मेरे गुरु डा0 उदयनारायण तिवारी अमेरिका में रहकर आधुनिक भाषा विज्ञान की पद्धति एवं प्रविधि को हृदयंगम कर 30 अगस्त, 1959 को भारत लौटे। अमेरिक...
मेरे गुरु डा0 उदयनारायण तिवारी अमेरिका में रहकर आधुनिक भाषा विज्ञान की पद्धति एवं प्रविधि को हृदयंगम कर 30 अगस्त, 1959 को भारत लौटे। अमेरिका के जिन भाषा वैज्ञानिकों की सहायता एवं प्रेरणा से उनके वर्णनात्मक भाषा विज्ञान (Descriptive Linguistics) के अध्ययन एवं अनुशीलन का मार्ग प्रशस्त हुआ, उनमें पेन्सिलवैनिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ0 जौलिग हैरिस एवं डॉ0 ह्वेनिंग्स वाल्ड, कार्नेल विश्वविद्यालय के डॉ0 फेअर बैंक्स, हार्टफोर्ट सेमिनरी के डॉ0 ग्लीसन तथा केलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले के डॉ0 जे0 गुम्पर्ज, डॉ0 मेरी हास, डॉ0 एमेन्यु एवं डॉ0 शिप्ले के नाम सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं। अमेरिका से लौटने पर डॉ0 तिवारी ने मुझे एम0ए0 (फाइनल) के विशेष अध्ययन वाले प्रश्न-पत्र में पालि भाषा एवं साहित्य तथा सामान्य प्रश्न-पत्र में भाषा विज्ञान पढ़ाया। यहाँ यह लिखना अप्रासंगिक न होगा कि हिन्दी में एम0ए0 करने के अनन्तर डॉ0 तिवारी जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से सन् 1939 ई0 में पालि में तथा सन् 1941 में कम्परेटिव फिलालोजी में एम0ए0 की उपाधियाँ प्राप्त कर ली थीं।
मुझे डॉ0 तिवारी जी से यह दृष्टि प्राप्त हुई कि एम0ए0 (हिन्दी) के भाषा विज्ञान के प्रश्न-पत्र के पाठ्यक्रम में जो पढ़ाया जा रहा है वह बासी और भ्रामक है। उस समय भाषा की उत्पत्ति के सिद्धान्त, भाषा और बोली का भेद, भाषा के विभिन्न घटकों में परिवर्तन और उसके कारणों के चतुर्दिक भाषा विज्ञान विषयक प्रश्नपत्र का सारा पाठ्यक्रम सीमित था। एम0ए0 (हिन्दी) पढ़ते समय मुझे सबसे नीरस विषय भाषा विज्ञान का लगता था। एम0ए0 (उत्तरार्द्ध) में भाषा विज्ञान वाले प्रश्न पत्र में मुझे सबसे कम अंक प्राप्त हुए थे और इसी कारण एम0ए0 (फाइनल) में गुणानुक्रम से मुझे प्रथम से द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ। डॉ0 तिवारी जी के प्रेरणाप्रद एवं उत्प्रेरक व्यक्तित्व के कारण ही मैंने वर्णनात्मक भाषाविज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान करने का निर्णय लिया। सन् 1963 में मेरी नियुक्ति आगरा के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान में हो गई। जब मैं इलाहाबाद में शोध कार्य कर रहा था, उसी अवधि में दिसम्बर 1961 में तिवारी जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से जबलपुर वहॉ के विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष के पद पर हिन्दी विभाग स्थापित करने हेतु चले गए थे। आगरा में नियुक्त होने के बाद वहॉ के कार्यभार के कारण मैं इतना व्यस्त हो गया कि डॉ0 तिवारी जी को पत्र न लिख सका। जब मुझे डॉ0 तिवारी जी का पत्र मिला जिसमें उन्होंने लिखा कि ‘‘आगरे से तुमने कोई पत्र नहीं भेजा और न ही अपना समाचार ही लिखा'' तो इसे पढ़कर अपनी गलती का अहसास हुआ। (दे0 पत्र दिनांक 16.12.1963)
जब मैं इलाहाबाद में शोध कार्य कर रहा था तब मैंने वर्णनात्मक भाषा विज्ञान के तकनीकी शब्दों के कोश के निर्माण की आवश्यकता का अनुभव किया था। इसकी चर्चा मैंने तिवारी जी से की थी। फरवरी, 1964 ई0 में डॉ0 तिवारी जी ने अपने पत्र में लिखा, ‘‘तुमने भाषाशास्त्र के कोश के प्रकाशन की एक बार यहाँ चर्चा की थी। एक कोश डॉ0 भोलानाथ तिवारी का ज्ञानमण्डल काशी से प्रकाशित हो रहा है। अतएव सम्प्रति यह कार्य आवश्यक नहीं है किन्तु
इधर डॉ0 भाटिया के परामर्श से एक दूसरा कार्य मैं हाथ में लेना चाहता हूं और यह कार्य भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है, और इसमें भी तुम्हारी सहायता की अपेक्षा है। इधर उत्तरी भारत की जिन भाषाओं एवं बोलियों का वर्णनात्मक दृष्टि से विश्लेषण (Descriptive Analysis) हुआ है, उसे उनके लेखकों की आज्ञा से हम एकत्र करना चाहते हैं। इस प्रकार के लेख डॉ0 धीरेन्द्र वर्मा अभिनन्दन ग्रन्थ, के0एम0 मुंशी इंस्टीटयूट से प्रकाशित होने वाली पत्रिका, मध्य भारती आदि में आए हैं। इस प्रकार की सामग्री को एकत्र कर लेना है''
इसी पत्र में डॉ0 तिवारी जी ने मुझे निर्देश दिया था कि मैं अपना नाम आगरा के विश्वविद्यालय में डी0 लिट्0 के लिए रजिस्टर्ड करा लूँ और यह कार्य अग्रसर करूँ। उनका आदेश था कि ‘‘दो तीन वर्षों के भीतर तुम्हें डी0लिट्0 हो जाना ही है।'' (दे0 पत्र दिनांक 01.02.1964)
सन् 1964 के सत्र से जबलपुर विश्वविद्यालय ने हिन्दी में केवल लड़कियों के लिए एम0ए0 (प्रीवियस) की कक्षाएं होम साइंस में खोलने का निर्णय लिया। उसके लिए विभाग में लेक्चरर की नियुक्ति के लिए विज्ञापन निकला। डॉ0 तिवारी जी ने आवेदन-पत्र भेजने से लेकर चयन समिति में भाग लेने के प्रत्येक चरण में निर्देश प्रदान किए। जुलाई में चयन समिति की बैठक हुई। डॉ0 तिवारी जी ने मुझसे कहा था कि यदि नियुक्ति हो जाती है तो तुम्हें जबलपुर में ही आ जाना है। यदि तुम्हें के0एम0 इंस्टीटयूट या कहीं अन्यत्र भी स्थान मिले तो भी तुम्हें जबलपुर में ही आना है। बातचीत में उन्होंने अपने मन के उद्गार व्यक्त किए थे ः
‘‘तुम्हारे सम्बन्ध में अभी मेरे तीन स्वप्न अधूरे हैं
1. डी0लिट् कराना
2. रीडर नियुक्त कराना
3. अमेरिका भेजना''
एक पत्र में यह बातें उन्होंने लिखित रूप में भी भेजीं। (दे0 पत्र, दिनांक 7 अगस्त, 1964)
14 अगस्त, 1964 की सन्ध्या को जबलपुर विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी की बैठक होनी निश्चित हुई थी। उसी बैठक में नियुक्ति के सम्बन्ध में अन्तिम निर्णय होना था। डॉ0 तिवारी जी को विश्वास था कि मेरी नियुक्ति हो जाएगी। यदि मुझे नियुक्ति पत्र मिल जाता है तो मुझे क्या करणीय है- इस दृष्टि से उन्होंने अगस्त के प्रथम सप्ताह में निर्देश दिया ः
‘‘नियुक्ति पत्र मिलने पर डॉ0 हरिहरनाथ जी के साथ तुम डॉ0 व्रजेश्वर वर्मा के पास चले जाना। आशा है वे तुम्हें तुरन्त छोड़ देंगे। सामान आदि पहले से ही ठीक रखना ताकि छूटते ही दूसरे दिन यहॉ आकर काम करने लगो। आखिर व्यर्थ का व्यवधान क्यों हो ? (दे0 पत्र, दिनांक 8 अगस्त, 1964)
डॉ0 तिवारी जी ने पत्र द्वारा मुझे सूचित किया कि जबलपुर में हिन्दी के लेक्चरर पद पर मेरी नियुक्ति हो गई है। दिनांक 15 अगस्त को डॉ0 तिवारी जी ने मुझे पत्र लिखा। आवेदन पत्र से लेकर चयन समिति की बैठक में साक्षात्कार के लिए भाग लेने तक के समस्त कार्य डॉ0 तिवारी जी के निर्देशन में ही सम्पन्न हुए थे। मेरी नियुक्ति के निमित्त डॉ0 तिवारी जी ही थे, मगर इसका एक प्रतिशत श्रेय भी उन्होंने नहीं लिया। उनके शब्द थे ः ‘‘उपकुलपति तथा डॉ0 राजबली पाण्डेय दोनों तुम्हें चाहते थे अतएव नियुक्ति में कुछ भी कठिनाई नहीं हुई'' (दे0 पत्र दिनांक 15 अगस्त, 1964)
सोचता हूं कि जहाँ सामान्यतः व्यक्ति दूसरे पक्ष को अपने उपकार के बोझ तले दबाने का प्रयास करते हैं वहीं डॉ0 तिवारी जैसे उदार चेता एवं महामनस्क व्यक्ति दूसरे लोगों को महत्व देने में किसी प्रकार की कृपणता नहीं करते तथा स्वयं विनयशीलता का कीर्तिमान स्थापित करते हैं।
मैंने 1964-65 के सत्र में अध्यापन कार्य किया। गर्मियों की छुटि्टयों में पचमढ़ी में भाषा विज्ञान का ग्रीष्मकालीन स्कूल (Summer School of Linguistics) आयोजित था तथा भोपाल के रीजनल कॉलेज अॉफ एजुकेशन में भारत के सेन्ट्रल स्कूलों के हिन्दी प्राध्यापकों का पुनश्चर्या पाठ्यक्रम आयोजित था। डॉ0 तिवारी जी को भाषा विज्ञान के स्कूल में फैकल्टी सदस्य तथा भोपाल के पुनश्चर्या पाठ्यक्रम में समन्वयक के रूप में कार्य करने के आमंत्रण प्राप्त हुए थे। डॉ0 तिवारी ने भाषा विज्ञान के स्कूल में फैकल्टी सदस्य के रूप में भाग लेने का निर्णय लिया तथा भोपाल के कॉलेज के प्राचार्य डॉ0 एस0एन0 उपाध्याय को पत्र लिखकर निर्देश/परामर्श दिया कि वे मुझे समन्वयक के रूप में कार्य करने के लिए आमंत्रित करें। 16 जून 1965 से जबलपुर के विश्वविद्यालय के कुलपति पद का कार्यभार मेरे गुरु तथा डॉ0 तिवारी जी के प्रयाग विश्वविद्यालय के सहयोगी डॉ0 धीरेन्द्र वर्मा जी सम्भालेंगे, यह सूचना देते हुए डॉ0 तिवारी जी ने अपने पत्र द्वारा मुझे यह निर्देश भी दिया कि ‘‘तुम 1 जुलाई को प्रातः काल जबलपुर अवश्य पहुँच जाना क्योंकि लम्बे अवकाश के बाद उस दिन रिपोर्ट देनी पड़ती है।'' (दे0 पत्र दि0 02.06.1965)
डॉ0 तिवारी जी जुलाई 1971 तक जबलपुर विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी एवं भाषा विज्ञान विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष पद पर आसीन रहे। सितम्बर, 1964 से लेकर जुलाई 1971 तक डॉ0 तिवारी जी के विभाग में मैंने अध्यापन कार्य किया। मुझे इन लगभग 7 वर्षों की अवधि में एक दिन भी ऐसा नहीं लगा कि मैं किसी के अधीन होकर सर्विस कर रहा हूँ। इस अवधि का सम्पूर्ण काल खण्ड साधना पथ के सहयात्री के रूप में व्यतीत हुआ। उनकी सरलता, सादगी, सौम्यता एवं सदाचार के प्रति प्रतिबद्धता सदैव प्रखर पुरूषार्थी के प्रति नमन का भाव उत्पन्न करती थी। वे मृदुता, विनयशीलता एवं सदाशयता के जीवन्त प्रतीक थे। उनके बाहय एवं अन्तर में कोई व्यवधान कभी दृष्टिगत नहीं हुआ। इसी कारण वे तत्ववेत्ता एवं तत्वदर्शी की अपेक्षा ब्रहम-ऋषि अधिक प्रतीत होते थे।
उनकी साधना के सातत्य का साक्ष्य है कि इस अवधि में डॉ0 तिवारी जी के निर्देशन में जबलपुर वि0वि0 से 08 शोधकों को डी0लिट्0 तथा 25 शोध छात्रों को पी-एच0डी0 की उपाधियॉ प्राप्त हुईं (दे0 परिशिष्ट)। डॉ0 तिवारी अपने शिष्यों को पुत्रवत मानते थे और हर तरह से उनकी सहायता एवं मार्गदर्शन के लिए तत्पर रहते थे। इसका थोड़ा परिचय उनके दिनांक 07.10.1972 तथा दिनांक 07.01.1974 के पत्रों को पढ़कर मिल सकता है जो उन्होंने सेवानिवृत्त होने के बाद इलाहाबाद से अपने शोध छात्र - श्री राधेश्याम पाठक एवं श्री आत्माराम त्रिपाठी के शोध कार्य के संदर्भ में लिखे। (दे0 पत्र दिनांक 07.10.72 एवं पत्र दिनांक 07.01.74)
अपने शिष्य के किसी ग्रन्थ के प्रकाशित होने पर कोई गुरु यह लिखे कि तुम्हारी पुस्तक प्रकाशित होने से मेरी प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि हुई है - यह किसी गुरु के आत्मीय एवं ं स्नेहभाव की पराकाष्ठा है तथा किसी शिष्य के श्रम का इससे बड़ा पुरस्कार और कुछ हो ही नहीं सकता। (दे0 पत्र दिनांक 05.06.1974)
1 मार्च, 1981 को इलाहाबाद में तिवारी जी का अभिनन्दन समारोह आयोजित हुआ। समारोह के सभापति पं0 श्री नारायण चतुर्वेदी तथा मुख्य अतिथि डॉ0 बाबूराम सक्सेना थे। जबलपुर में अप्रत्याशित रूप से अन्य कार्यों में व्यस्त होने के कारण मैं इस समारोह में उपस्थित न हो सका। मन दुखी, खिन्न एवं उदास था। मैंने तिवारी जी को पत्र लिखकर अपनी विवशता व्यक्त की। डॉ0 तिवारी जी ने दिनांक 09.03.1981 को पत्र लिखा ः
‘‘मैं उस दिन प्रायः थक गया, मैं किन्हीं कारणों से चाहता था कि तुम न आओ। आने से कोई खास बात थोड़े ही होती। स्नेह का आधार न तो पत्र है और न मिलना। जिसके प्रति स्नेह भाव आ गया कुछ पूर्वजन्म का फल होता है। उसका सम्बन्ध कई जन्मों के परिणामस्वरूप होता है। अतः इस बात की चिन्ता मत करना कि तुम नहीं आये।
मैंं तुम्हें और विशेष रूप से मेरी पत्नी तुम्हें प्रतिदिन स्मरण करती हैं। उतना वह अपने लड़कों एवं पोतों को भी याद नहीं करतीं। अब सब कार्य उनके मन के अनुसार हो जाय तो वह सुखी और प्रसन्न होंगी। उनकी तबियत एक तरह से ठीक है। किन्तु कब क्या हो जाय, कौन जानता है ? नदी के किनारे के वृक्ष का क्या ठिकाना ? .......''
(दे0 पत्र दिनांक 09.03.1981)
1981-82 में मैंने एक परियोजना की रूपरेखा बनाई। परियोजना के अन्तर्गत एक ऐसा यंत्र विकसित करने की कल्पना की थी जो देवनागरी लिपि में लिखित सामग्री को स्कैन करके तदनुरूप वाक् स्वनों (Corresponding Sounds) में रूपान्तरित कर भाषा का उच्चारित रूप बोलने में सक्षम हो तथा इसी प्रकार बोली गई सामग्री को सुनकर उसे लिखित रूप में/मुद्रित रूप में परिवर्तित कर दे।
प्रथम चरण में जिस मशीन की परिकल्पना थी वह थी देवनागरी में लिखी सामग्री को पढ़ने वाली मशीन। इसके लिए हिन्दी के वाक् स्वनों (Speech Sounds) का स्पेक्टोग्राफिक विश्लेषण आवश्यक था। यह कार्य स्वनयंत्रों एवं इलेक्ट्रोनिकी के विशेषज्ञों के सहयोग से ही सम्भव था। हमारे विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति श्री रमा प्रसन्न नायक को मेरी यह परियोजना पसंद आई तथा उन्होंने सुझाव दिया कि मैं दिल्ली में रहकर यह कार्य सम्पन्न करूँ। मैंने जब इस परियोजना के सम्बन्ध में डॉ0 तिवारी जी को पत्र लिखा तो उन्होंने दिनांक 2 फरवरी 1982 के पत्र में लिखा ः ‘‘..... क्या प्रयोग के लिए तुम्हें दिल्ली में बराबर रहना पड़ेगा अथवा बीच-बीच में कुछ दिनों के लिए जाना पड़ेगा और उस स्थिति में बच्चे एवं परिवार कहाँ रहेगा ? यदि यह कार्य तुम्हारा सम्पन्न हो जाता है तो तुम भाषाविज्ञान के क्षेत्र में विश्वविख्यात हो जाओगे। अतः यह करणीय है। ‘‘ (दे0 पत्र दिनांक 02.04.1982)
सारी कामनायें कहाँ पूर्ण होती हैं। जून, 1982 में श्री रमा प्रसन्न नायक को कुलपति पद से हटा दिया गया और उनके जाने के साथ ही मेरी परियोजना भी फाइल में बन्द हो गई। जब तिवारी जी को श्री रमा प्रसन्न नायक के हटने का समाचार पढ़ने को मिला तो उन्होंने 24.06.1982 को पत्र लिखकर मुझसे जानकारी मॉँगी ः
‘‘........... एक दिन पत्रिका में यह पढ़ा कि जबलपुर वि0वि0 का अधिग्रहण हो गया है तथा श्री कान्ति चौधरी, वी0सी0 हो गये हैं। बड़ा आश्चर्य हुआ। श्री नायक संगठन के विद्वान एवं पंडित तथा कुशल प्रशासक हैं। समझ में नहीं आया। अधिग्रहण का अर्थ वी0सी0 हटा दिये गये अथवा उन्हें डिसमिस कर दिया गया। कुछ समझ में नहीं आया.......'' (दे0 पत्र, दिनांक 24.06.1982)
अगस्त 1983 को मेरी नियुक्ति प्रोफेसर के पद पर हो गई। मैंने दिनांक 29 अगस्त 1983 को जबलपुर के रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय में हिन्दी एवं भाषा विज्ञान विभाग के प्रोफेसर पद का कार्यभार ग्रहण किया तथा इसकी सूचना तिवारी जो को तार द्वारा दी। डॉ0 तिवारी जी का मुझे दिनांक 1 सितम्बर, 1983 का जो पत्र प्राप्त हुआ वह उद्धृत है जिसमें उनके सहज सरल चित्र की प्रसन्नता, सहज आत्मीयता का अविरल प्रवाह तथा उसी भाव से पावन ऊर्ध्वग्राही चेतना के पथ की ओर आगे बढ़कर सतत साधना में लीन होने की अभिप्रेरणा है ः
‘‘तार मिला। तुम प्रोफेसर नियुक्त हो गए, इससे अपार सुख मिला। इसमें मिश्र जी (पं0 द्वारका प्रसाद मिश्र) का भी हाथ था अतः उनसे अवश्य मिलना तथा अपना प्रणाम निवेदन करना। डॉ0 बाबूराम सक्सेना, मोतीलाल नेहरू रोड, प्रयाग स्टेशन के निकट, के पास भी एक पत्र लिखकर अपना विनम्र प्रणाम ज्ञापित करना। अब अपना एक यह उद्देश्य बना लेना -
कबिरा खड़ा बाजार में
सब की कहता खैर।
सब काहू सो दोस्ती
ना काहू से बैर।
अब ईर्ष्या-द्वेष भुलाकर उच्च अनुसंधान में लगना है तथा अध्ययन-अध्यापन करना है..........''
भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद् द्वारा मुझे प्रतिनियुक्ति पर बुकारेस्त विश्वद्यालय (रोमानिया) में हिन्दी के विजिटिंग प्रोफेसर के पद पर भेजे जाने का समाचार जब तिवारी जी को मिला तो उन्होंने अकुंठित भाव से अपना आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन देते हुए दि0 09.02.1984 को पत्र लिखा ‘‘तुम्हारा पत्र त्रिभुवन नाथ शुक्ल ने दिया और कृष्ण बल्लभ जोशी तथा शुक्ल (विजय शुक्ल) से जबानी भी यह ज्ञात हुआ कि तुम रुमानिया प्रोफेसर होकर मार्च में जा रहे हो। इस समाचार से अत्यधिक प्रसन्नता हुई। रुमानिया में तुम्हें यूरोप तथा रूस दोनों की भाषा विज्ञान सम्बन्धी मान्यताओं का ज्ञान होगा। यह बहुत अच्छा हुआ कि तुम अमेरिका नहीं जा रहे हो। अमेरिकी भाषा विज्ञान की मैथोडोलोजी में तुम यहीं निष्णात हो। वहॉ जाकर तुम Continental Linguistics का ज्ञान प्राप्त कर सकोगे। ......... विदेश से लौटकर एक बहुत बड़े Linguistician के रूप में आओ, यही मेरी कामना है।...........'' (दे0 पत्र दिनांक 09.02.1984)
डॉ0 तिवारी जी ने जीवनपर्यन्त ओजस्विता, तेजस्विता, मनस्विता, कर्मठता एवं मानवीय उत्तमता का कीर्तिमान प्रस्तुत किया। डॉ0 तिवारी 23 जुलाई 1984 को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की कार्यकारिणी की बैठक में भाग लेने लखनऊ गए। बैठक के बाद इलाहाबाद लौटे। 28 जुलाई 1984 को संध्याकाल में वे अपने अलोपी बाग स्थित आवास गृह के अपने बाहर वाले कक्ष में कुर्सी पर बैठे थे। अचानक सिर में पीड़ा हुई, उन्होंने अपनी नौकरानी को पुकारा। उनकी पत्नी घर के भीतर वाले कमरे में थीं। उनकी वह पुकार अन्तिम थी। उनका महाप्रयाण हो गया।
28 जुलाई, 1984 को ही आकाशवाणी से उनके देहावसान का समाचार प्रसारित हुआ। साहित्य एवं भाषा की साधना में समर्पित भाव से अनवरत लीन मनीषी मौन हो गया। मेरे लिए उनकी मृत्यु का समाचार जहाँ एक ओर घोर घनीभूत पीड़ा का कारक बना वहीं दूसरी ओर उनके द्वारा निर्देशित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अदम्य धैर्य एवं मनोयोग से कार्य-प्रवृत्त होने का आलम्बन भी। उनके देहावसान के समाचार को बुकारेस्त (रोमानिया) में पढ़ने के बाद जो शोक उद्गार व्यक्त हुए उसका अंश उद्धृत हैः
‘‘ गुरुजी जैसा मनुष्य इस कलियुग में मिलना दुर्लभ है।
मेरी तो श्रद्धा के केन्द्र ही नहीं रहे ।''
(दे0 डॉ0 शिव गोपाल मिश्र ः सुप्रसिद्ध भाषाविद् डॉ0 उदयनारायण तिवारी-
व्यक्तित्व और कृतित्व, पृ0 15)
डॉ0 उदय नारायण तिवारी को हिन्दी जगत भाषा विज्ञान एवं हिन्दी भाषा के बहुत बड़े विद्वान के रूप में जानता है। उनके कृतित्व पक्ष की गम्भीरता से प्रायः सब परिचित हैं। मैं इस बात को रेखांकित करना चाहता हूँ कि मेरे लिए उनकी विद्वत्ता आदरास्पद है , उनका आचरण श्रद्धास्पद है। आचार एवं विचार का जैसा सामंजस्य उनके व्यक्तित्व में मिलता है -वह अन्यत्र दुर्लभ है। उन्होंने अपने एक ग्रन्थ में लिखा है कि पाण्डित्य जाति, धर्म तथा देशकाल की सीमा के परे की वस्तु है। वे सिद्धान्तों का प्रतिपादन मात्र नहीं करते थे; उन्हें अपने जीवन में अपने आचरण से सिद्ध करते थे। वे जब कक्षा में पालि का धम्मपद पढ़ाते थे तो महात्मा गौतम बुद्ध के इन वचनों की व्याख्या बड़ी तन्मयता के साथ करते थे -
बहुंपि जे संहितं भासमानो,
न तक्करो होति नरो पमत्तो।
गोपो व गावो गणयं परेसम् ,
न भागवा सामंस्स होति ॥
कालिदास ने मालविकाग्निमित्रम् में कहा है कि श्रेष्ठ अध्यापक वही है जो अपने ज्ञान को सदा अंकुठित भाव से सशक्त और निस्पृह होकर शिष्यों को देता है। डॉ0 तिवारी इस प्रतिमान पर तो खरे उतरे ही उन्होंने अपने जीवन आचरण की विराट और पावन आलोक-शिखा से अपने शिष्यों का जीवन-पथ आलोकित किया तथा सहज आत्मीयता के अवरिल प्रवाह से आप्लावित भी किया।
उनके कृतित्व के सम्बन्ध में यह कहना चाहता हूँ कि हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन में जो ऐतिहासिक महत्व पं0 रामचन्द्र शुक्ल का है, हिन्दी भाषा के ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक अध्ययन के क्षेत्र में वही महत्व डॉ0 उद्यनारायण तिवारी का है। डॉ0 तिवारी हिन्दी एवं अंग्रेजी के अतिरिक्त संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश ,बंगला, अवेस्ता, पुरानी फारसी के भी विद्वान थे। वे अरबी, ग्रीक, लैटिन आदि भाषाओं के भी ज्ञाता थे। गुरुवर डॉ0 धीरेन्द्र वर्मा ने हिन्दी भाषा के ऐतिहासिक विकास के गमीर अध्ययन की आधार शिला रखी। डॉ0 तिवारी ने बहुभाषाविद् होने तथा डॉ0 सुनीति कुमार चाटुर्ज्या, डॉ0 सुकुमार सेन, पं0 क्षेत्रेश चन्द्र चट्टोपाध्याय जैसे मनीषियों से ज्ञान ग्रहण करने के कारण तथा अपनी कर्मठता, निष्ठा एवं संकल्प शक्ति के बल पर हिन्दी भाषा का उद्गम और विकास जैसे ग्रन्थ का प्रणयन करने में समर्थ हो सके। यह ग्रन्थ हिन्दी भाषा के ऐतिहासिक विकास एवं हिन्दी की बोलियों के तुलनात्मक अध्ययन की परम्परा को मूर्धन्य तक पहुंचाने का उपक्रम है।
यह ग्रन्थ केवल हिन्दी भाषा एवं उसकी बोलियों के ऐतिहासिक विकास एवं तुलनात्मक व्याकरण तक ही सीमित नहीं है, इसमें भारोपीय परिवार की भाषाओं के वर्गीकरण एवं उनके परिचय से लेकर संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश तथा संक्रान्ति कालीन भाषा की प्रामाणिक जानकारी भी सुलभ एवं उपलब्ध है । परिशिष्ट के रूप में अंग्रेजी, फारसी एवं अरबी आदि भाषाओं से हिन्दी की तुलना प्रस्तुत है । लिपि शास्त्र पर भी गम्भीर गवेषणा विद्यभान है। इस ग्रन्थ का प्रथम संस्करण सन् 1955 में प्रकाशित हुआ था- आज से अर्ध शती पूर्व। इसका दूसरा संस्करण सन् 1961 में प्रकाशित हुआ। इस संस्करण में बौद्ध-संस्कृत, हिन्दी के
ध्वनिग्राम तथा तुलुगु और हिन्दी का तुलनात्मक अध्ययन सम्बन्धी सामग्री जोड़ी गई । हिन्दी के ऐतिहासिक अध्ययन सम्बन्धी ज्ञान का यह अप्रतिम संदर्भ ग्रन्थ है। इसके पांच संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं ।
सन् 1960 तक हिन्दी-क्षेत्र के भाषा अध्येता वर्णनात्मक एवं संरचनात्मक भाषाविज्ञान के सिद्धान्तों से अपरिचित थे। भाषा के वैज्ञानिक अध्ययन के नाम पर वाड्.मीमांसा परक अध्ययन होता था। इस अध्ययन में प्राचीन भाषाओं के ऐतिहासिक विकास एवं उनके तुलनात्मक अध्ययन द्वारा भाषा के विकास विषयक सिद्धान्त का प्रवर्तन, शब्दों की व्युत्पत्ति एवं निर्वचन तथा इसके माध्यम से विभिन्न भाषाओं के सम्पर्क-सम्बन्ध का अध्ययन, आगत शब्दों की विवेचना के
माध्यम से पर-संस्कृति के प्रभाव का निरूपण तथा भाषा के विभिन्न घटकों में परिवर्तनों के कारणों के सिद्धांतों के प्रवर्तन पर बल दिया जाता था। अध्ययन के केन्द्रक विषय स्वन (ध्वनि) विज्ञान, शब्दों का निर्वचन , व्युत्पत्ति तथा विकास एवं अर्थ विज्ञान थे। स्वन (ध्वनि) विज्ञान के अन्तर्गत स्वनों के उच्चारण का अध्ययन किया जाता था, किसी विशिष्ट भाषा में स्वन के प्रकार्यों के महत्व के निरूपण से इन्हें कोई प्रयोजन नहीं था। दो भाषाओं में दो स्वनों का प्रकार्यात्मक मूल्य भिन्न हो सकता है -यह दृष्टि इनके पास नहीं थी। व्याकराणिक अध्ययन प्रस्तुत करते समय क्लासिकल भाषा के परम्परागत व्याकरणिक ढांचे में परवर्ती काल की भाषाओं से लेकर उदाहरण दिये जाते थे। जैसे लैटिन के व्याकरणिक ढांचे को आधार बनाकर आधुनिक यूरोपीय भाषाओं से उदाहरण दिये जाते थे। इसी प्रकार आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का व्याकरणिक अध्ययन प्रस्तुत करते समय संस्कृत के आठ कारक तथा तीन वचन के ढांचे में आधुनिक भारतीय भाषाओं के शब्दों के उदाहरण प्रस्तुत कर दिये जाते थे । शब्दों की व्युत्पत्ति तथा अर्थ विज्ञान का उद्देश्य सामाजिक तथ्यों, सांस्कृतिक सम्पर्कों एवं भाषा के विकास का ज्ञान प्राप्त करना होता था। यूरोप एवं अमेरिका के भाषाविद् द्वितीय महायुद्ध की समाप्ति तक इस तथ्य का साक्षात्कार कर चुके थे कि प्रत्येक भाषा की अपनी विशिष्ट व्यवस्था एवं सरंचना होती है। उच्चारण एवं अर्थ भाषा की व्यवस्था एवं संरचना के केन्द्रवर्ती क्षेत्र के अन्तर्गत नहीं आते, उस क्षेत्र का संस्पर्श मात्र करते हैं, उसकी परिधि के चारों ओर चक्कर लगाते हैं । भाषा विज्ञानी का मुख्य कार्य किसी भाषा की आधारभूत संरचना का अध्ययन करना है। व्यवस्था के अन्तर्गत हम स्वनिम व्यवस्था एवं व्याकरणिक व्यवस्था का अध्ययन करते हैं। व्याकरण में वाक्य के किसी स्थान विशेष में विनिमय होने वाले शब्द आदि तत्वों की रूप रचना का अध्ययन करते हैं। (Paradigmatically related elements)। संरचना के अन्तर्गत हम तत्वों के विन्यास क्रमात्मक सम्बन्ध का अध्ययन करते हैं । (Syntagmatically related elements) । संरचना में तत्वों की श्रृखंला होती है । श्रृंखला में एक तत्व जिस जगह आता है वह उसका स्थान कहलाता है। किसी निश्चित स्थान पर एक दूसरे को स्थापन्न करने वाली भाषिक इकाइयां रूपतालिकात्मक सम्बन्ध का निर्माण करती हैं।
भाषा में अनेक स्तरों पर व्याकरणिक व्यवस्थायें प्राप्त होती हैं। प्रत्येक स्तर की इकाई अपने से निम्न स्तर की एक या एकाधिक इकाइयों द्वारा निर्मित होती है ।
वाक्य - उपवाक्य (ओं)
उपवाक्य - वाक्यांश (ओं)
वाक्यांश - शब्द (ओं)
शब्द - रूपिम (ओं)
अपने या अपने से ऊपर के स्तर की इकाई का निर्माण करने वाले तत्वों को संरचक कहते हैं । व्यवस्था के अन्तर्गत हम इन संरचकों के रूपतालिकात्मक सम्बन्धों का तथा संरचना के अन्तर्गत इनके विन्यास क्रमात्मक सम्बन्धों का अध्ययन करते हैं । प्रत्येक तत्व के स्थान में प्राप्त एक शब्द आदि संरचक की जगह उसी कोटि के अन्य शब्द आदि संरचकों को स्थानापन्न किया जा सकता है । ऐसा करने से वाक्य के अर्थ में अन्तर होता है, उसकी संरचना में नहीं। ‘लड़का' जा रहा है - इस वाक्य में जिस स्थान पर आविकारी कारक, एक वचन, पुल्लिंग संरचक ‘लड़का' आ रहा है हम इस स्थान पर उस व्याकरणिक कोटि के दूसरे संरचक को स्थानापन्न कर सकते हैं।
व्याकरणिक तत्व ‘शब्द' नहीं है। ‘लड़का आता है', इस वाक्य का निर्माण ‘लड़का' + आता है- इन शब्दों से हो रहा है। इस वाक्य के व्याकरणिक तत्व लड़का आदि शब्द नहीं अपितु ‘संज्ञा वाक्यांश (एन0पी0) एवं क्रिया वाक्यांश (वी0पी0) हैं। संज्ञा वाक्यांश की अभिव्यक्ति ‘लड़का' से तथा क्रिया वाक्यांश की अभिव्यक्ति ‘आता है' से हो रही है।
कुछ तत्व संरचना के लिए अनिवार्य हेाते हैं एवं कुछ वैकल्पिक होते हैं। ‘लड़का कमरे में पढ़ रहा है' - इस वाक्य में संज्ञा वाक्यांश, अव्यय वाक्यांश एवं क्रिया वाक्यांश हैं। इनमें संज्ञा वाक्यांश एवं क्रिया वाक्यांश अनिवार्य हैं तथा अव्यय वाक्यांश वैकल्पिक है। अनिवार्य संरचकों के आधार पर उपवाक्य की मूल संरचनाओं का अध्ययन सम्पन्न किया जाता है।
प्रत्येक भाषा में अनिवार्य संरचक की रचना में एक शीर्ष होता है, उसके विस्तार की सम्भावनायें रहती हैं। संज्ञा वाक्यांश जिसकी अभिव्यक्ति ‘लड़का' से हो रही है। उसके विस्तार की अनेक योजनायें हो सकती हैं ः
लड़का
अच्छा लड़का
एक अच्छा लड़का
मेरे मित्र का लड़का
मेरे गांव का रहने वाला लड़का
इनमें शीर्ष की अभिव्यक्ति ‘लड़का' से तथा विस्तारक के रूप की अभिव्यक्ति ‘लड़का' से पूर्व जुड़ने वाले शब्दों से हो रही है।
वाक्यांश का अध्ययन करते समय हम उनके शीर्ष के विस्तारों के क्रम एवं क्रमों के नियम आदि का अध्ययन करते हैं। इसी प्रकार वाक्य, उपवाक्य, वाक्यांश, शब्द, रूपिम स्तर के संरचकों की व्यवस्था एवं संरचना का अध्ययन सम्पन्न किया जाता है।
वर्णनात्मक एवं संरचनात्मक भाषा विज्ञान के सिद्धान्तों के प्रवर्तन का कार्य डॉ0 तिवारी जी ने सन् 1963 में प्रकाशित ‘भाषा शास्त्र की रूपरेखा' शीर्षक ग्रन्थ से किया। इस ग्रन्थ में प्रवर्तित सिद्धान्तों का गहराई एवं विस्तार के साथ सन् 1982-83 में प्रकाशित ‘अभिनव भाषा विज्ञानः सिद्धान्त और प्रयोग' शीर्षक ग्रन्थ में निरूपण है। डॉ0 तिवारी जी के प्रकाशित ग्रन्थों की संख्या 17 है । डॉ0 शिव गोपाल मिश्र ने परिश्रम करके डॉ0 तिवारी के लेखों को संकलित करने का कार्य किया है। उनके अनुसार उनके कुल प्रकाशित महत्वपूर्ण लेखों की संख्या 82 है। इनमें उनके सम्पर्क में आने वाले उनके आत्मीय श्री पुरुषोत्तम दास टंडन, रामचन्द्र शुक्ल, निराला, राहुल सांकृत्यायन, महादेवी वर्मा, माखन लाल चतुर्वेदी, रामनरेश त्रिपाठी, गिरिजा दत्त शुक्ल ‘गिरीश' आदि पर संस्मरणात्मक लेख भी हैं।
डॉ0 तिवारी जी के भाषाविज्ञान सम्बन्धी महत्वपूर्ण लेखों की संख्या 32 है। इनमें 20 लेख हिन्दी में तथा 12 अंग्रेजी में है।
(दे0 डॉ0 शिव गोपाल मिश्र ः सुप्रसिद्ध भाषाविद् डॉ0 उदयनारायण तिवारी ः व्यक्तित्व और कृतित्व पृ0 27-32)
यह विवरण मैंने इसलिए प्रस्तुत किया है जिससे उनके कृतित्व के सम्बन्ध में कार्य करने वाले शोधकों का मार्ग प्रशस्त हो सके।
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सम्पर्क
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
(सेवानिवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी
संस्थान )
123, हरि एन्कलेव,
बुलन्दशहर-203001
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