परिवार सामाजिक सम्बन्धों का एक जटिल जाल होता है। इसमें व्यक्ति अपने जीवन की विकास अवस्था में आगे बढ़ता हुआ पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बन्धों ...
परिवार सामाजिक सम्बन्धों का एक जटिल जाल होता है। इसमें व्यक्ति अपने जीवन की विकास अवस्था में आगे बढ़ता हुआ पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बन्धों के ताने-बाने को बुनता हुआ कई वर्गों में विभाजित होकर अपना जीवन व्यतीत करता है। विभिन्न वर्गों में रहकर व्यक्ति एक-दूसरे से सम्बन्धों को नये आयाम देकर अपने स्वरूप एवं विकृतियों को आगे बढ़ाता रहता है। यही नहीं एक विशेष वर्ग द्वारा परिवार-नियोजन का प्रचार साम्प्रदायिकता को भड़काता है जिसमें हिन्दू घट रहे हैं, मुसलमान बढ़ रहे हैं। सरकार तथा जागरूक नागरिक भी इस प्रचार पर चुप्पी साधे रहते हैं। ऐसे चर्चे एक वर्ग में साम्प्रदायिकता का जहर फैलाकर चले जाते हैं। यह जहर फैलता रहता है और कभी-कभी हिंसात्मक रूप धारण कर लेता है। जिसका फायदा अक्सर घटिया राजनीति उठाती है। आज आवश्यकता सिर्फ हिन्दू, के जागने की नहीं है, बल्कि देश के सभी नागरिकों को जागना होगा, परिवार नियोजन को समझना होगा - भारतीय जागेगा तो भारत बचेगा। भारतीय में हिन्दू भी शामिल है सभी जागें। यानी सभी मिलकर देश के हित-अहित को पहचानें अर्थात् परिवार नियोजन के महत्व को समझें। आलोच्य कहानियों में चित्रित सामाजिक मूल्य तथा परिवेश चित्रण को रघुवीर सहाय एवं सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कहानियों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
रघुवीर सहाय जी की कई कहानियों को पढ़कर रचना के स्तर पर यथार्थ और यथास्थिति का अन्तर खुलता है। क्या अन्ततः साहित्य का काम जीवन को बनाते हुए जीवन का सौन्दर्य बढ़ाना नहीं है ? यह सौन्दर्य को एक सीमित अर्थ में न लेकर एक व्यापक अर्थ में लिया जाना चाहिए जो जीवन के प्रति एक तरह की आस्था और विश्वास जाग्रत करता है। जिसमें जीवन को बदलने का संकल्प निहित है। रघुवीर सहाय जी की कहानियों में जीवन के प्रति एक अहोभाव दिखाई पड़ता है, जो संघर्ष के लिए शक्ति देता है।
‘सेब' कहानी में भी कहानीकार गैरबराबरी पर टिके समाज की विद्रूपताओं को बीमार गरीब, मैले कुचैले कपड़ों वाली लड़की की गोद में पड़े चमकदार, लाल सेब को देखकर ठिठक जाने के माध्यम से चित्रित करता हुआ वह कुछ खोज निकालता है, जो बचाये रखने योग्य है। एक बाप और उसकी बेटी का मानवीय सम्बन्ध जो किसी की करूणा का मोहताज नहीं, यही उस सम्बन्ध का खुलना है जो सेब कहानी को हिन्दी की एक महान कहानी बनाता है।
प्रस्तुत कहानी की संक्षिप्त कथावस्तु यह है कि लेखक स्वयं घूमते टहलते सड़क किनारे पर अचानक एक टूटे हुए परैम्बुलेटर में एक गरीब लड़की को देखता है उसके कपड़े मैले फटे हुए है। बाल बिखरे हुए है, तथा उसके हाथ में एक लाल रंग का सेब है जिसे वो बड़े संभाल कर रखे है। उसका पिता पास ही में कुछ खोज रहा है। पूंछने पर पता लगता है कि उनकी गाड़ी की ढिबरी कहीं गिर गयी है जो बहुत खोजने पर भी नहीं मिली। उसकी लड़की के पिता बताते हैं कि ये छोटी लड़की बहुत बीमार है इसको मोतीझरा हो गया था। बहुत सुईयां लगी हैं पर ठीक नहीं होती, वो लड़की सेब खाना चाहती है पर उसका पिता मना कर देता है। पूरी कहानी उस सेब पर आधारित है लेखक ने मानवीय संवेदना का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है-मैंने सोचा संसार में कितना कष्ट है और मैं कर ही क्या सकता हूँ सिवाय संवेदना देने के। इस गरीब की यह लड़की बीमार है, ऊपर से कुछ पैसे जो अस्पताल की फीस में बचाकर ला रहा होगा, उन्हीं से घर का काम चलेगा, यहाँ गिर गए किसी गाड़ी से टक्कर खा गया होगा। वह तो कहिए कोई चोट नहीं आई वरना बीमार लड़की लावारिस यहाँ पड़ी रहती कोई पूछने भी न आता कि क्या हुआ। मैंने सचमुच उसके बाप को वहीं से आवाज दी क्या ढूँढ रहे हो ? क्या खो गया है'' ?(1) एक और उदाहरण देखिये बीमार लड़की धैर्य से अपने सेबों को पकड़ रही। उसने खाने के लिए जिद नहीं की। चमकती हुई काली सफेद चूड़ियों से उसकी कलाइयाँ खूब ढँकी हुई थी। मुट्टी में वह लाल चिकना छोटा सा सेब था जो उसे बीमार होने के कारण नसीब हो गया था और इस वक्त उसके निढ़ाल शरीर पर खूब खिल रहा था।''(2)
बस यहीं कहानी समाप्त हो जाती है। पूरी कहानी में लेखक बाप-बेटी के मानवीय सम्बन्ध को चित्रित करता है। जो किसी भी करूणा का मोहताज नहीं, यही बताना रघुवीर सहाय जी का उद्देश्य है।
आधी रात का तारा
प्रस्तुत कहानी रघुवीर सहाय जी की प्रथम कहानी है जो दो तीन शीर्षक से अलग-अलग संशोधित रूप में छपी और यही कहानी टूटता तारा शीर्षक से रेडियो रूपक के रूप में प्रसारित हुई है। प्रस्तुत कहानी के अंतर्गत रोमानी ताने-बाने में सामाजिक असमानता पर गहरी चोट की गई है। कहानी के शिल्प में नयापन है। परंपरित ढंग से कथानक आदि का सुनियोजित निर्वाह की कमी है। पर रोमानीपन के बावजूद कथाकार को सामाजिक विसंगतियों का गहरा अहसास है। कहानी का प्रारंभ रोमानीपन के साथ आकाश के सौन्दर्य वर्णन से होता जैसे - ‘‘आकाश नील से धोए भीगे वसन की भाँति स्वच्छ है। साड़ी में टँके सितारे की तरह तारे जगमगा रहे हैं। उनमें न कोई क्रम है, न कोई शैली। उच्छृंखलता में भी कितना सौन्दर्य है।''(3)
ये कहानी प्रतीकात्मक है एक तरफ आसमान एवं तारों को ऐश्वर्य का प्रतीक माना है, दूसरी तरफ एक गरीब परिवार को अंधकार का प्रतीक माना है। ‘‘एक तरफ ऐश्वर्य भोग विलास में डूबा पूंजीपति वर्ग है - जैसे नगर एक शहर की रात है। ऐश्वर्य अँगड़ाई ले रहा है। अंधकार की आड़ में उत्सव ने अपने आपको बड़े पक्षपात के साथ वितरित कर रखा है। कोठे पर नवीना के तरल कण्ठ की खिलखिलाहट के साथ वीणा का संगीत और वारूणी का छलछल मिलकर कर रहा है यही मैं हूँ मैं - उत्सव का देवता। इसी मंदिर में मेरा निवास है।''(4)
वहीं दूसरी तरफ घोर गरीबी का चित्रण - शहर की रात है। गलीज से भरी सड़क की सतह के नीचे, एक तहखाने की सीलन के बीच, एक घर है। लुढ़कती हुई हँड़िया, बुझा हुआ चूल्हा और रोता हुआ बच्चा का एक साथ मिलकर कुछ कहना चाह रहे हैं किन्तु उन्हें जो कुछ कहना है उसी की असीम वेदना से उनका कंठ रूद्ध हो गया है। कोठे तक उनका स्वर नहीं पहुँच पाता।''(5)
कहानी में जहाँ रात के अंधकार और टिमटिमाते तारे की बात है वहीं घोर गरीबी में जीवन यापन कर रहे एक परिवार की कथा है जिसमें एक भूखा बच्चा है, बच्चे की कमजोर माँ, जिसने तीन दिन से कुछ खाया पीया नहीं है बच्चे का बाप रुपये लेने गया है। आधी रात को नित्य वह रुपये की खोज में जाता था। जेल से छूटने पर घर आकर उसने देखा जमा की हुई सम्पत्ति का एक-एक करके खत्म हो गयी है और अब केवल उसकी प्यारी पत्नी और दुलारा बच्चा शेष होने को रह गए हैं। उसने जेब में छेनी और बटमा डाला और चल पड़ा। रात गहरी है। निश्चय ही वह शीघ्र लौटेगा और उसके परिवार का भरण पोषण होगा किन्तु आज रात उसको कुछ नहीं मिला बड़ी मनहूस रात थी वह। कोठरी में घुसकर एक बार उसने अपने बीमार भूखे बच्चे को देखा और अपनी पत्नी से बोला कि लगता है अपनी किस्मत का तारा टूट गया है। उसी समय आसमान से एक तारा टूट जाता है। कहानी अपने आप में सार्थक और उद्देश्यपूर्ण है।
गुब्बारे
गुब्बारे कहानी अपने रूप और अंर्तवस्तु दोनों ही मुकामों पर गहरी संवेदनात्मक बुनावट का चित्रण करती है। कहानी में एक गुब्बारे वाले गरीब लड़के की विडंबना चित्रित है। रामू नाम का एक लड़का रंगीन गुब्बारे बेचता है, और अपना जीवन यापन करता है। जिस जगह वो खड़ा रहता है गुब्बारे लेकर, वहीं पास में एक कार आकर रूकती है, जिसमें एक अमीर पति-पत्नी और उनकी एक छोटी बच्ची भी सवार है। बच्ची कभी गुब्बारे तो कभी चप्पलों के लिए मचलती है, उसको खुश करने के लिए लालीपाप देते हैं पर अन्त में वो गुब्बारे की डोरी उसको पकड़ा दी जाती है जो क्षण भर में उसके हाथों में छूट जाती है। गुब्बारे वाला लड़का मायूस होकर आसमान तकता रहता है जैसे ‘‘उसी की गलती में ये सब हो गया हो। कहानी में मानवीय संवेदना का अनकहा दर्द उकेरा गया है जैसे - तारकोल की सख्त और काली सड़क इस तरह ठण्डी थी जैसे एक मुर्दा देह''। कुछ ऐसा जान पड़ता था कि जैसे किसी दैत्य को सांप ने डस लिया हो और वह निर्जीव होकर हाथ पांव पसारे पड़ा हो। कम से कम उसके छोटे-छोटे नंगे तलवों को तो वह ऐसी ही लग रही थी। इस छोटे लड़के का नाम रामू था। उसका नामकरण करने के पीछे एक असहाय और लाचार दर्द छिपा था। ठीक वैसा ही, जिसके कारण हमें भगवान को नाम लेकर पुकारने की आवश्यकता पड़ती है।''(6)
इससे स्पष्ट होता है कि रघुवीर सहाय जी ने एक तरफ गरीबी के असहनीय दर्द को प्रस्तुत करने में सफलता पाई है वहीं बाल सुलभ मनोवृत्ति का चित्रण करके बाल मनोविज्ञान की सहजता का वर्णन भी किया है - रामू को स्वयं यह हवा में उड़ने वाले गुब्बारे बहुत पसंद थे। हालाँकि उसके हाथ में रोज बीस-पच्चीस गुब्बारे रहते थे, किन्तु वह एक ऐसे गुब्बारे के लिए तरसा करता था जो उसका बिल्कुल अपना हो। वह चाहता था कि एक बड़ा सा बैंजनी गुब्बारा उसका बिलकुल अपना हो और वह उसके साथ जी भर खेलकर एक बार उसे अपनी चुटकियों में पकड़कर छोड़ दे।''(7)
एक छोटी सी यात्रा
रघुवीर सहाय जी की कहानी एक छोटी सी यात्रा में कहानीकार अपनी बस यात्रा के दौरान शाम का अखबार बेचने वाले दो लड़कों से अखबार खरीदने के लिए छोटे लड़के का चुनाव करता है क्योंकि उसकी सहानुभूति कमजोर होने के कारण छोटे के प्रति होती है - छोटे लड़के ने छूटकर पंजों के बल खड़े होकर किसी तरह अखबार खिड़की तक पहुँचा दिया। शाबास मुस्कुराकर मैंने ले लिया। उसकी ओर प्यार से मैंने देखा उसकी हिम्मत बढ़ाने के लिए। लड़का खूब बहादुर है। वह स्वीकृति में मुस्कुराया नहीं न उसने गर्व से सीना ताना, घबराकर बोला, बाबूजी जल्दी दे दीजिए, नहीं तो बस चल देगी।''(8)
इससे स्पष्ट होता है कि बस छूटने वाली होने पर बाकी के दो पैसों के बारे में सोचता है कि कोई हर्ज नहीं जो यह पैसे न दे और बस चल दे। अपनी इस उदारता और उपकार के सुख पर वह आत्मविभोर हो उठता है ‘‘लड़के को देखा उसकी नाक फूलती जा रही थी और आँखें मींच-मींचकर वह जेब में बार-बार हाथ घुसेड़ता था। मैंने उसकी परेशानी को फिर पसंद किया और सोचा-कितना सुपात्र है वह मेरी इस उदारता के लिए''।(9)
किन्तु मेरे भ्रम को बड़ा लड़का उस समय तोड़ देता है जब वह बचे हुए दो पैसे लौटा देता है। रघुवीर सहाय जी कहते हैं कि - ‘‘सहसा निस्तेज होकर मैंने उसके अन्दर हाथ से एक थैला सा अधन्ना ले लिया। मेरे अन्दर कुछ वापस आने लगा। एक क्षण मैंने विरोध किया पर फिर आने दिया। वह शान्तिदायक था मैने लम्बी सांस ली और धन्यवाद दिया कि मैं बच गया।''(10)
इससे स्पष्ट होता है कि रघुवीर सहाय जी उस सस्ती और आसान करूणा से बचने पर राहत महसूस करते हैं जो दूसरे के अद्वितीय होने के अधिकार को छीन लेती है। यह करूणा बिल्कुल निरर्थक है, क्योंकि यह जिसके प्रति होती है, उसे वह कोई शक्ति नहीं देता।
गैरबराबरी और अन्याय पर टिकी व्यवस्था ने आदमी और आदमी के बीच समानता को खत्म तो कर ही दिया है, साथ ही अपने को नीचा और हेय मानकर बिना प्रतिवाद के अपनी स्थिति को स्वीकार कर जीने वाला, जो आदमी बनाया है, उसे उनकी कहानियाँ किले में औरत तथा रास्ता इधर से है हमारे सामने ला खड़ा करती है।
किले में औरत
प्रस्तुत कहानी में कहानीकार एक किलेनुमा आलीशान होटल में अपनी नौकरी के काम के सिलसिले में आकर ठहरता है। होटल के दरबान के अदब से सलाम करने पर रघुवीर सहाय जी कहते हैं कि - उसे यह शक नहीं था कि शायद मैं बहुत अमीर हूँ। उसे विश्वास था कि मैं उससे कुछ अधिक पैसे वाला हूँ और बस इतना भी अधिक होऊं तो काफी है कि उसे कुछ इनाम दे सकूं। गरीबी और गिरावट का एक दिन होता है जब आदमी अपने से जरा से मजबूत आदमी से डरने लगता है। इसी को लोग कर्तव्य और सन्तुलन कहते हैं। वह दिन उसकी जिंदगी में आ चुका था।''(11)
रघुवीर सहाय जी उस दरबार में छिपे भिखमंगे को पहचान लेते हैं, जिसे व्यवस्था ने आदमियत से गिराकर वरदी से ढक रखा है। लेखक की पैनी दृष्टि उस यथार्थ को देख सकती है जिसने आदमी को इस स्तर पर पहुँचाया है कि वह अपने स्वत्व को बेचकर जीने पर मजबूर हो और ऐसा करने पर उसे अपना अपमान महसूस होना भी बन्द हो जाए। यही व्यवस्था की सबसे बड़ी मार है। यह एक औरत को इतना नंगा होने पर मजबूर कर देती है कि उसका कोई शहर या गांव ही न बचे। होटल में रोज शाम के समय कैबरा डांस होता है। शहर के सभी वर्गों के लोग यहां महफिल जमाते है। एक औरत डांस करते-करते सभी का मन बहलाती है। और अन्त में भाग जाती है। जैसे - ‘‘अगले दस मिनट में औरत ने एक-एक करके सब कपड़े उतारे। अंतिम कपड़ा एक लँगोट-उतारने के साथ लाल-पीली रोशनियाँ बुझ गई। धुंधले उजास में वह नंगी खड़ी थी। वह कहाँ की रहने वाली है, मैंने पूछा, गोंडा, बस्ती बेगूसराय, बहराइच, आरा, छपरा, राँची ? असंभव था जानना। वह इतनी नंगी थी। एक दुशाला ओढ़कर वह भाग गई। शर्म दिखाने का उसका काम कायदे से तो सही था मगर उसकी उम्र ज्यादा दिखी, शर्म कम। मैंने नतीजा निकाला कि जब भी कोई तेजी से जाता है उसकी सही उम्र छिपाए नहीं छिपती चाहे व साइकिल चलाए चाहे दौड़े।''(12)
रघुवीर सहाय जी की पैनी दृष्टि उस यथार्थ को देख सकती जिसने आदमी को इस स्तर पर पहुँचाया है कि वह अपने स्वत्व को बेचकर जीने पर मजबूर हो और ऐसा करने पर उसे अपना अपमान महसूस होना भी बन्द हो जाए। यही व्यवस्था की सबसे बड़ी मार है। यह एक औरत को इतना नंगा होने पर मजबूर कर देती है कि उसका कोई शहर या गांव ही न बचे। इस कहानी में सबसे अधिक मार्मिक प्रश्न कहानीकार के मन में होटल के कपड़े उतारकर नाचने वाली औरत को देख पैदा होता है।
रास्ता इधर से है।
इस कहानी में रघुवीर सहाय जी ने आदमी को दब्बू और प्रश्नहीन बनाने वाली इस व्यवस्था को और बारीकी से पकड़ा है। व्यवस्था में व्याप्त असमानता को सामने लाने के लिए इन्होंने अपनी आदत के मुताबिक स्थिति भी अनोखी चुनी है। पेशाबघर के इस्तेमाल में भी किस प्रकार ऊँचे और नीचे का भेद काम कर रहा है, इसे बताकर वे एक विचित्र व्यंग्यात्मक स्थिति के जरिए गैरबराबरी पर टिकी इस सम्पूर्ण व्यवस्था की परतें उघाड़ते हैं। सरकारी दफ्तरों में भी ऊँचे ओहदे वालों के लिए अलग पेशाबघर हैं। हर आदमी को उसकी जगह बता देने की व्यवस्था का यह भी एक तरीका है - ‘‘रास्ता इधर से है कहानी में इण्टरव्यू के लिए आये चालीस उम्मीदवार हैं, पाँच अफसर हैं। चालीसों व्यक्ति इण्टरव्यू के बाद जाते वक्त भूल से पेशाबघर का ही दरवाजा खोलते हैं, वह नहीं जिससे वे अन्दर आये थे हर बार पाँचों अफसर असली दरवाजे की तरफ ऊँगली उठाकर एक साथ चिल्लाते हैं रास्ता इधर से है। इसी पद के लिए जब अगली बार विज्ञापन में सिर्फ नौकरी करने वालों को ही अर्जी देने को कहा जाता है तो अफसरों को एक भी दरवाजा बताना नही पड़ता। अन्त में चुना जाता है जो साक्षात्कार के बीच एकाएक पूछता है ‘‘सर मैं जरा बाहर पेशाब कर आऊँ सर।''(13)
व्यवस्था को जरूरत उसी आदमी की है, जो व्यवस्था के स्तरों में अपनी हैसियत जानता है। रघुवीर सहाय जी का मूल विद्रोह इस गैरबराबरी के संस्कार बन जाने के प्रति है। इस व्यवस्था ने गैरबराबरी को एक मूल्य की तरह स्थापित कर दिया है, उसके प्रति क्रोध या क्षोभ को मिटा दिया है। यही समाज की सबसे बड़ी विडंबना है। अपेक्षाकृत एक अच्छी कहानी है। बेकारी की समस्या और नौकरी के लिए होने वाले कथित इण्टरव्यू की दारूण व्यथा का चित्रण है। जैसे ‘‘एक-एक करके कई लोग और आए। सभी विश्वविद्यालय में साहित्य, विज्ञान, राजनीति, अर्थशास्त्र, इतिहास या कानून इनमें से कुछ न कुछ पढ़ चुके थे। नौकरी की शर्त ही यही थी। कुछ शायद अपने सबसे बढ़िया कपड़े पहनकर आए थे। पर कपड़े नहीं जनाब, मैं बाकी चारों निर्णायकों से कहना चाहता था, जूते देखिए, जूते। उन्हीं से आदमी के असली चरित्र का पता चलता है। एक के जूते बताते थे कि वह बहुत गरीब घर का है हालांकि उन पर पालिश भी। एक के जूते बताते थे कि उसके पास कई जोड़े जूते और भी और कपड़े वह बिल्कुल मामूली पहने था देखिए न जितने खानदानी पैसे वाले होते हैं, अकसर मामूली कपड़े पहनना चाहते हैं ........ मगर उनके जूते।''(14)
इससे स्पष्ट होता है कि यह कहानी उस तथ्य की ओर इशारा करती है कि वर्तमान व्यवस्था में इंसानियत को बरकरार रखने वाली स्थितियाँ धीरे-धीरे मरती जा रही हैं, क्योंकि खुशामद और जी हुजूरी के बिना जीना दुश्वार हो गया है, जैसा कि रघुवीर सहाय जी ने अपनी एक कविता में ऐसे लोगों को तलाशने की बात कही है, आदतन, खुशामद नहीं करते और उस निर्धनता को पानी की जरूरत महसूस की है, जो बदले में कुछ नहीं मांगती। रघुवीर सहाय जी की कहानियों को पढ़कर रचना के स्तर पर यथार्थ और यथास्थिति का अन्तर खुलता है। क्या अन्ततः साहित्य का काम जीवन की समझ बनाते हुए जीवन का सौन्दर्य बढ़ाना नहीं है ? यहाँ सौन्दर्य को एक सीमित अर्थ में न लेकर एक व्यापक अर्थ में लिया जाना चाहिए, जो जीवन के प्रति एक तरह की आस्था और विश्वास जाग्रत करता है, जिसमें जीवन को बदलने का संकल्प निहित है। इन्द्रधनुष उमस के बाहर सेब आदि कहानियों को पढ़कर इसी आस्था का उदय होता है।
विजेता
प्रस्तुत कहानी में पति-पत्नी नहीं चाहते हैं जल्दी कोई सन्तान उनके बीच आये। दवाएँ दी जाती है, पत्नी स्वभावतः चूंकि वह माँ है और पति की इच्छा को स्वीकार करती हुई दवाएँ लेती हुई भी इस रचना से वंचित होना नहीं चाहती। और अन्ततः दवाओं एवं अन्य प्रयासों के बावजूद रचना अस्तित्व में आ जाती है एक जीता-जागता व्यक्ति जो चूंकि इन सबके बावजूद आया है इसलिए विजेता है - सौर का कमरा इस गंध से भरा था जो सुलगती हुई आजवाइन और कड़वे तेल के दिये से मिलकर बनती है और वह साफ पुराने कपड़ों में लिपटी हुई लेटी थी - अशोक ने एक पैर रखकर अन्दर झाँका सामने केवल सरसों के तेल का प्रकाश था और एक विशेष प्रकार की स्वच्छता थी, अशोक का दिल बुरी तरह धड़कने लगा क्या उसने मुझे क्षमा कर दिया है ? मुझे क्षमा कर दो उसने कहा और उसका चेहरा खिल उठा, लाल मुट्ठियाँ बन्द किये हुए और उसकी स्त्री का स्तन मुँह में लिये वह अनायास अपना अधिकार भोग रहा था। न उस पर कहीं कोई निशान था, न खरोंच या दाग कुछ नहीं। यह जीता हुआ आदमी है। अशोक ने कहा और हंसी रोकने से उसका चेहरा दीप्त हो उठा।''(15)
प्रस्तुत कहानी में मानवीयता को एक कर देने की अपूर्व क्षमता है। जैसे कहानी के अन्तिम अंश से स्पष्ट होता है लड़के ने अपने बाप की ओर देखा ही नहीं, न कुछ समझा कि यह कौन है और क्या चाहता है। उसे जरूरत भी न थी। आँखें बंद किए वह निस्पृह भाव से अपना काम करता रहा और कद्दू जैसा पड़ा रहा। उसने एक लड़ाई जीत ली थी और वह वहाँ था अक्षत और संपूर्ण जैसा कि वह दूसरों के बावजूद बना था और कुल इतने से ही उसे फिलहाल मतलब था।''(16)
इससे स्पष्ट होता है कि रघुवीर सहाय जी की नितांत अमानवीयता कैसे एक अपरिहार्य सी प्रतीत होने वाली मानवीयता पर हावी हो जाती है और इसके बावजूद एक बेहद, सुकुमार अबोध ऊर्जा इस अमानवीय शिलाखंड को पूर्ण-विपूर्ण कर खिलखिलाता अस्तित्व धारण कर सामने आ जाती है। रघुवीर सहाय जी की रचनात्मकता तथा मानवीयता को एक कर देने की अपूर्ण क्षमता है कला और जीवन। सम्प्रक्त और एकाकार।
आज संपूर्ण मानव समुदाय ईश्वरीय आस्था व विश्वास पर आश्रित है। सभी मानव संत्रस्त परिस्थितियों को भोगता हुआ आस्था का दीप जलाए चल रहा है। उसके मन में दर्द है, संशय है, कुंठा है किन्तु विश्वास है कि उतने पर भी वह अपनी विशिष्टता और स्वतंत्रता प्रतिपादित कर सकेगा। मानव निराशा के दौर से गुजरते हुए भी आस्था के प्रति चिन्तित है। दुःख से ही उसका विकास हुआ है। अतः इसे विवेक के साथ भोग लेना ही दृढ़ता का प्रमाण है। मानव विवेक ही अधिक विकसित होकर मानवीय आस्था और जिजीविषा में बदल जाता है। मानव में विश्वास उसकी छिपी शक्तियों के प्रति निष्ठा और उसी से विकसित जिजीविषा जैसे मानव मूल्य सर्वेश्वर जी के लेखन में वृहत रूप में मिलते हैं।
भारतीय दर्शन की एक मूल विशेषता यह रही है कि जब हम संकट में हों तभी प्रभु को पुकारें, उनकी शरण में जाएं, प्रभु से सहायता मांगे। नया लेखक ईश्वर, देवता, धर्म और पूजा आदि में विश्वास नहीं करता है। यह ईश्वरीय शक्ति के सहारे विकास पाने की अपेक्षा अपने ऊपर आश्वस्त रहता है।
रचनाकार यदि रचना करते समय यह सोचे कि वह सृजन कर रहा है तो उसकी रचनाओं में स्वाभाविकता नहीं अपितु कृत्रिमता आ जाती है। रघुवीर सहाय जी ने रचना करते समय कभी ऐसा नहीं सोचा। अतः उनकी रचनाओं की सह अभिव्यक्ति उनके सम्पूर्ण साहित्य की उपलब्धि है। रघुवीर सहाय जी की कहानियां न्याय और समता के आदर्शों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और उनके गैर रूमानी यथार्थ की धारणा को बहुत स्पष्ट करती है उनकी आत्मसजग जनतांत्रिक संवेदना अपने वैयक्तिक आचरण और रचना में उस करूणा या सहानुभूति के प्रति आशंकित है जो दूसरों को नीचा बना देती है। अपनी इसी संवेदना से समाज और व्यवस्था में व्याप्त गैर बराबरी को रघुवीर सहाय जी ने बहुत बारीकी से देखा। रघुवीर सहाय की कई कहानियों को पढ़कर रचना के स्तर पर यथार्थ और यथास्थिति का अन्तर खुलता है। इन्द्र धनुष उमस के बाहर सेब आदि कहानियों को पढ़कर जीवन के प्रति इसी आस्था का उदय होता है। यह आशावाद सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कहानियों को भी एक ताकत प्रदान करता है। सर्वेश्वर जी का आस्थावाद आरोपित नहीं है उसमें यह मानव निष्ठा संघर्षों के बाद विकसित हुई है। इसी निष्ठा के कारण वे जिजीविषा से मुक्त हैं ठीक ही है निष्ठा के अभाव में जिजीविषा और जीवनेच्छा के बिना निष्ठा (आस्था) जैसे मूल्यों का विकास भी कहाँ संभव है ?
सर्वेश्वर जी को अपने पर, व्यक्ति पर गहरी आस्था रही है उनकी आस्था जीवन के बीच से फूटी और जीने के लिए विकसित आस्था है। निराशा, अवसाद, विवशता और संघर्षों की जटिलता से घिरकर भी इन्होंने मानवीय शक्ति, उसकी जिजीविषा और उद्दाम जीवनी शक्ति के प्रति दृढ़ रही हैं। निराशा में ही आशा का अस्तित्व रहता है वे संघर्षों के बाद की जीत के प्रति आस्था रखते हैं। वह बाहर की अपेक्षा अपने ही भीतर से आत्मशक्ति का प्रकाश पाना चाहता है। निश्चेष्ट होकर बैठे रहना यह महा दुष्कर्म है निरन्तर अग्रसर रहना चाहिए, आत्मविश्वास व धैर्य का संबल पकड़ो फिर कुछ भी दुर्लभ नहीं है।
सर्वेश्वर जी एक आस्थावादी लेखक हैं उनमें गहरी निष्ठा और विश्वास है। आज स्थिति कितनी ही विषम और त्रासद क्यों न हो गई हो किन्तु संभावनाओं के द्वार बंद नहीं हुए हैं। हर संघर्ष हर चोट और प्रत्येक बाधा इस बात का संकेत देती है कि स्थिति जो भी है, वह शाश्वत नहीं हैं। विषाद, अवसाद और विसंगतियों के काले धुएँ के पीछे उजाला भी तो है उस उजाले की एक किरण हर संघर्ष में भी आदमी को अपनी कौंध दिखा जाती है, न मालूम कौन सा अंधेरा किसी उजाले की भूमिका हो। मानव विवेक इसी कारण प्रतीक्षित रहता है और हर प्रतीक्षा संभावना की सहेली बन जाती है। यही कारण है कि न तो आस्था मिट पाती है और न जिजीविषा समाप्त हो पाती है। सर्वेश्वर जी जीवन को समग्रता में देखते हैं मनुष्य को उसके पूरे रंग-रोगन के साथ आपने निहारा है। धार्मिक अन्धविश्वास के खिलाफ जनता में जागरूकता पैदा करने में उनका काफी विश्वास है।
सर्वेश्वर जी की कहानियों में निहित प्रेम-चित्रण मनुष्य को पतनशील स्थिति में पहुँचा देता है। उन्होंने प्रेम के क्षेत्र में मानव को कीड़े के अतिरिक्त कुछ नहीं समझा है - इस संबंध में हरिहर प्रसाद ने कहा - ‘‘एक प्रेमी का कीड़ा के रूप में चित्रण और उसके समर्पण का विकृत और हास्यास्पद रूप यह बताता है कि कथाकार मनुष्य के प्रेमी की गरिमा को विकृत करने में अधिक रुचि लेता है।''(17) इसी तरह की कहानी है - ‘‘टाइमपीस'', ‘‘पराजय का क्षण'', और ‘‘सफलता''।
जब रचनाकार अपने परिवेश और जीवन संघर्ष से प्राप्त अनुभवों के विविध रंगों को गहरी भाव संवेदना और बौद्धिक समझ के साथ अपने रचना संसार में स्थापित करता है, तब रचना अपने समय का सही साक्ष्य बन जाती है। साहित्यकार समाज का प्रवक्ता है, लेखक की पुकार समाज की पुकार है। किसी देश के साहित्य को देखकर हम पता लगा सकते हैं कि वह देश सभ्य है या अर्द्धसभ्य। हम साहित्य से ही समाज की अवस्था का अनुमान लगा सकते हैं।
आज का समाज बिखराव के कगार पर है। हर रास्ता संकीर्ण है प्रत्येक व्यक्ति स्वार्थ में लिप्त है। फिर भला समाज की इन बुराईयों से साहित्य कैसे बच सकता है। ‘‘सर्वेश्वर जी का लेखन सामाजिक चेतना का यथार्थ पुंज है।''(18) वह चाहते थे कि सभी व्यक्ति विवेकी आस्थावान हों तथा स्वाभिमान से जियें। विश्व में शांति और परस्पर सहयोग का भाव हो परन्तु आज के विसंगतिपूर्ण तथा भ्रष्ट जीवन में इसका अभाव देखने को मिलता है। मूल्यों का विघटन हो रहा है। इन्होंने इस जटिल स्थिति में भी नये मूल्यों की खोज करने की कोशिश की है।
आज समाज की जटिलताओं की तस्वीर सर्वेश्वर जी के साहित्य में अनायास ही अंकित हो गई है। फूहड़ व विकृत समाज को संवारने व उसे चैतन्य करने की जी-तोड़ कोशिश उन्होंने की है। बड़े ही ओजस्वी स्वरों में उन्होंने सामाजिक चेतना का शंखनाद किया है। लेखक अपरिमित विकसित शक्तियों को स्वर, भाषा, वाणी देने से मना करते हैं। वह पाशविक युद्ध, अकारण नरसंहार और सहानुभूति व करूणा के भूखे लोगों पर किये जाने वाले अत्याचारों के खिलाफ भी संघर्ष करने को तैयार है। उनके शब्द साहसिक सैनिकों की तरह अमानवीयता के खिलाफ आग उगलने वाली एक तीव्र शैली में विद्रोह करने पर आमादा हो गए हैं। आज सामाजिक त्रासदी और राजनीति के भीतर फैली हुई मिथ्याचारिता को भी लेखक पहचानता है। वह अच्छी तरह जानता है कि हमारी कमजोरी कहाँ हैं, हमारी पारस्परिक फूट, व्यक्तिगत स्वार्थ, संशय, ईर्ष्या और खुशामदी वृत्तियों में ही हमारी कमजोरी छिपी है। आग तभी पैदा हो सकती है और उसकी लौ तभी तेज हो सकती है जब हम अपनी इन कमजोरियों को जीत लें। यदि हमने ऐसा नहीं किया तो सत्ता एक दिन अवसर पाकर हमें पूरा निगल जाएगी।
मनुष्य चैतन्य और एक जुट होकर मदान्ध सत्ता के भेड़िए को भगाने के लिए चेतना की मशाल जलाये। कोरी भावुकता, करूणा, कायरता और समूचा प्रेम जिंदगी को कैद कर लेना है और परिस्थितियों की तेज आँधी आज मनुष्य को क्रांति व विद्रोह की प्रेरणा दे रही है। ‘‘सर्वेश्वर जी विद्रोह और क्रांति को आवश्यक मानते हैं।''(19)
आज सर्वत्र एक अराजक स्थिति है। लेखक इस स्थिति से क्षुब्ध है वह असमानता, अमानवीयता और स्वार्थपरता को समाप्त कर मानवीय मूल्यों की पताका फहराना चाहता है।
वह चाहता है कि व्यवस्था बदले, व्यवस्था के साँपों, भेड़ियों और कुत्तों को कुचलने के लिए सभी एक जुट हों और उस अवसरवादी व चापलूसी वृत्ति का मुँह कुचल दें जिसने हमसे जीने का अधिकार छीन लिया है। हमारी स्वतंत्रता का अपरहण कर लिया है लेकिन सब कुछ धीरे-धीरे हो रहा है। लेखक को धीरे-धीरे मौन रहकर प्रतीक्षारत रहने वाली स्थिति पसन्द नहीं है। उनकी धारणा है कि धीरे-धीरे कुछ नहीं होता सिर्फ मौत होती है।
आज जिंदगी भूखी है और आदमी भूख मिटाने में असमर्थ है। क्योंकि वह संघर्ष से बचता है, कष्टों से दामन बचाता है। सर्वेश्वर जी उसे ही श्रेष्ठ समझते हैं जो संघर्ष के बीच से रास्ता निकालकर अपना जीवन जीता है। कायर होकर जीना कोई जीना नहीं है उन्होंने गरीबी, भूख, व्यवस्था तंत्र, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्थितियों को भली-भांति समझा और सम्पूर्ण समाज के लिये एक नयी राह प्रशस्त की उनके साहित्य में सामाजिक चेतना के भाव निहित हैं। स्वतंत्रता के बाद आज भी समाज का एक बड़ा भाग गरीबी व भूख से पीड़ित है। आज साम्राज्यवादी शक्तियों और उपनिवेशवादी चरित्रों ने अमानवीयता पशुता दम्भ और असंस्कृतिकरण को बढ़ावा दिया है। शासन मनमानी करने का माध्यम बन गया है जिससे भूख, बेकारी, बेरोजगारी व भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला है, व्यक्ति की त्रासदी समाज का खोखला रूप और प्रशासन के मिथ्या वायदों से शोषित वर्ग पीड़ित है। आज समाज व देश में मूल्यों का विघटन हो रहा है ऐसी सामाजिक विसंगतियों और विघटित मूल्यों से उत्पन्न संकट की स्थितियों के कारण ही वह चिन्तित है।
देश में अराजकता और लाचारी का जाल इतना बढ़ गया है कि कोई भी साहस और निर्भीकता के साथ कुछ भी नहीं कर सकता। सत्ताधारी पाशविक हो गये हैं परन्तु उनके गीतों का स्वर करुणा और बन्धुत्व का ही है। वे शोषक होकर भी पोषक बने रहने का छद्म करते हैं। ऐसे परिवेश में जीवित व्यक्ति न तो गुस्सा कर सकता है न घृणा, क्योंकि आततायी मजबूत और तेज सलाखों वाले पिंजरों में बैठा है। सामाजिक विसंगतियों की भयावहता और दम घोंट स्थितियों में आदमी को अपना चेहरा स्पष्ट दिखाई नहीं देता। सर्वेश्वर जी वर्तमान के उस क्षण पर खड़े हैं जहाँ वे सारे समाज की तस्वीर को साफ-साफ देखते हैं व विसंगतियों और तनाव को अनुभव करते हैं।
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कहानियाँ चूँकि जन कहानियों की श्रेणी में आती हैं, इस कारण वह काफी लोकप्रिय रहीं। इन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से स्वतंत्रता के पहले और बाद की सामाजिक राजनैतिक व समाज के अन्य क्षेत्रों की समस्याओं को छूने का प्रयास किया है। सक्सेना जी ने अपनी कहानियों के द्वारा समाज तथा राष्ट्र को एक संदेश दिया है।
‘‘प्रयोजन मनुदृश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते''।
अत्यंत साधारण या मंद बुद्धिवाला व्यक्ति भी किसी कार्य में निष्प्रयोजन प्रवृत्त नहीं होता इसी प्रकार प्रत्येक साहित्यकार का कुछ न कुछ उद्देश्य होता है यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसकी रचना को प्रभावित करता है। प्राचीन युगीन कथा साहित्य से लेकर वर्तमान तक उद्देश्य का स्वरूप भी परिवर्तित और विकसित होता रहा है। डॉ. गुलाबराय ने कहानी के उद्देश्य पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कहा है कि प्रत्येक कहानी में कोई उद्देश्य या लक्ष्य अवश्य रहता है। कहानी का उद्देश्य केवल मनोरंजन अथवा लंबी रातों को काटकर छोटा करना नहीं है वरन् जीवन संबंधी कुछ तथ्य देना या मानव मन का निकट परिचय कराना है।
सर्वेश्वर जी की कहानियाँ उद्देश्यपूर्ण हैं, उनकी सभी कहानियाँ लक्ष्य प्रधान हैं वे साहित्य में लक्ष्य को सबसे महत्वपूर्ण स्थान देते हैं। सर्वेश्वर जी की कहानियाँ आज की विकट परिस्थितियों की उपज हैं, इनकी कहानियों में असह्य पीड़ा है सभी जगह असंतोष, ईर्ष्या, डाह ............ का बोलबाला है। उनकी कहानियाँ आज की दुनिया की भूख, प्यास, पीड़ा, छटपटाहट, विवशता और मृत्यु की मर्मस्पर्शी और प्राणवान अभिव्यक्ति हैंं उनकी कहानियाँ हमें अंधेरे से जूझने की प्रेरणा देती हैं।
गाँधी के नाम का इस्तेमाल सत्ताधारियों और सत्तालोलुपों द्वारा फिर वे किसी भी राजनैतिक दल के भले ही क्यों न हो, जिस घृणास्पद स्तर पर किया जा रहा है। गाँधी जी और गाँधीवाद के नाम पर नेतागण अपनी रोटी सेंक रहे हैं। उनकी समाधि पर फूल चढ़ाकर सब अपने फूलों की सेज सजा रहे हैं। वास्तव में आज गांधीवाद इस देश के शरीर में जहरवाद की तरह फैल गया है, स्वयं सर्वेश्वर कहते है यह एक धुन है जिसने इस देश की जनता के संकल्प, मनोबल और अन्याय से लड़ने की ताकत को भीतर-ही-भीतर घुन दिया है। गांधी और गांधीवाद का सहारा लेकर हर सत्ता लोलुप उचक्का जनता को सत्य और अहिंसा की माला आखें बन्द कर जपने के लिए देता जा रहा है और खुद उसके विपरीत मूल्यों को अपनाकर लूटपाट करता आ रहा है।
आज राजनीति का अर्थ बदल गया है। आज उसके लिए नये अर्थ की आवश्यकता है जिससे देश का नागरिक आज की राजनीति को समझ सके। जितना पतन हमारे देश में राजनीतिज्ञों का हुआ है। उतना किसी भी अन्य देश में नहीं। अनर्गल बकवास, असत्य, भाषण, स्वार्थ, चाटुकारिता, विचारों की परिवर्तनशीलता इस देश के नेताओं की विशेषता बन गई है। स्वयं सर्वेश्वर जी ने इन नेताओं के संबंध में कहा है - ‘‘इतनी जल्दी तो गिरगिट भी रंग नहीं बदलता जितनी जल्दी देश के नेता रंग बदलते हैं। सारा दृश्य किसी सूने कमरे की खाने की मेज पर चूहों की कलाबाजियों जैसा है किसी का भय नहीं न अपनी आत्मा का, न जनता का। बेफिक्र धमाचौकड़ी मची हुई है।'' आज आवश्यकता इस गंदी राजनीति से देश को बचाने की है, क्योंकि यह गंदी, घटिया, राजनीति नितांत उबाऊ है।
वर्तमान समय में बढ़ती हुई वारदातें चोरी-डकैती, छीना-झपटी, बलात्कार, हत्याओं का बोलबाला है। जन साधारण इसका बुनियादी कारण गरीबी और बेरोजगारी को मानते हैं, लेकिन देखा जाए तो सही अर्थों में पुलिस या प्रशासन ही अपराधी है। अपराध बिना पुलिस या प्रशासन के संरक्षण के नहीं होते हैं। अपराधियों की पीठ पर जब प्रशासन का हाथ होता है तभी अपराध होते हैं।
यदि अपराध दूर करने हैं तो प्रशासन को ऊपर से स्वच्छ करना होगा। पुलिस कर्मचारी की आर्थिक स्थिति और बेहतर करनी होगी और पूरे ढाँचे में बदलाव लाना होगा - तंत्र के ढाँचे में और सामाजिक, राजनैतिक ढाँचे में गरीबी और बेरोजगारी दूर करनी होगी और नागरिकों के जीवन को आशंकाओं और अनिश्चितताओं से मुक्त कर उसे हर तरह की सुविधा और गारंटी देनी होगी।
आज पूरा व्यवस्था तंत्र चरमरा उठा है। निरन्तर दुर्घटनाएँ बढ़ रही हैं जुल्मों एवं अत्याचार, जहरीली शराब, की जाँच पड़ताल न कर भारत में केवल जाँच कमेटियाँ बैठायी जाती हैं जो लंबे समय तक जाँच करती रहती हैं। जिनकी रिपोर्टों से सिर्फ प्रशासन की फाइलों में ही वृद्धि हो रही है। आज दोषियों को दंड न देकर फाइलों का पेट भरा जा रहा है ‘‘इस देश में प्रशासन की फाइलें इस देश के आदमी की भूख के लिये तो कुछ नहीं कर पाता, फाइलों का पेट भरना खूब जानता है। इसमें वह बड़ा निपुण है। उन्हें एक क्षण भी भूखा नहीं रख सकता। फाइलें बढ़ती जा रही हैं। उनका पेट बढ़ता जा रहा है और सब कुछ उसी में समाता जा रहा है।
दीपावली खुशी का त्यौहार है जिसे लोग खुश होकर मनाते हैं, लेकिन व्यवस्था ने आज सामान्य वर्ग को ऐसी कोई खुशी नहीं दी जिससे वह इस त्यौहार को हर्षोल्लास के साथ मना सके। एक वर्ग तो भ्रष्टाचार, शोषण, चोरबाजारी से पैसा इकट्ठा कर लक्ष्मी पूजन कर रहा है वहीं दूसरा वर्ग दिन-रात श्रम करके भी भूखा रहता है। ऐसे में उनके लिये थोड़ी सी रोशनी की क्या उपयोगिता है ? सर्वेश्वर जी ऐसी दीपावली मनाने का विरोध करते हैं। जब मन के भीतर इतना अंधेरा हो तो बाहर थोड़ी रोशनी जलाकर क्या होगा ? आज एक दिन की दीपावली से क्या होगा इस वर्ग के पूरे जीवन में दीपावली होनी चाहिए। दीपावली मनाने की खुशी तो तभी होगी जब यह व्यवस्था बदल जाएगी। जब देश के करोड़ों आदमियों की आँखें में रोशनी होगी, वे बुझे चिरागों सी नहीं दिखेगी। अभी उनमें संकल्प की रोशनी पैदा करनी होगी - सब कुछ बदलने के संकल्प की रोशनी। दीवाली पर यदि जला सकते हो तो यह संकल्प का दीया जलाओ। यही सही रोशनी है - नैतिक रोशनी, अन्यथा दीये मत जलाओ।''
आज विज्ञापनों का प्रभाव निरन्तर बढ़ रहा है। समारोहों की सम्पन्नता बहुत कुछ विज्ञापनों पर निर्भर हो गई है। आज लाखों रुपये इन विज्ञापनों पर खर्च हो रहे हैं, लेकिन भले ही राजनीतिक ताकत पैसे के जोर पर हासिल कर ली जाए। सांस्कृतिक प्रतिष्ठा पैसे के जोर पर अर्जित नहीं की जा सकती। इस संबंध में सर्वेश्वर जी की राय है कि - ‘‘यही यह जमीन है - कला, साहित्य, नृत्य, संगीत, रंगमंच की - जहाँ पैसा अन्ततः मात खाता है, प्रतिभा भी टिकती है ......... यह बड़ी निर्मम जमीन है इसे नंगे पैर आदमी पार कर जाता है, हाथी पर बैठा धँस जाता है।
वर्तमान परिवेश में दिन-प्रतिदिन शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है। दसियों विषय का बोझ विद्यार्थी के सिर पर लाद दिया गया है, जिन्हें वह भार की तरह ढोता है। परीक्षक भी कापियों के सही मूल्यांकन से कतराते हैं अब विद्यार्थियों का पास-फेल होना तकदीर का खेल बन गया है। इस घटिया शिक्षा व्यवस्था में योग्यता की सच्ची परख कहीं नहीं है। यहाँ परीक्षक और विद्यार्थी व्यवस्था की शर्तों को मानने के लिए बाध्य है। व्यवस्था की शर्तों की चक्की में पिसने के लिए ही विद्यार्थी ढाला जाता है। यह किताबें रटता है, परीक्षा देने की चालाकी सीखता है। परीक्षक भी मेहनत से मुँह चुराता है। यह व्यवस्था कला विद्यार्थी को सामाजिक दृष्टि नहीं देती है। वे सिर्फ रट्टू तोते बनकर नौकरी करना चाहते हैं। उनमें से कोई भी कवि, लेखक, समाजसेवी, क्रान्तिकारी नहीं बनना चाहता। आज आवश्यकता है कि यह शिक्षा पद्धति बदले। स्कूलों को सरकार के नियंत्रण से मुक्त किया जाये। जिससे विद्यार्थी सामाजिक ताकत के रूप में निर्मित हो सके। इस संबंध में सर्वेश्वर जी चाहते हैं कि ‘‘ऐसे स्कूल खोले जायें, बिना सरकारी मदद के जहाँ सही शिक्षा दी जाए। दो घंटे से अधिक न पढ़ाया जाये। छात्रों को समाज को बदलने की ताकत के रूप में तैयार किया जाये। यथास्थिति को बनाये रखने के पुर्जे के रूप में न ढाला जाये। सारे देश में सौ ऐसे स्कूल भी खुल जायें तो हवा बदलने लगेगी।
जिन्दगी से घबराकर भागना आत्महत्या को बढ़ावा देता है। आज प्रतिदिन आत्महत्या की खबर पढ़ने को मिलती है। प्रेम में असफलता, बेरोजगारी, शिक्षा की असफलता, छात्र जीवन की माँगों की आपूर्ति का निदान आत्महत्या से होता है। यह आत्महत्या किसी भी जीवित समाज के लिए कलंक है। वास्तव में जिन्दगी से अधिक प्यारी चीज कोई नहीं होती। क्यों कोई इस समाज में जिन्दा रहना नहीं चाहता। इसका जवाब समाज को खोजना होगा। आत्महत्या किसी भी समाज की सबसे बड़ी दुर्घटना है। उसकी जाँच-पड़ताल होनी चाहिए, क्योंकि कोई भी आत्महत्या व्यक्तिगत कारण से नहीं होती। कहीं न कहीं से पूरा समाज इसका जिम्मेदार होता है। आए दिन होने वाली इन आत्महत्याओं के पीछे एक मूल कारण आर्थिक बुनियाद भी है। अकेलापन भी आत्महत्या को बढ़ावा देता है। इसलिये व्यक्ति को अकेला मत छोड़ो आज यह बहुत जरूरी हो गया है कि आत्महत्या के मूल कारणों की जाँच हो, क्योंकि आत्महत्याओं से युक्त समाज ज्यादा दिन नहीं चल सकता। - ‘‘एक आत्महत्या की जिम्मेदारी सब पर होती है, पूरे समाज पर। आदमी जब अकेला पड़ जाता है तब मरता है। कम से कम मरने के बाद तो उसे अकेला मत छोड़ो, जिन रूढ़ियों, दुराग्रहों, जिस घुटन अन्याय के कारण वह मरा है उन सबको बदलो, मिलकर बदलो, तुरन्त बदलो, आत्महत्याओं की नींव पर खड़ा समाज बहुत दिनों तक नहीं चलता।
लेखक-साहित्यकार समाज का निर्माण करने वाले हैं। समाज व व्यवस्था की वास्तविक जानकारी उनके सहयोग के अभाव में नहीं प्राप्त की जा सकती। लेकिन आज वे एक विशेष वर्ग तक सीमित रह गए हैं। वे केवल तभी बोलते हैं जब उनमें से किसी पर कोई अन्याय होता है। कितने ही निर्मम हत्याकांड, मौंतें, रेल दुर्घटना पर हमारे ये लेखक चुप्पी साधे रहते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि उनकी लड़ाई केवल लेखकों की लड़ाई होकर रह जाती है, आम आदमी की लड़ाई के साथ नहीं जुड़ पाती। आज आवश्यकता है कि लेखक और बुद्धिजीवी समाज के किसी ऐसे सामान्य जन को प्रतीक बनाकर जिस पर अन्याय हुआ हो लड़ाई छेडें और समाज को जागरूक करें तथा सत्ता को सावधान करें। सर्वेश्वर जी का यह संदेश लेखकों के लिये ही है ......... आशा की जानी चाहिए कि लेखक और बुद्धिजीवी अपनी बिरादरी पर हुए अन्याय के खिलाफ तो आवाज उठायेंगे ही उन तमाम बेजबानों पर होने वाले अन्याय के खिलाफ भी आवाज उठायेंगे जो व्यवस्था के लोकतंत्रीय आचरण से हर प्रकार की यातना झेल रहे हैं।
भारतीय समाज में नारी सबसे अधिक अभिशप्त है। नारी को प्रताड़ित करने वाला पुरुष वर्ग अभी भी निःशंक होकर समाज में रहता है, क्योंकि उसे उन ताकतों का समर्थन प्राप्त है जिनसे वह भयभीत हो सकता है। नारी के साथ होने वाले ये अमानवीय व्यवहार विभिन्न प्रदर्शनों से बंद नहीं हो सकते। औरत के मर जाने के बाद या मारे जाने के बाद प्रदर्शन करने से कोई फायदा नहीं है ? जीते जी औरत का साथ दो ताकि उसे लगे कि समाज उसके साथ है। आज के युग में नारी की नारकीय यातना से मुक्ति के लिये आवश्यक है कि - ‘‘उसकी ही जमात की तमाम पढ़ी-लिखी लड़कियों और औरतों को उसके साथ मिलकर उसकी लड़ाई लड़नी होगी। तभी धनलोलुप वहशी भेड़ियों को उनकी माद में ही कैद रखा जा सकेगा।
शासन व्यवस्था में बढ़ते हुए अनाचार के साथ-साथ आज की पुलिस भी अत्याचारी हो उठी है। वह वर्ण भेद को उकसा रही है। वह हरिजनों से नफरत करती है वह उन लोगों से भी घृणित व्यवहार करती है जो गरीब हरिजनों और आदिवासियों के बीच काम करते हैं, उनका साथ देते हैं। आज पुलिस गाँव के साहूकार, जमींदारों के कहने पर चलती है और गाँव के लोगों का शोषण करती है। वास्तव में इस समस्या का समाधान पुलिस में हरिजनों व आदिवासियों की भर्ती से ही हो सकता है। यदि पुलिस में 60प्रतिशत लोग हरिजन और आदिवासी हो जायें तो पुलिस के अत्याचार की समस्या काफी सुलझ सकती है।
शक्तिशाली हमेशा निर्बल को दबाता है। यह समाज का नियम है, जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत आज पूर्णतः प्रचलित है। इस दुनियाँ में वही जी सकता है जो अपने अधिकारों के प्रति सतर्क है व हर शोषण, अत्याचार का विरोध करने को उत्सुक है। कमजोर-निरीह प्राणी भी एक होकर लड़े तो उनकी लड़ाई सार्थक हो सकती है। ऐसी लड़ाई में लोग मूक दर्शक न बन सकेंगे, बल्कि लड़ने वाले का साथ देने के लिए तत्पर हो उठेंगे। ‘‘कमजोरों की एकता का भी तभी कुछ मतलब होता है, जब वे लड़ने की कोशिश करें। लोग लड़ाई का साथ देते हैं। जो खुद नहीं लड़ता, खाली चिल्लाता है - अकेले या तमाम लोगों के साथ मिलकर भी, उसका साथ कोई नहीं देता।
राजनीति का मुख्य मुद्दा चुनाव है। लोकतंत्र में चुनाव से राजनीतिक गतिविधियाँ चरमसीमा पर पहुँच जाती हैं। हर पार्टी लंबे-लंबे घोषणा-पत्रों द्वारा जनता-जनार्दन को भूल-भूलैया में डाल अपना राजनैतिक स्वार्थ पूरा करना चाहते हैं व कुर्सी प्राप्त होते ही अपने वायदों को भूल जाते हैं। सर्वेश्वर जी चाहते हैं कि अब इस क्षेत्र में परिवर्तन हो और यह परिवर्तन ग्रामीण भाइयों व पिछड़ी जातियों में शुरू हो। वे चुनाव के समय किए गए वायदों को पूरा करवाये। यदि वे अपने वायदे पूरे नहीं करते तो उन्हें अपने निर्वाचन क्षेत्र में न घुसने दिया जाए। उनका घेराव करें और उन्हें वापस बुलाने की माँग उठायें जन अदालतें बनायें और उन पर मुकदमा चलायें, अन्यथा यह चुनाव-चक्र टूटेगा नहीं। अब हर वर्ग को कटिबद्ध होना पड़ेगा - ‘‘लोक प्रतिनिधियों से टकराना होगा और उन्हें बताना होगा कि अब वे बिना अपने घोषणा-पत्र के अनुरूप काम किये समाज में वापस नहीं लौट सकते, न स्वीकार किये जा सकते हैं। उन्हें काम के लिए मजबूर करने से ही लोकधर्म की शुरूआत होगी जिधर से होकर क्रांति का रास्ता है।
लेखक और साहित्यकार आज उपेक्षित जीवन जी रहे हैं। रचनाकारों को गौरवांवित करने के लिए पुरस्कारों की व्यवस्था की गई है, लेकिन इन पुरस्कारों के पीछे सम्मान का भाव नहीं रहता, वे खानापुरी मात्र रह गए हैं। प्रदेश सरकारें अपने बजट में से कुछ पैसा बाँट देती हैं जो लेखक धनाभाव से ग्रस्त रहता है उसे कुछ पैसा मिल जाता है। यह पुरस्कार भी मंत्रियों और नेताओं की सुविधायें देखकर बाँटे जाते हैं, भले ही इसमें पुरस्कृत रचनाकारों को असुविधाओं का सामना करना पड़े। यह रवैया परिवर्तित होना चाहिए। उचित यही है कि - ‘‘लेखक को पुरस्कार धन में न देकर उसे सुविधाएं दी जानी चाहिए। घर, बच्चों की निःशुल्क शिक्षा, मुफ्त दवादारू आदि। इससे सचमुच लेखक का कल्याण अभीष्ट हो सकता है।''
रघुवीर सहाय तथा सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कहानियों में सामाजिक मूल्य तथा परिवेश चित्रण के विभिन्न रूपों में समानता दिखाई पड़ती है। दोनों कथाकारों ने अपने परिवेश और सामाजिक मूल्यों के विविध रूपों को गहरी संवेदना और बैद्धिक समझ के साथ अपनी कहानियों में प्रस्तुत किया है। आलोच्य कथाकारों की कहानियों में सामाजिक जीवन के प्रति एक तरह की आस्था और विश्वास दिखता है। जो मानव जीवन के प्रति सकारात्मक भाव को व्यक्त कर संघर्ष की एक नयी शक्ति प्रदान करता है।
रघुवीर सहाय की कहानियों में सामाजिक मूल्यों के प्रति जहाँ एक तरह की सलाह की बात कही गई है। वहीं सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कहानियों में कोरी भावुकता, करूणा, कायरता को दूर कर मनुष्य को क्रांति व विद्रोह की प्रेरणा के लिये आग्रह की बात दुहराई गई है। सामाजिक परिवर्तन एवं अच्छे जीवन मूल्यों के लिये सर्वेश्वर दयाल सक्सेना अपनी कहानियों में विद्रोह और क्रांति को आवश्यक मानते हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. रघुवीर सहाय रचनावली -2 पृ. 53
2. रघुवीर सहाय रचनावली -2 पृ. 55
3. रघुवीर सहाय रचनावली -2 पृ. 31
4. रघुवीर सहाय रचनावली -2 पृ. 31
5. रघुवीर सहाय रचनावली -2 पृ. 31
6. रघुवीर सहाय रचनावली -2 पृ. 33-34
7. रघुवीर सहाय रचनावली -2 पृ. 34-35
8. रघुवीर सहाय रचनावली -2 पृ. 70
9. रघुवीर सहाय रचनावली -2 पृ. 70
10. रघुवीर सहाय रचनावली -2 पृ. 70
11. रघुवीर सहाय रचनावली -2 पृ. 121
12. रघुवीर सहाय रचनावली -2 पृ. 123-124
13. रघुवीर सहाय रचनावली -2 पृ. 106
14. रघुवीर सहाय रचनावली -2 पृ. 105
15. रघुवीर सहाय रचनावली -2 पृ. 80,81,82
16. रघुवीर सहाय रचनावली -2 पृ. 82
17. सर्वेश्वर का रचना संसार ः प्रदीप सौरभ (निष्ठा और सामर्थ्य के द्वन्द्व की कहानियाँ) ः
18. समकालीन कविता का मूल्यांकन - डॉ. गुरुचरण, पृ. 56 हरिहर प्रसाद, पृ. 43
19. गर्म हवाएँ - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, पृ. 85
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युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डाँ वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके पांच सौ से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्र्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
डॉ․ वीरेन्द्र सिंह यादव
सम्पर्क -एसोसियेट- भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0)
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