मैं एक छोटे से कस्बे मे रहने वाला एक छोटा-सा लेखक हूं। अक्सर पत्र-पत्रिकाओं में सामयिक, मौसमी रचनाएं भेजता हूं और अपनी छपास की भूख पूर...
मैं एक छोटे से कस्बे मे रहने वाला एक छोटा-सा लेखक हूं। अक्सर पत्र-पत्रिकाओं में सामयिक, मौसमी रचनाएं भेजता हूं और अपनी छपास की भूख पूरी करता हूं। पिछले दिनों ही मेरी एक रचना एक बड़े पत्र में प्रकाशित हुई, मगर दुर्भाग्य से मुझे उस रचना की कॉपी प्राप्त नहीं हुई, शायद डाकिया हजम कर गया।इधर मेरी एक पुस्तक छपने जा रही थी और मैं चाहता था कि मेरी उक्त रचना उस पुस्तक में शामिल हो जाये, मगर मेरे पास कोई प्रति नहीं थी, अखबार से प्रति का मिलना दूभर था। देश की राजधानी दिल्ली जा पाना आसान नहीं था और सबसे बड़ी बात दिल्ली केवल रचना की छाया प्रति प्राप्त करने के लिए जाना मेरे जैसे छोटे और साधनविहीन लेखक के लिए संभव भी नहीं था। मैं इसी उधेड़बुन में कई दिनों तक चिंतित रहा। मुझे कुछ रास्ता नहीं सूझ रहा था। इधर मेरे प्रकाशक ने मेरी पुस्तक को रचना के अभाव में प्रेस में जाने से रोक दिया था। छोटे लेखक पर एक और मनोवैज्ञानिक दबाव।
अचानक मुझे दफ्तर के काम से दिल्ली के पास जाने का अवसर हाथ आया। मैंने तुरन्त निर्णय कर लिया कि दिल्ली जाकर रचना की छाया प्रति भी प्राप्त कर लूंगा। वहीं प्रकाशक को भी दे दूंगा। लेकिन यह आसान-सा दिखने वाला काम बहुत मुश्किल था।
मैं दिल्ली पहुंचा। सरकारी काम-काज निपटाया और एक पूरा दिन मैंने अपनी प्रकाशित रचना की छाया प्रति प्राप्त करने के लिए सुरक्षित रख लिया।
मैं बड़े सवेरे ही दिल्ली के उस प्रतिष्ठित समाचार-पत्र समूह के भव्य कार्यालय के बाहर पहूंच गया । अभी कार्यालय का समय नहीं हुआ था। इक्के-दुक्के कर्मचारी थे। बाहर सुरक्षा का जबरदस्त इंतजाम था। अन्दर जाने से पूर्व सुरक्षा तथा स्वागत अधिकारियों के गुजरना पड़ता था। सर्वप्रथम मैंने सम्पादक से ही मिलना उचित समझा। सुरक्षा, स्वागत व चौकीदारों से निपट कर मैं सम्पादक महोदय के निजी सहायक तक पहुंचा। सम्पादक महोदय के लिए मैंने अपनी पुस्तकें भी भेंट के लिए ले ली थीं। मगर निजी सहायक ने मुझे सम्पादक तक पहुंचने ही नहीं दिया रचना की छाया प्रति के सवाल पर उसने मुझे उपेक्षा से घूरा और कहा-
'हमारे यहां से आपको यह प्रति नहीं मिल सकती है। आप स्टोर या पुस्तकालय से सम्पर्क करें।'
मेरे यह पूछने पर कि स्टोर या पुस्तकालय कहां है, उसने मुझे एक पता दिया जो इस महानगर के दूसरे छोर पर था। मैं हर हालत में रचना की छाया प्रति चाहता था। अतः उस संस्थान के स्टोर में गया। स्टोर ने मुझे वितरण विभाग में जाने की सलाह दी, वितरण अधिकारी ने मुझसे बात करने से ही मना कर दिया। मैं पुस्तकालय में गया। वहां पर पुस्तकालयाध्यक्ष ने मेरी बात को सुनने के बाद बहुत मासूम राय दी।
''आप सम्पादक से ही सम्पर्क करें।''
मेरे यह कहने पर कि सम्पादक महोदय ने ही मुझे आपके पास भेजा है। वे सम्पादक को फोन मिलाने लगे। मेरे सौभाग्य से सम्पादक महोदय सीट पर उपलब्ध नहीं थे। मैंने फिर अपनी रचना की छाया प्रति की चर्चा पुस्तकालयाध्यक्ष से की । इस बार उन्हें गुस्सा आ गया । मुझे सीधे बैठने की सलाह दी। दफ्तर में बैठने की तमीज सीखने की राय दी। मैं इस अपमान को पी गया क्योंकि लेखक होने के नाते ऐसे अपमान अक्सर होते रहते हैं।
मैं मन-ही-मन यह तय कर चुका था कि आज शाम से पहले मुझे छाया प्रति हर हालत मेें हासिल करनी है। मगर पुस्तकालयाध्यक्ष ने मुझे एक सहायक के हवाले कर दिया। सहायक ने मुझे कल आने के लिए कह दिया। इस सम्पूर्ण कार्यवाही से मैं स्तब्ध रह गया। मन-ही-मन बहुत दुखी हुआ। सुबह से शाम तक मैं परेशान हो चुका था। रोज पहले पृष्ठ पर सरकारी लाल फीताशाही, भ्रष्टाचार तथा नौकरशाही के खिलाफ बड़े-बड़े समाचार छापने वाले इस संस्थान के अन्दर की स्थिति को जानकर दुःख हुआ। इस त्रासदी मंे कुछ रंग और मिला। जब मैं बाहर आया तो देखा कि लेखा विभाग में अपनी टैक्सी के बिलों के भुगतान तथा हाकर्स अपने पैसों तथा उपहारों के लिए कर्मचारियों से झगड़ रहे थे।
मैं अपने सरकारी काम-काज के कारण अब ज्यादा नहीं रूक सकता था लेकिन रचना की छाया प्रति लेना आवश्यक था। मैंने अपने दफ्तर फोन किया और एक रोज का अवकाश ले लिया।
दूसरे दिन प्रातः मैं पुनः पुस्तकालयाध्यक्ष की सेवा में उपस्थित हुआ। मैंने अपनी बात पुनः समझाई लेकिन वे कल से ही मेरे ऊपर झल्लाये हुए थे। मुझे रचना की फाइल दिखाते हुए बोले कि संबंधित अंक उपलब्ध नहीं हुए थे। मेैं थक चुका था। निराश था। अब मुझे कुछ गुस्सा भी चढ़ गया था। मैं सीधे प्रकाशन संस्थान के अध्यक्ष के कमरे की और चल पड़ा। पी.ए. से मिले बिना ही मैं सीधे उनके कमरे में घुस गया।
कम्पनी के अध्यक्ष बड़े भले आदमी थे। उनका कमरा बड़ा शानदार, गलीचा, टी.वी., कम्प्यूटर, पेजर आदि से सुसज्जित। वे स्वयं भी बड़े प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी। उन्होंने मेरी बात बड़े ध्यान से सुनी और तुरन्त समझ गये कि लेखक रूपी राक्षस की जान सम्पादक के पास होती है, उन्होंने तुरन्त सम्पादक को डांट पिलाई कि यह अदना-सा लेखक मेरे तक कैसे पहुंच गया। बाद में वे मेरे से बोले-
मैं जानता हूं कि आपको कष्ट हुआ। रचना की प्रति सम्पादक को दिलानी चाहिए। मैंने निवेदन किया कि आप पुस्तकालयाध्यक्ष को कह दें तो काम हो जाये। लेकिन उन्होंने मुझे अपनी महान् संस्था की महान् परम्पराओं के बारे में बताया। नीतिगत निर्णय और व्यवस्था की बारीकियों के बारे में समझाया। मेरी व्यक्तिगत रूचि केवल रचना की प्रति प्राप्त करने में थी । वे अपनी सफलताओं की जुगाली कर रहे थे।
मैंने बार-बार उठने की कोशिश की मगर उन्होंने उठने नहीं दिया। लगातार बैठे रहने से शायद उन्हे कुछ दया आई और वे बोले- ''अब कल आपका काम हो जायेगा।'' पूरे दो दिन खराब हो चुके थे। दफ्तर से मैंने एक और दिन की छुट्टी ली। तीसरे दिन प्रातः मैंने स्वयं जाने के बजाय पुस्तकालय में फोन किया, मगर तब तक सभी कर्मचारियों को पता लग चुका था कि मामला मैनेजिंग डायरेक्टर तक चला गया है, अतः मेरी बात को सुना ही नहीं गया। मैं दिन भर हैरान-परेशान महानगर की सड़को पर आवारा फिरता रहा। प्रकाशक के पास जाने की हिम्मत नही हो रही थी। वो पहले से ही मेरे से नाराज थे । चौथे दिन मैं एक बार फिर किस्मत आजमाने पुस्तकालय पहुंचा। पुस्तकालयाध्यक्ष ने मुझे चक्कर दे देकर मेरा हाल खराब कर दिया था। उसे अब शायद मेरे ऊपर दया आ गयी या यह सोचकर कि लेखक का अहंकार अब चूर-चूर हो चुका था, मुझे फाइल दिखाई। चपरासी ने राशि जमा की और मुझे मेरी रचना की छाया प्रति मिल गयी। मैं बहुत खुश हुआ कि चलों आखिर काम हो गया। मैंने घर आकर कम्पनी अध्यक्ष को धन्यवाद का पत्र तो लिखा मगर मेरे मन में एक प्रश्न उबलता रहा कि क्यों नौकरशाही, लाल फीताशाही सब जगह हावी है।
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badi taklif hui ....
जवाब देंहटाएंjab hamen jaan kar taklif ho rahi hai toh aapko ye sab bhog kar kitnaa kasht hua hoga, hum samajh sakte hain...aur kade lafzon me iske liye zimmedaar logon ki bhartsnaa karte hain..
बेहतरीन पोस्ट
जवाब देंहटाएंबहुत आराम से आपको तो छायाप्रति मिल गयी.