युवा साहित्यकार एवं सामाजिक चिंतक डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर आलोचक के रूप में ख्यात अर्जित कर चुके हैं। आप साहित्य की समस्त विधाओं में समान ...
युवा साहित्यकार एवं सामाजिक चिंतक डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर आलोचक के रूप में ख्यात अर्जित कर चुके हैं। आप साहित्य की समस्त विधाओं में समान रूप से सहजता के साथ कलम चलाने में महारथ हासिल कर चुके हैं। डॉ 0 कुमारेन्द्र के कहानी संग्रह के अतिरिक्त पाठ्यक्रम सम्बन्धी एवम् सामाजिक विषयों से सम्बन्धित अनेक पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है। इण्टरनेट पर वेब पत्रिका शब्दकार एवम साहित्यिक पत्रिका स्पंदन (त्रैमासिक) का सम्पादन डॉ 0 कुमारेन्द्र जी बड़ी कुशलता के साथ कर रहे हैं। आप दलित चिंतन एवं परम्परा के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण रखते हैं। दलित साहित्य पर आपके मतभेद हो सकते हैं परन्तु मनभेद नहीं है हालांकि आप एकतरफा हो रहे दलित विमर्श (दलितों के द्वारा लिखित ही दलित साहित्य है) पर सहमत नही हैं। आपके द्वारा दिये गये कुछ उत्तरों पर दलित चिंतकों एवं विद्वत मनीषियों को आपत्ति हो सकती है परन्तु विमर्श का मतलब ही होता है ज्वलंत बहस ....
डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव - डॉ 0 साहब आप वर्तमान परिप्रेक्ष्य में दलित जागरण कितना महसूस करते हैं ? और क्यों ?
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - जहाँ तक वर्तमान परिप्रेक्ष्य में दलित जागरण की बात है तो यह जागरण अलग-अलग स्थितियों में अलग-अलग रूप में हो रहा है। क्षेत्रगत आधार पर दलित जागरण की स्थिति अलग है। यदि साहित्य की बात करें तो साहित्य का वही अध्ययन कर रहा है जो शिक्षित है और जो दलित शिक्षित हैं अथवा शिक्षा ग्रहण कर रहा है वह तो जागरण की स्थिति में ही है। यही स्थिति कमोवेश अन्य क्षेत्रों में है। हाँ, यदि समाज की, सामाजिक स्तर की चर्चा करें तो अभी यहाँ जागरण की स्थिति में ऊहापोह की स्थिति है। पद, शक्तिधारी दलित जाग्रत हैं शेष अभी भी अपनी स्थितियों से दो चार हो रहे हैं। कुल मिलाकर कहा जाये तो दलित जागरण की स्थिति उतनी सुखद नहीं है जितनी दिखाई जा रही है।
डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव - हिन्दी साहित्य में आप दलित चिंतन/लेखन को कब से मानते हैं ?
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - हिन्दी साहित्य में दलित चिन्तन/लेखन की परम्परा की शुरूआत की बात से पूर्व यह समझना जरूरी है कि यहाँ किस दलित चिन्तन/लेखन की बात की जा रही है। दलितों द्वारा लिखे हुये साहित्य की अथवा गैर-दलितों द्वारा लिखे गये साहित्य की बात। दलित चिन्तन अथवा लेखन की सारी स्थिति एक बिन्दु पर आकर ठहर जाती है कि दलित लेखन किसका स्वीकारा जाये। यदि गैर-दलितों द्वारा लिखी रचनाओं में दलितों की समस्याओं, परेशानियों को सामने लाने को दलित चिन्तन/लेखन का हिस्सा माना जाता है तो भारतीय हिन्दी साहित्य में यह चिन्तन पुराना है। अब यदि वर्तमान परिदृश्य में दलित-चिंतन की चर्चा की जाये तो दलित लेखकों द्वारा काफी पहले से भी और काफी बाद में भी अलग-अलग रूपों में साहित्य सर्जना की गई। मराठी भाषा में तो एक पत्रिका ‘बहिष्कृत भारत’ का प्रकाशन डॉ 0 अम्बेडकर द्वारा सन् 1927 में किया जा रहा था और इससे भी लगभग 13-14 वर्ष पूर्व इसी नाम से एक पत्रिका का प्रकाशन दलित नेता गणेश अक्का गवई ने सन् 1914 में अमरावती से प्रारम्भ किया था। दलित चिन्तन/लेखन काल का निर्धारण करने के लिये पहले दलित साहित्य का निर्धारण करना आवश्यक हो जाता है।
डॉ 0 वीरेन्द्र सिंह यादव - डॉ 0 भीमराव अम्बेडकर ने एक स्थान पर लिखा है कि यदि गुलाम को गुलाम होने का अहसास दिला दीजिये तो वह इसके प्रतिरोध में भड़क उठेगा ? क्या दलित साहित्य भी दलितों में उनके दलित होने का अहसास दिला रहा है ? इस मत से आप कहाँ तक सहमत हैं। स्पष्ट कीजिये ?
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - देखिए डॉ 0 साहब, अम्बेडकर जी ने कब किस रूप में गुलाम को गुलामी का अहसास कराने की बात की और कैसे की पता नहीं पर इस बात को परिस्थितिगत रूप में समझा जाये तो वास्तविकता कुछ और ही है। यदि एक गुलाम दूसरे गुलाम को गुलामी का एहसास करायेगा तो प्रतिरोध होगा। एक दबे कुचले को, दबा कुचला व्यक्ति ही उसकी स्थिति का आभास करायेगा तो वह भड़केगा। इसके ठीक उलट यदि किसी गुलाम को उसका मालिक गुलामी का एहसास करायेगा तो वह अपना प्रतिरोध किस पर दिखायेगा? शोषण करने वाला यदि शोषित से उसकी स्थिति का आभास कराता रहे तो शोषित का प्रतिरोध किस पर भड़केगा? यदि गुलाम अथवा शोषित प्रतिरोध की स्थिति में होता तो उसका शोषण ही क्यों होता? यह बात तो सामान्य सी है कि जिसका शोषण हो रहा होता है वह प्रतिरोध की स्थिति में नहीं होता है, हाँ उसका प्रतिरोध क्रिया-प्रतिक्रिया रूप में अपने परिवार, पत्नी, बच्चों, जानवरों आदि पर ही निकलता है।
आपके प्रश्न के दूसरे भाग की चर्चा की जाये कि क्या दलित साहित्य भी दलितों में उनके दलित होने का अहसास दिला रहा है, यह विरोधाभासी बयान सा लगता है। आप ही सोचिये कि दलित-साहित्य से पूर्व दलितों में दलित होने का अहसास नहीं था? सामाजिक व्यवस्था के ताने-बाने में दलित साहित्य की संकल्पना के पूर्व भी दलित को दलित का अहसास था। दलित साहित्य की स्थिति अपने आप में विकट है। आज कोई दलित यदि दलित की चर्चा करता है, लिखता है तो वही दलित साहित्य है और यदि मैं कुछ कहूँ तो वह दलित साहित्य नहीं है।
देखिये दलित साहित्य से दलितों को दलित होने का अहसास हो रहा है या नहीं यह बाद का सवाल है, पहले यह निर्धारण हो कि दलित साहित्य क्या और किसके लिये? मेरे स्वयं के मतानुसार किसी जाति-वर्ग-धर्म को उसका अहसास कराने के लिये उसी के साहित्य की आवश्यकता नहीं है। दलितों को उनके दलित होने का अहसास है, दलित साहित्य इसे समाज में और भी गहराई से स्थापित कर रहा है। यदि यहाँ बात सिर्फ दलित होने के एहसास की हो तो दलित साहित्य से अधिक दलित होने का अहसास दलित साहित्यकारों, राजनीतिज्ञों ने करवाया है। यहाँ विस्तार की आवश्यकता नहीं है स्थितियाँ आपके, हमारे सभी के सामने स्पष्ट हैं।
डॉ 0 वीरेन्द्र सिंह यादव - समाज की सामाजिक व्यवस्था के तहत कुछ लोग आरक्षण का विरोध करते हैं? परन्तु कुछ एक जगह उनका पूरा वर्चस्व है (जैसे मंदिरों में पुजारी के पद पर एक ही जाति ब्राह्मणों का अधिकार है)? इस वाक्य की सहमति या असहमति में आप अपने विचार व्यक्त कीजिये?
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - इस प्रश्न पर सहमति/असहमति का सवाल नहीं उठता है। मंदिर में पुजारी की स्थिति और समाज में आरक्षण की स्थिति दो अलग-अलग व्यवस्थाएं हैं। वर्तमान में जिस आरक्षण व्यवस्था का विरोध हो रहा है इस आरक्षण से कितने दलितों का भला हो सका है। मंदिर के पुजारी की चर्चा से पहले आज समाज को जिस स्थिति की जरूरत है उसकी चर्चा जरूरी है। आप स्वयं देखिये जिस क्षेत्र में आरक्षण है क्या वहाँ वास्तविक रूप में दलितों को लाभ प्राप्त हुआ है ? शिक्षा में आरक्षण का मैं भी पक्षधर हूँ पर जिस प्रकार से अच्छी मेरिट के बाद भी सामान्य वर्ग का विद्यार्थी बाहर रह जाता है और अत्यधिक कम मेरिट पाने के बाद भी आरक्षित वर्ग को प्रवेश मिलता है, यह गलत है। इस व्यवस्था से आप किस समाज की स्थापना कर रहे हैं।
देखिये आगे आने के अवसर, बढ़ने न देना जैसे सवालों से ही दलित समाज का भला नहीं हो पा रहा है। आप ही बताए डॉ0 अम्बेडकर क्या किसी दलित साहित्य के सहारे, दलित विमर्श के सहारे अथवा आरक्षण के सहारे इतना ज्ञानार्जन कर सके थे? तब आज क्यों इस आरक्षण पर इतना बवाल होता है? आज तो परिस्थितियाँ भी उतनी प्रतिकूल नहीं है जितनी अम्बेडकर के समय में थीं। रही बात मंदिर में पुजारी पद के आसीन/आरक्षण की तो यह वो पद है जो किसी जमाने में कार्य-व्यवस्था से उत्पन्न था न कि जन्म व्यवस्था से। बाद में इसी वर्ग ने अपना एकाधिकार सा स्थापित कर इसको ब्राह्मणों के लिये ही स्थापित कर लिया। फिर भी मंदिर और समाज दो अलग स्थितियाँ हैं। ब्राह्मण दलितों से बचता है, दलित मंदिरों, पूजा-अर्चना से तो दलितों को ब्राह्मण, पुजारी, मंदिर जैसे मुद्दों पर गम्भीर नहीं होना चाहिये। सामाजिक स्थिति में आरक्षण का लाभ लेकर स्वयं कैसे बढ़ा जाये यह सोचना चाहिये, आरक्षण के लाभ से स्वयं के विकास की बात सोचनी चाहिये न कि इसका लाभ औरों में स्थानान्तरित करवा देना चाहिये, जैसा कि आजकल राजनीति में हो रहा है। स्थितियाँ आप समझ सकते हैं।
डॉ 0 वीरेन्द्र सिंह यादव - कुछ आलोचकों का मानना है कि दलित साहित्य से भारतीय संस्कृति एवं परम्परा को खतरा है? आपकी दृष्टि में यह कितना सत्य है? भारतीय संस्कृति एवं परम्परा में दलितों के स्थान को रेखांकित कीजिये?
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - मैं इस बात से पूरी तरह असहमत हूँ कि दलित साहित्य से भारतीय संस्कृति एवं परम्परा को खतरा है। पहली बात कि भारतीय संस्कृति कोई ऐसा सामान नहीं है कि जिसे कोई भी आकर नष्ट कर जाये। यह इस देश की करोड़ों-करोड़ वर्ष की पहचान है जो दिन-प्रतिदिन और भी सशक्त होती जाती है। दूसरी बात, दलित साहित्य है क्या ? मेरी अपनी दृष्टि अपने विचार में एक वर्ग विशेष के कुछ विशेष लोगों का अपना मंच है जो एक दूसरे वर्ग को गाली देने का काम कर रहा है।
यहाँ मैं आपके पूर्व में पूछे गये एक सवाल की ओर आपका ध्यान खीचूंगा जहाँ आपने गुलाम को गुलामी का अहसास दिलाने पर प्रतिरोध की बात पूछी थी। दलित साहित्य के द्वारा दलित साहित्यकार यही काम कर रहे हैं। एक साहित्यकार अपनी व्यथा, अपना शोषण लिखता है, दिखाता है तो उसके प्रतिरोधात्मक रूप में दूसरा दलित साहित्यकार अपने साहित्य में सवर्णों को, ठाकुरों को ब्राह्मणों को गरियाता दिखता है, उनकी मारपीट, हत्या करता दिखता है, सवर्णों की महिलाओं से अवैध सम्बन्धों को दिखाता है ..... क्या वाकई समाज में ऐसा हो रहा है ? या यह दलित साहित्यकारों की अपनी खोपड़ी की उपज है ? इसी बिन्दु के परिदृश्य में आप स्वयं निर्णय लीजियेगा कि यदि दलित साहित्य की तरह ही सवर्ण साहित्य का प्रारम्भ हो जाये और उसमें दलितों के शोषण, गाली-गलौज, मारपीट, दलित महिलाओं के यौन शोषण के वीभत्स चित्र दिखाये जानें लगें तो खतरा किसे होगा, भारतीय संस्कृति/परम्परा को अथवा समाज को ?
यह दलित चिन्तन नहीं है, दलित विमर्श नहीं है, दलित साहित्य नहीं है। यह उनकी प्रतिशोध की भावना है जो दलित साहित्य का नाम लेकर सामने आ रही है। इससे संस्कृति को भले खतरा हो या न हो पर समाज को साहित्य को अवश्य ही नुकसान है।
दलितों के स्थान का आपका प्रश्न स्थितिगत हैं। कमोबेश ऐसी स्थिति प्रत्येक गरीब-शोषित वर्ग के साथ है। उच्च पदस्थ दलित आज सम्मानित हैं तो इसलिये नहीं कि दलित जागरण हुआ है बल्कि ऐसा इसलिये क्योंकि उनके पास पद प्रतिष्ठा है। गरीब, अनपढ़, दलित आज भी उपेक्षित हैं। यह उपेक्षा यदि सवर्ण से है तो उसे दलितों से भी मिल रही है। मेरे पास ऐसे एक-दो नहीं दसियों उदाहरण हैं जो दलितों का स्थान उनकी पद-प्रतिष्ठा के आधार पर निर्धारित करते हैं। उपेक्षा की स्थिति गरीब सवर्णों के साथ भी है। यदि आपने रोजमर्रा के क्रियाकलापों को गौर से देखा हो तो सम्पन्न व्यक्ति किसी भी जाति-धर्म का हो मजदूर वर्ग के व्यक्ति से भेदभाव भरा बर्ताव करता है। दलित मजदूर को वह पानी पिलायेगा तो दूर से और सवर्ण मजदूर को पास से पर बगल में किसी को नहीं बैठायेगा।
डॉ 0 वीरेन्द्र सिंह यादव - कुछ प्रगतिशील लेखकों/विद्वानों की दृष्टि से भारत में जाति-पांति खत्म हो रही है ? और दलित साहित्य के लेखक केवल प्रचार पाने के लिये शोषण एवं अत्याचार की मनगढ़ंत बातें करते रहते है ? आपकी दृष्टि में यह कहाँ तक उचित है?
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - यह कहना तो नितान्त गलत है कि देश से जाति-पांति खतम हो गई है अथवा खतम हो रही है। जो लोग यह कह रहे हैं कि ऐसा हो रहा है वो समाज को बरगलाने के और कुछ नहीं कर रहा है। मैं यह तो नहीं बता सकता कि आगे क्या होता, जाति-पांति खतम होती या नहीं, कुछ कम तो होती ही पर अब ऐसा लगता है कि यह समाप्त होने वाली नहीं। ऐसा मैं बिना किसी आधार के नहीं कह रहा हूँ। आप किसी दलित को कोरी, चमार जैसे शब्दों से सम्बोधित करिये तो कहो आपके ऊपर जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करने पर केस दर्ज हो जाये पर चुनावों के समय देखिये तमाम जातियाँ बैनरों, पोस्टरों पर सुशोभित होने लगती हैं। जाति विशेष के आधार पर टिकट देने की स्थितियां निर्धारित होती हैं तो फिर कैसे कहा जा सकता है कि जाति-पांति समाप्त हो रही है।
अब यही स्थिति साहित्य को लेकर देखी जाये तो जब तक दलित-सवर्ण का एहसास लेखन के सहारे जगाये रखा जायेगा तब तक जातियों के समाप्त होने का प्रश्न ही नहीं खड़ा होता। रही बात प्रगतिशील लेखकों/विद्वानों की तो इस वर्ग में वे लोग हैं जो हमेशा किसी न किसी व्यवस्था का विरोध करते नजर आते हैं। इनकी प्रगतिशीलता हिन्दुओं को गाली देने और गैर-हिन्दुओं को सम्मान देने में सामने आती है। इनकी प्रगतिशीलता स्वयं के जातिसूचक शब्दों से आरम्भ होती है और स्वयं पर ही समाप्त होती है।
जहाँ तक शोषण-अत्याचार का सवाल है, जो आपने उठाया है इसमें कमी तो आई है पर दलितों का, गरीब सवर्णों का शोषण अभी भी हो रहा है। हाँ, यदि इसे पूर्वाग्रह से मुक्त रखा जाये तो दलित साहित्य की बढ़ती लाभबन्दी से शोषण (दलितों पर) बढ़ा ही होगा, कम होने का तो सवाल ही नहीं।
डॉ0 वीरेन्द्र सिंह यादव - ईश्वर को मानने वालों की दृष्टि में सब समान हैं तब फिर ब्राह्मण का नाम मंगल सूचक क्षत्रिय का नाम बल युक्त तथा वैश्य का नाम धन सूचक शब्द से युक्त रखा गया। फिर शूद्र का नाम घृणित शब्दों में क्यों रखा जाता है ? बात यहीं समाप्त नहीं होती समाज के सभ्य कहे जाने वाले लोग जब आपस में लड़ते या बहस करते हैं तो जातिसूचक (चोर, चमार, भंगी) गाली देकर अपनी भड़ास निकालते हैं? आज भी इस भारतीय व्यवस्था में दलित हाशिए पर हैं? उत्पीड़न के इस समाजशास्त्र पर आप कहाँ तक सहमत हैं? अपने मत व्यक्त कीजिए?
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - भारतीय समाज में दलित वर्ग को सेवा करने वाला स्वीकारा जाने लगा है। यदि वर्ण व्यवस्था के रूप में देखे तो शूद्र को सेवक के रूप में जाना गया था। समाज-शास्त्रीय रूप में जैसे-जैसे ‘वर्ण’ कर्म के आधार पर नहीं जन्म के आधार पर निर्मित होने लगे तो उनके घृणित कार्यों के आधार पर उनका नामकरण होने लगा। जहाँ तक लड़ाई झगड़े के मध्य दो लोगो के गाली-गलौज में जाति सूचक शब्दों का प्रयोग उसको नीचा दिखाने के लिए किया जा रहा है न कि सम्मानित करने के लिए, ऐसे में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की जातियों का सम्बोधन न होकर घृणित कार्यों वाली जातियों का प्रयोग होता है। इसके विपरीत आप किसी चमार को चमार, भंगी को भंगी, मेहतर को मेहतर कह के देखिए पता चल जायेगा कि जाति सूचक शब्द क्या है? यही सामाजिक स्थिति है।
अब यदि कहा जाये कि दलितों का उत्पीड़न नहीं हो रहा है तो गलत होगा पर यदि कहा जाये कि सिर्फ दलितों का ही उत्पीड़न हो रहा है तो यह भी गलत होगा। हाँ, यहाँ एक बात आपके गालियों वाले सवाल पर, वो ये कि लड़ाई में आपने देखा होगा कि लोग जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करने के अतिरिक्त माँ-बहिन की गालियों का भी प्रयोग करते हैं। मनुष्य की यह प्रकृति है कि वह किसी भी रूप में दूसरे को नीचा दिखाना चाहता है, चाहे शूद्र वर्ग की गाली देकर, चाहे माँ-बहिन की गाली देकर।
डॉ 0 वीरेन्द्र सिंह यादव - दलित उत्पीड़न के पीछे मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि क्या है? भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसे कैसे समाप्त किया जा सकता है?
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - आपका यह सवाल कालखण्ड के अनुसार अलग-अलग जवाब देता रहेगा। आज से सौ साल पहले की बात करें तो दलित उत्पीड़न का मनोविज्ञान अलग था। एक हजार साल पूर्व की बात करें तो मनोविज्ञान अलग था। जो लोग मानते हों और जो न मानते हों तब भी यदि ‘राम’ के समय की बात करें तो मनोविज्ञान अलग था, जब मनु-स्मृति की रचना की गई तब दलित-उत्पीड़न का मनोविज्ञान अलग था।
आज हो यह रहा है कि दलित चिन्तक हों अथवा गैर-दलित-चिन्तक, राजनीतिज्ञ हों या समाज सेवक सभी दलित-उत्पीड़न की व्याख्या कर रहे हैं, उसके मनोविज्ञान को तलाश कर समाधान खोज रहे हैं पर वर्तमान से आँखें मूँद कर। ऐसे तो बस चर्चा होंगीं, बहस होंगीं, गोष्ठियाँ होंगी, चुनाव होंगे, सत्ता परिवर्तन होंगे पर दलित जागरण अथवा सुधार नहीं होगा। पहले स्वयं का मनोविज्ञान सुधारना होगा।
आप ही बताइए यदि दलित समाज राम को रामायण को काल्पनिक मानता है तो फिर ‘शम्बूक वध’ को वास्तविक क्यों मानता है। यह भी सवर्ण साहित्य मानकर उसी तरह स्वीकारा जाये जैसे दलित साहित्य में आज कोई दलित, सवर्ण की हत्या कर समाज परिवर्तन की बात करता है। काल्पनिकता में वास्तविकता को समझाना कौन सा मनोविज्ञान है ? इसी तरह ‘मनुस्मृति’ में क्या-क्या लिखा यह बीती बातें हैं, दलितों की समस्याओं का हल वर्तमान परिदृश्य में न निकालकर मनुस्मृति काल से निकाला जायेगा तो इसे कौन सा मनोविज्ञान कहा जायेगा?
आज समस्या वेद-पुराण पढ़ने पर कान में पिघला सीसा या मुँह में गरम लोहा घुसा देने की नहीं है, आज समस्या छुआछूत, गरीबी, बेकारी की है। दलित उत्पीड़न से पूर्व उत्पीड़न का मनोविज्ञान समझना होगा। किसी भी व्यक्ति का उत्पीड़न क्यों होता है, यह जानना होगा। अपने आसपास देखिये सम्पन्न दलित वर्ग अपने यहाँ काम करने वाले दलित का ही शोषण कर रहा है। इसे दलित साहित्यकार अथवा चिन्तक अथवा किसी दलित नेता को बताया जाये तो वह इसे भी सवर्ण की साजिश बताकर कुतर्क करेगा। आज इसी मनोविज्ञान को समझना होगा।
बहुत छोटे रूप में देखा जाये तो समूचे समाज में उत्पीड़न के पीछे आधिपत्य का मनोविज्ञान कार्य करता है। एक वर्ग का दूसरे पर, एक जाति का दूसरी पर, एक व्यक्ति का दूसरे पर प्रभुत्व बनाये रखने की चाह में उत्पीड़न होता है। इसे आप ऐसे समझिये कि यदि एक समूचा गाँव क्षत्रियों का है तो क्या वहाँ उत्पीड़न नहीं है ? एक पूरा समूह यदि शूद्रों का, दलितों का है तो क्या वे एक जैसे सामाजिक स्थिति के बाद भी एक दूसरे का उत्पीड़न नहीं करते ? देखिये इसे नकारा नहीं जा सकता है, अपनी शक्ति, अपनी सत्ता, अपना आधिपत्य स्थापित करने की होड़ ही उत्पीड़न को जन्म देती है। यह चाहे सवर्ण-सवर्ण में हो, दलित-दलित में हो अथवा सवर्ण-दलित में हो।
समाप्ति की बात तो, हास्यास्पद लगती है क्योंकि मनुष्य कभी अपनी प्रवृत्ति को तो बदलेगा नहीं। शक्ति प्रदर्शन, सत्ता प्राप्ति, धनार्जन किसी न किसी रूप में वह करता रहेगा और उत्पीड़न होता रहेगा। कल्पना कीजिये कल को समूचा दलित समाज सवर्ण समाज की तरह शक्तिशाली, सामाजिक प्रस्थिति वाला, वैभव सम्पन्न, सत्ता सम्पन्न हो जाये तो क्या उत्पीड़न थम जायेगा ? नहीं, न ..... उत्पीड़न भी समाज की एक गति है जो समाज निर्माण से चली आ रही है और समाज ध्वंस तक चलती रहेगी। हम, आप या कोई भी यह कहे कि यह अहिंसा, प्रेम, भाईचारा, त्याग आदि से समाप्त हो जायेगा तो सिवाय अपने को धोखा देने के कुछ भी नहीं कर रहा है। मनुष्य द्वारा मनुष्य की बात तो आप छोड़िये डॉ
0 साहब, मनुष्य तो जानवरों तक का उत्पीड़न करने का मौका नहीं चूकता, तब आप इसके समाप्त होने की उम्मीद कैसे कर रहे हैं? हाँ हो सकता है सवर्णों द्वारा दलितों का शोषण बन्द हो जाये पर सवर्णों का, दलितों का शोषण होना बन्द नहीं होगा, अब शोषण भले ही करने वाला कोई भी हो।
डॉ 0 वीरेन्द्र सिंह यादव - दलित साहित्य को साहित्य में आप किस दृष्टि से देखते हैं? दलित साहित्य के सामाजिक सरोकार क्या हैं?
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - दलित साहित्य को लेकर जहाँ तक मेरी अपनी दृष्टि का सवाल है तो साहित्य के लिये अथवा समाज के लिये यह शुभ संकेत नहीं है। दलितों द्वारा, दलितों की शोषण की स्थिति को दर्शा कर उसका समाधान निकालना यदि दलित साहित्य का उद्देश्य होता तो अच्छा था, पर ऐसा तो हो नहीं रहा है। दलित साहित्य के द्वारा दलित साहित्यकार अपना अथवा दलितों का भोगा सत्य सामने ला रहे हैं, साथ ही प्रतिशोधात्मक रूप में सवर्णों को गरिया रहे हैं। क्या इस तरह से साहित्य का या स्पष्ट रूप से कहें तो खुद दलितों का भला होगा ? जो लोग दलित साहित्य को क्रांतिकारी, चेतनाशील, जाग्रति लाने वाला बता रहे हैं वे स्वयं इस बात को खोजते फिर रहे हैं कि उनका साहित्य पढ़ कितने लोग रहे हैं ?
यदि सामाजिक सरोकारों की बात करें तो ऐसे साहित्य से सकारात्मक उम्मीद नहीं की जा सकती जो विद्वेष की भावना से लिखा जा रहा हो। इस तरह का साहित्य अपने शेष, आक्रोश की अभिव्यक्ति का साधन तो बन सकता है पर सामाजिक सरोकारों पर खरा नहीं उतरता है। यह साहित्य न तो किसी प्रकार के मानक निर्मित कर रहा है, न किसी आदर्श की स्थापना कर रहा है तो फिर सामाजिक सरोकारों को कैसे स्थापित करेगा ? देखा जाये तो इसी तर्ज पर सवर्ण साहित्य की रचना की जाने लगे और उसमें दलितों के शोषण को, उन पर अत्याचार को दर्शाया जाता रहे तो इस प्रकार साहित्य में वही वर्ग-विभेद तैयार होगा जो समाज में बना है। मूल्यों की स्थापना, आदर्शों की स्थापना, समाज विकास की संकल्पना, समाज हित का निर्धारण आदि की पूर्ति जहाँ न हो सके, जिससे न हो सके उस साहित्य से सामाजिक सरोकारों की आशा कदापि नहीं करनी चाहिये।
डॉ 0 वीरेन्द्र सिंह यादव - आपकी दृष्टि में सहानुभूति, समानुभूति एवं स्वानुभूति का लेखन क्या है? दलित साहित्य के परिप्रेक्ष्य में इस पर आप अपने विचार व्यक्त कीजिये।
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - मेरी राय में स्वानुभूति, समानुभूति, सहानुभूति दलित साहित्यकारों द्वारा बनायी गई व्यवस्था हैं। इस व्यवस्था का रूप उसी तरह लगता है जैसे कि भारतीय समाज की वर्णव्यवस्था का रूप था। कर्म जैसा होगा वैसा ही वर्ण होगा पर धीरे-धीरे सब बदल गया। आप बताइये स्वानुभूति-समानुभूति की बारीक रेखा को पहचानने वाला दलित ही दलित साहित्य रचेगा। चूंकि ये सारे शब्द दलित साहित्य के इर्द-गिर्द ही परिभाषित किये जा रहे हैं इस कारण इनका अर्थ भी सीमित होकर रह गया है।
स्वानुभूति-समानुभूति-सहानुभूति को भोगी पीड़ा से उपजा मानकर दलित साहित्य निर्माण की बात करी जा रही है। यहाँ एक सवाल मैं आपसे पूछता हूँ कि यदि भोगी गई पीड़ा को दर्शाता साहित्य दलित साहित्य है तो क्या शोषित सवर्ण के स्वानुभूतिपरक लेखन को आप दलित-साहित्य का हिस्सा मानेंगे? दलित साहित्यकार यहीं आकर कुतर्क करते हैं। यदि दलित साहित्य से तात्पर्य भोगी गई पीड़ा वालों का, शोषितों का साहित्य है तो शोषित सवर्ण भी है, पीड़ा सवर्ण भी भोग रहे हैं, पर उनके लेखन को दलित साहित्यकार दलित साहित्य की सीमा में नहीं मानते। आप शैलेश मटियानी का उदाहरण ले सकते हैं जिनका जीवन किसी भी रूप में किसी शूद्र से कम पीड़ादायक नहीं रहा पर उनका साहित्य तो दलित साहित्य की श्रेणी में नहीं आता। दूसरी ओर यदि दलित साहित्य जातिगत रूप से दलित घोषित व्यक्तियों का साहित्य है तो स्वानुभूति-समानुभूति- सहानुभूति जैसे शब्दों की चोचलेबाजी का कोई अर्थ नहीं है। सीधी सी बात है वही साहित्य दलित साहित्य होगा जो दलित वर्ग द्वारा लिखा जायेगा।
हो सकता है कि तमाम सारे दलित साहित्यकारों को मेरी बातें हजम न हों, मुझ पर दलित विरोधी होने का ठप्पा लग जाये पर साहित्य का विद्यार्थी होने के कारण यह अवश्य कहना चाहूँगा कि यह सब साहित्य हित में नहीं है। जो दलित साहित्यकार अथवा सम्पन्न दलित वर्ग चाहे वे राजनेता हों, नौकरी पेशा हों, चाहें व्यापारी हों, सभी आज अपना पीड़ादायक सत्य लिखकर दलित साहित्य का निर्माण कर रहे हैं पर उनकी आने वाली पीढ़ियाँ जो पीड़ा को मात्र किताबों में देख रही होंगी उसका लिखा साहित्य दलित साहित्य होगा या नहीं ? क्योंकि यहाँ भी सहानुभूति-समानुभूति-स्वानुभूति का शब्द जाल मौजूद रहेगा। इसके अलावा इसी से जुड़ी एक और बात, वो ये कि दलितों के मसीहा गौतम बुद्ध ने भी ‘सहानुभूति’ की स्थिति को देखा था। वे न तो दलित थे और न ही पीड़ा भोग रहे थे तब वे दलितों के उद्वारक कैसे मान लिये गये।
वैसे डॉ0 साहब पूरा दलित साहित्य तर्कों, कुतर्कों, बहसों पर निर्भर करता है, हम अपनी बात कहेंगे, आप आपसी, दलित साहित्यकार अपनी कहेगा, अपनी ही सुनेगा तो फिर स्वानुभूति- समानुभूति-सहानुभूति का कोई मतलब नहीं रह जाता। यदि दलित साहित्य किसी जाति विशेष का साहित्य है तो यह साहित्य कहाँ रह गया?
डॉ 0 वीरेन्द्र सिंह यादव - कुछ विद्वान आलोचकों का मानना है कि जब साहित्य में कमलेश्वर, डॉ 0 मैनेजर पाण्डेय, डॉ 0 महीप सिंह, डॉ 0 बजरंग तिवारी, डॉ 0 राजेन्द्र यादव जैसे धुरंधर गैर दलित लेखक अपनी रचनाओं के द्वारा दलित समाज के बारे में श्रेष्ठ सृजन कर रहे हैं? ऐसे में दलितों को कमजोर रचनाएं (शिल्प विधान) नहीं देनी चाहिए? इस मत से आप कहाँ तक सहमत हैं?
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - आप किस रचना को श्रेष्ठ कहेंगे और किसे निम्न ? साहित्य में रचनाओं की श्रेष्ठता के मापन का पैमाना साहित्य के स्वयंभू ठेकेदारों ने ही बना रखा है। आपने अभी जिन धुरंधर साहित्यकारों के नाम लिये वे स्वयं अपनी रचनाओं को पढ़ लें तो उसकी श्रेष्ठता खुद-ब-खुद साबित हो जायेगी। रचनाओं की श्रेष्ठता आज रचनाकार के नाम पर निर्भर करती है। आलोचक आज खेमेबंदी कर लेखक को प्रसिद्धि दिला रहे हैं। यदि आपके पास वर्ग है, आलोचकों का झुण्ड है तो आप कुछ भी लिखें वो श्रेष्ठ है। दलित साहित्यकारों को तो पहले ही इन कथित साहित्यकारों ने दबा रखा था ऊपर से दलित साहित्यकारों की अपनी लामबन्दी ने उन्हें खुद हाशिये पर खड़ा कर दिया।
आप बतायें, वीरेन्द्र जी, आपका लिखा कोई पढ़े और पसंद करे तो आलोचक को यह अधिकार किसने दिया कि वह उसका पोस्टमार्टम करे। मैं तो किसी भी आलोचक को अधिकार नहीं देता कि मेरी रचना को जाँचने की हिमाकत करे। अरे! मेरे पाठक हैं, वो पढ़ रहे हैं, मजा ले रहे हैं, प्रसन्न हैं बस रचना श्रेष्ठ हैं आज कितने लोग हैं जो इन स्थापित लेखकों की कृतियां पढ़ते हैं? यह साहित्य जगत की विडम्बना ही कही जायेगी कि जिन्हें लिखने का ज्ञान नहीं, जिनका कोई पाठक वर्ग नहीं लोग आलोचक बने बैठे हैं। लाइब्रेरी की शेल्फ में सज जाना, अमीरों की किताबों के बीच अपनी पुस्तक खपा लेना, किसी कृति पर फिल्म का, सीरियल का निर्माण करवा लेना ही सफलता है तो आपके बताये धुरंधर वाकई धुरंधर हैं, वर्ना रचनाओं में गहराई तो एक नये लेखक में भी होती है।
यह कहना कि हम श्रेष्ठ का निर्माण कर रहे हैं और आप निम्नहीन का निर्माण कर रहे हैं तो निर्माण बन्द कर दें कहाँ की साहित्यिकता है? हाँ, यदि ये श्रेष्ठ साहित्य सर्जक यदि अमर घुट्टी पीकर आये हों कि ताउम्र अच्छा लेखन करते रहेंगे तो वाकई कमजोर रचना करने वालों को रचनायें नहीं करनी चाहिये क्योंकि इन धुरंधर लेखकों की अमरता साहित्य को श्रेष्ठ रचनायें प्रदान करती रहेगी।
डॉ 0 वीरेन्द्र सिंह यादव - डॉ 0 साहब आपके जहन में ऐसे कौन से कारक हैं जो आपको सृजन की ओर आकर्षित करते हैं। नये रचनाकारों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे?
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर - इस प्रश्न का उत्तर यदि बिना किसी लाग लपेट के दिया जाये तो वह होगा नाम कमाने की आकांक्षा। यह आपको अजीब लग रहा होगा पर सत्यता यही है कि सभी का लेखन कार्य नाम प्राप्ति, यश प्राप्ति के लिये ही होता है न कि समाज अथवा साहित्य हित में। स्वान्तः सुखाय वाली स्थिति वाले दो चार लोग होंगे, मैं यह नहीं कहता कि ऐसे लोग नहीं है पर वे सामने कहाँ हैं ? खैर ..... जहाँ तक कारकों की बात है तो कुछ मुद्दे, कुछ घटनायें ऐसी होती हैं जो मन को भीतर तक उद्वेलित कर जाती हैं। इसी आवेग में कभी कविता, कभी कहानी तो कभी लेख की रचना हो जाती है, फिर भी यह सत्य है कि अधिकांश लेखन तो प्रकाशन के लिये होने लगा है, मैं भी कहीं न कहीं इसी तरह के लेखन का शिकार हूँ।
हाँ एक बात जो मैंने महसूस की है कि गम्भीरता उसी लेखन में आती है जिसके भाव भीतर से अपने आप उठते हैं। नये रचनाकारों में अब प्रयोगधर्मिता दिखाई दे रही है। नये-नये शिल्पविधान, नये-नये प्रतीकों, नये विषयों से साहित्य का भण्डार तो बढ़ रहा है पर उसमें से आत्मा मर चुकी है। नये रचनाकार अब पढ़ने की ओर ध्यान नहीं देते हैं और चाहते हैं कि लेखन प्रेमचन्द, निराला, प्रसाद, पन्त जैसा हो जाये। नये रचनाकार स्थापित लेखकों वास्तविक साहित्यकारों को अधिक से अधिक पढ़ें, गंभीर विषयों का अध्ययन करें ताकि लेखन में उथलापन अथवा हलकापन न आये। दूसरी बात यह कि इधर-उधर से सामग्री की नकल कर लेखन तो किया जा सकता है पर अच्छा साहित्य नहीं रचा जा सकता, तो नकल की प्रवृत्ति से नये रचनाकार बचें। अपने विचारों को, भावों को जाग्रत करें। तीसरी बात नये रचनाकार प्रत्येक विषय में कलम चलाने के अहं से बचें। सभी विषयों में पारंगत नहीं हुआ जा सकता, वे अपनी सीमा पहचानें, अपना क्षेत्र पहचानें और उसी पर अधिकारपूर्वक कलम चलायें। एक बात और ज्यादा से ज्यादा प्रयास सीखने का हो क्योंकि लगातार सीखने वाला कभी भी असफल नहीं हो सकता। नये रचनाकारों पर ही साहित्य का भविष्य टिका है। उनके लेखन की उज्ज्वलता साहित्य को भी उज्ज्वल बनायेगी।
यह बात उन सभी लोगों पर लागू होती है, जो जीवन में आगे बढना चाहते हैं।
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
khooooooooooooooooooooooob lambi lekin umda varta......badhaai !
जवाब देंहटाएंलामबंदी से बचा जा सकता है ?
जवाब देंहटाएंलामबंदी हम भारतियों की रग-रग में रची बसी हुई है.