कई बीमा-मित्रों के कहने पर ‘सच का सामना' कार्यक्रम के दो अंक देखे। एक अंक अभिनेता यूसुफ हुसैन वाला और एक अंक विनोद कांबली वाला। मैं न...
कई बीमा-मित्रों के कहने पर ‘सच का सामना' कार्यक्रम के दो अंक देखे। एक अंक अभिनेता यूसुफ हुसैन वाला और एक अंक विनोद कांबली वाला। मैं न तो रोमांचित हुआ और न ही असहज। सच को सार्वजनिक रूप से स्वीकारने में कितनी कठिनाई और असहजता होती है, यह अवश्य देखा।
‘सच' की आवश्यकता, अपरिहार्यता, महत्व, पावनता आदि को लेकर अब तक जो कुछ भी कहा जा चुका है वह सब भी हमें कम लगता है। फिर भी सच का साथ हमें कम ही पसन्द आता है। दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेज़ों द्वारा बरते जा रहे रंगभेद, नस्लभेद और अमानवीय शोषण के विरुद्ध अपने अभियान के दौरान गाँधी ने ‘ईश्वर ही सत्य है' कहा था। किन्तु उन्हीं गाँधीजी ने भारत लौट कर जब उन्हीं अंग्रेज़ों के विरुद्ध अभियान चलाया तो उन्होंने ईश्वर और सत्य को परस्पर स्थानापन्न करते हुए कहा - ‘सत्य ही ईश्वर है।' समूचा विश्व साक्षी है कि गाँधी ने अपने ईश्वर को केवल उच्चारा नहीं, अपनी सम्पूर्णता में अंगीकार उसे आजीवन जीया। गाँधी मनुष्येतर कुछ भी नहीं थे। वे हाड़-माँस के, ‘ढाई पसली' वाले सामान्य मनुष्य ही थे। किन्तु ‘सत्य के संग' ने उन्हें अनोखा और अद्वितीय बना दिया।
यह यदि ‘सत्य की विशेषता' है तो ‘सत्य का खतरा' भी है। सच का साथ करना में जोखिम भरा तो है। और जोखिम उठाना हमारी फितरत में नहीं। इसीलिए हम पूरी सत्य निष्ठा से, सच से परहेज करते हैं। यह अलग बात है कि अन्ततः हमारे झूठ की कलई खुलती ही है और तब हमें जो नुकसान होता है वह उस नुकसान से कहीं अधिक होता है जो सच बोलने पर होता।
कोई माने न माने, यह सौ टका सच है कि हमारा लोक जीवन और लोक व्यवहार झूठ के सहारे ही चल रहा है। इसीलिए बात करते समय हमें बार-बार सौगन्ध खानी पड़ती है और ‘सच कह रहा हूँ' या ‘सच मानिएगा' जैसे जुमले प्रयुक्त करने पड़ते हैं। इतना सब करने के बाद भी हमें सन्देह बना ही रहता है कि सामने वाले ने हमारी बात को सच माना या नहीं। वस्तुतः यह सन्देह सामने वाले पर नहीं, अपने आप पर ही होता है क्यों कि हम भली प्रकार जानते हैं कि हमने सच नहीं कहा।
सच केवल सच होता है। वह सदैव ‘पूर्ण' होता है। आंशिक या आधा-अधूरा नहीं होता। बरसों पहले मैंने एक कविता पढ़ी थी। कुल जमा दो पंक्तियों की। प्रत्येक पंक्ति में बस, में दो-दो शब्द। आप भी पढ़िए -
झूठ सफेद
सत्य रंगहीन
इन चार शब्दों में सच का और हम मनुष्यों का समूचा चरित्र बखान कर दिया गया है।
सच का कोई रंग नहीं होता। वह पारदर्शी होता है। वह आवरण का काम नहीं करता। किन्तु हम मनुष्यों को जीवन में रंगीनी भी चाहिए और आवरण भी। हम ‘होने' में नहीं, ‘दिखने' में विश्वास करते हैं। जाहिर है, सच तो हमारे काम आ ही नहीं सकता। किन्तु इसे विसंगति कहिए या विचित्रता या कि हमारी विवशता कि सच के बिना भी हमारा काम नहीं चल सकता। सो, हम सब सच को या तो सुविधानुरूप वापरते हैं या फिर मजबूरी में। गाँधी के लिए सत्य उनकी प्रकृति था और हमारे लिए मजबूरी। इसीलिए ‘मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी' जैसा मुहावरा लोक प्रचलन में आया।
सच के साथ कठिनाई यह है वह अजर-अमर है। वह कभी नष्ट नहीं होता। वही स्थायी है। चूँकि वह समूची सृष्टि में समान रूप से विद्यमान है, इसलिए वह कहीं आता-जाता भी नहीं। जाना तो हमेशा झूठ को ही पड़ता है। कभी गधे के सिर से सिंग की तरह तो कभी सरपट भाग कर। यद्यपि झूठ के पाँव होते ही नहीं।
सच तो हमारा जीवनाधार है। हमारे वेदों/उपनिषदों की प्रारम्भिक प्रार्थनाएँ भी ‘असत्य से सत्य की ओर' जाने के लिए की गई हैं। सच तो यह है कि झूठ से हमें क्षणिक और तात्कालिक सुख भले ही मिल जाए किन्तु वास्तव में वह आत्म भ्रम ही है। ‘जीवन-आनन्द' तो सच में ही है। हम सारी दुनिया को धोखा दे सकते हैं, खुद को नहीं। जाहिर है कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति सत्य का वाहक तो है किन्तु सच से परहेज करने की कोशिश करते हुए। यह बिलकुल वैसा ही है जैसे कि खिजाब लगाए कोई व्यक्ति अपने बालों के काला होने का भ्रम पैदा करते हुए भली भाँति जानता है कि सारी दुनिया जानती है कि उसके बाल काले नहीं हैं।
हमारे ऐसे ही, झूठ आधारित सामान्य लोक व्यवहार के कारण सच को भयानक माना जाने लगा है। इतना भयानक कि उसका सामना करने के लिए हमें अत्यधिक साहस की आवश्यकता होती है।
मैं जब दसवीं/ग्यारहवीं में था तब अपनी बात मनवाने के लिए एक बार घरवालों को धमकी दे दी थी - ‘मैं मर जाऊँगा।' माँ सचमुच में डर गई थी जबकि पिताजी ने मेरी बात नोटिस ही नहीं लिया था। उस दिन दादा बाहर थे। लौटने पर उन्हें जब मेरी धमकी वाली बात मालूम हुई तो मुझे अपने पास बैठा कर कहा - ‘धमकी उस बात की देनी चाहिए जो अनिश्चित, अनजानी हो। तू जिस दिन पैदा हुआ, उसी दिन तेरी मृत्यु निश्चित हो गई है। तू चाहे, न चाहे, तेरी मृत्यु तो निश्चित है। इसकी क्या धमकी देनी? यदि धमकी देनी ही है तो इस तरह दे कि यदि तेरी बात नहीं मानी तो तू न तो मरेगा और न ही घर छोड़ेगा बल्कि घर में ही रहते हुए, सबकी छाती पर मूँग दलेगा।'
सो, मनुष्य तो पैदा ही सच के साथ हुआ है। सच तो उसका सहोदर है। भला उससे क्या घबराना? क्या डरना? इसलिए भलाई तो इसी में है कि जब हम सच को साथ ले कर पैदा हुए हैं तो जीवन में भी उसके हाथ में हाथ डाल कर चलें। तब, उसका सामना करने की नौबत ही नहीं आएगी।
सत्य व्यक्ति को निर्भय ही नहीं, ताकतवर भी बनाता है। किन्तु जैसा कि मैंने कहा है, सत्य के अपने खतरे भी हैं। यह आदमी को विशिष्ट ही नहीं पूजनीय तक तो बना देता है किन्तु अकेला भी कर देता है। वह सबसे अलग, शिखर पर अवश्य दिखाई देगा किन्तु सब जानते हैं कि शिखर पर आपको एकान्त ही मिलता है और शिखर पर प्राण वायु की भी कमी होती है। सो, सच बोलने वाले की तारीफ सब करेंगे, उसे समारोहों में बुला कर सम्मानित भी कर देंगे किन्तु न तो उसके पास बैठेंगे और न ही उसे अपने पास बैठाएँगे।
सो, ‘सच का सामना' कार्यक्रम का सच यही है। कार्यक्रम के सवाल अटपटे और असहज करने वाले अवश्य हैं किन्तु प्रत्येक व्यक्ति ने (वह पुरुष हो या स्त्री) अपने जीवन में कम से कम एक बार अपने जीवन साथी से मुक्ति की बात अवश्य सोची होगी। प्रत्येक व्यक्ति ने कम से कम एक बार दुराचार की कामना अवश्य की होगी। प्रत्येक व्यक्ति ने यथासम्भव वर्जनाएँ तोड़ी ही होंगी। हममें से अधिकांश इसलिए चरित्रवान बने हुए हैं कि उन्हें या तो चरित्रहीन होने के अवसर नहीं मिले और यदि अवसर मिले तो वे साहस नहीं कर पाए। कार्यक्रम के सवालों को मैंने ध्यान से सुना और मेरी हँसी छूट गई। सवाल होता है - ‘क्या आपने कभी......?' सवाल में यह ‘कभी' ही महत्वपूर्ण है। प्रश्न आपके आपवादिक व्यवहार को आपका सामान्य व्यवहार निरूपित नहीं करता। किन्तु सामना करने वाला यही मान कर चलता है कि उसका आपवादिक आचरण ही उसका सामान्य आचरण मान लिया जाएगा। हम सब सामान्य मनुष्य हैं किन्तु मजे की बात यह है कि हर कोई अपने आप को सबसे अलग, अनूठा और अपनी किस्म कर इकलौता दिखाना चाहता है। इस दिखावे के चक्कर में ही झूठ की तिजोरियाँ भर ली जाती हैं। इसीलिए ‘सच का सामना' जैसे कार्यक्रम आकार ले पाते हैं।
लगे हाथों यह भी बता दूँ कि यह कार्यक्रम देखते मैंने अपने आप को तोला और अनुभव किया कि पुरस्कार के लिए यदि प्रश्नों के क्रम की अनिवार्यता के स्थान पर प्रश्नों की कुल संख्या को आधार बनाया जाए तो मैं लगभग 80 लाख रुपये जीत सकता हूँ।
--
Vishnu Bairagi,
Full timer agent of LIC of India
Post Box No. 19,
RATLAM - 457001
(M.P.)
Mobile - 098270 61799
My Blog - http://akoham.blogspot.com
http://mitradhan.blogspot.com
बहुत ही खूबसूरत. सत्य ही शिव भी है.
जवाब देंहटाएंसुंदर, शिव और सत्यालेख तो यही है। इस कार्यक्रम की सबसे बड़ी उपलब्धि ब्लाग जगत के लिए यह मानता हूँ कि कम से कम बैरागी जी का मौन तो टूटा।
जवाब देंहटाएंएकदम सही बात ...
जवाब देंहटाएं