पक्षी-वास डॉ सरोजिनी साहू का बहु-चर्चित उपन्यास अनुवाद :- दिनेश कुमार माली प्राक्कथन सरोजिनी साहू का नाम न क...
पक्षी-वास
डॉ सरोजिनी साहू का बहु-चर्चित उपन्यास
अनुवाद :- दिनेश कुमार माली
प्राक्कथन
सरोजिनी साहू का नाम न केवल हमारे देश के वरन् अंतराष्ट्रीय स्तर के गिने-चुने साहित्यकारों में लिया जाता है। अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त इस महान नारीवादी लेखिका की उड़िया भाषा में अब तक दस कहानी-संग्रह तथा दस उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। नारीत्व से संबंधित विभिन्न समस्याओं को उजागर करने में स्पष्टवादिता व पारदर्शिता के लिये साहित्य जगत में उन्होंने अपनी एक अमिट छाप छोड़ी है। आपके उपन्यास व कहानी- संग्रह देश-विदेश की विभिन्न भाषाओं जैसे बंगाली, मलयालम, अंग्रेजी व फ्रेंच में अनूदित हुये है। आपकी बहुचर्चित कहानियां हापर कालिन्स, नेशनल बुक ट्रस्ट, साहित्य अकादमी व ज्ञानपीठ से प्रकाशित होती रही है। संप्रति उड़ीसा के एक डिग्री काँलेज में अध्यापन कार्य में रत होने के अलावा अंग्रेजी-पत्रिका ‘इंडियन ऐज’ की सह-संपादिका तथ न्यूमेन काँलेज, केरल द्वारा प्रकाशित ‘इंडियन जर्नल आँफ पोस्ट कोलोनियल लिटरेचर’, के सलाहाकार मंडल की विशिष्ट सदस्या है। पाश्चात्य जगत में आपको 'इंडियन सीमोन डी बीवोर' के नाम से जाना जाता है। साहित्य में आपके उत्कृष्ट योगदान के लिये उड़ीसा साहित्य अकादमी, झंकार पुरस्कार, भुवनेश्वर पुस्तक मेला पुरस्कार, प्रजातंत्र पुरस्कार एवं नेशनल एलायंस आँफ वूमेन आर्गेनाइजेशन द्वारा समय-समय पर सम्मानित होती रही है।
लेखिका अपने अंग्रेजी ब्लाँग 'सेंस एंड सेंसुअलिटी' में सनातन काल से मानव मस्तिष्क पर अधिकार जमाये हुये धार्मिक आडम्बरों व सामाजिक ढ़कोसलों, चाहे वे पाश्चात्य जगत के हो या हमारे देश के, का खंडन करते हुये मानव-मन की सुषुप्त अंतस इच्छाओं का जिस पारदर्शिता व निडरता के साथ विश्लेषण किया है, कि विश्व का कोई भी बुद्धिजीवी वर्ग उनकी विश्वसनीयता व सत्यता को अपनाने से इंकार नहीं कर सकता। यह वही ब्लाँग था, जिससे मेरे अंदर एक वैचारिक मंथन पैदा हुआ तत्पश्चात् उनके अंग्रेजी अनूदित उपन्यास 'डार्क एबोड' कहानी संग्रह -'वेटिंग फाँर मन्ना' एवं 'सरोजिनी साहूज स्टोरीज' पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। ठीक जिस प्रकार से हिन्दी के प्रसिद्ध उपान्यसकार देवकी नंदन खत्री की कृति 'चन्द्रकांता संतति' को पढ़ने के लिये कई विदेशी हिन्दी भाषा की ओर आकृष्ट हुये, ठीक उसी प्रकार लेखिका की अन्य मौलिक रचनाओं को उड़िया भाषा में सुनने व समझने की तीव्र अभिलाषा मुझमें पैदा हुई। यह मेरे लिये परम सौभाग्य की बात थी कि विगत पन्द्रह सालों से मैं उड़ीसा की लोक-संस्कृति, साहित्य व समाज से परिचित रहा हूँ। अतः यह मेरी हार्दिक इच्छा थी कि सुसमृद्ध उड़िया साहित्य को राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद कर उत्कल भूमि के प्रति अपना आभार व्यक्त करुं, साथ ही साथ हिन्दी जगत को इस अनमोल धरोहर से परिचित करा सकूं। इस पुनीत कार्य के लिये, मैने सरोजिनी साहू के बहुचर्चित उपन्यास ‘पक्षी-वास’ तथा उनकी चुनिंदा श्रेष्ठ कहानियां, जो मेरे ब्लाँग (http://sarojinisahoostories.blogspot.com ) पर उपलब्ध है, को चुना। ईश्वर की असीम कृपा से यह यज्ञ सम्पन्न हुआ तथा अनुवाद के क्षेत्र में मेरा प्रथम प्रयास आपके हाथों मे है।
लेखिका का उपन्यास 'पक्षी-वास' के बारे में संक्षिप्त में कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी- -''देखन में छोटो लागे, पर घाव करे गम्भीर''. सही शब्दों में ,'पक्षी-वास' एक छोटा-सा उपन्यास होने के बावजूद भी जिन बहुआयामी पहेलुओं एवं व्यावहारिक परिदृश्यों की पृष्ठभूमि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता है, कि कोई भी सुधी पाठक अंतर्मन से प्रभावित हुये बिना नहीं रह सकता है।
भले ही, उड़ीसा प्रांत तरह-तरह की प्राकृतिक संपदाओं से भरपूर है, फिरभी यहां का आम आदमी किस कदर भूख से जीवन यापन करता है, उसका मर्मान्तक चित्रण लेखिका ने उड़ीसा प्रांत के पश्चिमी इलाकों जैसे कोरापुट, बोलांगीर आदि जिलों में रहने वाले आदिवासियों के जीवन पर गहन शोध कर अपने उपन्यास 'पक्षी-वास' के माध्यम से पेश किया है। जंगल में रहने वाले ऐसे ही कुछ सतनामी सम्प्रदाय के वाशिंदे, उड़ीसा के पश्चिमी इलाकों से लेकर दूर-दराज छत्तीसगढ़ के बस्तर तक फैले हुये हैं। इस सम्प्रदाय का पुश्तैनी धंधा गावों में घूम-घूमकर जानवरों की अस्थि, मांस-मज्जा इकत्रित कर मुर्शिदाबादी पठानों को बेचकर अपनी आजीविका कमाना है।
यह उपन्यास एक ऐसे ही गरीब आदमी के परिवार के इर्द-गिर्द घूमता है, जो कि निम्न श्रेणी का यह कार्य करते हुये भी अध्यात्मवाद की पराकाष्ठा को अपने भीतर संजोये रखता है। उसका वही दर्शन, वही अध्यात्मवाद उसके जीवन में आयी प्रतिकूलताओं में भी समदर्शी होकर डटे रहने का आह्वान करता है। विषम परिस्थितियों से एक सुखी परिवार के सारे सपने बुरी तरह से छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, बुढ़ापे की लाठी टूट जाती है और बची रह जाती है वृद्धावस्था की मायूसी, असह्य अकेलापन, बेसहारा व बेबस जिंदगी।
उपन्यास मूलभूत से एक मानवीय चीत्कार है उस परिवार की, जिसमें केवल दुःख के काले बादल मँडराते ही रहते है। कोई भी परिवार का पुश्तैनी धंधा अपनाना नहीं चाहता है। पहला बेटा ‘सन्यासी’ बचपन में फादर इमानुअल साहिब के धर्मांतरण पर्व में ‘क्रिस्टोफर’ बन जाता है, बड़ा होकर जापान चला जाता है, फिर कभी लौटता ही नहीं है। दूसरा बेटा ‘डाक्टर’बंधुआ मजदूर बनकर गाँव से गायब हो जाता है तीसरा बेटा ‘वकील’ नक्सल में भर्ती हो जाता है और जंगल में पुलिस-मुठभेड़ में मारा जाता है। सबसे छोटी इकलौती बेटी परबा पापी पेट की खातिर रायपुर कोठे में पहुंच जाती है, जहाँ से उसका लौट आना संभव ही नहीं है। उपन्यास का विस्तार भोपाल से जापान, किसिंडा से रायपुर, सिडिंगागुड़ा से सीनापाली तक है।
आधे से ज्यादा उड़ीसा प्रांत में फैले नक्सल आंदोलन के मूलभूत कारणों जैसे गरीब व अमीर में बढ़ती खाई, सरकारी आला अधिकारियों की भ्रष्ट-प्रवृति आदि को उजागर करने वाला यह उपन्यास अपने आप में एक अलग अहमियत रखता है। जहाँ जंगल के वाशिंदों को यह पता नहीं, कि सरकार कौन है ? सरकार कहां है ? वहां सरकार उनके लिये भुवनेश्वर दिल्ली से ढाँचागत सुविधायें जैसे सड़कें, कुयें और बीपीएल चावल मुहैया कराने की व्यवस्था करती है। पर गाँव तक पहुँचते-पहुँचते सब चोरी हो जाते है। चोरी हो जाते है, गाँव की युवक-युवतियां। गायब होते-होते पूरा गाँव सुना पड़ जाता है। फिर भी सरकारी तंत्र सक्रिय रहता है, सरकारी सुविधाओं का लुत्फ उठाते सरकारी कर्मचारी, अधिकारी-गण गांवों में घूम-घूमकर भूख से बेहाल, बिलबिलाते निर्बल बुजुर्गों से उनके घरों की जन-गणना का हिसाब लेते है। खाली गाँव पाकर कहते है बच्चों को मत बेचो। आम की गुठलियाँ के मांड का सेवन मत करो, वरना पेट खराब हो जायेगा। "पर उपदेश, कुशल बहुतेरे" की तर्ज पर पोषक तत्वों से युक्त खाना खाने का उपदेश देते हैं। परन्तु वास्तविकता तो यह है कि फारेस्ट-गार्ड जैसे दरिंदे, भूख से तड़पती परबा जैसी युवतियों को मुट्ठी भर चावल के बदले अपनी हवस का शिकार बना लेते है।
यह उपन्यास अपने आप में एक कविता ही है. एक विद्रोह की कविता, एक असफल क्रोध की कविता, जो पाठक को पहुंचा देती है राजधानिओं,शहरों तथा कस्बों की 'सॉफ्टवेर संस्कृति' से दूर बसे एक अलग भारतवर्ष में।
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उपन्यास के मूल सूत्र, मुख्य-चरित्र 'अंतरा' के परिवार;भागवत के 'एकादश स्कंध' के 'अष्टम अध्याय' में वर्णित कपोत-कपोती संवाद से जोड़ा गया है, जिसमे यदुवंश के राजा को अवधूत अपने चौबीस गुरुओं के बारे में बता रहा है। उपन्यास के समूचे घटना-क्रम को अगर भागवत की कपोत-कपोती प्रसंग में देखा जाए पूरी तरह से वैसी ही घटना घटित होती प्रतीत होती है। लेखिका का प्रयोग सफल साबित हुआ है. और उपन्यास को एक नान्दनिक तथा दार्शनिक आयाम प्रदान करता है.
यद्यपि उड़िया मेरी मातृभाषा नहीं है, तथापि पन्द्रह सालों से उड़ीसा के परिवेश में रहने से उड़िया-भाषा का व्यावहारिक ज्ञान की जानकारी अवश्य हुई, परन्तु किसी उड़िया-उपन्यास का हिन्दी में अनुवाद कर सकूं, इतनी भाषा पर मेरी पकड़ नहीं थी। यह अनुवाद तभी संभव हो सका, जब उड़िया भाषा की साहित्यिक व तकनीकी शब्दावली के साथ-साथ पात्रों की भाव-भंगिमाओं के यथार्थ चित्रण में मेरे परममित्र श्री अनिल दाश ने अपना हार्दिक सहयोग प्रदान किया। सही अर्थों में, इस उपन्यास की रचना में अनिल दाश एक नींव की ईट है। जिसके लिये मैं उन्हें तहे-दिल से धन्यवाद देता हूँ। इसके अतिरिक्त पांडुलिपि निरीक्षण में मेरे मित्र श्री विजय कुमार खरद, श्री अशोक कुमार तथा उनकी धर्मपत्नी रिंकु कुमारी एवं मेरी धर्मपत्नी शीतल माली का भी आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने अपना अमूल्य समय निकालकर सूक्ष्मता के साथ ध्यानपूर्वक पांडुलिपी का निरीक्षण किया।
अंत में, मैं मूल लेखिका श्रीमती सरोजिनी साहू व उनके प्रतिष्ठित लेखक पति श्री जगदीश मोहंती को समय-समय पर इस संदर्भ में उचित मार्गदर्शन व सहयोग प्रदान करने हेतु शत-शत नमन करता हूँ।
पुनश्च, मेरा श्रम तभी सार्थक होगा जब आप उपन्यास की अंतर्निहीत भावनाओं को समझे तथा अपनी प्रतिक्रियाओं से अवगत करायें।
इन्हीं चंद शब्दों के साथ,
दिनेश कुमार माली
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बसन्त ऋतु के आने से वन उपवन एवं पर्वतों पर महोत्सव-सा छा गया। सभी के मन हर्ष-उल्लास से भरे थे। सभी खुशी के मारे मदमस्त से थे। जाने-अनजाने, कितने फूलों की खुशबू पूरे वातावरण को सुवासित कर देती थीं। मधुर खुशबू की महक पाकर कोयल नींद से जागती तथा पेड़ो के झुरमुटों से कूकती तथा कहती- “बसंत आ गया, बसंत.” कोयल की कूक से, मानों आम के पेड़ों का नवयौवन मिल जाता था तथा चांद की श्वेत-धवल चांदनी की भाँति आम के पेड़ मंझरी से ढ़क जाते थे। जब मंझरी सूखती, छोटे फल आते, उसी समय महुआ के फूल अपनी पंखुंड़ियों को टिप-टिप करके खोलते। महुआ के फूल वन्य-भूमि को मदमस्त कर रहे थे। जिस प्रकार शहद की बूंदे टपटप कर गिरती है, उसी प्रकार रातभर महुआ के फूल गिर रहे थे मानो अंतरिक्ष से तारे टिमटिमाते हुए, एक दूसरे को बुलाते हुये गिर रहे हो। यही तारा-फूल पहाड़ी मनुष्यों तथा जंगली जानवरों को पागल-सा बना देते थे। गाँव के आसपास के आठ-दस ग्राम्य बस्तियों में नशे की खुमारी छा जाती थी। महुआ के फूलों के लोभ से गाँवों में कभी-कभी भालू घुस आते थे। कभी-कभी महुआ के फूलों को इकट्ठा करती हुयी गाँव की युवतियाँ बेसुध-सी जंगल के मध्य तक चली जाती थी। जब नशे की खुमारी टूटती थी तो वे अपने आपको अकेले पाकर अपनी जान बचाने के लिये गाँवों की तरफ भाग जाती थी।
महुआ फूलों की महक से आकर्षित होकर गाँवों की तरफ हाथियों के झुण्ड आ जाते थे। तब सब कुछ समाप्त होता हुआ नजर आता था। छत खप्पर दरवाजे आदि हाथियों के लिये कुछ भी नहीं थे। वे किसी के छोटे बच्चे को अपने पांव से रौंदकर आगे निकल जाते थे, तो किसी को अपनी सूंड से उठाकर धरती पर पटक देते थे। दुर्दांत डकैत की भांति मिट्टी के बरतनों को तोड़कर महुआ के फूल चुराकर खा जाते थे। इतना होने के बावजूद भी ‘महुली दारु’ बनाई जाती थी। महुआ के फूलों की महक वातावरण में फैलती थी तथा मनुष्यों एवं हाथियों को मतवाला बनाती थी।
जब जंगल में महुआ के पेड़ पर फल आने लगते थे, तो दूसरी तरफ जंगल में पकी हुयी चिरौंजी तथा तेंदू से पेड़ लद जाते थे। ज्येष्ठ मास की असह्य ग्रीष्म से मीठे रस से भरपूर तेंदू जर-जरकर गिरने लगते थे। अगर आठ-दस तेंदू इकट्ठा करते, तो एक समय का भोजन हो जाता। जब तेंदू के फूल अपनी आख़िरी पड़ाव पर होते थे, तब जामुन के फल अपना रंग बदलना शुरु कर देते थे। एक के पश्चात एक अलग-अलग प्रबंध जंगल ने कर रखा था। आम, जामुन, चिरौंजी, अनेक प्रकार के फल ही नहीं, बल्कि पलास के फूल जलते हुए अंगारे की भाँति आकाश में झूल रहे थे। मानों आस-पास का संपूर्ण क्षेत्र उन्हीं धधकते हुये, दहकते हुये अंगारों के उजाले से रोशन हो रहा हो।
आनन-फानन में तेंदू की नवकोपलें इर्द-गिर्द की झाड़ियों में प्रस्फुटित होती। फिर एक बार जंगल के वाशिन्दे कमर में थैला बांधकर, झुक-झुककर तेंदू के पत्तों को तोड़ते, अपने दाना-पानी के प्रबंध में जुट जाते। पत्तों के पीछे पत्तों को सजाकर ठेकेदारों को बेचते- सरकारी मूल्य से भी कम मूल्य पर। खुदरा-व्यापारियों से वे ‘तैयार पत्ता ’ लाते, बीड़ी बांधकर मेहनताना पाते।
खजूर के पत्तों से औरतें झाडू एवं अन्य चटाई बनाती, तो मर्द खस की टट्टी बनाकर कांटाभाजी, नुआपाड़ा तक बेचने जाते।
इस प्रकार साल के बीज से तेंदू के पत्ते तक, झाडू से माकंड पत्थर तक, जंगल ने दानापानी की व्यवस्था कर रखी है। कभी मधुमक्खी के छत्ते को तोड़कर मिली हुई मधु को किसी फोरेस्ट गार्ड को भेंट देकर एवज में घर सजाने के लिये दो बल्लियों की आमदनी से कुछ नमक तथा कुछ रूपया मिल जाता था।
जंगली सुअर, सांभर, हिरण, चीतल हिरण इत्यादि कई जंगली जानवर कई काल से गायब हो गये हैं, नहीं तो पूर्णिमा के पर्व तथा शादी के उत्सव आदि शानदार ढंग से मनाये जाते। आजकल जंगल तो सरकार का है ! जंगल में रहने वाले मनुष्यों को सरकार किस प्रकार का जीव है, इस बात का पता नहीं है। फोरेस्ट गार्ड कहता है कि हम सरकार के आदमी हैं, अगर जंगल से लकड़ी चोरी करोगे तो सरकार जेल में डाल देगी, तब जेल में चक्की पीसोगे और कोड़े खाओगे। एक-दो टुकड़ा लकड़ी जलाने के लिये भी जुर्माना लगता है एक मुर्गा या पचास और सौ रूपये। जंगल में रहने वाले लोगों ने सरकार को तो देखा नहीं है, परन्तु आधी रात को बड़े-बड़े ट्रक जंगल में आते हैं, बड़े राक्षस की तरह उन्हें चट कर जाते हैं।
ताज्जुब की बात है कि इन लोगों ने सरकार को देखा नहीं है, वरना अवश्य पूछते कि इसका रहस्य क्या है ?
अब सघन वन नहीं है। पहले था जंगल को घेरते हुये नाला, ‘बूडी-जोर,’पहाड़ी नदियाँ आदि। अब दस-पन्द्रह गांव पांव पसारकर बैठे हैं। कितने सारे खेत-खलिहान थे नदी के किनारे! कितने हल-बैल, गायें, महाजन जमीनें तथा जमींदार लोग थे !
अब गांव के किसी ऊँचे टीले पर खड़े होकर देखें तो दिख पड़ता है चक्कर काटते हुये गिद्दों का झुण्ड़। उन गिद्दों के झुण्ड़ का पीछा करते हुये कोस-कोस तक नंगे पांव चले जाते थे ‘भवघूरा’ (बंजारा) लोग। बहुत दूर से दिखाई पड़ रही थी एक बूढ़े की भांति वह झुकी हुई गिद्ध। आधा कोस दूरी तक सडांध वाली बदबू आ रही थी। कुछ ही दूरी पर बैठे मिलते थे भवघूरा लोग। र्इंट के तीन टुकड़ों को जोड़कर चूल्हा बनाकर आग लगाते थे, हांडी बैठाते थे, पानी उबालते थे तथा चावल पकाते थे। मुर्दे की दुर्गंध के माहौल में भी सही समय पर भूख लगना नहीं भूलती। गिद्ध मुर्दा शरीर को छिन्न-भिन्न करने में लगे हुए थे। नोच-नोचकर खाने में उनको कभी डेढ़ दिन का समय लगता तो कभी दो दिन का। इधर उधर कुत्ते-सियार भी घूम रहे थे। पके हुये चावल खाकर, बोरे की भांति पड़े रहते थे वे पेड़ों के नीचे। दुर्गंध से नाक फटी जाती थी परन्तु वे धीरे-धीरे दुर्गंध सहने के आदी हो गये। उस समूह में से एक जन बैलगाड़ी जुगाड़ करने के लिये निकला हुआ था, तो दूसरा पत्थर पर रगड़-रगड़कर अपने छुरे की धार तेज कर रहा था। दुर्गंध को वे भूल रहे थे। सावधानी से चमड़े को छिल रहे थे। आखिर में कंकाल को चार छः आदमी बैलगाड़ी पर लादते। बैलगाड़ी ऊँची-जाति के मालिक की थी, उसकी थी एक हजार शर्तें। जैसे बैलगाड़ी अपवित्र नहीं होनी चाहिये, इसलिये बैलगाड़ी के ऊपर पुआल बिछाया जाता था। इसके ऊपर कंकाल को रखा जाता। मांस का एक कतरा भी कंकाल पर चिपका हुआ नहीं था, फिर भी दुर्गंध हड्डियों में कूट-कूटकर भरी थी। गांव के बाहर वाले दूसरे रास्ते पर बैलगाड़ी को ढकेलते हुये ले जाना पड़ता था। सीधा ‘किसिन्ड़ा’के तीन कुनिया हाट पर रहने वाले रहमन मियां के गोदाम तक। रहमन मियां भी ठहरा बड़े कायदे-कानून वाला।
“ कब की लाश ? ”
“ इतनी कच्ची क्यों ? ”
“ वजन बढ़ाने के लिये पानी में डुबाये होंगे ? ”
“ साले, चालाकी करते हो ? ”
“ आधा पैसा काट दूंगा। ”
“ जा ले जा, महीने बाद लाना। ”
बेचारे भवघूरा असहाय दिखते।
“ एक महीना बाद ? ”
“ बैलगाड़ी कहां से मिलेगी ? ”
“ रूपया कहाँ से मिलेगा ? ”
एक गाय की लाश के बदले कितना पैसा मिलेगा जो उसमें से बैलगाड़ी मालिक को दोगे और बचे हुये को बाँटा जायेगा ?
रहमन उसके गोदाम में ताला डालने का स्वांग भरता था। वे लोग इमली के पेड के नीचे बैठे रह जाते थे। सांझ ढ़ल रही थी। उनको गांव वापस जाना होगा- बैलगाड़ी मालिक को उनकी गाड़ी वापिस करनी होगी। रहमन उनकी तरफ पीठ करके अपने घर की तरफ चला जाता । वे लोग ऐसे ही बैठे रह जाते , इस इमली पेड के नीचे।
२
सन्यासी...... सन्यासी.... सन्यासी रे !
जंगल में, पेड़-पत्तों में, नदी-झरनो में प्रतिध्वनित हो रही थी यह आवाज। पेड़ पत्तों से पूछ रहा था, पहाड़ पत्थरों से, तो नदी झरनों से पूछ रही थी -
“ सन्यासी को देखे हो क्या ? ”
पत्ते हवा से हिल रहे थे। आपस में बातचीत कर रहे थे। परंतु सन्यासी की माँ पेड़-पत्तों की भाषा कहाँ समझ पाती ? नहीं तो, वह खुद ही पता कर लेती सन्यासी का ठिकाना। जंगल के अंदर काफी लंबा रास्ते तय कर चली आई थी - सरसी। सूरज बीच आकाश में दस्तक दे रहा था। सरसी को डर नहीं लग रहा था। जंगल के अंदर से कीड़े-मकोड़ों की आवाजें सीं सीं सीं.... करके आ रही थी, फिर भी उसको डर नहीं लग रहा था। जंगल के साथ उसकी लड़ाई बहुत पुरानी थी। समय-असमय पर पांच कोस रास्ता तय कर जंगल के अंदर घुस जाती थी, खासकर यह पूछने के लिये कि उसका बेटा सन्यासी गया कहाँ ? इस जंगल के प्रेम में वह ऐसा फंसा कि दुबारा अपने घर की तरफ लौटा ही नहीं!
फिर एक बार थर्राते हुए गले से यह पुकार निकली- “सन्यासी... सन्यासी.. सन्यासी रे !” हवा के साथ मिलकर उसकी यह पुकार पूरे जंगल में गूँज उठी। इसके बाद सब कुछ एकदम शांत स्तब्ध। ‘शमी’ पेड़ के नीचे एक घड़ी ख़ड़ी हुई थी सरसी। आगे जायें या पीछे, दो-दो पांच के चक्कर में पड़ रही थी सरसी। सामने कुछ ही दूरी पर थी ‘उदंती’ नदी। साँप की तरह रेंगती-मंडराती हुई यह नदी आगे जाकर पत्थरों के बीच में सिमट सी गयी। नदी के उस पार फिर कुछ दूरी पर एक जंगल। जिस प्रकार जंगल के वाशिंदे नाचते समय एक दूसरे की कमर में हाथ में हाथ डालते हैं, उसी प्रकार जंगल के पेड़ों की डालियाँ भी एक दूसरे में गूंथी हुई थी। गंभारी, शीशम, सरगी के खूब सारे पेड़। बड़े पेड़, झाड़ियों से इस तरह घिरे हुये थे मानों एक राजा अपनी प्रजा से । जंगल मिला हुआ था पहाड़ों के साथ, पहाड़ चिपके हुये थे आकाश के सीने पर। पत्थर काटने वालों के गीतों की लहरी सुन पा रही थी सन्यासी की माँ। पत्थर काटने की ठक-ठक आवाज की ताल में, मर्द और औरतों के सुरों के स्वर, संगीत की उस माया में सरसी का बेटा ऐसा फंसा तथा पत्थर की खदान में गया तो फिर लौटा ही नहीं। लोगों ने तरह-तरह की बातें की, सरसी सब सुनती रही। लेकिन उसका मन नहीं मान रहा था। कभी-कभी तो उसको लगता था कि उसके बेटे को ‘सुंधी पिचासिनी’ ने पत्थरों के बीच छुपा दिया है। निर्दोष बच्चे को देखकर उसका लालच भड़क उठा होगा। इसलिये ठीक ‘धांगड़ा’ (किशोर)होते ही उसको चुराकर ले गयी। खूब जोर-जोर से चिल्लाकर, फिर एक बार सरसी ने पुकारा - कि कहीं पत्थरों को भेद कर इसकी आवाज अपने बेटे के कान तक पहुँचेगी। और हँसते हुये उसका बेटा पत्थरों के बीच में से लौट आयेगा।
मासूम लड़का, क्या समझेगा माँ के मन की बातें? कौन नहीं चाहता है कि उसका बेटा उसकी आँखों के सामने रहे ? इतना छोटा सा था और तब से गया है फादर इमानुअल साहिब के साथ। कितनी उम्र हुई थी उसकी - शायद सात-आठ साल, बस ? साहिब की गाड़ी ने कैम्प डाला था ईसाई बस्ती में। इस समय गांव में ‘डूबन’ पर्व चल रहा था। चार परिवार के लगभग पन्द्रह लोग ईसाई हो रहे थे। उस दिन साहिब एक-एक करके सबको आशीष दे रहा था। इसी समय किसी ने सरसी को खबर दी और पूछा- “तेरा बेटा कहाँ है, सरसी ? कोई खोज खबर की है क्या ?”
“मेरा बेटा तो घर के बाहर खेल रहा था। जमुना काकी के आंगन में खेल रहा होगा।” जबाब दी थी सरसी - "यहीं कहीं मेरा बेटा किसी कोने में होगा।”
“तू इधर दीवारों पर गोबर पोतती रह, मिट्टी लगाती रह, चित्र बनाती रह। और इधर तेरे बेटा को ईसाई बस्ती में ले जाकर ईसाई बना रहे हैं ?”
“क्या बोला ?” मिट्टी-गोबर से लथपथ हाथों से पुआल के लुंधों को फेंककर जल्दी से बाहर आगई। लड़का तो माँ का पल्लु पकड़ कर पीछे-पीछे भागता रहता था, कब और कैसे इतना लंबा रास्ता तय कर चल गया ईसाई बस्ती में ? “तू सच बोल रहा है तो भईया ?” बोलने लगी थी सरसी।
“झूठ क्यों बोलूँगा ? मैं उसी रास्ते से आ रहा था। मैने देखा कि साहिब की बीवी ने तेरे बेटे को टेबल के उपर बैठाया था।”
“भाई, अगर जब तूने उसे देखा ही था तो खींचकर क्यों नहीं ले आया ?”
सरसी का गला सूख गया। सोच रही थी - साहिब की बीबी ने उसके बेटे को टेबल के उपर क्यों बैठायी ? हम लोग तो अछूत हैं। कंध, शबर जाति के लोग भी हमारे हाथ का पानी नहीं पीते हैं। सभी जात-पात मानते हैं। इमानुअल साहिब कहता है कि जात-पात कुछ भी नहीं होती। मनुष्य की जाति एक है। ईसाई बनने पर जात-पात का कोई फर्क नहीं रहता। हम लोग सभी ईश्वर के पुत्र हैं और ईश्वर का सबसे प्यारा पुत्र है यीशु। परमपिता परमात्मा के पास सभी समान हैं। इमानुअल फादर के भाषण को कई बार सरसी ने सुन रखा था दूर से। सुनने में अच्छा लगता था। लगता था कि सही बातें बोल रहा था। लेकिन ईसाई होने की बात सोचने से उसका मन खराब हो जा रहा था।
किसान, खड़िया जाति के लोग ईसाई होने के बाद भी जात-पात को मानते है। उनको वह छूते भी नहीं है। सरसी के दिल की धड़कन बढने लगी। सन्यासी को अगर कंध लड़के मार-पीट करेंगे तो क्या होगा ? पसीने से लथ-पथ होकर ईसाई बस्ती की तरफ भागने लगी सरसी। सन्यासी का बाप वहां नहीं था। वह गया हुआ था ‘चूनाखली’ गांव, किसी काम से। और किससे बोलती वह ?
“भईया, तू उसे खींच कर क्यों नहीं ले आया ?”
“वह आने से तो। तेरा बेटा तो एक कागज के पन्ने पर कुछ लिख रहा था, साहिब की बीवी गाल पर हाथ रखकर देख रही थी उस कागज को।”
“ऐसा क्या लिख रहाथा ? भाड़ में जाये उसका लिखा हुआ। क्या पढ़ा है ये मुआ ! जो साहिब की बीवी को दिखलायेगा ? तू कहीं मुझसे झूठ तो नहीं बोल रहा है, भाई ? बता न, कहाँ गया मेरा बेटा ? मेरा बेटा, मेरा प्यारा सन्यासी, मेरा बेटा, मेरा लाड़ला। अगर उसके पिता को पता चल जाये तो मेरी गरदन काट देगा। मेरे दो टुकड़े कर देगा।” रुआंसी होकर बोली थी सरसी।
“मेरी सौगंध, सरसी, तुझसे क्यों झूठ बोलूँगा ? मैं उसे बुलाकर तो ले आता, लेकिन तू समझ नहीं रही है। तेरा बेटा अभी छोटा है, चलेगा। मेरे जैसा बुजुर्ग आदमी अगर एक ईसाई बस्ती में घुसा, तो ये बस्ती वाले क्या मुझे छोड़ देते ? कभी नहीं।”
सरसी पागलों की भांति भागने लगती। साहिब की बीबी अगर उसके बेटे को ईसाई बना देती है तो बात खत्म। उसका पति उसे रहने नहीं देगा। सरसी बेसुध-सी हो जाती। होश होता तो शायद यह सोचती कि इस बस्ती में उनके लिये जाना मना है। वह जानती थी की अगर किसी ने कहीं धान की कुलथी सुखायी हो, और अगर सरसी उसे छू भी लेती, गलती से, तो लोग उसे मारने दौड़ेंगे। क्या मर्द, क्या औरत सभी एक साथ टूट पडेंगे ? लेकिन सरसी के रहते उसका बेटा कैसे ईसाई हो जायेगा ? दूर से खड़ी होकर सरसी देख रही थी - साहिब की बीवी कुर्सी पर बैठी हुई थी। बकरी के दूध की तरह गोरा-चिट्ठा चेहरा। साड़ी तो जरुर पहन रखी थी, पर इस देश के औरतों की तरह नहीं दिख रही थी। लाल होंठ, सोने जैसे बाल, हँसते हुये उसके बेटे के कान में मंत्र फूँक रही थी। ‘ डूबन मंत्र’? कैम्प के भीतर जाने में डर लग रहा था सरसी को। वह सब दूर से खड़ी होकर देख रही थी। उसका बेटा कलम पकड़ कर लिख रहा था ध्यान-मग्न होकर। सन्यासी कभी स्कूल तो गया नहीं था, कभी खड़ी भी नहीं पकड़ी थी। एक कलम पकड़कर ऐसा क्या ज्ञान की चीज लिख रहा है वह? उसके बेटे को वश में तो नहीं कर लिया है साहिब की बीबी ने ?
कौन जानता है ‘डूबन मंत्र’ पढ़ने से मनुष्य वश में नहीं हो जाते होंगे ? नहीं तो, आधे गांव के लोग, गुट के गुट बनाकर, दादा-परदादा सहित सभी, समय की मर्यादा तोड़कर ईसाई क्यों बन जाते ?
लगता है उसके बेटे को किसी ने सम्मोहित कर लिया है। वह कुछ भी नहीं कर पा रही थी। शेर के मुंह से उसके बेटे को निकालने का साहस रखती थी सरसी, पर पता नहीं क्यों साहिब की बीबी को देखकर उसे डर लग रहा था।
सरसी को पता था, सन्यासी का पिता अपने बेटे को लेकर खूब सारे सपने संजोये रखता था। पढ़ाई करेगा, कलेक्टर बनेगा। उस समय से जब सन्यासी उसके पेट में था। उसका बाप सपना देखता था कि उसका बेटा बड़ा साहिब बना है, कलेक्टर बनकर, जीप में बैठकर, धूल उड़ाते हुये गांव में आया है, उनके जैसे मनुष्यों को न्याय दिलाने के लिये। इसलिये वह सन्यासी को कभी सन्यासी कहकर नहीं बुलाता था, पुकारता था कलेक्टर साहिब के नाम से। उसको पूछा करता था कलेक्टर का मतलब जानती हो, सरसी ?
“मैं कैसे जानती ?”
“कलेक्टर होता है हमारे मुल्क का राजा, समझी ? तेरा बेटा कलेक्टर बनकर हाथी की पीठ पर घूमेगा।”
“तू खाली सपना देखता रह,समझे ” बोली थी सरसी। “एक वक्त का भोजन तो एक वक्त का उपवास। उसमें इतने सारे सपने ?”
“सपना कौन नहीं देखता है ? बोल तो सरसी ! तू नहीं देखती है क्या ?”
सन्यासी की माँ अपने पति को चिढ़ा रही थी, लेकिन क्या वह सपने नहीं देखा करती थी अपने पहले बेटे को लेकर ? उसका बेटा भले ही कलेक्टर न हो, परन्तु गांव-गांव घूमकर लाशों की हड्डियाँ इकट्ठा कर पेट न पाले।
बड़े ही बुरे दिन में हुआ था सन्यासी का जन्म। बस्तियों के बीच में हो रही थी आपसी लड़ाई-झगड़ा, मारपीट। घनश्याम सतनामी की बीबी ने अपनी मूर्खता से इस झमेले को बढ़ा दिया था। भरी दुपहरी में जब, ऊपर वाली बस्ती वालों के तालाब से नहाकर वापिस आ रही थी ‘सुना’। यह तालाब सतनामी लोगों के लिये नहीं था। जानते हुये भी ऐसी भूल क्यों की थी उसने? उसको ही मालूम होगा ? सुना को आते देख लिया था बटो नायक ने। जब सुना पत्थर की सीढ़ियों से होकर आ रही थी, चुपचाप बिना आवाज के, दबे पांव आ जाना चाहिये था। लेकिन झगडा करने लग गयी वह झगडालू औरत बटो नायक के साथ। बोलने लगी "छुप-छुपकर तालाब के नीचे प्यार फरमाते हो तो अछूत नहीं होते ? और इतने बड़े तालाबमें, मैं एक बार क्या नहा ली तो तुम अछूत हो गये।" सुना थी ही बड़ी मुँहफट। बटो नायक की पत्नी होते हुये भी वह सुना की तरफ ललचायी नजरों से देखता था। ऐसी बातों को तो छुपा कर रखना चाहिये था लेकिन उसने तो पूरी की पूरी पिटारी ही खोल दी।
और एक सज्जन की सज्जनता हो गई पूरे जग में जाहिर। सुना एक पल के लिये भूल गयी थी अपने मान-सम्मान की बात को। बटो नायक के बारे में वह बेशर्मी से बोलती गयी। एक की बात पांच को पता चली। बस टूट पड़े ऊपर वाली बस्ती वाले, लाठी फरसा लेकर, उनकी बस्ती पर। बढ़ते-बढ़ते बात इतनी बढ़ गई कि हाथापाई में सुना के देवर ने बटो नायक के बेटे को जान से मार दिया। तब होना ही क्या था ? ऊपर वाली बस्ती वालों ने क्रोधित होकर उनकी बस्ती में आग लगा दी। धूं-धूं करके आग जलने लगी।
घर-द्वार सब जल गये। चारों तरफ रोने-धोने की आवाजें आ रही थी। पुलिस बिना सोचे-समझे उनकी बस्ती से लोगों को पकड़ कर ले जा रही थी। अंतरा उसी समय किसिंडा से आकर घर पहुँचा था। उसके ऊपर भी उतरा, ऊपर वाली बस्ती वालों का गुस्सा। इतना मारा, इतना मारा कि उसका एक पैर टूट गया। वह लंगड़ा कर पांव घसीट-घसीटकर चल रहा था। दर्द के मारे वह कुछ समझ भी नहीं पा रहा था। इतना होने पर भी पुलिस उसको बांध कर ले गयी थाने।
सुना मुंह छुपाकर भाग चली थी उसके बाप के घर- कांटाभाजी। उसकी सास चिल्ला-चिल्लाकर उसे गाली दिये जा रही थी, सिर से पांव तक। शहर की लड़की को बहू बनाई इसलिये आज यह नौबत आयी। वह अपनी किस्मत को गाली दे रही थी। इस समय सरसी थी बैचेन ओर बेकाबू। उस समय पेट के अंदर से निकलने का रास्ता ढूंढ रहा था सन्यासी। सिर के ऊपर छत नहीं थी। छप्पर सब गिर गया था। बही बरगाह से धुआं उठ रहा था। चारों तरफ से रोने की आवाजें आ रहीं थी पूरे बस्ती भर में। सिर छुपाने के लिये जगह नहीं थी इसलिये सरसी की सास, उसे महुआ के पेड़ के नीचे, उसके लिये व्यवस्था कर रखी थी। सब अपना-अपना बासन, बरतन, कपड़ा-लत्ता, छप्पर के नीचे में ढूंढने में व्यस्त थे। कोई-कोई तो अपना घर भी सजाना शुरु कर दिये थे, तो कोई कोई अपने घर की लीपापोती भी शुरु कर दी थी। पुरंदर बुढ़ा चिल्ला रहा था - “ऐसे ही रहने दो, कलेक्टर को आकर सब कुछ देखने दो। साले लोगों ने क्या हाल बनाया है हमारा ? तुम लोग अगर लीपापोती कर घर को सजा दोगे तो कलेक्टर देखेगा क्या ? छिलका ? तुम लोगों को घर बनाने के लिये पचास-सौ रूपया मिलता, वह भी नहीं मिलेगा।”
सरसी की सास अपना टूटा हुआ घर सजाने में लगी हुई थी। इतनी बुरी हालत में उसकी बहू का प्रसव होने जा रहा था। बच्चा निकलने के लिये रास्ता देखने लगा। कहाँ रहेगा उसका नाती ? बुढ़ा पुरंदर की बात को अनसुना कर काम में जुट गई थी, वह। अंतरा को पकड़ लिया था पुलिस ने। सरसी का मन उदास हो गया था। पुरंदर बोल रहा था पुलिस अंतरा को अस्पताल भेजेगा। उसका इलाज करवायेगा। सरसी के पेट को जैसे भीतर में कोई नोच रहा था। पेट फटने जैसा हो रहा था। आंसूओं से उसकी आँखे पसीज गयी थी। चारों तरफ उसे अंधेरा ही अंधेरा नजर आ रहा था। “कहाँ है मेरी माँ? मुझे पकड़, मुझे बचा !” दर्द से चीत्कार रही थी वह। पास में कोई नहीं था उस चीत्कार को सुनने के लिये। अपनी जान बचाने के लिए उसने महुआ के पेड़ के तना को जोर से जकड़ लिया था। पास में बैठी हुई थी काली कुत्ती, पूंछ हिलाकर कूं-कूं कर कुछ कहना चाहती थी। शरीर पसीने से तरबतर हो गया था। आँखों से धुंधला-धुंधला दिखाई दे रहा था। शरीर से कपड़े भी गिर गये थे। सरसी आकाश की भाँति नंगी, मिट्टी की तरह सहनशील हो गयी थी। दोनों हाथों से कोशिश कर रही थी शरीर को ढंकने की।
“हे सूर्यदेव!आप अपनी आँखे बंद क्यों नहीं कर लेते हो ?”
“हे भगवान!औरतों को यह तकलीफ मत दो।” आँखों से निरंतर आँसूओं की झड़ी लग रही थी। जैसे जमीन के भीतर से कोई झरना फूट पड़ा हो। देखते-देखते वातावरण कंपित हो उठा “ऊँआ...ऊँआ..” की आवाज से।
“अरे, मेरा प्यारा कुलदीपक, आ गया, आ गया!” भागती हुयी मिट्टी से सने हाथ लेकर पहुँच गयी सरसी की सास। अभी जन्मे बच्चे के लिंग का अनुमान कर हाथ धोने के लिये भागती हुयी गयी। इधर सरसी, फिर भी टूटती ही जा रही थी। बुढ़ी ने झटपट आकर सन्यासी को जमीन से उठा लिया। अभी तक बच्चे की नाड़ी, फूल से अलग नहीं हुई थी। उस नाड़ी से बच्चा अभी तक माँ से जुड़ा हुआ था।
“दबा, दबा जोर लगा, जोर लगा” बुढ़ी ने समझाया सरसी को,
“मेरी तरफ क्या देख रही है, बावरी ?”
“हे माँ! अब मैं क्या करुँ ? किसको बुलाऊँ? हे अंतरा, तेरी औरत को आज कोई नहीं बचा सकता। तेरी औरत आज मरेगी।”
“तेरी दुनिया को मेरे गले थोपकर छोड़ कर जा रही है तेरी औरत, देख !”
“बच्चे को और कितना देर चिपका कर रखोगी ? दे जोर दे, जोर दे।”
बड़ी ही दयनीय दशा थी उसकी। बूढ़ी की गोद में बच्चा अपनी माँ की तरफ टुकर-टुकर देख रहा था। गोद में लेते ही प्यार करने की इच्छा उमड़ आयी। महुआ के पेड़ का सहारा लेकर सरसी खूब जोर से अपने पेट पर दबाव डालने की कोशिश कर रही थी। निर्दोष बच्चे की खातिर उसे जिन्दा रहना होगा। वह जिन्दा रहेगी अपने कलेक्टर के लिए। देखते ही देखते एक तेज तूफान थम-सा गया। और उसके चेहरे पर छा गयी, एक मंद-मुस्कान। सास ने कपड़े को उसके शरीर पर लिपटा दिया और उसने तेज समुद्री-सीपी की खोल से उसक नाड़ी को काट दी। नाती को पाकर, बुढ़ी की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। एक पल के लिए वह भूल-सी गयी की उसका बेटा पुलिस की हिरासत में है, वह कष्ट में है। लेकिन सरसी का मन तड़प रहा था अंतरा के लिए। पास में अगर होता तो कितना खुश होता ! मारपीट से उसका एक पैर टूट गया था। अंदर में हड्डी टूटी कि क्या, पता नहीं ? किंसिंड़ा में अगर कुछ देर रूक जाता, तो जरुर बच जाता। कितना कष्ट हो रहा होगा बेचारे को ? इतना ही नहीं, फिर पुलिस भी घसीट कर लेगयी। हत्या का केस लगा हुआ है, पता नहीं कब छूटेगा ? क्या उसे इतने बुरे समय में बेटे को जन्म देना था ? किसी भी तरह से वह अंतरा को खबर कर पाती कि उसके बेटे का जन्म हुआ है। जेल में होते हुये भी वह कितना खुश हो जाता। उसका बेटा कलेक्टर होगा, फिर से नये सपने बुनना शुरू कर देता।
सपने देखने में कोई किसी को रोक सकता है भला ! जिस दिन अंतरा जेल से छूटकर आया था, बेटे को लेकर खूब देर तक दुलार करता रहा।
“ आज से तेरा नाम कलेक्टर, समझे ? सरसी, आज से मेरा बेटा कलेक्टर।”
सुकोमल-सा नन्हा कलेक्टर बचपन से ही उदास-सा रहता था। इधर-उधर कहीं भी, ध्यान नहीं। खाना मिला तो ठीक, नहीं मिला तो भी ठीक। न किसी प्रकार का कोई लोभ था, न किसी प्रकार की कोई जिद। जहाँ बैठा तो वहाँ बैठा ही रहता। कहीं उसका बेटा सन्यासी न बन जाये। इस बात का डर सरसी को बराबर सता रहा था। बच्चों के साथ खेलने के लिये उसको जबरदस्ती गांव में भेजा जाता था। इन्हीं गुणों को देखकर, वह उसे प्यार से बुलाती थी सन्यासी। लेकिन सन्यासी एक दिन साहिब के कैम्प में चला जायेगा, यह उसको पता नहीं था। कभी-कभी यह लड़का जंगल की तरफ चला जाता था। नदी के किनारे बैठ जाता था। लेकिन साहिब के कैम्प में ?
उस दिन सन्यासी कागज पर क्या-क्या लिख रहा था ? लिखते ही जा रहा था। साहिब की बीवी उसे ध्यान से देख रही थी। साहिब की बीवी के चंगुल से कैसे छुड़ा पायेगी उसको ? यह समझ नहीं पा रही थी सरसी। पेड़ों से, आकाश से, नदी से, चिडियों से बैचेनी के साथ पुकार उठती थी सरसी “सन्यासी, सन्यासी रे..।” जानते हुये भी उधर हिम्मत नहीं कर पाती थी।
जैसे ही सन्यासी का ध्यान भंग हुआ तो कागज से मुंह उठाकर इधर-उधर देखने लगा। कुछ ही दूरी पर खड़ी थी उसकी माँ। कुर्सी के ऊपर से कूदकर भागने लगा अपनी माँ को मिलने।
बेटे को गोद में लिये, झूठा-मूठा मारते हुये, उस पर अपना अधिकार जताते हुये, उसके शरीर पर से धूल झाड़ते हुये, क्या-क्या सब झाड़ती ही रह रही थी सरसी ? कुरता नहीं, खुला बदन, पहन रखी थी सिर्फ एक पैण्ट। फिर भी पीठ पर से उसके, क्या-क्या झाड़ती ही जा रही थी सरसी। क्या झाड़ रही थी ? क्या ईसायत से भरी धूल, या साहिब की बीवी की काली नजर ?
दोनों वापिस जा रहे थे अपने घर की तरफ। साहिब की बीवी हाथ हिलाकर बुला रही थी। सरसी थम गयी। वह किसको बुला रही है, वह उसको या उसके बेटा को ? फिर क्यों बुला रही है ? क्या कर दिया है उसके बेटे ने ऐसा ? देखते हुये भी, अनदेखी कर मुँह घुमाकर वहाँ से चली आई सरसी। साहिब की बीवी, चौकी से उठकर, पीछा करते हुये उसके पास पहुँच गयी। पास्टर पाढी बुलाने लगे “ऐ चमारन ! जरा सुन तो ।”
पास्टर का चेहरा जाना पहचाना लग रहा था। सरसी ने थोड़ी हिम्मत जुटायी और दो कदम पीछे लौटी और पूछने लगी “मुझे बुला रहे थे क्या ? मेरा बेटा ईसाई नहीं बनेगा। इसका पिता घर पर नहीं है। वह चुनाखली गया हुआ है।”
उसे लग रहा था जैसे कि उसने अपने बेटे से हाथ धो लिया हो। रूंआसी होकर बोली “मैं जा रही हूँ, नहीं नहीं, उसका बाप घर पर नहीं है।” कुछ दूर आकर उसने तड़ाक से बेटे की पीठ कर मुक्का जड़ दिया। बोलने लगी “मर क्यों नहीं गया ? कैम्प में जो चला गया ?” सन्यासी जोर से भैं भैं कर रोने लगा। पास्टर पाढी हँसते हुये बोले “उल्टा-पुल्टा अंटसंट क्या बक रही हो ? पहले सुन तो सही, मैम साहब क्या बोल रही है ?”
साहिब की बीवी ने एक कागज लाकर दिखाया जिस पर बने हुये थे एक-एक करके तोता, मैना, गाय, भैंस तथा फूल के चित्र। जैसे सरसी बनाया करती थी अपने घर की दीवारों पर। इतना छोटा-सा बच्चा कितनी अच्छी तरह से सीखा है अपनी माँ से।
“मैम साहिब, बहुत खुश है, तेरे बेटे को माँग रही है, दे दे तो आदमी बना देगी।” सरसी चकित रह गयी। क्या इसका बेटा आदमी का बच्चा नहीं है? बड़ा होने पर क्या वह कोई काम धंधा नहीं कर लेगा ? ये मैम साहिब फिर इसको क्या आदमी बनाएगी ? सरसी को ड़र लग रहा था। उसको पता था कि वह एक डायन है। दूसरों के बच्चों को इतना लाड़-प्यार कर रही है। डायन नहीं, तो फिर क्या ? बहला फुसला कर ले जायेगी उसके बेटे को। रात भर खून चूसेगी। बेटे को मौत के मुँह से जैसे निकाल कर लायी हो, यह सोचकर भागने लगी सरसी। भागते-भागते दो और मुक्के जड़ दिये बेटे के पीठ पर। दाँत दबाकर माँ की मार को सह गया सन्यासी। दोनों अगले मोड़ पार होने पर सन्यासी ने अपनी बन्द मुट्ठी खोली । माँ ने देखा उसकी हथेली में थी दो चाँकलेटें।
३
जैसे बादल चारों तरफ से आकाश में घुमड़-घुमड़कर घिरते जाते हैं, वैसे ही अंदरूनी हिस्सों से अजीब-सा दर्द घिरता जा रहा था अंतरा के शरीर में। पाँवों की पिण्डलीयों में दर्द मानों कि चिपक-सा गया हो। पांव उठाते समय ऐसा लग रहा था मानो पहाड़ उठा रहा हो। ऐसे ही उसके पाँव कमजोर थे। कई दिनों से वह लंगड़ा कर चल रहा था। उपर से, बुखार ने उसे और कमजोर कर दिया था। रास्ता बचा था केवल आधा कोस, फिर भी चलने की जरा भी इच्छा नहीं थी उसकी। शाम ढ़ल चुकी थी। सियारों के झुण्ड के झुण्ड अपने बिलों से बाहर निकल कर ‘हुक्के हों’ की आवाज देना शुरु कर दिये। और थोड़ी ही दूर पर थी गांव की एक श्मशान घाट। उसके पीछे थी उनकी बस्ती। गांव से जरा हटकर, अलग-थलग बसी हुई थी उसकी बस्ती।
एक पल के लिये अंतरा को आराम करने की इच्छा हो रही थी। अगर बैठ गया, तो रात हो जायेगी। एकबार बैठा, तो फिर उठने का मन नहीं होगा। फिर आगे जाने के लिये उसे नयी हिम्मत जुटानी होगी। उसको लग रहा था कि कहीं प्राण न निकल जायें। प्यास के मारे गला सूखा जा रहा था। आँखे जल रही थी। ठंड से शरीर काँप रहा था। अंतरा को ऐसा लगा कि यह सब उसके अपने कर्मों का फल है। हर महीने उसे बुखार आता है। सूद-मूल सहित शरीर से बची-खुची ताकत व उम्र खींच ले जाता है। पहले तो ऐसा कभी नहीं हो रहा था ? जिस दिन से उसने पाप किया, मानों उसी दिन से यह बुखार पकड़ा है कि छूटता ही नहीं। अंतरा किसी को कुछ बोलता नहीं, पर उसे मालूम है कि यह उसके पाप की कमाई है।
हरबार सरसी धतूरा-जड़ के साथ कुछ जड़ी- बूटी मिलाकर पिला देती थी अंतरा को बुखार आने पर। कड़वी दवा पीते समय उल्टी की उबकियां आने लगती थी। कभी-कभी तो उसे उल्टी भी हो जाती थी। दस-पन्द्रह दिन तक अंतरा के शरीर में बुखार घर कर जाता था, फिर अपने आप छूट जाता था।
सरसी कहती थी “चलो, उदंती के उस किनारे, डाक्टर के पास चलते हैं, दवा-दारु के लिये। दवा- सुई लगने से तुरन्त ठीक हो जाओगे।”
लेकिन सुई की डर से अंतरा हमेशा आनाकानी करता रहता था जाने के लिये। सरसी उसको समझाती। लेकिन अंतरा टस से मस नहीं होता। समझा-समझाकर थक जाने के बाद, सरसी मुंह पर अपना कपड़ा ढाँप कर सिसक-सिसककर रोती। रोते-रोते अपनी किस्मत को कोसती। “चार-चार बच्चों को जन्म देने के बाद भी, मैं बांझ जैसी यहाँ बैठी हुई हूँ । एक-एक कर सब मुझे छोड़कर चले गये। जब मैं मर जाऊँगी, तब तुझे पता चलेगा ? एक बूंद पानी देने के लिये भी कोई नहीं होगा। तब मुझे याद करना।” रोते- बिलखते कहने लगी सरसी “मेरे सभी लाड़लों, कहाँ चले गये ? कहाँ गायब हो गये ? मैं अभी तक क्यों जिन्दा हूँ ? मुझे मौत क्यों नहीं आ गयी ?” भरे हृदय से फूट- फूटकर वह रो पड़ी।
उसकी रोने की आवाज सुनकर रास्ते में चलते हुए लोग एक पल के लिये रुक जाते थे। अंतरा चिल्ला कर कहता “चुप हो जा, रोना बंद कर। एक ही बात कितनी बार दुहराती रहेगी। जो हमारी किस्मत में है, वही होगा। बता तो सही, इस दुनिया में कौन किसका है ? न मैं तेरा हूँ, न तू मेरी है। यह सब मायाजाल है। समझी, कलेक्टर की माँ। माया में ही सारा संसार चल रहा है। कवि कहता है-
“राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट
अंत काल पछताओगे, प्राण जायेंगे छूट।”
बुखार से पीड़ित होते हुये भी, राग से कभी-कभी आधा एक पंक्ति सरसी को सुनाता। आश्रम से सिखा हुआ दर्शन, कुछ सरसी को सिखाने की कोशिश करता।
रोना बंद कर सरसी गुस्से से उठ जाती। उसकी गुस्साई चाल देखने से आग-बबूला हो उठता अंतरा। पीछे से भागता हुआ आकर उसकी पीठ पर जोर से एक मुक्का जड़ देता वह।
“ राँड कहीं की ! कितना पैसा रखी है ? जो डाक्टर के पास जाने की बातें करती है। डाक्टर, क्या तेरा पति है, जो मुफ्त में दवा-दारु करेगा ?”
ऐसा ही कभी रोना, तो कभी हँसना। कभी झगड़ा, तो कभी निराशा के साथ जीवन बिताते थे अंतरा व सरसी। बुखार हर महीने आता रहता था पारापारी, फिर अपने आप छूट जाता। जाते समय शरीर को और ज्यादा कमजोर कर जाता।
अंतरा का मुंह सूख कर पिचक-सा जा रहा था। वह घर न जाकर, एक लालटेन की रोशनी की तरफ चलते चला जा रहा था। आज उसके हाथ में कुछ नगद रोकड़ रूपया था। किसिंडा जाकर रहमन मियां के गोदाम में हड्डी ढोकर कमाया था। आज उसको सरसी के सामने हाथ फैलाना नहीं पड़ेगा। यह औरत भी कुछ कम नहीं है। पैसा के बारे बात की, नहीं कि, इधर-उधर की बकवास शुरु कर देगी। कभी बक्सा के नीचे, तो कभी हांडी के पीछे छुपाती फिरती है। पैसा मिला तो मिला, नहीं तो नहीं। इन औरतों का विश्वास नहीं करना चाहिये। ब्रहृा, विष्णु, महेश्वर भी इनके अंदर की बातों को समझ नहीं पाये।
अंतरा ने एक बार हाथ घुमाया, अपनी धोती की खोंसे पर। पता नहीं क्यों उसे अजब-सी फूर्ति लगने लगी थी, पैसों के ऊपर हाथ लगते ही ? दोनों पांव से लंगड़ाते हुये पहुंच गया वह अपने बस्ती में। घर की तरफ नजर भी नहीं डाली। बढ़ता गया कलंदर किसान की दुकान की तरफ। वह कलंदर की दुकान ही नहीं, उसके प्राण वहां पर लटके हुये हो जैसे। वहाँ नहीं पहुंचा तो उसके प्राण निकल जायेंगे। अजीब-सी बैचेनी उसे खींचकर ले जा रही थी। कुछ ही कदम की दूरी बाकी है। उसके बाद उसकी जीभ भीगेगी। दुकान के बाहर से कलंदर को आवाज दी। बाहर लकड़ी की बेंच के उपर फोरेस्ट-गार्ड़ बैठा हुआ था। अंतरा उसकी तरफ देखना भी नहीं चाहता था। उसको देखते अंतरा के सिर पर भूत सवार हो जाता था। “ये साला... यहाँ क्यों बैठा है ? हरामजादा, मरता क्यों नहीं है ?”
“एक बीड़ी और माचिस की डिब्बी फेंक तो कलंदर।”
“तू लाटसाब है क्या रे ! जा हट, बीड़ी-फीड़ी कुछ भी नहीं है।”
“मुफ्त में दे रहा है क्या ? जो इतना गुस्सा हो रहा है।”
धोती के खोंसे में से निकालकर गर्व के साथ अपनी पूँजी को दिखा रहा था अंतरा।
: “पहले का बाकी, आज चुकता कर देगा तो ?”
अंतरा कुछ नहीं बोल पाया। पैसों से उसको भारी मोह हो गया था। कलंदर बोला “दे दे, पैसा निकाल।”
अंतरा ने अपने खोंसे में से दस रुपये का एक नोट निकाला।
“ले, बीड़ी दे और दारु दे तो” बेटा कलंदर से बीड़ी पाकर अंतरा ने दम मारा। नाक, मुंह से धुंआ छोड़ते हुये बोला “एक बोतल दारु भी दे।”
“क्यों बे, आज चोरी डकैती कर कुछ कमा लिया है क्या ?” फोरेस्ट-गार्ड ने ही-ही हँसते हुए पूछा।
“इस गांव में क्या चोर, डकैतों की कमी है, जो मैं चोरी करने जाऊँगा ? भद्र चोर तो यहाँ भरे पड़े हैं, हो!” यह तीर वह फोरेस्ट-गार्ड की तरफ देखकर मारा था। इतना देर तक फोरेस्ट-गार्ड बेंच के उपर बैठ तली हुई मछलियाँ के साथ दारु खींच रहा था। अंतरा की बात सुन मुंह उठाकर उसकी तरफ देखने लगा।
“साले चमार! बहुत बड़ी-बड़ी बातें बोलना सीख गया, बे।”
“मुझको चोर डकैत बोलेगा तो नहीं बोलूंगा क्या ? मारेगा मुझको तो, और बोलूंगा, सबके सामने बोलूंगा।”
“साला, भिखमंगा, भिखारी। गाय का मांस खाने वाले चांडाल, क्या बोला रे, मेरे को ?”
अंतरा को मारने के लिये फोरेस्ट-गार्ड बेंच से कूदकर आ रहा था, अपने आप को संभाल नहीं पाया, गिरते-गिरते बेंच के ऊपर धड़ाम से बैठ गया।
कलंदर किसान के लिये यह दुकानदारी का समय था। वह नहीं चाहता था कि इस समय पर कोई भी झमेला हो। वह भी फोरेस्ट-गार्ड को पसंद नहीं करता था। उस पाजी की असलियत उसे ठीक से मालूम थी। फिर भी लोहे को चबाकर अपने दांतों में दर्द क्यों बढ़ायेगा ? अंतरा को धमकाते हुये बोला “जा, जा, घर भाग। बेकार में यहाँ झमेला मत कर।”
“मैं क्यों जाऊँ? नकद देकर हक के साथ पीने आया हूँ । यह क्या उसके बाप की दुकान है ?”
फोरेस्ट-गार्ड बार-बार उठने की कोशिश कर रहा था, पर उठ नहीं पा रहा था। उस समय वह गले तक उंडेल चुका था। पता नहीं, होश होता तो अंतरा को शायद पीट-पीटकर, मार-मारकर चमड़ा उधेड़ देता। धीरे-धीरे फोरेस्ट-गार्ड का अधमरा शरीर टेबल के उपर लुढ़क गया। यह नमूना भी कुछ कम नहीं है। यही तो जंगल का सबसे बड़ा दुश्मन है। जंगल को तो बेच कर खा गया। साथ में, गांव भर के लड़के-लड़कियों को भी बेचकर गंजाम में अपनी हवेली बना दी।
(क्रमश: अगले अंकों में जारी…)
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