?'' वह ठिठककर खड़ी हो गई.
‘‘मैं कल तुम्हारे घर गया था. तुम थी नहीं, काफी देर तक तुम्हारा इंतजार करता रहा, परन्तु तुम पता नहीं कहां चली गयी थी ?''
‘‘तो...और कुछ कहना है ?''
‘‘तुम्हें अपना गांव अच्छा नहीं लगता ? ये सुन्दर पहाड़, हरी-भरी वादियां...कल-कल करते झरने... धान के छोटे-छोटे खेत. ऐसा लगता है, जैसे संसार की सारी सुन्दरता अपने गांव में सिमट आई हो. वैसे ही जैसे चांद तुम्हारे मुख पर विराजमान है. सच, तुम्हीं तो एक चांद हो इस गांव की. तुम न रहोगी तो यहां कितना अंधेरा हो जाएगा.''
वह खिलखिलाकर हंस पड़ी, ‘‘अरे एल्विस, ये तुम कैसी बातें कर रहे हो ? मेरी समझ में तो कुछ नहीं आया. क्या कोई कविता है, जो तुम चर्च में याद करते हो ?''
‘‘हां ड्रीमलेट,'' आज वह भावुक हो गया था, ‘‘यह सचमुच ही एक कविता है... और तुम उस कविता की जान हो. तुम नहीं होगी तो यह कविता मर जाएगी. जुम जरा मेरी तरफ देखो. क्या तुम्हें मेरी आंखों में कुछ नज़र नहीं आता ? क्या तुम इतनी निष्ठुर और कठोर हो कि मेरे दिल की धड़कन भी तुम्हें सुनाई नहीं देती ? अरे, लड़कियां तो फूल होती हैं, जो हवा के हल्के स्पर्श से ही झूम-झूम जाते हैं. पर एक तुम हो कि...''आगे वह जान-बूझकर चुप रहा.
ड्रीमलेट पढ़ी-लिखी नहीं थी. भावात्मक शब्दों की सार्थकता उसकी समझ में क्या आती ? लेकिन एल्विस के स्वर की गंभीरता उसे अंदर तक हिला गई. वह समझी, उसे कोई कष्ट है. बोली, ‘‘क्या बात है ? तुम्हें कोई तकलीफ है ? मैं कुछ कर सकूं तो बताओ...''
एल्विस हक्का-बक्का उसका मुंह ताकता रह गया. समझ गया कि शब्दों के माया-जाल से ड्रीमलेट का दिल जीतना मुश्किल था. उससे सीधी बात करनी होगी. न जाने कितने दिनों से वह हौसला बांध रहा था. चुन-चुनकर शब्दों को उसने संजोया था एक गुलदस्ते की तरह. परन्तु ड्रीमलेट को गुलदस्ता पसन्द नहीं था. उसे तो जंगली फूलों से प्यार था, जो इधर-उधर उगे होते हैं. तो अब वह ड्रीमलेट से उसी भाषा में बात करेगा, जो उसकी समझ में आती थी.
पहली बार उसने सीधे शब्दों में पूछा, ‘‘क्या तुम मुझसे शादी करोगी ?''
ड्रीमलेट ने तुरन्त कोई जवाब नहीं दिया. उसकी आंखों के सामने आदित्य का चेहरा नाच उठा. फिर उसने एल्विस को देखा. दोनों में जमीन-आसमान का अंतर था. हौले से बोली, ‘‘सोचकर बताऊंगी.''
‘‘कब तक... ?'' वह उतावली से बोला.
‘‘मैं कोई भाग थोड़े रही हूं. किसी दिन बता दूंगी.'' वह थोड़ा खीझकर बोली और आगे बढ़ गई.
पता नहीं, वह दिन कब आएगा ड्रीमलेट. काश, तुम भागकर न जाओ उस मैदानी छोकरे के साथ. तुम उसकी चमक-दमक और आधुनिकता पे मत मर मिटना. मैं तुम्हें पलकों पे बिठाऊंगा, सपनों में झूले पर झुलाऊंगा. तुम इस गांव की शोभा हो. अपनी और इस गांव की लाज बचाए रखना.
ड्रीमलेट में अब पहले जैसी चंचलता न रही थी. एल्विस की बातों से उसका दिल घबराने लगा था. मन उद्वेलित हो गया था. दूर आकाश में एक तारा टिमटिमा रहा था. वह उड़कर वहां तक पहुंचना चाहती थी. पास में उसके एक दीपक जल रहा था, जिसकी तरफ उसकी नज़र ही नहीं पड़ रही थी.
दूसरे दिन उसने आदित्य से पूछा, ‘‘तुम मुझसे शादी करोगे ?''
वह एकबारगी अचकचाया, ‘‘हां, परन्तु तुमने ऐसा क्यों पूछा ?''
‘‘क्योंकि मैं एल्विस से शादी नहीं करना चाहती. तुम हां कहो तो मैं उसके प्रश्न का जवाब उसे दे दूं; ताकि आइन्दा से फिर मेरा पीछा न करे.''
‘‘यह एल्विस कौन है ?'' उसने शंकित स्वर में पूछा.
‘‘है एक लड़का, जो मुझसे शादी करना चाहता है.''
आदित्य को यह बात पता नहीं थी. उसके मन में डर पैदा हुआ कि वह लड़का कहीं कुछ कर न बैठे, जब उसे पता चलेगा कि वह उसकी पे्रमिका को उससे छीन रहा था. हालांकि वह जानता था कि यहां की औरतों की मर्जी के खिलाफ. मर्द कुछ नहीं कर सकते. घर और बाहर औरतों का ही राज्य होता है. एक तरह से देखा जाए तो वहीं मर्दों को पालती हैं. मर्द की हैसियत यहां एक मजदूर से अधिक कुछ भी नहीं होती. फिर भी वह डर रहा था, क्योंकि वह बाहर से आया था और बाहर के लोगों के प्रति यहां के लोग क्या रुख अख्तियार करेंगे, उसे पता नहीं था.
उसने सोच-समझकर जवाब दिया, ‘‘एक खिलती हुई कली, जिसकी महक अभी जंगल में नहीं फैली थी. जिस पर भंवरे तो आकर्षित हुए थे, परन्तु बैठ न पाए हों, कौन तोड़कर सूंघना न चाहेगा. मैं तैयार हूं, परन्तु अभी कुछ दिन रुक जाओ. जब हमारा काम यहां खत्म हो जाएगा, तब तुम्हें अपने साथ लेता चलूंगा और शहर में तुमसे शादी कर लूंगा.''
‘‘नहीं, मैं तुम्हारे साथ शहर नहीं जाऊंगी. हमारे यहां की लड़कियां लड़कों के साथ बिदा नहीं होतीं. तुम्हें हमारे साथ यहीं, इसी गांव में रहना होगा.'' वह दृढ़ता से बोली.
‘‘परन्तु यह कैसे हो सकता है ? मैं एक सरकारी नौकर हूं. मेरा तबादला होता रहता है. एक जगह उम्र भर कैसे रह सकता हूं ?''
‘‘तुम नौकरी छोड़ दो...'' वह बिना किसी हिचक के बोली, ‘‘हम यहां खेती-बाड़ी करेंगे, फल उगाएंगे, बकरियां और मुर्गी पालेंगे और हंसी-खुशी जीवन गुजार देंगे.'' वह आदित्य का हाथ पकड़कर बोली.
आदित्य अच्छी तरह जानता था, यह उसके लिए कतई संभव नहीं था. लखनऊ में उसके मां-बाप थे, भाई-बहन थे. उनकी जिम्मेदारी उस पर थी. वह एक ड्रीमलेट का होकर नहीं रह सकता था. वह साथ चलती तो और बात थी, पर... बाधाएं दोनों तरफ थीं. वह नहीं चाहता था, ड्रीमलेट उसके लिए सपना बनकर रह जाए. उसने गौर से उसका चेहरा देखा... हल्की लालिमा लिए खूबसूरत गोरा चेहरा, जिसमें सैकड़ों सपने पले थे और हजार फूलों की मासूमियत और रंगत सिमटी हुई थी. यह फूल तो खिलना ही चाहिए. उसके आंगन में खिलता तो और ही बात होती. उसने तुरन्त निर्णय कर लिया, ड्रीमलेट को गंवाना उसकी सबसे बड़ी मूर्खता होगी.
‘‘जैसा तुम कहोगी, वैसा ही करूंगा. परन्तु जब तक यहां कैम्प है, मैं नौकरी करता रहूंगा. जब कैम्प चला जाएगा, मैं नौकरी से इस्तीफा देकर तुम्हारे साथ घर बसा लूंगा.''
‘‘ओह्, तुम कितने अच्छे हो.'' ड्रीमलेट उससे लिपट गई. उस दिन जंगल में चारों तरफ फूल खिल उठे, चिड़ियां चहचहा उठीं. हवा ने स्वागत गीत गाकर उनका अभिनन्दन किया. पेड़ों ने लहराकर उनको बधाई दी.
ड्रीमलेट के मां-बाप जानते थे, ऐसा ही होगा. जब-जब बाहर के लोगों ने पहाड़ों की कुंवारी धरती पर कदम रखे, फूलों की सुगन्ध उन्होंने छीन ली.
एल्विस ने उस दिन खूब शराब पी. अपने पे्रम का मातम मनाया और अन्त में बेहोश होकर एक नाली में गिर पड़ा. सुबह तक उसे होश नहीं आया.
आदित्य अब अपनी रातें ड्रीमलेट के घर पर ही बिताता. अपने कुशल व्यवहार से उसने सबका मन जीत लिया था. ड्रीमलेट के मां-बाप को अपनी लड़की से कोई शिकायत नहीं थी. उनकी खुशी में ही उन सबकी खुशी थी.
दिन बीतते रहे. आदित्य अपने काम पर बिला नागा जाता रहा. फिर एक दिन गांव से कैम्प उखड़ गए. जीप में लदकर सामान चला गया. दो-चार लोग रह गए थे, जिन्हें बाद में जीप लेने आने वाली थी.
ड्रीमलेट बकरियां लेकर जंगल में गई थी. आदित्य कैम्प के लोगों के साथ था. वह जितना भोली थी, बाकी लोगों को भी वैसा ही समझती थी. उसने कुछ अन्यथा न सोचा था, वरना आदित्य को छोड़कर जंगल में न जाती.
जीप जब दुबारा लोगों को लेने आई तो आदित्य उसमें बैठकर चला गया... जहां से आया था. एल्विस ने उसे जाते हुए देखा था. उसका खून खौल उठा था. एकबारगी मन हुआ कि जीप से उसे पकड़कर बाहर खींच ले और उसके सिर को पत्थर पर पटक दे. उसके सपनों का दुश्मन .... उसकी जिन्दगी बरबाद करनेवाला... एक मासूम कली को मसलकर भागा जा रहा था.
परन्तु उसे खुशी भी हो रही थी. ड्रीमलेट अब उसकी हो जाएगी. कोई दीवार उनके बीच में नहीं रहेगी... जो थी भी, वह आज अचानक टूट गई थी... अब ... उसने जीप को मोड़ पर गुम होते हुए देखा. धूल के बादल थोड़ी देर तक छाए रहे और फिर मिट गए. वह बेतहाशा उल्टी दिशा में भागा... ड्रीमलेट को खबर देने के लिए.
ड्रीमलेट फूल तोड़कर अपने आंचल में भर रही थी और एक पहाड़ी गीत गुनगुना रही थी. उसका चेहरा सौन्दर्य की आभा से दमक रहा था. उस पर सूर्य की किरणें और गजब ढा रही थीं.
एल्विस ठिठककर रुक गया. क्या ऐसी दुःखदायी खबर वह ड्रीमलेट को सुना सकता है, उसका कलेजा न फट जाएगा. कहीं सदमें को बर्दाश्त न कर पाए तो... परन्तु अभी नहीं तो थोड़ी देर बाद उसे स्वयं मालूम हो जाएगा. फिर वहीं क्यों न बता दे ? वह आहिस्ता से ड्रीमलेट के पीछे जाकर खड़ा हो गया. आहट पाकर उसने अपनी नज़रें ऊपर उठाईं. एल्विस को देखकर वह हौले से मुस्कराई. एल्विस उससे यह मुस्कराहट छीनने जा रहा था.
‘‘ ड्रीमलेट... वह चला गया !'' उसने रुक-रुककर कहा.
इल्विस के स्वर की गंभीरता और बेचैनी से ही वह समझ गई थी कि किसके बारे में कह रहा था. फिर भी पूछा, ‘‘कौन...?''
‘‘तुम्हारा आदित्य...''
‘‘कहां चला गया ?''
‘‘जहां से आया था... जीप में बैठकर. मैंने खुद अपनी आंखों से उसे जाते हुए देखा था.''
‘‘नहीं...'' वह अचानक चीखकर बोली, ‘‘तुम झूठ बोल रहे हो. तुम मुझे जलाने के लिए यह बात कह रहे हो. तुम खुद मुझसे और मेरे आदित्य से जलते हो न, इसलिए.''
‘‘नहीं, ड्रीमलेट ! मैं सच कह रहा हूं. विश्वास न हो तो खुद चलकर देख लो.''
वह एक पल तक एल्विस के चेहरे को ताकती रही... शायद सच की परछाई तलाश कर रही थी. फिर बेतहाशा उस तरफ भागी, जिस तरफ कैम्प लगे हुए थे.
कल तक जहां आदमियों की चहल-पहल थी, कहकहे लगते थे... आज वहां टूटे हुए पत्थरों और फटे हुए कागजों के सिवा कुछ न था. दूर-दूर तक कहीं कुछ नज़र नहीं आ रहा था. एक ऐसी खामोशी बिखरी हुई थी जो किसी की बरबादी की कहानी कह रही थी. ड्रीमलेट सन्न रह गई. उसे सच्चाई पर विश्वास नहीं आ रहा था. उसने मुड़कर एल्विस की तरफ देखा. वह उसके पीछे अपराधी की तरह खड़ा था.
ड्रीमलेट उसकी तरफ बढ़ी और उसकी कमीज पकड़कर झकझोरने लगी, ‘‘तो यह सब तुम्हारा किया धरा है, एल्विस ! तुमने उसे डराया-धमकाया होगा. जान-बूझकर उसे जाने दिया होगा कि उसके जाते ही मैं तुम्हारी हो जाऊंगी. परन्तु ऐसा नहीं होगा. तुमने बहुत गलत सोचा, एल्विस... बहुत गलत सोचा.''
वह सिसक-सिसककर रोने लगी. शब्दों ने उसका साथ छोड़ दिया. बस एक आंसू थे जो उसका साथ दे रहे थे. वह रोती जा रही थी. आंसू बह रहे थे और एल्विस उसे सांत्वना भी न दे सकता था. चाहकर भी वह ड्रीमलेट को छूने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. जी भर रो लेने के बाद वह उठी और घर की तरफ चली गई. एल्विस बाद में उसकी बकरियां हांककर घर लाया.
उस दिन के बाद ड्रीमलेट को किसी ने हंसते हुए नहीं देखा. उसकी सारी चंचलता गायब हो गई थी. घर से बहुत कम बाहर निकलती. मां-बाप समझाकर हार चुके थे. दुनिया से जैसे उसे कोई मतलब न रह गया था. बस यादों में खोई लेटी रहती. सपने देखती और सोचती कि शायद कभी आदित्य लौटकर फिर उसके पास आएगा. उसकी एक निशानी जो ड्रीमलेट के पास रह गई थी. यह एक जो मन का बंधन है, कभी नहीं टूटता. मन में आशा का दीप जलाए ही रखता है.
कुछ दिनों बाद ड्रीमलेट ने एक सुन्दर गोल-मटोल बच्ची को जन्म दिया. महीनों बाद वह फिर से मुस्कराई थी. बच्ची को इस तरह अपनी गोद में लेकर बैठी थी, जैसे आदित्य को आगोश में छिपा रखा हो. मां-बाप खुश हुए. एल्विस भी उसे बधाई देने आया. उससे भी ड्रीमलेट ने हंसकर बातचीत की. खासी समाज में बगैर शादी के बच्चा होना अवैध भले हो, पर बुरा नहीं माना जाता. खासकर अगर लड़की पैदा हो.
‘‘बहुत सुन्दर बच्ची है.'' एल्विस ने उसे गोद में लेते हुए कहा.
‘‘हूं, आदित्य पर गई है.'' ड्रीमलेट के चेहरे से खुशी टपकी पड़ रही थी.
‘‘नहीं तुम दोनों पर...'' वह हसकर बोला.
ड्रीमलेट ने गौर से एल्विस को देखा. कितना खुश नज़र आ रहा था वह. जैसे उसी की बच्ची हो.
वह पीठ के बल लेट गई. नज़र छत पर टिका दी. बिना एल्विस की तरफ देखे उसने पूछा, ‘‘तुम इस कदर मेरे दीवाने हो !''
वह चुप रहा. ड्रीमलेट दाईं तरफ करवट लेकर उसकी तरफ मुड़ी, ‘‘तुमने मुझे मेरे प्यार से जुदा कर दिया. अब मेरे साथ हमदर्दी जताकर मेरा दिल जीतना चाहते हो ?''
‘‘ड्रीम... न तो मैंने आज तक कभी तुम्हारे आदित्य से बात की थी, न उसे डराया-धमकाया था. वह क्यों तुम्हें छोड़कर चला गया, मुझे नहीं मालूम. तुम मुझसे शादी करो या न करो, मेरा प्यार तुम्हारे हृदय में कोई स्पन्दन पैदा करता है या नहीं, इससे मुझे कोई सरोकार नहीं. परन्तु इस गांव में रहते हुए अगर कभी मेरी जरूरत पड़े तो अवश्य बुला लेना.''
और एल्विस उठकर चला आया. उस दिन के बाद एल्विस उसके घर नहीं आया. ड्रीमलेट अपनी मां से पूछती, ‘‘एल्विस कहां है ? यहां क्यों नहीं आता ?''
‘‘तूने ही तो उसे दुत्कार कर भगा दिया था. कहीं दारू पी रहा होगा बैठा.''
वह चुप रह जाती.
अन्ततः एक दिन वह उठी. शाम का अंधेरा घिर चुका था. गांव में बिजली का प्रकाश नहीं था. परन्तु सारे रास्ते ड्रीमलेट के जाने-पहचाने थे. वह सीधे एल्विस के घर पहुंची. वह बाहर ही बैठा था...नशे में धुत्. अपनी बरबादी का मातम मनाता हुआ. वह बैठा तो था, परन्तु ऐसे हिल रहा था जैसे आंधी में कमजोर पौधा हिल रहा हो. ड्रीमलेट उसके सामने खड़ी थी, परन्तु उसे पता न चला.
ड्रीमलेट ने उसे पकड़कर उठाया, ‘‘एल्विस, क्या हो गया है तुम्हें ?''
वह हक्का-बक्का रह गया, ‘‘तुम ड्रीम... यहां ...? कैसे... ? क्या हो गया ?''
‘‘कुछ नहीं हुआ है.'' उसने कसकर उसकी बाहों को पकड़ लिया, ‘‘तुम यहां बैठकर दारू पीकर अपना गम गलत कर रहे हो. मैं वहां तुम्हारे इंतजार में दुबली होती जा रही हूं.''
‘‘तुम... और मेरा इंतजार...'' एल्विस की समझ में कुछ नहीं आ रहा था. उसकी आंखे झपक रही थीं. कोई सपना तो नहीं देख रहा था... नहीं, सपना तो नहीं था. ड्रीमलेट उसके सामने थी. उसको अपनी बाहों में थामे हुए. वह चकराकर रह गया.
‘‘चलो, घर चलो.''
‘‘घर...! कौन से घर ? यही तो मेरा घर है.''
‘‘नहीं, वह घर जहां तुम्हें ब्याहकर जाना है.... मेरे घर.'' ड्रीमलेट ने एल्विस का मुंह चूम लिया, ‘‘वहां तुम्हारी बेटी तुम्हारा इंतजार कर रही है.''
ऊंचे पहाड़ों और पेड़ों के साए चारों तरफ बिखरे हुए थे. किसी को कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था. परन्तु उस अंधेरे में भी दो मानव अपनी मंजिल की तरफ बढ़े जा रहे थे. उनके रास्ते में अंधेरा अवश्य था, परन्तु मंजिल की तरफ नहीं.....क्योंकि मंजिल की तरफ जाने रास्ते में उनके साथ एक उस गांव का चांद था.
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संपर्क:
(राकेश भ्रमर)
संपादक प्रज्ञा मासिक,
24, जगदीश पुरम्,
लखनऊ मार्ग, निकट त्रिपुला चौराहा,
रायबरेली- 229316
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