हुर्रे! वे चुनाव हार गए। उनके घर गया था। उनके सामने उनके लिए भगवान से उनकी हारी हुई कुर्सी की आत्मा के लिए शांति मांगने। किसी मंदिर, गुरू...
हुर्रे! वे चुनाव हार गए। उनके घर गया था। उनके सामने उनके लिए भगवान से उनकी हारी हुई कुर्सी की आत्मा के लिए शांति मांगने। किसी मंदिर, गुरूद्वारे में जाकर उनकी हार के लिए अगर भगवान से शांति की कामना करता तो उन्हें विश्वास ही न होता। कारण, वे अपने वोटरों से ताजा ताजा धोखा खाए हुए थे। उनके अपने चुनाव क्षेत्र के वोटर तो उनको खा ही गए दूसरे चुनाव क्षेत्र के वोटरों ने भी उनको नहीं बख्शा। और वे ये सोचकर वोटरों को खिलाते रहे कि अबके अपनी जीत का रिकार्ड बुक आफ गिन्नीज में अपने नाम लिखवा कर रहेंगे कि इस चुनाव क्षेत्र में जितने कुल वोट थे ये उससे भी अधिक वोटों से जीते। दूसरे वे सबको दिल खोलकर ये सोच खिलाते पिलाते रहे कि बस एक बार चुनाव जीत जाएं फिर सारे हिसाब न बराबर कर लूं तो मुझे आदमजात की औलाद न कहें।
पर कुर्सी ने उनकी न सुनी। नेता तो बहरे थे ही कम्बख्त अब ये कुर्सियां भी ऊंचा सुनने लगी हैं।
उनके घर हिम्मत करके घुसा तो वे महाशोक की मुद्रा में। असल में क्या है कि न भूखे श्ोर की मांद में जाना आसान होता है पर हारे हुए नेता के घर शोक करने जाना मुश्किल। वे शोक में इतने डूबे थे कि साक्षात् सामने बैठे होने के बाद भी कहीं नजर न आ रहे थे। हे भगवान ! तू किसी नेता को हराकर उसके साथ इतनी बड़ ज्यादती क्यों करता है? वोटर थे कि उनके घर शोक मनाने सिर झुकाए मुसकराते हुए आ रहे थे ,कुछ देर वहां बैठ कर जैसे ही चाय ठंडा आ जाते, सुड़क कर जा रहे थे। उनके घर उनकी हार के गम में शामिल होने वालों का तांता लगा हुआ था। इतने लोग उन्हें अगर वोट देते तो कम से कम जमानत तो बचती।
मैं जैसे कैसे बीसियों को पछाड़ अपना रोना थोबड़ा उन्हें बता उनका सच्चा हिमायती होने के लिए उनके पास पहुंचा ही कि उनके चमचे ने घोषणा कि,‘ हारे हुए नेता जी अब किसी से नहीं मिलेंगे। अब उनका आत्म मंथन करने का समय शुरू हो रहा है। शोक प्रकट करने आए से मेरा निवेदन है कि वे फिर कभी नेता जी से समय लेकर आएं। आपके यहां आने पर जो आपको तकलीफ हुई उसके लिए नेता जी की ओर से मैं आपसे क्षमा मांगता हूं। पर नेता जी का आदेश है कि वे चाय ठंडा लेकर जरूर जाएं। नेता जी की आत्मा को शांति तभी मिलेगी। नेता जी की आत्मा को आपसे मिले वोट तो शांत कर नहीं सके, शायद आपकी प्रार्थना इनकी कुर्सी के लिए तड़पती आत्मा को शांत कर दे।'
चमचे के इतना कहते ही शोक प्रकट करने वालों में खुशी की लहर दौड़ गई। चलो असली रूप में आ जाएं। नकली भाव चहरे पर रखे हुए आदमी बहुत जल्दी थक जाता है न! लोग ठहाके लगाते हुए चाय ठंडा पी रहे थे और प्लास्टिक के गिलासों की गरदनें मरोड़ रहे थे।
हे समझदार वोटरो! नेता जी की गरदन तो मरोड़ कर रख दी, अब तो गुस्सा छोड़ो।
मैंने प्रेस का कार्ड दिखाया तो एक चमचे ने चेहरे पर तीनों लोकों का शोक फैलाए मुझे अंदर आने दिया। असल में मेरा प्रेस से कोई वास्ता नहीं। वो तो मेरे एक मित्र जो जबरदस्ती एक साप्ताहिक निकालते हैं, कि इस बहाने उन्हें सरकारी विज्ञापन भी मिल जाते हैं और जब किसी को परेशान करना हो तो उसे परेशान भी कर लेते हैं। उन्होंने मेरा प्रेस कार्ड बना दिया है कि कई बार काम आ जाता है, और देखिए काम आ भी गया।
चमचे ने नेता जी के कान में कुछ फुसफुसाया तो उनकी गई चेतना लौट कर आई।
वे वैसे ही बेआत्मा हो कुर्सी पर पड़े पड़े मरी आवाज में बोले,‘ आओ बैठो! किस अखबार से हो?'
‘ साप्ताहिक भड़ास से।' बे आत्मा के नेता के सिवाय इस मृत्यु लोक में और कौन बातें कर सकता है? मैंने उनका मौना झूलता देखा तो सोचा कि शायद मौने को लकवा मार गया हो सो पूछ बैठा,‘ ये मौने को क्या हो गया?'
‘जलसों में जा जाकर तलवारें उठा उठा कर झूल गया।' पता नहीं लोकतंत्र में जीत के लिए मंचों पर तलवारें लहराने को रिवाज कब चूकेगा।
‘ हमारे साप्ताहिक भड़ास ने आपकी फेवर में हवा बनाने की कोशिश तो पूरी की थी पर वोटरों को शायद कुछ और ही मंजूर रहा होगा।' मैंने अपने मित्र के अखबार का सशक्त पक्ष उनके सामने रखा। हालांकि मुझे पता है कि उस अखबार को छापने के बाद मेरा मित्र भी नहीं पढ़ता।
‘ कम्बख्त अबके तो मैंने संपत्ति की घोषणा जितनी थी उससे चार गुणा अधिक कर डाली थी।' कह वे हारने के बाद भी संसद की ओर कूच करते लगे।
‘क्यों?'
‘इसलिए की जनता को बाद में कोई आबजेक्शन न हो कि चुनाव जीतने के बाद खाया है।'
‘ खिलाया पिलाया तो आपने बहुत, फिर आप हारे क्यों?'
‘साली जनता लगता है अब दिन पर दिन नमक हराम हो रही है। नमक का कर्ज चुकाना भी भूल रही है।'
‘अब क्या योजना है?'
‘पहले तो तीर्थ व्रत करूंगा फिर एक किताब लिखूंगा।'
‘किस पर?'
‘वोटरों पर।'
‘ आपकी हार का कोई खास कारण?'
‘जूते न पड़ना। अब देखिए न! इस चुनाव में जिन जिन को जूते पड़े वे सब जीते। अगली बार अगर पार्टी ने टिकट दिया तो कुछ और जनता को बांटने के बदले इन्हें जूते ही जूते बांटूंगा।' कह उन्होंने सिर झुका लिया। अचानक मुझे स्मरण हो आया कि जब मैं छोटा था और स्कूल में पढ़ता था, तो मेरे बापू मुझे पेपर शुरू होने से पहले पढ़ने के लिए जूते मारा करते थे। और जब जब मुझे पेपरों से पहले जूते पड़ते थे तब तब मैं जूतों की कृपा से पास भी हो जाता था।
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डा. अशोक गौतम
द्वारा संतोष गौतम,निर्माण शाखा
डा, वाय. एस. परमार विश्वविद्यालय नौणी, ,सोलन -173230 हि.प्र.
ईमेल - a_gautamindia@rediffmail.com
जूते की लीला निराली।
जवाब देंहटाएंआज का युग, जूता युग।
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }