(प्रतापनारायण मिश्र (1856-1894) का यह व्यंग्यात्मक आलेख कोई सौ सवा सौ वर्ष पुराना है, मगर परिस्थितियाँ शायद अब भी वैसी ही नहीं हैं?) इन...
(प्रतापनारायण मिश्र (1856-1894) का यह व्यंग्यात्मक आलेख कोई सौ सवा सौ वर्ष पुराना है, मगर परिस्थितियाँ शायद अब भी वैसी ही नहीं हैं?)
इन महापुरुष का वर्णन करना सहज काम नहीं है । यद्यपि अब उनके किसी अंग में कोई सामर्थ्य नहीं रही अतः इनसे किसी प्रकार की ऊपरी सहायता मिलना असंभव सा है पर हमें उचित है कि इनसे डरें इनका सम्मान करे और इनके थोड़े से बचे खुचे जीवन को गनीमत जानें क्योंकि इन्होंने अपने बाल्यकाल में विद्या के नाते चाहे काला अक्षर भी न सीखा हो युवावस्था में चाहे एक पैसा भी न कमाया हो तथापि संसार की ऊंच नीच का इन्हें हमारी अपेक्षा बहुत अधिक अनुभव है इसी से शास्त्र की आज्ञा है कि वयोधिक शूद्र भी द्विजाति के लिए माननीय है । यदि हममें बुद्धि हो तो इनसे पुस्तकों का काम ले सकते हैं वरंच पढ़ने में आँखों को तथा मुख को कष्ट होता है न समझ पड़ने पर दूसरों के पास दौड़ना पड़ता है पर इनसे केवल इतना कह देना बहुत है कि हां बाबा, फिर क्या हुआ । हाँ बाबा ऐसा हो तो कैसा हो? बस बाबा साहब अपने जीवन भर का आन्तरिक कोषखोल कर रख देंगे । इसके अतिरिक्त इनसे •डरना इसलिए उचित है कि हम क्या हैं हमारे पूज्य पिता दादा ताऊ भी इनके आगे के छोकड़े थे । यदि यह बिगड़ें तो किसकी कलई नहीं खोल सकते 1 किसके नाम पर गट्टा सी नहीं सुना सकते ? इन्हें संकोच किसका है? बक्की के अलावा इन्हें कोई कलंक ही क्या लगा सकता है ? जब यह आप ही चिता पर एक पाँव रखे बैठे हैं कब्र में पाँव लटकाये हुए हैं तब इनका कोई कर क्या सकता है ।
यदि इनकी बातें कु बातें हम न सहें तो करें क्या? यह तनिक सी बात में कष्टित और कुंठित हो जायँगे और असमर्थता के कारण सच्चे जी से शाप देंगे जो वास्तव में बड़े बड़े तीक्ष्ण शस्त्रों की भांति अनिष्टकारक होगा। जब कि महात्मा कबीर के कथनानुसार मरी खाल की हाय से लोहा तक भस्म हो जाता है तब इनकी पानी भरी खाल की हाय कैसा कुछ अमंगल नहीं कर सके ! इससे यही न उचित है कि इनके सच्चे अशक्त अन्तःकरण का आशीर्वाद लाभ करने का उद्योग करे क्योंकि समस्त धर्म ग्रन्थों में इनका आदर करना लिखा है। सारे राजनियमों में इनके लिये पूर्ण दण्ड की विधि नहीं है और सोच देखिए तो यह दया पात्र जीव है, क्योंकि सब प्रकार पौरुष से रहित हैं केवल जीभ नहीं मानती इससे आँय बाँय शाँय किया करते हें या अपनी खटिया पर थूकते रहते हैं । इसके सिवा किसी का कुछ बिगाड़ते ही नहीं हैं । हाँ इस दशा में दुनिया के झंझट छोड़ के भगवान का भजन नहीं करते, वृथा चार दिन के लिए झूठी हाय हाय में कुढ़ते कुढ़ाते रहते हैं । यह बुरा है । पर इसके लिए क्यों इनकी निन्दा की जाय ?
आजकल बहुतेरे मननशील युवक कहा करते हैं कि बुड्ढे खबीसों के मारे कुछ नहीं होने पाता वे अपनी पुरानी अकिल के कारण प्रत्येक देश हितकारक नव विधान में विघ्न खड़ा कर देते हैं । हमारी समझ में यह कहने वालों की भूल है नहीं तो सब लोग एक से ही नहीं होते । यदि हिकमत के साथ राह पर लाये जायँ तो बहुत से बुड्ढे ऐसे निकल आवेंगे जिनसे अनेक युवकों को अनेक भाँति की मौखिक सहायता मिल सकती है । रहे वे बुड्ढे जो सचमुच अपनी सत्यानाशी लकीर के फकीर अथवा अपने ही पापी पेट के गुलाम हैं । वे पहले हई कै जने ? दूसरे अब वह समय नहीं रहा कि उनके कुलक्षण किसी से छिपे हों । फिर उनका क्या डर ? चार दिन के पाहुन कछुवा मछली अथवा कीड़ों की परसी हुई थाली, कुछ अमरौती खा के आये हैं नहीं कौवे के बच्चे हईं नहीं, बहुत जियेंगे दस वर्ष । इतने दिन मर पचके दुनिया भर का पीकदान बन के, दस लोगों के तलवे चाट के अपने स्वार्थ के लिए पराये हित में बाधा करेंगे भी तो कितनी; सो भी जब देश भाइयों का एक बड़ा समूह दूसरे ढर्रे पर जा रहा है तब आखिर थोड़े ही दिन में आज मरे कल दूसरा दिन होना है ।
फिर उनके पीछे हम अपने सदुद्योगों में त्रुटि क्यों करें । जब थोड़ी सी घातों की जिन्दगी के लिए वे अपना बेढंगापन नहीं छोड़ते तो हम अपनी बृहजीवनाशा में स्वधर्म क्यों छोड़ें । हमारा यही कर्तव्य है कि उनकी शुश्रूषा करते रहें क्योंकि भले हों वा बुरे पर हैं हमारे ही । अतः हमें चाहिए कि अदब के साथ उन्हें संसार की अनित्यता अथवा ईश्वर धर्म देशोपकार एवं बन्धुवात्सल्य की सभ्यता का निश्चय कराते रहें । सदा समझाते रहें कि हमारे तो तुम बाबा ही हो । अगले दिनों के ऋषियों की भांति विद्यावृद्ध शानवृद्ध तपोवृद्ध हो तो भी बाबा हो और बाबा लोगों की भाँति ‘आपन पेट हाहू मैं ना देहों काहू’ का सिद्धान्त रखते हो तो भी वयोवृद्ध के नाते बाबा ही हो, पर इतना स्मरण रखो कि अब जमाने की चाल वह नहीं रही जो तुम्हारी जवानी में थी । इससे उत्तम यह कि इस वाक्य को गाँठ बाँधो कि चाल वह चल कि ‘पसे मर्ग’ मुझे याद करें । काम वह कर कि जमाने में तेरा नाम रहे नहीं तो परलोक में बैंकुठ पाने पर भी उसे थूक-थूक के नरक बना लोगे, इस लोक का तो कहना ही क्या है ।
अभी थूक खखार देख कुटुम्बवाले घृणा करते हैं, यदि वर्तमान करतूतें विदित हो गई तो सारा जगत् सदा थुड़ थुड़ करेगा । यों तो मनुष्य की देह ही क्या है जिसके यावदवयव घृणामय हैं, केवल बनानेवाले की पवित्रता के निहोरे श्रेष्ठ कहलाते हैं, नहीं तो निरी खारिज खराब हाल की खलीती है तिस पर भी उस अवस्था में जब कि
निवृत्ता भोगेच्छा परुषबाहुमानो विगलितः
समानाः स्वर्याताः सदपि सुहृदो जीवितसमाः ।
शनैर्यष्ट्युत्थानं धनतिमिररुद्धपि नयने,
अहो दुष्टः कायस्तपपि मरणापायचकितः ।।
यदि भगवच्चरणानुसरण एवं सदाचरण न हो सका तो हम क्या है राह चलनेवाले तक धिक्कारेंगे और कहेंगे कि ‘कहा धन धामेऐ धरि लेहुगे सरा मैं भये जरिन तऊ रामै न भजत हौ’ यदि समझ जाआगे तो अपना लोक परलोक बनाओगे दूसरों के लिए उदाहरण काम में लाओगे नहीं तो हमें क्या है हम तो अपनीवाली किये देते हैं तुम्ही अपने किये का फल पाओगे । लोग कहते हैं कि बारह बरसवाले को बैद्य क्या है, तुम तो परमात्मा की दया से पँचगुने छगुने दिन भुगता बैठे हो तुम्हें तो चाहिए कि दूसरों को समझाओ पर यदि स्वयं कर्त्तव्याकर्त्तव्य न समझो तो तुम्हें तो क्या कहें हमारी समझ को धिक्कार है जो ऐसे वाक्यरत्न ऐसे कुत्सित ठौर पर फेंका करती है।
्रवीजी बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिये आभार
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