वर्तमान में दलित अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए चिन्तित एवं जागरूक है, उनमें आत्मसम्मान की भावना बलवती हो रही है, वे समानाधिका...
वर्तमान में दलित अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए चिन्तित एवं जागरूक है, उनमें आत्मसम्मान की भावना बलवती हो रही है, वे समानाधिकारों की लड़ाई-लड़ने के लिए संकल्पबद्ध हैं। हमारा यहाँ दलित शब्द से तात्पर्य एक विशिष्ट दृष्टिकोण व सामाजिक आचरण से है, जिसके आधार पर एक विशिष्ट वर्ग को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक आधार से वंचित करते हुए इनके अधिकारों का हनन करते हुए सामाजिक ढ़ांचे में इतना निम्न स्थान दिया जाता है कि वे दूसरों के स्पर्श के योग्य भी नहीं रह जाते हैं। इन्हें सामाजिक निवास की सीमाओं से बाहर कर, अध्ययन, पूजा-पाठ, कुंओं, तालाबों, घाटों के उपयोग से वंचित कर दिया जाता है। दलित शब्द एवं दलित साहित्य का व्यापक अर्थ है परन्तु, आजकल कुछ संकीर्ण मानसिकता के लेखकों/बुद्धिजीवियों ने इसे सीमित दायरे में कर दिया है। फिलहाल हमारी कोशिश रहेगी कि विभिन्न साहित्यकारों एवं लेखकों/बुद्धिजीवियों के नजरिये से दलित क्या है उसे परिभाषित किया जाये विस्तृत परिप्रेक्ष्य में दलित वह है जो किसी के द्वारा अपमानित, पीड़ित, मर्दित, खण्डित, उपेक्षित, दबाया तथा शोषित किया गया हो, अर्थात् इसमें स्त्रियां, शूद्र वर्ग में आने वाली पिछड़ी जातियां एवं वे वर्ग हैं जो दलितों की भ्ाांति शिक्षा, अधिकार एवं सम्पत्ति एकत्र करने से वंचित कर दिये गये हों।
वैसे भारत में सात-आठ दशक पूर्व से ही दलित शब्द का प्रयोग हो रहा है। दलित शब्द को लेकर वर्तमान में विद्वानों में आज भी मतैक्य का अभाव दिखता है और हमारा साहित्य जगत स्पष्टतया दलित शब्द को लेकर दो खेमों में आज भी दिख रहा है। व्याकरणिक दृष्टि से दलित शब्द को यदि परिभाषित किया जाये तो संस्कृत के धातु ‘दल' से दलित शब्द की उत्पत्ति हुई है। हिन्दी शब्द सागर के अनुसार दलित शब्द का अर्थ विनष्ट किया हुआ ही है।
दलित वि (स.) (स्त्रीदलिता)
1. मसला हुआ, मर्दित।
2. दबाया, रौंदा या कुचला हुआ।
3. खण्डित।
4. विनष्ट किया हुआ।'1
हिन्दी शब्द कोश के अनुसार दलित वह है सं. (वि.)
1. कुचला हुआ, दबाया हुआ (जैसे- दलित वर्ग)
2. नष्ट किया हुआ (जैसे- दलित जाति)।2
हिन्दी के अलावा प्राकृत शब्द के अनुसार दलित शब्द ‘दल' धातु से उत्पन्न हुआ है-
1. दल- (सक) चूर्ण करना, टुकड़े करना, विदारना।
2. दल- (अक) विकसना, फटना, खण्डित होना, द्विधा होना।
3. दल- (नष्ट) सैन्य, लड़कर, पत्र, पत्ती।'3
संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोश के अनुसार- दल - दलित, दलित
दलित हृदय गाठोद्वेगं द्विधातुन, विधते- अर्थात् वेदनाओं के कारण हृदय के टुकड़े-2 होते हैं नाश नहीं।
दलित- पी0पी0- बोकन, टार्न, बर्स्ट, रेन्ट, स्प्लिट।'4
हिंदी, संस्कृत तथा अंग्रेजी शब्द कोशों की तरह मराठी शब्दकोशों में भी दलित शब्द का यही मिला जुला अर्थ निकलता है।
1. दल- नाश करणे (विनष्ट करना)
दलित- नाश पावलेला (विनष्ट हुआ)
दीनदलित समानार्थी शब्द।'5
मराठी शब्द रत्नाकर के अनुसार- दलित (सं.वि.) तुडविलेले, चुरडलेले, मोडलेले, इंग्रेजी डिप्रेस्ड क्लासेस या शब्दास प्रतिशब्द।'6
प्रस्तुुत शब्दकोशों के अनुसार दलित शब्द का जो अर्थ आया उसका सारांश यह है कि- ‘जिसका दलन और दमन हुआ है, दबाया गया है, मीड़ा, मसला, मर्दित, रौंदा, कुचला, खंडित, टुकड़े-2, विनष्ट, पस्त हिम्मत, हतोत्साहित, वंचित, उत्पीड़ित, शोषित तथा सताया गया हो, उसे दलित कहा जाता है। यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि दलित शब्द को जितना परिभाषा के दायरे में लाया गया है उतना विस्तृत अर्थ यह नहीं रख पाता है क्योंकि जैसे ही ‘दलित' शब्द का सम्बोधन होता है उसमें एक समाज के निम्न श्रेणी के व्यक्ति होने का लेबल लग जाता है अर्थात् दलित शब्द का प्रयोग कभी भी किसी भी व्यक्ति के लिये प्रयोग में नहीं लाया जा सकता है, हमारी सामाजिक व्यवस्था अभी भी इतनी दीनहीन नहीं हुई है कि कोई सवर्ण व्यक्ति अपने को दलित कह सके। अर्थात् किसी भी दलित व्यक्ति को दलित नहीं कहा जा सकता है। दलित शब्द की परिभाषा को हम प्रमुख सवर्ण लेखकों की दृष्टि में देखें तो बेहतर होगा। डॉ0 राजेन्द्र यादव के अनुसार ‘दलित की श्रेणी में स्त्री, पिछड़ी जाति एवं दलित वर्ग के लोग आते हैं।'7 प्रसिद्ध मराठी एवं दलित लेखक नारायण सूर्वे ‘दलित' शब्द की मिली-जुली परिभाषाएं देते हैं- केवल बौद्ध या पिछड़ी जातियां ही नहीं समाज में जो भी पीड़ित हैं, वे दलित हैं। ईश्वर निष्ठा या शोषण निष्ठा जैसे बन्धनों से आदमी को मुक्त रहना चाहिए। उसका स्वतंत्र अस्तित्व सहज स्वीकार किया जाना चाहिए। उसके सामाजिक अस्तित्व की धारणा, समता, स्वतंत्रता और विश्व बंधुत्व के प्रति निष्ठा निर्धारित होनी चाहिए।' मोहन नैमिशराय दलित शब्द की व्यापकता को रेखांकित करते हुए लिखते हैं- ‘दलित शब्द मार्क्स प्रणीत सर्वहारा शब्द के लिये समानार्थी लगता है। लेकिन इन दोनों में पर्याप्त भेद भी हैं। दलित की व्याप्ति अधिक है, तो सर्वहारा की सीमित! दलित के अन्तर्गत सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक शोषण का अन्तर्भाव होता है, तो सर्वहारा केवल आर्थिक शोषण तक ही सीमित है लेकिन प्रत्येक सर्वहारा को दलित कहने के लिये बाध्य नहीं हो सकते...........अर्थात् सर्वहारा की सीमाओं में आर्थिक विषमता का शिकार वर्ग आता है, जबकि दलित विश्ोष तौर से सामाजिक विषमता का शिकार होता है।'' दलित शब्द को संवैधानिक प्रश्नों से जोड़ते हुए डॉ0 श्यौराज सिंह बेचैन की धारणा है कि ‘दलित वह है जिसे भारतीय संविधान ने अनुसूचित जाति का दर्जा दिया है।'' प्रमुख दलित चिंतक ओम प्रकाश बाल्मीकि के शब्दों में कहें तो, ‘‘दलितशब्द व्यापक अर्थ बोध की अभिव्यंजना देता है, भारतीय समाज में जिसे अस्पृश्य माना गया वह व्यक्ति ही दलित है। दुर्गम पहाड़ों, वनों के बीच जीवन यापन करने के लिये बाध्य जनजातियों और आदिवासी, जरायम, पेशा घोषित जातियां सभी इस दायरे में आतीं हैं। सभी वर्गों की स्त्रियां दलित हैं। बहुत कम श्रम-मूल्य पर चौबीसों घण्टे काम करने वाले श्रमिक, बंधुआ मजदूर दलित की श्रेणी में आते हैं।''8 इसी तरह कंवल भारती का मानना है कि ‘‘दलित वह है जिस पर अस्पृश्यता का नियम लागू किया गया है। जिसे कठोर और गन्दे कार्य करने के लिये बाध्य किया गया है जिसे शिक्षा गृहण करने और स्वतंत्र व्यवसाय करने से मना किया गया और जिस पर सछूतों ने सामाजिक निर्योग्यताओं की संहिता लागू की वही और वही दलित है और इसके अन्तर्गत वही जातियां आतीं हैं, जिन्हें अनुसूचित जातियां कहा जाता है।''
इसी प्रकार माता प्रसाद दलित शब्द के विस्तार को रेखांकित करते हुए लिखते हैं ‘‘दलित शब्द का अर्थ बड़ा व्यापक है। इसमें दबाये गये, अपमानित, पीड़ित उपेक्षित, शोषित सभी आते हैं। इसमें स्त्रियों और शूद्र वर्ग में आने वाली पिछड़ी जातियां और अति पिछड़ी जातियां भी हैं जो दलितों की भांति, शिक्षा सम्पत्ति एकत्र करने से वंचित हैं और अपमानजनक जीवन जीने को विवश हैं।''9 दलित शब्द की परिभाषा को मनुष्यता से जोड़ते हुए डॉ0 धर्मवीर का मानना है कि ‘‘दलित एक मनुष्य पैदा होता है। मनुष्य एक सम्भावना है। हर दलित व्यक्ति मनुष्य की सम्भावनाओं से भरपूर पैदा होता है, वे लोग मनुष्य के दुश्मन कहे जायेंगे जो मनुष्य की सम्भावनाओं पर किसी भी रूप में रोक लगाते हैं। दूसरी तरफ से, इस चिंतन से इतना और कहने की जरूरत है कि मनुष्य केवल हिन्दू नहीं है अर्थात् दलित भी मनुष्य है।''10 दलित शब्द को समग्रता से जोड़ते हुए बाबूराम बागूल का मानना है कि ‘दलित' विश्ोषण एक सम्यक क्रांति का नाम है जो कि क्रांति का साक्षात्कार है।'' इसी तरह से अर्जुन डागले का कहना है कि ‘‘दलित शब्द का यानी शोषित, पीड़ित समाज, धर्म व अन्य कारणों से जिसका आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक शोषण किया जाता है, मनुष्य और वही मनुष्य क्रांति कर सकता है। ‘‘अजीत प्रियदर्शी की मानें तो ‘‘यह प्रश्न महत्वपूर्ण है, विवादित भी। क्या सामाजिक-आर्थिक रूप से अत्यंत पिछड़े, शोषित लोग ही दलित हैं, जिनका उल्लेख संविधान में हुआ है ? क्या (एस0सी0, एस0टी0, ओ0, बी0सी0) के अलावा जातियों में दलित-शोषित लोग नहीं है ? ‘दलित' शब्द केवल ‘अछूत' का पर्याय नहीं है। दलित शब्द का सम्बन्ध धर्म, देश, लिंगवर्ण, वर्ग आदि के भेदों से परे उन समस्त जनों से रहा है जो किसी न किसी कारण अन्याय, उत्पीड़न, दलन, दमन, के शिकार हों या यातना पूर्ण जीवन जीते रहे हैं।
प्र्रस्तुत परिभाषाओं-शब्द कोशीय एवं मानवीय आधार के अनुसार यह निष्कर्ष निकलकर आया कि दलित शब्द का प्रयोग समाज-व्यवस्था के सबसे निचले स्तर के लोगों के लिये प्रयोग में लाया जाने वाला शब्द है और समाज का ऊँचा तबका जिसकोे हेय एवं अछूत तथा अन्त्यज की श्रेणी में रखता है। यहां मानवीयता और मनुष्यता के लिये कोई स्थान नहीं है और इस श्रेणी (दलित) का व्यक्ति कितना भी प्रगतिशील एवं पढ़ा लिखा क्यों न हो सवर्ण समाज उसकी जातीय हैसियत को आंक कर ही उसे अपनी बराबरी का दर्जा देता है। अर्थात् इस दलित, शोषित, पीड़ित व्यक्ति को संविधान में अनुसूचित जातियों के रूप में रेखांकित किया गया है।
दलित शब्द की व्याख्या के पश्चात एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि आखिर इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग कब एवं कहां से प्रचलन तथा अस्तित्व में आया। इसे जानने के लिये इतिहास के आइने में जाना होगा। स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रथम एवं द्वितीय गोलमेज सम्मेलन के दौरान अंग्रेजों से महात्मा गांधी की अपनी इच्छानुसार मांगें पूरी नहीं हो पा रहीं थीं तब गांधी इंलैण्ड से द्वितीय गोलमेज सम्मेलन से वापस भारत आये तो उन्हें सरकार ने ऐतिहात के तहत गिरफ्तार कर लिया। जब गांधी जी जेल में थे तब गांधी जी की गिरफ्तारी पर भारत में विरोध प्रदर्शन हुए। इस परिस्थिति का फायदा उठाते हुए ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्जे मैकडोलेंड ने 17 अगस्त, 1932 को सम्प्रदायिक पंचाट जारी किया। यह पंचाट मुसलमानों तथा ईसाइयों के अतिरिक्त हरिजनों के सम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की मांग करता था। हॉलांकि भारत को इससे भी पहले मुसलमानों को दिए गये सम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व से काफी क्षति पहुंची थी। इस सम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व से राष्ट्र की नीति तथा राष्ट्र की राजनैतिक उन्नति को काफी क्षति पहुंचायी। यही नहीं यह अंग्रेजों की एक सोची समझी साजिश तथा हिन्दू समाज को विभिन्न भागों में विभाजित करके कमजोर बनाने का एक षड़यन्त्र था। महात्मा जी ने इस सम्प्रदायिक पंचाट का विरोध किया साथ ही 20 सितम्बर से पंचाट के वापस न लिये जाने की तिथि तक, आमरण अनशन की घोषणा कर दी। गांधी जी की इस घोषणा के परिणामस्वरूप पूना समझौता हुआ तथा हरिजनों के लिये संयुक्त निर्वाचन क्षेत्रों में सीटों के आरक्षण की व्यवस्था की गई। महात्मा गांधी तत्कालीन समय में डॉ0 भीमराव अम्बेडकर के बाद ऐसे ताकतवर एवं सम्माननीय नेता थे जो तत्कालीन समाज में समस्त प्रकार की सामाजिक विषमताओं के विरुद्ध थे। वे हरिजनों के साथ किये जाने वाले सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध सतत् संघर्ष करने वाले व्यक्ति थे। आपने-अपने पत्र ‘हरिजन' एवं यंंग इंडिया के माध्यम से जेल में से हरिजनों के साथ किये जाने वाले सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध कठोर आन्दोलन शुरू कर दिया। और अस्पृश्यता के विरुद्ध जोरदार आन्दोलन शुरू करने वाले वह सबसे शक्तिशाली व्यक्ति साबित हुए। यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि गांधी जी हरिजन हरि¬- भगवान, जन- लोग अर्थात् हरिजन का गांधी भगवान के लोग मानते थे। इस शब्द को लेकर गांधी जी काफी विवादास्पद रहे। कुछ लोगों का मानना है कि समाज का यह सबसे कमजोर तबका यदि हरिजन (भगवान के लोग) हैं तो बाकी लोग क्या हैं, इसे गांधी जी परिभाषित करें तो बेहतर होगा। फिलहाल इसी समय अंग्रेजी सरकार का स्थान भारतीय गतिविधियों के मुख्य बिन्दुओं पर गया और सन 1933ई0 के समय अंग्रेजी सरकार ने एक जातीय निर्णय के तहत समाज के सबसे निचले, शोषित वर्ग के प्रति एक ऐतिहासिक फैसला किया जिससे इन्हें ‘डिप्रेस्ड क्लासेस' के रूप में जाना गया। ‘डिप्रेस्ड क्लासेस' का अर्थ होता है पददलित। अर्थात् यह पददलित शब्द ही दलित शब्द का पर्यायवाची माना जाने लगा। यह वह समय था जब विश्व में समाजवादी विचारधारा का प्रादुर्भाव जोरों पर था और भारत में इस विचारधारा की लहर अपना रंग दिखा रही थी अर्थात् समाज में आर्थिक एवं सामाजिक रूप से दबे, कुचले एवं शोषित वर्ग के प्रति लोगों में सहानुभूति का प्रादुर्भाव हुआ। वास्तव में सामाजिक एवं प्रशासनिक तौर पर यह वह समय था जब दलित वर्ग की अपनी स्पष्ट पहचान बन गई थी। गांधी जी के हरिजन उन्नीसवीं शताब्दी में ही दलित के रूप में जाने, जाने लगे।
स्पष्ट है कि दलित शब्द आधुनिकता का बोध कराता है परन्तु दलितपन की संज्ञा ऐतिहासिकता एवं प्राचीनता की ओर उन्मुख करती है। ऐतिहासिक दस्तावेजों की बात करें तो प्राचीनकाल में दलित शब्द के परिवर्तित रूप शूद्र, अतिशूद्र, चांडाल, अन्त्यज, अस्पृश्य चांडाल, अवर्ण, पंचम, हरिजन आदि विश्ोषणों-उपमानों की दुःखद ऐतिहासिक सांस्कृतिक यात्रा के बाद अपने वजूद की तलाश में है। दलित शब्द कुल मिलाकर इन सब शब्दों का पर्यायवाची माना जा सकता है।
हमारी भारतीय संस्कृति में वर्णव्यवस्था के तहत शूद्रों को चतुर्थ श्रेणी में रखा गया है- डॉ0 रामचन्द्र की मानें तो दलित शब्द के अन्तर्गत कुचले गये, दबाये गये जनों की जीवन कहानी उतनी ही पुरानी है जितनी हिन्दू संस्कृति पुरातन है। चातुर्वर्ण्य व्यवस्था भारतीय संस्कृति की अपनी एक विचित्र विश्ोषता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों पर आधारित चातुर्वर्ण्य व्यवस्था ऋग्वैदिक काल से लेकर अब तक जातियों की श्रेष्ठता क्रम में विद्यमान है। वेदों, स्मृतियों पुराणों में व्यक्त जीवन पद्धति वर्णव्यवस्था पर टिकी हुई है। इस तरह का मिथ्या प्रचार आज भी जारी है कि इनका सृष्टा मानव नहीं ईश्वर है। इन अवधारणाओं के प्रतिपादक सभी धार्मिक ग्रन्थ प्रत्येक वर्ग का कार्य बतला चुके हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के भार तले शूद्र सबसे नीचे आता है, जिसका कर्तव्य तीनों वर्णों की सेवा करना बताया गया है। 200 ई0पू0 से 200ई0 सन के बीच शूद्रों की स्थिति का ज्ञान मनु के विधि ग्रन्थ मनुस्मृति से प्राप्त होता है। मनु ने अपने ग्रन्थ में शूद्रों के प्रति घोर अमानवीयता का परिचय दिया है। शूद्रों और स्त्रियों को विद्या एवं वेद-अध्ययन के अधिकारों से वंचित तो रखा ही गया साथ ही, वेद-पठन सुनना भी वर्जित था।''11
भारत में माण्टेग्यू- चेम्सफोर्ड सुधार के माध्यम से अंग्रेज शासकों का ध्यान यहाँ के सबसे निम्न स्तर के लोगों अस्पृश्यों की ओर गया। दूसरा प्रमुख कारण यह कि इसी समय द्वितीय विश्व युद्ध का दौर चल रहा था ऐसे समय में अंग्रेज सरकार हिन्दुस्तानियों के दबाव में थी। यही नहीं दूसरे महायुद्ध के दौरान हिन्दुस्तानियोें के द्वारा इंग्लैण्ड सरकार ने भारतीयों को मदद देने की पेशकश की। इस समय जो डिप्रेस्ड क्लासेस की सूची थी उसमें अस्पृश्यता के अलावा सामाजिक एवं आर्थिक कारणों से पिछड़े हुए समाज के लोगों का उल्लेख भी इस सूची में मिला परन्तु इसके विपरीत बम्बई, मद्रास, मध्यप्रान्त आदि की जनभावना के समय डिप्रेस्ड क्लासेस शब्द का प्रयोग केवल अस्पृश्य लोगों के लिये किया गया। इन तथ्यों के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि आज जो दलित शब्द का प्रयोग हम करते हैं वह एक लम्बी कंकटाकीर्ण यात्रा तय करके अपने विभिन्न रूपों (अस्पृश्य, पंचम, अवर्ण, हरिजन, शूद्र, डिप्रेस्ड क्लास) में प्रचलन में रहा। इन सब में गांधी द्वारा प्रयोग किया हरिजन शब्द का व्यापक स्तर, प्रयोग में लाया गया और इसके व्यापक विरोध को देखते हुए सन् 1991 में उ0प्र0 और म0प्र0 सरकार द्वारा हरिजन, शब्द को प्रशासनिक, सामाजिक एवं व्यवहारिक स्तर पर प्रयोग न करने का अध्यादेश जारी किया गया। इसके पीछे यह तर्क था कि इस शब्द में दया एवं हीनता तथा सहानुभूति का भाव झलकता है और ऐतिहासिक तथ्यों पर यदि गौर फरमायें तो तत्कालीन समय में मंदिरों में देवदासियों द्वारा जनित सन्तानों को ‘हरिजन' नाम दिया गया था जिनकी सामाजिक पहचान ‘हरामी' (नाजायज औलाद) की थी। यही नहीं गुजरात के मध्यकालीन इतिहासकार नरसिंह मेहता ने अपने इतिहास में इसका उल्लेख भी किया है। जैसा कि हमने अभी कहा कि तत्कालीन सरकारों के हस्तक्षेप से यह शब्द हटा दिया गया और हरिजन के स्थान पर अनुसूचित जाति (एस0सी0), (एस0टी0) के रूप में शासकीय कार्यों में यह दलित माना गया और कुछ समय बाद दलित शब्द के रूप में इस वर्ग ने विश्ोष पहचान बना ली। अन्त में हम अपनी बात आनन्द वास्कर के शब्दों में कहें तो- ‘‘उच्च एवं समृद्ध समाज के पैरों तले कुचला हुआ, आर्थिक शोषण से शोषित तथा दबा हुआ जिसका मानवी जीवन विनष्ट हुआ हो। ऐसे सभी चाहें वे किसी भी जाति के किसी भी लिंग के हों दलित वर्ग के अन्तर्गत आयेंगे।''12 वर्तमान का दलित शब्द अभी निर्माण की प्रक्रिया में है और वह स्वयं को पूरी तरह स्थापित नहीं कर पाया है, किन्तु फिर भी जो कुछ भी इन तथ्यों एवं प्रमाणों के आधार पर लिखा एवं कहा गया है, वह अनुभूति और प्रमाण का धधकता दस्तावेज है। अनुभव की आंच पर तपकर निकला हुआ सत्य है। सच तो यह है कि दलितों को किसी प्रकार की सहानुभूति नहीं, उनकी आत्मचेतना की जागृति ही उन्हें उठायेगी इसकी सफलता के लिए दलितों को संघर्ष के साथ-साथ एकता की भी आवश्यकता है। दलित साहित्य शब्द की मूलभूत चेतना भी यही है और सम्पूर्ण साहित्य के विमर्श का केन्द्र भी यही है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. संक्षिप्त हिन्दी शब्द सागर-सं-रामचन्द्र वर्मा-सप्तम संस्करण
2. राजपाल हिन्दी शब्दकोश-डॉ0 हरदेव बाहरी. पृ0 386-तेरहवां संस्करण 1999
3. प्राकृत शब्दकोश (पाइअसद्दमहण्णवो)-सं.-न्याय व्याकरण तीर्थ पं0-
हरगोविन्द दास जी सेठ।
4. द स्टूडेन्ट संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी-सं.-आपटे-व्ही0एस0
5. व्युत्पत्ति कोश-सं.-आपटे व्ही0एस0
6. मराठी शब्द रत्नाकर-सं.-आपटे वा0गो0
7. हंस ः अगस्त 2004, पृ0 4
8. दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र - ओमप्रकाश बाल्मीकि, पृ0 14
9. दलित साहित्य दशा एवं दिशा- माता प्रसाद- पृ0 4
10. दलित साहित्य दशा एवं दिशा- माता प्रसाद-पृ0 73
11. शोध धारा- सितम्बर-फरवरी-2005, प्रवेशांक, पृ0 7
12. हिन्दी साहित्य में दलित चेतना - डॉ0 आनन्द वास्कर, पृ0 19
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युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डाँ वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके पांच सौ से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्र्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
संपर्क: एसोसियेट- भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0)
"वर्तमान में दलित अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए चिन्तित एवं जागरूक है...."
जवाब देंहटाएंक्षमा करे, लेकिन मेरा अपना मत है कि अगर दलित सच में उपरोक्त विचारधारा मन में पाले है तो यह एक बड़ी दुखद और अफ़सोस जनक बात है, और दलितों का दोगला पन है ! अगर वे अपने अस्तित्व को सिर्फ इस लिए बचाए रखने के लिए चिंतित है कि भविष्य में भी वे दलितों को मिलने वाले सुविधावो का फायदा उठा सके तो यह बेहद अफसोसजनक बात है ! होना यह चाहिये कि सभी दलितों को इस और प्रयासरत रहना चाहिए कि भविष्य में "दलित" रूपी वर्ण या जाति ,जो भी कह लो, उसका अस्तित्व ही ख़त्म हो जाए, यानी कि दलित नाम की कोई चीज़ इस देश में न रहे !
बेहतर आलेख।आभार।
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