आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी का पहला मौलिक उपन्यास ’परीक्षा गुरू’ (सन् 1882 ई.) माना। लाला श्रीनिवास दास ने इसे ’संसारी वार्ता’ कहा। अंग्...
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी का पहला मौलिक उपन्यास ’परीक्षा गुरू’ (सन् 1882 ई.) माना। लाला श्रीनिवास दास ने इसे ’संसारी वार्ता’ कहा। अंग्रेजी नॉवेल शैली का समावेश पहली बार ’परीक्षा गुरू’ में किया गया। हिंदी में उपन्यास से पूर्व अनेक गद्य कथाएं लिखी जाती थी। जिसमें मौलिक और अनुदित दोनों तरह की रचनाएँ थीं। हिन्दी में सर्वप्रथम मौलिक गद्य कथा सैयद इंशा अल्ला खां द्वारा रचित ’रानी केतकी की कहानी’ है जिसकी रचना 19वीं शताब्दी के प्रथम दशाब्द में हुई। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध्द में अनेक गद्य-कथाओं का लेखन किया गया जिनमें ’रानी केतकी की कहानी’ को छोड़कर अधिकतर अनूदित ही थी। ’रानी केतकी की कहानी’ हिन्दी कथा साहित्य की परंपरा का उद्भव है। ’रानी केतकी की कहानी’ के बाद अनेक गद्य कथाओं का प्रकाशन हुआ जिसमें ’धर्मसिंह का वृत्तांत’, श्री लाल कृत ’सूरजपूर की कहानी’ (भाग-1) जिसका प्रथम प्रकाशन आगरा से हुआ। इस कहानी के बाद सन् 1875 ई. तक इसके ग्यारह संस्करण छपे। इस कहानी का द्वितीय भाग की रचना मुंशी नज़्म अलादीन ने की थी। जिसका द्वितीय संस्करण सन् 1886 ई में इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ। राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द द्वारा रचित ’वीरसिंह का वृत्तांत’ (प्रथम संस्करण 1855 ई.), ’वामा मनरंजन’ (प्रथम संस्करण 1856 ई), ’लड़कों की कहानी’ (द्वितीय संस्करण 1861 ई.) आदि उल्लेखनीय गद्य कथाएँ हैं। 1859 ई. में ’फूलों का हार’ नामक कथा पुस्तक आठ भागों में आर्फन प्रेस, मिरज़ापूर से प्रकाशित हुआ। नल दमयंती की प्रेम कथा के आधार पर दाऊजी अग्नीहोत्री द्वारा रचित नल प्रसंग शीर्षक गद्य कथा का प्रकाशन काशी से सन् 1860 ई. में हुआ था।1 उन्नीसवीं शती के प्रारंभिक सात दशकों तक मौलिक और अनूदित गद्यकथाओं की रचना की गई ।
संभवतः सन् 1873 ई. तक कहानी और उपन्यास में कोई विभाजन रेखा नहीं थी। हिन्दी में उपन्यास और नॉवेल शव्दों का सबसे पहला प्रयोग भारतेंदु हरिश्चंद्र ने किया। ’हरिश्चंद्र मैगज़ीन’ प्रथम अंक, अक्तूबर 1873 ई. के आवरण पृष्ठ पर अंग्रेजी का ’नॉवेल’ शब्द रोमन लिपि में प्रयुक्त हुआ था, - ’अक्टूबर 1873 नवंबर वाल्यूम 1, हरिश्चंद्र मैगज़ीन ए मंथली जर्नल पब्लिश्ड इन कनेक्शन विथ द कविवचनसुधा कंटेनिंग आर्टिकल्स ऑन लिटरेरी, साइंटिफिक, पौलिटिकल एंड रिलिजियस सब्जेक्ट्स, एन्टिक्विरिज, रिव्यूज, ड्रामाज़, हिस्ट्री, नावेल्स, पोएटिकल सलेक्शंन्स , गौसिप, ह्यूमर एंड विट एडिटेड बाई हरिश्चंद्र’ इससे पहले किसी भी हिन्दी पत्रिका अथवा हिन्दी पुस्तक में उपन्यास के अर्थ में नॉवेल शव्द का प्रयोग नहीं किया गया। इसके बाद सन् 1875 ई. में मासिक पत्र ’हरिश्चंद्र चंद्रिका’ फरवरी , 1875ई. (खंड 2, संख्या 5) पृ.सं 152 पर ’उपन्यास’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम किया गया‘।2 ’हरिश्चंद्र चंद्रिका’ के सन् 1875 ई. के फरवरी और मार्च इस संयुक्तांक में ’मालती’ नामक उपन्यास अपूर्ण रुप से प्रकाशित हुआ।3 इस गद्य कथा के शीर्षक (मालती) के आगे कोष्ठक में ’उपन्यास’ शब्द दिया हुआ है।
’परीक्षा गुरू’ (1882 ई.) के पहले भी हिन्दी में चार मौलिक उपन्यासों की रचना की गई हैं- यथाः- ’देवरानी जेठानी की कहानी’(1870ई.)4 ’वामा शिक्षक’ (1872 ई.)5 ’भाग्यवती’ (1877 ई.)6 और ’निस्सहाय हिन्दू’(1881 ई प्रकाशन पर्ष 1890 ई.)।7 इसके अलावा भी कुछ उपन्यास अपूर्ण ही रहे, जो इस प्रकार है- ’स्त्री दर्पण’ (1886 ई.)8, ’मालती’ (1875 ई.)9, ’तपस्विनी’ (1879 ई.)10, ’रहस्यकथा’ (1879 ई)11,’एक कहानी कुछ आप बीती कुछ जब बीती’(1870-79ई.)12 और ’अमृत चरित्र’ (1881 ई.)13 आदि। इन उपन्यासों को कालक्रम एवं ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए । आज इन उपन्यासों में से कुछ उपन्यास उपलब्ध हैं कुछ अनुपलब्ध, तो कुछ उपन्यास पुरानी फाईलों में दबें पड़े हैं, जिनको हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधी के तौर पर प्रकाश में लाना जरूरी है ।
हिन्दी के प्रारंभिक युग के उपन्यासकारों में बालकृष्ण भट्ट का स्थान महत्वपूर्ण है। भट्ट जी ने निबंध साहित्य में जो शीर्ष स्थान प्राप्त किया वह उपन्यास साहित्य में नहीं। भट्ट जी के प्रकाशित पूर्ण उपन्यासों की संख्या दो है- 1. ’ऩूतन ब्रह्मचारी’ (1886 ई.)14 2.’सौ अजान एक सुजान’ (1890ई )।15 भट्ट जी ने कुछ अन्य उपन्यास भी लिखे जो अधिकतर अपूर्ण ही रहे। तत्कालीन युग की महत्वपूर्ण पत्रिक ’हिन्दी प्रदीप’ (जिसके संपादक भट्ट जी ही थे) में जिनका प्रकाशन धारावाहिक रुप में हुआ। उनमें प्रमुख है ’रहस्य कथा’(1879ई.)16’गुप्त बैरी’ (1882 ई)17,’उचित दक्षिणा’ (1884ई)18,’सद्भाव का अभाव’ (1889)19, ’हमारी घड़ी’ (1892) और ’रसातल यात्रा’(1992) आदि। भट्ट जी के उपरोक्त सभी अपूर्ण उपन्यास हिन्दी प्रदीप के फाईलों में पड़े हैं।
’नूतन ब्रह्मचारी’ शीर्षक उपन्यास की रचना सर्वप्रथम सन् 1886 ई. में ’हिन्दी प्रदीप’, जिल्द 9, सं. 6 फरवरी 1986 से संख्या. 8अप्रैल 1886 ई. तक के तीन अंकों में क्रमशः प्रकाशित होता रहा, इसके बाद ’हिन्दी प्रदीप’ में इस उपन्यास के किसी अन्य अंश के छपने के प्रमाण हमें उपलब्ध नहीं होते। सन् 1886 ई. में भट्ट जी ने स्वयं अपने व्यय से इसे पुस्तक रुप में प्रकाशित किया और ’हिन्दी प्रदीप’ के पाठकों और ग्राहकों को उपहार स्वरुप वितरित किया। ’सरस्वती’ के दिसंबर 1911 ई. के अंक में प्रकाशित ’नूतन ब्रह्मचारी’ की समालोचना से ज्ञात होता कि इस पुस्तक का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ था।20 इस उपन्यास का तीसरा संस्करण सन् 1914 ई. में हिन्दी प्रदीप कार्यालय, सूडिया, काशी से प्रकाशित हुआ, जिसकी एक प्रति आर्यभाषा पुस्तकालय काशी में उपलब्ध है। इस उपन्यास एक अन्य संस्करण धनंजय भट्ट द्वारा श्री जे.पी.मालवीय सेंट्रल प्रिंटिंग प्रेस इलाहाबाद से 5 मई सन् 1950 ई. को छपा। इस संस्करण की एक प्रति सेठ सूरजमल जालान स्मृति भवन पुस्तकालय कोलकाता में उपलब्ध है। इस उपन्यास का अन्य एक संस्करण ज्ञान मंड़ल लिमिटेड बनारस से 1950 ई. में छपा।
’नूतन ब्रह्मचारी’ मूलतः बालोपयोगी शिक्षाप्रद उपन्यास है। उपन्यास के मुख पृष्ठ पर ही लिखा है -’’नूतन ब्रह्मचारी स्वर्गीय बालकृष्ण भट्ट जी कृत सुन्दर और शिक्षाप्रद उपन्यास।’’ भट्ट् जी ने इस उपन्यास की रचना विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों के पाठ्यक्रम को ध्यान में रखकर की थी, लेकिन शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने इसे कभी विद्यालय के पाठ्यक्रम में स्थान नहीं दिया। संभवतः इसलिए बालकृष्ण भट्ट ने लिखा -’’जो प्रभु कहलाते है जिनकी एक बार कृपा दृष्टि से प्रोत्साहित हो हम बार-बार ऐसे-ऐसे प्रबंध की कल्पनाओं में प्रवृत्त होते वहाँ चाटुकारी साथ झूठी प्रशंसा और स्वार्थ ऐसा पाँव जमाये हैं कि जिस शिक्षा विभाग के द्वारा उत्तम से उत्तम पुस्तकें लिखने का उत्साह बढ़ता और हमारे बालक अच्छी से अच्छी शिक्षा प्राप्त कर देश के उन्नत्ति के शिखर तक पहुँचाते वहाँ ’न देवाय न धर्माय’ ऐसी-ऐसी रद्दी पुस्तकें भरी पड़ी हैं कि जिनसे हमारे बालकों को सिवाय अपने हाथ से बाहर हो जाने के और कुछ भी भलाई नहीं दिखाई पड़ती। शिक्षा विभाग में जिस तरह की पाठ्य-पुस्तकें प्रचलित हैं उन्हें थोड़ा ही पढ़ने से मालूम हो सकता है कि बालकों पर इसका क्या परिणाम होगा। हमारी इस पुस्तक के पढ़ने से पाठकों को अवश्य मालूम हो जायेगा कि बालकों के पढ़ाने के लिए यह कितनी शिक्षाप्रद है और शिक्षा विभाग में जारी होने से हमारे कोमल बुद्धि वाले - बालकों को कितनी उपकारी हो सकती है पर कंगल टिर्रई का दम भरते मथुरा तीन लोक से न्यारी के समान सुलेखकों के अभिमान में चूर आज तक किसी प्रकार की चाटुकारी न बन पड़ी कि प्रभुवरों की झूठी लल्लों पत्तों में अपना जीवन नष्ट करते तब क्यों शिक्षा विभाग के पदाधिकारी उचित न्याय पर दृष्टि रख उन पुस्तकों को हटा इस प्रकार की बालकोपयोगी पुस्तकों को शिक्षा विभाग में आदर देते।‘21 उपर्युक्त उध्दरण से दो बाते स्पष्ट होती है- 1 भट्ट जी तत्कालीन अन्य उपन्यासों की तरह अपनी रचना पाठ्यक्रम मे शामिल किए जाने के उद्देश से लिख रहे थे क्योंकि उन्ही के लगभग समकालीन रचलाकार डिप्टी नज़ीर अहमद ने ’मिरातुल ऊरूस’ की रचना मुसलिम लड़कियों को पढ़ाने की द्रष्टि से की थी। सन् 1869 ई. में डीप्टी नज़ीर अहमजद ने ’मिरातुल ऊरूस’ इस उपन्यास की भूमिकी में लिखा- गरज़ ये कि कुल ख़ानदारी की दुरूस्ती अक़ल पर है और अक़ल की दुरूस्ती इल्म पर माकूफ है‘।22 इस पुस्तक को मुस्लिम लड़कियों को शिक्षित करने के उद्देश से लिखा गया,जिस पर सरकार की और से एक हजार का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ । ’मिरातुल ऊरूस’ की प्रेरणा लेकर ही मुंशी ईश्वरी प्रसाद और मुंशी कल्याण राय ने 224 पृष्ठों का ’वामा शिक्षक’ (1872 ई.) उपन्यास लिखा। भूमिका में ईश्वरी प्रसाद और कल्याण राय ने लिखा कि -इन दिनों मुसलमानों की लड़कियों को पढ़ाने के लिए तो एक दो पुस्तकें जैसे मिरातुन ऊरूस आदि बन गई हैं परन्तु हिन्दुओं और आर्यों की लड़कियों के लिए अब तक कोई ऐसी पुस्तक देखनें में नहीं आई जिस्से उनको जैसा चाहिए वैसा लाभ पहुँचे और पश्चिम देशाधिकारी श्रीमन्महाराजधिराज लेफ्टिनेंट गर्वनर बहादुर की इच्छा है कि कोई पुस्तक ऐसी बनाई जाएं कि उससे हिन्दुओं व आर्यो की लड़कियों को भी लाभ पहुंचे और उनकी शासना भी भली-भॉति हो । सो हम ईश्वरी प्रसाद मुदर्रिस रियाजी और कल्याँण राय मुदर्रिस अव्वल उर्दू मदरसह दस्तूर तालीम मेरठ ने बड़े सोच विचार और ज्ञान ध्यान के पीछे दो वर्ष में इस पुस्तक को उसी ध्यान से बनाई- निश्चय है कि इस पुस्तक से हिन्दुओं की लड़कियों को हिन्दुओं की रीति- भाँति के अनुसार लाभ पहुँचे और सुशील हों और जितनी (बुरी) चाले और पाखंड जिनका आजकल मुर्खता के कारण प्रचार हो रहा है उनके जी से दूर हो जाएंगे और बुरी प्रवृत्तियों को छोड़कर अच्छी प्रवृत्तियाँ सीखेंगी और लिखने-पढ़ने और गुण सीखने की रू चि होगी, क्योंकि प्रत्येक बुराई का दृष्टांत ऐसी रीति से लिखा गया है कि उनके पढ़ने और सुन्ने से उनके स्वभाओं और उनकी मुर्खताओं के स्वभाव में साहस उत्त्पन्न होगा और जब साहस उत्त्पन्न हुआ तो छोड़ देना और छुड़ा देना उस बुराई का कुछ बात नहीं है और यों ही प्रत्येक भलाई के बहुत से दृष्टांत लिखे गये हैं कि वह भलाई की ओर रू चि दिलाते हैं।‘23 इसीतरह पंडित गौरीदत्त की देवरानी जेठानी की कहानी'(1870 ई) पुस्तक को सरकारी अनुदान और कृपा दृष्टि प्राप्त हुई थी और सरकार ने उसकी सौ प्रतियाँ खरीदीं थी।
नूतन ब्रह्मचारी' उपन्यास बालकों के लिए लिखा गया है, क्योंकि यह उपन्यास पढ़कर बालक अपने सहृदय का विकास करें। भट्ट जी ने अपने उपन्यास का कथानक नागपुर के निकट नासिक शहर को बनाया है। विट्ठलराव तथा उनकी पत्नी राधाबाई अपने पुत्र विनायक राव का यज्ञोपवित संस्कार कराना चाहते थे पर उनके पास पर्याप्त धन नहीं था, इसलिए विट्ठलराव अपनी पत्नी सह ठाकुर के घर जाते हैं। जाने से पहले विनायक को उपदेश देते हैं कि बेटा जो कोई व्यक्ति अपने घर आए उसका आतिथ्य सत्कार विधिपूर्वक करना। इसके बाद दैनंदिन पूजा तथा अन्य बातों का भी उपदेश विट्टलराव अपने पुत्र विनायक को देते हैं। इनके जाने के बाद विट्ठलराव के घर तीन डाकू आते हैं। विनायक इन्हें देखकर प्रसन्न होता है क्योंकि अपने पिता द्वारा दिये गये उपदेश की स्मृति उसे याद आती है। विनायक उन तीन डाकुओं का आतिथ्य सत्कार करता है तथा अपने यज्ञोपवित संस्कार की बातें बताकर समावर्तन संस्कार के लिए लाए गये हरेक चीज को वह डाकुओं को दिखाता है। विनायक का यह निश्छल स्वभाव देखकर डाकुओं के सरदार का हृदय परिवर्तन हो जाता है और वह बिना चोरी किए अपने मित्रों को लेकर वापस चला जाता है।
पन्द्रह वर्ष के बाद उन डाकुओं के सरदार की भेंट विनायक से होती है। विनायक ठाकुर साहब के साथ किसी दूर गाँव की यात्रा के लिए निकला था। शाम होने के कारण एक जगह उनका पड़ाव पड़ता है। विनायक पर्वत को निहारते हुए थोड़ी दूर चला जाता है तो उसे लड़ाई-झगड़े की आवाज सुनाई देती है। यह आवाज सुनकर विनायक कुछ दूर जाकर देखता है तो एक आदमी कराहता हुआ दिखाई पड़ता है। नज़दिक जाकर देखता है, तो यह आदमी वही डाकुओं का सरदार था, जो पन्द्रह वर्ष पहले मेरा घर लूटने आया था और बिना कुछ लिए वापस चला गया। सरदार विनायक से पूछता है कि तुम्हारा नाम क्या है? और तुम कौन हो? विनायक अपना नाम नहीं बताता बस इतना ही कहता है कि मैं ठाकुर साहब के साथ आया हूँ। यह बात सुनते ही सरदार की आँखें खुल गई और कहा मेरी आपसे यह प्रार्थना है कि मेरा एक संदेशा विनायक को देना है जिसे ठाकुर साहब बहुत मानते हैं। उनसे कहना कि पन्द्रह वर्ष पहले उन्हीं के घर तीन डाकू आए थे और बिना कुछ लूटे ही वापस चले गऐ। मेरी एक अन्तिम इच्छा यह थी कि मैं विनायक से मिलूँ और उससे क्षमा माँगूं। परन्तु अब यह संभव नहीं है। इतना कहकर सरदार रोने लगा। सरदार की हालत देखकर विनायक ने कहा मैं विनायक हूँ जो कि तुम्हारी सेवा में कार्यरत हूं। यह बात सुनकर सरदार आश्चर्यचकित हो विनायक को देखता है और उसके नेत्र सजल हो उठते हैं। सरदार ने कहा कि मेरी मृत्यु अब समीप है इसलिए मेरे मन की अन्तिम इच्छा मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ। मैं जब आप के घर से बिना कुछ लिए चला गया तबसे हम तीनों के बीच अनबन चलती रही आज वही दो डाकू ठाकुर साहब का घर लूटने जा रहे हैं, मैंने उन्हें मना भी किया है पर उन्होंने सुना नहीं और मुझे घायल कर के वे ठाकुर साहब के घर की तरफ चले गये हैं। यह कहते-कहते सरदार बेहोश हो जाता है। विनायक यह सब बातें ठाकुर साहब को बताता है। ठाकुर अपने आदमियों को सावधान करते हैं। और उनके आदमियों ने उन डाकुओं को मार गिराया।
नूतन ब्रह्माचारी' इस उपन्यास का कथानक इतना सरल एवं स्वाभाविक है कि जिसे छोटे बच्चे पढ़कर आसानी से समझ सकते हैं। बालकृष्ण भट्ट के जीवन का लक्ष्य हिन्दी भाषा की सेवा तथा विकास करना था। इसी उद्देश्य हेतु तमाम आर्थिक और वैयक्तिक कठिनाईयों के बावजूद अपना मासिक पत्र हिन्दी प्रदीप' तैंतीस वर्षों तक अविरत चलाया। भट्ट जी ने इस उपन्यास के कथानक का क्षेत्र महाराष्ट्र के नासिक प्रांत को चुना है। इससे हमें यह पता चलता है कि वे हिन्दी का प्रचार एवं प्रसार हिन्दी प्रदेश में ही नहीं वरन् हिन्दीतर प्रदेशों में भी करना चाहते थे।
चरित्र-चित्रण की दृष्टि से भी नूतन ब्रह्मचारी' उपन्यास महत्त्वपूर्ण है। उपन्यास का प्रमुख पात्र या नायक विनायक है, इसके अलावा भी विट्ठलराव, राधाबाई, ठाकुर और सरदार भी महत्त्वपूर्ण पात्र हैं। इन प्रमुख पात्रों के अलावा कुछ गौण पात्रों का भी उल्लेख भट्ट जी ने इस उपन्यास में किया है। उपन्यास में कुल पात्रों की संख्या आठ है, इन पात्रों में से केवल विनायक एवं सरदार के चरित्र-चित्रण का स्वाभाविक विकास दिखाई देता है। उपन्यास का कलेवर मात्र अड़सठ पृष्ठों का है, इतने छोटे से आकार के कथानक में भट्ट जी अपनी बात को कहने का प्रयास किया है।
नूतन ब्रह्मचारी' इस उपन्यास में तत्त्कालीन समाज का यथार्थ-चित्रण मिलता है। इस उपन्यास के माध्यम से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के समाज का समाजशास्त्रीय अध्ययन कर सकते हैं। यह मूलतः बालोपयोगी उपन्यास होते हुए भी एक समाजिक उपन्यास है। उपन्यास में तत्त्कालीन समाज का उतना चित्रण नहीं दिखाई देता जिसका प्रमुख कारण यह है कि भट्ट जी इस उपन्यास की रचना शैक्षणिक पाठ्यक्र म तथा बालकों के हृदय के विकास के लिए लिखा था। तत्त्कालीन समाज में पर्दा प्रथा थी। भट्ठ जी ने पर्दा प्रथा का विरोध करते हुए लिखा है-मुसलमानों के मनहूस कदम से दुषित हमारी समाज पर्दा को कुलीनता आभिजात्य और रईस की इज्जत का श्रेष्ठ अंग मानती है। दक्षिण प्रान्त में यवनों के संक्र मण का पूरा असर न पड़ने से वहाँ पर्दा का अभाव है और शुद्ध आर्य कर्म बर्ता जाता है किन्तु विचार कर देखें तो हमार पर्दा जैसा व्याभिचार दुषित और यवनिक प्रथा का अनुकरण करनेवाला है दक्षिण में पर्दा के प्रथा का अभाव वैसा व्याभिचार दूषित नहीं है।‘24
तत्त्कालीन समय में लोग अंधविश्वास से जकड़े हुए थे, जिसका चित्रण भी भट्ठ जी अपने उपन्यास में किया है। विट्ठल राव ज्योंही ड्योढ़ी के बाहर पाँव रखा त्यों ही इनके घर की मजदूरिन पास के झरनेसे पानी भरनेको छूँछा घड़ा लिए घर से बाहर निकली। यात्रा के समय इसे असगुन समझ विट्ठल फिर लौट आए और विनायक को आनेवाले अतिथियों के सत्कार की भरपूर ताकीद कर टीलके नीचे उतरे।‘25 केवल तत्त्कालीन समय में ही नहीं यहाँ तक की आज के उत्तर-आधुनिक समाज में भी किसी शुभ कार्य करने या यात्रा को जाते समय किसी का सामने से खाली घड़ा लेकर जाना अशुभ माना जाता है।
इस उपन्यास में ब्राह्मण परिवार में किए जाने वाले यज्ञोपवित संस्कार का यथार्थ एवं विस्तृृत चित्रण किया गया है और यह संस्कार आज भी कमोबेश मनाया जाता है। उपन्यास में राधाबाई अपने पुत्र विनायक को प्रतिदिन रामायण का पाठ कराती है, जिससे हमें यह पता चलता है कि तत्त्कालीन युग में लोग अपने धर्म एवं अपने धर्म-ग्रंथों के प्रति कितनी आस्था और विश्वास रखते थे इसका उदाहरण भी मिलता है।
विनायक उपन्यास का प्रमुख पात्र है। उपन्यास का नामकरण प्रायः उसी के अनुरू प किया गया है। उसका सीधा सरल निश्छल स्वभाव उपन्यास में आदि से अन्त तक दिखाई देता है। विनायक आठ वर्ष का छोटा सा बालक है जिसमें दृढ़ता, सरलता, अध्यवसाय, सत्य एवं निर्मलता है। विनायक पिता के अतिथि-सत्कार के आदेश का दृढ़ता से पालन करता है। जिसके कारण ही वह डाकुओं को भी अतिथि समझकर उनका आतिथ्य-सत्कार करता है। विनायक के इस निश्छल स्वभाव के कारण डाकुओं के सरदार का हृदय परिवर्तन हो जाता है और वह सत्कर्म करने के लिए तत्त्पर होता है।
विनायक एक ऐसा पात्र है जिसे भौतिक जीवन की विलासिता से कोई लालसा नहीं है। वह माता-पिता की आज्ञा का पालक करनेवाला, कर्मशील, उत्साही एवं सत्यनिष्ठ तथा सत्चरित्र बालक है। डाकू द्वारा कहा गया वाक्य विनायक के संपूर्ण चरित्र को स्पष्ट कर देता है। यथा- ‘यदि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को क्षमा कर सकता है तो मैं तुमको दिल से क्षमा करता हूँ और ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूँ कि वह भी तुम्हारे अपराधों को क्षमा करे‘। 26
उपन्यास में भट्ट जी ने डाकुओं के सरदार का चित्रण कमजोर ढंग से किया है यहा ँ तक कि सरदार का नाम बताना भी उचित नहीं समझा। उसके संस्कार अच्छे थे पर किस वजह से वह कुकर्म करता है, भट्ट जी ने उन कारणों को बताने का प्रयास नहीं किया। सरदार का केवल उपन्यास के आरंभ तथा अंत में उल्लेख मिलता है, इसके अलावा सरदार ने पन्द्रह वर्ष तक क्या-क्या किया इसका कोई वर्णन उपन्यास में कहीं नहीं मिलता। इतना ही नहीं भट्ट जी ने सरदार की मृत्यु का वर्णन भी अधूरा ही किया है।
उन्नीसवी शताब्दी में लिखे गये उपन्यासों की तरह नूतन ब्रह्मचारी' में भी स्त्री पात्रों का अभाव दिखाई देता है। पूरा उपन्यास किस्सागोई पद्धति में लिखा गया है। उपन्यास का विभाजन आठ परिच्छेदों में किया गया है। किसी परिच्छेद का आरंभ संस्कृत के पद से है तो किसी परिच्छेद का शीर्षक हिन्दी में और किसी-किसी परिच्छेद में शीर्षक ही नहीं है जैसे तीसरा और चौथा परिच्छेद।
उपन्यास में कई जगह भाषा अलंकृत तथा कृत्रिम है जो हिंदी के सामान्य पाठकों को समझ में नहीं आता । इस उपन्यास की भाषा का एक नमूना इस प्रकार है- सहस्त्रांशु की सहस्त्र -सहस्त्र किरणें उदय होने का साथ ही एक बारगी आकर इन वृक्षों के कोमल प्रवाल सदृश्य पल्लवों पर जो टूट पड़ती थीं यह उसी का परिणाम है जो इन वृक्षों में एका न था क्योंकि जहाँ एका है वहाँ यह कब संभव हा कि कोई बाहरी आकर अपना प्रभुत्व जमा सके । अलबत्ता इस ठौर यह बात न देखी जाती थी कि कोसों तक सुस्वद मीठे फलों से लदे हुए वृक्ष पथिकों को आतिथ्थ के लिए अपनी लंबी और विस्तृत डाली रूप भुजोओं से हवा में झकोरा खा-खा कर बुला रहें हो ... ‘। 27 भाषा का यह नमूना लगातार तीन पृष्ठों तक देखनें को मिलता है। सम्पूर्ण कथा अलंकृत प्रकृतिवर्णनों तथा लंबे-लंबे उपदेशों से भरा पड़ा है । किसी पात्र के अंगों का करते समय भट्ट जी रूपक,उपमा,उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों की झड़ी लगा देते हैं ।
उपन्यास का शिल्प अद्भूत है जिसमें तत्सम तथा आँचलिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। इसके बावजूद भी उपन्यास की भाषा सरल एवं स्वाभाविक है। उपन्यास में कई जगहों पर मुहावरों का प्रयोग मिलता है। उपन्यास में कार्य-कारण श्रृंखला बड़े स्वाभाविक एवं मनोवैज्ञानिक रीति से विकसित हुई है। उपन्यास में प्रमुख चार ही पात्र हैं तथा एक आध सहायक पात्र भी हैं। इन सभी पात्रों का चरित्र-चित्रण वड़ी निपुणता से किया गया है।
यह उपन्यास जब लिखा गया तब भारत पर अंग्रेजों का राज्य था । कलम की आज़ादी नहीं थी इसलिए रचनाकार दबे हुए स्वर में अपनी बात करते थे। तत्कालीन समय के रचनाकारों के मन में स्वतंत्र भारत की महत्वाकांक्षा थी जिसके लिए उन्होनें अपने लेखन को माधायम से भारतीय जनता में देशोन्नति की भावना जगाई । भारत में अंग्रेजी सत्ता स्थापण होने का प्रमुख कारण भट्ट जी अपने देश में भेदभाव की भावना को बताते है । इसका उल्लेक करते हुए वे लिखते हैं- जहॉ एका है वहाँ संभव है कि कोई बाहरा आकर अपना प्रभुत्व जमा सकें‘।28
आज के लगभग 123 साल पहले लिखा गया यह उपन्यास आज दुर्लभ है। इस उपन्यास के लगभग चार से ज्यादा संस्करण छपने के बावजूद आज यह उपन्यास हिंदी के सामान्य पाठकों को उपलब्ध नहीं है । यह एक दुर्लभ एवं महत्वपूर्ण उपन्यास है जो पुनर्प्रकाशन की मांग करता है ।
-----
सन्दर्भः-
1.हिंदी उपन्यास :परीक्षा गुरू से पहले- रामनिरंजन परिमलेन्दु,समकालीन भारतीय साहित्य-मई-जून 1999,पृष्ठ 119
2.वामा शिक्षक- गरिमा श्रीवास्तव. आलोचना पत्रिका,अप्रैल-जून 2008 पृष्ठ 80
3.हिंदी उपन्यास कोश-भाग-1,गोपाल राय,पृष्ठ 34
4.देवरानी जेठानी की कहानी- पं.गौरीदत्त
5.वामा शिक्षक- मुंशी ईश्वरीप्रसाद और कल्याणराय संपादक- गरिमा श्रीवास्तव
6.भाग्यवती-श्रध्दाराम फिल्लोरी
7.निस्सहाय हिंदू- राधाकृष्ण दास
8.स्त्री दर्पण- पं माधव प्रसाद- हरिश्चंद्र चंद्रिका के फरवरी और मार्च 1875 ई.
9.मालती, हरिश्चंद्र चंद्रिका, फरवरी और मार्च 1875 ई.पृ.152
10.तपस्विनी,सारसुधानिधि,1879 ई.अप्रैल और मई,भाग 1, अंक 16 तथा 18 के प्रथम दो परिच्छेद में .
11.रहस्य कथा- बालकृष्ण भट्ट,हिंदी प्रदीप (जिल्द 3,सं.3,नवम्बर 1879 ई.से जिल्द 5,सं.9,मई 1882 ई
12.एक कहानी कुछ आप बीती कुछ जग बीती-भारतेन्दु हरिश्चंद्र, कविवचन सुधा,भाग 8, सं.22 वैशाख शुक्ल कृष्ण 41876 ई .
13.अमृत चरित्र- देवकीनंदन त्रिपाठी, हिंदी प्रदीप जिन्द 4,सं.10,जून 1881,पृ.22
14. नूतम ब्रम्हचारी- बालकृष्ण भट्ट जिल्द 9,सं.6 फरवरी 1886 से 8 अप्रैल 1886 ई.
15. सौ अजान एक सुजान- बालकृष्ण भट्ट , हिंदी प्रदीप,जुलाई-अगस्त 1890 से फरवरी-मार्च 1905 ई.
16.रहस्य कथा- बालकृष्ण भट्ट, हिंदी प्रदीप,नवम्बर 1879 से जिल्द.5,से 9,मई 1882 ई.
17.गुप्त बैरी- बालकृष्ण भट्ट, हिंदी प्रदीप जिल्द,5,सं. 9,10 और 12 ,मई-जून और अगस्त 1882 ई.
18.उचित दक्षिणा- बालकृष्ण भट्ट, हिंदी प्रदीप जिल्द,8,सं.4 दिसंबर,1884 ई.
19.सद्भाव का अभाव- बालकृष्ण भट्ट ,हिंदी प्रदीप,जिल्द,12,फरवरी-अगस्त 1889 ई.
20.सरस्वती- सं.महावीर प्रसाद व्दिवेदी, भाग 22, अंक 12,दिसम्बर 1911 ई. नूतन ब्रम्हचारी की समालोचना.
21.नूतन ब्रम्हचारी- बालकृष्ण भट्ट,तृतीय संस्करण की भूमिका से उध्दृत.
22.मिरातुल उरूस - डिप्टी नज़ीर अहमद, भूमिका से उध्दृत.
23.वामा शिक्षक- मुंशी ईश्वरीप्रसाद और कल्याणराय संपादक- गरिमा श्रीवास्तव, भूमिका से उध्दृत.
24.नूतन ब्रम्हचारी- बालकृष्ण भट्ट,प्रस्तुति-धनंज्जय भट्ट,पृ.24.
25.नूतन ब्रम्हचारी- बालकृष्ण भट्ट,प्रस्तुति-धनंज्जय भट्ट,पृ.31.
26.नूतन ब्रम्हचारी- बालकृष्ण भट्ट,प्रस्तुति-धनंज्जय भट्ट,पृ. 68.
27.नूतन ब्रम्हचारी- बालकृष्ण भट्ट,प्रस्तुति-धनंज्जय भट्ट,पृ.21.
28 नूतन ब्रम्हचारी- बालकृष्ण भट्ट,प्रस्तुति-धनंज्जय भट्ट,पृ.21.
----
चपले साईनाथ विठ्ठल
हैदराबाद केन्दीय विश्वविद्यालय
हैदराबाद 500046.
मोबाईल-09441674213.
सच में मैंने तो इसका नाम ही पहली बार सुना है.
जवाब देंहटाएं{ Treasurer-T & S }