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अब आपको कितना बताऊं कि मैं साहब के कितना करीब हूं। जितनी सांसें जिंदगी के करीब, नहीं, उससे भी करीब। जितना खुशबू फूल के करीब, नहीं, उससे भी करीब। जितना साहब मेम साहब के करीब, नहीं, उससे तो बहुत अधिक करीब। हां जितने साहब दूसरी मेमसाब के करीब, हां,उससे तनिक और करीब।
जबसे नौकरी में लगा हूं रीजक की कसम खाकर कहता हूं, मुझे दफ्तर में कितनी खिड़कियाँ हैं, नहीं मालूम। दफ्तर में कितने काम करने वाले है, नहीं मालूम । कच्चा था ,तब भी इसी साहब के बंगले में था , पक्का हुआ तो भी इसी बंगले में, और साहब की कृपा हुई तो गुनगुनाता हुआ साहब के इसी बंगले से गले में कागजी फूलों की मालाएँ डाले एक सांझ रोता हुआ रिटायर भी हो जाऊंगा।
सच पूछो तो साहब को अपने बंगले का इतना पता नहीं जितना पता मुझे साहब के बंगले का है। सच पूछो तो साहब की मेम साहब को इतना पता साहब के कैरेक्टर का नहीं जितना पता मुझे साहब के कैरेक्टर का है। सच पूछो तो साहब को अपने कैरेक्टर का इतना पता नहीं जितना पता मुझे साहब के कैरेक्टर का है। यह अलग बात है कि दफ्तर के बारे में मुझे कुछ भी पता नहीं। साहब की हर चीज का पता होने के बाद भी जो दफ्तर के बारे में सपने में भी सोचते हैं, वे नालायक होते हैं।
साहब की बीवी परसों से मायके गई हुई है। मेरे भी सारा दिन टांगें चौड़ी कर उनके बंगले में पसरने के मजे आए हुए थे। साहब की बीवी घर नहीं, मुझे किसी का डर नहीं। सारा दिन कभी इस चारपाई पर पसरता तो कभी उस चारपाई पर। लेट लेट कर पसलियाँ दुखने लग गईं। हम नौकरों के साथ एक साला यही तो गलत होता है कि अगर दो दिन खुला छोड़ दो तो तीसरे दिन हडि्डयों में दर्द होने लगता है। अब कल हुआ क्या कि साहब के बेड पर साहब की तरह सोया टांगें पसार कर टीवी देख रहा था कि अचानक मेमसाब का फोन आ पड़ा । साला टीवी देखने का सारा मजा किरकिरा हो गया। साहब को तो जबसे मेमसाब मायके गई है अपनी भी सुध नहीं तो बंगले की क्या खाक होगी? यार मेरी औकात वाले बताना कि क्या तेरा साहब भी ऐसा ही है? मैंने अनमने से फोन उठाया और साहबी लहजे में बोला,‘ कौन, जी नमस्ते।'
‘ हां रामू, मैं तुम्हारी मेमसाब बोल रही हूं। और साहब कैसे हैं?' उन्होंने अपने कुत्ते से भी सौ गुणा ज्यादा फोन पर इस तरह पुचकारते हुए मुझसे पूछा कि मुआ मैं साहब की, साहब के बारे में, साहब के सामने, अपने ज़मीर को हाजिर नाजिर मानकर मेमसाब से सौ बार सच न कहने की कसम खाने के बाद भी सच कह ही गया।
‘जबसे आप गई हैं न तबसे उतने मजे में हैं, जितने तब भी नहीं होते थे जब वे कुंवारे थे।'
‘सच!!!'
‘मेमसाब आपका नमक खाता हूं। जीभ में कीड़े पड़ जाएं जो झूठ बोलूं।' कहना तो नहीं चाहता था पर क्या करता सच बोला गया, तो बोला गया। पर मेम साहब की आवाज से लगा कि उन्होंने मेरे सच कहने को माफ कर दिया। बड़े साहबों की मेमों के दिल सच्ची को अपने साहबों के पदों से कई गुणा बड़े होते हैं, आज पहली बार देखा था।
उन्होंने मेरे सच कहने का कोई नोटिस न लेते पूछा,‘ साहब को छोड़, अच्छा बता, बाबा कैसा है? ठीक से खाना तो खा रहा है न? ठीक से सो तो रहा है न? मुझे मिस तो नहीं कर रहा? मुझे आज रात सपने में वह भूखा दिखा बहुत, उदास दिखा। सच कहूं, तेरी कसम रामू! उसके बाद तो मुझे नींद ही नहीं आई। मेरी भूख जहां थी वहीं अटक गई, मेरी प्यास जहां थी वहीं अटक गई । बाबा का ध्यान रखना। अगर वो आकर मुझे जरा भी कमजोर दिखा न तो मुझसे बुरा कोई न होगा।' मेमसाब की आवाज इतनी भर्रा गई थी कि जो सच कहूं इतनी तो मेरी आवाज उस समय भी नहीं भर्राई थी जब मुझे पालने वाले मेरे सब कुछ, मेरे गुलिया चाचा स्वर्ग को गए थे।
‘ हां मेमसाब, जबसे आप गई हैं न साहब तो रोज दो किलो भारी हो रहे हैं पर बाबा...' कहते कहते मेरी सांसें जैसे किसी गद्दी कुत्ते को देख डर के मारे रूकने लगी हों।'
‘पर क्या? बाबा को.... कहीं बाबा मेरे बिना उदास तो नहीं। देख रामू , मुझे बाबा की इतनी चिंता है कि अगर बाबा को कुछ हो गया न तो मैं कहीं की न रहूंगी और न तुझे ही कभी माफ करूंगी।'
‘मेमसाब! क्या है न कि वह आपके जाने के बाद से ही कम खा रहा है। मेरे हाथों से आप तो खुश होकर खा लेते हो पर एक ये बाबा है न कि...'
‘ तो ऐसा करो कि साहब के कपड़े पहन कर उसे खिलाओ। तब उसे लगेगा कि उसे रामू नहीं साहब खिला रहे हैं।'
‘मेमसाब, पिछली सुबह आपके कहने से पहले ही ऐसा किया था, पर वह मुझे आंखें बंद किए ही पहचान गया और गालियां देने लगा,‘ छी किसके कपड़े पहन लिए।' फिर बाबा ने मुझे कुत्ता कहा , सूअर कहा, पर मैं चुप रहा कि मुझे जो चाहे कह ले पर कम से कम खाना तो खा ले। रे बाबा! तू अपने को किस देश का समझ रहा है? इस देश में तो खाने वाला खिलाने वाले के आगे नाक रगड़ता है कि मुझे खिला, और एक मैं खिलाने वाला हूं कि खाने वाले के आगे नाक रगड़ रहा है। बाबा बाहर गुन गुनी धूप में गलीचे पर साहब की तरह पसरा चुपचाप मेरा और मेमसाब का संवाद सुन रहा था। बीच बीच में उसके ठहाका लगाने की आवाज भी आ रही थी। साला कुत्ता। कुत्ता किसी के बंगला में भी रहे, किसी भी नाम को धारण कर ले, अल्टीमेटली रहता कुत्ता ही है।
‘तो ऐसा कर कि वार्डरोब के ऊपर वाले खाने में से मेरी शादी वाली साड़ी निकाल कर पहन उसे खाना दे, वह समझेगा कि मैं उसे खाना दे रही हूं। वह खा लेगा।'
‘पर मेमसाब, साड़ी और मैं! हमारे खानदान की किसी भी औरत ने आज तक साड़ी लगाना तो दूर साड़ी तक देखी नहीं ,ऐसे में...'
‘ मुझे बस कुछ नहीं मालूम। जैसे भी हो साड़ी पहन और बाबा को खाना खिला वरना मेरे आने से पहले ......' अब भाई साहब क्या करूं, क्या न करूं, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा। मेरी अक्ल पर तो जैसे पत्थर ही पत्थर पड़ गए हैं। ये चटोरी जीभ बार बार कह रही है कि बंदे साड़ी लगा और बाबा को खाना खिला, तुझे पता नहीं कि आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। यहां से बेदखल होने के बाद किस मुंह से अपनी बिरादरी वालों के बीच जाएगा? पता है तुझे दफ्तर की फाइलों पर कितनी धूल जमी होती है? चार दिन में ही मेमसाब की क्रीम लगाए होंठ फट जाएंगे। और देखिए साहब! जिस बंदे ने कभी धोती तक न लगाई हो वह दस मिनट बाद मेमसाब की साड़ी पहन कर बाबी की सेवा में हाजिर हुआ तो बाबी तो बाबी, साहब की फोटू से भी लार टपकने लगी।
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अशोक गौतम
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वाह वाह बहुत ही सुन्दर व्यंग है कहाँ से ढूँढ कर लाये रवी जि ये हीरा अशोक जी को बहुत बहुत बधाई आपका भी धन्य्वाद्
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