धर्म पर जब जब भी बात होती है, विवाद होते रहे हैं. मेरा धर्म अच्छा तेरा धर्म घटिया. पर, क्या भविष्य का धर्म वास्तविक रूप में सर्व-धर्म-समभ...
धर्म पर जब जब भी बात होती है, विवाद होते रहे हैं. मेरा धर्म अच्छा तेरा धर्म घटिया. पर, क्या भविष्य का धर्म वास्तविक रूप में सर्व-धर्म-समभाव युक्त वैज्ञानिक धर्म होगा? पड़ताल कर रहे हैं केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के पूर्व निर्देशक महावीर सरन जैन
भविष्य का धर्म और दर्शन : स्वरूप एवं प्रतिमान
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
एम0ए0, डी0फिल, डी0लिट्0
विज्ञान की उपलब्धियों एवं अनुसंधानों ने मनुष्य को चमत्कृत कर दिया है। प्रतिक्षण अनुसंधान हो रहे हैं। जिन घटनाओं को न समझ पाने के कारण उन्हें अगम्य रहस्य मान लिया गया था वे आज अनुसंधेय हो गयी हैं। तत्वचिन्तकों ने सृष्टि की बहुत-सी गुत्थियों की व्याख्या परमात्मा एवं माया के आधार पर की। इस कारण उनकी व्याख्या इस लोक का यथार्थ न रहकर परलोक का रहस्य बन गयी। आज का व्यक्ति उनके बारे में भी जानना चाहता है। अन्वेषण की जिज्ञासा बढ़ती जा रही है। भौतिकवादी प्रगति एवं विकास का पथ प्रशस्त हो रहा है। भौतिकवादी प्रगति एवं विकास के बावजूद मनुष्य संतुष्ट नहीं है। वह मकान तो आलीशान बना पा रहा है मगर घर नहीं बसा पा रहा है। परिवार के सदस्यों के बीच प्यार एवं विश्वास की कमी होती जा रही है। व्यक्ति की चेतना क्षणिक, संशयपूर्ण एवं तात्कालिकता में केन्द्रित होती जा रही है। सम्पूर्ण भौतिक सुखों को अकेला ही भोगने की दिशा में व्यग्र मनुष्य अन्ततः अतृप्ति का अनुभव कर रहा है।
आज के संत्रस्त मनुष्य को आशा एवं विश्वास की आलोकशिखा थमानी है। आज के संत्रस्त मनुष्य को जीवन मूल्यों पर विश्वास करना सिखाना है। समस्या यह है कि व्यक्ति परम्परागत मूल्यों पर विश्वास नहीं कर पा रहा है। उसके लिए वे अविश्वसनीय एवं अप्रासंगिक हो गये हैं। नये युग को नये जीवन-मूल्य चाहिए। परिवर्तन सृष्टि का नियम है । संसार को अब ऐसे धर्म-दर्शन की आवश्यकता है जो व्यक्ति को सुख प्रदान कर सके ; उसे शान्ति दे सके; उसकी मनोवैज्ञानिक, सामाजिक एवं राजनैतिक समस्याओं का समाधान कर सके।
वैज्ञानिक विकास के कारण हमने जिस शक्ति का संग्रह किया है, उसका उपयोग किस प्रकार हो; प्राप्त गति एवं ऊर्जा का नियोजन किस प्रकार हो - यह आज के युग की जटिल समस्या है। विज्ञान ने हमें शक्ति, गति एवं ऊर्जा प्रदान की है। लक्ष्य हमें धर्म एवं दर्शन से प्राप्त करने हैं।
धर्म ही ऐसा तत्व है जो मानव मन की असीम कामनाओं को सीमित करने की क्षमता रखता है। धर्म मानवीय दृष्टि को व्यापक बनाता है। धर्म मानव मन में उदारता, सहिष्णुता एवं प्रेम की भावना का विकास करता है। समाज की व्यवस्था, शांति तथा समाज के सदस्यों में परस्पर प्रेम, सद्भाव एवं विश्वासपूर्ण व्यवहार के लिए धर्म का आचरण एक अनिवार्य शर्त है। इसका कारण यह है कि मन की कामनाओं को नियंत्रित किये बिना समाज रचना संभव नहीं है। जिंदगी में संयम की लगाम आवश्यक है। कामनाओं को नियंत्रित करने की शक्ति या तो धर्म में है या शासन की कठोर व्यवस्था में। धर्म का अनुशासन ‘आत्मानुशासन' है। शासन का अनुशासन हम पर ‘पर का नियंत्रण' है।
धर्म संप्रदाय नहीं है। जिंदगी में हमें जो धारण करना चाहिए, वही धर्म है। नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म वह तत्व है जिसके आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। यह मनुष्य में मानवीय गुणों के विकास की प्रभावना है।
मध्ययुग में विकसित धर्म एवं दर्शन के परम्परागत स्वरूप एवं धारणाओं के प्रति आज के व्यक्ति की आस्था कम हो गई है। मध्ययुगीन धर्म एवं दर्शन के प्रमुख प्रतिमान थे - स्वर्ग की कल्पना, सृष्टि एवं जीवों के कर्ता रूप में ईश्वर की कल्पना, वर्तमान जीवन की निरर्थकता का बोध, अपने देश एवं काल की माया एवं प्रपंचों से परिपूर्ण अवधारणा। मध्ययुगीन चेतना के केन्द्र में ईश्वर का कर्तृत्व रूप प्रतिष्ठित था। अपने श्रेष्ठ आचरण, श्रम एवं पुरुषार्थ द्वारा अपने वर्तमान जीवन की समस्याओं का समाधान करने की ओर ध्यान कम था, अपने आराध्य की स्तुति एवं जयगान करने में ध्यान अधिक था। धर्म की आड़ में अपने स्वार्थों की सिद्धि करने वाले धर्म के दलालों ने अध्यात्म-सत्य को अंधी आस्तिकता के आवरण से ढकने का प्रयास किया। इनकी चिन्ता का केन्द्र मनुष्य की वर्तमान समस्याओं का समाधान नहीं था। इन्होंने मनुष्य को स्वर्ग अथवा बहिश्त में पहुँचकर मौजमस्ती की जिंदगी बिताने की राह दिखाई और उपदेश दिया कि हमारे माध्यम से आराध्य के प्रति तन-मन-धन से समर्पण करो - पूर्ण आस्था, पूर्ण विश्वास, पूर्ण निष्ठा के साथ आराध्य की भक्ति करो। तर्क एवं विवेक को साधना पथ का सबसे बड़ा अवरोधक तत्व मान लिया गया।
धर्म के व्याख्याताओं ने संसार के प्रत्येक क्रिया-कलाप को ईश्वर की इच्छा माना तथा मनुष्य को ईश्वर के हाथों की कठपुतली के रूप में स्वीकार किया। दार्शनिकों ने व्यक्ति के वर्तमान जीवन की विपन्नता का हेतु ‘कर्म-सिद्धान्त' के सूत्र में प्रतिपादित किया। इसकी परिणति मध्ययुग में यह हुई कि वर्तमान की सारी मुसीबतों का कारण ‘भाग्य' अथवा ईश्वर की मर्जी को मान लिया गया। धर्म के ठेकेदारों ने पुरुषार्थवादी-मार्ग के मुख्य-द्वार पर ताला लगा दिया। समाज या देश की विपन्नता को उसकी नियति मान लिया गया। समाज भाग्यवादी बनकर अपनी सुख-दुःखात्मक स्थितियों से सन्तोष करता रहा।
आज के युग ने यह चेतना प्रदान की है कि विकास का रास्ता हमें स्वयं बनाना है। किसी समाज या देश की समस्याओं का समाधान कर्म-कौशल, व्यवस्था-परिवर्तन, वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास, परिश्रम तथा निष्ठा से सम्भव है। इस कारण व्यक्ति, समाज तथा देश अपनी समस्याओं के समाधान करने के लिए तत्पर हैं, जिन्दगी को बेहतर बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति एवं विकास की ललक बढ़ रही है।
वर्तमान जिन्दगी को सुधारने तथा सँवारने की अपेक्षा, पहले के व्यक्ति को ‘परलोक' की चिन्ता अधिक रहती थी। उसका ध्यान ‘स्वर्ग' या ‘बहिश्त' में पहुँचकर सुख एवं मौज-मस्ती प्राप्त करने की तरफ अधिक रहता था। भौतिक इच्छाओं की सहज एवं पूर्ण तृप्ति की कल्पना ‘स्वर्ग' या ‘बहिश्त' की परिकल्पना का आधार बनी। आज के मनुष्य की रुचि अपने वर्तमान जीवन को संवारने में अधिक है। उसका ध्यान ‘भविष्योन्मुखी' न होकर वर्तमान में है। वह दिव्यताओं को अपनी ही धरती पर उतार लाने के प्रयास में लगा हुआ है। वह पृथ्वी को ही स्वर्ग बना देने के लिए बेताब है।
विज्ञान ने दुनिया को समझने और जानने का वैज्ञानिक मार्ग प्रतिपादित किया है। विज्ञान ने स्पष्ट किया है कि यह विश्व किसी की इच्छा का परिणाम नहीं है। सभी पदार्थ कारण-कार्य भाव से बद्ध हैं। भौतिक विज्ञान ने सिद्ध किया है कि किसी पदार्थ का कभी विनाश नहीं होता, उसका केवल रूपांतर होता है। विज्ञान ने शक्ति के संरक्षण के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। पदार्थ के अविनाशिता के सिद्धान्त की पुष्टि की है। समकालीन अस्तित्ववादी दर्शन ने भी ईश्वर का निषेध किया है। आधुनिकता का मूल प्रस्थान-बिन्दु यह विचार है कि ईश्वर मनुष्य का स्रष्टा नहीं है अपितु मनुष्य ही ईश्वर का स्रष्टा है।
मध्ययुगीन चेतना के केन्द्र में ईश्वर प्रतिष्ठित था। आज की चेतना के केन्द्र में मनुष्य प्रतिष्ठित है। मनुष्य ही सारे मूल्यों का स्रोत है। वही सारे मूल्यों का उपादान है।
विज्ञान द्वारा प्रतिपादित अवधारणाओं में, साम्यवादी दर्शन में तथा अस्तित्ववादी दर्शन में कुछ विचार-प्रत्यय समान हैं - तीनों ने ईश्वर का निषेध किया है तथा ईश्वर के स्थान पर मनुष्य की स्थापना की है। तीनों भाग्यवादी नहीं हैं, कर्मवादी तथा पुरुषार्थवादी हैं। तीनों में मनुष्य की जिन्दगी को सुखी बनाने का संकल्प है। अस्तित्ववादी दर्शन ने वैयक्तिक स्वतन्त्रता की चेतना प्रदान की है। साम्यवादी दर्शन ने सामाजिक समता पर बल दिया है। विज्ञान, मार्क्सवाद, अर्स्तित्ववादी-दर्शन तीनों की सीमाएँ भी हैं।
विज्ञान बुद्धि एवं तर्क मात्र के आश्रित है। मानवीयता एवं सामाजिकता केवल तर्क एवं बुद्धि से संगठित नहीं होते। उनके संगठन में तर्क एवं बुद्धि के अतिरिक्त कल्पना, मनोभाव एवं संवेगों की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जीवन में केवल बुद्धिजगत के ही नहीं अपितु भावजगत के तत्व भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं।
मार्क्सवाद वर्ग संघर्ष पर आधारित है। साम्यवादी विचारधारा मनुष्य की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में अत्यन्त निर्मम तथा कठोर है। वर्ग संघर्ष एवं द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी चिन्तन के कारण वह समाज को बांटती है। गतिशील पदार्थों की विरोधी शक्तियों के संघर्ष या द्वन्द्व को जीवन की भौतिकवादी व्यवस्था के मूल में मानने के कारण सतत संघर्ष की भूमिका प्रदान करती है। मानव जाति को परस्पर अनुराग एवं एकत्व की आधारभूमि प्रदान नहीं करती। मार्क्सवाद हिंसात्मक क्रांति में विश्वास करता है। जिस देश में हिंसात्मक क्रांति होती है ; वह प्रतिक्रिया में मानसिक उत्पीड़न को जन्म देती है। हिंसा के माध्यम से सत्ता पर कब्जा करने के बाद शासनाध्यक्ष के कोष में आत्म-स्वातंत्र्य शब्द की सत्ता समाप्त हो जाती है। सभी प्रकार की स्वतन्त्रता का दमन किया जाता है। पूर्वी यूरोप के समाजवादी गण राज्यों में जनता को समेटकर मजदूर वर्ग, फिर मजदूर वर्ग को कम्युनिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी को कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति का पोलित ब्यूरो, फिर कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्र समिति के पोलित ब्यूरो को कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति का सचिव मंडल तथा इस सचिव मण्डल को व्यक्ति विशेष की तानाशाही में केन्द्रित कर दिया गया था जिसके विरुद्ध जन-क्रान्तियां हुईं ।
अस्तित्ववादी दर्शन यह मानता है कि मनुष्य का स्रष्टा ईश्वर नहीं है और इसीलिए मानव-स्वभाव, उसका विकास, उसका भविष्य भी निश्चित एवं पूर्व मीमांसित नहीं है। मनुष्य वह है जो अपने आपको बनाता है। मानव को महत्व देते हुए भी अस्तित्ववादी-दर्शन समाज के धरातल पर अत्यन्त अव्यवहारिक है। वह यह मानता है कि चेतनाओं के पारस्परिक सम्बन्धों की आधार भूमि सामंजस्य नहीं अपितु विरोध है। व्यक्तियों के अस्तित्व वृत्तों के मध्य संघर्ष, भय, घृणा आदि भाव हैं। इस प्रकार अस्तित्ववादी दर्शन व्यक्ति और व्यक्ति के मध्य संघर्ष एवं अविश्वास की भूमिका मानता है।
आज के धार्मिक एवं दार्शनिक मनीषियों को वह मार्ग खोजना है जिससे मानव अपनी बहिर्मुखता के साथ-साथ अन्तर्मुखता का भी विकास कर सके। पारलौकिक चिन्तन व्यक्ति के आत्म विकास में चाहे कितना भी सहायक हो किन्तु उससे सामाजिक सम्बन्धों की सम्बद्धता, समरसता एवं सामाजिक समस्याओं के समाधान में अधिक सहायता नहीं मिलती है। आज के भौतिकवादी युग में केवल वैराग्य से काम चलने वाला नहीं है। भौतिकवाद का अतिरेक भी मनुष्य को संतुष्ट नहीं कर पा रहा है। आज हमें मानव की भौतिकवादी एवं आध्यात्मिक दृष्टियों में संतुलन स्थापित करना होगा, भौतिक इच्छाओं का दमन नहीं, उनका संयमन करना होगा; स्वार्थ की कामनाओं में परार्थ का रंग मिलाना होगा। आज मानव को जहाँ एक ओर इस प्रकार का दर्शन शांति नहीं दे सकता कि केवल ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है वहीं दूसरी ओर केवल भौतिक तत्वों की ही सत्ता को सत्य मानने वाला दृष्टिकोण भी जीवन के उन्न्यन में सहायक नहीं हो सकता ।
व्यक्ति धर्म को छोड़ना नहीं चाहता। मगर परम्परागत धर्म उसके विज्ञानसम्मत विवेक को संतुष्ट नहीं कर पा रहा है। पाश्चात्य समाज ऐसे किसी धर्म की कल्पना नहीं कर पा रहा है जिसका स्वरूप ईश्वर के कर्तृत्व के बिना विवेचित किया जा सके। परम्परागत धर्म की इस मान्यता को छोड़ना होगा कि यह संसार ईश्वर की इच्छा की परिणति है। हमें विज्ञान की इस दृष्टि को स्वीकार करना होगा कि सृष्टि रचना के व्यापार में ईश्वर के कर्तृत्व की भूमिका नहीं है। सृष्टि रचना व्यापार में प्रकृति के नियमों को स्वीकार करना होगा।
आज हमें धर्म के केन्द्र में मनुष्य को प्रतिष्ठित कर उसके पुरुषार्थ एवं विवेक को जाग्रत करना है, उसके मन में सृष्टि के समस्त जीवों के प्रति अपनत्व भाव जगाना है। मनुष्य और मनुष्य के बीच आत्मतुल्यता की ज्योति जगानी है जिससे परस्पर समझदारी, प्रेम तथा विश्वास उत्पन्न हो सके। आज के मनुष्य को वही धर्म-दर्शन प्रेरणा दे सकता है तथा मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, राजनैतिक समस्याओं के समाधान में प्रेरक हो सकता है जिसके निम्न प्रतिमान हों :-
वैज्ञानिक अवधारणाओं का परिपूरक हो। लोकतंत्र के आधारभूत जीवन मूल्यों का पोषक हो। सर्वधर्म समभाव का पर्याय हो। अन्योन्याश्रित विश्व व्यवस्था एवं सार्वभौमिक दृष्टि का प्रदाता हो। विश्व शान्ति एवं अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना का प्रेरक हो ।
धर्म-दर्शन एवं विज्ञान
विज्ञान एवं अध्यात्म की सीमाएं पृथक हैं, मगर दोनों की मूलभूत अवधारणाओं में सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है। यदि दोनो अपने-अपने आग्रह छोड़ दें तो दोनों के बीच सामरस्य के सूत्र स्थापित किये जा सकते हैं।
अध्यात्म एवं विज्ञान के बीच सामरस्य का मार्ग स्थापित करने के लिए परम्परागत धर्म की इस मान्यता को छोड़ना पड़ेगा कि यह संसार ईश्वर की इच्छा की परिणति है वहीं दूसरी ओर विज्ञान को भी अपनी भौतिकवादी सीमाओं का अतिक्रमण करना होगा। विज्ञान विशुद्ध रूप से भौतिकवादी रहा है। विश्व के मूल में पदार्थ एवं शक्ति को ही अधिष्ठित देखता आया है। विज्ञान को अपार्थिव चिन्मय सत्ता का भी संस्पर्श करना होगा। भविष्य के विज्ञान को अपना यह आग्रह भी छोड़ना होगा कि जड़ पदार्थ से चेतना का आविर्भाव होता है। पदार्थ के रूपांतर से स्मृति एवं बुद्धि के गुणों को उत्पन्न किया जा सकता है मगर चेतना उत्पन्न नहीं की जा सकती। चेतना का अध्ययन अध्यात्म का विषय है।
़ ‘जानना' चेतना का व्यवच्देदक गुण है। जीव चेतन है। अजीव अचेतन है। जीव का स्वभाव चैतन्य है। अजीव का स्वभाव जड़त्व अथवा अचैतन्य है। जो जानता है वह जीवात्मा है। जो नहीं जानता वह अनात्मा है। जीव आत्मा सहित है। अजीव में आत्मा नहीं है। जीव सुख दुख की अनुभूति करता है। अजीव को सुख दुख की अनुभूति नहीं होती। जो जानता है, वह चेतना है; जो नहीं जानता, वह अचेतना है। स्मृति एवं बुद्धि तथा मस्तिष्क के समस्त व्यापार ‘चेतना' नहीं हैं। पदार्थ के रूपांतर से स्मृति एवं बुद्धि के गुणों को उत्पन्न किया जा सकता है मगर चेतना उत्पन्न नहीं की जा सकती।
एक दृष्टि ने माना कि परम चैतन्य से ही जड़ जगत की सृष्टि होती है। दूसरी दृष्टि मानती है कि भौतिक द्रव्य की ही सत्ता है। भौतिक पदार्थ के अतिरिक्त अन्य किसी की सत्ता नहीं है। बुद्धि एवं मन की भॉँति चेतना भी ‘स्नायुजाल की बद्धता' अथवा ‘विभिन्न तंत्रिकाओं का तंत्र' है जो अन्ततः अणुओं एवं आणविक क्रियाशीलता का परिणाम है। भविष्योन्मुखी दृष्टि है कि दोनों की भिन्न सत्ता है। जिस वस्तु का जैसा उपादान कारण होता है, वह उसी रूप में परिणत होता है। चेतन के उपादान अचेतन में नहीं बदल सकते। अचेतन के उपादान चेतन में नहीं बदल सकते। न कभी ऐसा हुआ है, न हो रहा है और न होगा कि जीव अजीव बन जाए तथा अजीव जीव बन जाए। आत्मा अमूर्त तत्व है। इन्द्रियों का वह विषय नहीं है। इन्द्रियाँ उसे जान नहीं पातीं। इससे इन्द्रियों की सीमा सिद्ध होती है। इससे आत्मा का अस्तित्व नहीं है - यह सिद्ध नहीं होता। जड़ पदार्थ का रूपान्तरण ऊर्जा (प्राण), स्मृति, कृत्रिम प्रज्ञा एवं बुद्धि में सम्भव है किन्तु इनमें चैतन्य नहीं होता। कम्प्यूटर चेतनायुक्त नहीं है। कम्प्यूटर को यह चेतना नहीं होती कि वह है, वह कार्य कर रहा है। कम्प्यूटर मनुष्य की चेतना से प्रेरित होकर कार्य करता है। उसे सुख दुख की अनुभूति नहीं होती। उसे स्व-संवेदन नहीं होता। ‘मैं हूँ,' ‘मैं सुखी हूँ', ‘मैं दुखी हूँ' - शरीर को इस प्रकार के अनुभवों की प्रतीति नहीं होती। इस प्रकार के अनुभवों की जिसे प्रतीति होती है, वह शरीर से भिन्न है। आत्मा में चैतन्य नामक विशेष गुण है। आत्मा में जानने की शक्ति है। आत्मा के द्वारा जीव को अपने अस्तित्व का बोध होता है। ज्ञान का मूल स्रोत आत्मा ही है।
विज्ञान एवं अध्यात्म के बीच सामरस्य का मार्ग स्थापित करने में मनोविज्ञान का अध्ययन भी सहायक हो सकता है । मनोविज्ञान में ‘संज्ञानात्मक मनोविज्ञान' पर कार्य हो रहा है। पहले मनोविज्ञान उत्तेजन-प्रतिक्रिया व्यवहार के आधार पर ही मानवीय व्यवहार का अध्ययन करता था। आज का मनोविज्ञान उद्दीपनों और प्रतिक्रियाओं के आधार पर मानवीय व्यवहार का अध्ययन करने तक सीमित नहीं है। अब मनोविज्ञान मानवीय व्यवहार को समझने के लिए प्रत्यक्षण, स्मृति, कल्पना, तर्क, निर्णय, अनुभव बोध आदि का भी उपयोग कर रहा है। संज्ञानात्मक मनोविज्ञान के अध्ययन का आधार संज्ञान है। संवेदन एवं संज्ञान में अन्तर है। संवेदन के द्वारा प्राणी को उत्तेजना का आभास होता है। संज्ञान शक्ति के द्वारा मनुष्य संवेदनों को नाम, रूप, गुण आदि भेदों से संगठित कर, ज्ञान प्राप्त करता है। मनोविज्ञान को गहन समाधि एवं स्वभावोन्मुख गहन ध्यान में लीन साधक की शान्त, निर्विकल्प, विचार शून्य एवं क्रियाहीन स्थिति के अन्तर्निरीक्षण की विधि एवं पद्धति का संधान करना होगा।
विज्ञान को इस आधारणा का अतिक्रमण करना होगा कि भौतिक विज्ञान के नियमों से सम्पूर्ण वास्तविकता की व्याख्या सम्भव है। इस दिशा में सन् 1936 में गोदेल (Godel) द्वारा प्रतिपादित प्रमेय का महत्व है। उन्होंने सिद्ध किया कि गणित की बहुत सी वास्तविकताओं को सिद्ध नहीं किया जा सकता। गणित की यह अपूर्णता अज्ञान के कारण नहीं है। इसका कारण गणित की आधारभूत संरचना है ।
“ ------ the celebrated theorem of Godel (1936 ), proven in a most rigorous manner, states that there are many truths in mathematics which can never be proved. It shows that the incompleteness in mathematics is not due to ignorance but due to its very basic structure."( Raja Ramanna : Physical space in the context of all knowledge (Indian horizons, Vol. XXXVI, Nos. 1-2, pp. 1-6, Indian Council for Cultural Relations, New Delhi, 1987).
पहले भौतिक-विज्ञानी मानते थे कि भौतिकी व्याख्या में तरंग एवं सूक्ष्म अंश परस्पर विपरीत छोर हैं। परमाणु के आविष्कार के बाद भौतिक-विज्ञान का उक्त सिद्धान्त अमान्य हो गया है। अब सर्वमान्य है कि परमाणु क्रिया की व्याख्या के लिए दोनों की साथ-साथ व्याख्या करना आवश्यक है। परमाणु के सम्बन्ध में यह भी ध्यान देने योग्य है कि परमाणु के अंशों को गणित की दृष्टि से विश्लेषित किया जा सकता है। परमाणु के अंशों की किसी भी विधि से झलक पाना सम्भव नहीं है। ऊर्जाणु का सूक्ष्म-अंश युगपत एकाधिक स्थानों पर हो सकता है अथवा एकाधिक मार्गों पर गमन कर सकता है। जब भौतिक जगत के ऊर्जाणु के स्वरूप की आधारभूत यथार्थता का प्रत्यक्षण इतना दुष्कर एवं जटिल है तब समस्त आभासों का अतिक्रमण करने वाले आत्म तत्व का किसी यंत्र से प्रत्यक्षण किस प्रकार सम्भव है। जिससे सबको जाना जाता है उसको बाह्य-विधि से कैसे जाना सकता है। विज्ञान में ऊर्जाणु भौतिकी (Quantum Physics) के क्षेत्र में नए अनुसंधान कार्य हो रहे हैं। इनसे भविष्य में आत्मा अथवा चेतना के स्वतंत्र अस्तित्व का प्रमाण सिद्ध होना सम्भव है। विज्ञान में ऊर्जा भौतिकी आदि क्षेत्रों में जो नव्यतम अनुसंधान हुए हैं, उनके आलोक में विज्ञान इस सिद्धान्त की पुष्टि की ओर कदम बढ़ा रहा है कि प्रत्येक प्राणी की चेतना को प्रकट करने के लिए जैविक चेतना संहिति (biological nervous system) तो केवल भौतिक ढाँचा जुटाता है।
धर्म-दर्शन एवं लोकतन्त्र
प्रजातंत्रात्मक शासन व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार प्राप्त होते हैं। दर्शन के धरातल पर भी हमें प्रत्येक प्राणी की समता का उद्घोष करना होगा। प्रजातंत्रात्मक जीवन पद्धति के स्वतंत्रता एवं समानता दो बहुत बड़े मूल्य हैं। राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था एवं प्रजातंत्रात्मक शासन व्यवस्था में मूलभूत अन्तर हैं। जाति-पाँति, ऊँच-नीच की भेदभावना एवं आर्थिक विषमता में मध्ययुगीन राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था का भी योगदान रहा है। उस युग में किसी देश की राजधानी में सबसे अधिक वैभवपूर्ण स्मारक या तो राजा का महल होता था या देवता का मन्दिर। राजागण अपने को भगवान समझते थे। राजा के दरबार में उसके प्रशंसक होते थे।
राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था में राजा ही सर्वोच्च एवं सर्वशक्तिमान होता है। उसके दरबार में दरबारदारियों की विनम्रता चरम सीमा पर होती है। राजा की कृपा पर ही उनका अस्तित्व निर्भर रहता है। मध्य युग में धर्म के क्षेत्र में भक्ति का विकास हुआ। भक्ति का मूल है - आराध्य की सेवा, शरणागति एवं आराधना। भक्ति में भक्त भगवान का अनुग्रह प्राप्त करना चाहता है। बिना भगवान के अनुग्रह के उसका कल्याण सम्भव नहीं है। राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था एवं मध्ययुगीन भक्ति का स्वरूप समानान्तर विकसित हुआ। राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था में समाज में प्रत्येक मनुष्य को समान अधिकार प्राप्त नहीं होते। उस व्यवस्था में राजा के अनुग्रह एवं इच्छानुसार समाज की व्यवस्था परिचालित होती है। भक्ति में साधक अपनी साधना के बल पर मुक्ति का अधिकार प्राप्त नहीं कर पाता, उसके लिए भगवत कृपा होनी जरूरी है। इन्हीं शासन व्यवस्था एवं धार्मिक चिन्तन के कारण सामाजिक धरातल पर विभेदकारी स्थितियों का निर्माण हुआ।
प्रजातंत्रात्मक शासन व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को राजनैतिक दृष्टि से समान
संवैधानिक अधिकार प्राप्त होते हैं। स्वतंत्रता, समानता एवं बन्धुत्व लोकतंत्र के आधारभूत जीवन मूल्य हैं। दर्शन के धरातल पर भी हमें प्रत्येक प्राणी में आत्म शक्ति के अस्तित्व का उद्घोष करना होगा । दर्शन एवं धर्म का प्रतिपादन सामाजिक समता एवं एकता की दृष्टि से करना होगा । वर्णों, वादों, सम्प्रदायों आदि का लेबिल चिपकाकर मानव-मानव को बांटने वाले दर्शन को तिलांजलि देनी होगी। मानवीय महिमा का जोरदार समर्थन करना होगा। आत्मा की स्वतंत्रता की प्रजातंत्रात्मक उद्घोषणा करनी होगी। उद्घोष करना होगा कि अस्तित्व की दृष्टि से प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है एवं स्वरूप की दृष्टि से सभी आत्मायें समान हैं। संसार में अनन्त प्राणी हैं और उनमें से प्रत्येक में जीवात्मा विद्यमान है। कर्म बंध के फलस्वरूप ये जीवात्मायें जीवन की नाना दशाओं, नाना योनियों, नाना प्रकार के शरीरों एवं अवस्थाओं में परिलक्षित होती हैं किन्तु सभी में उच्चतम विकास की समान शक्तियां निहित हैं। प्रत्येक प्राणी आत्म तुल्य है । प्रत्येक प्राणी को आत्म तुल्य मानने से परस्पर सौहार्द एवं बन्धुत्व की भावना सहज रूप से उत्पन्न होती है।
प्रजातंत्र में विभिन्न दल होते हैं। जनता अपने प्रतिनिधि के रूप में अपने विधायकों का चुनाव करती है। प्रजातंत्रात्मक शासन-व्यवस्था की सफलता के लिए विधायकों की मानसिकता में बदलाव आना जरूरी है। उन्हें यह समझना होगा कि वे जनता के प्रतिनिधि हैं। उन्हें जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप अपने आचरण को ढालना होगा। सभी दलों का लक्ष्य समाज की प्रगति एवं विश्वास होना चाहिए। उन्हें किसी विषय पर विविध दृष्टियों से विचार करने के अनन्तर मानवीय हित की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ निर्णय तक पहुँचने का प्रयास करना चाहिए। इस दृष्टि से लोकतंत्र केवल शासन व्यवस्था नहीं है, एक सम्पूर्ण जीवन दर्शन है जिसके आधारभूत मूल्य स्वतंत्रता, समानता, बन्धुत्व एवं अनेकान्त हैं। इन सभी मूल्यों के आचरण के लिए अहिंसा मूलक धर्म-दर्शन की स्थापना आवश्यक है।
सर्व धर्म समभाव
धर्म की प्रासंगिकता एक व्यक्ति की मुक्ति में ही नहीं है। धर्म की प्रासंगिकता एवं प्रयोजनशीलता शान्ति, व्यवस्था, स्वतंत्रता, समता, प्रगति एवं विकास से सम्बन्धित समाज सापेक्ष परिस्थितियों के निर्माण में भी निहित है।
धर्म का सम्बन्ध आचरण से है। धर्म आचरणमूलक है। दर्शन एवं धर्म में अन्तर है। दर्शन मार्ग दिखाता है, धर्म की प्रेरणा से हम उस मार्ग पर बढ़ते हैं। हम किस प्रकार का आचरण करें - यह ज्ञान दर्शन से प्राप्त होता है। जिस समाज में दर्शन एवं धर्म में सामंजस्य रहता है, ज्ञान एवं क्रिया में अनुरूपता होती है, उस समाज में शान्ति होती है तथा सदस्यों में परस्पर मैत्री-भाव रहता है।
भारतवर्ष में दर्शन और चिन्तन के धरातल पर जितनी विशालता, व्यापकता एवं मानवीयता रही है, उतनी आचरण के धरातल पर नहीं रही। जब चिन्तन एवं व्यवहार में विरोध उत्पन्न हो गया तो भारतीय समाज की प्रगति एवं विकास की धारा भी अवरुद्ध हो गयी।
दर्शन के धरातल पर उपनिषद् के चिन्तकों ने प्रतिपादित किया कि यह जितना भी स्थावर जंगम संसार है, वह सब एक ही परब्रह्म के द्वारा आच्छादित है। उन्होंने संसार के सभी प्राणियों को ‘आत्मवत्' मानने एवं जानने का उद्घोष किया, मगर सामाजिक धरातल पर समाज के सदस्यों को उनके गुणों के आधार पर नहीं अपितु जन्म के आधार पर जातियों, उपजातियों, वर्णों, उपवर्णों में बाँट दिया तथा इनके बीच ऊँच-नीच की दीवारें खड़ी कर दीं।
धर्म साधना की अपेक्षा रखता है। धर्म के साधक को राग-द्वेषरहित होना होता है। धार्मिक चित्त प्राणिमात्र की पीड़ा से द्रवित होता है। तुलसीदास ने कहा- ‘परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई'। सत्य के साधक को बाहरी प्रलोभन अभिभूत करने का प्रयास करते हैं। मगर वह एकाग्रचित्त से संयम में रहता है। प्रत्येक धर्म के ऋषि, मुनि, पैगम्बर, संत, महात्मा आदि तपस्वियों ने धर्म को अपनी जिन्दगी में उतारा। उन लोगों ने धर्म को ओढ़ा नहीं अपितु जिया। साधना, तप, त्याग आदि दुष्कर हैं। ये भोग से नहीं, संयम से सधते हैं। धर्म के वास्तविक स्वरूप को आचरण में उतारना सरल कार्य नहीं है। महापुरुष ही सच्ची धर्म-साधना कर पाते हैं। इन महापुरुषों के अनुयायी जब अपने आराध्य-साधकों जैसा जीवन नहीं जी पाते तो उनके नाम पर सम्प्रदाय, पंथ आदि संगठनों का निर्माण कर, भक्तों के बीच आराध्य की जय-जयकार करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। अनुयायी साधक नहीं रह जाते, उपदेशक हो जाते हैं। ये धार्मिक व्यक्ति नहीं होते, धर्म के व्याख्याता होते हैं। इनका उद्देश्य धर्म के अनुसार अपना चरित्र निर्मित करना नहीं होता, धर्म का आख्यान मात्र करना होता है। जब इनमें स्वार्थ-लिप्सा का उद्रेक होता है तो ये धर्म-तत्त्वों की व्याख्या अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए करने लगते हैं। धर्म की आड़ में अपने स्वार्थों की सिद्धि करने वाले धर्म के दलाल अथवा ठेकेदार अध्यात्म सत्य को भौतिकवादी आवरण से ढकने का बार-बार प्रयास करते हैं। इन्हीं के कारण चित्त की आन्तरिक शुचिता का स्थान बाह्य आचार ले लेते हैं। पाखंड बढ़ने लगता है। कदाचार का पोषण होने लगता है। जब धर्म का यथार्थ अमृत तत्त्व सोने के पात्र में कैद हो जाता है तब शताब्दी में एकाध साधक ऐसे भी होते हैं जो धर्म-क्रान्ति करते हैं, धर्म के क्षेत्र में व्याप्त अधार्मिकता एवं साम्प्रदायिकता पर प्रहार कर, उसके यथार्थ स्वरूप का उद्घाटन करते हैं।
मध्य युग में धर्म के बाह्य आचारों एवं आडम्बरों को सन्त कवियों ने उजागर किया। सन्त नामदेव ने ‘पाखण्ड भगति राम नही रीझें' कहकर धर्म के तात्त्विक स्वरूप की ओर ध्यान आकृष्ट किया तो कबीर ने ‘जो घर फूँके आपना, चले हमारे साथ' कहकर साधना-पथ पर द्विधारहित एवं संशयहीन मनःस्थिति से कामनाओं एवं परिग्रहों को त्याग कर आगे बढ़ने का आह्वान किया। पंडित लोग पढ़-पढ़कर वेदों का बखान करते हैं, किन्तु इसकी सार्थकता क्या है ? जीवन की चरितार्थता आत्म-साधना में है और ऐसी ही साधना के बल पर दादूदयाल यह कहने में समर्थ हो सके कि ‘काया अन्तर पाइया, सब देवन को देव'।
दर्शन के धरातल पर हमें प्रतिपादित करना होगा कि धर्म न कहीं गाँव में होता है और न कहीं जंगल में बल्कि वह तो अन्तरात्मा में होता है। अन्तरात्मा के दर्शन एवं परिष्कार से कल्याण सम्भव है। शास्त्रों के पढ़ने मात्र से उद्धार सम्भव नहीं है। यदि चित्त में राग एवं द्वेष है तो समस्त शास्त्रों में निष्णात होते हुए भी व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता। क्या किसी ‘परम सत्ता' एवं हमारे बीच किसी ‘तीसरे' का होना जरूरी है ? क्या लौकिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए ईश्वर के सामने शरणागत होना ही अध्यात्म साधना है ? क्या धर्म-साधना की फल-परिणति सांसरिक इच्छाओं की पूर्ति में निहित है ? सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के उद्देश्य से आराध्य की भक्ति करना धर्म है अथवा सांसारिक इच्छाओं के संयमन के लिए साधना-मार्ग पर आगे बढ़ना धर्म है ? क्या स्नान करना, तिलक लगाना, माला फेरना आदि बाह्य आचार की प्रक्रियाओं को धर्म-साधना का प्राण माना जा सकता है ? धर्म की सार्थकता वस्तुओं एवं पदार्थों के संग्रह में है अथवा राग-द्वेष रहित होने में है ? धर्म का रहस्य संग्रह, भोग, परिग्रह, ममत्व, अहंकार आदि के पोषण में है अथवा अहिंसा, संयम, तप, त्याग आदि के आचरण में ? आत्मस्वरूप का साक्षात्कार अहंकार एवं ममत्व के विस्तार से सम्भव नहीं है। अपने को पहचानने के लिए अन्दर झाँकना होता है, अन्तश्चेतना की गहराइयों में उतरना होता है। धार्मिक व्यक्ति कभी स्वार्थी नहीं हो सकता। आत्म-गवेषक अपनी आत्मा से जब साक्षात्कार करता है तो वह ‘एक' को जानकर ‘सब' को जान लेता है, पहचान लेता है, सबसे अपनत्व-भाव स्थापित कर लेता है। आत्मानुसंधान की यात्रा में व्यक्ति एकाकी नहीं रह जाता, उसके लिए सृष्टि का प्रत्येक प्राणी आत्मतुल्य हो जाता है। एक की पहचान सबकी पहचान हो जाती है तथा सबकी पहचान से वह अपने को पहचान लेता है। भाषा के धरातल पर इसमें विरोधाभास हो सकता है, अध्यात्म के धरातल पर इसमें परिपूरकता है। जब व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार के लिए प्रत्येक पर-पदार्थ के प्रति अपने ममत्व एवं अपनी आसक्ति का त्याग करता है तब वह राग-द्वेषरहित हो जाता है, वह आत्मचेतना से जुड़ जाता है, शेष सबके प्रति उसमें न राग रहता है न द्वेष। इसी प्रकार जब साधक सृष्टि के प्रत्येक प्राणी को आत्मतुल्य समझता है तब भी उसका न किसी से राग रह जाता है और न किसी से द्वेष। धर्म का अभिप्राय व्यक्ति के चित्त का शुद्धिकरण है जहाँ पिण्ड में ही ब्रह्माण्ड' है। समस्त प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव, प्रेमभाव तथा समभाव होना ही धर्म है और इस दृष्टि से ‘सर्वधर्म समभाव' में से यदि विशेषणों को हटा दें तो शेष रह जाता है : ‘धर्म-भाव'। सम्प्रदाय में भेद दृष्टि है, धर्म में अभेद-दृष्टि। हमारी कामना है कि विश्व में इसी अभेद-दृष्टि का विकास हो। धर्म से पहले जुड़ने वाला कोई भी ‘विशेषण' किसी भी स्थिति में कभी भी अपने ‘विशेष्य' से अधिक महत्वपूर्ण न बने।
प्रत्येक धर्म में व्यक्ति के राग-द्वेष के कारणों को दूर करने का विधान स्पष्ट है। क्रोध से द्वेष का तथा अहंकार, माया एवं लोभ से राग का परिपाक होता है। व्यक्ति क्षमा द्वारा क्रोध को, मार्दव या विनम्रता द्वारा अहंकार को, आर्जव या निष्कपटता द्वारा माया या तृष्णा को तथा शुचिता द्वारा लोभ को जीतता है। तदनन्तर व्यक्ति सत्य का प्रकाश प्राप्त कर पाता है। संयम के द्वारा व्यक्ति इन्द्रियों की विषय-उन्मुखता पर प्रतिबन्ध लगाता है या उन्हें नियंत्रित करता है। तप रूपी अग्नि में कषाय, वासनाएँ, कल्मषताएँ जल जाती हैं। इसके बाद व्यक्ति संचित पदार्थों का त्याग करता है, वस्तुओं के प्रति आसक्ति समाप्त करता है तथा काम भाव को संयत कर काम-वासना पर विजय प्राप्त करता है। विश्व के सभी धर्मों में नैतिक मूल्यों का प्रतिपादन है, मानव मूल्यों की स्थापना है, मानव-जाति में सदाचारण के प्रसार का प्रयास है। इन नैतिक मूल्यों, सद्गुणों एवं सदाचारों को व्यक्त करने वाली शब्दावली में भिन्नता होने के कारण बाह्य धरातल पर हमें धर्मों के साधना-पक्ष में अन्तर प्रतीत होता है, तात्त्विक दृष्टि से सभी धर्म मनुष्य के सद्पक्ष को उजागर करते हैं, सामाजिक जीवन में शान्ति, बन्धुत्व, प्रेम, अहिंसा एवं समतामूलक विकास के पक्षधर हैं । सर्वधर्म समभाव की उदात्त चेतना का विकास सम्भव है। मतवादों का भेद हमारे ज्ञान एवं प्रतिपादन शक्ति की अपूर्णता के कारण है। प्रत्येक तत्त्व पर अनेक दृष्टियों से विचार सम्भव है। एकांगी प्रतिपादन के कारण वे परस्पर विरोधी प्रतीत होती हैं। प्रतीत होने वाले विरोधों का शमन सम्भव है। उदाहरण के लिए संग्रहनय की अपेक्षा से वेदान्त दर्शन तथा ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से बौद्ध दर्शन की संगत व्याख्या सम्भव है। प्रतीयमान विरोधी दर्शनों में समन्वय स्थापित किया जा सकता है ।
धर्म-दर्शन एवं अन्योन्याश्रित विश्व व्यवस्था
वैज्ञानिक प्रगति तथा तकनीकी विकास के कारण आज दुनिया बहुत छोटी हो गयी है। विश्व एकता की चेतना का भी तेजी से विकास हुआ है। व्यक्ति यह समझने तथा पहचानने लगा है कि विश्व के एक भाग की घटना का प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ता है। सम्पूर्ण पृथ्वीलोक को एक इकाई मानकर चिन्तन होना आरम्भ हो गया है। इस चिन्तन के प्रेरणा-स्रोत आज दर्शन, धर्म, काव्य, कला आदि ही नहीं हैं अपितु विज्ञान, तकनीकी विकास, यातायात, सूचना-क्रान्ति आदि अनेक कारक हैं ।
अब हम यह अनुभव करने लगे हैं कि हमारे पृथ्वी लोक के मनुष्य-जगत एवं प्रकृति-जगत की अनेक ऐसी समस्याएँ हैं जिनका समाधान एकदेशीय धरातल पर सम्भव नहीं है। समस्याएँ एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं, परस्पर गुँथी हुई हैं। इनके समाधान के लिए विश्वजनीन दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है। इनका समाधान सार्वदेशिक धरातल पर ही सम्भव है।
विश्व के देशों में इस बात पर आम सहमति विकसित होनी चाहिए कि विकास का अर्थ केवल मशीनों के द्वारा अधिक उत्पादन करना नहीं है। विकास अपने में साध्य नहीं है। विकास केवल साधन है। विकास का लक्ष्य मनुष्य है। विकास साधन है और साध्य है - मनुष्य जाति का हित-सम्पादन। विकास का उद्देश्य है - मनुष्य की समग्र उन्नति। विश्व में विकास की ऐसी व्यवस्था स्थापित हो जिससे मनुष्य के अन्तर्जात गुणों का पूर्ण विकास सम्भव हो सके। उसकी सृजनशीलता की विविध रूपों में पूर्ण अभिव्यक्ति सम्भव हो सके, मनुष्य की भौतिक सन्तुष्टि के साथ-साथ उसकी आत्मिक सन्तुष्टि भी हो सके। मनुष्य अपना जीवन सुखी बनाने के साथ-साथ उसे सार्थक भी बना सके।
कुछ व्यवस्थाओं ने व्यक्तिगत स्वातंत्र्य को तथा कुछ ने आर्थिक समानता को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना। मिखाइल गोर्बाचोव की ‘परेस्त्रोइका' या पुर्नरचना की नीति के प्रभाव के कारण पूर्वी यूरोप के देशों में तथाकथित साम्यवादी शासन-व्यवस्था के दुर्ग ढह चुके हैं तथा वहाँ जनक्रान्तियों की सफलता के कारण लोकतन्त्र स्थापित हो गया है। पूंजीवादी देशों की सरकारें भी समाज के निर्धन, विपन्न, कजोर, बेसहारा, बेरोजगार वर्गों के लिए कल्याणकारी कार्यक्रम आयोजित कर रही हैं। ‘पूँजी' को विपन्न वर्गों के लिए समायोजित किया जा रहा है। अब धीरे-धीरे विश्व के अधिकांश देशों ने नये जीवन-मूल्यों को मान्यता देना आरम्भ कर दिया है। इनमें निम्नलिखित मूल्यों का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा :- (1) स्वतन्त्रता (2) व्यक्ति की प्रतिष्ठा (3) जनशक्ति एवं जन-आकांक्षाओं का आदर (4) समता (5) समाज के सुविधाविहीन वर्गों के प्रति दायित्व-बोध (़6) पुरुष एवं स्त्री की समानता (7) विश्व-बन्धुत्व एवं विश्व-मैत्री (8) अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना (9) एक-दूसरे की संस्कृति, परम्परा, धर्म, रीति-रिवाजों के प्रति आदर (10) लोकतन्त्रात्मक शासन-व्यवस्था।
विभिन्न राष्ट्रों के बीच समानता तथा आम सहमति के आधार पर समस्याओं के समाधान का मार्ग प्रशस्त होना चाहिए , पारस्परिक लाभ के आधार पर विकास के लिए सार्वभौमिक सहयोग के सिद्धान्त को मान्यता प्राप्त होनी चाहिए ।
विश्व के सामने बहुत-सी समस्याएँ एवं चुनौतियाँ हैं, अनेक संकट हैं। इनमें से अधिकांश समस्याएँ एवं चुनौतियाँ एकदेशी नहीं हैं। सार्वभौमिक चिन्ता के प्रश्नों एवं समस्याओं का उत्तर एवं समाधान परस्पर सहयोग से ही संभव है :
(क) विकसित देशों ने अपने निवासियों की भोजन, आवास, वस्त्र, शिक्षा, चिकित्सा आदि मूलभूत आवश्यकताओं को लगभग पूरा कर लिया है लेकिन विकासशील देशों के निवासियों की मूलभूत आवश्यकताएँ अभी पूरी नहीं हो सकी हैं। विकसित एवं विकासशील देशों में असमानाताएँ बहुत अधिक हैं। विकसित देशों को अपेक्षित नीतिगत परिवर्तन करने होंगे तथा समता सम्बन्धी प्रतिबद्धताओं को कार्यरूप में परिणत करना होगा।
(ख) विकसित देशों में भी आर्थिक समृद्धि के लाभों के असमान वितरण से समाज के निर्धन वर्गों में व्याकुलता तथा गहरे असन्तोष के लक्षण विद्यमान हैं।
(ग) विकास को पूर्णतः मानवीय दृष्टि से देखना होगा। विश्व की अर्थव्यवस्था की संरचनात्मक समस्याओं का हल ढूँढते समय तथा नीतियों को क्रियान्वित करते समय नीति-निर्माताओं को इस बात को ध्यान में रखना होगा कि नीति का लक्ष्य विकसित एवं विकासशील देशों के समाजों में विद्यमान आर्थिक असमानताओं को दूर करना है। विकासशील देशों के विकास को सुनिश्चित करने के लिए कुछ व्यापक उपायों पर अमल होना जरूरी है। विकास के मार्ग में जिन नीतियों को बाधक माना जाता है उनको विकासशील देशों की सरकारों को अपनाए रखने का दुराग्रह छोड़ना होगा। विकसित देशों को विकासशील देशों के साथ व्यापार की अपनी शर्तों में सुधार करना होगा, संरक्षणवाद को तिलांजलित देनी होगी, विकासशील देशों के ऊपर कमरतोड़ ऋण के बोझ की समस्या को सुविचारित ढंग से हल करना होगा, विकासशील देशों को मिलने वाली आधिकारिक विकास सहायता में पर्याप्त वृद्धि करनी होगी, बहुपक्षीय विकास संस्थाओं के संसाधनों की स्थिति को सुदृढ़ करना होगा, विज्ञान और प्रोद्यौगिकी के क्षेत्रों में सभी देशों के पारस्परिक हित के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की एक नयी व्यवस्था स्थापित करनी होगी तथा अस्त्र-शस्त्रों पर व्यय होने वाली धनराशि को विकासशील देशों की समस्याओं के निराकरण के लिए विनियोजित करना होगा।
(घ) विकास मात्र आर्थिक उन्नति पर ही केन्द्रित नहीं रह सकता। जन-जन की निर्धनता समाप्त करने, रोजगार के अवसर बढ़ाने, पुरुष एवं स्त्री वर्गों की असमानताओं को दूर करने तथा संसार के सभी लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए सभी देशों से यह अपेक्षित है कि वे एकीकृत तथा सार्वदेशिक दृष्टि से विचार करें, नीतियाँ बनावें तथा कार्यक्रमों को क्रियान्वित करें। गरीबी और सामाजिक कुव्यवस्था ये दोनों ही आर्थिक विकास और जीवन-स्तर-उन्नयन के मार्ग की मुख्य रुकावटें हैं। इस कारण विकास की दिशा में आर्थिक उपायों के साथ-साथ सामाजिक दृष्टि से भी संगठित प्रयास किए जाने जरूरी हैं। सामाजिक एवं प्रशासनिक दृष्टियों से आतंकवाद, बढ़ते अपराध, नशीले तथा मादक द्रव्यों का सेवन, कैंसर एवं एड्स जैसे रोगों का प्रसार किसी देश विशेष की समस्याएँ नहीं हैं। आर्थिक एवं सामाजिक संरचना में सम्यक् सुधारों के द्वारा ही इन समस्याओं के स्थायी समाधान का मार्ग खोजा जा सकता है।
(ड) जनसंख्या-पर्यावरण-प्राकृतिक संसाधन का विकास से गहरा सम्बन्ध है। जनसंख्या-वृद्धि की कम दर और आर्थिक विकास के उन्नत स्तर में सीधा सम्बन्ध है। किसी देश की जन्म दर का वहाँ के सामाजिक-आर्थिक विकास से सहसम्बन्ध है। सामाजिक और आर्थिक विकास ही उच्च जन्मदर को रोकने का सही उपाय है। विश्व की बढ़ती आबादी के भयावह परिणामों की ओर सबका ध्यान आकृष्ट होना चाहिए। विकासशील देशों में शहरी क्षेत्रों में जनसंख्या का बढ़ता बोझ भारी आर्थिक और सामाजिक समस्याएँ ही पैदा नहीं कर रहा है अपितु पर्यावरण के लिए भी संकट उत्पन्न कर रहा है। शहरी जनसंख्या के विस्तार के कारण शहरों में अन्धाधुन्ध भवनों का निर्माण हो रहा है। अव्यावहारिक भवन-निर्माण-परियोजनाओं के कारण शहरों के मकान ‘घर' न होकर ‘माचिस की बन्द डिब्बियों' के रूप में बदलते जा रहे हैं। प्रत्येक शहर अपनी पहचान खोता जा रहा है तथा इस्पात और कंकरीट आदि भौतिक पदार्थों से निर्मित बहुमंजिली इमारतों के जंगल में बदलता जा रहा है। शहरों का फैलाव इतना अधिक बढ़ता जा रहा है कि व्यक्ति को अपने फ्लैट से निकलकर अपने कर्म-स्थल तक पहुँचने तथा वहाँ से अपने फ्लैट लौटने में समय, श्रम एवं अर्थसाध्य कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। सामाजिक जीवन में एकाकीपन, अलगाव, मानसिक दबाव तथा असुरक्षा की भावनाएँ बढ़ रही हैं। इसी कारण प्रत्येक व्यक्ति भरी भीड़ में अकेला होता जा रहा है।
मानसिक अशान्ति के इस चक्रव्यूह में फँसा हुआ व्यक्ति भौतिक पदार्थों के अधिकाधिक उपभोग की तरफ बढ़ रहा है। विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने संसाधनों के कारण अपने उत्पादनों की बाजारों में खपत बढ़ाने के लिए उपभोक्ताओं को तरह-तरह से आकर्षित करके ‘उपभोग-प्रवृत्ति' को बढ़ावा देने में संलग्न हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है कि पृथ्वी का सम्पूर्ण पर्यावरण तरह-तरह के प्रदूषणों से दूषित हो गया है तथा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन अपनी चरमसीमा पर पहुँच गया है। आकाश, भूमि तथा जल तीनों की चिन्त्य स्थिति है। विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों के कारण पृथ्वीलोक के जीवन की रक्षा करने वाली ‘ओज़ोन परत' क्षत-विक्षत हो चुकी है। पृथ्वी की हरियाली रेगिस्तान में बदलती जा रही है। आदमी जंगल के हरे-भरे पेड़ो को काटता जा रहा है जिसके कारण रेगिस्तान बनने की क्रिया तेज होती जा रही है। चरागाहों तथा खेती करने योग्य जमीन का आवश्यकता से अधिक उपयोग किया जा चुका है। मनुष्य ने अपना तथा अपने पशुओं का पेट भरने के लिए ही नहीं अपितु मकानों के निर्माण, ईधन,औषधि आदि के लिए भी पेड़-पौधों को बहुत बड़ी मात्रा में नष्ट कर दिया है। जब वर्षा होती है तब वर्षा का जल भूमि में प्रवेश किये बिना भूमि की खाद को बहा ले जाता है। इसके कारण धीरे-धीरे वनस्पति तथा खादवाली मिट्टी के नष्ट हो जाने से मरुस्थल का दायरा बढ़ रहा है।
बड़ी-बड़ी जनसंख्या वाले नगरों तथा औद्योगिक प्रतिष्ठानों के कार्बनिक तथा अकार्बनिक अवशिष्ट जल में मिलकर अधिकांश नदियों के जल को प्रदूषित कर रहे हैं। प्रदूषित जल ही रिस-रिसकर भूमि के अन्दर जाकर भूमिगत जल में मिल रहा है। इस शताब्दी के अन्त तक पानी का उपभोग दुगना हो जायेगा। एक तरफ पानी निरन्तर प्रदूषित हो रहा है, दूसरी तरफ उपभोक्ताओं के लिए अधिकाधिक पेयजल उपलब्ध कराने की समस्या बढ़ती जा रही है।
पर्यावरण में सुधार के जो तकनीकी प्रयास हो रहे हैं उनसे वांछित सफलता मिलना सन्देहास्पद है। हमें प्रकृति एवं परिवेश के साथ भावात्मक सम्बन्ध स्थापित करने होंगे, यह अनुभव करना होगा कि मनुष्य जगत तथा प्रकृति जगत अन्योन्याश्रित हैं । भौतिकवादी दृष्टि है - योग्यतम की उत्तर जीविता । धर्म-दर्शन की दृष्टि है - विश्व के सभी पदार्थ परस्पर उपकारक हैं। धर्म-दर्शन की दृष्टि अहिंसा भाव का विकास करती है। अहिंसक व्यक्ति कभी प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रयास नहीं करता। अहिंसक व्यक्ति प्रकृति से सामंजस्य करने का प्रयास करता है। अहिंसक व्यक्ति प्रकृति के संसाधनों का दोहन नहीं करता। मनुष्य को प्रकृति पर शासन करने की लालसा को छोड़कर उसके साथ समरस होने का प्रयास करना होगा। मनुष्य को यंत्रों पर इतना अधिक आश्रित नहीं होना चाहिए कि वह प्रकृति से ही दूर चला जाये। मनुष्य का जीवन एवं उद्योग दोनो के यंत्रचालित होने के दुष्परिणाम स्पष्ट हैं। इससे बेरोजगारी का अनुपात बढ़ रहा है तथा प्रकृति में प्रदूषण का प्रसार हो रहा है। मानव संसाधनों का सुनियोजित उपयोग जरूरी है। मानव-श्रम एवं शक्ति के पूर्ण समायोजन हो जाने के बाद ही औद्योगिक प्रतिष्ठानों को ‘स्वचालन' की शरण लेनी चाहिए, मनुष्य को ‘रोबोट' से अधिक महत्व मिलना चाहिए। ऐसी प्रबन्ध कुशलता से क्या लाभ जो मानव-समूहों को रोजगार के अवसरों से वंचित कर दे। उत्पादन, प्रगति, विकास, समृद्धि आदि की सार्थकता तभी मानी जा सकती है जब ये समाज में मनुष्य-समूहों तथा समुदायों की आशा-आकांक्षाओं की पूर्ति में अपना योग देने में समर्थ हों तथा मनुष्य जाति में मानवीयता, नैतिकता एवं सृजनात्मकता की ओर भावना का विकास करें। धर्म-दर्शन से प्रेरित विकास एवं प्रगति का लक्ष्य होना चाहिए - विश्व शान्ति तथा अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के प्रति समर्पित तथा प्रकृति-जगत् के संरक्षण एवं उसके प्रति मैत्री-भाव के लिए संकल्पित मानवीय भावना का विस्तार। इस प्रकार की भावना से मानव की मूलभूत भौतिक आवश्यकताओं एवं मानसिक आकांक्षाओं को पूरा करने वाली एक न्यायसंगत विश्व-व्यवस्था स्थापित हो सकेगी।
धर्म-दर्शन एवं विश्व शान्ति तथा अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना
आज का मनुष्य किसी भी कीमत पर युद्ध नहीं चाहता। सभी महाद्वीपों की जनता ने शान्ति आन्दोलनों का समर्थन किया है तथा राजनेताओं से अनुरोध किया है कि वे तनाव-शैथिल्य और निरस्त्रीकरण की दिशा में कदम उठायें। विभिन्न देशों की जनता ने शान्ति के समर्थन और नाभिकीय युद्ध के विरुद्ध जिस प्रकार विशाल प्रदर्शन किये हैं, उनसे इस तथ्य की सहज पुष्टि होती है।
द्वितीय महायुद्ध के भयावह परिणामों से हम सब परिचित हैं। जिन देशों ने युद्ध की यातनाओं एवं विभीषिकाओं को झेला है, वहाँ की जनता आगामी युद्ध की आशंका मात्र से भयाक्रान्त है। वैज्ञानिक अध्ययनों ने इस तथ्य को स्पष्ट किया है कि सीमित नाभिकीय युद्ध की अवधारणा भ्रान्तिपूर्ण है। भविष्य में कभी ‘तृतीय विश्वयुद्ध' नहीं होगा, अगर हुआ तो वह ‘अन्तिम युद्ध' होगा। अगर कभी वह युद्ध छिड़ गया तो वह सम्पूर्ण मानवीय जीवन तथा भूमण्डल का विनाशकारक अवसान होगा। नाभिकीय प्रौद्योगिकी की प्रचण्ड विध्वंसक क्षमता के निःसृत होने पर केवल आज का पार्थिव जीवन ही नष्ट नहीं हो जायेगा, अपितु वह सृष्टि के ब्रह्मांडीय इतिहास एवं लोकों के पारस्परिक सन्तुलन-चक्र के भी विपरीत होगा। नाभिकीय टकराव की विनाश लीला में न कोई विजेता होगा न कोई पराजित। इसका परिणाम होगा : - (1) मानवता का अन्त (2) प्रकृति का अन्त (3) भूमण्डल से सभी प्रकार के जीवन का अन्त।
एक देश की अथवा दुनिया के एक क्षेत्र की शान्ति का विचार अब अप्रासंगिक हो गया है। किसी देश अथवा क्षेत्र की सीमाओं में शान्ति अथवा संघर्ष को प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। किसी की विजय अथवा किसी की पराजय के प्रश्न अर्थहीन हो गये हैं। विश्व शान्ति एवं हम सबकी सत्ता अन्योन्याश्रित हैं।
सामाजिक और आर्थिक प्रगति में तेजी लाने के लिए भरोसेमन्द एवं कारगर तंत्र निर्मित करने की प्रक्रिया में तेजी लाने की आवश्यकता असंदिग्ध है। विश्व शक्तियों के बीच किसी मुद्दे पर तनाव है तो उसकी परिणति युद्ध में नहीं होनी चाहिए। शिखर वार्ताओं के द्वारा समस्या का समाधान होना चाहिए। नाभिकीय शस्त्रों के परीक्षण पर रोक लगाने, नाभिकीय अस्त्रों के उपयोग को प्रतिबंधित करने, विनाशकारी अस्त्र-शस्त्रों के मौजूदा जमा भण्डारों को नष्ट करने तथा नाभिकीय हथियारों की पूर्ण समाप्ति के लिए सभी विश्व शक्तियों को समयबद्ध कार्यक्रम बनाने की दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे। नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था स्थापित करनी होगी।
व्यक्ति के प्रति अधिकतम आदर तथा उसके आत्मसम्मान के प्रति सरोकार की भावना रखने की भावना नीति-निर्देशक तत्व के रूप में स्वीकार कर ली गयी है। समाजवाद को पूरी तरह जनवाद में परिवर्तित कर दिया गया है। फरमानशाही और केंद्रीकृत आर्थिक प्रबन्ध-तन्त्र की विकृतियों को दूर करके प्रबन्ध-तन्त्र में जनवादी आधार को मान्यता दी जा चुकी है।
पूंजीवादी देशों में भी सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन हुए हैं। इन देशों में ‘कल्याणकारी राज्य' की अवधारणा विकसित हो चुकी है। सरकार की कर्तव्य-सीमा के अन्तर्गत वृद्धों, बेसहारा बच्चों, बीमारों एवं बेरोजगारों के लिए कल्याणकारी कार्यक्रम चलाना समाहित हो गया है। अधिकांश उन्नत पूंजीवादी देशों की सरकारों के द्वारा इस प्रकार के कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं।
जनता की शक्ति बढ़ रही है, शासकों की शक्ति घट रही है। किसी देश के राष्ट्राध्यक्ष की तानाशाही के विरुद्ध जन-जागृति बढ़ रही है। जनमत का दबाव तेज होता जा रहा है।
जिस देश व समाज में हिंसात्मक क्रान्ति होती है वह प्रतिक्रिया में मानसिक उत्पीड़न को जन्म देती है। हिंसा के माध्यम से सत्ता पर कब्जा करने के बाद शासनाध्यक्ष ‘आत्म-स्वातंत्र्य' की बात को हवा में उड़ा देते हैं। सभी प्रकार की स्वतन्त्रता का दमन किया जाता है तथा सामान्य नागरिकों को बन्दी की तरह रहने के लिए विवश बना दिया जाता है। इसके विपरीत ‘प्रजातन्त्र' एवं ‘लोकतन्त्र' शासन-व्यवस्था राजनीतिक दृष्टि से अहिंसावादी दृष्टि की परिणति है।
अहिंसक जीवन एवं सद्भावपूर्ण-व्यवहार से महात्मा गांधी जी भी बहुत प्रभावित थे और उनका मत था कि ‘यही विश्व-संस्कृति और विश्व-मानवता की आधारशिला बन सकते हैं।' अहिंसा की भावना पर आधारित विश्व शान्ति की प्रासंगिकता, सार्थकता एवं प्रयोजनशीलता स्वयंसिद्ध हैं। विश्वशान्ति का अर्थ केवल यही नहीं है कि संसार में कहीं युद्ध न हो। विश्व शान्ति की सकारात्मक अवधारणा सम्पूर्ण मानव जाति की प्रगति एवं उसके विकास में निहित है।
विश्व शान्ति की सार्थकता एक नये विश्व के निर्माण में है। जिसके लिए विश्व के सभी देशों में परस्पर सद्भावना का विकास आवश्यक है।
शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व एवं विकास के लिए घटकों द्वारा आग्रहपूर्ण नीति का त्याग तथा सहयोगपूर्ण नीति का वरण आवश्यक है। सह-अस्तित्व की परिपुष्टि के लिए समभाव की विचारणा का पल्लवन आवश्यक है। समस्त जीवों के प्रति मैत्रीभाव रखना तथा समस्त जीवों को समभाव से देखना आवश्यक है। किसी एक जाति में अन्य की अपेक्षा कोई असाधारण विशेषताएँ नहीं होतीं। जाति और कुल से त्राण नहीं होता। प्राणी-मात्र आत्मतुल्य है। इस कारण प्रत्येक व्यक्ति को संसार के सभी प्राणियों को आत्मतुल्य मानना चाहिए, सबको आत्मतुल्य समझना चाहिए, सबके प्रति मैत्री भाव रखना चाहिए।
अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के लिए पृथ्वीलोक के विभिन्न सामाजिक संवर्गों एवं राजनीतिक इकाइयों के बीच सद्भाव, समझदारी एवं सहयोग आवश्यक है। यह आवश्यक है कि सामाजिक धरातल पर समता की भावना विकसित हो, राजनीतिक धरातल पर सभी देश परस्पर एक-दूसरे की स्वतन्त्रता तथा प्रभुसत्ता का आदर करें एवं एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करें तथा आर्थिक धरातल पर देशों के बीच व्याप्त आर्थिक असन्तुलन एवं वैषम्य समाप्त हो।
विभिन्न देशों के बीच परस्पर सम्पर्क बढ़ना आवश्यक है, विचारों का आदान-प्रदान होना आवश्यक है। जब किसी देश का प्रतिनिधिमण्डल अथवा राष्ट्राध्यक्ष दूसरे देश की सद्भावना-यात्रा करता है तो परस्पर वार्ता एवं मिलन के कारण उन देशों के सम्बन्धों में प्रगाढ़ता आती है, सहयोग एवं सद्भावना बढ़ती है। राजनीतिज्ञों एवं राजनयिकों के अतिरिक्त देशों के सामान्य नागरिकों के बीच भी सम्पर्क बढ़ना चाहिए।
यह भी आवश्यक है कि अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की ‘बहुपक्षीय व्यवस्था' के प्रति सभी देशों की आस्था बढ़े और प्रतिबद्धता सुदृढ़ हो। सर्वसामान्य की भलाई एवं कल्याण के लिए किये जाने वाले सहकारी कार्यों का दायरा बढ़ना चाहिए। आज पृथ्वीलोक में बहुत-सी जटिल समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं। सार्वभौम चिन्ता के प्रश्नों का ‘बहुपक्षीय व्यवस्था' के अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग के अलावा अन्य किसी दूसरे उपाय से समाधान सम्भव नहीं है। इस दृष्टि से देशों को अपेक्षित उपाय करने के लिए मानवीय, कल्याणकारी एवं पृथ्वीलोक के पर्यावरण एवं परिवार-नियोजन सम्बन्धी प्रतिबद्धताओं को कार्यरूप देने के लिए सार्थक एवं सक्षम भूमिका का निर्वाह करना होगा।
अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के संवर्द्धन के लिए सभी देशों को मानवीय विकास एवं प्रगति को केवल राष्ट्रीय दृष्टि से न देखकर पूर्णतः मानवीय और आधारभूत अनिवार्यता की दृष्टि से देखना होगा, मौजूदा असमानताओं को दूर करने की दिशा में सहयोगी बनना होगा और संसार में सभी जगह मनुष्य की जिन्दगी तथा विकास की दर को बेहतर बनाने में सहायता करनी होगी। इसी रास्ते शान्ति, न्याय, समानता और विकास पर आधारित नयी विश्व-व्यवस्था स्थापित हो सकेगी, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध लोकतांत्रिक बन सकेंगे तथा ‘नयी विश्व सूचना एवं संचार व्यवस्था' का विकास हो सकेगा।
समकालीन युग ने इस तथ्य को पहचाना है कि आर्थिक विषमता को समाप्त किये बिना समाज में सच्ची सुख-शान्ति स्थापित नहीं हो सकती। अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के स्थायित्व के लिए विभिन्न देशों की आर्थिक असमानता और उनके असन्तुलन को मिटाना जरूरी है। उद्योगीकृत विकसित देशों तथा विकासशील एवं अविकसित देशों के जीवन-स्तर, प्रौद्योगिकी स्तर एवं संसाधनों के स्तर के अन्तरालों को कम करने की आवश्यकता असंदिग्ध है।
साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद तथा नव-उपनिवेशवाद की नीतियों के कारण आर्थिक दृष्टि से जो देश निर्धन हैं उनकी आर्थिक समस्याओं के समाधान की आवश्यकता की आलोचनात्मक विवेचना करने तथा समाधान के स्वरूप पर सैद्धान्तिक बहस करने का अवकाश नहीं है, इसको विद्वान एवं राजनयिक जिस नाम से चाहे पुकारें - सुधार, विकास संरचना, पुनः संरचना - इनमें से जो नाम देना चाहें, दें, विकसित देशों को इस दिशा में तात्कालिक एवं कारगर कदम उठाने होंगे। इन देशों को निम्नलिखित तथ्यों को हृदयंगम करना होगा :
(क) विश्व की दो-तिहाई आबादी के बराबर वाले इन देशों के समाजों में जो निर्धनता, निरक्षरता, भुखमरी, कुपोषण और रोगग्रस्तता है वह इनके ऊपर हुए औपनिवेशिक शोषण का परिणाम है।
(ख) यदि इन देशों के समाजों की स्थितियों को तत्काल नहीं सुधारा गया तो अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज पर आर्थिक असन्तुलन से उद्भूत तनाव तथा संघर्ष की स्थितियाँ उत्पन्न हो जायेंगी। यदि तात्कालिक आर्थिक वैषम्य एवं असन्तुलन को दूर नहीं किया गया तो उसके परिणाम भयावह होंगे।
(ग) विकसित औद्योगिक देशों की खुशहाली अन्ततः विकासशील देशों के आर्थिक भविष्य पर निर्भर है ।
(घ) वस्तुतः सुरक्षित, स्थायी, समृद्ध और समीचीन सार्वभौम अर्थव्यवस्था की तत्काल स्थापना युगीन आवश्यकता है।
नाभिकीय शस्त्र-मुक्त और हिंसा-रहित संसार की निर्मिति के लिए यह आवश्यक है कि संसार के सभी देश सैनिक कार्यों पर किये जाने वाले विशाल, अन्धाधुंध, अनुत्पादक एवं निरर्थक व्यय में पर्याप्त कमी करें। जब महाशक्तियों में एक-दूसरे के विरुद्ध या तीसरे देशों के विरुद्ध नाभिकीय और परम्परागत सभी प्रकार के युद्धों का परित्याग करने, बाह्य अन्तरिक्ष में हथियारों की होड़ रोकने, नाभिकीय शस्त्र-परीक्षणों को बन्द करने, रासायनिक शस्त्रों पर प्रतिबन्ध एवं उन्हें पूरी तरह नष्ट करने तथा सैन्य-क्षमताओं को नियंत्रित करने आदि विचारों के प्रति रजामंदी बढ़ रही है तब ऐसी स्थिति में यह परमावश्यक है कि सभी देश अपने सैन्य बजटों में पर्याप्त कटौती करें।
अर्थशास्त्रियों ने सैनिक व्यय का बेरोजगारी तथा मुद्रास्फीति के साथ सह-सम्बन्ध का प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत किया है। संसाधनों को युद्ध सामग्री एवं शस्त्र उत्पादन के उच्च प्राविधिक क्षेत्रों की ओर मोड़े जाने से विश्व में बेरोजगारी एवं मुद्रास्फीति बढ़ती है। निजी उद्योग अस्त्र-शस्त्रों के विक्रय में भारी मुनाफा कमाते हैं। वे रक्षा-अनुबन्धों में जिस प्रकार दिलचस्पी लेते हैं वह सर्वविदित है। सैनिक उत्पादन में की गयी पूँजी-निवेश की अपेक्षा असैनिक उत्पादन में की गयी पूँजी-निवेश से काफी ज्यादा रोजगार मिलता है। विश्व में कुल वार्षिक सैन्य-व्यय इतना अधिक है कि इस धनराशि के पचास प्रतिशत भाग को खाद्य पदार्थों एवं उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में विनियोजित एवं हस्तांतरित करने से पूरे विश्व की भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी दूर हो सकती है। इस समय जो अनुसंधान हो रहे हैं उनको बन्द करने की आवश्यकता नहीं है, उनके प्रयोग-क्षेत्रों को बदलने की जरूरत है। नाभिकीय अनुसंधानों को अभी सैनिक कार्यों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इन अनुसंधानों का विनियोग ऊर्जा की समस्या के समाधान के लिए किया जा सकता है। इसी प्रकार जीव-रसायनशास्त्र के क्षेत्र में जो अनुसंधान हो रहे हैं उनका प्रयोग विध्वंस-सामग्री एवं युद्ध सामग्री के उत्पादन के स्थान पर स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के समाधान के लिए किया जा सकता है।
आज के विश्व के समक्ष उपस्थित चुनौतियों का प्रभावकारी ढंग से मुकाबला करने के लिए देशों की गतिविधियों में समरसता स्थापित करने के लिए और बहुपक्षीयवाद की अवधारणा को सुदृढ़ करने के लिए यह आवश्यक है कि संयुक्त राष्ट्र संघ और अधिक मजबूत बने, विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों की कार्य-पद्धति और अधिक कारगर बने।
अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के लिए विश्वबन्धुत्व की भावना का पल्लवन आवश्यक है। विश्व के सभी लोग इस पृथ्वी रूपी जहाज पर सवार सहयात्री हैं। सहयोग एवं मैत्री की इस भावना से विश्व शान्ति के प्रति प्रतिबद्ध शक्तियों को संगठित एवं पुनर्बलित करने की आवश्यकता है। इस भावना के विकास की आवश्यकता है कि यह पूरी दुनिया अन्ततः एक है। यदि विश्व-शान्ति एवं अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना खण्डित होती है तो अशांति की ज्वाला पूरे विश्व को भस्मीभूत कर देगी। शान्ति एवं सद्भावना के विकसित एवं परिपुष्ट होने पर हमारी यह धरती ही स्वर्ग बन जायेगी।
देवता बाहर नहीं है, हमारी अन्तश्चेतना में है। अपनी अन्तश्चेतना की दिव्य ज्योति को प्रखर करने की आवश्यकता है। आज के युग ने मशीनी सभ्यता के चरम विकास से सम्भावित विनाश के जिस राक्षस को उत्पन्न कर लिया है वह किसी यंत्र से नहीं अपितु ‘अहिंसा-मन्त्र' से ही नष्ट हो सकता है।
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प्रोफेसर महावीर सरन जैन
(सेवानिवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान)
123, हरिएन्कलेव, चांदपुर रोड,
बुलन्दशहर - 203001
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