राकेश भ्रमर की कहानी : शोध

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सुहागरात के फूलों की खुशबू अभी तक हवा में बसी हुई थी. घर के वातावरण में ब्‍याह गीतों की प्रतिध्‍वनियां सुनाई पड़ रही थी. विकास के मन में ...

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सुहागरात के फूलों की खुशबू अभी तक हवा में बसी हुई थी. घर के वातावरण में ब्‍याह गीतों की प्रतिध्‍वनियां सुनाई पड़ रही थी. विकास के मन में खुशियों के फूल अभी मुरझाए न थे. आंखों से अभिसार का मद उतरा न था कि अचानक जैसे तुषारापात हो गया.

वह बर्फ की तरह जमकर जड़ हो गया था. अपने कानों पर विश्‍वास नहीं हुआ. आंखें मिचमिचाकर नव-विवाहिता पत्‍नी की तरफ देखा. शादी का जोड़ा उतार दिया था उसने, परन्‍तु गहने पहन रखे थे. चेहरे पर निर्लिप्‍तता और जड़ता के भाव थे. पति-मिलन और दाम्‍पत्‍य जीवन के नव अनुभव के सुख से पूर्णतया अनभिज्ञ दिख रही थी. भावशून्‍य चेहरे से पति की तरफ देखते हुए कहा था, ‘‘कल हमें विदा कराने के लिए पापा और भैया आ रहे हैं. हम दुबारा लौटकर यहां नहीं आएंगे.''

विकास ने पहली बार जाना कि आकांक्षा ‘मैं' की जगह ‘हम' शब्‍द का प्रयोग करती है. इससे उसका अहम्‌ झलकता था. संभवतः कानपुर में ऐसी ही भाषा का प्रयोग होता हो. परन्‍तु उसे क्‍या ... ? वह तो चकित था. आकांक्षा का अभिप्राय क्‍या था ? समझ नहीं पाया. उसने एक प्रश्‍नवाचक दृष्‍टि आकांक्षा पर डाली ... जैसे कहना चाहता हो, ‘क्‍या मतलब ? जरा फिर से कहो ?'

आकांक्षा उसके सामने बैठ गयी. वह खड़ा ही रहा. वह कमरे में किसी काम से आया था. उसे अंदर आते देखकर आकांक्षा उसके पीछे-पीछे आ गयी थी. घर में अभी तक मेहमान रुके हुए थे. दिन में नहीं मिल पाते थे दोनों, परन्‍तु रात में मिलन होता था. फिर भी आकांक्षा ने रात का इंतजार नहीं किया. वह शायद पहले से ही विकास को मनोवैज्ञानिक दबाव में डालना चाहती थी.

आकांक्षा ने स्‍पष्‍ट किया, ‘‘आप अच्‍छे हैं, परन्‍तु हमारी अपनी भावनाएं हैं. हम इस शादी के सख्‍त खिलाफ थे. अभी तो हमने एम.ए. पूरा किया था. पी. एचडी. करना चाहती थी, परन्‍तु मम्‍मी-पापा ने हमारी भावनाओं की उपेक्षा की. डरा-धमकाकर हमें शादी के लिए राजी किया. अब हम उन्‍हें तंग करेंगे. आप हमें विदा कराने नहीं आएंगे, न ही चिट्‌ठी-पत्री लिखेंगे. लिखेंगे भी तो हम जवाब नहीं देंगे.'' इतनी बात कहते-कहते वह तमतमा गयी थी. उठकर दूसरे कमरे में चली गयी.

विकास का शादी करके सुखी दाम्‍पत्‍य-जीवन बिताने का सारा उत्‍साह मर गया. उसे लगा, उसने शादी नहीं, बल्‍कि मृत्‍यु की संविदा पर हस्‍ताक्षर किए थे. शादी की पहली रात ही उसने महसूस किया था, आकांक्षा में कोई उछाह, कोई जोश नहीं था. उसने तब समझा था कि लड़की पहली रात को एक अनजान पुरुष के संपर्क में आती है, उसमें संकोच होना स्‍वाभाविक है. परन्‍तु अब लग रहा था कि उसमें कहीं न कहीं आकांक्षा की अरुचि और घृणा का समावेश था. शादी उसकी इच्‍छा के विरुद्ध हुई थी, यहां तक तो बात समझ में आती है, परन्‍तु क्‍या विवाह के बाद भी वह अपने आपको बदल नहीं सकती थी. यह जीवन भर का मामला था, एक-दो दिन का नहीं. उन्‍हें एक लंबा जीवन साथ-साथ गुजारना था.

आकांक्षा ने हिन्‍दी से एम.ए. किया था. हिन्‍दी साहित्‍य में श्रृंगार रस का बोलबाला है, तब क्‍या एक छोटी सी बात उसकी समझ में नहीं आ सकती थी कि शादी के बाद पति-पत्‍नी का क्‍या रिश्‍ता होता है ? किस तरह से उन्‍हें अपने जीवन में सामंजस्‍य पैदा करना होता है और जीवन की गाड़ी को समतल रास्‍ते से ले जाकर आगे बढ़ाना होता है ?

या उसका स्‍वभाव ही ऐसा है. कहीं उसमें स्‍त्रैण गुणों का अभाव तो नहीं है. नहीं, पहले मिलन में उसे कहीं से नहीं लगा कि वह पूरी स्‍त्री नहीं है. स्‍त्री के सारे स्‍वाभाविक गुण उसमें थे. फिर ऐसी क्‍या बात है कि आकांक्षा दुबारा अपनी ससुराल नहीं आना चाहती थी.

अगली रात को जब दोनों मिले तो विकास के उत्‍साह और जोश पर पानी फिरा हुआ था. आकांक्षा को इससे कोई अंतर नहीं पड़ता था. वह निर्विकार भाव से पलंग के एक किनारे लेटी रही. उसकी चुप्‍पी से विकास को घुटन सी महसूस हो रही थी. यूं तो मिलन के लिए पुरुष ही स्‍त्री को उकसाता है, वहीं पहल करता है. परन्‍तु आज बात कुछ दूसरी थी. विकास के मन में उससे मिलने, बात करने की कोई इच्‍छा नहीं थी. पुरुष का अहम्‌ तगड़ा होता है. आकांक्षा ने आज दिन में उसके अहम्‌ को चोट पहुंचाई थी. वह चाहता था कि वहीं पहल करे, वहीं बात प्रारंभ करे और उसे मनाए.

परन्‍तु लंबा समय बीत गया. किसी ने कोई पहल नहीं की. विकास ने उसकी तरफ नजर घुमाकर देखा. वह चित लेटी हुई छत में लगे पंखे को निहार रही थी. विकास चिढ़ गया. झल्‍लाकर बोला, ‘‘आखिर, ऐसी कौन सी बात है, जो तुम्‍हें कचोट रही है ? किससे क्‍या गलती हुई है ? हमने शादी की है, कोई सामाजिक अपराध नहीं. हम दोनों ने एक दूसरे को पसंद करके हां की थी, फिर तुम क्‍यों इस तरह ... ?'' उसने जान-बूझकर बात अधूरी छोड़ दी, ताकि आकांक्षा कुछ कहे.

‘‘हमें नहीं पता. बस हमें अपने घर जाना है.'' उसने रूखे स्‍वर में बिना उसकी तरफ देखे जवाब दिया.

विकास के हृदय में पीड़ा की एक लहर दौड़ गई. उसे लगा, आकांक्षा बहुत घमंडी और जिद्दी लड़की है. क्रोध से उसका खून खौल उठा. शरीर झनझना गया, परन्‍तु अपने आपको संयत रखते हुए उसने कहा, ‘‘शादी के बाद पति का घर ही लड़की का असली घर होता है.''

‘‘हम इस पर बहस नहीं करेंगे.'' आकांक्षा ने बात खत्‍म कर दी. विकास के पास तिलमिलाने और अंदर ही अंदर घुटते रहने के सिवा और कोई चारा नहीं था. वह रात कुंवारी ही रह गई. चातक ने चांद की तरफ ताका अवश्‍य था, परन्‍तु चांद बादलों की ओट में छिप गया था.

एक अविश्‍वास की दीवार उनके बीच खड़ी हो गयी थी.

अगले दिन आकांक्षा अपने पापा और भैया के साथ कानपुर चली गई. विकास के दिल को कुछ ऐसी चोट लगी कि उसने दिन में आकांक्षा से कोई बात नहीं की. आकांक्षा भी इतनी ढीठ थी कि एक बार भी विकास के पास आने या उससे बात करने का प्रयास नहीं किया.

घर वालों के लिए यह सामान्‍य बात थी. लड़की एक बार विदा होकर वापस अपने पिता के घर जाती है. दुबारा जब लौटकर आती है तो ससुराल की होकर रह जाती है.

परन्‍तु विकास और आकांक्षा के लिए यह विदाई सामान्‍य नहीं थी. उन्‍हें पता था कि यह विदाई उनकी अन्‍तिम विदाई भी हो सकती थी. परन्‍तु उनके मनोभावों को घरवाले कैसे जान सकते थे?

विकास और आकांक्षा की शादी घरवालों की पसन्‍द से हुई थी. विकास के पिता मोतीनगर के सुदर्शन पार्क में रहते थे. उनका होटल का कारोबार था. विकास ने नोएडा से कम्‍प्‍यूटर साइंस में डिग्री हासिल की थी और वहीं की एक मल्‍टीनेशनल कंपनी में एक्‍जीक्‍यूटिव था. सालाना बारह लाख का पैकेज था. पैसे की कोई कमी थी.

आकांक्षा के पिता कानपुर में रेलवे में इंजीनियर थे. पाकिस्‍तान से आने के बाद उनके पूर्वज वहीं बस गए थे. उनके पूर्वजों का पुश्‍तैनी धन्‍धा था. आकांक्षा के चाचा वगैरह उसी व्‍यवसाय से जुड़े थे. बस उसके पिता सरकारी नौकरी में आ गए थे. आकांक्षा का बड़ा भाई मोटर व्‍यवसाय से जुड़ा था. हुन्‍डई कारों की एजेन्‍सी थी. सभी का सुखी परिवार था.

दोनों परिवारों के परिचित एक रिश्‍तेदार ने विकास और आकांक्षा की शादी की बात चलाई थी. दोनों परिवार धनी, सुसंस्‍कृत और शिक्षित थे. जहां विकास चुस्‍त-दुरुस्‍त और अच्‍छे सुन्‍दर व्‍यक्‍तित्‍व का स्‍वामी था, वहीं आकांक्षा भी सुशिक्षित, सुन्‍दर, सौम्‍य और गंभीर लड़की थी. दोनों परिवारवालों को यह जोड़ी बहुत पसंद आई. बात बन गई और अंततः वह दोनों शादी के बंधन में बंध गए.

विकास के मन में कोई कुंठा और ग्रंथि नहीं थी. वह खुले विचारों का जवान था. आकांक्षा को पहली ही नजर में उसने पसन्‍द कर लिया था. इस बारे में उसे किसी से कोई शिकायत नहीं थी, न खुद से, न किसी और से. परंतु आकांक्षा के मन में क्‍या था ? किस मजबूरी में उसने यह रिश्‍ता मंजूर किया था, वह समझ नहीं सका था ? आकांक्षा ने उसे कुछ बताने या समझाने का प्रयत्‍न भी नहीं किया था. सीधे ढंग से बात करती तो क्‍या वह वस्‍तुस्‍थिति को समझने का प्रयास नहीं करता ? आखिर आकांक्षा उसकी पसंद थी और अब उसकी पत्‍नी थी. उसकी हर समस्‍या, उसकी भी समस्‍या थी ... दोनों सोच-समझकर उसका समाधान कर सकते थे. परन्‍तु आकांक्षा की चुप्‍पी, जिद और अहम्‌ के चलते न केवल उसके मन में गांठ पड़ चुकी थी, बल्‍कि उसका दाम्‍पत्‍य-जीवन भी खतरे में पड़ता नजर आ रहा था.

ऊपर से सब सामान्‍य था, परन्‍तु अंदर एक तूफान छिपा हुआ था. एक महीने बाद मां ने कहा, ‘‘बेटा, आकांक्षा के पिता ने कहा था कि जून की पन्‍द्रह तारीख को तुम्‍हें कानपुर भेज दूं. कल सुबह चले जाओ और बहू को विदा कराके ले आओ.''

विकास ने एक निरीह दृष्‍टि से मां की तरफ देखा. वह वास्‍तविकता से अनभिज्ञ थीं. उसने निगाहें चुराकर कहा, ‘‘मम्‍मी, मेरे पास समय नहीं है. कंपनी की तरफ से संभवतः मुझे मुंबई जाना पड़ जाए. आप डैडी को क्‍यों नहीं भेज देती ?''

‘‘नहीं बेटा, शादी के बाद पहली बार पति ही पत्‍नी को विदा कराने जाता है.''

विकास ने कहा, ‘‘देखूंगा ... अभी तो नहीं. आप फोन करके आकांक्षा के पिता को बता दें कि मैं अभी नहीं आ पाऊंगा. जब मौका मिलेगा, बता दूंगा या फिर वहीं आकर आकांक्षा को यहां छोड़ जाएं.''

बात आई-गई हो गयी. असली बात का पता किसी को नहीं चला. उधर कानपुर में जब खबर मिली कि विकास आकांक्षा को विदा कराने नहीं आ रहा है तो उसके पापा ने कहा, ‘‘वो लोग तो नहीं आ रहे हैं. संजीव को भेज देते हैं, आकांक्षा को उसकी ससुराल छोड़ आएगा. ब्‍याही बेटी को कब तक हम घर में बिठाकर रखेंगे ?''

परन्‍तु आकांक्षा अड़ गई, ‘‘हम अभी ससुराल नहीं जाएंगे.''

‘‘क्‍यों ... ?'' सबने आश्‍चर्य-भाव से उसकी तरफ देखा.

‘‘आप लोगों ने जबरदस्‍ती हमारी शादी की थी. आपकी खुशी के लिए हम चुपचाप मान गए. इसका मतलब ये नहीं कि हम आपकी हर बात मानेंगे. अब कुछ दिन तक हम सुसराल नहीं जाएंगे. आप इस संबंध में कोई बात न करें. हम अपना शोध पूरा कर लें, फिर बताएंगे.'' वह कठोर शब्‍दों में बोली.

वह बचपन से ही जिद्‌दी और गंभीर किस्‍म की लड़की थी, यह बात उसके मां-बाप जानते थे. परन्‍तु शादी के बाद ससुराल नहीं जाएगी, यह अप्रत्‍याशित था. क्‍या आकांक्षा के हृदय में नारी-प्रेम की कोमल भावनाएं नहीं हैं ? क्‍या वह प्‍यार, ममता और वात्‍सल्‍य-भावों से वंचित है ? कहीं न कहीं उसमें मनोवैज्ञानिक गड़बड़ी अवश्‍य थी, उन्‍होंने सोचा, परन्‍तु तत्‍काल किसी ने कुछ नहीं कहा ... सोचा, अपने-आप सब ठीक हो जाएगा. प्रेम का बीच कभी न कभी तो अंकुर बनकर उसके हृदय में उपजेगा ? वह पेड़ का रूप धारण करेगा. जवान नारी के लिए पुरुष से दूर रहना असंभव था. प्रेम और अभिसार का कीड़ा बहुत बलवान होता है. यह नारी और पुरुष दोनों को किसी न किसी परिस्‍थिति में कमजोर बना देता है.

आकांक्षा ने शोध-प्रबंध के लिए विश्‍वविद्यालय में प्रवेश ले लिया था. विषय था, ‘‘आधुनिक हिन्‍दी साहित्‍य में श्रृंगार रस'' यह कैसी विडंबना थी कि दांपत्‍य-जीवन और पति प्रेम से दूर भागने वाली लड़की ने शोध के लिए ऐसा विषय चुना था जो उसके स्‍वभाव के प्रतिकूल था. लेकिन मनुष्‍य अक्‍सर अपने स्‍वभाव के विपरीत कार्य करता है.

शोध के लिए विद्यार्थी का प्रतिदिन विश्‍वविद्यालय जाना आवश्‍यक नहीं था. आकांक्षा ने पुस्‍तकालय से मोटी-मोटी किताबें उधार ले रखी थीं. कुछ खरीद भी ली थीं. अपने कमरे में लेटी या बैठी उन किताबों में खोई रहती थी. बस आवश्‍यक कार्यों के लिए ही बाहर निकलती थी. मम्‍मी-पापा से कभी-कभी बात करती थी. भाभी से तो वह सदा दूर ही रहती थी. उसके एक भतीजा और एक भतीजी थी. सुन्‍दर, सलोने और बहुत ही चंचल बच्‍चे थे. उनकी धमा-चौकड़ी से घर गुंजायमान रहता था. घर में हंसी-खुशी के गुब्‍बारे फूटते रहते थे. परन्‍तु आकांक्षा न तो उन बच्‍चों के साथ कभी खेलती थी, न घर के किसी सदस्‍य की खुशी से कुछ लेना-देना था. उसके अपने जीवन में हंसी और खुशी का अभाव था. पता नहीं किस मिट्‌टी की बनी थी वह.

किताबों में हमेशा खोए रहने से वह स्‍वयं ही मूर्त रूप हो गयी थी. कभी-कभी विश्‍वविद्यालय जाकर अपने गाइड से मिल लेती थी. उसके अन्‍तर्मुखी स्‍वभाव के कारण भी बाहर उसकी कोई सहेली नहीं थी. पुरुड्ढों को तो वह कतई नापसंद करती थी.

ऐसे जड़ जीवन में श्रृंगार रस का प्रादुर्भाव कैसे हो सकता था ?

विकास की सीमित दिनचर्या थी... घर और आफिस में व्‍यस्‍त रहना. दोस्‍तों से कभी-कभार छुट्‌टी के दिन मिल-मिला लेता था. आजकल जान-बूझकर मिलना कम कर दिया था. मित्र पूछते, ‘‘यार, शादी के बाद तुमने भाभी के हाथ का खाना नहीं खिलाया. क्‍या बात है ? उन्‍हें बनाना नहीं आता या तू उनको हमारे सामने नहीं लाना चाहता ?''

वह हंसकर बात को टाल देता. कुछ नजदीकी दोस्‍तों को ही पता था कि आकांक्षा शादी के बाद दुबारा ससुराल नहीं आई थी. वह अपने व्‍यक्‍तिगत जीवन के बारे में किसी से बात करने का कोई औचित्‍य नहीं समझता था. लोग केवल बातें बनाते हैं. किसी के दुःख को कम करने के बजाय उसे कुरेदकर और ज्‍यादा बढ़ाने का प्रयास करते हैं.

शादी के बाद बेटी का ससुराल न जाना जितना मां-बाप को अखरता है, उतना ही परिवार के अन्‍य लोगों, रिश्‍तेदारों तथा परिचितों को भी. आकांक्षा के परिवार में बाहरी लोगों का ज्‍यादा दखल न था, परन्‍तु संजीव की पत्‍नी रुचि ने एक दिन खाने की मेज पर कह ही दिया-

‘‘मम्‍मी-पापा, आप मेरी बात का बुरा न मानें. मैं जानती हूं, आप सहनशीलता की सीमा लांघ जाते हैं, परन्‍तु किसी को कुछ नहीं कहते. आकांक्षा का शादी के बाद यहां पड़े रहना कहीं से भी उचित नहीं लगता. मुझे उससे कोई परेशानी नहीं है, परन्‍तु ससुराल आती-जाती रहेगी तो हमारे संबंध भी मधुर रहेंगे. ससुराल में वह ताल-मेल बिठा सकेगी. पति से दूर रहकर अपने जीवन में कड़वाहट घोल रही है. कहीं ऐसा न हो कि एक दिन उसे तलाक का दंश झेलना पड़े. शोध तो वह वहां भी रहकर कर सकती है.''

रुचि की बात उचित थी और उसमें दम था. मम्‍मी-पापा तो उसे समझाकर हार चुके थे. भाई की भी वह नहीं सुनती थी. अतः सबने रुचि को ही यह काम सौंपा कि वह आकांक्षा से बात करके देखे. शायद उसकी बात का कुछ असर हो उस पर और वह ससुराल जाने के लिए राजी हो जाए. कम से कम पता तो चले कि वह ससुराल क्‍यों नहीं जाना चाहती थी. वैसे तो कोई प्रत्‍यक्ष कारण नहीं था. बस वह जिद्‌दी थी. जल्‍दी शादी नहीं करना चाहती थी. संभवतः इसी कारण से वह ससुराल न जाना चाहती हो. यहीं सबकी समझ में आ रहा था.

उचित अवसर पर रुचि ने आकांक्षा से बात की, ‘‘क्‍यों आकांक्षा, तुम हम लोगों से नाराज. सी क्‍यों रहती हो ? घर में रहकर भी न तो किसी से ज्‍यादा बातें करती हो, न बच्‍चों के साथ खेलती हो ? बाहर जाने का तो नाम ही नहीं लेती ?''

‘‘बस यह शोध-प्रबंध पूरा हो जाए.'' उसने संक्षिप्‍त सा जवाब दिया.

रुचि उसके सामने बैठ गई. वह लम्‍बे वाक्‌-युद्ध की तैयारी करके आई थी. बोली, ‘‘पुस्‍तकीय शोध-प्रबंध से जीवन का शोध-प्रबंध ज्‍यादा जरूरी है. अगर हमारे जीवन में सुख नहीं है, शादी के बाद भी नारी अकेली है, उसके जीवन में पति, परिवार और समाज का कोई सरोकार नहीं है, वह केवल एकांत में जीती है, किसी के सुख-दुःख में शामिल नहीं होती है, तो हर प्रकार की शिक्षा और उस पर किया जाने वाला शोध कार्य व्‍यर्थ है.''

आकांक्षा ने भाभी की बातें ध्‍यान से सुनीं. श्रृंगार रस पर शोध करते-करते उसके मन में भी उमंगें हिलोरें लेने लगी थीं. उसका हृदय एक अजीब सी कसक से उमग पड़ता था. उसके शरीर में एक अनोखी सुखद अनुभूति का प्रवाह होने लगता था.

उसकी सांस तेज हो जाती और वह विकास के साथ बीते क्षणों की यादों में खो जाती. मन तो करता कि किसी पुरुष की मजबूत बांहों में खो जाए और उसके साथ जज्‍ब होकर अपने अस्‍तित्‍व को भुला दे. पर उसने अपने ऊपर जो ठोस आवरण चढ़ा रखा था, उसको तोड़कर बाहर निकलना भी संभव नहीं था. उसका अहम्‌ ... जिसे थोथा घमंड कहना उचित होगा, आड़े आ जाता था. आखिर अपने पथ पर कांटे तो उसी ने बोए थे.

आकांक्षा विचारों में मग्‍न थी. रुचि ने तभी एक और चोट की, ‘‘तुम एक अधूरी औरत हो. क्‍या तुम्‍हें यह अधूरापन सालता नहीं है. पति के पास जाने का मन नहीं करता ?''

रुचि की यह बात एक गाली की तरह थी... आकांक्षा को नागवार गुजरी. वह तिलमिलाकर बोली, ‘‘पूरी औरत होकर आपने कौन सा तीर मार लिया ? दो बच्‍चे पैदा करके क्‍या आप समझती हैं कि संसार की सारी विवाहिता औरतों की मुखिया बन गई हैं ? हर औरत बच्‍चे पैदा करती है. इसमें नया क्‍या है ?''

रुचि ने अपना विवेक नहीं खोया. वह जानती थी कि अगर उसने अपना धैर्य खो दिया या आकांक्षा की किसी बात का बुरा माना तो उसका प्रयास विफल हो जाएगा. आकांक्षा उससे छोटी थी, अतः उसे ही सहनशीलता का परिचय देना होगा. उसकी किसी बात का बुरा नहीं मानना है.

वह हंसकर बोली, ‘‘सच है, हर औरत बच्‍चे पैदा करती है. इसमें नया कुछ भी नहीं है. लेकिन बिना मर्द के तुम बच्‍चे पैदा करके दिखा दो. मैं मान लूंगी कि तुम बाकी दुनिया से निराली औरत हो.''

आकांक्षा का तन-बदन झनझना गया. मस्‍तिष्‍क में कुछ टूटता सा लगा. क्‍या औरत के लिए मर्द बहुत जरूरी होता है ? वह तो अभी तक पूरी तरह से औरत भी नहीं बन पाई है. पति से केवल दो बार मिलन हुआ है. वह सोचने लगी, शादी का एक साल पूरा होने वाला है. पति से पूरा एक साल वह दूर रही है. वह भी अपने मां-बाप के घर में ... और अभी से ऐसी बातें उठने लगी हैं. कहीं अकेले रह रही होती तो क्‍या होता ? लोग कैसी-कैसी बातें बनाते ?

वह भविष्‍य के बारे में सोचकर परेशान हो उठी. अभी तो उसकी भाभी यह बात कह रही हैं, कल मम्‍मी-पापा कहेंगे. फिर मुहल्‍ले वाले और फिर ... पूरा शहर चिल्‍ला-चिल्‍लाकर कहेगा कि वह परित्‍यक्‍ता है. पति ने उसे छोड़ रखा है. सुन्‍दर है, परन्‍तु घमंडी, इसीलिए पति से उसकी नहीं बनी. उसने त्‍याग दिया. सच्‍चाई की तरफ किसी की नजर नहीं जाएगी. लोग झूठी बातें बनाकर उसे बदनाम कर देंगे और वह कहीं की न रहेगी.

‘‘मेरी प्‍यारी ननद,'' रुचि ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘मनुष्‍य के जीवन में शिक्षा का बहुत महत्‍व है, इसे हम नजरअंदाज नहीं कर सकते. परन्‍तु सही समय पर परिवार और समाज की जिम्‍मेदारियों का निर्वाह करना भी हमारा दायित्‍व है. तुमने पर्याप्‍त शिक्षा हासिल कर ली है. उचित समय पर तुम्‍हारी शादी हो गयी है, अब हंसी-खुशी नए जीवन में प्रवेश करो और अपने दायित्‍वों और कर्तव्‍यों का पूरी निष्‍ठा और ईमानदारी से पालन करो. कोई व्‍यक्‍ति जब शादी करता है, तो पत्‍नी और परिवार को लेकर उसकी कुछ आकांक्षाएं होती हैं. वह भी अपने दायित्‍व पूरे करना चाहता है. सोचो, तुमसे दूर रहकर विकास के मन पर क्‍या बीत रही होगी ? क्‍या उसके हृदय को आघात नहीं पहुंचा होगा, जब तुम उसे छोड़कर आई थी ?''

उसके सामने विकास का दयनीय और मासूम चेहरा घूम गया. कितना कुछ पूछना चाहता था वह आकांक्षा से ? कितना प्‍यार उड़ेलना चाहता था उसके दामन में ? वह प्‍यार के सागर में उसे डुबो देना चाहता था, परन्‍तु उसकी उपेक्षा से विकास के कदम एक जगह थमकर रह गए थे.

अभी पिछले दिनों धर्मवीर भारती की ‘कनुप्रिया' को पढ़ते समय उसने कुछ पंक्‍तियां रेखांकित की थीं, ‘‘आओ मेरी सृजन संगिनी और जिस चंदनी चूनर को तुमने माथे पर डाल रखा है उसके हर डोरे को पहचानो - देखो न मेरी प्‍यार ! कि वह साधारण चूनर नहीं है. उसके ताने-बाने में मानव-जीवन की श्रेष्‍ठतम उपलब्‍धियां और गहनतम संवेदनाएं बुनी हुई हैं - उसका एक-एक तार अनंत युगों का आंतरिक सूत्र है .... भीजै चुनरिया प्रेम रस बूंदन, आरत साज के चली है सुहागिन, पिय अपने को ढूंढ़न, काहे की तोरी बनी है चुनरिया... काहे की लगी है फूंदन, चढिगै महल खुल गयो रे किवरिया, पीतम लाग झूलन...'' आकांक्षा के हृदय-तंत्र पर क्‍या इन भाव-भीनी पंक्‍तियों का कोई असर नहीं हुआ था ?

वह कसमसा उठी थी, उसका बदन अंगड़ाई लेने लगा था.

यादों की डोर पकड़कर वह उठी और अंग-प्रत्‍यंग मरोड़कर अपने कठोर आवरण को तोड़ डाला. फिर भाभी के कंधों को पकड़कर बोली, ‘‘भाभी, हमारी प्रिय भाभी ! आपने हमारा शोध-कार्य पूरा कर दिया. अब एक काम और कर दो. उन्‍हें फोन करके बोल दो कि कल ही आकर हमें लिवा ले जायें.''

रुचि भी हंसती हुई उठ खड़ी हुई और उसका बायां गाल चूमकर बोली, ‘‘खुश रहो मेरी बन्‍नो ! मैं अभी दिल्‍ली फोन करती हूं.'' कहकर वह बाहर चली गई.

आकांक्षा ने किताबों को उठाकर आलमारी में बंद कर दिया. इधर-उधर बिखरी चीजों को ठीक किया और फिर श्रृंगार-दान के सामने बैठकर अपने को संवारने लगी. माथे पर बिंदिया लगाने के बाद वह हल्‍के से मुस्‍कराई और अपने सौन्‍दर्य पर रीझकर खुद से शरमा गयी.

परन्‍तु आकांक्षा की आशाओं पर तुरन्‍त ही बर्फ पड़ गई. थोड़ी देर बाद रुचि ने उसके कमरे में प्रवेश किया. आकांक्षा को खुद से शरमाते देखकर वह एक किनारे खड़ी हो गयी. भाभी का उदास चेहरा देखकर आकांक्षा थोड़ा-बहुत समझ तो गयी, फिर भी पूछा, ‘‘क्‍या हुआ भाभी ? उनसे बात हुई ? क्‍या बोले ...?''

रुचि ने उससे निगाहें चुराते हुए कहा, ‘‘बात इतनी आसान नहीं है. पता नहीं, वहां से विदा होते समय क्‍या कह दिया था तुमने उनको ? विदाई कराने के लिए आने को कहा तो भड़ककर बोले, ‘ऐसे फालतू काम के लिए मेरे पास वक्‍त नहीं है. फिर कभी इसके लिए फोन नहीं करना.' और बस ... फोन काट दिया. कुछ सुनने को तैयार ही नहीं थे. तुमको बात करना हो तो मैं उनका मोबाईल नम्‍बर देती हूं.''

आकांक्षा को अपना हृदय डूबता सा लगा. उसे पता था कि विदा कराने के नाम पर विकास क्‍यों भड़का था. उसी ने तो उसे मना किया था. पत्र तक लिखने से मना किया था. तब क्‍यों न गुस्‍सा करता वह ? गलती तो उसी की थी. वह भाभी का हाथ पकड़ते हुए धैर्य से बोली, ‘‘नहीं भाभी, हम उन्‍हें फोन नहीं करेंगे. अब बात न फोन करने से, न उनके यहां आने से बनेगी. हम जानते हैं कि बात कैसे बनेगी. बस, जैसा हम कहें, वैसा-वैसा करती जाना.''

शाम को विकास उदास, चिंतित और थका हुआ घर पहुंचा. मां उत्‍सुकता से उसकी प्रतीक्षा कर रही थीं. आते ही बोली, ‘‘बेटा, कितनी शुभ बात है ! कानपुर से तम्‍हारी सलहज का फोन आया था. मैंने तुम्‍हारा मोबाईल नम्‍बर उसे दे दिया था. तुम्‍हारी बात हुई उससे ? बेटा, बहुत हो गया. मुझे नहीं पता, तुम्‍हारी क्‍या जिद्‌ है ? परन्‍तु उनकी तरफ से इतने सारे फोन आए, तुम नहीं गए. आखिर, हमें भी तो पता चले कि तुम बहू को विदा कराने के लिए क्‍यों नहीं जाते ?''

वह मां की बातें अनुसनी कर अपने कमरे में चला गया. अपनी बात का जवाब न पाकर मां भी पीछे-पीछे चली आईं. वह धम्‌ से पलंग पर बैठ गया. मां ने उसके सिर पर हाथ फिराते हुए कहा, ‘‘शादी के बाद से तुम कितना उदास और शांत रहने लगे हो. लगता है, आकांक्षा से शादी करके हमने कोई बहुत बड़ी भूल कर दी है. उससे कोई खटपट हुई है ?''

‘‘नहीं मां, किसी से कोई भूल नहीं हुई है. यह समय का चक्र है.'' उसने बात को समाप्‍त करते हुए कहा, ‘‘अब इस प्रसंग को छोड़ो. चलो, एक बढिया सी चाय बनाकर लाओ. मैं हाथ-मुंह धोकर आता हूं.''

बेटे की भावनाओं को समझते हुए मां ने चुप रहना ही बेहतर समझा और रसोई में चली गई चाय बनाने के लिए...

विकास को अपनी पसंद पर गर्व था. जब पहली बार उसने आकांक्षा को देखा था, तो वह उसके रूप और सौन्‍दर्य से अभिभूत हो गया था. वह असीमित सुन्‍दरी थी, परन्‍तु उसके अन्‍दर घमंड और दंभ से भरा प्रेमविहीन हृदय था, इस बात से वह अवगत नहीं हो सका था.

एक वर्ष व्‍यतीत होने जा रहा था. शादी की सालगिरह आनेवाली थी, परन्‍तु वह पत्‍नी से दूर, उसके प्रेमरस से वंचित था. आज उसे पछतावा हो रहा था कि केवल सौन्‍दर्य पर ही उसने शादी के लिए ‘हां' क्‍यों कर दी थी ? शादी से पहले पति-पत्‍नी को एक दूसरे से मिल-जुलकर, आपस में बातें करके समझ लेना बहुत जरूरी होता है. यहीं उसने नहीं किया था. इसका अवसर भी प्राप्‍त नहीं हुआ था. वह लोग दिल्‍ली में रहते थे और आकांक्षा कानपुर में. वह अपने परिवार के साथ केवल एक बार उसे देखने के लिए गया था. वह सबको पसंद आ गई थी. दोनों तरफ से हां होने के बाद आवश्‍यक रस्‍में पूरी करके झटपट शादी की तैयारियां शुरू हो गयी थीं. उसे कभी मौका ही न मिला कि आकांक्षा के हृदय में उतरकर उसका अन्‍तर्मन पढ़ सकता. वह रूप-जाल में उलझकर रह गया था.

आज उसकी शादी की सालगिरह थी, परन्‍तु उसके मन में कोई खुशी नहीं थी. जिन मनोभावों से वह गुजर रहा था, उसका दुख वहीं समझ सकता था. घर जाने की उसे कोई जल्‍दी नहीं थी. आज मन भी नहीं कर रहा था. एक साल पहले आज ही के दिन वह कितना खुश था. तब नए जीवन में प्रवेश करने की अभिलाषा और जिज्ञासा थी. और आज अपने वर्तमान को लेकर वह उतना ही दुखी था.

नित्‍य तो वह समय पर घर लौटता था. आज उसने जान-बूझकर देरी की. नोएडा से लौटते समय उसने अपनी गाड़ी इंडिया गेट की तरफ मोड़ दी. बोट क्‍लब के पास गाड़ी रोककर बाहर आया. कुछ देर तक नौका विहार देखता रहा. फिर परिवार के साथ हंसते-खिलखिलाते बच्‍चों को रंग-बिरंगे गुब्‍बारे उड़ाते देखा. सुन्‍दर लड़कियों और औरतों को देखा तथा अंधेरे एकांत कोनों में बैठे प्रेमी युगलों को भी... उसे कोई शांति नहीं मिली. वह बेचैन होकर गाड़ी में आकर बैठ गया. थोड़ी देर बैठा रहा और फिर गाड़ी स्‍टार्ट कर घर की तरफ चल पड़ा.

घर में घुसते समय उस दिन उसे कुछ अजीब सा लगा. मां अकेली थीं और एक-दो बत्‍तियों को छोड़कर कहीं भी उजाला न था. घर का इकलौता नौकर सज्‍जन भी कहीं नजर नहीं आ रहा था. डैडी तो वैसे भी देर से घर आते थे. उसने मां से पूछा-

‘‘क्‍या बात है मां ? घर में इतना अंधेरा क्‍यों है ? मेरे कमरे में भी अंधेरा है !''

‘‘किस बात के लिए उजाला करें, बेटा ? आज के दिन तुम्‍हारी शादी थी. उस दिन ढोल-ताशे बज रहे थे, आतिशबाजी हो रही थी और चारों तरफ रोशनी की लडियां सजी थीं. नाच-गाने हो रहे थे और तुम्‍हें घोड़ी पर चढ़ाकर एक वीर पुरुष की तरह बहू को विदा कराने के लिए बारात के साथ रवाना किया था. परन्‍तु आज ....'' मां ने आह्‌ भरकर कहा, ‘‘क्‍या मिला तुम्‍हारी शादी करके हमें ? बस अंधेरा ही न्‌... एक बेटा था, वह भी दिल से हमसे दूर हो गया है. इसीलिए घर में आज अंधेरा कर रखा है. तुम चाहो तो अपने कमरे में जाकर बत्‍ती जलाकर उजाला कर लो.''

वह खामोश रहा. टूटे हृदय और बोझिल कदमों से अपने कमरे की तरफ बढ़ा. दरवाजे को हल्‍के से धक्‍का देकर खोला. हवा में एक अनोखी सुगंध फैली हुई थी. वह कुछ समझ नहीं पाया. स्‍विच बोर्ड की तरफ बत्‍ती जलाने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि दो नर्म बाहें उसके गले में सांप की तरह लिपट गयीं. वह चौंककर पीछे की तरफ हटा तो एक नारी शरीर उसके ऊपर आ गिरा. उस शरीर की गंध वह पहचानता था. हर गंध के बीच उसे पहचान सकता था, क्‍योंकि यह गंध उसके नथुनों में ही नहीं, शरीर के प्रत्‍येक अंग में रची-बसी थी.

वह कुछ कहता कि दो गर्म दहकते होंठ उसके होंठों से टकराए और वह मदहोश हो गया. उस मदहोशी में उसके कानों में यह शब्‍द टकराए, ‘‘नहीं ... आपको कुछ कहने की आवश्‍यकता नहीं. भूल हमारी थी, उसका प्रायश्‍चित हमें ही करना है.''

दहकते हुए दो होंठ उसके होंठों से चिपक गए.

......

(राकेश भ्रमर)

संपादक प्रज्ञा मासिक

24, जगदीशपुरम्‌, लखनऊ मार्ग,

निकट त्रिपुला चौराहा, रायबरेली-229316

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रचनाकार: राकेश भ्रमर की कहानी : शोध
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