मधु संधु का आलेख : मन्नू भंडारी की एक कहानी यह भी

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  एक प्रख्‍यात लेखिका के जीवन का लेखा-जोखा :   एक कहानी यह भी डॉ. मधु संधु   आज तक दूसरों की जिंदगी पर कहानियां रचने वाली मन...

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एक प्रख्‍यात लेखिका के जीवन का लेखा-जोखा :

 

एक कहानी यह भी

डॉ. मधु संधु

 

आज तक दूसरों की जिंदगी पर कहानियां रचने वाली मन्नू भण्‍डारी ने एक कहानी यह भी अपने जीवन का लेखा-जोखा दिया है। इस पुस्‍तक पर उन्‍हें 2008 का व्‍यास सम्‍मान भी मिल चुका है। उन्‍होंने यहां अपने जीवनांश, परिवेश, सम्‍पर्क-संबंध, लेखकीय व्‍यक्‍तित्‍व और लेखन यात्रा को केंद्रित किया है। अपने जीवन पर प्रकाश डालते मन्नू लिखती हैं कि मध्‍यप्रदेश के भानपुर गांव में जैन पर आर्यसमाजी परिवार में जन्‍म और अजमेर के ब्रह्मपुरी मुहल्‍ले में बचपन व्‍यतीत हुआ। पिता कांग्रेसी और समाज सुधारक ही नहीं, अंग्रेजी-हिन्‍दी शब्‍दकोश के निर्माता थे। 1952 में एम ए किया और कालेज जीवन में पूरी नेतागिरी भी की। शरत, जैनेंद्र, यशपाल किशोरावस्‍था में ही पढ़ डाले। बालीगंज शिक्षा सदन में नौ वर्ष नौकरी की। यहीं पहली कहानी लिखी, यहीं राजेंद्र से परिचय और विवाह हुआ। बेटी रचना के जन्‍म के बाद मिराण्‍डा हाउस में नियुक्‍ति हो गई

मन्नू ने मात्र पच्‍चास कहानियां लिखी हैं, एक नाटक और दो-तीन उपन्‍यास। बीस सालों से लिखना बंद है। तीन संकलन मराठी में अनूदित हैं, दो बंगला में। यही सच है पर रजनी गंधा, एखाने आकाश नाय पर जीना यहां फीचर फिल्‍म बनी हैं। अकेली, त्रिशंकु, नशा और रानी मां का चबूतरा पर टेलीफिल्‍में बनी हैं। दो कलाकार, कील और कसक तथा एक कमजोर लड़की की कहानी पर एपीसोड बने हैं। रजनी गंधा ने सिल्‍वर जुबली मनाई। फिल्‍म फेयर के दोनों अवार्ड क्रिटिक्‍स अवार्ड और पब्‍लिक अवार्ड जीते। शरत की स्‍वामी की स्‍क्रिप्‍ट वासु दा के लिए लिखी और यह उस पर फिल्‍म बनी। निर्मला उपन्‍यास रजनी सीरियल की छह कडियों और दर्पण सीरियल की दस कहानियों की स्‍क्रिप्‍ट लिखी। महाभोज और अतीत के चलचित्र के तीन संस्‍मरणों का नाट्‌य रूपान्‍तर किया। आपातकाल के दिनों मन्नू का नाम पद्‌मश्री के लिए चुना गया, पर उन्‍होंने लेने से इन्‍कार कर दिया।

एक कहानी यह भी के लेखे-जोखे में अपने लेखन की रचना प्रक्रिया पर भी मन्नू ने प्रकाश डाला है। कभी मन्नू यथार्थ के धरातल पर कहानियां लिखती थी और सपनों की दुनिया में जीती थी। फिर बेटी, घर और नौकरी की जिम्‍मेदारियों के बीच, अनेक संकटों, कष्‍टों, समस्‍याओं और नसों को चटका देने वाले आघातों के बीच उनकी सृजन यात्रा चलती रही। उनके जीवन का आरम्‍भिक हिस्‍सा वहां व्‍यतीत हुआ, जहां घर की दीवारें पूरे मुहल्‍ले तक फैली रहती थी। इस पड़ोस कल्‍चर की झलक उनकी कम से कम एक दर्जन आरम्‍भिक रचनाओं में मिलती है। महाभोज के दा साहब वहीं की देन हैं। अकेली की विधवा बुढ़िया अजमेर के बड़े आंगन में बनी कोठरी में रहने वाली नानी साहिब हैं- बचपन में जाने देखे उस चरित्र का पुनर्सृजन हुआ सोमा बुआ के रूप में सोमा बुआ विधवा नहीं, परित्‍यक्‍ता हैं। वैधव्‍य आरम्‍भिक दुख के बाद स्‍वीकृत सत्‍य हो जाता है और उसकी यातना कम हो जाती है। पर परित्‍यक्‍ता का दुःख इसमें अकेलेपन के साथ अपमान का दंश और जुड़ जाता है। (43) प्रथम कहानी मैं हार गई के कहानी पत्रिका में प्रकाशन, भैरव प्रसाद गुप्‍त के प्रोत्‍साहन और पाठकों की प्रतिक्रिया ही मन्नू के लेखन का मूल रही। श्‍मशान, अभिनेता आदि कहानियां छपी। संकलन आने लगे। अपनी रचना प्रक्रिया के विषय में मन्नू लिखती हैं-पहले पात्र मेरे साथ-साथ चलते थे, पर बाद में तो सामने आ खड़े होते- चुनौती देते...ललकारते से-कि पकड़ो.... पहले घटनाएं अपने आप क्रम से जुड़ती चलती थी.... अब इकहरे पात्रों की जगह अंर्तद्वंद्व में जीते पात्र ही आकर्षित करने लगे।...त्रिशंकु की मां हो या मातृत्‍व और स्‍त्राीत्‍व के द्वंद्व के त्रास को झेलती आपका बंटी की शकुन।...क्षय की कुंती हो या तीसरा हिस्‍सा के शेरा बाबू। (41) दीवार, बच्‍चे और बारिश कहानी की रचना प्रक्रिया के विषय में लिखती हैं- अपने मुहल्‍ले की उस दबंग और साहसी लड़की को तो मैं आज भी नहीं भूल सकती हूँ जो उस जमाने में लड़कों के साथ गली में खड़ी खड़ी बतियाती रहती थी। बेझिझक उनके साइकिल के पीछे बैठ कर मां-बाप के गुस्‍से और देखने वालों की हिकारत को धता बताती हुई फर्राटे से निकल जाया करती थी।... हम जैसी कुछ लड़कियों के आकर्षण का केंद्र और मोहल्‍ले की औरतों के लिए एक दिलचस्‍प चर्चा का केंद्र थी वह लड़की।....कोई चार घर छोड़कर रहने वाली आनन्‍दी नशा की नायिका बनी और तो मेरे ही परिवार की दादी मजबूरी कहानी की। ईसा के घर इन्‍सान , कील और कसक, एखाने आकाश नाय, त्रिशंकु, नशा, रानी मां का चबूतरा की रचना प्रक्रिया भी स्‍पष्‍ट करती हैं। एक इंच मुस्‍कान राजेन्‍द्र और मन्नू का सांझा प्रयास था, जो प्रथम जनवरी 1961 को ज्ञानोदय में धारावाहिक प्रकाशित होना प्रारम्‍भ हुआ। त्रिशंकु पहली बार धर्मयुग में प्रकाशित हुई। आपका बंटी की शकुन के मातृत्‍व और व्‍यक्‍तित्‍व का द्वंद्व मन्नू का अपना द्वंद्व है। लिखती हैं-टिंकू उस समय कुल नौ वर्ष की थी (बंटी की उम्र की) और राजेंद्र के साथ रहना मेरे लिए कठिन से कठिनतर होता जा रहा था। पर जब भी मैं अलग होने की बात सोचती, टिंकू का चेहरा बंटी के चेहरों में जा मिलता और मेरा सारा सोच वहीं ध्‍वस्‍त हो जाता।.... इसे लिखने के लिए घर बाहर की जिम्‍मेदारियों से मुक्‍त, जैसे निर्विघ्‍न समय और मानसिक शान्‍ति की जरूरत थी, वह सब घर में मिल पाना संभव ही नहीं था सो एक दिन मन पक्‍का करके मैंने प्रिंसिपल के होस्‍टल में एक कमरा मांगा.... सामान समेटा और चली आई।(114) .. इसमें संदेह नहीं कि तीन बंटियों में से एक राकेश जी का बेटा था और उपन्‍यास का प्रस्‍थान बिंदु भी मुझे वहीं से मिला था। (116) यह उपन्‍यास भी पहले धर्मयुग में ही प्रकाशित हुआ था। ईसा के घर इन्‍सान में सोफिया कालेज की एक घटना है कि एक नन ने कीट्‌स पढ़ाते हुए एक लड़की को बाहों में भर कर चूम लिया। महाभोज विश्‍वविद्यालय के गेस्‍ट हाउस में लिखा। स्‍त्री सुबोधिनी और एक बार और कहानियां पति की प्रेयसी मीता को लेकर लिखी गई हैं।

निसंदेह मन्नू ने सोचा था कि राजेंद्र से शादी होते ही लेखन का राजमार्ग खुल जाएगा और मन्नू को एक साहित्‍यिक वातावरण मिला भी। राकेश, कमलेश्‍वर, रेणु, अमरकांत, महादेवी, हजारीप्रसाद द्विवेदी, सत्‍येन्‍द्र शरत, उषा भाभी, सुमित्रानन्‍दन पंत, शरद देवड़ा, उदयभानु सिंह, निर्मला जैन, जवाहर चौधरी, सईं परांजपे, ओम प्रकाश, विष्‍णु प्रभाकर, नेमिचंद्र जैन, स्‍नेह, अजित, नामवर, प्रभा दीक्षित, अर्चना वर्मा, राजी सेठ, मैत्रेयी पुष्‍पा, सुधा अरोड़ा, जितेंद्र भाटिया, बासु दा, बच्‍चन सिंह, प्रभा खेतान, सईं परांजपे, विष्‍णुकान्‍त शास्‍त्री, प्रभाकर श्रोत्रिय, शिवमंगलसिंह सुमन आदि साहित्‍यकारों/साहित्‍य से जुड़ी हस्‍तियों के व्‍यक्‍तित्‍व के उजले-धुंधले पक्ष मन्नू ने दिए हैं।

मन्नू का आहत पत्‍नी रूप पुस्‍तक के लगभग एक चौथाई पृष्‍ठों में बिखरा पड़ा है। मानों यह आत्‍मकथा न होकर पूरे पैंतीस वर्ष असंतुलित गृहस्‍थ जीने वाली एक पत्‍नी के नोट्‌स हों। कहानी वही है। कुटुम्‍बप्‍यारी की नियति है कि उसे महकबानों को झेलना ही झेलना है। आज नारी विमर्श के सशक्‍त पैरोकार राजेंद्र की पत्‍नी विषयक धारणाएं चौंकाने वाली हैं। मन्नू ने दानिश पत्रकार, साहित्‍यकार, बल्‍कि समाजवेत्ता के अंदर के रीतिकाल को जगजाहिर किया है। उनके अनुसार पत्‍नी को एक नर्स की भांति होना चाहिए, जो सिर्फ पति की सेवा करे। (96) शादी होते ही पति राजेंद्र ने समान्‍तर ज़िंदगी का आधुनिक पैटर्न थमाते हुए कहा- देखो छत जरूर हमारी एक होगी, लेकिन ज़िदगियां अपना-अपनी होंगी- बिना एक दूसरे की ज़िंदगी में हस्‍तक्षेप किए, बिल्‍कुल स्‍वतंत्र, मुक्‍त और अलग। (56) ज़िंदगी ऐसे ही सरकती गई। यादव प्रेयसी मीता से जुड़े रहे। मन्नू न तलाक ले सकी न यादव दे सके, बिटिया रचना बड़ी होती गई और मन्नू राजेंद्र के अहं की अतिरिक्‍त चेतना के कारण उभर रही गांठों से लगातार जूझती रही- टिंकू उस समय कुल नौ वर्ष की थी (बंटी की उम्र की) और राजेंद्र के साथ रहना मेरे लिए कठिन से कठिनतर होता जा रहा था। पर जब भी मैं अलग होने की बात सोचती, टिंकू का चेहरा बंटी के चेहरे में जा मिलता और मेरा सारा सोच वहीं ध्‍वस्‍त हो जाता।(114) राजेंद्र ने न रेडियो में नौकरी की, न किसी सारिका या नई कहानियां के संपादकीय में रूचि ली। पति राजेंद्र से प्रभावित हो वामपंथ का उन्‍होंने कभी समर्थन नहीं किया। पति द्वारा चीन युद्ध का समर्थन या नेहरु की मृत्‍यु पर शराब से जश्‍न मनाना उन्‍हें कभी रूचिकर नहीं लगा। राकेश या कमलेश्‍वर से राजेंद्र के झगड़े को मन्नू ने कभी अपने लिए स्‍वीकार नहीं किया। कहती हैं-यह तो हंस की सफलता से मिले यश, सम्‍मान और प्रतिष्‍ठा ने इनके व्‍यक्‍तित्‍व की अनेक ऐसी गांठों को खोला, जिन्‍होंने इनके व्‍यक्‍तित्‍व के कुछ हिस्‍सों को जटिल दुरूह और विकृत बना रखा था। (90) परिवार के दुख-दर्द, हारी-बीमारी, तकलीफ-जरूरत से राजेंद्र सदैव तटस्‍थ रहे, लेकिन जैसे ही मन्नू अलग हुई, हर संकट के समय हाजिर होते रहे। बारह वर्षों के लम्‍बे अंतराल के बाद फिर मन्नू के पास लौट आए।

पूरक प्रसंग के रूप में मन्नू ने तद्‌भव में राजेन्‍द्र के मुड़मुड़ के देखता हूँ के प्रत्‍युत्तर में प्रकाशित लेख देखा तो इसे भी देखते जोड़ा है। यहां पति की प्रेयसी मीता की ससुराल प्रवेश के साथ वहां बनी उपस्‍थिति पत्‍नी मन्नू के लिए ऐसी थी, मानों न सिर पर छत मिली और न पांव तले जमीन। जिस मीता के इन्‍कार पर राजेंद्र ने मन्नू से विवाह के लिए हां कही थी, वही मीता अब जार-जार रो रही थी। राजेंद्र ने आंसू बहाती मीता से कहा- शादी मैंने मन्नू से जरूर कर ली है, पर हमारा-तुम्‍हारा संबंध तो जैसा है, वैसा ही रहेगा। शादी में वैसे भी मेरा कोई विश्‍वास नहीं... सो यह बंधन मेरे तुम्‍हारे बीच कभी बाधा नहीं बन सकेगा। (211)

बेटी रचना मन्नू की सबसे बड़ी शक्‍ति है- यदि टिंकू न होती तो मेरी जिंदगी की यह धारा निश्‍चित रूप से किसी और दिशा में मुड़ गई होती। चौथी पांचवीं की कक्षा तक मैं उसकी मां बनकर रही- उसके बाद उसकी मित्र बनकर। (106) 1984 में उसकी शादी दिनेश खन्ना से हुई। अब मायरा और माही दो बेटियों की मां है। बिटिया के पालन पोषण में भी यादव की अनासक्‍ति मन्नू की दुखती रग है- उनके मन की असली गांठ तो यह थी कि मेरे कालेज जाने के पीछे अगर उन्‍होंने बच्‍ची को देखा तो उसकी आया बनकर रह जाएंगे और उनका अहं उन्‍हें इस बात की अनुमति नहीं देता था। (65) बेटी टिंकू की शंटिग मन्नू और उनकी बड़ी बहन सुशीला के बीच इतनी अधिक हुई कि ग्‍यारह वर्ष तक बच्‍ची अपनी असली मां को नहीं जान सकी। कोई सात आठ साल की उम्र में टिंकू को तीसरी बार मीज़ल्‍स निकली और राजेंद्र दवा लाने या बिटिया के पास बैठने की बजाय साहित्‍य अकादमी की मीटिंग का बहाना बना उषा प्रियंवदा से मिलने चल दिए-आज जिस टिंकू पर ये इतना निर्भर करते हैं... जो इन्‍हें अपना एक मात्र सहारा दिखाई देती है, कभी पीछे मुड़ कर देखें तो उसके जन्‍म से लेकर उसके पालने-पोसने में क्‍या किया उन्‍होंने... कौन सा संकट झेला।(98)

देश में लगने वाली एमरजेंसी और उस दौरान घटी दिल दहला देने वाली घटनाओं के अनेक चित्र मन्नू ने दिए हैं। इंदिरा गांधी की हत्‍या, सिखों द्वारा मनाए गए जश्‍न और उनकी हत्‍याओं पर भी मन्नू ने लिखा है। 1984 में मन्नू जर्मन, लंदन, पेरिस और वियना गई। फ्रैंकफर्ट के पुस्‍तक मेले में गई।

मन्नू ने कोशिश की है कि अपनी कहानी लिखते समय इस विधा की अनिवार्य शर्त तटस्‍थता का पूरा ध्‍यान रखा जाए, लिखने वाली मन्नू और जीने वाली मन्नू के बीच पर्याप्‍त फासला बनाकर रखा जाए, पर आत्‍मकथा अपने को अपने से काट कर लिखी ही नहीं जा सकती, मन्नू ने जो देखा, सुना अनुभव किया, उसे पूरी ईमानदारी से शब्‍दबद्ध किया है, यही इस रचना की देन है।

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एक कहानी यह भी, मन्नू भण्‍डारी, राधाकृष्‍ण (पेपरबैक्‍स), नई दिल्‍ली, 2008

डॉ. मधु संधु, प्रोफेसर., हिन्‍दी विभाग, गुरु नानक देव विश्‍वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब

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मधु संधु का आलेख : मन्नू भंडारी की एक कहानी यह भी
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