चन्द्रधर शर्मा गुलेरी को ‘उसने कहा था’ के कहानीकार के रूप में जाना जाता है. गुलेरी के बहुत से आलेख भी हैं. प्रस्तुत है उनका व्यंग्य आलेख जो ...
चन्द्रधर शर्मा गुलेरी को ‘उसने कहा था’ के कहानीकार के रूप में जाना जाता है. गुलेरी के बहुत से आलेख भी हैं. प्रस्तुत है उनका व्यंग्य आलेख जो आज भी सामयिक प्रतीत होता है.
चन्द्रधर शर्मा गुलेरी
1883-1922 ई0
कछुआ धर्म
मनुस्मृति में कहा गया है कि जहाँ गुरु की निन्दा या असत्कथा हो रही हो वहाँ पर भले आदमी को चाहिए कि कान बन्द कर ले या और कहीं उठ कर चला जाय। यह हिन्दुओं के या हिन्दुस्तानी सभ्यता के कछुआ धरम का आदर्श है। ध्यान रहे कि मनु महाराज ने न सुनने योग्य की कलंक कथा के सुनने के पाप से बचने के दो ही उपाय बताए र्है। या तो कान ढककर बैठ जाओ या दुम दबा कर चल दो। तीसरा उपाय जो और देशों के सौ में से नब्बे आदमियों को ऐसे अवसर पर पहले सूझेगा वह मनु ने नहीं बताया कि जूता लेकर या मुक्का तानकर सामने खड़े हो जाओ और निन्दा करने वाले का जबड़ा तोड़ दो या मुँह पिचका दो कि फिर ऐसी हरकत न करे। यह हमारी सभ्यता के भाव के विरुद्ध है। कछुआ ढाल में घुस जाता है आगे बढ़ कर मार नहीं करता। अश्वघोष महाकवि ने बुद्ध के साथ साथ चले जाते हुए साधु पुरुषों को यह उपमा दी है –
देशादनार्यैरभिभूमानान्महर्षयो धर्ममिवापयान्तम् ।
अनार्य लोग देख पर चढ़ाई कर रहे हैं ? धर्म भागा जा रहा है। महर्षि भी उनके पीछे पीछे चले जा रहे हैं। यह कर लेंगे कि दक्षिण के अप्रकाश देश को कोई अत्रि या अगस्त्य यज्ञों और वेदों के योग्य बना लें तब तक ही जब तक कि दूसरे कोई राक्षस या अनार्य उसे भी रहने के अयोग्य न कर दे - पर यह नहीं कि डटकर सामने खड़े हो जावें और अनार्यों की बाढ़ को रोकें। पुराने से पुराने आर्यों की अपने भाई असुरों से अनबन हुई। असुर असुरिया में रहना चाहते थे आर्य सप्त सिंधुओं को आर्यावर्त बनाया चाहते थे। आगे चल दिए। पीछे वे दबाते आए। बिष्णु ने अग्नि यज्ञपात्र और अरणि रखने के लिये तीन गाड़ियाँ बनाईं। उसकी पत्नी ने उनके पहियों की चूल को घी से आँज दिया। ऊखल मूसल और सोम कूटने के पत्थरों तक को साथ लिए हुए यह “कारवाँ” मूजवत् हिन्दूकुश के एकमात्र दर्रे खैबर में होकर सिन्धु की घाटी में उतरा। पीछे में श्वान भ्राज अम्भारि बम्भारि, हस्त, सुहस्त कृशन शंड, मर्क मारते चले आते थे। बज्र की भार से पिछली गाड़ी भी आधी टूट गई पर तीन लम्बी डग भरने वाले विष्णु ने पीछे फिर कर नहीं देखा और न जमकर मैदान लिया। पितृभूमि अपने भ्रातृव्यों के पास छोड़ आए और यहाँ ‘व्यस्यं वधाय’, ‘सजातानां मध्यमेष्ठाय’ देवताओं को आहुति देने लगे। चलो जम गए। जहाँ जहाँ रास्ते में टिके थे वहाँ वहाँ ? खडे हो गए। यहाँ की सुजला सुफला शस्यश्यामला भूमि में ये बुलबुलें चहकने लगीं। पर ईरान के अंगूरों और गुलों का यानी मूजवत् पहाड़ की सोमलता का चसका पड़ा हुआ था। लेने जाते तो वे पुराने गंधर्व मारने दौड़ते। हां उनमें से कोई उस समय का चिलकौआ नकद नारायण लेकर बदले में सोमलता बेचने को राजी हो जाता था। उस समय का सिक्का गौएँ थीं। जैसे आजकल लखपति करोड़पति कहलाते है वैसे तब ‘शतगु’ ‘सहस्रगु’ कहलाते थे। ये दमड़ीमल के पोते करोड़ीचन्द अपने ‘नवग्वा’ ‘दशग्वा:’ पितरों से शरमाते न थे, आदर से उन्हें याद करते थे। आजकल के मेवा बेचने वाले पेशावरियों की तरह कोई कोई सरहदी यहाँ पर भी सोम बेचने चले आते थे। कोई आर्य सीमाप्रान्त पर जाकर भी ले आया करते थे। मोल ठहराने में बड़ी हुज्जत होती थी जैसी कि तरकारियों का भाव करने में कुँजड़िनों से हुआ करती है। ये कहते कि गौ की एक कला में सोम बेच दो। वह कहता कि वाह। सोम राजा का दाम इससे कहीं बढ़कर है। इधर ये गौ के गुण बखानते। जैसे बुड्ढे चौबेजी ने अपने कंधे पर चढ़ी बालवधू के लिये कहा था कि ‘याही में बेटी और याही में बेटा’ ऐसे ये भी कहते कि इस गौ से दूध होता है मक्खन होता है यह होता है वह होता है। पर काबुली काहे को मानता। उसके पास सोम की मानोपली थी और इन्हें बिना लिए सरता नहीं। अन्त को गौ का एक पाद अर्ध होते होते दाम तै हो जाते। भूरी आँखों वाली एक बरस की बछिया में सोमराजा खरीद लिए जाते। गाड़ी में रख कर शान से लाए जाते। जैसे मुसलमानों के यहाँ सूद लेना तो हराम है पर हिंदू साहूकारों को सूद देना हराम होने पर भी देना ही पड़ता है वैसे यह तो फतवा दिया गया कि ‘पापो हि सोमविक्रयी’ पर सोम क्रय करना उन्हीं गंधर्वों के हाथ गौ बेच कर सोम लेना पाप नहीं कहला सका। तो भी सोम मिलने में कठिनाई होने लगी। गंधर्वों ने दाम बढ़ा दिए या सफर दूर का हो गया या रास्ते में डाके मारने वाले ‘वाहीक’ आ बसे, कुछ न कुछ हुआ। तब यह तो हो गया कि सोम के बदले में पूतिक लकड़ी का ही रस निचोड़ लिया जाय पर यह किसी को न सूझी कि सब प्रकार के जलवायु की इस उर्वरा भूमि में कही सोम की खेती कर ली जाय जिससे जितना चाहे उतना सोम घर बैठे मिले। उपमन्यु को उसकी मां ने और अश्वत्थामा के उसके बाप ने जैसे जल में आटा घोलकर दूध कह कर पतिया लिया था, वैसे पूतिक की सीखों से देवता पतियाए जाने लगे।
अच्छा, अब उसी पंचनद में ‘वाहीक’ आकर बसे। अश्वघोष की फड़कती उपमा के अनुसार धर्म भागा और दंड कमंडल लेक्रर ऋषि भी भागे। अब ब्रह्मावर्त ब्रह्मर्षिदेश और आर्यावर्त की महिमा हो गई और वह पुराना देश तत्र दिवसं वसेत्! युगंधरे पय: पीत्वा कथं स्वर्ग गमिष्यति!!
बहुत वर्ष पीछे की बात है। समुद्र पार के देशों में और धर्म पक्के हो चले। वे लूटते मारते तो सही बेधर्म भी कर देते। बस समुद्र यात्रा बन्द! कहाँ तो राम के बनाए सेतु का दर्शन करके ब्रह्महत्या मिटती थी और कहाँ नाव में जाने वाले द्विज का प्रायश्चित कराकर भी संग्रह बंद। वही कछुआ धर्म। ढाल के अन्दर बैठे रहो।
पुर्तगाली यहाँ व्यापार करने आए। अपना धर्म फैलने को भी सूझी ‘विवृतजघनां को विहातुं समर्थ: ?’ कुएँ पर सैकड़ों नर नारी पानी भर रहे और नहा रहे थे। एक पादरी ने कह दिया कि मैंने इसमें तुम्हारा अभक्ष्य डाल दिया है। फिर क्या था? कछुए को ढाल के बल उलट दिया गया। अब वह चल नहीं सकता। किसी ने यह नहीं सोचा कि अज्ञात पाप पाप नहीं होता। किसी ने यह नहीं सोचा कि कुल्ले कर लें, घड़े फोड़ दें या कै ही कर डालें। गाँव के गाँव ईसाई हो गए। और दूर दूर के गांवों के कछुओं को यह खबर लगी तो बम्बई जाने में भी प्रायश्चित्त कर दिया गया।
हिन्दू से कह दीजिए कि विलायती खांड खाने में अधर्म है। उसमें अभक्ष्य चीजें पड़ती हैं। चाहे आप वस्तुगति से कहें, चाहे राजनैतिक चालबाजी से कहें, चाहे अपने देश की आर्थिक अवस्था सुधारने के लिये उसकी सहानुभूति उपजाने को कहें। उसका उत्तर यह नहीं होगा कि राजनैतिक दशा सुधारनी चाहिए। उसका उत्तर यह नहीं होगा कि गन्ने की खेती बढ़े। उसका केवल एक ही कछुआ उत्तर होगा वह खाँड खाना छोड़ देगा, बनी बनाई मिठाई गौओं को डाल दे गा या बोरियों को गंगाजी में बहा देगा। कुछ दिन पीछे कहिये कि देशी खांड के बेचने वाले भी सफेद बूरा बनाने के लिए वही उपाय करते है। वह मैली खाँड खाने लगेगा। कुछ दिन ठहर कर कहिये कि सस्ती जावा या मोरस की खाँड मैली करके बिक रही है। वह गुड़ पर उतर आवेगा। फिर कहिए कि गुडअ के शीरे में भी सस्ती मोरिस के मैल का मेल है। वह गुड़ छोड़कर पितरों की तरह शहदमधु खाने लगेगा या मीठा ही खाना छोड़ देगा। वह सिर निकाल कर यह न देखेगा कि सात सेर की खांड छोड़कर डेढ़ सेर की कब तक खाई जायगी। यह न सोचेगा कि बिना मीठे कब तक रहा जायगा। यह नहीं देखेगा कि उसकी सी मति वाले शरबत न पीने वाला की संख्या घटती घटती दहाइयों और इकाइयों पर आ जा रही है। वह यह नहीं विचारेगा कि बन्नू से कलकत्ते तक डाक गाड़ी में यात्रा करने वाला जून के महीने मे झुलसते हुए कंठ को बरफ से ठंडा बिना किए रह नहीं सकता। उसका कछुआपन कछुआ भगवान् की तरह पीठ पर मंदराचल की मथनी चला कर समुद्र से नए नए रत्न निकालने के लिये नहीं है। उसका कछुआपन ढाल के भीतर और भी सिकुड़ कर घुस जाने के लिए है।
किसी बात का टोटा होने पर उसे पूरा करने की इच्छा होती है, दु:ख होने पर उसे मिटाना चाहते हैं। यह स्वभाव है। अपनी अपनी समझ है। संसार में त्रिविध दु:ख दिखाई पड़ने लगे। उन्हें मिटाने के लिए उपाय भी किए जाने लगे। ‘दृष्ट’ उपाय हुए। उनसे संतोष न हुआ तो सुने सुनाये (आनुश्रविक) उपाय किए। उनसे भी मन न भरा। साख्यों ने काठ कड़ी गिन कर उपाय निकाला बुद्ध ने योग में पक कर उपाय खोजा। किसी ने कहा कि बहस बकझक वाक्छल बोली की चूक पकड़ने और कच्ची दलीलों की सीवन उधेड़ने में ही परम पुरुषार्थ है। यही शगल सही। किसी न किसी तरह कोई न कोई उपाय मिलता गया। कछुआरे ने सोचा चोर को क्या मारें चोर की माँ को ही न मारें। न रहे बाँस न बजे बांसुरी। यह जीवन ही तो सारे दु:खों की जड़ है। लगी प्रार्थनाएँ होने –
“मा देहि राम! जननीजठरे निवासम्”, “ज्ञात्वेत्थं न पुन: स्पृशन्ति जननीगर्भेर्भकत्वं जना:”
और यह उस देश में जहाँ कि सूर्य का उदय होना इतना मनोहर था कि ऋषियों का यह कहते कहते तालू सूखता था किसी बरस इसे हम उगता देखे सौ बरस सुनें, सौ बरस बढ़- बढ़कर बोलें सौ बरस अदीन होकर रहें, सौ बरस ही क्यों, सौ बरस से भी अधिक। भला जिस देश में बरस में दो ही महीने घूम कर फिर् सकते हों और समुद्र की मछलियाँ मार कर नमक लगाकर सुखाकार रखना पड़े कि दस महीने के शीत और अँधियारे में क्या खायँगे वहाँ जीवन से इतनी ग्लानि हो तो समझ में आ सकती है पर जहाँ राम के राज में ‘अकृष्टपच्या पृथिवी पुटके-पुटके मधु’ - बिनाखेती के फसलें तक पक जायँ और पत्ते पत्ते में शहद मिले वहाँ इतना वैराग्य क्यों ?
हयग्रीव या हिरण्याक्ष दोनों में से किसी एक दैत्य से देव बहुत तंग थे। कवि कहता है –
विनिर्गतं मानदामात्ममंदिराद्भवत्युपश्रुत्य यदृच्छयापि यम् ।
ससंभ्रमेंद्रद्रुतपातितार्गला निमीलताक्षीव मियामरावती ।।
महाशय यो ही मौज ले धूमने निकले हैं। सुरपुर मे अफवाह पहुँची। बस, इन्द्र ने झटपट किवाड़ बन्द कर दिए आगल डाल दी। मानो अमरावती ने आँखें बन्द कर लीं।
यह कछुआ धरम का भाई शुतुर्मुर्ग धरम है। कहते है कि शुतुर्मुर्ग का पीछा कीजिए तो वह बालू में सिर छिपा लेता है। समझता है कि मेरी आँखों से पीछा करने वाला नहीं दीखता तो उसे भी मैं नहीं दीखता। लम्बा चौड़ा शरीर चाहे बाहर रहे आँखें और सिर तो छिपा लिया। कछुए ने हाथ पाँव सिर भीतर डाल लिया।
इस लड़ाई में कम से कम पांच लाख हिन्दू आगे पीछे समुद्र पार जा आए हैं। पर आज कोई पढ़ने के लिये विलायत जाने लगे तो हनोज रोज अज्वल अस्त। अभी पहला ही दिन है। सिर रेत में छिपा है।
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(टीप : इस व्यंग्य आलेख को संस्कृत ओसीआर के जरिए स्कैन कर स्वचालित तैयार किया गया है. संस्कृत ओसीआर से यूनिकोडीकृत करने में श्री अनुनाद व श्री नारायण प्रसाद का कनवर्टर प्रयोग में लिया गया है. शीघ्र ही इस ओसीआर व कनवर्टर के उपयोग संबंधी तकनीकी जानकारी उपलब्ध कराई जाएगी.)
सुंदर रचना है। मैंने उसने कहा था भी पढ़ी है।
जवाब देंहटाएंअनुनाद और नारायण प्रसाद के संस्कृत ओसीआर कन्वर्टर की जानकारी जल्दी प्रकाशित करें। यह बहुत ही उपयोगी चीज है।
बहुत सुंदर एतिहासिक रचना है। चेखव की कहानी 'घोंघा' की याद दिलाती है। गुलेरी जी का इतिहास और शास्त्र ज्ञान बहुत था।
जवाब देंहटाएंइस ओसीआर की तो बहुत आवश्यकता है। बहुत सा छपा साहित्य नेट पर लाने में आसानी होगी।