कफ़न मुंशी प्रेमचंद की सर्वाधिक चर्चित कहानी मानी जाती है। वर्षों तक यह कहानी विभिन्न कक्षाओं के पाठ्यक्रमों में भी रही। इस सच को भी नहीं नका...
कफ़न मुंशी प्रेमचंद की सर्वाधिक चर्चित कहानी मानी जाती है। वर्षों तक यह कहानी विभिन्न कक्षाओं के पाठ्यक्रमों में भी रही। इस सच को भी नहीं नकारा जा सकता कि 20वीं सदी की सबसे विवादित कहानी का श्रेय भी कफ़न को ही जाता है। चर्चा और विवाद के अन्तर्द्वन्द्व पर दृष्टि डाले और कहानी को ब्राह्मणवादी नजरिये से देखें तो कहानी उत्कृष्ट है, क्योंकि धर्मशास्त्रीय मर्यादाओं का पालन करते हुए कहानी में शूद्रों का चाण्डाल रूप प्रस्तुत हुआ है। प्रगतिशील दृष्टि से देखें तो कहानी निकृष्ट है, क्योंकि कहानी में अकल्पनीय अमानवीयता का बोध है।
यहां कहानी के बारे में भी थोड़ा जान लेना समीचीन होगा। 'कफ़न' प्रेमचंद की अन्तिम कहानी है, जो चांद हिन्दी पत्रिका के अप्रेल, 1936 के अंक में प्रकाशित हुई थी। प्रेमचंद ने पहले इसे उर्दू में लिखा था और उर्दू पत्रिका के 'जामियां' के दिसम्बर, 1935 के अंक में छपी थी। कुछ आलोचकों का ऐसा मत है कि कफ़न हिन्दी की मौलिक कहानी नहीं है, बल्कि उर्दू का तर्जुमा है।
कफ़न हिन्दी साहित्य जगत की एक मात्र ऐसी कहानी है, जिसके प्रकाशन की स्वर्ण जयंती 1986 में वर्ष भर मनाई गई। बुद्धिजीवियों और कथा विशेषज्ञों तथा सुधी श्रोताओं के बीच कहानी पर गोष्ठियों, संगोष्ठियों और सेमीनारों का दौर खूब चला। साहित्यिक पत्रिकाओं में विशेष लेख छपे और पूरे साल कफ़न का जश्न रहा। क्योंकि यह कहानी दलितों का मानमर्दन करती है, अतः इस आयोजन पर लाखों रूपये व्यय हुए।
कफ़न के प्रशंसकों में बहुधा वे लोग थे, जिनके पूर्वज कफ़न कहानी के पात्र नहीं थे। कहानी पाठक मन को न केवल घायल ही कर डालती है, बल्कि उसे लहूलुहान भी कर देती है।
कथ्य में व्यावहारिकता उसकी भौतिक सच्चाई की कसौटी होती है। इस भौतिक सच्चाई के बगैर कहानी बिन पंखों के पक्षी के सदृश होगी, जिसके लिए उड़ान भरना तो दूर, छटपटा कर दम तोड़ना नियति है। अपनी व्यावहारिकता के अभाव में कफन कहानी किस कदर बेदम होती जाती है, एक सिहांवलोकन।
जन्म और मृत्यु दो ऐसे शाश्वत सत्य हैं, जब मानव जाति, धर्म, वर्ग का भेदभाव भूल कर संवेदनशील और मानवीय हो जाती है, अगर कोई प्राकृतिक आपदा आड़े नहीं आए।
कहानी के अनुसार रात के समय माधव की पत्नी बुधिया अपनी झोंपड़ी में पड़ी प्रसव पीड़ा से छटपटा रही थी। दर्द के मारे जोर-जोर से कराह रही थी। असहनीय पीड़ा से पांव पटक रही थी। घीसू और माधव दोनों बाप-बेटे अर्थात् बुधिया के ससुर और पति किसानों के खेतों से चुरा कर लाये आलू झोंपड़ी के बाहर अलाव में भून कर खा रहे थे।
औरत, औरत की चाहे कितनी बड़ी दुश्मन हो, वह पिछले सभी द्वेषभाव, मनमुटाव भूल कर प्रसवपीड़ा के वक्त उसे सुलझाने जरूर पहुंचती हैं। प्रायः होता यह कि बिरादरी की बड़ी बूढ़ियां, देवरानी, जेठानी ऐसे अवसर पर गर्भवती महिला की बराबर निगरानी रखती हैं।
प्रसव का ऐसा ही एक प्रसंग 'गोदाम' के 27वें भाग में आता है। गोबर झुनिया को ले कर लखनऊ आ जाता है और खुर्शेद मिर्जा की कोठरी में रहता है। गर्भवती झुनिया को वहां कोई देखने वाला नहीं है। झुनिया पूरे दिनों है, लेकिन दाई-माई का कहीं ठौर नहीं है। पूरा पेट झुनिया पर उसी मोहल्ले की चुहिया नामक एक अनजान महिला की बराबर नजर थी। वह स्त्री धर्म निभाती है-
''चुहिया गोबर से कहती है 'मैं देख लूंगी। बारह बच्चों की मां यों ही नहीं हो गई हूं। तुम बाहर आ जाओ गोबरधन, मैं सब कर लूंगी। बखत पड़़ने पर आदमी ही आदमी के काम आता है।
वह झुनिया के पास जा बैठी और उसका सिर अपनी जांघ पर रख कर उसका पेट सहलाती हुई बोली - मैं तो आज तुम्हें देखते ही समझ गई थी। सच पूछो, तो इसी घड़के में आज मुझे नींद नहींे आई।'
चुहिया स्नेह से उसके केस सहलाती हुई बोली-'धीरज धर बेटी, धीरज धर। अभी छन भर में कष्ट कटा जाता है।'
और चुहिया ने झुनिया को प्रसव पीड़ा से मुक्ति दिला दी। भारी विरोधाभास है। जहां गांव बस्ती है, बिरादरी है, परिवार है वहां तो एक दलित महिला बुधिया को प्रसव के दौरान तड़प-तड़प कर मरने के लिये छोड़ दिया जाता है। जहां शहर है, अपना कोई नहीं है, एक हमदर्द महिला को फरिश्ते के रूप में प्रस्तुत कर गैर दलित महिला झुनिया को बचा लिया जाता है। बस इसलिये न कि अपने पूर्वाग्रहों के चलते प्रेमचंद को कफन में संपूर्ण दलित जाति को जलील, काहिल और संवेदनहीन दिखाना था। घीसू और माधव सौ निखट्टू, नीच और निकम्मे थे, परन्तु बुधिया तो गांव बस्ती में आदरभावी और व्यवहार कुशल थी।
कितना दारूण है कि बुधिया प्रसव पीड़ा से तड़प रही थी और मोहल्ले की औरतें उसके पास नहीं आई। यह बात निहायत बेजा है, और साक्षी है, कहानी की ये पंक्तियां- 'घीसू कहता है - मेरे नौ लड़के हुए, घर में कुछ नहीं था, मगर भगवान ने किसी न किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया।'
बेड़ा पार लगाने वाली बात घीसू की स्वाभाविक दीनता हैं, ध्यातव्य है, घीसू की पत्नी के नौ लड़के हुए। उन नौ लड़कों के जन्म के वक्त घीसू की पत्नी को मोहल्ले की दाइयों या समझदार औरतों के अनुभवी हाथों ने ही प्रसव से निवृत कराया होगा। गांव में जो औरत ज्यादा बच्चे जन लेती है, उसे बच्चा जनाने के लिए 'सयानी' मान लिए जाने का विश्वास आज भी कायम है। नामुमकिन है, बुधिया के प्रसव के समय घर परिवार मोहल्ले की सयानी औरतें नहीं आएं। बुधिया के मरने के बाद उसे रोने के लिये मोहल्ले की औरतों सहित सभी लोग आ गये और घीसू-माधव के आंसू पोछने लगे।
अपनी अव्यावहारिकता के कारण कहानी की यहां सांसे टूटने लगी हैं और डायलेसिस पर आ गई है।
प्रेमचंद की अगली चूक बड़ी चुभती है। प्रेमचंद का जन्म बनारस के लमही गांव में जरूर हुआ। वे गांव में रहे भी जरूर। लेकिन उनको पढ़ते आभास होता है कि गांव की रीति-रिवाजों, परंपराओं और लोकरीतों से उनका कोई सरोकार नहीं रहा। गांव का बुनियादी ज्ञान तो दूर, उन्हें गावों के बारे में सतही बोध भी नहीं था। यही कारण है कि अपनी सधी बुनावट के कारण ग्रामीण परिवेश से अनभिज्ञ शहरी लोगों को उनकी कहानियां आश्चर्य का चौध पैदा करती है, वहीं ग्रामीण लोगों को बिन सिर-पैर की लगती है। कैसे ?
प्रेमचंद घीसू और माधव पिता-पुत्र दोनों को मृत बुधिया के लिये कफन लाने भेजते है। मृृत्यु जैसे अवसरों पर भाई-बन्धु, सगे-संबंधी मृतक के परिजनों को सांत्वना देते हैं। उनको ढांढ़स बंधाते हैं। शोक संतप्त की पीड़ा से आत्मसात करते उनकी भी आंखें रोने लगती हैं। अगर ऐसे गमगीन अवसर पर मृतक के परिजन कफन लाने के लिये जाना भी चाहें तो उन्हें बिल्कुल भी नहीं जाने दिया जाता है। कफ़न लाने का काम रिश्तेदार या खून का रिश्ता रखने वाले करते हैं। प्रायः उस समय कफन के पैसे भी नहीं मांगे जाते। फिर घीसू और माधव का फाका सर्वज्ञात था।
प्रेमचंद ने घीसू और माधव को कफ़न के लिये भेज कर लोक की खिल्ली तो उड़ाई ही है, गांव की चमार जाति को निष्ठुर, निर्दयी और नाकारा साबित करने का दुःसाहस भी किया है। बाप-बेटे को गांव के जमींदार के यहां बुधिया के कफन के लिये चंदा करने भिजवाते हैं। जहां अन्य साहित्यकार जमींदारों को शोषक का पर्याय मान रहे थे, वहीं प्रेमचंद उन्हें दयालु प्रवृत्ति का होना सिद्ध कर रहे थे। यहां प्रेमचंद ने जमींदारी का बड़ी श्रद्धा से यशोगान किया है। जमींदार घीसू की ओर दो रूपये फेंक देते हैं। चंदा बटोरते-बटोरते दोनों के पास पांच रूपये इकट्ठा हो जाते हैं, कहना होगा कि 70 वर्ष पहले यह एक बहुत बड़ी रकम थी।
घीसू और माधव कफ़न के लिये मांगी गई इस रकम को लेकर बाजार गये। बाजार में वे कफन नहीं खरीदने के मन में यूं ही इधर-उधर टटपोले मारते फिरते हैं, खाते-पीते हैं और रात होने का इंतजार करते हैं, ताकि सस्ते से सस्ता कफन खरीद सकें। उनके चेहरे पर इस बात की रंज भी नहीं है कि घर में दो लाशें (बुधिया और उसके पेट का बच्चा) पड़ी हैं। लोकव्यवार में कफ़न खोर को मांसखोर से ज्यादा पतित माना जाता है।
यहां रात होना कहानी का आधारभूत ढांचा है। कहानी में एक त्रासद संवाद है -
माधव बोला- 'हां, लकडी तो बहुत हैं, अब कफन चाहिये।'
'तो चलो, कोई हल्का सा कफन लें।''
'हां और क्या? लाश उठते-उठते रात हो जाएगी। रात को कफ़न कौन देखता है।'
कहानी की प्राणवायु है- 'लाश उठते-उठते रात हो जाएगी।' रात के इस शरूर से ही कहानी में क्रूरता आई है। इसी रात में घीसू और माधव कफ़न के पैसे की दारू पीते हैं और जी भर जश्न मनाते हैं। वे धर्मनिष्ठ हैं। भाग्य भगवान में उनकी आस्था है। स्वर्ग, नरक, बैकुण्ठ का उन्हें भान है। लेकिन रात के कारण निश्चित हैं।, 'लाश उठते-उठते रात हो जाएगी।'
कहानी का यही चरमोत्कर्ष है, जिसकी नींव हवा पर खड़ी है। प्रचलित लोकरीत के अनुसार मुर्दा चाहे जिसी भी धर्म, जाति, समुदाय अथवा वर्ग का हो, उसे रात में जलाया ही नहीं जाता है। अगर किसी की मृत्यु दिन छिपने पर हो जाती है, लाश को रात भर रखा जाता है और दूसरे दिन मृतक का दाह संस्कार किया जाता है। इसके दो व्यावहारिक पहलू है। धर्म की दृष्टि से यह पाप है और अनिष्ट की श्रेणी में आता है। व्यवहार की दृष्टि से रात में दाह संस्कार करने से दिवंगत का क्रियाकर्म ठीक से नहीं हो पाता है।
'लाश उठते-उठते रात हो जायगी' कहानी की जान है और यह जान इस अटल सत्य से निकल जाती है कि 'रात में लाश उठती ही नहीं है।' अब देते रहो शब्द ज्ञान और भाषा शैली के महंगे इंजेक्शन। विड़म्बना यह है कि कफ़न कहानी तक आते-आते प्रेमचंद 54-55 के वृद्ध हो गये थे, उन्हें इतना तक मालूम नहीं, रात में लाश उठती ही नहीं है। कफ़न लिख बैठे।
सारिका अक्टूबर, 1986 कें अंक में प्रो रामेश्वर शर्मा लिखते हैं - ''घीसू और माधव प्रेमचंदीय ब्राह्मण हैं। महाब्राह्मण का मृतक से रागात्मक संबंध तो नहीं होता, यहां तो मानवीय राग चेतना के संपूर्ण मूल्य को ध्वस्त कर प्रेमचंद घीसू-माधव का समर्थन करते नज़र आते हैं और उस पर तुर्रा प्रगतिशीलता का। इस कहानी में प्रेमचंद का पतन मरणोन्मुख प्रेमचंद की बुद्धि का विनष्ट हो जाना है।''
(संदर्भ- आधुनिक हिन्दी, कालजयी साहित्य पृष्ठ-67)
सवाल उठता है कि इनती गलीज कहानी लिखने के लिये प्रेमचंद ने दलितों (चमारों) को ही क्यों चुना? क्या इसकी पृष्टभूमि में किसी अन्य बड़ी जाति के गरीब पात्र नहीं हो सकते थे?
राष्ट्रीय सहारा के 8 अगस्त, 2004 के अंक में विचारक और वरिष्ठ साहित्यकार मुद्राराक्षस अपने लेख 'प्रेमचंद पुनर्पाठ क्यों नहीं ? में लिखते हैं - प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में शूद्र जाति के अनेक चरित्रों को लिया है और उनकी दर्दनाक गाथाएं कहीं हैं। यह अलग बात है कि कफ़न तक पहुंच कर उन्होंने उनके प्रति जरूरत से ज्यादा अनुकंपा कर दी। डॉ रामविलास शर्मा के अनुसार 'दरिद्र शूद्र ही नहीं, ब्राह्मण भी होता है। क्या स्थिति बनती अगर कफन के पैसे से दारू और पूड़ी खाने-पीने वाले शूद्र नहीं, बा्रह्मण बाप-बेटे होते ? यह स्थिति प्रेमचंद को स्वीकार नहीं हो सकती थी। बहू के कफन की दारू वे ब्राह्मण बाप को नहीं पिला सकते थे, क्योंकि प्रेमचंद की मानसिकता के अनुसार हिन्दू दो तरह के रहे हैं। 'शुद्ध पवित्र सवर्ण और अशुद्ध गंदे शूद्र।'
प्रेमचंद की कहानियों में सार कम और अव्यावहारिकता ज्यादा है। वे ऐसे कथ्य उठाते हैं, जो निपट नाटकीय और अविश्वासी हैं और जीवन जीती जिंदगियों से मेल नहीं खाते। उनकी कोई भी कहानी अनुभव की कमी अभाव और अव्यावहारिकता की छूत से नहीं बच पाई है। शूद्रों के मामलों में उन्होंने मनुस्मृति में वर्णित सूक्तों का पूरा ध्यान रखा है। कफ़न अति है। चमार जाति कितनी निकृष्ट हो सकती है, कहानी में बस एकमात्र यही संदेश निहित है।
आप प्रेमचंद साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान हैं, प्रेमचंद जी की कफ़न को जरा इस एंगल से पढ़ कर देखें।
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संक्षिप्त परिचय
रत्नकुमार सांभरिया
जन्म - 06.01.1956 (छः जनवरी, सन् उन्नीस सौ छप्पन) गांव - भाड़ावास, जिला - रेवाड़ी (हरियाणा) पिछले 30 वर्षों से राजस्थान में।
शिक्षा - एम.ए.बी.एड., बी.जे.एम.सी. (पत्रकारिता में डिप्लोमा)
कृतियां - 1) समाज की नाक - एकांकी संग्रह
2) बांग और अन्य लघुकथाएं - लघुकथा संग्रह
3) हुकम की दुग्गी - कहानी संग्रह
4) काल तथा अन्य कहानियां - कहानी संग्रह
5) बिपर सूदर एक कीने - कहानी संग्रह (शीघ्र प्रकाश्य)
सृजन - हंस, कथादेश, वागर्थ, समकालीन भारतीय साहित्य, मधुमती, अक्षरा, शेष जनसत्ता सबरंग अन्यथा अक्षरपर्व, साक्षात्कार, इन्द्रप्रस्थ भारती, सरिता, युद्धरत आमआदमी, जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं के अतिरिक्त समाचार पत्रों में कहानियां, लघुकथाएं, पुस्तक समीक्षाएं और फीचर प्रकाशित।
''मै जीती'' कहानी पर टेलीफिपम ।
कहानियों एवं लघुकथाओं का रेडियो नाट्य रूपान्तर प्रसारित।
शोधकार्य - ''बांग और अन्य लघुकथाएं'' लघु संग्रह पर कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय हरियाणा और गुरूघासीदास वश्विविद्यालय बिलासपुर छत्तीसगढ़ से शोधकार्य (एम फिल) कहानियों पर मदुरै कामराज विश्वविद्यालय सहित विभिन्न विश्वविद्यालयों से 12 शोधार्थी शोधरत।
सम्मान - नवज्योति कथा सम्मान।
- सहारा समय कथा चयन प्रतियोगिता, 2006 में पुरस्कृत, ''चपड़ासन'' कहानी के लिए उपराष्ट्रपति द्वारा सम्मानित।
- कथादेश अखिल भारतीय हिन्दी कहानी प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार ''बिपर सूदर एक कीने'' कहानी पर
- राजस्थान पत्रिका सृजनात्मक पुरस्कार-2007 ''खेत'' कहानी पर
संपर्क - भाड़ावास हाउस, सी-137, महेश नगर, जयपुर-302015, फोन- 0141-2502035, मो0- 09460474465
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