(इस शीर्षक युक्त हास्य-व्यंग्य संकलन पुस्तक के लिए यशवन्त कोठारी को राजस्थान साहित्य अकादमी का वर्ष 2000 का रु. 11 हजार का पुरस्कार मिल चुका...
(इस शीर्षक युक्त हास्य-व्यंग्य संकलन पुस्तक के लिए यशवन्त कोठारी को राजस्थान साहित्य अकादमी का वर्ष 2000 का रु. 11 हजार का पुरस्कार मिल चुका है. )
�� जैसा कि आप सभी जानते हैं जब मास्टर की मौत आती है तो वो मकान बनवाने के चक्कर में पड़ता है, वैसे भी एक कहावत है कि मूर्ख और बेवकूफ व्यक्ति मकान बनवाता है तथा समझदार व्यक्ति उसमें रहता है। प्राचीन भारतीय विचारकों ने पंच मकारों पर विशेष बल दिया है जो व्यक्ति को नष्ट कर देते हैं, इन मकारों में मकान भी है अन्य मकार हैं, मांद, माण्डा, मौत और मैथुन । जो इनमें उलझा वो संसार रूपी समुद्र में डूबा और उसका जीना हराम हो जाता है ।
�� मेरे साथ भी यही हुआ । मैं कभी स्वप्न में भी मकान बनवाने के बारे में नहीं सोचता था, मगर जब सिर पर आ पड़ी तो मालूम हुआ आटे दाल का भाव । मैं अपने किराये के मकान में न केवल खुश था, वरन् मकान मालिक तथा मालकिन से मेरे संबंध भी बहुत अच्छे थे । अक्सर वे मुझे खाना खिलाते, चाय पिलाते और पुत्रवत् स्नेह करते थे, मगर एक रोज बातों बातों में मालकिन ने मुझ से कहा-
�� भायाजी कब तक किराये के मकान में सड़ते रहोगे ।
�� मैंने कहा-आप मुझे निकालना चाहती हैं ?
�� -या बात कोने भायाजी । आप तो जानते हो, जब तक चाहो रहो पर अब आप अपना मकान बनालो । एक प्लाट बना डालो ।
� यह बात मुझे तो नही जंची लेकिन मेरी धर्मपत्नी को ऐसी जंची कि बस मत पूछो । घर पर सुबह उठने से लगा कर रात को सोने तक प्लाट पुराण का ही वाचन होने लगा । मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता था । मकान बनवाने के झंझट में मैं पड़ना नहीं चाहता था, मैं कई ऐसे मकान मालिकों को जानता था जो मकान बनवाने के चक्कर में अपना सुख चैन गंवा चुके थे । मकान मालिक के बजाय ये मकान बनवाने वाले मुझे बेलदार या कारीगर ज्यादा दिखाई देते थे । जैसे-जैसे मकान पर प्लास्टर चढ़ता था वैसे-वैसे इनके चेहरे से प्लास्टर उतरता था और एक स्थिति ऐसी आती थी कि चेहरा चमक रहित हो जाता था और मकान जो है वो चमकने लग जाता था । मैं इस सरदर्द से दूर रहना चाहता था । इसी कारण रोज-रोज की चकचक से मैंने उचित समझा कि बना बनाया हाउसिंग बोर्ड का मकान लिया जाये । घर पर चर्चा की तो पत्नी-रूपी बंदूक और कारतूस-रूपी बच्चों ने एक साथ जवाबी हमला किया ।
�� हम नहीं रहेंगे उस माचिस की डिब्बीनुमा मकान में ।
�� क्यों भाई क्या खराबी है इन मकानों में ? हजारों लोग रह रहे हैं । सस्ते और अच्छे हैं, किश्तों पर मिल रहे हैं, लोन मिल जाता है । पास पड़ौस अच्छा है । मैने बोर्ड के जन सम्पर्क अधिकारी की तरह आवासन मंडल के मकानों की तारीफों के पुल बांधने शुरू किये । मगर चार के विरूद्ध एक मत से हाउसिंग बोर्ड के मकान को निरस्त कर दिया गया । मुझे यह सख्त हिदायत दी गई कि इस रद्दी, घटिया, केवल रेत से बने रेल के डिब्बेनुमा मकानों में पंजीकरण नहीं कराया जाये और यदि बोर्ड का मकान लिया गया तो उसमें हम लोग नहीं रहेंगे । मैंने आवासन मण्डल के मकान को आवास नहीं बनाने का फैसला किया ।
��� इधर मकान मालकिन के साथ-साथ मकान मालिक ने भी अपना दबाव बनाये रखा । वे जानते थे कि थोड़ी-सी छूट देने मात्र से ही मैं मकान बनवाने का विचार त्याग सकता था और इसके परिणाम उनके हक में अच्छे नहीं होने वाले थे । वे मुझे अक्सर ललकारते ।
�� बड़े प्रोफेसर बने फिरते हो ? एक छोटा-सा प्लाट तो बना नहीं सकते ? सफल लेखक वही है जो कहानी के बजाय प्लाट बनाता है । सृजन का असली सुख तो मकान बनाने में है । मैं खून के घूंट पीकर इन बातों को पचा जाता ।
�� आखिर मैंने रास्ता बदला । इस बार किसी ठेकेदार द्वारा बना बनाया मकान खरीदने की कोशिश में हाथ पांव मारने लगा । शहर के आस-पास ठेकेदारों ने कोई जमीन नहीं छोड़ी थी, तथा दूर-दूर तक उन्होंने जमीनें कब्जे में कर रखी थीं और इन जमीनों पर वे छोटे-छोटे खूबसूरत बंगले बना बनाकर बेच रहे थे । मकान देखते ही पसन्द आ जाते थे । मगर कीमतें सुन कर पांव तले की जमीन खिसक जाती थी । शानदार फिनिशिंग वाले इन मकानों की कीमतें भी शानदार, कालोनी भी शानदार, आसपास के पड़ौसी भी शानदार, मगर जेब में रकम शानदार हो तो बात� बनें । एक बड़े ठेकेदार के आलीशान कार्यालय में घुसा तो मैनेजर ने पूछा-आप किसा पर चढ़ कर आये हैं ?
�� साइकल पर । मेरा जवाब सुनकर मैनेजर के बजाय ठेकेदार बोल पड़ा ।
�� साइकल पर आने वाले हमारा मकान नहीं खरीद सकते । कार वाले ही हमारे मकान एफोर्ड कर सकते हैं । आप हमारा और खुद का समय बर्बाद न करें ।
�� इस तरह अपमानित होकर मैं कई ठेकेदारों के चंगुल से जीवित बच निकला । वास्तविक स्थिति का पता तब चला, जब ऐसे मकानों के खरीदारों से मिला । लगभग रह एक ने मकानों की कमियों, खामियों पर पुस्तक लिखने योग्य सामग्री जमा कर रखी थी । एक बात जो हर खरीददार ने बताई वो यह कि इस प्रकार के बने बनाये मकानों का जीवन दो चार साल से ज्यादा नहीं होता है, और पहली बरसात के बाद छत का, दूसरी बरसात के बाद दीवारों का तथा तीसरी बरसात के बाद फर्श का नवीनीकरण कराना पड़ता है । चूकि पूरी राशि एक मुश्त ले ली जाती है और कब्जा दे दिया जाता है अतः कोई कानूनी कार्यवाही संभव नहीं होती है । ठेकेदार अक्सर दस-बीस मकान बना बेच कर शहर छोड़ कर चला जाता है या फर्म का नाम बदल कर दूसरे क्षेत्र में बंगले बनाने लग जाता है। सरकारी भूमि पर अतिक्रमण के भी किस्से खूब चलते हैं । जो लोग सरकारी प्लाटों पर बने बनाये बंगले खरीदना चाहते थे, उन्हें कम से कम दस लाख रूपयों की जरूरत होती थी, जो कम से कम मध्यम वर्गीय, ईमानदार, नौकरीपेशा के बस की बात नहीं थी । मैंने ठेकेदारों द्वारा बनाये गये शानदार बंगलों में घुसने का सपना देखना बंद कर दिया और किसी बहुमंजिली इमारत में फ्लेट खरीदने के बारे में सोचा । इस क्षेत्र का हाल और भी ज्यादा बुरा था । न जमीन, न मकान, न फ्लेट, केवल एक नक्शा या मॉडल जिसमें बताया जाता कि छठी मंजिल पर आपका फ्लेट होगा । ड्राइगं-डाईनिंग, बेड रूम जैसे बड़े-बड़े नाम और अभी जमीन का पता नहीं । कहीं-कहीं पहली मंजिल का काम चालू मिलता, मगर फ्लेट पाँचवी, छठी मंजिल का बुक किया जाता । कीमतें बंगलों से ज्यादा क्योंकि ये बहु मंजिली इमारतें शहर के दिल में बसी हुई थीं ।
�� मैंने एक बिल्डर से पूछा-छठी मंजिल का फ्लैट कब तक तैयार हो जायगा ।
�� आप पूरी राशि जमा करा दीजिये । और फ्लैट तैयार है । लेकिन अभी तो नीवें ही खुद रही हैं ? आपके पास भी कौन से 10 लाख रूपये नकद हैं ? जब तक आप पैसों का बन्दोबस्त करेंगे तब तक छठी मंजिल भी बन जायगी । यह कह कर वो अपनी शानदार कार में बैठ कर चला गया । मैं कार का धुआं देखता ही रह गया । घर आकर घरवालों को फ्लैट के बारे में जानकारी दी । तो बच्चा बोला ।
�� पापा फ्लैट तो भूल कर भी मत लेना । उसमें केवल एक बालकनी होती है ।
�� और उसमें तुम बैठे रहोगे । छोटे साहब ने बात पूरी की ।
�� फिर फ्लैट में ऊपरी मंजिल बनाने की कोई गुंजाइश भी नहीं होती है । पत्नी ने बुद्धिमानी की बात की ।
�� मैं उसकी बुद्धि का कायल हो गया क्योंकि यह छोटी-सी बात मेरी बुद्धि में नहीं आई थी, कि फ्लैट में छत के अधिकार नहीं मिलते । मैंने फ्लैट खरीदने का विचार छोड़ दिया । अब जो एक मात्र मकान पाने का तरीका बचा था वो यह था कि एक छोटा-सा प्लाट खरीदा जाये और अपनी हिम्मत, शक्ति के अनुसार निर्माण करके रहा जाये, मगर यह आसान-सा दिखने वाला काम बड़ा कठिन था । चाहूं तो इस अकेले प्रकरण पर एक उपन्यास लिख दूं, मगर हिन्दी में उपन्यासों की जो स्थिति है उसे देखते हुए एक व्यंग्य ही काफी होगा । सबसे पहले आप प्लाट देखने और खरीदने की राम कहानी सुनो ।
�� जब भी मैं कोई प्लाट देखता, बच्चे उसे रिजेक्ट कर देते । सामान्यतया बच्चे पूरब का, कार्नर का प्लाट पसन्द करते, मैं उत्त्ार का पसन्द करता । कार्नर का प्लाट नहीं मिलता और मिलता तो दाम ज्यादा होते । सोसायटी के प्लाटों में बड़ा झगड़ा, विकास प्राधिकरण के प्लाटों का मिलना मुश्किल, जो मिलते वो दो या तीन बार बिके हुए मिलते । सोसाइटी वाले एक प्लाट को चार पाँच को बेचते जो पहले बना कर रहने लग जाता उसी का प्लाट मान लिया जाता । बाकी लोगों को अन्य कॉलोनी में प्लाट देने का वायदा किया जाता । या किश्तों में पैसा वापस देने की बात की जाती । एक सोसायटी वाले ने मेरे से कहा-
�� बाबूजी प्लाट खरीदने के लिए शेर का दिल चाहिए । आप जैसे चिडि.या के दिल वाले लोग प्लाट नहीं खरीद सकते ।
�� मैं यहां भी अपमानित नहीं होना चाहता था, अतः घर वालों से बिना पूछे ही एक प्लाट के लिए अग्रिम राशि जमा करादी ।
�� दो साल की लम्बी यात्रा के बाद आखिर वो प्लाट मुझे मिल ही गया । पास पड़ौस में मकान बन चुके थे इस कारण मेरे प्लाट का आकार सिकुड़ गया था । जब मैंने आसपास के लोगों से पूछा कि मेरे प्लाट का आकार कम कैसे हो गया तो उन्होने विनम्रता से कहा -
�� सर्दी के मौसम के कारण प्लाट का आकार सिकुड़ गया होगा ।
�� मैं समझ गया कि जो बची हुई जमीन है उस पर कब्जा करलो । मैंने चारदीवारी बनाना शुरू की, मगर मेरी किस्मत में शायद यह प्लाट था ही नहीं, क्योंकि कुछ दादा किस्म के लोगों ने मुझे वहां से भगा दिया । मैं सोसायटी वाले की शरण में गया उसने मुझे एक अन्य सोसायटी में जमीन� देने का वायदा किया और वास्तव में इस बार अच्छी जमीन का वादा किया । इस बार जो जमीन मिली वो इसलिए अच्छी थी कि वहां पर कोई रहता नहीं था । मैंने चार दीवारी बनानी शुरू की, कोई आपत्ति करने नहीं आया । बाद में पता चला कि वो तो सरकारी जमीन थी, इसके पहले कि पुलिस मुझे ढूंढ़ती मैं वहां से नौ दो ग्यारह हो गया । तीसरा और अंतिम प्लाट मैंने फिर ढूंढ़ा और इस बार कोई गड़बड़ नही हुई । जमीन मिल गयी चारदीवारी बन गई । लेकिन नक्शा पास कराना, लोन प्राप्त करना और मकान बनाना ये तीन काम ऐसे थे जो मुझे स्वर्गीय बनाने की हिम्मत रखते थे।
�� इस संबंध में मैंने एक जानकार आदमी की राय ली तो वो बोला-यार नक्शे-वक्शे के झंझट में मत पड़ो । पहले मकान बनालो फिर फुरसत से नक्शा बनाते रहना । वैसे मकान बनाने के बाद नक्शे की क्या वकत है । मैं समझ गया । मैने नक्शे के बजाय मकान बनाना बेहतर समझा । लेकिन अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे । कारीगर, मिस्त्री, बेलदार, ईंटवाला, सीमेंटवाला सब यही चाहते थे कि बाबूजी के पास लंगोट के अलावा जो भी है वो� खुद प्राप्त कर ले । इधर शाम को बेलदार जो काम अधूरा छोड़ जाते उन्हें पत्नी मुझे बताती और मैं वे सभी काम पूरे करता । इन दिनों पति की एक नई परिभाषा बनी- जो बेलदार नहीं करता वो काम पति करता है । कारीगर मुझे रोज नये नये सब्ज बाग दिखाता । वो कमरे में आलमारी, खिड़की, शो पीस और न जाने क्या-क्या पैदा कर देता । दासे से मठोड़ तक आते-आते मेरी पूंजी समाप्त हो चूकी थी मैं कुछ समय के लिए काम रोकना चाहता था, मगर कारीगर नहीं माना वो काम पर आता रहा । मेरे से बिना पूछे उधार सामान आता रहा । मकान का काम चलता रहा । अब मकान मेरा नहीं कारीगरों - बेलदारों का था । वे जैसा चाहत करते । नक्शा भी बदल देते, शुभ-अशुभ के नाम पर पूजा पाठ करवाते, कमरे की जगह चौक, चौक की जगह रसोई घर बना दिया । मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पाया । मकान मेरा, निर्णय कारीगर का ।�
�� जैसे तैसे मामला छत तक पहुँचा । शंटिग वाले आये। ठेकेदार मेरी तरफ देखता ही नहीं । वो तो बस कारीगर का गुलाम था । कारीगर और उसने मिल कर छत की व्यवस्था कर दी । मैंने कुछ गहने बेचे और छत डलवाने की तैयारी कर ली । छत डलने तक कारीगर, बेलदार, ठेकेदार, सीमेंट, बजरी, लोहे वाले सब चुप थे, मगर छत डलते ही सब ने हाथ फैला दिये और बिलों का भुगतान करते-करते मेरी तो कमर टूट गयी । जी․पी․एफ․,जीवन बीमा, राज्य बीमा, मित्रों से उधार सब कर चुका था, रिश्तेदारों ने घर आना बंद कर दिया क्योंकि मैं सभी से उधार मांगने जाता था । हर एक व्यक्ति कड़का था क्योंकि मैं सुपर कड़का था । अक्सर मित्र कहते -
�� यार यह ताजमहल कब तक पूरा होगा ? मैं इस मजाक को पी जाता क्योंकि मकान ताजमहल नहीं खण्डहर था । यह ढाँचा सुबह शाम मेरा मुंह चिढ़ाता था । फिनिशिंग के लिए कोई उधार देने को तैयार नहीं था, सब संभव लोन ले चुका था । पुस्तकों से, लेखों से जो मिलता था उससे बेलदारों की हाजरी चुकाना मुश्किल था । ऊपर से बारिश आ गयी थी । अधूरा मकान मेरी इज्जत का फलूदा लगता था । लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी । और एक रोज इसी अधूरे मकान में जिसमें फर्श नहीं था, खिड़कियां खुली थीं और मात्र एक दरवाजा था, शिफ्ट कर लिया । सभी ने बहुत आश्चर्य किया मगर इस अधूरे मकान में मैं आज भी रह रहा हूँ, और आपसे निवेदन करता हूं कि आप ईश्वर से प्रार्थना करें कि मेरा यह मकान पूरा हो, मैं नांगल करू और आप सभी को बुलाऊं । जब भी मैं किसी अधूरे मकान को देखता हूं तो समझ जाता हूं कि यह किसी मास्टर के अधूरे सपनों का अधूरा ताजमहल है और मेरी आखें भर आती हैं । ईश्वर करे किसी का मकान अधूरा न रहे ।
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यशवन्त कोठारी
86, लक्ष्मीनगर ब्रह्मपुरी बाहर
जयपुर� 302002, फोन 2670596
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