वर्तमान परिप्रेक्ष्य में वैश्वीकरण एवं उदारवाद के दौर में आज हम सांस्कृतिक संकट के संक्रमण काल के दौर से गुजर रहे हैं। ऐसा लगता है हम...
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में वैश्वीकरण एवं उदारवाद के दौर में आज हम सांस्कृतिक संकट के संक्रमण काल के दौर से गुजर रहे हैं। ऐसा लगता है हमारी चाहरदीवारी व खिड़कियां खुली रखने की प्रक्रिया में हमारे घर की सारी हवा ही निकल गयी प्रतीत हो गयी है और बाहर की दूषित हवा अंदर भर गयी है। और ऐसे समय में जब हम मूल्यों की बात करते हैं तो सभी मात्र एक कोरा आदर्श ही प्रतीत होते हैं , यही नहीं सदाचार, सहिष्णुता, अनुशासन, मर्यादित भावना और कर्मनिष्ठा आदि जीवन मूल्यों के प्रति हमारा दृष्टिकोण बड़ी तेजी से बिखरता जा रहा है, और ये सब यूरोपिया प्रतीत हो रहे हैं। आज के संदर्भर् में इन जीवन मूल्यों को समझने के लिए हमें अतीत के आइने से गुजरते हुए वर्तमान के यथार्थ में भी झांकना होगा।
साधरणतया मूल्य वो होते हैं जो सदियों से समाज में बहुजन हिताय के रूप में कल्याणकारी भावना के साथ पूरी निष्ठा व भावना के साथ चलते आ रहे हों। ऐसे मूल्य ही इतिहास में गांधी और बुद्ध एवं अम्बेडकर पैदा करते हैं। अतीत की बात करें तो जीवन मूल्यों की परंपरा वैदिककाल से ही प्रारम्भ हो जाती है। वेद मूल्यों की ही बात करते हैं, और ये मूल्य एकपक्षीय नहीं हैं-जीवन, रिश्ते-नाते, सम्बंध, साहित्य, कला, संगीत, विज्ञान, यौवन, विवाह, प्रेम, राष्ट्र सभी के अपने-अपने मूल्य हैं और ये मूल्य समग्र रूप में जीवन मूल्यों को प्रभावित करते हैं। क्या आज हममें इन मूल्यों को देखने व जीवन में उतारने की क्षमता अपने आप में हो सकती है ?
यदि हम निरपेक्ष रूप से वेदों को देखें तो वेदों ने मनुष्य को प्रकृति के करीब (निकट) किया, और इन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में मूल्यों की स्थापना पर विश्ोष बल दिया ,पौराणिक काल से ही मूल्यों का आधार थी-मर्यादा। और हम इसका उदात्त निर्वाह राम में स्पष्ट रूप से देखते भी हैं। जो मूल्यों एवं नैतिकता के लिए बड़ा से बड़ा त्याग करने के लिए तत्पर रहते हैं, वहीं दूसरी ओर रामायण के बाद महाभारत काल में मूल्यों में छल-कपट, धूर्तता और गंदगी प्रविष्ट हुयी, जिसका परिणाम समाज ने देखा भी भोगा भी। धार्मिक एवं कर्मकाण्ड को अलग कर थोड़ा गम्भीरता से विचार करें तो पारंपरिक जीवन मूल्यों के शाश्वत प्रतीक हैं-शिव, राम, कृष्ण और सरस्वती, गौतम बुद्ध, अम्बेडकर एवं गाँधी।
शिव ने जनकल्याण के लिए विष पिया-यह ‘स्व' से ‘सर्व' की ओर का जीवन मूल्य था। राम का तो सम्पूर्ण जीवन ही मूल्यों की स्थापना में बीता। कृष्ण की बांसुरी ने जीवन को संगीत की मधुरता दी यह उनका जीवन मूल्य था। सरस्वती की वीणा ने संगीत को- शिक्षा, ज्ञान, विज्ञान, संस्कार व साहित्य से महिमा मंडित किया यह उनका मूल्य था। बुद्ध ने मानव कल्याण को महान माना, सत्य व धर्म को कल्याणकारी बनाया यह उनका मूल्य था। गांधी ने राजनीति को मर्यादित किया, सत्य अहिंसा सहिष्णुता की नयी परिभाषाएं गढ़ीं यह उनका जीवन मूल्य था। जिसने एक राष्ट्र, एक समाज, एक समय, एक इतिहास को प्रभावित किया। डॉ0 अम्बेडकर के जीवन मूल्य समाज की समानता एवं भाई-चारे की भावना से ओत प्रोत था, जो जमीन से जुड़े दलित वर्ग की अस्मिता एवं आत्मसम्मान से जुड़ा हुआ था जो मेरी दृष्टि से इन सब महापुरूषों के अलग-अलग मूल्यों का अन्तिम निष्कर्ष था, मूल्यों की दृष्टि से डॉ0 अम्बेडकर का आज भी विश्व में विकल्प नहीं है।
स्वतंत्रता के अमर सेनानियों की बात करें तो चन्द्रश्ोखर आजाद, भगत सिंह, खुदीराम बोस, राजगुरू आदि भारत माँ के सपूतों ने जीवन के स्वर्णिम दिनों (युवावस्था) को स्वतंत्रता-यज्ञ में आहुत किया, यह उनका जीवन मूल्य था। जो विश्व के इतिहास में विरले ही देखने को मिलता है। और जब हम वर्तमान की बात करते हैं तो हमारे जीवन मूल्य क्या हैं? क्या हम इस ‘इम्पोर्टेंट' वाली विचारधारा को बदल नहीं सकते? क्या हमारा दृष्टिकोण वैचारिक, पारिवारिक, त्यागमय व मर्यादित नहीं हो सकता? कब तक हम इस विशुद्ध भौतिकता के जाल में फंसे रहेंगे? आज हमें गम्भीरता से समीक्षा तो करनी ही होगी कि हमारे आदर्श-ये पौराणिक एवं ऐतिहासिक पात्र होंगे या माइकल जैक्सन! या इनके प्रतिरूप।
वास्तव में देखे तों हमारे भारतीय पारंपरिक जीवन मूल्य तार्किक एवं वैज्ञानिक हैं। इनमें वो सब कुछ है जिनका यदि हम एक भी हिस्सा या कुछ ही अंश ग्रहण कर ले तो हमारे साथ-साथ हमारे समाज और राष्ट्र का भी कल्याण हो सकता है। किन्तु! यहीं आकर हम रूक जाते हैं क्योंकि यहाँ यह प्रश्न उठता है कि क्या हम समझते भी हैं इसे? अपनाते भी हैं इसे? अगर हम हाँ कहें तो फिर क्यों टूट रहे हैं परिवार? क्यूं आज अनाथालयों व वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ती जा रही है? क्यों खण्डित हो रहा है राष्ट्र? और क्यों टूट रहा है विश्वास एवं आत्मसम्मान देने-पाने का संकट? हम महत्वाकांक्षा एवं स्वार्थ तथा विश्वास हीनता के क्षुद्व तत्वों में सिमटकर रह गये है, हम केवल हम तक सीमित हो गये हैं। इसलिए क्योंकि आज हम पाश्चात्य नकल के आगोश में सिमटते जा रहे हैं। लेकिन कब तक? कहीं जाकर तो हमें रूकना ही होगा तभी ‘हम' और हमारी संस्कृति, इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में पुनः स्थान पा सकेगें। बहुत भाग लिए हम ‘सर्व' से ‘स्व' की ओर, अब और नहीं। अभी भी बहुत कुछ श्ोष है। कहते है। न-‘‘जब जागो तभी सवेरा।''
हम युवा हैं। हमारे अन्दर अदम्य उत्साह है! भरपूर क्षमता है। दूरदृष्टि है। पराक्रम है! कर्मठता है! बस आवश्यकता है इन्हें सही दिशा देने की-अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखकर ही हम आगें बढ़ सकते हैं। अब हम किसी का इन्तजार नहीं कर सकते कि वो जामवंत की भांति (हनुमानों को) हमें हमारा बल स्मरण काराये। हमें स्वयं ही इस दिशा में आगे बढ़ना होगा और अपनी राहें बनानी होंगी। आज आवश्यकता इस बात की है कि जब हम अपने जीवन में कुछ मूल्य कुछ आदर्श साथ लेकर ही ‘‘बहुजन-हिताय-बहुजन-सुखाय'' और ‘‘सत्यं-शिवं-सुन्दरमं'' की परिभाषाओं पर पड़ी धूल हटाएं और एक बार पुनः सदाचार, सहिष्णुता, अनुशासन, मर्यादा और कर्मनिष्ठा को अपने जीवन में उतारें।
यहाँ हम एक बात स्पष्ट करना चाहेंगे कि जीवन मूल्य ही जीवन की सार्थकता है चाहे वो पारंपरिक हों या तात्कालिक। वैश्वीकरण एवं भौतिकता के बढ़ते इस युग में जीवन मूल्यों पर महात्मा गाँधी के शब्दों से मैं अपनी बात समाप्त करना चाहूँगा। गाँधी जी का कहना था कि मैं नहीं चाहता हूँ कि मेरा घर चहार दीवारी व खिड़कियों में कैद हो। मैं चाहता हूँ कि दुनिया की सभी सस्ंकृतियों की हवाएं मेरे घर में स्वाभाविक रूप में आएं, परन्तु मैं यह भी चाहता हूँ कि हवाओं के थपेड़ों से मेरे पैर न उखड़ें और मैं अपनी जमीन पर अडिग खड़ा रहूँ! अर्थात हमारे जीवन मूल्य सुरक्षित रहें तभी हम भौतिकता एवं उत्तरोत्तर विकास की बात सोच सकते हैं।
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(डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव)
श्ौक्षणिक गतिविधियों से जुड़े युवा साहित्यकार डाँ वीरेन्द्रसिंह यादव ने साहित्यिक, सांस्कृतिक, धार्मिर्क, राजनीतिक, सामाजिक तथा पर्यावरर्णीय समस्याओं से सम्बन्धित गतिविधियों को केन्द्र में रखकर अपना सृजन किया है। इसके साथ ही आपने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग भी प्रशस्त किया है। आपके सैकड़ों लेखों का प्रकाशन राष्ट्र्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। आपमें प्रज्ञा एवमृ प्रतिभा का अदृभुत सामंजस्य है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी एवमृ पर्यावरण में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आार्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।
सम्पर्क-वरिष्ठ प्रवक्ता, हिन्दी विभाग डी0 वी0(पी0जी0) कालेज उरई जालौन (उ0प्र0)-285001
यादव जी मूल्यों की जीवन मे उपादेयता पर आपका यह अच्छा आलेख है लेकिन राम शिव क्रिश्न बाबासाहेब आम्बेदकर बुद्ध सबको एक साथ रखकर आप घालमेल कर रहे हैं . लगता है आपने बाबासाहेब आम्बेडकर का " रीडल्स इन हिन्दुइस्म " नहीं पढा है. बौद्ध दर्शन भी नितांत भिन्न है और वेद विरोधी है . आप तो उनके नाम की फेलोशिप प्राप्त कर रहे है आप को उन्हे पढना चाहिये .
जवाब देंहटाएं"गाँधी जी का कहना था कि मैं नहीं चाहता हूँ कि मेरा घर चहार दीवारी व खिड़कियों में कैद हो। मैं चाहता हूँ कि दुनिया की सभी सस्ंकृतियों की हवाएं मेरे घर में स्वाभाविक रूप में आएं, परन्तु मैं यह भी चाहता हूँ कि हवाओं के थपेड़ों से मेरे पैर न उखड़ें और मैं अपनी जमीन पर अडिग खड़ा रहूँ! अर्थात हमारे जीवन मूल्य सुरक्षित रहें तभी हम भौतिकता एवं उत्तरोत्तर विकास की बात सोच सकते हैं।"
जवाब देंहटाएंडॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव जी!
सारगरिभित लेख के लिए बधाई!
आपका कार्य सराहनीय है
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