स्तब्ध ! निःशब्द ! किंकर्तव्यविमूढ़ ! एकदम जड़ से हो गए हैं, रघुनन्दनजी एवं उनकी पत्नी। आनंदित हों या दुखित नहीं समझ पाए हैं। अभी...
स्तब्ध ! निःशब्द ! किंकर्तव्यविमूढ़ ! एकदम जड़ से हो गए हैं, रघुनन्दनजी एवं उनकी पत्नी। आनंदित हों या दुखित नहीं समझ पाए हैं। अभी तक अपने आपको वे लोग सर्वाधिक परोपकारी, परमार्थ में लिप्त आदर्श मानते रहे हैं। पर--उनकी ये प्रबल धारणा कहाँ विलुप्त हो गई है। पल भर में दर्पण स्वयं उनको अपना प्रतिबिम्ब दिखला गया है।
� आत्मज्ञान सच्चा आनन्द प्रदान करता है। इन क्षणों में वे दोनों अनायास इतने-अकेले दुर्बल सा अनुभव क्यों कर रहे हैं। मन की अन्तचेतना झकझोर दे रही है। आध्यात्मिक विचारों की भावना प्रगट होनी चाहिए। मानव जीवन की सफलता भी इन्हीं पर आधारित होती है। अपने आदर्शों का पालन स्वतः करते आए हैं वे। पर उनके नियम धर्म पालन में कहाँ क्या छूट गया है।
इतनी ऊंचाइयों पर पहुंचने का श्रेय रघुनन्दन जी एवं उनकी पत्नी यशोलक्ष्मी इन्हीं विचारों को दिया करते। अभी कुछ समय उपरान्त ही उन्हें प्रदेश के राज्यपाल के द्वारा ‘सर्वोच्च गौरवशाली
मिलना है। जीवन के समस्त श्रम का सुफल' जो वे दोनों अब तक निभाते आए हैं। पर.......अन्तर्मन की इस आवाज को वे दबा नहीं पाते हैं। क्या वे वास्तव में इस पारितोषिक के हकदार हैं।
क्यों ? प्रश्न सा गूंजने लगता मन में।
इसी प्रश्न ने सहसा यहाँ प्रगट होकर उनकी इतनी बड़ी उपलब्धि को क्षण भर में बौना बना दिया है। समय से जागृत कर चेतन कर दिया है। सही रूप से मार्ग निर्देशित करके। सिर झुका लिया है उन्होंने। उसके उच्च विचारों का अक्षरशः न केवल पालन करने हेतु बल्कि अपने कार्यों द्वारा भी स्वयं को बदलने का प्रण कर लिया है। और.......सपत्नीक रघुनन्दनजी आगे, नहीं ही बढ़ पाए हैं। पुनः उसे अपने साथ लेने हेतु आतुर होकर वापस लौट पड़े हैं। मन की दुविधा लुप्त हो चली है। बिखरती भावनाओं को एक सही दिशा मिल गई है। अपनी उस कमी को ही दूर करने की शुरूआत हो चुकी है।
� ‘विचार थमे नहीं हैं, सोचते हैं।' अभी तक के जीवन में किए गए सार्थक प्रयासों व सामाजिक कार्यो को एक नया आयाम, नए रूप में प्राप्त होने जा रहा है रघुनन्दन जी को। आभिनन्दन हेतु जा रहे हैं। प्रसन्नता किसे नहीं होती है। फिर इस दुर्लभ पारितोषिक की तो कब से राह देखते आ रहे हैं। अब राज्य सरकार का निमंत्रण पाकर अधीर ही नहीं उत्सुक भी हैं। शीघ्र अपना पुरस्कार पाने को। अपार वैभव, धन-समृद्धि, माँ लक्ष्मी की कृपा दृष्टि, सर्व सुख संपदा का साम्राज्य है उनके पास। जिस काम में वे हाथ डालते हैं, वह सहज प्राप्य होती है। पूरी निष्ठापूर्वक, सावित्क-धर्माचरण, कर्तव्य परायण, मर्यादित रहकर-परसेवा में पति-पत्नी दोनों को पूर्ण विश्वास है। दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि होती जाती है। तब भी विचारों में सदा मगन रहा करते हैं। कैसे और आगे बढ़ा जाए ?एक छोटे से व्यवसाय से कदम बढाकर, आज इन ऊंचाइयों पर वे किस तरह पहुंच गए हैं वो ही जानते हैं। अन्तस्थल के किसी कोने से एक निर्बल सी आवाज उनके कानों में आ टकराती है। इसके लिए भी कितने यत्नपूर्वक कूटनीति अपनानी पड़ी है। वरदहस्त से वे, दान-दक्षिणा परहित में विश्वास करने लगे। जिससे उन्हें प्रसिद्धि प्राप्त होने लगी। अनवरत आगे बढ़ने के लिए, उन्होंने यही मार्ग अपना लिया है। मन की इस उक्ति को वे प्रायः झटक देते।
बांटेंगे तभी तो पाएंगे ‘प्रसिद्धि एवं समृद्धि।' नाम से प्रसिद्ध होंगे तभी सम्मानित होंगे। जीवन का लक्ष्य उन्होंने यही बना लिया है। पति-पत्नी दोनों ने अपनी सारी मानसिक, शारीरिक शक्ति भी लगा दी है। फलस्वरूप ‘कुबेरपति' बन गए हैं।
संसार की समस्त खुशियाँ व अपना प्यारा परिवार है उनके पास। सच्चे अर्थो में सहभागिनी, सहधर्मिणी ईश्वर में सच्चे आस्था रखने वाली पत्नी। यशोलक्ष्मी यथा नाम तथा गुण। हर कदम साथ रखती हैं। नाजों से पला, पलक पांवड़ों पर बिठाला, लाड़ला बेटा ‘दिव्यांशु'। ‘सरस्वती देवी' की दया से अत्यन्त मेधावी, हर चीज में सदैव आगे अग्रणी रहने को ही उत्सुक रहता। यशोलक्ष्मी व रघुनन्दन जी को एक यही पीड़ा रहती। बेटे से उनके विचारों का तारतम्य न रहता, भावनाएं कभी नहीं मिलतीं। पति-पत्नी दोनों ही उसे अभी अपने अनुसार नहीं ढ़ाल पाए।
� पश्चिमी सभ्यता के आचार विचार, आधुनिकता में मग्न, सबसे विलग रहता। अपने दोस्तों की फौज से घिरा, गीत-संगीत में पूरा मस्त। अपने माता-पिता की ये मान-सम्मान यशोगान परोपकार की भावनाओं को नकारता, कृत्रिमता मानता। उसे सब कुछ बनावटी लगता। यहीं बाप-बेटे में दरार बढ़ती जाती। ये ही ‘जेनरेशन गेप' है। वे सोचते, उन लोगों को बड़ी मानसिक तकलीफ हुआ करती।
� दिल से चाहते, युवा होता बेटा उनकी सभी सभाओं, क्रियाकलापों व सामाजिक कार्यों में हिस्सा लेने लगे तो न केवल मान सम्मान बढ़ने लगेगा वरन नाम भी बढ़ेगा। इसी चाहत से दिव्यांशु चिढ़ा करता। कह भी देता, पापा-माँ ये सारा दिखावा क्यों करते हैं। आप लोग स्वार्थी हैं, ढकोसला है यह सब। अपने आपको प्रदर्शित करने का एक बहाना है। बेटे को वे कभी नहीं समझ पाते। समृद्धि-संपदा प्राप्त करने का ये भी एक शालीन रास्ता है। मुक्त हस्त से बांटोगे सारी नियामत पाओगे। तभी तो हम.......।
बेटे को इस सबसे कोई मतलब नहीं रहता। माँ-पापा चिन्तित दुखित रहते उसकी बातों से। परस्पर वार्तालाप भी सीमित रहता। वैचारिक असामंजस्य भी बना रहता। उत्तर-दक्षिण ध्रूव की तरह। उस दिन भी बड़े मान-मनुहार के बाद वे लोग अपने बेटे दिव्यांशु को साथ चलने हेतु मना पाए। पुरस्कार सम्मान प्राप्त करने के आयोजन में माँ-पिता को बेटे की उपस्थिति अनिवार्य सी ही महसूस हुई। पूरी तैयारी करते देर होती जाती। समय कम बचा है। ड्राइवर से पहले ही हिदायत कर दी, रघुनन्दन जी ने थोड़ी तीव्रता से ही चले चलना। समारोह स्थल पर कुछ पहले पहुंचना ही उचित है। मंदिर में दर्शन करना है यशोलक्ष्मी ने कहा।
पति-पत्नी परस्पर वार्तालाप में मग्न, प्रसन्नचित होते जाते। बेटा गाड़ी में ड्राइवर के साथ अगली सीट में बैठा वाक्मैन लगाए मस्त है। सब कुछ से पूर्णतः उदासीन, तटस्थ भाव से, अपने आप में सिमटा निर्लिप्त सा, विचार मग्न है। बचपन से इतना वैभव पूर्ण सुख, मान सम्मान लाड़ प्यार से ओत प्रोत है। अतः कुछ जिददी सा ही बन गया है। हाँ अपने व्यस्त कार्यक्रमों के कारण ही वे उसे पूरा समय नहीं दे पाए हैं। कभी ‘सामाजिक-व्यवसायिक' व्यस्तता बनी ही रही है। अपने ऐश्वर्य का यही गुरूमंत्र उसे नहीं दे पाते यहीं उनका वश नहीं चलता।
� अपने ड्राइवर से ‘‘थोड़ा और तेज चलो'' कहकर आराम करने हेतु तनिक पलक झपकी ही कि तेजी से बैरक लगने की आवाज आई। झटका लगने से नींद खुल गई। झांककर बाहर देखा, एक नन्हा सा किशोर गिरा पड़ा है। धूल धूसरित गंदा सा, फटे पुराने कपड़े पहने रूआंसा सा उठकर खड़ा हो गया। लंगड़ाकर चल रहा है रघुनन्दन ने कहा, देखकर चला करो, रोड पर चलने का तरीका सीखो। जाने कहाँ से चले आते हैं, हमारी ही गाड़ी से टकराने को। वैसे ही पहले से देर हो रही है।‘‘ तुरन्त जेब से एक सौ' का नोट निकाला, उसे देते हुए कहा ''लो इसे रख लो, दवाई करवा लेना।''
‘‘ओफ, सुबह सबेरे ही जायका खराब कर दिया है'' यशोलक्ष्मी ने प्रगट किया।
अपने संगीत में मगन, दिव्यांशु का ध्यान अभी तक यहाँ नहीं आ पाया था। वह अपने आप में केन्द्रित था। तभी उसकी दृष्टि बाहर पड़ी। ‘‘ड्राइवर रोको।'' अचानक जागृत होकर वह गाड़ी के बाहर लगभग कूद ही पड़ा। अपना वाक्मैन कानों से दूर फेंककर उसने तुरन्त ही उस लगभग रोते हुए बच्चे को, गंदे से लड़के को पूरे अपनत्व से एकदम अपने से लिपटा लिया। प्यार से थपथपाकर पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है दोस्त-कहाँ जा रहे हो।'' फिर उसके पूरे बदन का निरीक्षण किया। उसे घबराया व लंगड़ा सा चलते देखकर, उसके पैर का कपड़ा उठाकर देखा। खून की एक मोटी सी धार बहती नजर आई। अपने गले का कीमती स्कार्फ निकालकर, लड़के के पैर में कसकर बांध दिया। उसके बछड़े को उठवाया, देख ही रहा था कि ‘‘अरे, इतने मैले-कुचैले कपड़े वाले घृणित से लड़के को जाने कितने दिन से स्नान तक नहीं किया है ,क्यों पकड़ लिया है तुमने। अछूत सा , पहले से ही रोगी लग रहा है। अभी तुम, बेटे नहा धोकर तैयार हुए हो, क्या जरूरत है छूने की। पैसे तो दे दिए हैं हमने, अपना इलाज करवा लगा।'' माँ ने कहा।
दिव्यांशु ने पलटकर देखा, ‘‘अभी मंदिर भी चलना है, इन बच्चों को तो कुछ समझ भी नहीं है, ऐसे लोगों को तो तुरन्त कुछ ले देकर रफा दफा करना चाहिये चलो भी बेटे '',पुनः माँ बोली।� तभी दिव्यांशु आगे बढ़ा, उस निर्बल से हमउम्र बच्चे को सहारा देकर कहा, ‘‘पापा इसे काफी चोट लगी है, इसकी मरहम पट्टी जरूरी है। और वो.......।''
� ‘‘बेटे उसका पूरा मुआवजा हमने दे दिया है न कहीं भी अपना इलाज करवा लेगा। तुम कहते हो तो और भी कुछ देंगे ये लो।'' एक नोट और देते हुए कहा, अब चलो भी, देर हो रही है '',पापा ने कहा।
� ‘‘और तुम उसे छुओ नहीं। कितना गंदा है ,तुम्हारे हाथ ,कपड़े गंदे हो जाएंगे। अब डिटॉल , साबुन से हाथ धोना। समय की कमी है गाड़ी में बैठो, छोड़ो उसे चलो।'' माँ का स्वर आया।
..................................दिव्यांशु ने अब सिर उठाया, गंभीर मन्द स्वर में कहा, ‘‘पापा-माँ वो पुरस्कार आप लोगों को मिलना है। देर आप लोगों को हो रही है, आप निकलिये.....। मैं...मैं तो अभी नहीं चल पाऊंगा। हमारे द्वारा इसे कितनी चोट पहुंची है ,मैं इसे कुछ डाक्टरी सहायता देकर आता हूं। यहाँ इसे गांव से तो मीलों दूर जाना होगा, ये जा न सकेगा पैसा होगा तो भी, दवाई नहीं मिल पाएगी तब क्या इसका ये जख्म और नहीं बिगड़ जायेगा।''
� ‘‘अरे चलो भी बेटे, क्या बेकार सिरदर्द पाल रहे हो।'' माँ के कहते ही, बेटे ने प्रत्युत्तर में कहा, ‘‘पर माँ तुम तो उस दिन मेरी उस छोटी सी चोट लगने पर ही कितनी व्याकुल हो उठीं थीं। पापा ने तो बिना देखे ही दो-तीन डाक्टर बुलवा लिये थे। खैर.....मैं तो इसे छोड़कर नहीं चल सकूंगा इसे कुछ आराम दिलवाकर आता हूं तुरन्त। पापा-माँ आप लोग निकलिए, ये तो हाई वे है। कोई भी गाड़ी मुझे मिल जाएगी। मेरे लेट होने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। आप लोग प्लीज समय से पहुंचें।''
� गाड़ी से उतरकर दूर हट गया वह। ‘‘ड्राइवर जाओ तुम, मेरी चिन्ता नहीं करो।''
रघुनन्दन जी-यशोलक्ष्मी देखते रह गए अपने प्यारे लाड़ले बेटे का ये रूप् ‘‘अपूर्व विचार'', जो उनके लिए तो बिल्कुल अनजान थे, नये थे। भाव विव्हल हो आल्हादित हो उठे वे। उसका तो उनकी हर गतिविधियों समाजसेवा पार्टी डिनर आद से अत्यन्त दूर का भी कोई वास्ता नहीं रहा है। माँ पिता की हर बात को दिखावा मानता है। ये आज उसे क्या हो गया है ?
उसके अन्दर ये कैसा मानव छिपा है। कैसे निराले विचार हैं उसके।
� प्रिय बेटे के उच्चवर्गीय अमीरजादे दोस्त, कान फोड़ने वाला संगीत, नित नए फैशनेबल अंदाज को वे सदैव उन सबकी उच्छृखंलता या आधुनिकता मानते रहे हैं।
उसी की ये अनुभूति, मार्मिक-भावना, कौन से पवित्र सुसंस्कारों की प्रतीक है। जिसने उन दोनों को अंतर्मन तक झकझोर कर दिया है। देर होती जा रही है उन्हें, जाना जरूरी है। बेटा बड़ी मुश्किल से साथ आया है। उसकी बात न मानकर जबर्दस्ती नहीं की जा सकती है। उसने जो कार्य सोचा है, पूरा करके ही आएगा, जानते हैं उसकी आदत। यशोलक्ष्मी अवाक् ! हतप्रभ ! दोनों माँ-पिता ने एक दूसरे को निहारा। कुछ भी कहने सुनने सुनने को नहीं बचा है। वे गलत हैं या बेटा सही है। क्या कहें, किससे कहें। हाँ धर्मसंकट आन पड़ा है समक्ष। दोनों तरफ आवश्यक महत्वपूर्ण कार्य है।
� बेटे ने कहा, ‘‘ड्राइवर भैया जाओ, स्टार्ट करो।'' असमंजस में पीछे पलटकर देखा।
साहब लोग मौन हैं स्वीकृति है, सोचकर गाड़ी बढ़ा दी, उसने।
तनिक आगे बढ़ने पर, रघुनन्दनजी चैतन्य हुए। भावों ने अंगड़ाई ली। उन लोगों को पूरे प्रदेश के सर्व अग्रणी-समाजसेवी के रूप में उनके द्वारा दिए दान, किए गए कल्याणार्थ कार्यो पर आधारित ये सर्वोत्कृष्ट पारितोषिक स्वयं प्रदेश के राज्यपाल देने जा रहे हैं। क्या वे इस योग्य हैं ? उनका मन डगमगा गया है। अनजानी व्यथा से मनभर उठा है। क्या वे मात्र दिखावा करते आए हैं अब तक ?अपनी छल प्रपंचमयी कूटनीति अपनाते आए हैं। क्या समृद्धशाली बनने का अचूक हथियार है ये। कुछ भी नहीं सोच पा रहे हैं मन खुंदक सा हो गया है
� उनके अपने बेटे ने इस एक क्षणांश में ‘मानवता' का सही पाठ पढ़ा कर सद्मार्ग दिखला दिया है। सारी ऊंच-नीच, छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, छूत-अछूत, जाति-पांति के भेद को परे हटकर सत्यनिष्ठा से, निःस्वार्थ भाव से मानव पीड़ा बांट रहा है। नन्हें अनजान हम उम्र बच्चे को भी अपने जैसा मानकर कृत्रिमता नहीं, स्वांग नहीं, कर्तव्यपूर्ति नहीं उन्हें सीख दे रहा है। उन्हें लग रहा है आधुनिकता का आवरण तो वे ओढ़े हुए हैं। बेटे के निश्छल भेदभाव रहित वास्तविक स्वरूप ने उन दोनों को गहरी टीस दी है जख्म सा महसूस हो रहा है। उनकी अब तक की कार्यप्रणाली उनको स्वयं छोटा बना गई है। बेटा बड़ा बन गया है यथार्थ प्रगट हो गया है।
� मधुमक्खियां अंधेरे में रहकर कार्य करतीं हैं। विचार मौन में कार्य करते हैं।
‘नेक कार्य' भी गुप्त रहकर कारगर होते हैं यही ज्ञान का सच्चा स्वरूप है। तभी मधु प्राप्त होता है।
� और.......वे लौट पड़े हैं। उस नन्हें किशोर का पूरा स्वास्थ्य परीक्षण कराकर ही आगे जाएंगे सोचकर। पुरस्कृत तो होना है। विलंब से सही। पर वास्तविक पुरस्कार तो उन्हें प्राप्त हो गया है। अपने सपूत की पवित्र भावना जानकर। कितनी बड़ी उपलब्धि प्राप्त हो गई है आज, मन की आँखें भी खुल गई हैं। कल्याणकारी कार्यो की पूर्ण सफलता तभी पूर्ण होती है, जब उनको अपने जीवन में भी अमल किया जाए। किसी भी दिखावे को नहीं। तभी उनका गहरा जख्म भरेगा। समझ गए हैं।
सूर्य जब गहरे बादलों से घिर जाता है, तो उसके प्रकाश का महत्व कम नहीं हो जाता। पवन उन्हें उड़ाकर शीतल जल रूप में बरसा देती है। इन्हीं स्वार्थ रूपी मेघों ने अन्तर्स्थल पर सुसंस्कृत भावनाओं की बौछार कर दी है तन-मन के स्नेह को फैलाकर। अब अनेक उज्जवल रश्मियां पूर्ण गरिमा के साथ ‘‘नव आलोक'' को पूर्ण गगन में विस्तारित करके सुनहरा प्रकाश फैलाकर उल्लासित हो उठीं हैं।
-------------------------------------------------------
लेखिका- श्रीमती अलका मधुसूदन पटेल, बी 16/1 प्रताप नगर जयपुर हाउस आगरा उ.प्र.।
COMMENTS