बालकृष्ण भट्ट (1844-1894ई.) कवि और चितेरे की डाँड़ामेड़ी इन दोनों को डाँड़ामेड़ी हम इसलिये कहते हैं कि मनुष्य तथा प्रकृति के भ...
बालकृष्ण भट्ट
(1844-1894ई.)
कवि और चितेरे की डाँड़ामेड़ी
इन दोनों को डाँड़ामेड़ी हम इसलिये कहते हैं कि मनुष्य तथा प्रकृति के भावों को ये दोनों ही प्रकट किया चाहते हैं। कवि लेखनी और शब्दों के द्वारा, चितेरे अपनी ‘तूलिका’ (रंग भरने की कूची) और भांति भांति के चित्र विचित्र रंगों से । काम दोनों का बहुत बारीक और अतिकठिन है । केवल इतना ही नहीं किन्तु एक प्रकार की लोकोत्तर प्रतिभा दोनो के लिये आवश्यकीय है । किसी कवि का यह श्लोक हमारे इस आशय को भरपूर पुष्ट करता है -
नामरूपात्मकं विश्वं यदिदं दृश्यते द्विधा ।
तत्राद्यस्य कविर्वेधा द्वितीयस्य चतुर्मुखः ।।
अर्थात नाम और रूपात्मक जो दो प्रकार का यह संसार देख पड़ता है उसमें से आदि अर्थात् नामात्मक जगत् का निर्माणकर्ता कवि है और दूसरे का ब्रह्मा ।
जानीते यन्न चन्द्रार्कौ जानन्ते यन्न योगिनः ।
जानीते यन्न भगों'पि तज्जानाति कविः स्वयम् ।।
अर्थात् इस दृश्य जगत के साक्षी रूप सूर्य और चन्द्रमा जिस बात को नहीं जानते परोक्ष ज्ञानवान् योगीजन जिसे नहीं जानते और किसकी कहें सर्वज्ञ सदाशिव भी जो बात नहीं जानते उसे कवि अपनी लोकोत्तर प्रतिभा के बल से जान लेता है ।
कवि की प्रतिभा जिस भाव के वर्णन से लोकोत्तर चातुरी प्रकट कर दिखाती है अच्छा निपुण चितेरा उसी को अपनी प्रतिभा से चित्र के द्वारा दिखला देता है । अच्छा चितेरा कवि के एक एक श्लोक या दोहे के नीचे उसी भाव की ठीक तस्वीर खींच सकता है और तब इन दोनों में कहाँ तक तुलना है इसका ठीक परिज्ञान हो सकता है किन्तु इन दोनों की कारीगरी के परीक्षक भी बडे निपुण होने चाहिए । दोनों के काम को बारीकी और सूक्ष्म सौन्दर्य के देखने को पैनी दृष्टि चाहिए । इस तरह के परीक्षक कोई बिरले नागरिक जन होते हैं । उत्तम काव्य तथा चित्र के सम?ने को एक ही तरह की सूक्ष्म और तीखी समझ चाहिए । कवि और चित्रकार की कल्पना शक्ति भी बिलकुल एक सी है ।
अब रहा “उपादान कारण” या सामान, अर्थात् कवि के लिये वाग्-वैभव और चितेरे के लिये रंग का चटकीलापन इत्यादि सो जिसके पास जैसा होगा वैसा ही वह
काव्य तथा चित्र बना सकेगा क्योंकि कवि तथा चितेरे के लिये बाह्य वस्तु जैसे वन, नदी, पर्वत आदि के वर्णन की अपेक्षा मानसिक भावों का प्रकाश कविता तथा चित्र के द्वारा अधिक कठिन है । जिसे चित्रकार (shades) रंग की जरा सी झांई में प्रकट कर दिखाता है। उसी का प्रकट करना कवि के लिये इतना दुरूह है कि बेहद दिमागपच्ची करने पर दो चार सत्त्कवियों ही के काव्य में यह सूबी पाई जाती है । फिर भी उतनी सफाई काव्य में न आवेगी । चित्र में अन्तर्लीन मनोगत भाव सहज में दरशाया जा सकता है । मनोगत भावों का प्रकाश कालिदास और शेक्यपियर इन्हीं दो के काव्यों में विशेष पाया जाता है । मनोगत भाव जैसा हर्ष, शोक, भय, घृणा, प्रीति इत्यादि के उदाहरण साहित्यदर्पण के तीसरे परिच्छेद में अच्छी तरह संगृहीत कर दिए गए हैं । यह बात कवि और चितेरे में बताने और सिखाने से उतनी नहीं आती जितनी स्वाभाविक बोध (intuitive perception) से होती है, किन्तु फिर भी फर्क इतना ही रहेगा कि कवि जिस आशय या भाव को बहुत से शब्दो में लावेगा उसे चित्रकार तूलिका (रंग भरने की कूची) के एक हलके से झोंक (touch) में प्रकट कर देगा और कवि के वर्णित आशय का स्वरूप सामने खड़ा कर देगा ।
चित्रकारी से कविता में इतनी विशेष बात है कि चित्र उतना चिरस्थायी न रहेगा जितनी कविता रह सकती है । तस्वीर तथा काव्य से मनुष्य की प्रकृति का पूरा परिचय मिल जाता है । हमारे यहां के अमीरों के ड्राइंग रूम में नंगी तस्वीरों का रहना फैशन में दाखिल हो गया है । लखनऊ के नवाबों के खिलवतगाह में वेश्या और हसीनों की तस्वीर न हो तो उनकी हुस्नपरस्ती में खामी समझी जाय । उर्दू फारसी के काव्यों का प्रधान अंग केवल शृंगार रस है । आशिकी माशूकी का दास्तान जिसमें न हो वह कोई शायरी ही नहीं है । उस भाषा के शायर इश्क को जैसे उम्दा तरह पर कह सकते हैं वैसे उम्दा और नव रसों में दूसरे रस का वर्णन उनसे न बन पड़ेगा और सो उनका इश्क बहुधा पुरुषों पर होगा, स्त्रियाँ उनकी माशूका बहुत कम पाई जाती हैं । हमारे देश के रामागतीवाले भद्दी पसन्द के महाजनों तथा मारवाड़ियों की दूकानों पर बनारस की बनी निहायत भद्दी देवताओं की भोंड़ी तस्वीर के सिवा और कुछ न पाइएगा जिन तस्वीरों के भद्दी चित्रकारी के सामने मानो कलकत्ते का आर्ट स्टूडियो और पूना की चित्रशाला झख मारती है । इनकी निराली पसंद के ठीक उपयुक्त ‘दानलीला’ , ‘मानलीला’ इत्यादि के आगे हम लोगों के प्रौढ़ लेख की चातुरी कब इनके मन में स्थान पा सकती है । किसी ने कहा है –
“ये गाँहक करवीन के तुम लीनो कर बीन ।“
इसी तरह प्रकृति के प्रेमियों को शांति उत्पादक वन, पर्वत, आश्रम, नदी का पुलिन, ऋतु, हरियाली आदि के चित्र पसंद आते हैं । उनके स्थान पर जाने से प्रायः ऐसे ही चित्र पाइएगा । किसी अँगरेजी के विद्वान् का कथन है-
“A picture in the room is the picture of the mind of the man who hangs it” अर्थात् कमरों में लटकी हुई तस्वीर लटकाने वाले के मन की तस्वीर है । इसी तरह पर भक्तजनों के घर जाइए तो संत महंत महापुरुषों के चित्र पाइएगा, जिनके देखने मात्र से एक अद्भुत शांति रस का उद्गार मन में आ जायगा । पालिटिक्स की मदिरा के नशे में चूर प्रसिद्ध राजनीतिज्ञों के स्थान पर क्राँमवेल बिस्मार्क सरीखे पटुबुद्धिवालों का चित्र देखिएगा । बाल विवाह की सर्वस्व नाश करनेवाली कुरीति ने हिन्दू जाति की संतानों की वृद्धि और उपचय को कहाँ तक सत्यानाश में मिलाया किस घृणित दशा में इनको पहुँचा दिया । और इस कुरीति की विषमय वायु से बच कर मनुष्य बल, पुष्टता, तेज, कांति, सौंदर्य का कहाँ तक संचय कर सकता है इस बात को प्रत्यक्ष करने के लिये हमें चाहिए कि मुराल तथा यूरोपीय देश के कमनीय बालक युवती और दृढांग पुरुषों की कुछ तस्वीरें अपनी चित्रसारी में टाँग रखें और सदैव उनको देखा करें ।
कवि और चितेरे में कहां तक डाँड़ामेड़ी या परस्पर की स्पर्द्धा है इसे हम अपने पाठकों को दरशा चुके हैं । अब इन दोनों में अन्तर केवल इतना ही है किस् सभ्यता का सूर्य ज्यों ज्यों उठता हुआ मध्याह्न को पहुंचता जाता है त्यों त्यों चित्रकारी में नई नई तराश खराश की बारीकी चौगुनी होती जाती है पर कवियों की वागदेवी जिस सीमा को पहले जमाने में पहुँच चुकी है उससे बराबर अब तक घटती ही गई यद्यपि हाल की सभ्यता, बुद्धि वैभव, शाइस्तगी के मुकाबले वह जमाना बहुत पीछे हटा हुआ था । लार्ड मेकाले ने अपने एक लेख में इस बात को बहुत अच्छी तरह पर सिद्ध कर दिखाया है । मेकाले कहते हैं कि “लोग इस सभ्यता के समय दर्शन विज्ञान और दूसरी दूसरी बुद्धि का विकास करनेवाली बातों में प्रवीणता प्राप्त कर पहले की अपेक्षा अधिक सोच सकते हैं । अनेक ग्रंथों के सुलभ हो जाने से अधिक जानते हैं सही किंतु उस अपनी सोची या जानी हुई बात को बुद्धि की अधिक पैनी आंख से देखना उस पुराने कवियों ही को आता था” इसमें सन्देह नहीं, इन दिनों के विशेषज्ञ विद्वान तर्क बहुत अच्छा कर सकेंगे जो बात गुन के तर्क की भूमिका है उसका रूप खड़ा कर देंगे । अत्यन्त साधारण बात को अपने वाग्जाल से भहाजगड्वाल कर डालेंगे, विज्ञान और शिल्प में नई नई ईजाद कर खुदाई का भी दावा करने को सन्नद्ध हो जायेँगे; पर उन कवियों की प्रतिभा स्वरूप सूक्ष्म बुद्धि की छाया भी न पा सकेंगे । जिसे उन्होंने दो अक्षर के एक शब्द में सरस और गंभीर भावपूर्ण करके प्रकट किया है, उसे ये आधे दर्जन शब्दों में भी न प्रकाशित कर सकेंगे । हमारे कवियों की पैनी बुद्धि का कारण यह भी है कि पूर्वकाल में जब हमारी समाज बालक दशा में थी उनके लिए “ज्ञातव्य विषय” जानने के लायक बात बहुत थोड़े थे । जिधर उन्होंने नजर दौड़ाई उधर ही उन्हें नए नए जानने के योग्य पदार्थ मिलते गए । बुद्धि उनकी विमल थी चित्त में किसी तरह का कुटिल भाव नहीं आने पाया था; क्योंकि समाज अब के समान प्रौढ़ दशा को नहीं पहुंची थी; इसलिये बहुत बातों में सभ्यता की बुरी हवा का झकोरा भी उन शिष्ट पुरुषों तक न पहुँच सका था । जब पात्र बड़ा होगा और जो वस्तु उस पात्र में रखी जायगी वह कम होगी तो वह वस्तु उसमें बहुत अच्छी तरह समा सकेगी । बुद्धि उनकी जैसी तीव्र और विमल थी वैसा ही मन मे उनके किसी तरह की कुटिलता और मैल न रहने से जिस बात के वर्णन में उन्होंने अपने खयाल को रुजू किया वह सांगोपांग पूरा उतरा । तात्पर्य यह कि एक कविता के लिये वह नई सभ्यता विष हो गई, दूसरी अर्थात् चित्रकारी के लिये वह अमृत का काम दे रही है । इसी से काव्य दिन दिन घटता गया और चित्रकारी रोज रोज बढ़ती गई ।
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