वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : भ्रष्टाचार की परम्परा एवं अवरोधक तत्व

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“वर्तमान में भारतीय समाज में यह भ्रष्‍टाचार अपने विकराल रूप में (कैन्‍सर की तरह) इस तरह फैल चुका है कि अब यह मात्र व्‍यवहार न होकर पुख्‍ता स...

“वर्तमान में भारतीय समाज में यह भ्रष्‍टाचार अपने विकराल रूप में (कैन्‍सर की तरह) इस तरह फैल चुका है कि अब यह मात्र व्‍यवहार न होकर पुख्‍ता स्‍वीकृत मनोवृत्‍ति बन चुका है।”

 

clip_image002युवा साहित्‍यकार के रूप में ख्‍याति प्राप्‍त डाँ वीरेन्‍द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्‍थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्‍त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्‍ट्रीय एवं अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर की स्‍तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्‍त्री विमर्श, राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी में अनेक पुस्‍तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्‍द्र ने विश्‍व की ज्‍वलंत समस्‍या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्‍तुत किया है। राष्‍ट्रभाषा महासंघ मुम्‍बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्‍व0 श्री हरि ठाकुर स्‍मृति पुरस्‍कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्‍बेडकर फ़ेलोशिप सम्‍मान 2006, साहित्‍य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्‍मान 2008 सहित अनेक सम्‍मानों से उन्‍हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्‍च शिक्षा अध्‍ययन संस्‍थान राष्‍ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।

भ्रष्‍टाचार की परम्‍परा एवं अवरोधक तत्‍व

डॉ0 वीरेन्‍द्र सिंह यादव

स्‍वतन्‍त्र भारत को अपने अतीत से दो बातें विरासत के रूप में मिलीं थी एक डॉ0 भीमराव अम्‍बेडकर के समतामूलक एवं भाईचारे से ओत -प्रोत स्‍वच्‍छ विचारों की राजनीति तथा ऐसे विचारों के रूप में भारतीय संविधान की परिकल्‍पना, वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी राज में अनेक बुराइयों के बावजूद साफ सुथरी नौकरशाही की प्राप्‍ति, ऐसा नहीं कि ब्रिर्टिश राज के प्रशासन में भ्रष्‍टाचार नहीं था ब्रिर्टिश राज में भ्रष्‍टाचार था, लेकिन यह सामान्‍यतः निचले स्‍तर के कर्मचारियों तक ही सीमित था इसमें पुलिस विभाग, वन, सिंचाई तथा लोक निर्माण जैसे विभागों में ही भ्रष्‍टाचार देखने को मिलता था ! नौकरशाही (उच्‍च लोक सेवा) विश्‍ोष रूप से भ्रष्‍टाचार से मुक्‍त थी, परन्‍तु हमें बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि स्‍वतंत्र भारत में इन दोनों विरासतों को बचा पाना (सुरक्षित) मुश्‍किल सा प्रतीत हो रहा है। वर्तमान में भारतीय समाज में यह भ्रष्‍टाचार अपने विकराल रूप में (कैन्‍सर की तरह) इस तरह फैल चुका है कि अब यह मात्र व्‍यवहार न होकर पुख्‍ता स्‍वीकृत मनोवृत्‍ति बन चुका है। चाहे उच्‍च वर्ग का व्‍यक्‍ति हो था निम्‍न कोई भी इस मनोवृत्‍ति से बच नहीं पा रहा है। हमारे कहने का ताप्‍पर्यं यह नहीं कि पूरा भारतीय समाज ही भ्रष्‍ट हो चुका है परन्‍तु पश्‍चिमी देशों दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका एवं अन्‍य एशियाई देशों की अपेक्षा हमारे यहाँ अधिक भ्रष्‍टाचार व्‍याप्‍त है इसके पीछे प्रमुख कारण यह हैं कि ‘‘हमारे पास बहुत अच्‍छी सरकार तो है, लेकिन शासन बहुत कम है, हमारे पास लोक सेवक तो बहुत हैं, लेकिन उनमें लोक सेवा की भावना बहुत कम है, हमारे पास कानून तो बहुत ज्‍यादा हैं, लेकिन उनमें न्‍याय बहुत कम मिल पाता है। अर्थात्‌ हम बातें तो बहुत ज्‍यादा करते हैं लेकिन उनको कार्य रूप में बहुत कम प्रयोग करते हैं।

भ्रष्‍टाचार अपने आप में बहुत व्‍यापक शब्‍द है। भ्रष्‍टाचार का शाब्दिक अर्थ है, भ्रष्‍ट अथवा बिगड़ा आचरण। सरल शब्‍दों में इसे रिश्‍वत का कार्य कहा जा सकता है। इसे निजी लाभ के लिए सार्वजनिक शक्‍ति का इस प्रकार प्रयोग करना, जिसमें कानून तोड़ना शामिल हो या जिससे समाज के मानदण्‍डों का विचलन हुआ हो, भी कहा जाता है। दूसरे शब्‍दों में भ्रष्‍टाचार से तात्‍पर्य है किसी सरकारी कर्मचारी द्वारा अपने सार्वजनिक पद़ अथवा स्‍थिति का दुरुपयोग करते हुए किसी प्रकार का आर्थिक या अन्‍य प्रकार का लाभ उठाना। भ्रष्‍टाचार की परिभाषा भारतीय दण्‍ड की धारा 161 में इस प्रकार की गयी है- जो व्‍यक्‍ति शासकीय कर्मचारी होते हुए या होने की आशा में अपने या अन्‍य किसी व्‍यक्‍ति के विधिक पारिश्रमिक से अधिक कोई घूस लेता है या स्‍वीकार करता है अथवा लेने के लिए तैयार हो जाता है या लेने का प्रयत्‍न करता है। या किसी कार्य को करने में किसी व्‍यक्‍ति के प्रति पक्षपात या उपेक्षा या किसी व्‍यक्‍ति की कोई सेवा या कुसेवा का प्रयास, केन्‍द्रीय या अन्‍य राज्‍य सरकार या संसद या विधानमण्‍डल या किसी लोक सेवक के सन्‍दर्भ में करता है तो उसे तीन वर्ष तक कारावास का दण्‍ड या अर्थदण्‍ड या दोनों दिए जा सकेगें। भारतीय संहिता की धारा 420 के अनुसार ,कोई व्‍यक्‍ति छल करता है बेईमानी से सम्‍पत्‍ति पैदा करने के लिए उत्‍प्रेरित करता है। मूल्‍यवान प्रतिभूति की पूर्णतः या अंशतः रचना करता है, तो वह व्‍यक्‍तिगत रूप से दंडनीय होगा। भ्रष्‍टाचार निरोधक अधिनियम सितम्‍बर 1988 में लागू हुआ, इसमें 1947 का भ्रष्‍टाचार निरोधक अधिनियम भी समाहित था। इसके साथ ही आई0 पी0 सी0 की कुछ धाराएं, अपराध प्रक्रिया संहिता और 1952 का अपराधी कानून अधिनियम के प्रावधान भी समाविष्‍ट हैं। 1947 के अधिनियम ने रिश्‍वत लेना, धन का दुरुपयोग, करना आर्थिक लाभ उठाना, आय से अधिक सम्‍पत्‍ति जमा करना तथा आधिकारिक पद का दुरुपयोग करना आदि भ्रष्‍टाचार के कार्य व अपराध घोषित किये गये हैं। परन्‍तु मुकदमा चलाने का अधिकार केन्‍द्रीय जाँच ब्‍यूरो को न देकर विभागीय अधिकारियों को दिया गया। अन्‍य प्रयासों में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्‍स (1999) सतर्कता आयोग एवं अन्‍य समितियों/आयोगों के माध्‍यम से समय-समय पर भ्रष्‍टाचार पर अंकुश रखने के लिए इनका गठन किया गया।

किसी न किसी रूप में मानव में व्‍यक्‍तिगत हो या संस्‍थागत भ्रष्‍टाचार की परम्‍परा काफी पुरानी है, चाहे धर्म के नाम पर हो या महापुरूषों के नाम पर अथवा अन्‍य लोकोपकारक कायोंर् के नाम पर मंदिर, न्‍यास, धर्मार्थ ,संस्‍थान या अन्‍य प्रकार की संस्‍थाओं की स्‍थापना हेतु पैसों की वसूली की जाती थी जिसका कोई लेखा-जोखा न रहने के कारण कभी-कभी बिचौलियों के द्वारा चोरी की घटनाएं आम होने लगीं और यही संस्‍थागत (व्‍यक्‍तिगत) भ्रष्‍टाचार सरकारी स्‍तर पर लोगों के लिए एक आन्‍दोलन का हिस्‍सा हो गया। कौटिल्‍य के शब्‍दों में कहें तो ‘‘जिस प्रकार जीभ पर रखे हुए शहद का स्‍वाद न लेना असम्‍भव है उसी प्रकार किसी शासकीय अधिकारी के लिए राज्‍य के राजस्‍व के एक अंश का भक्षण न करना असम्‍भव है।'' स्‍वतंत्र भारत की बात करें तो उस समय भ्रष्‍टाचार के विविध रूप हमारे समक्ष उपलब्‍ध थे। भारत में भ्रष्‍टाचार मूलतः सन्‌ 1950 के दशक की एक अनहोनी शुरूआत है। द्वितीय पंचवर्षीय योजना 1957 को भारतीय गणतंत्र के पहले घोटाले के रूप में मूदडा कांड हो गया। जिसने पहली बार राजनीति और पूंजीपतियों के बीच अपवित्र गठजोड़ बना दिया। जिसका भण्‍डा भोड़ फीरोज गाँधी ने किया था। काफी लम्‍बी जद्दोजहद के बाद तत्‍कालीन वित्‍तमंत्री टी0 टी0 कृष्णामचारी को इस्‍तीफा देना पड़ा। हांलाकि इसके पहले जीप घोटाला हुआ था परन्‍तु इस घोटाले के आरोपी मंत्री कृष्‍ण मेनन का कुछ नहीं बिगड़ा और वे रक्षामंत्री बने रहे। जिससे इस घटना ने तूल नहीं पकड़ा। इसके बाद तो लगातार भ्रष्‍टाचार की बाड़ सी आ गयी ।जिसमें प्रमुख घोटाले इस प्रकार हैं। मुगदल प्रकरण, धरमतेजा का मामला, मालवीय-सिराजुद्दीन कारनामा कैरों प्रकरण, नागरवाला कांड, मारूति घोटाला, कुओं तेल कांड, अंतुले प्रकरण, बोफोर्स घोटाला, श्‍ोयर घोटाला, हवाला कांड, झा0मु0मो0 रिश्‍वत कांड, तांसी भूमि घोटाला, संचार घोटाला (सुखराम), लक्‍खू भाई प्रकरण, सेंटस किट्‌स मामला, यूरिया घोटाला, हर्षद मेहता कांड, चारा घोटाला, ताबूत खरीद घोटाला, वैलाडीला हीरा खान घोटाला, दिलीप सिंह जुदेव प्रकरण, स्‍टाम्‍प घोटाला, सत्‍यम कम्‍पनी आदि घोटाले वर्तमान में हो रहे धोखधड़ी की व्‍यवस्‍था को आगे बढ़ा रहे हैं। भ्रष्‍टाचार के ये विविध रूप चाहे वह ठेकेदारी को लेकर हुए हों या काले धन की समस्‍या से घटित हों या सत्‍तापक्ष की असीमित शक्‍तियों के दुरूपयोग के आधार पर हुए हों या संस्‍थागत, नौकरशाही की आड़ में हुए हों इन सभी में कहीं न कहीं हमारी नीति एवं नियति की खोट की वजह से ऐसा होता आया है और वर्तमान में ऐसा हो रहा है। भ्रष्‍टाचार के इस उदय के कारणों में हम व्‍यक्‍तिगत दोषी होने के साथ-साथ हमारे राजनीतिक दर्शन में कई ऐसी विसंगतियां हैं जो राष्‍ट्रहित के कार्यक्रमों और नीतियों की अपेक्षा अपने हित में ही अधिक विश्‍वास करते हैं।

भारत में आपात काल के दौरान भ्रष्‍टाचार का चेहरा स्‍पष्‍ट रूप से परिलक्षित होने लगा, एक स्‍तर पर विश्‍वविद्यालय, अदालत, रक्षातंत्र, प्रशासन जैसी संस्‍थाओं में नैतिक पतन शून्‍य हुआ वही इस दौरान संजय गाँधी संविधानेत्‍तर सत्‍ता के केन्‍द्र बिन्‍दु के रूप में उभरे और ऐसी स्‍थिति में समानान्‍तर दो सत्‍ताओं का जन्‍म हुआ एक ओर राजनीतिक अपराधीकरण शुरू होता है तो दूसरी ओर राजतंत्र का निजीकरण ! ऐसी स्‍थिति में तत्‍कालीन समय में राजनीतिज्ञों एवं नौकरशाही ने अपने पद एवं शक्‍तियों का जमकर दुरूपयोग कर अवैध रूप से अनेक लाभ लेने शुरू कर दिए । इसमें नये व्‍यापारी, नेताओं ने भी अपनी गोटियां विछानी शुरू कीं। साथ ही मंत्री जी लोगों से मिलकर इस महासमर को आगे बढाया। दूसरे स्‍तर पर भ्रष्‍टाचार का बोल अधिक तब बढ़ा जब राजनीति में अपराधीकरण शुरू हुआ ! क्‍योंकि जब नेता या मंत्री किसी भ्रष्‍टाचार के मामले में फंस जाता है तो कानूनी दांवपेच के चलते आसानी से निकल जाने के अनेक साफ्‍ट कार्नर तलाश लिए जाते हैं। अब तक यह देखा गया है कि भ्रष्‍टाचार के जो-जो मामले आये हैं उन पर बड़ी देर एवं उदासीनता के साथ कमेटियां बैठाई जाती हैं। खासकर ऐसे मामलों में जिनमें सत्‍तारूढ़ दल का व्‍यक्‍ति शामिल हो। यही कारण है कि भ्रष्‍टाचार को निचले स्‍तर पर फलने-फूलने का व्‍यापक अवसर देखने को मिलता है। मेरी अपनी समझ के अनुसार भ्रष्‍टाचार के वर्तमान में उत्‍तरोत्‍तर बढ़ने के दो स्‍पष्‍ट कारण देखे जा सकते हैं। वह यह कि नौकरशाही की गोपनीयता, जो सदैव हमें अंधकार की ओर ले जाती है तथा फफूंद की तरह अन्‍दर ही अंदर गलाती रहती है। गुप्‍त तरह से किया गये इन कार्यों का अंत में जब पर्दाफाश होता है तो पता पड़ता है कि एक लम्‍बा घोटाला हो गया। दूसरे स्‍तर पर हमारी न्‍याय व्‍यवस्‍था और प्रशासनिक प्रक्रिया का जटिल होना, जिसके तहत शीघ्र कार्य निपटने की आस में सामान्‍य आदमी का धैर्य टूट जाता है और वह अपने आप पैसों का आफर कर बैठता है। सामान्‍य व्‍यवहार के रूप में आरम्‍भ की गयी यह प्रक्रिया अन्‍त में सिद्धांत का रूप अख्तियार कर लेती है और भ्रष्टाचार को हम जानते चाहते हुए इसका आरम्‍भ कर बैठते हैं ः और इसके साथ जिसका प्रभाव हमारी अर्थव्‍यवस्‍था को दीमक की तरह चाटने के साथ-साथ राजस्‍व व्‍यवस्‍था को चौपट कर देता है। यही नहीं सामान्‍य जनता के द्वारा श्रम का पैसा जब कुछ लोगों तक सीमित को जाता है तब यहीं से अराजकता का जन्‍म होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि भारतीय राजनीति में भ्रष्‍टाचार के प्रवेश होने से जनमानस ऐसी कोई ठोस बहुमत से पूर्ण स्‍थायी सरकार नहीं दे पा रहा है जिसे स्‍थिर या ईमानदार कहा जा सके।

वर्तमान समय में जब भ्रष्‍टाचार को लोग शिष्‍टाचार के रूप में अख्‍तियार करने लगे है तब हमारी अस्‍मिता एक बार यह सोचने पर मजबूर करती है कि हम सभी दोषी हैं इसका मुख्‍य क्‍योंकि जनसामान्‍य ने अभी तक भ्रष्‍टाचार को अपनी निजी समस्‍या ही नहीं समझा है। ऐतिहासिक साक्ष्‍यों के आधार पर हम कह सकते है कि जब स्‍वयं हमारे ऊपर आपदा आती है तभी हमे लगता है कि यह समस्‍या अब गम्‍भीर हो गई है और फिर हम सिर के बल खड़े होने की प्रक्रिया में सलंग्‍न होने लगते है और इन स्‍थितियों में प्रवेश करते समय हम काफी देर हो चुकती है फिर भी जब जगे तभी सवेरा अर्थात्‌ भ्रष्‍टाचार को एक राष्‍ट्रीय समस्‍या मानकर हर व्‍यक्‍ति को, जो जहाँ पर है उसे इस समस्या से निजी तौर से संघर्ष करना होगा कि न तो रिश्‍वत लेंगे और देंगे इसमें साथ ही हर भ्रष्‍ट कदम का विरोध तथा हर भ्रष्‍ट अधिकारी का विरोध ही इस समस्‍या से उसी तरह निजात दिला सकता ह जिस तरह का जज्‍बा उत्‍तराखण्‍ड में आम जनता ने वृक्षों की रक्षा करते हुए चिपको आन्‍दोलन की शुरूवात वृक्षों में चिपक कर जान की बाजी लगा कर की थी। हाँ बस जरूरत है बस एक पत्‍थर उछालने की मेरे दोस्‍त।

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सम्‍पर्क-वरिष्‍ठ प्रवक्‍ता हिन्‍दी विभाग डी0 वी0 (पी0जी0) कालेज उरई (जालौन) उ0 प्र0-285001

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. bबहुत ही बडिया आलेख है डा विरेन्द्र जी को एक पत्थर उछालने की शुरुआत के लिये बहुत बहुत बधाई

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रचनाकार: वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : भ्रष्टाचार की परम्परा एवं अवरोधक तत्व
वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : भ्रष्टाचार की परम्परा एवं अवरोधक तत्व
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