कहानी गद्य साहित्य की सबसे सशक्त एवं लोकप्रिय विधा है। मानव परिवेश के प्रति जिज्ञासा और अपने अनुभवों, विचारों तथा आकांक्षाओं की अभिव्यक्...
कहानी गद्य साहित्य की सबसे सशक्त एवं लोकप्रिय विधा है। मानव परिवेश के प्रति जिज्ञासा और अपने अनुभवों, विचारों तथा आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति की कामना मानव की सहज प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार कहानी के विकास की कथा उतनी ही पुरानी है जितनी संसार के विकास की कथा। मानव एक ओर जहाँ जीवन के अनुभवों, अपने विचार और अपनी अभिलाषाओं को अभिव्यक्त करता है वहीं दूसरी ओर सामाजिक प्राणी होने के कारण दूसरों के अनुभवों एवं विचारों के प्रति उसकी सहज रूचि होती है। अतः अपनी कथा कहने और दूसरों को सुनने की प्रवृत्ति के साथ ही कहानी के विकास की धारा आरम्भ हो जाती है। जिज्ञासा और आत्माभिव्यंजना की नैसर्गिक प्रवृत्तियाँ ही कहानी-कला की मूल सृजन-शक्तियाँ हैं। प्रारम्भ में मनोरंजन और आत्म-परितोष के लिये कहानी कही सुनी जाती थी। कालान्तर में कहानी मनोरंजकता के साथ व्यक्ति और समाज के महत्वपूर्ण अनुभवों के प्रकटीकरण का उत्तरदायित्व निर्वहन करते हुये नीति और उपदेश तथा सामाजिक सुधार आदि की संवाहिका बनी, तो आज कहानी मानव की बाह्य ही नहीं, अपितु गहरी से गहरी आन्तरिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनकर जीवन-मर्म के अनछुए पहलुओं को उद्घाटित कर रही है।
डॉ. रामचन्द्र तिवारी का कहना है कि - ‘‘हिन्दी कहानियों के उद्भव और विकास में भारत के प्राचीन कथा साहित्य, पाश्चात्य कथा साहित्य एवं लोक कथा साहित्य का सम्मिलित प्रभाव देखा जा सकता है।''
भारतवर्ष में कथा-कहानियों का इतिहास सहस्त्रों वर्ष पुराना है। इसका प्रारम्भ उपनिषदों की रूपक-कथाओं, महाभारत के उपाख्यानों तथा बौद्ध साहित्य की जातक-कथाओं से प्राप्त होता है। भारतवर्ष में कथा साहित्य के विकास के मुख्य तीन युग हैं। प्राचीनकाल में उपनिषदों की रूपक-कथाओं, महाभारत के उपाख्यानों तथा जातक-कथाओं का उल्लेख मिलता है। ऐतिहासिक दृष्टि से इन कथाओं का महत्व बहुत अधिक है, परन्तु साधारण जनता कहानी को जिस अर्थ में ग्रहण करती है, उस अर्थ में इन कहानियों का महत्व उतना अधिक नहीं है, क्योंकि उनका उद्देश्य मनोरंजन नहीं था, वरन् कहानी के रूप में किसी गम्भीर तत्व की आलोचना अथवा नीति और धर्म की शिक्षा ही इनका एकमात्र ध्येय था। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने लेख ‘कादम्बरी के चित्र' में सत्य ही लिखा है कि ः
पृथ्वी पर सब जातियाँ कथा-कहानियों को सुनना पसन्द करती हैं। सभी सभ्य देश अपने साहित्य में इतिहास, जीवन-चरित्र और उपन्यासों का संचय करते हैं परन्तु भारतवर्ष के साहित्य में यह बात नहीं दीख पड़ती।
वास्तव में संस्कृत-साहित्य में मनोरंजन के लिये लिखी गई कथा-कहानियों का बहुत अभाव है। ‘वासवदत्ता', ‘कादम्बरी', ‘दशकुमार चरित' इत्यादि कुछ इनी-गिनी कथाएँ ही संस्कृत साहित्य की निधि हैं। परन्तु साहित्य में इसका अभाव होने पर भी सम्भव है साधारण जनता में कथा-कहानियों का प्रसार पर्याप्त मात्रा में ही रहा हो। अवंती-नगरी की बैठकों में बैठकर लोग राजा उदयन की कथा कहते थे, इसका प्रमाण ‘मेघदूत' में प्राप्त है। कवि-कुल-गुरु कालिदास ने उन कथाओं का उल्लेख नहीं किया जिससे हम उस काल की कहानियों का आस्वादन पा सकते, परन्तु इतना तो निश्चित है कि देश के अन्य भागों में और भी कितने ‘उदयनों' की कथा वृद्ध लोग अपने उत्सुक श्रोताओं को सुनाते रहे होंगे। बहुत दिन बाद विक्रमादित्य, भरथरी (भर्तृहरि), मुंज और राजा भोज की कथाएँ भी वृद्ध लोग उसी चाव से अपने श्रोताओं को सुनाते रहे होंगे और मध्यकाल में आल्हा-ऊदल, पृथ्वीराज तथा अन्य शूर-वीरों की कहानियाँ भी उसी प्रकार कथाओं की श्रेणी में सम्मिलित कर ली गई होंगी। ये कथाएँ मौखिक प्रथा से निरन्तर चलती थीं। इनमें प्रसिद्ध और लोक-प्रचलित राजाओं तथा शूर-वीरों की वीरता, उनके प्रेम, न्याय, विद्या और वैराग्य इत्यादि गुणों का अतिरंजित वर्णन हुआ करता था। ‘सिंहासन बत्तीसी', ‘बैताल पच्चीसी' तथा ‘भोज-प्रबन्ध' इत्यादि कथा-संग्रह उन्हीं असंख्य कहानियों के कुछ अवशेष-मात्र बच गये हैं।
महाभारत के उपाख्यानों, उपनिषदों की रूपक-कथाओं तथा जातक-कथाओं की परम्परा भी लोप नहीं हुई, वरन् पुराणों में उस परम्परा का एक विकसित रूप मिलता है। इन पुराणों में आर्यों की अद्भुत कल्पना-शक्ति ने असंख्य नये देवी-देवताओं की सृष्टि की और उनके सम्बन्ध में कितनी ही तरह की कहानियों की सृष्टि हुई। आजकल की बुद्धिवादी जनता उन पौराणिक कथाओं को कपोल-कल्पना कह कर उनकी उपेक्षा और अवहेलना कर सकती है, परन्तु भारतवर्ष की सरल जनता का इन कहानियों पर अटल विश्वास था और इनमें उसे कोई अस्वाभाविकता अथवा अतिशयोक्ति नहीं दिखाई पड़ती थी।
‘कादम्बरी' तथा ‘दशकुमार-चरित्र' आदि साहित्यिक रचनाओं में भाषा का आडम्बर और अद्भुत शब्द-जाल, विविध प्रकार के लम्बे-लम्बे वर्णन तथा अवांतर प्रसंग ही अधिक मिलते हैं; कला सौन्दर्य की ओर लेखकों की रुचि कम पाई जाती है। इस प्रकार की रचनाएँ हैं भी बहुत कम। इससे जान पड़ता है कि प्राचीनकाल में जनता मुख्य दो वर्गों में विभाजित थी - एक शिक्षित द्विजों का वर्ग जो महाभारत के उपाख्यानों, जातक-कथाओं तथा पुराणों की अद्भुत कल्पनापूर्ण कथाओं से अपना मनोरंजन करती थी और दूसरा अशिक्षित शूद्रों, वर्णसंकरों तथा स्त्रियों का वर्ग जो उदयन की प्रेम-कथाओं, विक्रमादित्य के पराक्रम और न्याय की अतिरंजित कहानियों तथा भरथरी, मुंज, पृथ्वीराज, आल्हा-ऊदल इत्यादि की प्रेम-वीरता तथा विद्या-वैराग्य की कथाओं से अपना मनोरंजन करती थी। एक बहुत ही छोटा वर्ग उन साहित्यिकों का था, जिन्हें कथा-कहानियों से विशेष रुचि न थी, वरन् कथा-आख्यानों की ओट में अपना पांडित्य-प्रदर्शन करना ही उनका उद्देश्य हुआ करता था।
कथा-साहित्य के विकास का दूसरा युग तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में होता है, जब उत्तर भारत में मुसलमानों का आधिपत्य फैल गया। पंजाब तो महमूद गजनवी के समय-ग्यारहवीं शताब्दी-से ही मुसलमानी राज्य का प्रांत रहा था, परन्तु तेरहवीं शताब्दी में समस्त उत्तरी भारत में मुसलमानों का आधिपत्य हो गया। इतना ही नहीं, भारत में मुसलमानों की संख्या बढ़ती ही गई और वे गाँवों तक में अधिक संख्या में बस गये। वे अपने साथ अपनी एक संस्कृति ले आने के साथ ले आये थे कथा-कहानियों की एक समृद्ध परम्परा। अरब-निवासी अपने साथ ‘सहस्त्र रजनी-चरित्र' तक फारस देश के प्रेमाख्यात लेने आये थे। यहाँ भारत में पुराणों की कथा-परम्परा सजीव थी। इन परम्पराओं के परस्पर-सम्पर्क से, आदान-प्रदान से, एक नयी कथा-परम्परा का प्रारम्भ हुआ होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। जिस प्रकार धर्म, कला, समाज और संस्कृति के क्षेत्र में हिन्दू और मुसलमान दो महान् जातियों के परस्पर सम्पर्क और आदान-प्रदान से एक नये धर्म और समाज, कला और संगीत, साहित्य और संस्कृति का विकास हुआ, उसी प्रकार अथवा उससे कहीं अधिक विकास कथा-कहानियों की परम्परा में हुआ होगा, क्योंकि कथा-कहानियों का सम्पर्क साधारण जनता का सम्पर्क था, किसी वर्ग-विशेष का नहीं। धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा अन्य क्रांतियों का प्रभाव तो तत्कालीन साहित्य और इतिहास में मिल जाता है, परन्तु कथा-कहानियों की परम्परा में जो अद्भुत क्रांति हुई होगी वह बहुत कुछ मूक-मौखिक क्रांति थी। साहित्य में उसका उल्लेख नहीं मिलता, फिर भी प्रेममार्गी सूफी कवियों के प्रेमाख्यानों तथा लोक-प्रचलित अकबर और बीरबल के नाम से प्रसिद्ध विनोदपूर्ण कथाओं में इस परम्परा का कुछ आभास मिल जाता हैं, जो आगे बढ़कर अठारहवीं तथा उन्नीसवीं शताब्दी में मुंशी इंशाअल्ला खाँ की ‘उदयभानचरित' या ‘रानी केतकी की कहानी' के रूप में प्रकट होता है। 1950-60 ई. के आसपास जब मुद्रण यन्त्र के प्रचार से कुछ कथा-कहानियों के संग्रह प्रकाशित हुये तब ‘तोता मैना', ‘सारंगा-सदाबृज', ‘छबीली-भटियारिन', ‘गुल-बकावली', ‘किस्सये चार यार' इत्यादि कहानियाँ जिन्हें जनता बड़े चाव से पढ़ती थी, उसी परम्परा की प्रतिनिधि कहानियाँ थीं।
मुसलमान-युग की कहानियों की प्रमुखतम विशेषता उनमें प्रेम का चित्रण है। प्रेम का चित्रण प्राचीन भारतीय साहित्य में भी पर्याप्त मात्रा में मिलता है। कालिदास के नाटक ‘शकुन्तला', ‘विक्रमोर्वशी' और ‘मालविकाग्निमित्र', भवभूति की ‘मालतीमाधव', हर्ष की ‘रत्नावली', शूद्रक की ‘मृच्छकटिक' तथा वाण की ‘कादम्बरी' में प्रेम का ही चित्रण मिलता है। पुराणों में भी गोपियों और श्रीकृष्ण की रासलीला, उषा-अनिरूद्ध, और नल-दमयन्ती की प्रेम कथाएँ विस्तारपूर्वक वर्णित हैं। लोक-प्रचलित कहानियों में भी राजा उदयन की प्रेम कथाएं बड़े चाव से सुनी जाती थी। सच बात तो यह है कि गुप्तकाल से ही उत्तर भारत में एक ऐसी संस्कृति का विकास हो रहा था, जिसमें प्रेम और विलासिता की ही प्रधानता थी। फिर इधर मुसलमान अपने साथ लैला-मजनू और शीरीं-फरहाद की प्रेम-कथाएँ ले आये थे। दोनों के सम्पर्क से कहानी की नयी परम्परा चल निकली। उसमें प्रेम की प्रधानता स्वाभाविक ही थी। प्रेममार्गी सूफी कवियों के प्रेमाख्यानों का विशद् विवेचन भी देखने को मिलता है। इन कहानियों का कथानक फारस देश के प्रेमाख्यानों के आधार पर भारतीय वातावरण के अनुरूप कल्पित हुआ। नल-दमयन्ती, उषा-अनिरूद्ध और शकुन्तला-दुष्यन्त इत्यादि की भारतीय प्रेम-कथाओं के साथ फारसी प्रेमाख्यानों का सम्मिश्रण कर भारतीय वातावरण के अनुरूप आदर्शों की रक्षा करते हुये इसी प्रकार की कितनी प्रेम-कहानियाँ जनता में प्रचलित रही होंगी। इन कहानियों में पारलौकिक और विशुद्ध प्रेम से प्रारम्भ करके विषय-भोग जन्य अश्लील प्रेम तक का चित्रण मिलता है। प्रेममार्गी सूफी कवियों के प्रेमाख्यानों में प्रेम आदर्श विशुद्ध रूप में मिलता है और उसमें स्थान-स्थान पर अलौकिक और पारलौकिक प्रेम की ओर भी संकेत होता है। जायसी के ‘पद्मावत' को ही लीजिये - उसमें रतनसेन और पद्मावती का प्रेम कितना विशुद्ध और आदर्श है। मुंशी इंशाअल्ला खाँ रचित ‘रानी केतकी की कहानी' में भी प्रेम का वही रूप मिलता है। धीरे-धीरे समय बीतने पर राजकुमारों और राजकुमारियों के आदर्श और विशुद्ध प्रेम के स्थान पर साधारण प्रेमियों और नायक-नायिकाओं के लौकिक प्रेम का भी प्रदर्शन होने लगा और क्रमशः वासना-जनित भोग और विलास की भी अभिव्यक्ति होने लगी। ‘छबीली भटियारिन', ‘तोता-मैना' और ‘गुलबकावली' इत्यादि कहानियों में इसी लौकिक प्रेम तथा भोग-विलास का चित्रण मिलता है।
इस युग की कहानियों की दूसरी विशेषता हास्य और विनोद की परम्परा का प्रचलन में रहना। गम्भीर प्रकृति वाले आर्य हास्य-विनोद से दूर ही रहते थे, परन्तु मुसलमान प्रायः विनोद-प्रिय होते थे। इसीलिये उनके संसर्ग से विनोद-प्रिय कहानियों की सृष्टि आरम्भ हो गयी। अकबर और बीरबल के नाम से प्रसिद्ध विनोदपूर्ण कहानियों की सृष्टि इसी काल में हुई थी। इस युग की तीसरी प्रमुख विशेषता अस्वाभाविक, अतिप्राकृतिक और अतिमानुषिक प्रसंगों की अवतारणा थी। यों तो पौराणिक कथाओं में भी इसी प्रकार के प्रसंग पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं, परन्तु पुराणों में जहाँ आर्यों की सृजनात्मक कल्पना प्रतीकवादी ढंग के अधिकांश देवी-देवताओं तथा अन्य शक्तियों की सृष्टि करती थी, वहाँ इन कहानियों में प्रतीक की भावना है ही नहीं, वरन् कथा को मनोरंजक बनाने के लिये और कभी-कभी कथा को आगे बढ़ाने के लिये भी अभौतिक अथवा अतिभौतिक सत्ताओं तथा अस्वाभाविक और अतिमानुषिक प्रसंगों का उपयोग किया जाता था। उड़नखटोला, उड़नेवाला घोड़ा, बातचीत करने वाले मनुष्यों की भाँति चतुर पशु और पक्षी, प्रेत, राक्षस, देव, परी और अप्सरा इत्यादि की कल्पना केवल कल्पना-मात्र थी। इनसे किसी आध्यात्मिक सत्य अथवा गम्भीर तत्व की गवेषणा नहीं होती थी, केवल कथा में एक आकर्षण और सौन्दर्य आ जाता था। उदाहरण के लिये कुतुबन की ‘मृगावती' में राजकुमारी मृगावती उड़ने की विद्या जानती थी। मंझन-कृत ‘मधुमालती' में अप्सराएँ मनोहर नामक एक सोते हुये राजकुमार को रातों-रात महारस नगर की राजकुमारी मधुमालती की चित्रसारी में रख आती हैं। मनोहर से अचल प्रेम होने के कारण जब मधुमालती की माता क्रोध में आकर उसे पक्षी हो जाने का शाप देती है, तो राजकुमारी पक्षी बनकर उड़ने लगती है, फिर भी उसे मनुष्यों की भाँति वाणी, भाषा और पहचान की शक्ति है। ‘पद्मावत' में हीरामन तोता तो पूरा पण्डित है और प्रेमदूत बनने में नल में हंस का भी कान काटता है। ‘रानी केतकी की कहानी' में तो इस प्रकार के अस्वाभाविक और अतिमानुषिक प्रसंग आवश्यकता से अधिक मिलते हैं।
भारतीय कहानियों के विकास का तीसरा युग बीसवीं शताब्दी से प्रारम्भ होता है। 1750 ई. से ही अंग्रेजों ने भारत में अपनी जड़ जमाना प्रारम्भ कर दिया था और 1857 ई. तक सारे भारतवर्ष में उनका साम्राज्य स्थापित हो गया था। उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा के लिये स्कूल और कालेज खोले, न्यायालयों की सृष्टि की, मुद्रण-तंत्र का प्रचार किया और रेल, तार, डाक, अस्पताल इत्यादि खोले। साथ ही ईसाई मिशनरियों ने घूम-घूम कर अपने धर्म का प्रचार करना आरम्भ कर दिया। इसके फलस्वरूप हमारे साहित्य, संस्कृति, धर्म, समाज और राजनीति इत्यादि सभी क्षेत्रों में एक अभूतपूर्व परिवर्तन दिखाई पड़ा। कहानी-साहित्य पर भी इसका प्रभाव पड़ा और उसमें भी अद्भुत परिवर्तन हुआ। परन्तु तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में मुसलमानों के आगमन से कहानी-साहित्य में जो परिवर्तन हुआ था, उससे यह नितांत भिन्न था। आधुनिक काल में पाश्चात्य कथा-साहित्य और परम्परा से सम्पर्क हुआ ही नहीं और यदि हुआ भी तो बहुत कम, क्योंकि अंग्रेजों ने अपना साम्राज्य तो स्थापित अवश्य किया, परन्तु मुसलमानों की भाँति वे भारत में बसे नहीं और अपने को भारतीय जनता से दूर ही रखते रहे। फिर भी पाश्चात्य साहित्य, संस्कृति, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और भौतिक विचारधारा का भारतवासियों पर इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि आधुनिक काल में जनता की रुचि, विचार, भावना, आदर्श और दृष्टिकोण प्राचीनकाल से एकदम भिन्न हो गया और इतना अधिक भिन्न हो गया कि कहानी को अब हम कहानी मानने के लिये भी प्रस्तुत नहीं होते। राजकुमारों और राजकुमारियों की प्रेम-कथाएँ, राजा-रानी की आश्चर्यजनक बातें, विक्रमादित्य की न्याय-कहानियाँ, राजा भोज का विद्याव्यसन और उसके दान की कथाएँ, कर्ण और दधीचि का दान, अर्जुन और भीम की वीरता हमें कपोलकल्पना जान पड़ने लगीं। फल यह हुआ कि बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से कहानी की एक बिल्कुल नयी परम्परा चल निकली जिसे ‘आधुनिक कहानी' कहते हैं।
प्राचीन और आधुनिक कहानियों में मूलभूत अन्तर है और इस अन्दर का कारण उन्नीसवीं शताब्दी में पाश्चात्य संस्कृति और विचारों के सम्पर्क से उत्पन्न एक नवीन जागृति और चेतना है। पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से हमारे दृष्टिकोण में महान् परिवर्तन उपस्थित हो गया। आधुनिक शिक्षा की दो प्रमुख विशेषताएँ हैं - यह आलोचनात्मक और वैज्ञानिक है; यह सन्देह का पोषण करती है और गुरुडम की विरोधी है; प्रकृति की भौतिक सत्ताओं पर विश्वास करती है और अभौतिक अथवा अतिभौतिक सत्ताओं की अविश्वासी है; व्यक्तिगत स्वाधीनता की घोषणा करती है और रुढ़ियों, परम्पराओं तथा अंधविश्वासों का विरोध करती है। इस बुद्धिवाद के प्रभाव से हमें भूत, प्रेत, जिन्न, देव, राक्षस, उड़न-खटोला, उड़ने वाला घोड़ा इत्यादि अभौतिक अथवा अतिभौतिक, अप्राकृत अथवा अतिप्राकृत अमानुषिक सत्ताओं में अविश्वास होने लगा। फलतः कहानियों में इनका उपयोग असह्य जान पड़ने लगा। इस प्रकार आधुनिक काल में कहानी की सृष्टि करने में केवल आकस्मिक घटनाओं और संयोगों का ही सहारा लिया जा सकता है। ‘प्रसाद', ज्वालादत्त शर्मा और विशम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक' की प्रारम्भिक कहानियों में यही हुआ भी। कहानी-लेखक को कथानक चुनने और उसका क्रम सजाने में अधिक सतर्क रहना पड़ता था, क्योंकि अभौतिक तथा अतिभौतिक सत्ताओं के लोप से कथा की मनोरंजकता का सारा भार आकस्मिक घटनाओं और संयोगों के कौशलपूर्ण प्रयोग पर आ पड़ा। ठीक इसी बीच भारतवर्ष में मनोविज्ञान के अध्ययन की ओर विद्वानों की अभिरुचि बढ़ने लगी। लोगों को यह जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि देखने और सुनने जैसे साधारण कार्यों में भी आँखों और कानों की अपेक्षा मस्तिष्क का ही अधिक महत्वपूर्ण कार्य होता है। इस प्रकार हमें मानव-मस्तिष्क की व्यापक महत्ता का बोध हुआ और यह अनुभव होने लगा कि आकस्मिक घटनाओं तथा संयोग की अपेक्षा जीवन में मनुष्य के मस्तिष्क और मन का कहीं अधिक प्रभाव और महत्व है। संसार का वास्तविक नाटक मानव-मस्तिष्क और मन का नाटक है; आँख, कान तथा अन्य इन्द्रियों का नहीं। फलतः कहानियों में इसी मानव-मस्तिष्क और मन के नाटक का चित्रण होने लग गया। अभौतिक और अतिभौतिक सत्ताओं के निराकरण से कहानियों की मनोरंजकता में जो कमी आ गयी थी, उसे इस मनोवैज्ञानिक विश्लेषण ने पूरा ही नहीं किया, वरन् और आगे भी बढ़ाया। जैसे मुंशी प्रेमचन्द ने लिखा है - ‘आधुनिक कहानी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और जीवन के यथार्थ चित्रण को अपना ध्येय समझती है'।
यों तो साहित्य के प्रत्येक अंग और रूप की परिभाषा प्रस्तुत करना सरल बात नहीं है, परन्तु आधुनिक कहानी की परिभाषा प्रस्तुत करना शायद सबसे कठिन है। फिर भी साहित्य के अन्य रूपों के साथ इसकी समता और विषमता प्रदर्शित कर, इसकी विशेषताओं का सूक्ष्म विश्लेषण और इसकी व्याख्या सन्तोषजनक रूप से की जा सकती है। अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर आधुनिक कहानी क्या है ?
कुछ कथाकारों का मानना है कि कहानी और उपन्यास में विशेष अन्तर नहीं है कथानक और शैली की दृष्टि से कहानी उपन्यास के बहुत निकट है। केवल कहानी का विस्तार उपन्यास से बहुत कम होता है। इस मत के अनुसार हम इस सारांश पर पहुँचते हैं कि कहानी उपन्यास का ही लघु रूप है और एक ही कथानक इच्छानुसार बढ़ाकर उपन्यास और छोटा करके कहानी के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है, परन्तु यह मत सर्वथा भ्रान्तिपूर्ण है। कहानी, उपन्यास का छोटा रूप नहीं, वरन् वह उससे एक सर्वथा भिन्न और स्वतंत्र साहित्य रूप है। बाह्य दृष्टि से कहानी और उपन्यास में समानता अवश्य है, परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर दोनों में स्पष्ट अन्तर दृष्टिगोचर होता है।
उपन्यास में सबसे प्रधान वस्तु उसका कथानक हुआ करता है और बिना कथानक के उपन्यास की सृष्टि हो ही नहीं सकती। भाव-प्रधान उपन्यासों में भी एक कथानक का होना अनिवार्य होता है। परन्तु आधुनिक कहानी में कथानक का होना आवश्यक होते हुये भी अनिवार्य नहीं है, कितनी ही कहानियों में कथानक होता ही नहीं। कभी-कभी केवल कुछ मनोरंजक बातों, चुटकुलों और चित्त को आकर्षित करने वाली सूझों के आधार पर ही कहानी की सृष्टि हो जाया करती है। उदाहरण के लिये प्रस्तुत पुस्तक में संकलित भगवतीचरण वर्मा की कहानी ‘मुगलों ने सल्तनत बख्श दी' देखिये। इसमें कथानक कुछ भी नहीं है, केवल एक मनोरंजक बात जिसे लेखक ने अपनी अद्भुत कल्पना-शक्ति से, केवल अपनी शैली के बल पर एक सुन्दर कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है। इसी प्रकार प्रेमचन्द की कहानी ‘पूस की रात' में कुछ चरित्रों के द्वारा एक वातावरण की सृष्टि की गई है, परन्तु उसमें कथा-भाग नगण्य है। इसी प्रकार ‘अज्ञेय' की कहानी ‘रोज' में कथानक का अंश बहुत ही गौण है। लेखक ने कुछ चरित्रों के द्वारा एक अद्भुत प्रभाव की सृष्टि की है, जिससे नायक की ओर पाठकों का ध्यान भी नहीं जाता।
आधुनिक कहानी में जहाँ कथानक होता भी है, वहाँ कहानी का कथानक उपन्यास के कथानक से बहुत भिन्न हुआ करता है। उपन्यास में प्रायः एक मुख्य कथानक के साथ-ही-साथ दो-तीन गौण कथाएँ भी चलती रहती हैं और जहाँ गौण कथानक नहीं होते, वहाँ मुख्य कथानक ही इतना विस्तृत हुआ करता है कि उससे जीवन का पूरा चित्र प्रस्तुत किया जा सकता है। परन्तु कहानी में अधिकांश गौण कथाएँ होती ही नहीं; केवल एक मुख्य कथा होती है और उससे भी जीवन का पूरा चित्र प्रकाश में नहीं आता, केवल किसी अंग-विशेष पर ही प्रकाश पड़ता है। कुछ कहानियों में जहाँ मुख्य कथानक के अतिरिक्त कुछ गौण कथाएँ भी होती हैं वहाँ भी जीवन के किसी अंग-विशेष पर ही प्रकाश पड़ता है, पूरे जीवन का चित्र उपस्थित नहीं होता। इससे यह न समझ लेना चाहिये कि कहानी का कथानक अपूर्ण-सा होता है और उसे इच्छानुसार पूर्ण किया जा सकता है - आगे बढ़ाया जा सकता है। कहानी का कथानक अपने में ही पूर्ण होता है और उसे कठिनाई से आगे बढ़ाया जा सकता है। इस प्रकार कहानी और उपन्यास में महान् अन्तर होता है।
चरित्र की दृष्टि से भी कहानी और उपन्यास में उतना ही अन्तर है जितना कथानक की दृष्टि से। उपन्यास में चरित्र भी एक आवश्यक अंग है। घटना-प्रधान तथा भाव-प्रधान उपन्यासों में भी चरित्र होते हैं और उनका यथार्थ चित्रण किया जाता है, परन्तु कहानियों में चरित्र का होना अनिवार्य नहीं है। कितनी ही कहानियों में चरित्र होते ही नहीं, या होते भी हैं तो गौण होते हैं। उदाहरण के लिये भगवतीचरण वर्मा की कहानी ‘मुगलों ने सल्तनत बख्श दी' में चरित्र है ही नहीं और ‘पूस की रात' तथा ‘रोज' कहानियों में चरित्र-चित्रण का प्रयास नहीं मिलता, वरन् उनमें चरित्र केवल निमित्त मात्र हैं, लेखक का मुख्य उद्देश्य वातावरण और प्रभाव की सृष्टि करना है। चरित्र-प्रधान और कथा-प्रधान कहानियों में चरित्र होते अवश्य हैं, परन्तु उपन्यासों की भाँति उनका सम्पूर्ण चरित्र-चित्रण कहानी में नहीं मिलता, वरन् किसी पक्ष-विशेष का ही चित्रण मिलता है। सच तो यह है कि पूर्ण रूप से चरित्र-चित्रण के लिये कहानी में स्थान नहीं होता।
शैली की दृष्टि से कहानी और उपन्यास में विशेष अन्तर नहीं है। केवल स्थानाभाव के कारण कहानी में विस्तृत प्रकृति-वर्णन अथवा अन्य प्रकार के वर्णनों के लिये क्षेत्र बहुत ही कम है। इसलिये कहानी की शैली अत्यन्त सुगठित और संक्षिप्त होती है।
प्रभाव-क्षेत्र और विस्तार की दृष्टि से आधुनिक कहानी एकांकी नाटक और निबन्ध के बहुत निकट है। कहानी में एकांकी नाटक और निबन्ध की ही भाँति जीवन का पूरा चित्र नहीं मिलता, वरन् उसके किसी विशेष मनोरंजक, चित्ताकर्षक एवं प्रभावशाली दृश्य अथवा पक्ष का ही चित्र मिलता है और इसका विस्तार भी उन दोनों साहित्य-रूपों (एकांकी नाटक और निबन्ध) की ही भाँति छोटा होता है, जिससे पूरी कहानी एक बैठक में ही अर्थात् डेढ़ घण्टे के भीतर ही भली प्रकार पढ़ी जा सके। परन्तु इतनी समानता होने पर भी कहानी उन दोनों से सर्वथा भिन्न रहती है। एकांकी नाटक अभिनय की वस्तु है, इसलिये उसमें प्रकृति-वर्णन तथा अन्य प्रकार के वर्णनों का सर्वथा अभाव रहता है और शैली की दृष्टि से तो कहानी एकांकी नाटकों से बिल्कुल भिन्न साहित्य रूप है। निबन्ध में स्वाभाविक वर्णन तो मिलता है और वह कहानी की भाँति सुगठित एवं संक्षिप्त शैली में होता है परन्तु इसमें उसकी कल्पना-शक्ति का अभाव रहता है जिसके सहारे आधुनिक कहानी में किसी मनोरंजक कथा, किसी प्रभावशाली और सुन्दर चरित्र, किसी मनोवैज्ञानिक चित्र, कवित्वपूर्ण अथवा यथार्थ वातावरण तथा किसी शक्तिशाली और सुन्दर प्रभाव की सृष्टि होती है।
आधुनिक कहानी की दो विशेषताएँ हैं। प्रथम विशेषता इसमें कल्पना-शक्ति का आरोप है। यों तो साहित्य के प्रत्येक क्षेत्र और विभाग में कल्पना का उपयोग आवश्यक एवं अनिवार्य हुआ करता है, परन्तु कहानी में ही शायद इसका सबसे अधिक उपयोग होता है। वास्तव में देखा जाए तो कल्पना कहानी का प्राण है। चाहे प्रेमचन्द और ‘प्रसाद' के गम्भीर मानव-चरित्र का चित्रण हो, चाहे जैनेन्द्र कुमार और भगवती प्रसाद बाजपेयी का सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विश्लेषण; चाहे हृदयेश, राधिकारमण प्रसाद सिंह और गोविन्दवल्लभ पंत की कवित्तपूर्ण वातावरण-प्रधान कहानियाँ हों, चाहे ‘अज्ञेय' और चंद्रगुप्त विद्यालंकार की प्रभाववादी कहानियाँ; चाहे भगवतीचरण वर्मा की व्यंग्यात्मक कहानियोँ, चाहे जी. पी. श्रीवास्तव की अतिनाटकीय प्रसंगों से युक्त हास्यमय गल्प, चाहे गोपालराम गहमरी की जासूसी कहानियाँ हों, चाहे दुर्गा प्रसाद खत्री की रहस्यमयी और साहसिक कहानियाँ - इन सभी स्थानों में कल्पना की ही प्रमुखता देखने को मिलती है। सच तो यह है बिना कल्पना के कहानी की सृष्टि हो ही नहीं सकती। किसी भावना को कहानी का रूप देने के लिये, किसी मनोवैज्ञानिक सत्य को प्रदर्शित करने के लिये, किसी प्रभाव की सृष्टि करने के लिये, किसी मनोरंजक बात को साहित्यिक रूप प्रदान करने के लिये अथवा किसी चरित्र-विशेष के सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के लिये घटनाओं का क्रम एवं घात-प्रतिघात-संयुक्त कथानक की सृष्टि करना कल्पना-शक्ति का ही काम है। कोई भी कहानी हो - सब की तह में कल्पना का ही प्रभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। आधुनिक कहानी में कल्पना की सबसे अधिक जादूगरी पुराण-कथा ;डलजी डांपदहद्ध शैली में देखनें को मिलती है। मोहनलाल महतो की कहानी ‘कवि' में कल्पना के अतिरिक्त और है ही क्या ? कमलाकान्त वर्मा की ‘पगडंडी' में - लेखक ने अमराइयों को चीर कर जाती हुई एक छोटी-सी ‘पगडंडी' देखी थी और उसी पर एक दार्शनिक भावनापूर्ण सुन्दर कहानी की सृष्टि कर दी - केवल अपनी कल्पना-शक्ति से! वास्तव में आधुनिक कहानी की प्रमुख विशेषता कल्पना के अद्भुत आरोपण में है।
आधुनिक कहानी की दूसरी विशेषता कम से कम पात्रों अथवा चरित्रों द्वारा कम से कम घटनाओं और प्रसंगों की सहायता से कथानक, चरित्र, वातावरण और प्रभाव इत्यादि की सृष्टि करना है। किसी व्यर्थ चरित्र अथवा निरर्थक घटना और प्रसंग के लिये कहानी में स्थान ही नहीं है। यों तो व्यर्थ चरित्र और निरर्थक घटना और प्रसंग नाटक, उपन्यास और एकांकी नाटक में भी अनावश्यक है, परन्तु स्थानाभाव के कारण कहानी में उनका निराकरण अत्यन्त आवश्यक होता है। आधुनिक कहानी साहित्य का एक विकसित कलात्मक रूप है, जिसमें व्यर्थ चरित्र और निरर्थक प्रसंग उसके सौन्दर्य के लिये घातक प्रमाणित हो सकते हैं।
स्पष्ट है कि आधुनिक कहानी साहित्य का विकसित कलात्मक रूप है जिसमें लेखक अपनी कल्पना-शक्ति के सहारे, कम से कम पात्रों अथवा चरित्रों के द्वारा, कम से कम घटनाओं और प्रसंगों की सहायता से मनोवांछित कथानक, चरित्र, वातावरण, दृश्य अथवा प्रभाव की सृष्टि करता है।
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युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डाँ वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानों से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
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सम्पर्क- वरिष्ठ प्रवक्ता, हिन्दी विभाग, डी0 वी0 महाविद्यालय , उरई (जालौन) उ0 प्र0 -285001
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