क्षेत्र, प्रदेश तथा राष्ट्र की सीमाओं से इतर विश्व समुदाय के साथ आर्थिक, बौद्धिक, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक, भाषा एवं साहित्य के क्षेत्र मे...
क्षेत्र, प्रदेश तथा राष्ट्र की सीमाओं से इतर विश्व समुदाय के साथ आर्थिक, बौद्धिक, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक, भाषा एवं साहित्य के क्षेत्र में सहभागिता एवं आदान-प्रदान का रूप भूमण्डलीकरण (ग्लोबलाइजेशन) कहलाता है। आधुनिक युग भूमण्डलीकरण का युग है। आज उपभोक्ता संस्कृति का विस्तार हो रहा है साथ ही सम्पूर्ण विश्व एक बाजार में परिवर्तित हो रहा है और भाषा के समक्ष अभिव्यक्ति का नया संकट खड़ा हो गया है। जो हिन्दी के लिये एक नवीन चुनौती है जिसका उसे शिद्दत के साथ मुकाबला करना है।
वास्तविकता यह है कि हिन्दी अपनी महत्ता एवं कलेवर की वजह से अस्तित्व में है और रहेगी भी। हिन्दी अपने विशेष साहित्यिक भण्डार की वजह से सदैव समृद्ध देशों को अपनी ओर आकर्षित करती रही है। क्योंकि हिन्दी में एक जादुई आकर्षण है। हिन्दी की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत के बाहर लगभग 175 विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ी एवं पढ़ायी जाती है, इनमें 45 विश्वविद्यालय सर्वाधिक विकसित राष्ट्र अमेरिका में हैं। अंग्रेज भी इस महत्ता को स्वीकार कर रहे हैंं। लंदन में 13 प्राध्यापकों की नियुक्ति हिन्दी पढ़ाने के लिये की गई है। पूर्वी यूरोप के अनेक देशों रोमानियां, यूनान आदि में भारतीय लेखक एवं कवि बड़े चाव से पढ़े एवं सुने जाते हैं।
जहाँ एक ओर हिन्दी का वैश्विक आधार कुछ बढ़ा है, वहीं भारत के लोग कान्वेंटीकरण के कारण इससे दूर होते जा रहे हैं। हिन्दी एक समृद्ध भाषा है और विश्व में नये आंकड़ों के अनुसार इसे बोलने वाले पहले स्थान पर हैं। मंडारिन (चीनी भाषा) एवं अंग्रेजी भाषाएं क्रमशः दूसरे एवं तीसरे स्थान पर आ गयी हैं परन्तु यहाँ यक्ष प्रश्न यह है कि लगभग 80 करोड़ भारत एवं विश्व के लोगों द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की सूची में शामिल क्यों नहीं किया गया है ? इसके लिये भी हमारे रहनुमा ही जिम्मेदार हैं क्योंकि यहाँ के रहनुमाओं की कृपा से अंग्रेजी परस्ती का आलम यह है कि 1965 के पहले हिन्दी को जो राष्ट्रभाषा का पद दिया जाना चाहिये था वह उसे आज भी नहीं मिल पा रहा है लेकिन अंग्रेजी के व्यामोह की वहज से वह हाशिए पर खड़ी है। संघ लोक सेवा आयोग में अंग्रेजी की अनिवार्यता अभी भी बरकरार है, सिविल सेवाओं की परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता, अभी भी बरकरार है, सिविल सेवाओं के साक्षात्कारों में आज भी हिन्दी माध्यम वाले प्रतिभागियों के साथ सौतेला व्यवहार किया जाता है।
वस्तुतः हिन्दी को विश्व की भाषा बनाने के लिये कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों पर ध्यान दिया जाना चाहिये। पहला यह कि हिन्दी भाषा के प्रश्न को भारतीय संस्कृति के प्रश्न से जोड़कर देखा जाना चाहिये। दूसरा यह कि विदेशों में जो भारतीय दूतावास या उच्चायोग हैं-उनमें हिन्दी को पर्याप्त सम्मान दिया जाना चाहिये। जब तक भारत स्वयं अपने घर में हिन्दी को इस दृष्टि से नहीं देखेगा। तब तक विश्व के अन्य देश इसे हेय दृष्टि से देखेंगें, इसमें सन्देह नहीं। तीसरी प्रमुख बात यह है कि हम विश्व सम्मेलनों के महत्व को समझें तथा इनको अधिक उपयोगी तथा दूरगामी बनाने का प्रयास करेंं चौथा यह कि हिन्दी को केवल साहित्य, कविता, कहानी की परिधि में नहीं रखना है, ऐसा करना बहुत बड़ी भूल होगी। भूमण्डलीकरण के चलते हिन्दी में जो बदलाव आये हैं, साथ ही इसके तेवर बदले हैं उसका स्वागत किया जाना चाहिये। पाँचवी बात यह है कि हिन्दी का विकास जनचेतना के आधार पर सम्पन्न हुआ है। साथ ही यह अनवरत जारी है। जनचेतना के सामने राजनीति कोई अर्थ नहीं रखती। हिन्दी के समक्ष आयी बाजारगत चुनौतियों का सामना करने के लिये उसे हर समय तैयार रहना चाहिये। अगला प्रमुख समाधान यह है कि यदि हमेें हिन्दी को भूमण्डलीकरण के पटल पर उभारना है तो उसे युग के वैज्ञानिक एवं तकनीकी नियमों के अनुरूप रखना होगा तभी हिन्दी का वैश्विक रूप उभरेगा। राम मनोहर लोहिया के शब्दों में कहें तो जिन्दा कौमें पाँच साल का इन्तजार नहीं कर सकतीं। सामान्य व्यक्ति तब तक हिन्दी को स्वीकार नहीं कर सकता, जब तक वह इतनी सशक्त न हो जाये कि वह अंग्रेजी का स्थान ले ले। प्रत्येक भारतवासी को यह संकल्प करना होगा कि हिन्दी की पताका विश्व में फैहराकर रहेंगे साथ ही इसके लिये भरसक प्रयत्न करेंगे।
स्पष्ट है कि वैश्वीकरण के दौर में हिन्दी को नये परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की आवश्यकता है। यहाँ चाहे सूचना प्रौद्योगिकी की बात हो या उत्पाद बेचने की या वोट मांगने की, विज्ञापनों के माध्यम से वस्तु के आत्मप्रचार की या फिल्मों को लोकप्रिय बनाने की या फिर वैज्ञानिक अनुसंधान की, उपलब्धियों को जन-जन तक पहुँचाने की, इन सबके लिये हिन्दी का ज्ञान होना आवश्यक है। यहाँ पर वास्तविकता यह है कि परिवर्तन के अनुरूप, परिवेश के अनुसार स्वयं को ढालकर अभिव्यक्ति को बहुआयामी रूप प्रदान करने में हिन्दी सदैव सक्षम रही है।
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युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डाँ वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानों से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
सम्पर्क ः वरिष्ठ प्रवक्ता ः हिन्दी विभाग दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय उरई-जालौन (उ0प्र0)-285001 भारत
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