ज ब मैं दफ्तर पहुँचा तो पूरे दफ्तर में हडकम्प मचा हुआ था। सब कुछ अस्त-व्यस्त था। दफ्तर में जलजला आया हुआ था। बडे़ साहब तमतमाये हुए थे छोट...
जब मैं दफ्तर पहुँचा तो पूरे दफ्तर में हडकम्प मचा हुआ था। सब कुछ अस्त-व्यस्त था। दफ्तर में जलजला आया हुआ था। बडे़ साहब तमतमाये हुए थे छोटे साहब की सिट्टीपिट्टी गुम थी। लेखाधिकारी को सांप सूघं गया था। बाबू लोग चुपचाप सिर झुकाये हुए फाइलों के कागजों में आंकड़ों की खेती में व्यस्त थे या व्यस्त दिखने का बहाना कर रहे थे। मैंने अपनी सहयोगिनी मिसेज राघवन से पूछा, आखिर माजरा क्या हैं। तुम्हें नहीं मालूम, उन्होनें मेरी मासूमियत पर दया दिखाते हुए कहा दफ्तर में केन्द्र से आडिट पार्टी आई हुई है। एक ए. ओ. दो डबल ए. ओ. और कर्मचारी। सब के सब मिलकर दफ्तर के कागजों में अन्दर की बाल की खाल निकाल रहे हैं। मैं समझ गया इसी कारण बड़े साहब का पारा चढ़ा हुआ हैं। छोटे साहब दुलत्ती मार रहे है और बाकी के लोग कराह रहे हैं।
वास्तव में किसी भी दफ्तर में आडिट पार्टी का आना एक सरकारी कर्म काण्ड है। केन्द्र की आडिट, राज्य की आडिट, सी. ए. की आडिट, इन्टरनल आडिट तथा स्वयंसेवी संस्थाओं की आडिट। आडिट एक आवश्यक सरकारी कर्मकाण्ड हो गया हैं। कभी कभी किसी गरीब इमानदार कर्मचारी का श्राद्ध भी आडिट के बहाने कर दिया जाता हैं। आडिट पार्टी मेमो देती है। जवाब लेती हैं। फिर मेमो देती हैं। फिर जवाब लेती हैं, यह मेमो और जवाब का सिलसिला एक दो महीनों तक चलता है, फिर आडिट रिपोर्ट बनती हैं। पेरा बनते हैं, पेरा ड्रोप होते हैं नई रिपोर्ट बनती हैं और आडिट पार्टी किसी दूसरे दफ्तर में हड़कम्प मचाने के चल पडती हैं। यह सतत चलने वाली प्रक्रिया हैं।
आडिट पार्टी के लोग बहुत जानकार, विशेषज्ञ होते हैं, वे लिफाफा देखकर मजमून भांप लेते हैं। कई बार वे ऐसे ऐसे मेमो देते है कि दफ्तर में साहब की नाक में दम हो जाता है। अफसरों द्वारा दिये गये स्पष्टीकरणों को वे असंतोष जनक करार देकर नये मेमो बना देते हैं। आडिट पार्टी के रहने, खाने, ठहरने, नाश्ते, लाने ले जाने की माकूल व्यवस्था नहीं होने पर मेमो को पेरा में बदल दिया जाता हैं। हर दफ्तर में इस कार्य हेतु विशेष बजट रखा जाता है।, खाना-चाय, नाश्ता, सांयकालीन आचमन, तंदूरी मुर्गा, महंगी शराब, सिनेमा से आडिट पार्टी का सत्कार करने वाले दफ्तरों पर आडिट पार्टी की गाज ज्यादा नहीं गिरती हैं।
जो दफ्तर मुर्ग मुस्सलम, शराब व शबाब की व्यवस्था नही करते हैं, उन दफ्तरों की आडिट रिर्पोट खराब हो जाना लाजिमी होता हैं। हमारे दफ्तर के भी बुरे दिन आ गये थे। एक मीटिंग में बड़े साहब के कक्ष में मिठाई, नमकीन, काफी, आदि के बिलों केा आधार बनाकर मेमो टिका दिया गया था। उस मिटींग में कुल सदस्य पांच थे मगर मिठाई पांच किलो आई थी। आडिट पार्टी ने स्पष्ट कह दिया पांच आदमी पांच किलो मिठाई नहीं खा सकते। वैसे आडिट पार्टी भी सच ही कह रही थी, क्योंकि कि मिठाई का सेवन तो बाबुओं और चपरासियों ने किया था, अफसोस केवल इस बात का था कि बाबू चपरासी मीटिंग के सदस्य नहीं थे। मामला बड़े साहब तक पहुँचा, बड़े साहब ने आडिट पार्टी के मुखिया को अपने कक्ष में बुलाया, सम्मान से बिठाया और दोनो में पता नहीं क्या बात हुई कि यह मेमो निरस्त हो गया। हां कुछ दिनों बाद उस आडिट पार्टी के मुखिया के लडके को दैनिक श्रमिक के रूप में कुछ समय के लिए लगा दिया गया।
आडिट पार्टी कभी कभी ऐसे बिन्दु ढूंढकर लाती हैं कि न भूतो न भविष्यति। एक बार हमारे दफ्तर की आडिट पार्टी ने मेमो दिया कि मिनरल वाटर की दस बोतलें एक व्यक्ति एक दिन में कैसे पी सकता हैं ? बात ठीक थी, मगर क्या करे, एक व्यक्ति के लिए जो पानी आता है उसे पूरा दफ्तर पीता है। आडिट पार्टी को भी मिनरल वाटर पिलाया गया तब जाकर बात बनी।
लोग बुक का अध्ययन आडिट वाले बड़े ध्यान से करते हैं। अक्सर साहब के घर से दफ्तर की दूरी को सेन्टीमीटरों में नाप कर लोग बुक में गड़बडी निकालते हैं। आडिट वाले रिकवरी के मामलों में बड़े उस्ताद होते हैं। व्यक्तिगत रिकवरी करने के बजाय वे सामूहिक रिकवरी में ज्यादा रूचि रखते हैं। आपस में एक दूसरे से वैयर रखने वाले कर्मचारी इस मौके पर एक दूसरे के खिलाफ आडिट वालों को सूचना देते है। यूनियनों के अध्यक्षों की इन दिनों बन आती हैं, वे एक दूसरे के मामलों को आडिट तक पहुँचाने का परम प्रिय खेल खेलते है। आडिट वालों को मुफ्त में मजा मिल जाता है। वे नित नये मेमो बनाते हैं।
आप पूछ सकते हैं आखिर आडिट की आवश्यकता क्या है ? भाईजान सीधा सा जवाब ये है कि आडिट से ही तो पता चलता हैं कि सरकार का रूपया सही जगह पर खर्च हुआ है या नहीं। योजना का पैसा योजना में चला जाता है और आडिट वाले देखते ही रह जाते हैं।
आडिट के द्वारा ही देश की प्रगति, विकास आदि का पता चलता है। आडिट वाले ही संसद को बताते है कि देश में सब कुछ ठीक ठाक चल रहा हैं, कहीं कोई गड़बड़ी नहीं हैं मगर हर दफ्तर का अधिकारी जानता है कि गडबड़ कहा है क्यों है और कैसे हैं ?
हर छोटा साहब बड़े साहब को सब ठीक है, कहता है और देश की प्रगति का आडिट होता रहता है। कुछ दफ्तरों में बड़े साहब आडिट के आते ही दौरे पर निकल जाते है और कुछ साहब लोग छुट्टी ले लेते है। एक अधिकारी तो प्रतिवर्ष आडिट के आते ही हास्पिटल में भरती हो जाते थे और हस्पताल से तभी आते थे जब आडिट चली जाती थी, वे आडिट में कभी नहीं फंसे। तो ऐसे है आडिट की माया सरकार। चलता हूं भगवन शायद आडिट ने नया मेमो भेजा हैं।
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यशवन्त कोठारी
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फोन - 2670596
अच्छा व्यंग्य ...कोठारी जी को बधाई .
जवाब देंहटाएंहेमंत कुमार
एक दम सटीक बात लिखी है , ऐसा ही होता है, पर ये सिस्टम हमारे यहाँ उतना सफल नही होता,हर आडिट मे बस साहब के लड़के को नौकरी ही मिल पाती है
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