आतंकवाद को निर्मूल करने के लिए सर्व धर्म समभाव प्रोफेसर महावीर सरन जैन धर्म की प्रासंगिकता एक व्यक्ति की मुक्ति में ही नहीं है। धर्म ...
आतंकवाद को निर्मूल करने के लिए सर्व धर्म समभाव
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
धर्म की प्रासंगिकता एक व्यक्ति की मुक्ति में ही नहीं है। धर्म की प्रासंगिकता एवं प्रयोजनशीलता शान्ति, व्यवस्था, स्वतंत्रता, समता, प्रगति एवं विकास से सम्बन्धित समाज सापेक्ष परिस्थितियों के निर्माण में भी निहित है।
धर्म साधना की अपेक्षा रखता है। धर्म के साधक को राग-द्वेषरहित होना होता है। धार्मिक चित्त प्राणिमात्र की पीड़ा से द्रवित होता है। तुलसीदास ने कहा- ‘परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई'। सत्य के साधक को बाहरी प्रलोभन अभिभूत करने का प्रयास करते हैं। मगर वह एकाग्रचित्त से संयम में रहता है। प्रत्येक धर्म के ऋषि, मुनि, पैगम्बर, संत, महात्मा आदि तपस्वियों ने धर्म को अपनी जिन्दगी में उतारा। उन लोगों ने धर्म को ओढ़ा नहीं अपितु जिया। साधना, तप, त्याग आदि दुष्कर हैं। ये भोग से नहीं, संयम से सधते हैं। धर्म के वास्तविक स्वरूप को आचरण में उतारना ही वास्तविक धर्म है। महापुरुष ही सच्ची धर्म-साधना कर पाते हैं।
इन महापुरुषों के अनुयायी जब अपने आराध्य-साधकों जैसा जीवन नहीं जी पाते तो उनके नाम पर सम्प्रदाय, पंथ आदि संगठनों का निर्माण कर, भक्तों के बीच आराध्य की जय-जयकार करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। अनुयायी साधक नहीं रह जाते, उपदेशक हो जाते हैं।ये धार्मिक व्यक्ति नहीं होते, धर्म के व्याख्याता होते हैं। इनका उद्देश्य धर्म के अनुसार अपना चरित्र निर्मित करना नहीं होता, धर्म का आख्यान मात्र करना होता है। जब इनमें स्वार्थ-लिप्सा का उद्रेक होता है तो ये धर्म-तत्त्वों की व्याख्या अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए करने लगते हैं। धर्म की आड़ में अपने स्वार्थों की सिद्धि करने वाले धर्म के दलाल अथवा ठेकेदार अध्यात्म सत्य को भौतिकवादी आवरण से ढकने का बार-बार प्रयास करते हैं। इन्हीं के कारण चित्त की आन्तरिक शुचिता का स्थान बाह्य आचार ले लेते हैं। पाखंड बढ़ने लगता है। कदाचार का पोषण होने लगता है।
आतंक एवं धर्म परस्पर एकदम विपरीतार्थक हैं। धर्म अहिंसा, उदारता, सहिष्णुता, उपकारिता एवं परहित के लिए त्याग सिखाता है जबकि आतंकवाद हिंस्रता,उग्रता एवं कट्टरता, नृशंसता, क्रूरता एवं गैर लोगों का संहार करना सिखाता है। मज़हब नेकचलनी सिखाता है; दहशतगर्दी वहशीपन सिखाता है। मज़हबी रहमदिल होता है; दहशतगर्द बेरहम होता है। मज़हबी मोमदिल होता है; दहशतगर्द पत्थरदिल होता है। मज़हबी बंदानवाज़ होता है; दहशतगर्द ज़ल्लाद होता है। मज़हबी हमदर्द और मेहरबान होता है; दहशतगर्द वहशी और दरिंदा होता है। मज़हबी सादिक होता है; दहशतगर्द दोज़खी होता है।
जब धर्म /मजहब का यथार्थ अमृत तत्त्व आतंकवादियों के हाथों में कैद हो जाता है तब धर्म/मजहब के नाम पर अधार्मिकता एवं साम्प्रदायिकता का जहर वातावरण में घुलने लगता है। धर्म /मजहब धर्म की रक्षा के लिए धर्म युद्ध / जे़हाद के नारे भोले भाले नौजवानों के दिमाग में साम्प्रदायिकता एवं उग्रवादी आतंक के बीजों का वपन कर उनको विनाश, विध्वंस, तबाही, जनसंहार के जीते जागते औज़ार बना डालते हैं।
कीचड़ को कीचड़ से साफ नहीं किया जा सकता। आतंकवाद को यदि मिटाना है, निर्मूल करना है तो धर्माचार्यों को धर्म /मजहब के वास्तविक एवं यथार्थ स्वरूप को उद्घाटित करना होगा, विवेचित करना होगा, मीमांसित करना होगा। सबको मिलजुलकर एकस्वर से यह प्रतिपादित करना होगा कि यदि चित्त में राग एवं द्वेष है, मेरे तेरे का भाव है तो व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता। सबको मिलजुलकर एकस्वर से यह प्रतिपादित करना होगा कि धर्म न कहीं गाँव में होता है और न कहीं जंगल में बल्कि वह तो अन्तरात्मा में होता है। प्रत्येक प्राणी के अन्दर उसका वास है, इस कारण अपने अन्दर झाँकना चाहिए, अन्दर की आवाज सुनना चाहिए तथा अपने हृदय अथवा दिल को आचारवान, चरित्रवान, नेकचलन एवं पाकीज़ा बनाना चाहिए। शास्त्रों के पढ़ने मात्र से उद्धार सम्भव नहीं है। क्या किसी ‘परम सत्ता' एवं हमारे बीच किसी ‘तीसरे' का होना जरूरी है ? क्या अपनी लौकिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए ईश्वर /अल्लाह के सामने शरणागत होना अध्यात्म साधना है ? क्या धर्म-साधना की फल-परिणति सांसरिक इच्छाओं की पूर्ति में निहित है ? सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के उद्देश्य से आराध्य की भक्ति करना धर्म है अथवा सांसारिक इच्छाओं के संयमन के लिए साधना-मार्ग पर आगे बढ़ना धर्म है ? क्या स्नान करना, तिलक लगाना, माला फेरना, आदि बाह्य आचार की प्रक्रियाओं को धर्म-साधना का प्राण माना जा सकता है ? धर्म की सार्थकता वस्तुओं एवं पदार्थों के संग्रह में है अथवा राग-द्वेष रहित होने में है ? धर्म का रहस्य संग्रह, भोग, परिग्रह, ममत्व, अहंकार आदि के पोषण में है अथवा अहिंसा, संयम, तप, त्याग आदि के आचरण में ?
यदि हम भारतवर्ष के संदर्भ में विचार करें तो उपनिषद् युग में दर्शन और चिन्तन के धरातल पर जितनी विशालता, व्यापकता एवं मानवीयता विद्यमान रही परवर्ती काल में, विशेष रूप से मध्य युग में वैयक्तिक एवं सामाजिक आचरण के धरातल पर नहीं रही। जब चिन्तन एवं व्यवहार में विरोध उत्पन्न हो गया तो भारतीय समाज की प्रगति एवं विकास की धारा भी अवरुद्ध हो गयी। उदाहरणार्थ, दर्शन के धरातल पर उपनिषद् के चिन्तकों ने प्रतिपादित किया था कि यह जितना भी स्थावर जंगम संसार है, वह सब एक ही परब्रह्म के द्वारा आच्छादित है। उन्होंने संसार के सभी प्राणियों को ‘आत्मवत्' मानने एवं जानने का उद्घोष किया था, मगर सामाजिक धरातल पर समाज के सदस्यों को उनके गुणों के आधार पर नहीं अपितु जन्म के आधार पर जातियों, उपजातियो, वर्णों, उपवर्णों में बाँट दिया गया तथा इनके बीच ऊँच-नीच की दीवारें खड़ी कर दी गईं।
मध्य युग में धर्म के बाह्य आचारों एवं आडम्बरों को सन्त कवियों ने उजागर किया। सन्त नामदेव ने ‘पाखण्ड भगति राम नही रीझें' कहकर धर्म के तात्त्विक स्वरूप की ओर ध्यान आकृष्ट किया तो कबीर ने ‘जो घर फूँके आपना, चले हमारे साथ' कहकर
साधना-पथ पर द्विधारहित एवं संशयहीन मनःस्थिति से कामनाओं एवं परिग्रहों को त्याग कर आगे बढ़ने का आह्वान किया। पंडित लोग पढ़-पढ़कर वेदों का बखान करते हैं, किन्तु इसकी सार्थकता क्या है ? जीवन की चरितार्थता आत्म-साधना में है और ऐसी ही साधना के बल पर दादूदयाल यह कहने में समर्थ हो सके कि ‘काया अन्तर पाइया, सब देवन को देव'। कहने का तात्पर्य केवल यह कहना अभीष्ट है कि धर्म दर्शन की वास्तविक विशालता, व्यापकता एवं मानवीयता को स्वार्थी तत्व धर्म के ठेकेदार बनकर धर्म के नाम पर अपने स्वार्थां की सिदि्ध करने लगते हैं।
आत्मस्वरूप का साक्षात्कार अहंकार एवं ममत्व के विस्तार से सम्भव नहीं है। अपने को जानने के लिए अन्तश्चेतना की गहराइयों में उतरना होता है। धार्मिक व्यक्ति कभी स्वार्थी नहीं हो सकता। आत्म-गवेषक अपनी आत्मा से जब साक्षात्कार करता है तो वह ‘एक' को जानकर ‘सब' को जान लेता है, पहचान लेता है, सबसे अपनत्व-भाव स्थापित कर लेता है। आत्मानुसंधान की यात्रा में व्यक्ति एकाकी नहीं रह जाता, उसके लिए सृष्टि का प्रत्येक प्राणी आत्मतुल्य हो जाता है। एक की पहचान सबकी पहचान हो जाती है तथा सबकी पहचान से वह अपने को पहचान लेता है। भाषा के धरातल पर इसमें विरोधाभास हो सकता है, अध्यात्म के धरातल पर इसमें परिपूरकता है। जब व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार के लिए प्रत्येक पर-पदार्थ के प्रति अपने ममत्व एवं अपनी आसक्ति का त्याग करता है तब वह राग-द्वेषरहित हो जाता है, वह आत्मचेतना से जुड़ जाता है, शेष सबके प्रति उसमें न राग रहता है न द्वेष। इसी प्रकार जब साधक सृष्टि के प्रत्येक प्राणी को आत्मतुल्य समझता है तब भी उसका न किसी से राग रह जाता है और न किसी से द्वेष। धर्म /मजहब का वास्तविक अभिप्राय व्यक्ति के चित्त का शुद्धिकरण है। संसार के सभी धर्म/मजहब/रिलिज़न समस्त प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव, प्रेमभाव तथा समभाव होना सिखाते हैं। संसार का कोई भी धर्म/मजहब/रिलिज़न निहत्थे लोगों, महिलाओं, बच्चों का संहार करना नहीं सिखाता। इस दृष्टि से ‘सर्वधर्म समभाव' में से यदि विशेषणों को हटा दें तो शेष रह जाता है ः ‘धर्म-भाव'। सम्प्रदाय में भेद दृष्टि है, धर्म में अभेद-दृष्टि। हमारी कामना है कि विश्व में इसी अभेद-दृष्टि का विकास हो। धर्म से पहले जुड़ने वाला कोई भी ‘विशेषण' किसी भी स्थिति में कभी भी अपने ‘विशेष्य' से अधिक महत्वपूर्ण न बने।
विश्व के सभी धर्मों/मजहबों /रिलिज़नों में नैतिक मूल्यों का प्रतिपादन है, मानव मूल्यों की स्थापना है, मानव-जाति में सदाचारण के प्रसार का प्रयास है। इन नैतिक मूल्यों, सद्गुणों एवं सदाचारों को व्यक्त करने वाली शब्दावली में भिन्नता होने के कारण बाह्यधरातल पर हमें धर्मों के साधना-पक्ष में अन्तर प्रतीत होता है, तात्त्विक दृष्टि से सभी धर्म मनुष्य के सद्पक्ष को उजागर करते हैं, सामाजिक जीवन में शान्ति, बन्धुत्व, प्रेम, अहिंसा एवं समतामूलक विकास के पक्षधर हैं। प्रत्येक धर्म में व्यक्ति के राग-द्वेष के कारणों को दूर करने का विधान स्पष्ट है। क्रोध से द्वेष का तथा अहंकार, माया एवं लोभ से राग का परिपाक होता है। व्यक्ति क्षमा द्वारा क्रोध को, मार्दव या विनम्रता द्वारा अहंकार को, आर्जव या निष्कपटता द्वारा माया या तृष्णा को तथा शुचिता द्वारा लोभ को जीतता है। तदनन्तर व्यक्ति सत्य का प्रकाश प्राप्त कर पाता है। संयम के द्वारा व्यक्ति इन्द्रियों की विषय-उन्मुखता पर प्रतिबन्ध लगाता है या उन्हें नियंत्रित करता है। तप रूपी अग्नि में कषाय, वासनाएँ, कल्मषताएँ जल जाती हैं। इसके बाद व्यक्ति संचित पदार्थों का त्याग करता है, वस्तुओं के प्रति आसक्ति समाप्त करता है तथा काम भाव को संयत कर काम-वासना पर विजय प्राप्त करता है। विभिन्न धर्मों के आचार्यों को धर्म के साधना पक्ष की समानता को उजागर करने का प्रयास करना चाहिए।
आतंकवाद को यदि निर्मूल करना है तो सभी धर्मों / मजहबों के धर्मगु़रुओं/मौलवियों को सर्वधर्म समभाव की उदात्त चेतना का विकास करना होगा। मतवादों का भेद हमारे ज्ञान एवं प्रतिपादन शक्ति की अपूर्णता के कारण है। एकांगी प्रतिपादन के कारण वे परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं। विरोधों का शमन सम्भव है। प्रतीयमान विरोधी दर्शनों में समन्वय स्थापित किया जा सकता है। यह अलग से विवेचना की अपेक्षा रखता है। सम्प्रति, यह कहना अभीष्ट है कि -“ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान।”
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