ब च्चे कई दिनों से घर में कुत्ता लाने की जिद्द किए बैठे थे। पर मैं था कि हर बार उन्हें कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देता। इस पगार में चार ठ...
बच्चे कई दिनों से घर में कुत्ता लाने की जिद्द किए बैठे थे। पर मैं था कि हर बार उन्हें कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देता। इस पगार में चार ठो मानुष तो पाले नहीं जा रहे हैं भाई साहब, और ऊपर से एक कुत्ता और! आधी खानी है क्या! आज तक सबकुछ मार कर जिआ साहब! अब पेट मारकर तो जिआ नहीं जा सकता,तो नहीं जिआ जा सकता ,सारा दिन भागम भाग किस लिए? आपकी तो तुम जानो, अपनी तो मुए इस पेट के लिए है, पर एक यह कमबख्त है कि जितना भरो , सुबह उठ के देखो तो पहले से भी अधिक खाली। !
उस दिन लड़के ने किताबें परे फेंकते हुए कहा,‘ पापा, कल अगर कुत्ता घर में नहीं लाए तो मैं कल से स्कूल नहीं जाऊंगा, चाहे जो हो जाए, सो हो जाए।'
मैंने बेटे को समझाने का चलता सा प्रयास किया। चलता सा इसलिए कि मुझे पता है, इकलौता है, मानने से वह तो रहा, उसे पता है कि हट फिर कर बाप को ही मानना है! और वह मानेगा भी, मानेगा नहीं तो आखिर जाएगा कहां? ये कमबख्त स्वर्ग की चाह भी हम धर्म भीरु बापों को कहीं का छोड़ कर नहीं रखती।
आखिर मुझे ही मानना था और मैं मान गया। ये तो एक कोशिश थी बंधुओ, लड़के को मनाने की। पर बाप होने के नाते मैंने फिर एक शर्त रखी,‘ बेटे कुत्ता ले आएंगे, पर जरा महंगाई कम हो जाए।'
‘अगर पापा महंगाई कम नहीं हुई तो?'
‘ तो डीए की किश्त का इंतजार कर लेते हैं , इधर सरकार ने डीए की किश्त जारी की और उधर घर में आटे से पहले कुत्ता न लाऊं तो नाई के सबसे खुंडे उस्तरे से मेरी बची हुई मूंछें भी काट देना, नरक मिले जो चूं भी करूं तो।' लड़का अभी थोडा. सा संस्कारी है सो, मान गया।
और लो जनाब! अगली सुबह अखबार ने खबर मुंह पर दे मारी कि महंगाई की दर में भारी गिरावट आ गई। बेटे ने आव देखा न ताव और अखबार लिए मेरे कंधे पर,‘ पापा, आज तो कुत्ता हो जाए बस!'
‘ आ जाएगा बेटे, पहले महंगाई की इस गिरी दर को लाले की दुकान तक तो आने दे । सच कहता हूं,ज्यों ही महंगाई की गिरी दर लाले की दुकान पर पहुंची,उसी वक्त सारे काम छोड़ कुत्ता घर में।'
‘सच!!'
‘अपने बाप पर विश्वास नहीं रहा क्या?'
‘ जब जनता को अपने नेताओं पर विश्वास नहीं तो बेटों को अपने ही क्या, किसी के बापों पर भी विश्वास नहीं रहा है । पर चलो, तुम अपने हो इसलिए तुम पर विश्वास करके एक बार रिस्क ले लेता हूं।'
‘पर कुत्ता आएगा कहां से?? विदेशी कुत्ता तो मैं खरीदने से रहा।'
‘ क्यों पापा?'
‘ तुझे कितनी बार बताऊं यार कि अब मैं स्वदेशी जागरण का सक्रिय सदस्य बन गया हूं।'
‘पर पापा, फिल्में तो विदेशी हीरोइनों वाली देखते हो, वह क्यों?'
वह तो इसलिए कि अपनी फिल्मों की हीरोइनों को मेरी बुरी नजर न लग जाए। कहना तो मैं यही चाहता था, पर चुप रहा।
‘ वैसे पापा, फार यूअर काइंड इंफारमेशन ,कुत्तों की अपने देश में भी कोई कमी है क्या! ' बेटे ने तपाक से कहा।
‘ देखो, एक बात साफ कहे देती हूं, इस घर में सब कुछ कैसा भी चलेगा पर कुत्ता ऐसा वैसा नहीं चलेगा।' अचानक पत्नी बीच में पता नहीं कहां से टपक पड़ी,‘ सड़क से कुत्ता उठा कर लाए तो मुझसे बुरा कोई न होगा। सड़क से उठाए हुए को ढो-ढोकर मैं तो थक गई हूं ,ये देश चाहे थका हो या न ।' हर पति को ऐसी ऐसी स्थिति में चुप रहना चाहिए, सो मैं भी चुप रहा।
और सहृदय पाठकों ! पिछले पंद्रह दिनों से हमारे घर में सड़क छाप कुत्ता ही डटा है। वैसे भी कुत्ता तो हर हाल में कुत्ता होता है ,चाहे स्वदेशी हो या विदेशी! कुछ चीजों के मामले में स्वदेशी या विदेशी न के बराबर मायने रखते है।
घर में कुत्ते के आने का किसी को व्यावहारिक लाभ हुआ हो या न, पर मुझे बहुत हुआ है। अगर मुझे पहले पता होता कि कुत्ता घर में रखने का इतना बड़ा फायदा होता है तो बहुत पहले कुत्ता ले आता। बेटे के कहने से पहले। जहां चार को पाल रहा हूं वहां एक और को पाल लेता।
कुत्ते के बहाने अब रोज सुबह शाम बिन नागा दिए घूमने जाना ही पड़ता है। सेहत में कुछ सुधार भी हो रहा है।
कल शाम भी रोज की तरह कुत्ता मुझे अपने साथ घुमाने ले जा रहा था कि आगे से एक अजनबी सा आता दिखाई दिया। पर जब कुत्ते ने ही उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया तो भला फिर मैं क्यों देता!
उसने एकाएक मेरे कुत्ते को घूर कर पूछा,‘ क्यों ,पहचाना मुझे?'
तो कुत्ते के बदले मैंने दुम हिलाते हुए कहा,‘ यार ,आज जब मैं अपने को ही नहीं पहचान पा रहा हूं तो तुमको पहचान कर हमें मिलेगा क्या! पर इतना तय है कि तुम मेरे ससुराल की तरफ के नहीं हो।'
‘ हम आतंकवादी हैं। 'कह वह गुर्राया।
‘वर्किंग या एक्स?'
‘क्या मतलब?'
‘मतलब ये कि एक्स चाहे यमराज ही क्यों न हो ,हम उससे भी बात करना मुनासिब नहीं समझते। इस संसार में चमचागीरी तो बस, चमकते सूरज की ही होती आई है और होती भी रहनी चाहिए,यही संसार का सबसे बड़ा सत्य है !' मेरे यह कहने पर बड़ी देर तक वह डिसाइड नहीं कर पाया कि वह किस वर्ग का आतंकी है।
चुप्पी तोड़ने के लिए मैंने ही उससे फिर पूछा,‘ अच्छा, तो ये बताओ कि तुम किस श्रेणी के आतंकवादी हो?'
‘मतलब?' वह हकलाया सा।
‘मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि तुम सामान्य वर्ग के आतंकवादी हो , ओबीसी के हो या बीसी,मानसिक अपंग श्रेणी के हो?'
‘मानसिक अपंग श्रेणी का कह दूं तो क्या कर लोगे मेरा?' उसकी खीझ देखने लायक थी।
‘बुरा मत मानना यार, हम होते ही अधिकतर इसी श्रेणी से हैं।'मेरे श्रीमुख से यह सुन वह कुछ नार्मल हुआ।
‘एक बात और बता दो?'
‘क्या?' उसने सहमते हुए कहा।
‘ तो तुम हो किस धर्म से?'
‘व्हाट डू यू मीन? आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता।' वह चीखने ही वाला था पर साथ में खड़े कुत्ते को देख सहमा।
‘यार चौड़े क्यों होते हो! बिना धर्म के तो यहां धर्म भी नहीं। और हम तो यार धर्म के हाथों की कठपुतलियां भर हैं। जिस तरह से घोड़ा अपने खुरों में बिना नाल ठुकवाए चार कदम नहीं चल सकता उसी तरह इस संसार में भी अपने दिमाग में धर्म की नाल ठुकवाए बिना जीव एमएम भी भर नहीं चल सकता। यहां किसी का धर्म हो या न पर आतंकवादियों का तो धर्म होता ही है । सच कहूं, बुरा मत मानना, अगर यहां किसी का अलग- अलग धर्म न होकर एक ही धर्म होता तो कोई भी आतंकवादी न होता।' मैंने कहा तो उसने सिर झुका लिया, कारण क्या रहा होगा, वही जाने।
‘ अच्छा तो, अब लगे हाथ ये भी बता दो कि तुम हो किस नस्ल के?'
‘ आतंकवादियों की कोई नस्लें वस्लें नहीं होतीं बीड़ु! वह तो बस खालिस आतंकवादी होता है तो बस होता है।' उसने गर्व से सीना फुलाया,पर कुत्ता चुप रहा। सब्सिडी का राशन खा खा कर सभी का ऐसा ही हाल हो जाता है।
‘ होती हैं यार! होती हैं। ये देख, जब मेरे साथ चल रहे इस कुत्ते की भी सैंकड़ों नस्लें हैं तो फिर हमारी एक ही नस्ल, बात कुछ हज्म नहीं हो रही दोस्त। अच्छा चलो बताओ, तुम दफ्तर में आतंक फैलाने वाले आतंकी हो या बाजार में आतंक फैलाने वाले आतंकी ! तुम संसद में सत्र के दौरान कुर्सियां एक दूसरे पर फेंकने वाले आतंकी हो या मुहल्ले के नल के पास बेकार का आतंक खड़ा करने वाले आतंकी। तुम पेपर नालायकों को बेच मेधावी छात्रों में आतंक फैलाने वाले आतंकी हो या फिल्म के हाल की खिड़की पर आतंक मचाने वाले आतंकी। तुम ससुराल में आतंक मचाने वाले आतंकी हो या केवल अपने ही घर में मेरी तरह हो हल्ला खड़ा करने वाले आतंकी। वैसे तो आतंकियों की और भी बहुत सी नस्लें हैं पर तुम फिलहाल इनमें से किस नस्ल के आतंकवादी हो!'
‘मतलब!!' कह वह अपने सिर के बाल नोचने लगा।
‘मतलब ये कि․․․․․ अच्छा तुम विदेशी नस्ल के हो या फिर स्वदेशी हो ! पर स्वदेशी तो तुम यार लगते नहीं।'
‘ हम तो सिर पर कफन बांध मरने मारने निकलने वाली नस्ल के आतंकी हैं बस।'
‘ सिर पर मरने मारने के लिए कफन बांध निकलने की बजाय जिओ और जीने दो के लिए दिमाग पर कफन बांध निकलो तो देखो कितना मजा आता है। एक बार बस आजमा कर तो देखो! '
कुछ देर तक सोचते रहने के बाद उसने कहा,‘ बात तो जच गई पर मैं पूछ कर बताता हूं।'
‘किससे??'
‘अपने आका से।' कह उसने जेब से मोबाइल निकाल अपने आका को नंबर मिलाया एक बार ,दो बार․․․ सौ बार ․․पर आका है कि बात नहीं कर रहा।
․․․․․․․․ये आका फोन क्यों नहीं उठा रहा है भाई साहब!
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अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड
नजदीक वाटर टैंक, सोलन-173212 हि․प्र․
ईमेल - a_gautamindia@rediffmail.com
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