सरोजिनी साहू का उपन्यास : पक्षी-वास (4)

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पक्षी-वास डॉ सरोजिनी साहू का बहु-चर्चित उपन्यास अनुवाद :- दिनेश कुमार माली ( पिछले अंक से जारी …) पाप की बात उठने से अंतरा को...

पक्षी-वास

डॉ सरोजिनी साहू का

बहु-चर्चित उपन्यास

अनुवाद :- दिनेश कुमार माली

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(पिछले अंक से जारी…)

पाप की बात उठने से अंतरा को याद हो आती है एक सफेद छबीली गाय की। ओह ! कितना कष्ट था ? लेकिन अंतरा ने उस जीव को कष्ट-मुक्त कर पुण्य किया था या पाप ? अगर पुण्य होता तो उसे सुख मिलता। पाप-पुण्य का आकलन करना उसके बस की बात नहीं थी। कभी गुरु हरिदास मठ में जायेगा तो, वहाँ धनदास बाबा को पूछेगा, उसने वह पाप किया था या पुण्य ? बाघ, हिरण को खाने से अगर पाप होता है तो वह भी पापी है।

जीवन में इतने सारे दुखों को देख अंतरा को गुरु हरिदास आश्रम में जाने को कई बार मन हुआ था। लेकिन उसके गले में बंधी हुई थी सरसी। बेचारी, आधी पागल ! किसके भरोसे छोड़कर जाता ? सरसी अभी तक निराश नहीं हुई थी। आशाओं को लिये बैठी थी कि उसके सभी बच्चे एक दिन लौट आयेंगे। क्या उसके बच्चे किसी चिडिया के बच्चेे हैं ? जो पंख लगते ही फड़फड़ा कर उड़ जायेंगे। आदमी के बच्चे हें। किसी भी हालत में वे लोग लौटेंगे जरुर, अपने पुश्तैनी घर को। आधी-पगली सरसी जंगल में खोजती थी कलेक्टर को। बोलती थी उसके सन्यासी को जंगल पिशाचनी ने किसी पत्थर की माँद के भीतर छुपा कर रखी है। जंगल के अंदर पुकारती रहती थी “सन्यासी, सन्यासी”। अंतरा को तो कभी अचरज होता था, किसिंडा में रहमन मियां के गोदाम से सटे आधे कमरे वाला घर में बिताये हुये वे दिन ! कैसे साफ हो गयी सभी यादें उसके दिमाग से ? न उसे दिन का पता चलता था और न ही किसी रात का। सब करती थी, धरती थी। काम में इतना व्यस्त थी कि वह भूल जाती थी कि उसके बच्चे, जो इधर-उधर चले गये,उसको छोड़कर।

खास लड़की को ढूंढने के लिये सरसी रोज पैदल पाँच-छः किलोमीटर रास्ता तय करती थी, किंसीडा जाने के लिये। रहमन का कोई काम हो न हो, अपने मन से काम करती। कुछ नहीं होने से गोबर लाती, आंगन में लिपती। जो जितना भी समझायें, नहीं समझती थी। बोलती थी- मुराद ले गया उसकी बेटी को। कभी-कभी अंतरा को भी ऐसा ही लगता था। लेकिन वह तो मुराद को जानता तक नहीं था।

सरसी उसके मँझले बेटे को कभी याद नहीं करती। लेकिन बेटा डाक्टर की याद आने से मन में टीस-सी उठती। फोरेस्ट-गार्ड के ऊपर उसको गुस्सा आता। लडके को प्रलोभन दिखा कर ले गया, और ऐसा कौनसे मुल्क में छोड दिया, जो अंतरा अभी तक उसका अता-पता भी मालूम नहीं कर सका। पोलिस में रिपोर्ट लिखवाने कई बार गया था, लेकिन पुलिस थाने जाने में उसको डर लगता था। उसके पास तो इतना रूपया-पैसा भी नहीं, जो वह फोरेस्ट-गार्ड के विरोध में लडेगा।

लड़का गांव छोडकर जाने से पहले कुछ कमाता था बिलासिंह के ट्रक में हेल्परी का काम करके। कहता था, “एक महीने में वह गाडी चलाना सिख जायेगा ड्राइवर के साथ इस बारे में बात किया है। ड्राइवर बोला है डेढ हजार रुपया खर्च करने से वह लाइसेंन्स भी बनवा देगा।” शायद एक साल ही हुआ होगा, उसके हेल्परी का काम करते। रात को बिलासिंह का ट्रक जंगल में घुसता था। आधी रात को लकड़ी लादकर लौट आता था उसके नुआपाड़ा गोदाम में। हफ्ते में एक दिन डाक्टर घर आता था। उसकी मजबूत बांहे और पिंडलियाँ देखने से अंतरा को अपनी जवानी याद आ जाती थी. उस लडके में वह अपने-आपको देखता था। उसके जैसा ही दिलदार, हँसीमजाक करने वाला व खुशमिजाज था। पगार के दिन, दोनों भाई-बहिनों के लिये कुरता-पैण्ट, माँके लिये स्टील गिलास, लोटा व बाप के लिये गमछा, नहीं तो बीड़ी-बंडल लेकर आता था। कोई देखेगा तो बोल नहीं पायेगा कि सतनामी लड़का है। आधा पैसा खुद रखता था और आधा पैसा माँ को दे देता था।

पता नहीं कैसे ? फोरेस्ट-गार्ड के बहलाने-फुसलाने में आ गया। जब देखो, तब उसके साथ घूमता था। उससे सिगरेट माँगकर पीने लगता था। डाक्टर ने कभी दारु नहीं पिया था। लेकिन आजकल, जब देखो, कलंदर किसान की दुकान पर पड़ा रहता था।

अंतरा और सहन नहीं कर सका। कितने दिन वह और सह सकता भी ?

कमाने वाला लड़का काम-धाम छोड़कर गांव में पड़ा रहेगा तो ! उसकी जीभ अकुलाने लगी थी पूछने को। एक दिन उसने पूछा भी।

“तू ड्राईवरी सीख रहा था न, क्या हो गया ?” कुछ भी जबाव नहीं दिया था डाक्टर।

“लाइसेंस बनाने वाला था, क्या हुआ ?”

“डेढ़ हजार तुम दोगे क्या ? लाइसेंस बनाने के लिए।”

“क्यों, तुम्हारे पास तो पैसे थे, क्या किया उनका ? काम-धाम छोड़ कर बैठ जाने से क्या डेढ़ हजार रूपया आ जायेगा ? बता तो। तुमने काम करना क्यों छोड़ दिया ?”

“तुम मेरे पीछे क्यों पड़े रहते हो ?”

“वह जो फोरेस्ट-गार्ड है, उसने तुम्हारा दिमाग खराब कर दिया।”

“उसको क्यों दोष दे रहे हो ? मुझेे बिला ने पैसा नहीं दिया, उल्टा खूब मारा-पीटा भी। बोला था -साले चमार ! चोर साला ! भाग यहाँ से।”

“क्यों तुमको क्यों चोर बोला ? तुमने कोई चोरी की थी क्या ?”

“मैं क्या चोरी करता ? बाप रे ! मुझे तो कुछ भी मालूम नहीं। वह जानें। क्योंकि यहीं उसका धंधा है। मुझे बोला, चमार साले ! मेरे धर में क्यों घुसा बे ? मैं क्या सरकारी नौकरी कर रहा था, जो अपनी जाति-गोत्र लिखवाता। उसने तो मुझे सामान पहुँचाने भेजा था। मैं गया तो उसमें मेरा क्या कसूर ?”

“कैसा सामान तुम पहुँचाये थे ?”

“तुम जैसा सोच रहे हो, वह ऐसा सामान नहीं था। साला, मुझे लकडी-चोर कहा।”

“क्यों ?”

“उसका ड्राइवर ने छुपा कर ढाबे में लकड़ी दी थी। उसमें मेरा क्या दोष ? क्या बिला चोर नहीं है ? क्या वह पूरे जंगल की चोरी नहीं कर रहा है ?”

“सब तो चोरी कर रहे है, पर तुमको क्यों चोर बोला ?”

“तुम क्या पुलिस हो ? इतना सवाल-जवाब, पुलिस जैसा, क्यों कर रहे हो ?”

“नहीं, नहीं, अगर ड्राइवर ने लकड़ी चोरी की तो उसको पकड़ता। फिर तुमको क्यों पीटा ?”

“साला, ड्राइवर बड़ा चालाक ! बिला को बताया कि जब वह एक गिलास दारु चढ़ाकर नींद में सो गया था। तब हेल्पर को सब देखभाल करना चाहिये था। लेकिन उसने क्या किया ? उसे नहीं पता।”

“क्या बिला सिंह उसकी बातों में आ गया ? इतने बड़े लकड़ी के लट्ठे को तुमने अकेले खिसका दिया ? इस बात का उसको वि·ाास भी हो गया ? चलो, तुम, नुआपाड़ा चलते है, मैं खुद उसको पूछुँगा। अगर जरूरत पड़ी तो उसके हाथ-पैर भी पडूंगा। फिर तुमको काम में लगा कर आऊँगा।”

“तुम अगर ऐसा करोगे, तो मैं उस घर को छोडकर भाग जाऊँगा।”

“तुम ऐसे पागल जैसे क्यों हो रहे हो ? मेरे बेटे। मैंने ऐसा क्या कह दिया ?”

बेटे की बात सुनकर अंतरा के हलक सूखने लगे। क्या हो गया? किसकी नजर पड़ गयी उसके बेटे के उपर, उसकी दुनिया के उपर ? सारे पुराने दुखों को वह भूलने लगा था। क्या कलेक्टर की तरह, डाक्टर भी घर छोड़कर चला जायेगा। उसका मन नहीं मान रहा था, उसे विश्वास नहीं हो रहा था। जरूर, उसके पीछे कोई बात है, कोई राज।

अंतरा को याद हो आया कि कुछ दिन पहले हाथ की घड़ी व एक जोड़ी जूता खरीद कर लाया था डाक्टर। कैसेट लगाकर गाना सुनने वाला टेप-रिकार्डर भी था उसके पास। उतना पैसा कहाँ से पा रहा था वह ? एक बार भी उसके मन में किसी भी प्रकार का संदेह नहीं पैदा हुआ था। वरन् लड़के की इस सफलता में गर्व अनुभव कर रहा था। कह रहा था- एक साईकिल खरीदेगा। उसकी माँ कहती थी साईकिल बाद में खरीदना, पहले छत के लिये खप्पर खरीदूंगी, पैसा दे।

तो क्या सच में उसके बेटे ने चोरी की थी ? बिला सिंह की बात सच है ? पता नहीं, क्यों विश्वास नहीं हो पा रहा था अंतरा को इस बात का ? सभी बेटे उनकी माँ पर गये थे। छल-कपट वे बिलकुल ही नहीं जानते। भले ही, भूखे मर जायेंगे, पर चोरी-चकारी कभी नहीं करेंगे। साला, धोखेबाज ड्राइवर ने उसके बेटे को फंसा दिया है।

उसके साथ ही ऐसा क्यों होता है ? कलेक्टर को लेकर कितने सपने बुनता था ? लेकिन वह लड़का किस परदेश में रहता है, उसका चेहरा भी कितना बदल गया होगा ? इस बात का अनुमान भी नहीं लगा पाता। सोचा था कलेक्टर बदल देगा उसके घर को। लेकिन नहीं हो पाया। डाक्टर, उसका बड़ा चहेता ! कितना अच्छा काम-धंधे से कमाकर खा रहा था, और एक ही साल में घर का नक्शा बदल देता। लेकिन यह भी नहीं हो पाया।

उस समय अंतरा पहाड़ को भी चूर-चूर करने का दम रखता था। एक दिन में ही पाँच गांवों में घूम आता था। उसके उपर रहमन मियां का बड़ा भरोसा था। अंतरा जो कहता था, वह मियां मान लेता था। काम धंधा करने से पैसा तो आयेगा ही आयेगा। शाम को जब अंतरा घर लौटता था, तो सरसी घर-आंगन लिपा-पोती कर, दीवारों पर चित्र बनाकर खुद देवी जैसी बैठी रहती थी।

“क्या तुम दिन और रात मिट्टी छापती रहोगी, चित्र बनाती रहोगी ? और कोई तेरा काम-काज नहीं है क्या ?”

“क्या काम करुँगी ? क्या धान और चावल से मेरा घर भरा हुआ है, जो उसी काम में लगी रहूंगी ?”

“हाँ, हाँ, जा, पानी ला, प्यास लग रही है।”

चकाचक साफ-सुथरे कांसे के बरतन में पानी लाकर पकड़ा देती थी सरसी। अंतरा अपने खोंसे में से रूपया निकाल कर अपनी माँ के सामने रख देता था। और इसके बाद हाथ-पाँव धो-धाकर घर में घुसता था। साथ में लायी हुई एक जोड़ी मोती की माला या दो लड्डू पकड़ा देता था सरसी को। और बोलता था “अगर तू, किसी और से शादी की होती, तो ऐसा लड्डू खाती क्या ?”

मुंह मोड देती थी सरसी।

“साड़ी क्यों नहीं खरीद लाया ?” बोलकर मुंह फूलाती थी। उसके पहनी हुई साड़ी फटने लगी थी। अंतरा अगर मेहनत कर खून-पसीना एक कर दें, तो भी इतना पैसा नहीं कमा पाता कि चाहने से एक साड़ी खरीद पाता। सरसी का मन रखने के लिये कहता था “अगले हफ्ते किसिंडा हाट में से एक अच्छा साड़ी खरीदूँगा तुम्हारे लिये ? तुम नाराज मत हो। तुम्हारे नाराज होने से मुझे क्या अच्छा लगेगा ?”

उसका चहेता बेटा तो उससे ज्यादा कमाता था। उसके भाई-बहिनों के लिये कुरता खरीद सकता था। हाथ के लिये घड़ी भी खरीदा था। सब सुख-दुख में समय बिताते हैं। सुख हमेशा के लिये नहीं रहता है, उसका भी कहाँ रहा ? जिस दिन से मानो उसने पाप किया, उसी दिन से उसे सुख छोड़कर चला गया।

पाप नहीं तो और क्या ? एक बार रहमन मियां के गोदाम से लौटते समय उसने देखा, कि हाट लग चुकी थी। उसको तो साग-सब्जी का कोई जरूरत नहीं थी। न उसे किसी पोगा रस्सी की जरूरत थी, न सरसों की, न हीं मांडिया की। उसका मन तो एक साड़ी खरीदने में लगा हुआ था। एक तरफ दो-चार फेरी वाले बैठे हुये थे। अंतरा जाकर दाम पूछने लगा। एकदम-सा लाल रंग की साड़ी के ऊपर पीले-रंग के फूल पड़े हुये थे। वह छापा-साड़ी अंतरा को खूब पसंद आयी। पटाते हुये दाम आखिरी में खिसका पचास रूपये तक। खोंसा खोलकर देखा तो पचास क्या, उसमें तो पचीस रूपये भी नहीं थे ! साड़ी मन की मन में रह गयी, वह खरीद नहीं पाया। ऐसे ही हाट लगा रहा, पर वह कुछ भी खरीद नहीं पाया।

दो-चार दिन बाद अंतरा लेफ्रिखोल से लौट रहा था, उसकी नजर पड़ गयी झाड़ियों की तरफ। वह रास्ता छोड़कर झाड़ियों की तरफ लपक पड़ा। ये क्या ? किसका है ये ? भगवान ने जैसे कि उसकी पुकार सुन ली। लेकिन बेचारे का मन अभी तक उस साड़ी को भूल नहीं पाया था।

अभी भी अंतरा के आँखों के सामने आ जाता था वह नजारा। उस दिन, उसका शरीर उत्तेजना, खुशी और आशंका से थर्रा रहा था। क्या सोच कर पता नहीं, पाया हुआ धन को छोड़कर वह लौट गया था गांव में। घर पहुंच कर उसे लगा, क्या कोई अपने सौभाग्य को ऐसे ठुकराता है ?

सरसी की तरफ देखने से मन दुःखी हो जाता था। वह साड़ी सरसी के शरीर पर खूब फबती। अगर वह ऐसे ठुकराकर नहीं आया होता तो, एक क्या, दो साड़ियाँ खरीद सकता था सरसी के लिये।

सरसी ने देखा, मन ही मन में अंतरा कुछ कह रहा था। क्या हो गया है उनको ? साड़ी माँगकर क्या कोई भूल कर दी उसने ? गरीब आदमी पेट और घर के लिए जुगाड़ करते-करते बेचारे के दिन, महीने, साल गुजर जाते हैं। सुविधा होती तो, क्या एक साड़ी नहीं खरीद लेता ? सरसी ने पूछा -

“तुम ऐसा क्या सोच रहे हो ? चेहरा सुखकर चने की तरह हो गया है।”

“क्या और सोंचूगा ?” अनमना होकर अंतरा ने उत्तर दिया। बोलते-बोलते घर से बाहर निकल गया था. मन ही मन बहुत पछता रहा था। पता नहीं, क्या हुआ होगा ? और क्या वह उसके इंतजार में वहाँ पड़ी होगी ? कितना बुद्धु काम किया उसने छिः! छिः! हाथ में आयी हुई चीज क्या कोई एसे छोड़ देता है ?

आकाश से उस समय अंधेरा नीचे उतर रहा था। दुखी मन से अंतरा कलंदर किसान की दुकान तक गया था। पैसा देकर बोला, “दे, तो कलंदर, एक गिलास देशी दारु, दे। अच्छा, अच्छा एक बोतल दे, दे।”

“कहीं कोई भैंस उठाया था क्या ?”

चौंक गया था अंतरा, जैसे कि उसके अंदर की बात को कोई जान गया हो। “हाँ, हाँ, ना, ना” कहते-कहते वह थतमता गया था। अपने आपको सँभाल कर फिर बोला, “दे, ना, यार, बेकार की बातें क्यों कर रहा है ? एक भैंस उठाने से पाँच-सात आदमियों में बँटवारा होता है। उसमें से फिर कितना मिलेगा ? जो तू पूछ रहा है।”

कलंदर को पैसा मिला था। दारू क्यों नहीं देता ? एक गिलास के बदले में एक बोतल देने से उसको दुगुना फायदा। एक बोतल दारु के साथ, तीन ऊँगलियों से, चार-छः चने उठाकर पत्ते में मोडकर फेंक दिया था अंतरा के हाथ में। इन चमारों के लिये अलग बोतल रखता था कलंदर। उनको छूने से जाति से बाहर निकाला जायेगा। पर, दारु के व्यापार में जात-पात देखने से, दुकान बंद करनी पड़ेगी।

बहुत तेज चटपटा चने का मजा नहीं ले पाया था उस दिन अंतरा। उडेलते समय दारु भी इतना मजेदार नहीं लग रहा था। केवल पछतावा से मन में उलझने पैदा हो रही थी। दुःखी मन से वह घर लौट आया।

सबसे बड़ी बात, उस दिन वह दारु पीकर बेहोश नहीं हुआ। बल्कि सारी रात उसे नींद नहीं आयी, खाली छटपटाता रहा। पता नहीं, बीच रात में कब आँख लग गई। सवेरे-सवेरे नींद टूट गई। तभी भी सरसी पेट के बल चटाई के उपर पड़ी हुई थी। होश भी नहीं था उसे। अंतरा उठकर बाहर आ गया। तब तक आकाश साफ नहीं दिख रहा था। उसकी माँ, उठकर बरामदे में, नींद के झोंके मार रही थी। अंतरा को बाहर निकलते देख, पूछी थी “सवेरे-सवेरे कहाँ जा रहा है रे, तू ? चाय पीकर नहीं जाता ?”

“हाँ, हाँ, अभी आ रहा हूँ।”

बिजिगुड़ा से लेफ्रिखोल सिर्फ चार किलोमीटर की दूरी पर है। रास्ते भर अंतरा को कितनी चिंता, कितनी फिकर ! पता नहीं, वह लाश होगा भी या नहीं, झाड़ी-जंगल में पड़ी थी। सूरज के शरीर से लाल रंग छुटकर आसमान साफ दिखते समय तक वह पहुँच गया था उस झाड़ी के पास। दूर से दिख रहा था, वह जीव ऐसे ही पड़ा हुआ पेड़ के नीचे। अंतरा के होठों पर छोटी-सी मुस्कराहट थिरक कर फिर चली गई। बडे फुर्ती के साथ ही वह बढ़ गया था उस जीव की तरफ। जाकर मिट्टी के उपर उकडू होकर बैठ गया। “नहीं, नहीं, अभी-भी इसमें जान बाकी है।” आँखे तरेरते हुये मुंह मोड़कर पड़ी हुयी थी पेड़ के नीचे। भनभनाकर मक्खियाँ घेरे हुये थी उसके मुंह के चारों तरफ। उसका पिछला बायां पैर बीच-बीच में थर्राता था, जो उसके जिन्दा होने का संकेत देता था। कुछ देर बाद फिर शांत पड़ गया था। अंतरा ने खोंसे में से खैनी का डिब्बा निकालकर एक चुटकी मुँह में डाली। खैनी मिला हुआ थूक, दूर की तरफ एक बार थूककर बोला था “बेटा, क्यों जीवन को और लटकाकर रखे हो ? जा, जा, निकल जा। तेरे लिये मैं रात भर सो नहीं पाया। दारु का स्वाद भी पानी जैसा लगा !” खोंसे में एक बीड़ी निकालकर होठों में दबाई। हठात् उसको याद आ गयी कि पास में माचिस नहीं है। चिनगारी कहाँ से मिलेगी ? मन खट्ठा सा हो गया। होठों में से बीड़ी निकालकर कान के ऊपर दबा दिया अंतरा ने।

खूब धीरे से छुआ था उस जीव को। अभी नीचे दबा हुआ दाहिना पैर भी छटपटाने लगा। “हे !... ऐ!... बे!..” कितना खेल रहा है ? जाना है, तो जल्दी जा। मैं और कितना देर तक यहाँ इंतजार करते रहूँगा। साले, को दबा दूँगा जो एक बार में सारी नौटंकी भूल जायेगा।”

पता नहीं, क्यों कुछ देर बाद अंतरा को डर लगा “छिः! छिः! लोभ में आकर वह पाप करेगा ? इतने बड़े जानवर की जान ले लेगा ? भले, वह इस जानवर का मांस खाता है। मगर कभी इस जानवर के उपर हाथ नहीं उठाया है।” अपने आप में बड़बड़ाते हुये बोला था अंतरा, जैसे कि उसकी ये बातें ऊपर वाले के लिये ही हो। हाँ, अंतरा गाय का मांस खाता जरुर था, पर उसने कभी गाय को मारा नहीं था। उनकी बिरादरी में कोई-कोई गायों को मारते भी है। मगर अंतरा ऐसा कोई काम नहीं करता था। जो भी हो, गाय माँ के जैसी है। इंतजार के अलावा उसके पास कोई रास्ता नहीं था। किसकी यह गाय है ? कोई इसे क्यों ढूंढने नहीं आता है ? इस जानवर को साँप ने काट लिया है क्या ? साँप काटने से मुँह से भर्रा-भर्राकर झाग निकल रहे होते? इसके बदले, इसकी आखों से आँसूओं की धारा बह निकली थी। आँसूओं को देखकर प्यार से सहलाया था उस जानवर को, अंतरा ने “अहा, रे ! कष्ट हो रहा है क्या ?” बीमारी हो गयी है तुमको, जो मुंह मोडकर पड़ी हो। जब गाय का मालिक आयेगा तो उसे यमदूत की भाँति वहां बैठा देखकर, क्या सोचेगा ? उसको चोर-चांडाल समझकर मारने-पीटने लगेगा।

अभी भी इसकी जान क्यों नहीं जा रही है ? अंतरा ने पत्थर से नीचे उतर कर गाय के नाक के पास हाथ रखा था। साँसे अभी भी चल रही थी। शरीर के किसी कोने में उसकी जान अभी तक अटकी हुई थी।

अगर यह गाय अभी मर भी जाती है, तो कैसे वह अकेले उसको ले जा पायेगा ? अगर आस-पडोस वाले, दोस्तों को बुलाता हूँ, तो रूपया हजार हिस्सों में बँट जायेगा। गाय को इस हालत में छोड़कर नहीं जा सकता था। अभी भी उसके प्राण-पखेरू बचे थे शरीर में। देखते-देखते ही यह प्राण-पखेरू कब उड़ जायेंगे, पता नहीं। कितने समय तक पड़ी रहेगी यह मुर्दा लाश ? सड़कर चारों तरफ बदबू फैलने लगेगी। बिरादरी वाले अपने आप यहाँ आ जुटेंगे बिन बुलाये।

अंतरा बड़े ही असंमजस की स्थिति में था, आस-पास की पत्ते-डाली लाकर उसे ढ़क दिया, ताकि उस पर किसी की भी नजर न पड़े। सूखी हुयी झाड़ियाँ, लकड़ी की कूछ डालियाँ काटकर रख दी थी उसके ऊपर।

उसने गाय के ऊपर इतनी पत्तियाँ डालियाँ रखी थी कि बाहर से कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। गाय के अभी तक प्राण-पखेरू निकले नहीं थे, उसको उसने ढ़क दिया था, कहीं वह पकड़ा तो नहीं जायेगा ? हो सकता है लौटते समय गाय का मालिक छुप कर बैठा हो, उसको रंगे-हाथों पकडने के लिये।

अंतरा जानता था कि इतना जल्दी मुरदे शरीर से दुर्गंध नहीं फैलेगी। जबकि गाय जिंदा रहने से, वह पकड़ा भी नहीं जाता और उसे चोर भी नहीं कहता कोई। अगर गाय मर जायेगी, तो उसको उठाने के लिये उसे ही तो बुलाया जायेगा। बड़े द्वन्द में था अंतरा। पाप-पुण्य। सत्-असत्। इतना दिनों से कमाये हुये नाम को डुबा देगा, और उसे लोग चोर कहेंगे। नहीं नहीं, ऐसा नहीं करेगा। अंतरा ने एक बड़ा सा पत्थर उठाया। गाय के मुँह पर से डाली-पत्ते हटा दिया था। और कहने लगा था

“तेरा जीवन बड़े कष्ट में है ! जा, तुझे मुक्त करता हूँ।” और धड़ाम से उस पत्थर को दे मारा उसके मुंह पर। गाये की टांगे खींच गयी थी। जोर-जोर से थरथरा उठी थी वह। कान हिल रहे थे फूल की पंखुडियों की भाँति। उसके बाद सब स्थिर हो गया। साँसो की गति रूक गयी थी। साँसे न आ रही थी, न जा रही थी। उसकी जीवन-लीला हमेशा हमेशा के लिये समाप्त हो गयी थी।

पत्थर से गाय को मारकर, धड़ाम से नीचे बैठ गया था अंतरा। उसका शरीर ऐसे काँप रहा था, जैसे उसने किसी मनुष्य को मार दिया हो। पहाड़ों को चूर-चूर करने वाली ताकत उसकी, अब खत्म हो गयी। पसीने से वह तरबतर हो गया था। कितने जानवरों की चमड़ी उधेड़ी थी, कितने जानवरों के सिंग काटे थे, कितने गाय के मांस के लोथड़ो को काटकर टुकड़े-टुकड़े कर भविष्य के लिये सूखाये थे, तब भी उसका मन कमजोर नहीं हुआ ता। भरी जवानी में भी बुर्जुग लोगों की तरह पश्चाताप की आग में झूलस गया था वह। “आह रे !” जब तक गाय के प्राण बचे हुये थे, दवा-पानी करने से वह गाय दौड़ पड़ती, सोच रहा था अंतरा। अपने स्वार्थ के खातिर क्यों उसने एक निरीह प्राणी को मार दिया ?

उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह पाप में डुब गया हो। उसकी माँ कहा करती थी कि छोटे से छोटे छेद से भी शनि प्रवेश कर जाता है। एक बार जब शनि घुस जाता है, तो फिर अपनी काया का विस्तार कर लेता है। शनि उसको पैर से सिर तक जकड़ लिया था। माँ कहती थी - शनि की छाया पड़ने से अनिष्ट कार्य अपने-आप हो जाते हैं। बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। ब्रााहृण भी चांडाल हो जाते हैं। वह तो चांडाल, गरीब है। फिर भी लोग क्यों कहते है कि ब्रााहृण चांडाल हो जायेगा? इसका क्या मतलब है ?

अंतरा पत्थर पर से उठकर खड़ा हो गया था। उसे मरे हुये जानवर को पहले की भाँति ढँक लिया था। उसका मन क्यों दुखी हो रहा है ? चींटी और हाथी के जीवन में कोई अंतर है क्या ? चींटी मारने से पाप नहीं लगता, हाथी मारने से पाप ! गाय को तो कष्ट हो रहा था। उसको तो मुक्ति दिला दिया। इसमें सोचने की क्या बात ? अंतरा ने अपने खोंसे से खैनी का डिब्बा निकाल कर एक चुटकी खैनी मुंह में डाली। इसको तो पार करना ही पड़ेगा। एक और कंधे की जरूरत है। किसको बुलाया जाये ? बात फैल नहीं जायेगी तो। बस्ती भर के सब लोग आ नहीं जायेंगे। सभी लोग तो भूखे हैं। वह अपने साथी, रिश्तेदारों को किसको भी नहीं बोलेगा। गाय या तो बीमार थी, या साँप ने काट लिया था, वह गोश्त को भले ही बाहर फेंक देगा मगर किसी को भी नहीं बुलायेगा। उसे तो दिख रहा था केवल वही लाल-पीली छापा-साड़ी। पैसा बच जाने से एक जोड़ी पायल भी खरीद देगा। दिखा देगा सरसी को, उसका भर्तार कैसा आदमी है ?

अंतरा मरे हुये जानवर को ढककर घर आ गया था। सरसी उसको देखकर चकित रह गयी थी। कल से अंतरा का मुंह सूख कर काला पड़ गया था, भोर से उठकर, वह कहाँ चला गया था जिसका कोई भी अता-पता नहीं ? पागल की तरह वह क्यों हो रहा है ? उसको क्या हुआ है ? कुछ बोलने से पहले ही अंतरा ने बोलना शुरु किया “घर में कुछ है क्या ? दे तो, खाऊँगा, कुछ।”

सरसी के पेट में कलेक्टर आठ महीने का था तब। भारी पाँव होने से वह धीरे-धीरे चल रही थी। उठकर तुरन्त कुछ काम नहीं कर पाती थी। अंतरा बोला “तुम बैठो, मैं जाकर देखता हूँ, घर में खाने के लिये क्या-क्या चीजे रखी है ?”

सरसी ने उसकी बात नहीं मानकर खुद पखाल ले आयी थी। लहुसन और हरी मिर्चों को सिल से पीसकर चटनी बनाई थी। “सुबह-सुबह कहां चले गये थे ? बताकर नहीं जाते ? तुमको ऐसा क्या हो गया है, बताइये तो ?”

“मुझे क्या हुआ है ? काम करने भी नहीं जाऊँगा क्या ?” वह सोच रहा था कि उसकी पत्नि के पाँव भारी थे, और ऐसा जघन्य दुष्कर्म उसने कर डाला। भगवान ने चाहा तो सरसी को सब ठीक-ठाक से हो जायेगा। भगवान उसके पापों का भागी सरसी को न बनायें।

अंतरा ने पूछा “तुम्हारे पास एक सवा रूपया हो, तो दोगी क्या ?” अपने होने वाले बच्चे के खातिर कुछ पैसा बचा कर रखी थी सरसी। अंतरा को देखने से लग रहा था कि वह किसी विपदा में है। सरसी ने किसी छुपी हुई जगह से निकाल कर दी थी दो रूपये।

हड़बड़ाकर निकलते समय झोले में अपने कुछ औजार लेकर निकला था। विस्मित हो गयी थी सरसी के आँखे। यह आदमी तो ऐसा बिना बताये कभी कहीं नहीं जाता है। उसके साथ ऐसा हुआ क्या है ? बस्ती में से और कोई जा रहा है कि नहीं ? किसको पूछेगी, वह तो नयी-नवेली वधू थी।

नुरीशा के दुकान से आधा कट्टा बीड़ी खरीदते समय चमरू मिला था। चावल खरीदने आया था वह। एक बार अंतरा का मन हुआ था कि वह चमरु को भी साथ ले जायेगा। यह तो एक अकेले का काम नहीं है। अगर चमरू बात को इधर-उधर बोल देगा तो भविष्य में कोई उसका साथ नहीं देगा। पाप वह करेगा, और भाग लेंगे सब।

फिर पांच कोस रास्ता तय करना पडेगा। अभी वह जीव कष्ट नहीं पा रहा होगा? उसकी दया से उसको मुक्ति मिल गयी है। कितना तड़प रहा था वह ! कहीं इधर-उधर थोड़ी सी जान अटकी हुई थी इसलिये।

शाम होने से पहले, उसका चमडा उतारना होगा। कदम जरा जोर से बढ़ाने लगा था अंतरा। वह जानवर अभी भी पत्तियों और डालियों से ढ़का हुआ था। कुटी, डाली, पत्ते सभी अलग कर दिया। उसके बाद वह लग गया था अपने पुश्तैनी काम में। गाय की उम्र कम थी, दवा-पानी करने से शायद बच जाती।

सावधानी से चमड़े को काटने लगा था अंतरा। इसको वह तीन सौ रूपयों में बेचेगा रहमन के पास। दोनो सिंग बेचेगा टिटिलागढ़ कारीगर के पास। मांस सड़ने के बाद फिर वह सोचेगा हड्डियों को बेचने की बात। सब पैसों का हिसाब वह जोड़ नहीं पाया। फिर भी उसको लगा जैसे कि वह लखपति हो गया हो।

चमड़ा उतारते समय अंतरा ने देखा कि उसके चाकू की धार तेज नहीं थी। छोटे-से पत्थर पर घिसा था, अपने चाकू को। बहुत सावधानी से काटने लगा था चमड़े को। आह, रे ! यह जानवर जिन्दा होता तो, कूदते-फाँदते छलांग लगाते इधर-उधर घूमता-फिरता। जबकि वह अभी उसका चमड़ा उतार रहा है।

चमड़े को निकालते-निकालते शाम हो गयी। उसने सोचा था कि गाय को एक गड्ढा खोदकर दफना देगा फिर बाद में वह घर जायेगा। दफनाने से दुर्गंध चारों तरफ नहीं फैल पायेगी। लेकिन रात को वह करेगा क्या ? उसके पास न तो कोई फावड़ा है, और न ही कोई गेती। इधर शाम हो जाने से, मच्छर काटना शुरू कर दिये थे। आधा काम करके न तो वह किसिंडा जा सकता था, न ही वह अपने गांव। उसका दिमाग काम नहीं कर रहा था। आखिरकर सूखे डाल-पत्ते इकट्ठा कर आग लगायी थी। आज रात वह यहीं बितायेगा। नहीं तो, उसकी सारी मेहनत पूरी तरह से बेकार हो जायेगी। लेकिन, इस जंगल में रात-भर बैठा रहेगा वह अकेला। इधर, सरसी चिन्ता में रोना शुरु नहीं कर देगी ? उसकी माँ आस-पड़ौस से कोई मदद नहीं मांगेगी तो ? लोभ में आकर बुद्धि क्यों खराब हो गयी ? उसकी मति क्यों मारी गयी ?

अब कोई उपाय नहीं था उसके पास। खोजबीन करने पर उसे एक छिछले गड्ढे वाली जमीन मिली। घसीटते हुये वह उस गाय को ले गया और डाल दिया था उस गड्ढे में। डाल, पत्ते, मिट्टी, पत्थर, जो भी मिला ढ़क दिया उसके उपर। लेकिन इतनी बड़ी लाश का चार भाग में से एक भाग भी पूरी तरह नहीं ढक पाया था। इतनी कोशिश के बाद भी। दूर से लाल-सुर्ख दिख रहा था उसका उधेडा हुआ शरीर। गाय को इस हालत में छोड़ कर जाने की बात, वह सपने में भी सोच नहीं सकता था। बार-बार वह अपने गांव में जायेगा,, बार-बार बिना किसी को बताये वह यहाँ आते रहेगा, तो लोगों को उस पर कोई न कोई संदेह जरूर होगा. अतः रात यहाँ पेड़ के नीचे गुजार देना ही अच्छा होगा। सवेरे-सवेरे गाय को दफनाकर चमड़ा लेकर चला जायेगा वह किसिंडा। चमड़े को तो न गांव लेकर जा पायेगा, और नहीं किसिंडा। वह कैसे गोरख-धंधे में फँस गया था !

वह आग लगाकर बैठा रहा। कितने सारे चिड़ियों की डरावनी आवाजों के मध्य वह ऐसे ही घिग्घीं बांधकर बैठा रहा। धीरे-धीरे रात ढ़लती गयी। पता नहीं क्यों, उसको लग रहा था, थोड़ी सेवा कर देने से वह गाय बच जाती। घास चरने लगती। दाना खाने लगती, पानी पीने लगती। बछड़े को दूध पिलाती। उसने लोभ में आकर अपने स्वार्थ के खातिर बहुत बड़ा पाप किया है। भरमार कीड़े-मच्छरों के बीच बैठकर वह पश्चाताप की आग में जल रहा था। एक लाश और एक जिन्दा आदमी पड़े रहे, रात भर एक निर्जन जगह में। कभी नींद का झोंका आया, तो उसके मानस-पटल पर छा गया एक सपना। सपने की फाँक में से गाय। आंसूओ से छलकती हुयी आँखों में तैर रही थी वह गाय।

“बता तो, मुझे क्यों मार दिया ?”

निःशब्द हो गया था अंतरा का मन। अंतरा के मुंह से कोई शब्द नहीं निकल रहे थे, जैसे कि वह गूँगा हो गया हो। गाय एक बार फिर उसके छलकते हुए आंखों से पूछ रही थी “तुम सच-सच बताओ, मुझे क्यों मार दिया ? मेरी बछड़ी मुझे बिलखती हुई ढूंढ रही है, जानते हो।”

अंतरा जैसे कि पत्थर होता जा रहा था।

गाय पूछ रही थी “सच-सच बता न, तुमने मेरे को......”

जिस ‘इड़ीताल’ ने उसको जोड़ा था सन्यासी से, उसी इड़ीताल ने उसको दूर कर दिया था सन्यासी से। चैती इड़ीताल को दोष देती है। उसका सन्यासी चित्रांकन करता था, ड्राँइग टीचर था वह भोपाल के एक मिशन स्कूल में। चैती भी माहिर थी चित्रांकन में। वह अपने दादाजी से सीखी थी। विभिन्न प्रकार की मछली, कछुआ, भेंड़, बकरी, शिकारी, पक्षी आदि के चित्र बना सकती थी। सन्यासी बोल रहा था ऊपर में प्रभु यीशू बैठे हैं, उसने हम दोनों को मिलाया है। तुम मेरी एक दिन ‘मास्टरानी’ बनोगी, इसलिये प्रभु यीशू ने तुम्हें मुझे दिया है। जंगल में बांसुरी बजा-बजाकर मैंने तुमको पाया है। उस समय मुझे क्या मालूम था लाल फ्राँक पहने हुई रहस्यमयी देवी की भाँति इतनी जल्दी मेरे हाथ में आयेगी और तुम बंध जायेगी मेरी बांसुरी के सुरों में।

लाल फ्राँक पहनी हुई यह तितली इतने गुणों से भरपूर है ! तुम किस प्रकार से एक बार मुझे अपने चेहरे की झलक दिखाकर गायब हो गयी थी, याद है वह दिन ? मैं तुमको ढूंढते-ढूंढते पत्थर काटने वाले कामगारों के बीच में जा पहुंचा था। वहीं से खोज निकाला था तुम्हें, जानती हो ना ?

“जा रे, तुम क्या क्या कहते रहते हो ? मैं कुछ समझ नहीं पाती हूँ।” चैती ने हँसते-हँसते उत्तर दिया।

“तुमको समझ में नहीं आये, इसी में अच्छा है। जैसी सीधी-सादी हो वैसी ही बनी रहो।”

उसने सन्यासी को भी वह कला सीखायी थी, जिसको अपने दादाजी से सीखी थी। इस बात को लेकर बाप के साथ दादाजी का अक्सर झगड़ा होता था। तुम बेईजू, मेरी पोती को इतना कष्ट क्यों दे रहे हो ? इसके नाजुक-नाजुक हाथ क्या भगवान ने पत्थर काटने के लिये बनाये हैं ? देख, कैसे फफोले पड़ गये हैं मेरी इस प्यारी पोती के हाथों में ?

चैती ने सिखाया था मयूर, तोता, धान के पौधे, शिकारी और कितने-कितने किस्म के इड़ीताल सन्यासी को। सन्यासी कुशाग्र बुद्धि का था। सन्यासी के हाथों में कुशलता थी, इसलिये उसने जल्दी ही, सिख लिया था यह सब।

चैती सोचती थी, काश वह सिर्फ पत्थर काटती होती ! काश वह अपने दादाजी से इडीताल नहीं सिखी होती ! इस कला को वह अगर सन्यासी को नहीं सिखाती, तब भी तो चलता। इसी इड़ीताल की वजह से आज उसके पति दूर विदेश में हैं। पता नहीं, क्यों सिखा रही थी वह ! कभी-कभी वह इडीताल को दोष देती थी तो कभी-कभी खुद को।

एक दिन शाम को इमानुअल साहिब की पत्नी मैरीना मैम साहिब ने बुलाया था सन्यासी को। उस बूढ़ी की बात को कभी भी सन्यासी टालता नहीं था। जितना भी काम रहने से भी, जितना भी विषम समय होने पर भी, वह तुरन्त दौड़ कर चला जाता था उनसे मिलने। “जानती हो चैती, वह किसी जन्म में मेरी माँ थी। उन्हीं के कारण मुझे खाने के लिये मिलती है आज दो वक्त की रोटी। आज मैं मान-सम्मान का जीवन जी रहा हूँ। नहीं तो, सोच, कहाँ पड़ा-पड़ा मैं सड़ रहा होता ?”

सन्यासी मिशन में रहकर अपने गांव की मिट्टी को भूलते-भूलते अपनी ‘देशीया भाषा’ भी भूल चुका था। वह बात करते समय मिशन की भाषा में बात करता था। इसलिये चैती को ऐसा लग रहा था सन्यासी का ज्ञान बहुत बढ़ गया है। वह जो भी बोल रहा है, अच्छा के लिये बोल रहा है। सन्यासी को यह नया रूप किसने दिया था ? मैरीना मैम साहब ने। इसलिये मैम साहिब के पास से कोई बुलावा आने से चैती मना नहीं करती थी। बोलती थी- “जाओ, आपकी असली माँ बुला रही है।”

जिस दिन वह चर्च में ईसाई बन गयी थी सन्यासी से शादी करने से पहले, उस दिन मैरीना मैम साहिब ने कहा था - “चैती का नाम आज से होगा ‘ईसावेला’।” फादर ने चैती को ईसावेला के नामकरण होने पर उसे आशीर्वाद भी दिया था। दो दिन बाद ईसावेला ने शादी की थी, क्रिस्टोफर सतनामी के साथ। इस नये नाम को आसानी से चैती मान नहीं पा रही थी। एक दिन मजाक से सन्यासी ने कहा था “ईसावेला, ईसावेला सुनो तो!”

चैती बैठकर सब्जी काट रही थी। जैसे गहरी नींद में खोयी हुई हो। उसके अंदर से तुरंत कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। वह आवाज उसके पास से होती हुई गुजर गयी। सन्यासी ने नजदीक आकर हिलाते हुये उसको कहा

“कितनी देर से तुमको बुला रहा था, सुन नहीं रही हो क्या ? कान में रुई डाल रखी हो क्या ? किसी दूसरे की सोच में पड़ी हो ?”

चैती ने उल्टा पूछा “तुम मुझे बुला रहे थे क्या ? मुझे पता कैसे नहीं चला ? तुम सच बोल रहे हो ?”

“तुमने नहीं सुना है ईसावेला, ईसावेला ?” हँसते-हँसते लोट-पोट हो गयी थी चैती। बोलने लगी “तुम मुझे मैम साहिब वाले नाम से बुलाओगो तो कैसे समझ पाऊंगी ? तुम्हारा नाम क्या है ? ओह! बार-बार मैं भूल जाती हूँ।

“क्रिस्टोफर”

“क्रिस्टोफर और ईसावेला ?”

खूब हँसी थी चैती। आखिरकर तूने मुझे ईसाई बना ही दिया। सन्यासी बोला था “नहीं रे, चैती! हम दोनों ईसावेला और क्रिस्टोफर नहीं। हम तो लहरीदार पहाड़ों की तलहटी के चैती और सन्यासी हैं।”

लेकिन सन्यासी तो क्रिस्टोफर सतनामी बनकर चला गया था विदेश। और धीरे-धीरे अपनी चैती को भूल गया। मैरीना मैम भी नहीं हैं। होती तो, भला वह पूछती, सन्यासी के हाल-चाल के बारे में। शायद वह उससे जिद्द भी करती, बोलती मुझे मेरे सन्यासी को लौटा दीजिये।

मैरीना मैम साहिब तो सन्यासी की माँ हैं। उनकी शादी के समय एक अच्छी साड़ी-ब्लाउज, और सोने की अँगूठी बनवायी थी मैरीना मैम साहिब ने। अगर वह माँ नही होती, तो क्या वह इतना करती? सन्यासी के लिए पैण्ट-शर्ट, एक जोड़ी जूता भी खरीदी थी। दोनों ने आपस में अपनी-अपनी अंगूठियों की अदला-बदली भी की थी। सन्यासी तो एकदम अपटूडेट, फिट-फाट साहब के जैसे लग रहा था। मैम साहिब ने कैमरे में उसकी फोटो भी उतारी थी। मिशन में उस दिन एक अच्छी दावत का आयोजन भी किया गया था। गांव में क्या इतने ठाटबाट, साजो-सज्जा हो पाती ? मैरीना मैम साहिब सबको ऐसी अँगूठी, पेण्ट-शर्ट जूता नहीं देती। सन्यासी तो ठहरा उसका धर्म-पुत्र। इसलिये समय-असमय बुलाने पर, सन्यासी भी दौड़ जाता था, तेजी के साथ, मैमसाहिब के पास।

एक बार इमानुअल साहिब ने बुलाया था, कुछ लोग विदेश से आने वाले हैं, इसलिये एक सभागार में चित्र बनाने होंगे ? भोपाल में सबसे बड़ा सभागार था। पूरी दिवारों पर ईड़ीताल के चित्र बनाने होंगे। दीवार पूरा करने में एक हफ्ते से भी ज्यादा समय लग जायेगा। सन्यासी सवेरे आठ बजे घर से निकलता था और पहुँचता था घर रात आठ बजे। क्या खाता होगा ? क्या पीता होगा ? उधर चैती की हजार चिन्तायें। दिन भर का अकेलापन खूब सताता था चैती को। सन्यासी घर में होने से दोपहर भी पूर्णिमा की रात की तरह लगती थी चैती को। अकेली घर में बैठे-बैठे, उसको संसार छोड़कर चले जाने की इच्छा होती थी कभी-कभी।

सन्यासी के घर पहुँचते ही वह बोलने लगती थी “समझा, तू और कहीं मत जा, तुम्हारे बगैर मैं बड़ी अकेली हो जाती हूँ, रे !”

“अरे, कैसे होगा ? काम तो अभी आधा ही हुआ है। विदेशों से प्रतिनिधि भी जल्दी ही आने वाले हैं।”

सन्यासी बहुत थक गया था। चैती की बातों से चिड़चिड़ा जाता था। बोलता था “मुझे खटना क्या अच्छा लगता है ? मूझे पीठ और कमर झुकाने पर कष्ट हो रहा है। बड़ा कष्ट! तुम मेरा खाना-पीना, कष्ट के बारे में तो समझने की कोशिश करती नहीं। केवल झगड़ा ही करती रहती हो।”

चैती की आँखों में आंसू भर आते थे. कहती थी “तुम्हारी माँ से मैं पुछूंगी। तुम्हें इतना कष्ट क्यों दे रही हैं ?”

एक दिन सन्यासी बोला “चल न चैती, मेरे साथ मिलकर काम करना। काम भी जल्दी खत्म हो जायेगा। जल्दी खत्म होगा, तो मुझे वहाँ और जाना भी नहीं पडेगा।”

उसकी बात सुनकर चैती का शरीर काँप उठा “क्या बोला ? घर में दो-चार टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें खींच दे रही हूँ, तो क्या आँफिस में जाके काम करुँगी ? मुझे ऐसे काम के लिये आगे से मत बोलना।”

चैती सोची थी कि सन्यासी उसकी बातों को मान जायेगा। लेकिन सन्यासी तो जैसे जिद्द कर बैठा। “तुम मेरी गुरु हो, समझी लोग तुम्हारी तारीफ करेंगे, वाह-वाही करेंगे। असली जादू तो तुम्हारे हाथों में है। तुम जाओगी तो देखोगी। वहाँ लोग कैसे तारीफ करते हैं ? तुम्हारी तारीफ होने से मेरा सीना गर्व से फूल उठेगा। कल चलेगी न, तुम मेरे साथ ?”

चैती सोच रही थी कि सन्यासी उसके साथ मजाक कर रहा है। उसको क्या मालूम था वास्तव में सन्यासी उसको ले जाना चाह रहा है। जब उसको पता चला कि सन्यासी, सही में उसको सभागार ले जाना चाहता था। तो उसका पूरा शरीर काँप उठा। लग रहा था कि कहीं बुखार न आ जाये। उसे ऐसा लग रहा था कि रात को घर छोड दें। लेकिन सन्यासी को छोड़कर वह कहाँ जायेगी ? उसका सन्यासी के अलावा और कौन है ? उसका बाप फिर क्या उसको घर में रखेगा ? बस्ती-बिरादरी वाले उसको मारने नहीं दौड़ेंगे ? सन्यासी को छोड़, और कौन उसको इतने प्यार के साथ रखेगा ?

रात को नौ या दस बजे के आस-पास चैती को दस्त लगने लगी। पाखाना दौड़ते-दौड़ते उसके हाथ-पैर सब शिथिल हो जा रहे थे। सन्यासी आश्चर्य-चकित रह गया। अचानक चैती को यह क्या हो गया ? पूछने लगा “आज क्या क्या खायी थी, चैती ?” दौड़ पड़ा था मिशन डिस्पेन्शरी में। कुछ दवाईयाँ, टेबलेट लेकर लौट आया था। दवाई खाने से भी दस्त रुक नहीं रहा था। चैती निस्तेज होकर आँखे पलटकर पड़ी हुई थी।

“तुम्हें अस्पताल ले जाना होगा। और अब मेरे वश की बात नहीं है।”

“अस्पताल ? वहाँ तो सुई लगायेंगे। मैं नहीं जाऊंगी वहाँ। मुझे इतना तंग क्यों कर रहे हो ?”

“मैं तुम्हें तंग कर रहा हूँ या तुम मुझे कर रही हो ? खैर, छोडो इन बातों को। पहले मुझे देखने दो, डाक्टरको कैसे खबर की जाये ?”

“भले, मैं यहाँ मर जाऊँगी, पर अस्पताल नहीं जाऊँगी।” चैती कुं-कुं कर रोने लगी। और वह क्या बोलेगा, बुद्धु लड़की को। सुई से डरकर मौत को बुला रही है। अकेला आदमी किसके भरोसे छोड़कर जायेगा अस्पताल, वह समझ नहीं पाया। भगवान को याद करने के अलावा उसके पास और कोई रास्ता नहीं था। अंत में बोला था “मैं थक गया हूँ, मैं और कुछ भी नहीं कर पाऊंगा।”

आधी रात को धीरे-धीरे ठीक होने लगी थी चैती, उसकी दस्तें रुक गयी थी। और पाखाना नहीं जाना पड़ रहा था। सन्यासी के स्पर्श से उसकी आंखों में नींद आ गयी थी। चैती के पाँव को सहलाते हुये न जाने कब से वह भी नींद के आगोश में आ गया था।

सवेरे नींद से उठते समय, उसने देखा कि सूरज सिर के ऊपर था। पास में चैती नहीं थी। कहाँ गयी ? देखने उठता है, तभी चैती वहाँ धोकर भीगे हुये बालों को सुखा रही थी, एक तौलिया लेकर। सन्यासी को देखकर पूछने लगी “तुम आज स्कूल नहीं जाओगे ?”

“हाँ, स्कूल तो जाऊँगा, पर तुम्हारी तबीयत कैसी है ? पहले बता।”

“ठीक है।” छोटा सा उत्तर दिया था चैती ने।

सन्यासी अपनी दिनचर्या से निवृत होने के बाद एक घंटे के अंदर तैयार हो गया। दोनों ने दो-दो रोटी खायी। गांव में रहने पर नाश्ता क्या चीज होती है ? उनको पता भी नहीं था। शहर का था अदब-कायदा, जरा अलग हटकर। सवेरे नाश्ता, दोपहर को लँच, शाम को फिर एक हल्का नाश्ता, फिर रात दस बजे तक बैठे रहो डिनर के लिये। ऐसा तीन-चार बार खाने का अभ्यास नहीं था चैती को। अभ्यास क्या, एक समय का खाना मिल जाने से, जहाँ दूसरे समय के खाने का कुछ भी ठिकाना नहीं होता था वहां तीन-चार बार खाने की बात तो, सपने जैसे लगती थी।

जब सन्यासी अपना झोला तैयार कर रहा था, चैती साड़ी पहन कर दरवाजे पर हाजिर हो गयी। सन्यासी को आश्चर्यचकित देखकर उत्तर दी थी “ऐ! ऐसे बुद्धु की तरह क्या देख रहे हो ? मैं भी तुम्हारे साथ चलना चाहती हूँ काम करने।”

“तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है। अभी रहने दो। मैने तो ऐसे ही मजाक में कह दिया था। तुम घर में रहो। कुछ बनाकर खा लेना। मेरा इंतजार मत करना।”

“नहीं, नहीं, मैं भी चलूंगी। जल्दी, जल्दी काम निपटा लेंगे। अकेले तुम कितने दिनों तक उसको करते रहोगे ?”

बात करते-करते अनायास ही सन्यासी के मुंह से निकल पड़ा था, लेकिन वह अपनी बीवी को लेकर आँडीटोरियम में काम करना नहीं चाहता था। मगर चैती जिद्द करके उस दिन उसके साथ गयी थी।

सभागार में खूब सारे लोग थे। चैती को शर्म लग रही थी। सन्यासी के साथ चैती को देख अन्य कार्यकर्ताओं को भी ताज्जुब हुआ।

चैती ने देखा कि दीवार पर आधा काम हो गया था। लेकिन चित्र जीवंत नहीं लग रहे थे। उसके दादाजी की तरह सन्यासी नहीं कर पायेगा। उसका मन दुःखी हो गया। इतना बड़ा काम हाथ में लेकर सब गड़बड़ कर दिया है। शबर लोगों के तीर और पतले होने चाहिये थे। कुत्तों के मुँह अगर थोड़े और खुले होते तो बहुत सुन्दर लगते। एक की पूंछ, दुसरे के मुंह पर नहीं लगना चाहिये था। लेकिन सन्यासी को इतने लोगों के सामने वह कुछ भी नहीं बोल पायी थी। वह समझ गयी थी कि सन्यासी ने ध्यान से चित्र नहीं बनाये थे। चित्रों में प्यार कम था। पहले उसको अपने मन में चित्र बना लेने चाहिये थे। चित्रों में पूरी तरह से नहीं खो जाने से, क्या सही चित्र बनते हैं ?

किसी श्रीधरन के साथ चैती का परिचय करवा दिया था सन्यासी ने। वह आदमी चैती की तरफ एक बार तिरछी निगाहों से देखकर जाने लगा था। सन्यासी कहने लगा, “इस पन्ने का चित्र को चैती ही बनायेगी।”

श्रीधरन ने बहुत ही असंतोष भरी आँखों से देखा था सन्यासी और चैती की तरफ। जैसे कि उसे चैती पर कोई भरोसा नहीं था।

“वी कान्ट टेक द रिस्क ”

“ सर, यह तो मेरी गुरु है। इसी से तो मैंने यह कला सीखी है।” श्रीधरन हँस दिया। बोला “ ठीक है, तुम लोग देखो। एज यू लाइक।”

बहुत दिनों के बाद चैती ने पकड़ी थी रंगों की प्लेट और उसमें पड़ी तूलिका। ये रंग पत्थरों का महीन चूर्ण बना करके बनाया गया था। बहुत दिनों के बाद वह खेल रह रही थी दीवारों पर, अपने साथ लिये मन-पसंद रंग और तूलिका । दादाजी होते, तो खुश हो जाते। मेरी पोती मेरे पढ़ायेे पाठ आज काम में ला रही है। कतारों में हैं ‘शल्ब’ के पेड़, धांगड़ा-धाँगड़ी, मोर, तोते। सभी धाँगड़ों की कमर पतली और सीना चौड़ा होता है।

श्री धरन दूर से देख रहा था उस आदिवासी लड़की को चित्र बनाते हुये। मंत्र-मुग्ध हो जा रहा था। क्या निपुण कला थी! जैसे कि कोई सितार पर धीरे-धीरेकर अपनी उंगली चला रहा हो। जैसे कि पुरातत्वविद् घुम रहे हो इधर-उधर, एक सभ्यता की खोज में।

“वन्डरफुल, वन्डरफुल”

सन्यासी हँसकर बोला था “सर, मैं पहले से ही बता रहा था।”

दोपहर को सन्यासी चैती को ले गया था, सभागार की कैण्टीन में। सभागार से सटा हुआ था एक बड़ा दफ्तर। दफ्तर भर के लोग, बैठकर खा रहे थे कैंटीन में। चैती को शर्म लग रही थी। जैसे कि प्रवेश निषेध वाली वर्जित जगह में वह घुस आयी हो। बोली थी “चल, यहाँ से चलते हैं। इतने लोगों के बीच में नहीं खा सकती।”

“तो क्या भूखा मरोगी ?”

“चलिये, बाहर चलेंगे, किसी दूसरी दुकान में खा लेंगे।‘”

“अभी कहाँ जायेंगे? तू ऐसा मत सोच तो। मैं साथ में हूँ ना, कुछ नहीं होगा। शहर बाजार जैसी जगहों में कोई किसी को, न देखता है, न कोई पूछता है।”

अपने आपको छुपाने जैसी एक किनारे में कुर्सी पर बैठ गयी थी चैती।

“क्या खायेगी ?” पूछा था सन्यासी ने।

“तुमको जो भी अच्छा लगे।”

“तू बता न। यहाँ हमको पैसा देना नहीं पडेगा। मुर्गा खायेगी या मीट ? देख, मेरे साथ यह ‘पास’ है। हम लोग जो भी खायेंगे, मुफ्त में मिलेगा।”

“क्या हर दिन ?”

“धत्, पगली ! यहाँ रोज हम लोग काम करते रहेंगे क्या ? घर नहीं जायेंगे ?”

शरम के मारे चैती बोल नहीं पायी थी कि वह क्या खायेगी ? जैसे-तैसे कुछ खाकर बाहर निकल आयी थी वह। बाहर आने के बाद, उसको कितना अच्छा लगा था।

फिर दोनों ने सभागार में चित्र बनाये थे। चैती के लिये यह था एक नया अनुभव, नया नशा और नया परिचय। जितना भी डर लगे, शरम आये, काम तो अच्छा लग रहा था। इंसान के अंदर छुपी हुई प्रतिभा को पहचानता है शहर। गांव में कौन पूछता है ? गांव में कभी किसी ने तारीफ की है ? पहले-पहले लग रहा था शहर में, मानों उसकी ज़ड़े कटी हुयी हो। लग रहा था कि चारदीवारों के बीच उसकी आत्मा कैद हो गयी हो। ह्मदय हाहाकर करने लगता था। आज पहली बार उसको जीवन, सहज और सरल लग रहा था।

शाम के समय दो-चार और लोग आकर पहुंच गये थे। उनके साथ में थे इमानुअल साहिब व मैरीना मैम साहब भी, वे लोग आपस में अंग्रेजी में कितनी सारी बातें कर रहे थे। बीच-बीच में हिन्दी में भी बात कर रहे थे। चैती समझ पा रही थी कि वे लोग उसके चित्र के साथ सन्यासी के चित्र की तुलना कर रहे थे। “चैती के सारे चित्र ज्यादा सुन्दर बने हैं।” बोल रहे थे वे सब।

सन्यासी और चैती जुटे हुये थे। जैसे भी हो, आज काम पूरा करना होगा। ये दोनों कभी किसी के भला-बुरा कहने में नहीं रहते थे। नहीं रहते थे देखने वालों के बीच में। ये तो सृजन की बारिश में भीगते रहते थे। तिनका तिनका जोड़कर, घोंसला बनाने में लगे रहते थे। मिट्टी की गुफा, बनाने में लगे हुये हो जैसे दो कुम्हार, या फिर संगत में मशगूल दो आधे पागल इंसान, चारो तरफ से जिनके गुम हो गया हो जैसे सारा जहां, सारा संसार।

लगभग काम पूरा करके वे दोनों वापस आये थे। उस समय रात हो चुकी थी। थकान से चैती का शरीर टूट कर चूर-चूर हो रहा था। वह समझ पा रही थी, बेचारे सन्यासी ने कितने कष्ट में समय बिताया होगा ? अकेले घर में छोड़कर जाना पड़ता था, इसलिये सन्यासी पर कितने बेकार का गुस्सा करती थी वह ! घर लौटते समय चैती बोली थी “ऐसा ठेका वाला काम अच्छा नहीं लगता है, समय होता तो तुम देखते कि मैं इडीताल चित्रों की परिधियों को कितने सुन्दर-सुन्दर फूलों से भर देती।”

चावल पकाने की इच्छा नहीं थी चैती की। सन्यासी बोला “चल, आज होटल में खाना खा लेते हैं।”

“मुझे भूख नहीं है। तुम अकेले जाओ, बाहर से खाकर आ जाना।”

सन्यासी को काफी थकावट लग रही थी। चित्र बनाते समय भूख, प्यास, नींद, थकान कुछ भी महसूस नहीं हो रही थी। अभी ऐसा लग रहा था जैसे कि कई दिनों से वह सोया नहीं हो। घर लौटते समय, रास्ते में ठेला वाले से खरीदकर, दो चाट खा लिये थे दोनों ने।

ताला खोलकर घर घुसते समय सन्यासी बोल रहा था “देखी, काम करने बाहर निकली, कितनी तारीफ मिली ! घर में बैठी रहती, तो क्या कोई तारीफ करता ? लोग कह रहे थे कि मेरे चित्रों से भी तुम्हारे चित्र अच्छे बने हैं, है ना ?”

“उसमें मुझे क्या मिलेगा ? तुम परेशान हो रहे थे, इसलिये मैं साथ गयी थी।”

“इतने दिनों तक वे लोग, मुझे अच्छा कलाकार मान कर सिर पर बैठाये हुये थे, जितना दिन तक उन्होंने तुम्हारे हाथ की कला नहीं देखी। किसी एक दिन के लिये तू गयी, और उसी में लोगों ने मेरे साथ तुम्हारी तुलना करनी शुरु कर दी।”

“तुम क्या पागल हो गये हो ? मैं क्यों तुम्हारे साथ लड़ने जाऊँगी ? तुम क्या मेरे से कोई अलग हो ?”

“धत्, पगली। मैं क्या तुमसे ईष्र्या कर रहा हूँ ? तेरी तारीफ सुन कर गर्व से मेरा सीना फूल उठा। तुम तो मेरी सोने की चिड़िया हो।”

“तुम सही बोल रहे हो” हँसी थी चैती।

“ये मेरे पेट में जो पलने लगा है, वह क्या है ?”

पहले तो समझ नहीं पाया सन्यासी, चैती क्या बोल रही थी ? बाद में, चैती के होठों पर थिरकती मंद-मंद मुस्कराहट से वह समझ गया था कि वह बाप होने जा रहा है। पुलकित हो उठा था वह एक अदभुत से रोमाँच से, और काँपने लगा था उसका सारा शरीर खुशी के मारे।

“तुम ऐसी हालत में काम पर आयी थी ? और एक प्लेट चाट खाकर रह गयी। रुक, मैं कुछ बना देता हूँ, तुम्हारे लिये ? तू भी न, चैती, इतने दिनों तक बात को छुपाये रखी थी। तुम बहुत नटखट शैतान हो गयी हो।”

जितना गुस्सा उसे चैती पर आ रहा था, उतनी ही तरस आ रहा था उसे उसकी असावधानियों पर। सृजन के उस खेल से निकल कर, फिर एक नये सृजन के खेल में मशगूल हो गये थे वे दोनों। दोनों के पास आनंद ही आनंद। सृजन ही तो आनंद की कुंजी है।

सन्यासी ने चैती को धीरे से अपने सीने से लगाया।

चैती की आँखों में थे समर्पण के भाव। बोलने लगी “कितने दिन हो गये हैं, तेरी बांसुरी को सुने हुये ।”

“एक दिन छुट्टी लेकर जंगल चले जायेंगे। उस दिन, जंगल में पूरे दिन मैं तुमको बांसुरी सुनाऊँगा।”

“जा रे,”

“इसलिये तो मैं अभी तक जिंदा हुँ, चैती। नहीं तो, कब का मर गया होता ?”

“सच ? क्या क्या सपने देखते रहते हो तुम ?”

“बहुत सारे सपने संजोकर रखा हूँ जैसे जंगल, जंगल में हमारा घर, घर में अपने माँ-बाप, आस-पडोस, बस्ती वाले सभी ......”

जैसा कि किसी ने बंद घर का दरवाजा खोल दिया हो। अंधेरे में मकडियों के जाल, सौंधी-सौंधी सी गंध और पेट के बल सोया हुआ हो उसका बचपन।

उदास होकर दीर्घ श्वास छोड़ी थी चैती ने। चैती के दीर्घ श्वास के साथ घुल जा रही थी और एक दीर्घ श्वास ।

दोनों एक दूसरे के अस्तित्व को अनुभव करने का प्रयास कर रहे थे और मजबूती से जकडते गये अपनी बाहों में, एक दूसरे को।

स्रोत में बहते हुये दो मनुष्यों की तरह।

---.

(क्रमश: अगले अंकों में जारी…)

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रचनाकार: सरोजिनी साहू का उपन्यास : पक्षी-वास (4)
सरोजिनी साहू का उपन्यास : पक्षी-वास (4)
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