सदाशयता या भावनाओं के प्रवाह में बहकर नही वरन नितांत गंभीरता से ही डिप्टी कलेक्टर प्रशांत ने अपना निर्णय जानना चाहा।‘‘ मैं जानता हूं भ...
सदाशयता या भावनाओं के प्रवाह में बहकर नही वरन नितांत गंभीरता से ही डिप्टी कलेक्टर प्रशांत ने अपना निर्णय जानना चाहा।‘‘ मैं जानता हूं भानू सब समझता हूं। तुम्हारा जो भी फैसला होगा, मुझे मंजूर होगा। तुम्हारी इच्छा का सम्मान करूंगा। हां पर सोचो जीवन के किसी मोड़ पर तो एक साथी की जरूरत पड़ेगी ही न। जो बिल्कुल तुम्हारा अपना होगा, तुम्हारे सारे सुख दुख समेटेगा। अच्छाइयों बुराइयों के साथ अपनाकर तुम्हारे कदम पर कदम चल सकेगा। मैं तुम्हारे साथ हूं और रहूंगा। आशा है परिणाम मेरे पक्ष में होगा।''........
‘‘इंतजार करूंगा मैं तुम्हारा।''
बार बार उसके स्मृति पटल पर प्रशांत के वे ही शब्द मिटते उभरते। ‘भावना' अपनी अव्यक्त घनी उदासी में डूबी रहकर यही सोचती रही हैं उसके अकेलेपन व सूने जीवन के साथी तो प्रशांत से अधिक कोई नहीं हो सकता हैं। वे ही तो हैं जो उसके रूप ही नहीं गुणों की भी कद्र सदैव करते आए हैं। कितनी धीरता से उसका मनोविश्लेषण करते रहे हैं वे। पिछले कुछ दिनों से उसके परिस्थितियों के मूक साथी भी तो हैं। अपने छोटे से जीवन में कितने उतार चढ़ाव देखती रही है। भीषण झंझावातों से झुकी नहीं हैं। अनेक ही कठिनाइयां आती रहीं हैं। पग पग पर डगमगाई तो है पर सँभलती रहीं। बाहृय आडंबरों के कितने घने जालों में फंसकर निकल चुकी है। बिखर नहीं पाई है, प्रबल आंधियों से टक्कर ली है भागी नहीं ही है।
पर........अब जिन्दगी के इन भीगे क्लांत क्षणों में अनायास उसके मन किसी के कंधे पर सिर रखकर शीतलता पाने का हो रहा है। जीवनपथ पर जबसे प्रशांत आ मिले हैं सबकुछ छोड़कर उम्र जाति धर्म उलझनों से बहर निकलकर केवल उनका ही साथ चाहती है भावना। कितने असमंजस संघर्षात्मक स्थिति में है वह, प्रदर्शित नहीं कर पाती है वैसे भी कुछ समय से उसने सबसे अलग सा कर लिया है अपने आपको। घर में भी तो कितनी सीमित रह गई है।
प्रशांत ने आज मिलने बुलाया है। वह अपना निर्णय प्रकट कर ही देगी। अब नहीं भटकेगी उलझेगी। कब तक वह स्वयं को ही प्रज्वलित करती रहेगी सबके लिये। उसकी संवेदनाएं और जागृत हों, इसके पूर्व ही वह निकल पड़ेगी। अनगिनत विचारों की मानसिक उथल पुथल में उसने फैसला ले लिया हैं। पूर्ण चैतन्य होकर आगे बढ़ने को उद्यत हो उठी है भावना। स्वनिर्णय से पूर्ण संतुष्ट निर्भय। भावना को आज कहीं नही जाना है। रोज ही अपनी नौकरी व ट्यूशनों में उलझनों में उलझी रहती है। आज विद्यालय की छुट्टी है। घर में किसी काम में मन नहीं लग रहा है। यहां का सब कुछ उसे आडम्बर पूर्ण लगने लगा है। संवादहीन सी स्थिति बनी रहती है। वैसे भी प्रतिदिन व्यस्तता में बाहर रहने के बाद यहां की निरर्थक उदासी की बोझिलता से दूर ही रहना चाहती है। जाने क्यों उसे लगने लगा है, उसकी अब किसी को कोई जरूरत नही है या समय से उसका विवाह न कर पाने का दुःख उसके परिजनों काट रहा है। वह भी सबसे कटकर एकदम निर्लिप्त तटस्थ हो उठी है। तैयार होकर निकलने के पूर्व, दर्पण में अपना अपना अश्क देखा। उम्र के इस मोड़ पर भी कितनी आकर्षक व दीप्तिपूर्ण चेहरा लग रहा है। साथ ही उसकी योग्यता से तो उसको मिलने वालों में प्रशंसा और मिलने की उत्सुकता उत्फुल्लता है।
बाहर निकली, देखा....पापा सामने खड़े हैं। ध्यान से देखती है कितने कमजोर, अशक्त लग रहे है। इतने दुबले हो गए हैं क्यों ? कितने दिनों बाद उनको देखने का मौका मिला उसे? व्यस्तता रही या कोई बहाना। अपने आपसे पूछती है।�
वे भी कहीं जाने को तैयार हैं, हाथ में लाठी का सहारा लिये खड़े हैं। अचानक उसके मन में उसके वे बलिष्ठ पिता झांक जाते है, जिनके आगे पीछे वह डोलती फिरती थी। अपने प्रश्नों उत्तर के चंगुल से उन्हे सांस तक लेने का अवसर नही देती। उसके सारे संकटों व्यवधानों का पल में निर्णय कर सदैव उसे चिंतामुक्त रखा करते। उसके दृढ़संबल, प्रेरणास्त्रोत प्रबल पक्षधर उन्हीं के सहारे शायद वह इतने आगे बढ़ सकी है। क्या हो गया है उसे , पापा की लाड़ली वह तो बेटी नही बेटा बनकर ही रही है। क्यों लगा है उसे......इतने दिनों बाद ?‘‘कहीं जा रहे हैं आप ?'' पूछती है वों।
‘‘हां बेटी'......आज वो लायंस वालों ने ‘‘आई कैम्प'' लगाया है। सोचता हूं वहीं अपनी दूसरी आंख का ‘मोतियाबिन्द' भी बनता लूं।
कुछ बचत भी हो जाएगी, पहली आंख की दवा भी हो जाएगी। देख ! कितना पानी बहता रहता है, पोंछते हुए कहता हैं। डाक्टर्स व क्लब वालों ने आश्वासन दे दिया है वहां के लोग बडे अच्छे हैं।''
‘‘पर पापा पिछली बार इसी तरह के किसी कैम्प में ही तो आपकी आंख का ये पानी......।'' कहते रूक जाती है। शब्द कहीं खो से गए हैं। निःशब्द ! रहकर मन कैसा तो हो जाता है। ‘‘ओह पैदल जा रहे है। क्या !''जानती है वो इधर आजकल वे पैदल ही जाते हैं। वे कुछ भी नहीं कहते, बस उसे देखते ही रहते हैं। उससे देखा नहीं जाता। उनकी वह दृष्टि झेल नहीं पाती। ‘कैटेरेक्ट' की पीड़ित आंख से लगातार बहते पानी को देखकर वह अंदर तक हिल जाती है। पर्स से कुछ नोट निकालकर पापा की ओर बढ़ती है। पिताजी लेते नहीं है। ‘‘रहने दो बेटा, दूर ही कितना है चला जाउंगा धीरे धीरे।'' पर भावना सामने से ‘‘आटो'' बुलवा देती है। उसे ‘‘नोट'' देकर कहती है।
‘‘लो भाई काटकर बाबूजी को दे देना।'' उन्हे जाते दूर तक देखती रहती है। जानती है उतने रूपये वे हफ्ते भर तक चला लेंगे।
पापा कितने खुश रहा करते थे। अब तो उनके मुंह पर हंसी आती ही नहीं है मानो। जब से रिटायर हुए हैं, कैसी बेबसी झाँकती है, आँखें ही पिघल रही हों जैसे। कितनी तेजी से वृद्ध होते आ रहे हैं। उससे कुछ भी लेने में क्यूं हाथ कांप जाते हैं। हर महीने पेंशन के रूपये मां के हाथ में देकर कहते हैं, ‘‘लो सम्हालकर खर्च करना ‘‘रिटायर्ड आफिसर'' को कितने रूपये मिलेंगे।''
कितनी शान से....... गर्वीली जिंदगी बिताई है पापा जी ने। ‘‘ईमानदारी के सर्वोत्कृष्ट स्वरूप।'' पर भावना को लगता है, कुछ भी तो नहीं हैं पापा के पास। क्या आदर्शों को कोई मान नहीं है। कभी सोचती है यदि अन्य तरीकों से इधर उधर के कार्य किए होते, तो क्या वे सब यों भटकते। उनका बड़ा बेटा कहीं बड़ी नौकरी में होता। उनकी बेटी इस एकमात्र पुत्री की बड़े ही धूमधाम से अच्छी जगह शादी हो चुकी होती। उसका छोटा भाई डाक्टरी इंजीनियरिंग में आसानी से प्रवेश पा लेता। उनका कहीं बड़ा सा बंगला होता। बैंक बैलेंस होता। ‘‘दुहिता'' से अपने ‘‘प्यारे पिता'' की वेदना नहीं झेली जाती। पर क्या ? सिर्फ अपनी नजर बचाने से इन समस्याओं का समाधान हो सकता है। ‘‘वो क्या करे, न करे, अपनी उलझनें यहां किसी से नही बांट सकती।''
तीव्रता से भावना बाहर जाने को चल पड़ी। लगा कमरे से कोई आवाज आई है, झाँककर कमरे में देखा। ये....क्या ? अम्मा बिस्तर पर क्यों लेटी हैं। वे तो सदैव चुस्त दुरुस्त बनी रहती हैं। उसे तो याद नहीं कि वे बिना मतलब कभी लेटी भी हो। वह मां के पास आकर बैठ जाती है। ‘‘अरे मां तुम्हें तो बुखार है इतना ज्यादा।''
छोटा शानू कहता है, ‘‘दीदी मां को पिछले एक हफ्ते से बुखार आ रहा है, पर वो अस्पताल नहीं चलतीं, मैं ही दवा ले आता हूं।''
‘‘अब दवाओं से कुछ नहीं होना बेटा, अब तो ऊपर जाकर ही ठीक होऊंगी।'' मां के कहते ही उसका दिल धड़क जाता है। मां को तो कम निराश देखा है। सारे घर का मजबूत आधार वे ही रही हैं। दवाओं के व्यर्थ ख़र्चे से बचना चाहती हैं, मन खट्टा हो गया है। मां की दृष्टि में उन सबके लिए कितना प्यार, चिन्ता झलकी पड़ रही है।
देखा कितना सट पर बैठा हुआ है छोटा मां से। रूआँसा हो उठा है। छोटे के लिए कितना तो लाड़ उमड़ आया भावना के मन में। ‘‘दीदी मेरी दसवीं कक्षा के फार्म्स आ गए है।'' ‘‘तो रोनी सूरत क्यों बना रखी है, चलो हम फीस दे देंगे।''
‘‘फीस तो भर दी है।'' छोटे ने कहा। ‘‘तब क्या प्राब्लम है।''-- ‘‘वो मुझे मैथ्स की ट्यूशन लेनी है।'' ‘‘अरे इतनी सी बात है कितने रूपये देने हैं लो रखो, दे आना, तुमने क्यों नहीं बताया अभी तक।'' जानती हैं कितने दिनों से तो भाई से बात तक करने की फुर्सत नहीं मिल पाई है। वह किससे कहता, कब कहता, क्या कहता। मां भी क्या करतीं, वैसे ही चिंतित हैं। आंगन से चौके में ही उसे भाभी दिख जाती हैं। वे चाहकर भी बाहर कहां निकल पाती हैं। उसे देख कर कहती हैं, ‘‘बिब्बो'' कहीं जा रहीं हैं, आज तो आपके पसंद का खाना बना है। गर्म खाकर ही जाइये।'' वह पलट पड़ती है, मन अशांत है।
भूख न होने पर भी भाभी का मान रखने के लिए अंदर आकर बैठ जाती हैं। गोरी चिट्टी, सुन्दर, सुघड़ सी भाभी के इन्हीं गुणों पर रीझकर पसंद किया था उन लोगों ने। कितना गर्व हुआ करता। बड़ी उमंगों से बड़े भैया ने भी स्वागत किया था इनका। कितनी शिथिल लग रही हैं। इतनी कम उम्र में भी कितनी निराश है। वह अब किसे दोष दे, इतना अच्छा भोजन भी बेस्वाद लग रहा है। अपनी स्नेही भाभी की वीरान आंखे ही मानो उनकी मुसीबतों व परेशानियों का दर्पण बन उठीं है। दिन भर सबके लिए खटती रहकर भी, सब कुछ पूरा करके, सामंजस्य बैठाना ही उनका काम है। कितना कष्टप्रद होता होगा, उनके लिए सब कुछ ! पर उफ ! तक नहीं करतीं। सबसे बचने के लिए ‘‘वो'' भी बाहर रहना चाहती है। उसके उठने के पहले ही भाभी उसके कान में धीमे से कहती हैं।''
‘‘बिब्बो, इस बार तो तुम्हारे भैया ने पूरी तनख्वाह के रूपये लाटरी में लगा दिए हैं। कुछ भी कहो, तो खाना ही छोड़ देते हैं।''
आकुल भाभी की व्याकुलता देखकर उसकी अन्तर्चेतना ही मानो बिखरती प्रतीत होती हैं। अपने से 8-10 साल बड़े भाई को वह किस तरह समझाए। बतातीं हैं वे, ‘‘उनके असहज रूखे व्यवहार से खिन्न होकर मां पिताजी ने भी कुछ कहना सुनना छोड़ दिया है।'' कुछ कहती भावना, तभी भाभी ने कहा, ‘‘कहीं से नींद की गोलियों ही ला दो बिब्बो। खाकर सो रहूंगी, अब तो रहा नहीं जाता।'' अश्रु बहते जाते हैं। तभी धीमे से भैया आकर बाजू में बैठ जाते हैं। शायद अभी उन्हें यही निदान समझ में आया है। और तो कोई बुरी लत रही ही नहीं कभी। तब ये क्या हो गया उन्हें। क्या ? कोई ‘‘लालसा.....धुन'' ही एकदम पैसा कमाने की बढ़ गई है। स्वयं ही प्रताड़ित होते हैं। उनसे कुछ नहीं कह सकती कोई अन्य उपाय ही सोचना बेहतर होगा।
पुनः भावना चलने को तत्पर होती है। तभी मां के कमरे से जोर के कराहने की आवाज जाती है। भैया दौड़कर वहां पहुंच गए हैं। उनके पैताने पर बैठते ही मां कहती हैं। ‘‘मेरी बिब्बो भावना बेटी' का ध्यान रखना। जो हम न कर सके, तुम कर देना बेटा। हमारा तो कोई भरोसा नहीं है अब।'' कहकर बेटे को एकटक देखने लगती हैं। भैया का मुंह छोटा सा हो जाता है। कितनी करूणा हो आई है उसे भैया पर। वो कितने दयार्द्र से लग रहे हैं।
पर उसे जाना हैं। प्रशांत को अपना निर्णय सुनाना है। रास्ता देख रहे होंगे वे। यदि यहां वो और रही तो कहीं अपना फैसला न बदलना पड़े उसे, पक्का मन बना चुकी है। निकलना ही होगा उसे यहां से ।'' उसकी भी अपनी जिंदगी है, भावनाएं हैं। क्या उसका भविष्य यों खो जाएगा। वो अपने पर्स के रूपये गिनती जाती है। मन में कौंधता है तभी। पिताजी का आपरेशन कराना है। मां की दवाइयाँ लानी है। छोटे शानू की पढ़ाई के खर्च सामने हैं और भाभी की वो अन्तरिम इच्छा। ओह ! ‘खतरनाक गोलियां।'' भैया अकेले...... क्या सम्हाल पाएंगे ये सब। कुछ समझ नहीं पा रहीं है। केवल एक मात्र उपाय है व्यर्थ की चिन्ताओं को छोड़कर प्रशांत से ‘‘विवाह'' करके सुख से रहे। तभी उसके सुकून मिल सकेगा। वरन् ये उलझनें, ये संकटों का मकड़जाल तो उसे उठने ही नहीं देगा। उसे हमेशा जकड़ते ही रहेगा। वह बिंधती चली जाएगी, घुटकर ही रह जाएगी उसकी जिंदगी। उसे अब देर नहीं करना है, किसी भुलावे में नहीं रहना है। लगता है घर भर की अशांति की जिम्मेदार वही बन गई शायद। कब तक यूं परेशानियों व मुसीबतों में पड़ी रहे वो। उसका मार्ग खुल गया है। नया जीवन सामने है सुनहरा भविष्य आमंत्रण दे रहा है। नयी नयी परिकल्पनाएं, नवीन सुख और उसके इंद्रधनुषीय रंग सामने हैं।
हां इधर वही घुटन अंधेरे हैं।
कदम उसके बढ़ते हैं.......रुकते हैं। छोटे भाई का स्नेह लिप्त चेहरा, भाभी को उसका मौन आश्वासन, पिता का उससे रूपये न लेना, मां द्वारा बिब्बो की जिम्मेदारी भैया को सौंपना, भाई का चुपचाप खाना खाना। माना मस्तिष्क को झकझोरते रहता है।
‘‘एक ओर अपूर्व सुख है, दूसरी ओर गहन दुःख है।''
घर से बाहर आकर बैठ जाती है भावना। क्या पलायन कर रही है वह। अपनी जिम्मेदारियाँ छोड़ना चाहती है या ओढ़ना चाहती है सब गड्मड् होने लगा है। निराशा के बादल छाने लगते है। रोशनी की एक भी किरण नहीं दिखती। अंधेरे की परतों में दबी नहीं रहना चाहती। अपने दुःखों से उबरने कातर प्रयत्न करती है, उसके आंसू झिलझिलाने को होते हैं। अब प्रशांत को क्या कहेगी, उचित अनुचित की कौन सी परिभाषा कहेगी। ये सब झेल पाएंगे क्या वे ? उसके कष्टों को समझ पाएंगे कभी। भावना और खोती डूबती बिखरती कि अंदर से नन्हीं आशु ‘‘संपूर्ण आशा'' बनकर गोद में चढ़कर बैठ जाती है। ‘‘बुआ आप यहां क्यों बैठी है ? चलो हम खेलेंगे। देखो हमारी ‘गुड्डी' की शादी करनी है। इसने अपना ‘गुड्डा' भी खोज निकालना है उसी की तैयारी करनी है।''
‘‘पर जानती हैं आप ! ये गुड्डा हमने नहीं हमारी गुडियारानी ने ही पसंद किया है। उसी से हम इसका ब्याह करेंगे। समझीं'', साथ देंगी न हमारा। सभी लोग तैयार हैं, आप हां बोलो न।'' अपनी नन्हीं की इन प्यारी बातों से वह हंस पड़ती है। भीगा मन होते हुए भी एकदम खिल सा जाता है। गुड़िया सी ही उसकी ‘आशु' अपनी नन्हीं बांहों में जकड़ लेती है अपनी बुआ को। इन ‘नन्हें सुख के क्षणों' को छोड़कर वह नहीं जाएगी कहीं। नहीं जा सकेगी। जो होना होगा, जैसे होगा, जब भी होगा। तभी बारिश की कुछ बूंदें गिरती हैं। जो उसके तप्त मन को ही नहीं, धरती की सूखी माटी को भी शीतल कर देती हैं। भीगी मृतिका की वह ‘‘सौंधी महक'' उसे अन्तर्तम तक सराबोर कर झकझोर देती हैं जो श्ौशवावस्था से ही उसे सर्वप्रिय रही है।
‘‘अपनी भीगी माटी की सुगन्ध।
डस भीनी खुशबू में वह ये सब विस्मृत करके ‘‘अपना सब कुछ'' आने वाले समय पर छोड़ देती है।
जानती है अंधकार को चीरकर प्रकाश की किरणें आती ही हैं कभी न कभी।
‘‘रात्रि के उपंरात सबेरा तो होता ही है।''
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*श्रीमती अलका मधुसूदन पटेल* *स्वतंत्र लेखिका – साहित्यकार*
सारांश---- साहित्यिक जीवन परिचय
स्वतंत्र लेखन - सामाजिक सेवा - अध्यापन ,पूर्व शिक्षिका - कोचिंग इंस्टिट्यूट .
जन्म स्थान-सागर , वर्तमान आगरा , पति डॉ.एम.एस.पटेल ,राजकीय स्वास्थ्य सेवा उ.प्र.
शिक्षा-स्कूलिंग- नेपानगर , स्नातकोत्तर "एम.एस सी. जीव शास्त्र" जबलपुर
लेखकीय परिचय-1संपादन मासिक पत्रिका*पारमिता*-*2आर्टक्लब* संस्थापिका,साहित्य व विशेष विधा, झाँसी.
नियमित लेखन - हिंदी व अंग्रेजी में .
प्रकाशन प्रादेशिक, राष्ट्रीय स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं व अंतर्जाल पत्रिकाओं में..
लगभग १५० कहानी ,लेख ,गीत ,परिचर्चा प्रकाशित- प्रकाशनाधीन.
नियमित आकाशवाणी प्रसारण २५-३० झाँसी, छतरपुर - सी केबल टी. वी. ९-१०आगरा.
MEMBER OF INDIAN WRITERS CLUB INDIA INTER CONTINENTAL CULTURAL ASSOCIATION
प्रकाशित पुस्तकें - कहानी संग्रहों की.
१.*लौट आओ तुम*-------२१ कथा संग्रह १९९८
२. *मंजिलें अभी और हैं* - १८ कथा संग्रह २००३
३. प्रकाशनाधीन-१. ईश्वर का तो वरदान है बेटी २. १००१ हस्त शिल्प कला
पुरस्कार --------लेखन - सामाजिक कार्यों
अखिल भारतीय लेखन - *कहानी प्रतियोगिता* दिल्ली प्रेस पत्रिका .
१.कहानी *बंद लिफ़ाफ़ों का रहस्य* पुरस्कृत २००१ में .प्रकाशन "गृह शोभा" २००२ .
२.कहानी *दूध के दांत* पुरस्कृत २००३ में .प्रकाशन “सरिता” २००४ .
पुरस्कृत - तत्कालीन राज्यपाल उ.प्र. महामहिम स्व. विष्णुकान्तजी शास्त्री द्वारा.
३. सरदार पटेल महिला कल्याण समिति -सामाजिक कार्यों , नामांकन रोटरी क्लब द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर..
४. अन्य अनेकों संस्थाओं व स्थानीय प्रशासन-लेखन निबंध सामाजिक व लायंस क्लब्स पुरस्कार.
५.Police Services are Challenge for Public Expectations-
awarded essay by S.S.P.Office Jhansi
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अच्छी कहानी, आभार।
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }