उपन्यासकार खेमराज शर्मा कुछ बात/ उपन्यास सदा हरा रहेगा हिमाचल प्रदेश में आज साहित्य के क्षेत्र में खेमराज शर्मा का का ताजा उपन्य...
उपन्यासकार खेमराज शर्मा
कुछ बात/ उपन्यास सदा हरा रहेगा
हिमाचल प्रदेश में आज साहित्य के क्षेत्र में खेमराज शर्मा का का ताजा उपन्यास जिजीविषा हलचल पैदा किए हुए है। हालांकि यह उपन्यास लेखक की पहली कृति है पर समीक्षकों ने इसे एक प्रौढ़ कृति के रूप में पाया है। चर्चित साहित्यकार व समीक्षक विश्रांत वशिष्ठ को तो लगता ही नहीं कि ये उपन्यासकार की पहली कृति है। इस उपन्यास के लेखक से गत दिनों मुलाकात हुई, तय था उपन्यास के संदर्भ में बात करूंगा। प्रस्तुत है उस बातों बातों से निकले प्रश्नों के कुछ अंश उत्तर․․․
जिजीविषा लिखने की प्रेरणा आपको कहां से मिली?
किसी भी तरह के सृजन के लिए सृजनकर्ता को सबसे अधिक प्रभावित करता है उसका परिवेश, वातावरण व उसकी तात्कालिक मानसिक स्थिति। निस्संदेह मुझे भी मेरे परिवेश ने जिजीविषा की रचना के लिए प्रेरित किया। पिछले पंद्रह वर्षों में मैंने अपने कार्य क्षेत्र में जो उतार चढ़ाव देखें, उन्होंने मुझे इस उपन्यास की रचना के लिए प्रेरित किया।
एक लंबे अर्से से उच्च शिक्षण संस्थान में कार्यरत होने से मुझे शिक्षार्थियों की मनोदशा को जांचने परखने का अवसर प्राप्त हुआ। आज से बीस वर्ष पहले के शिक्षार्थी की अपने भविष्य को लेकर जो निश्चिंतता थी आज के शिक्षार्थी में उसका नितांत अभाव है। शिक्षा की अंतिम उपाधि प्राप्त करने के बाद भी वह आज अपने भविष्य के प्रति आश्वस्त नहीं है। जिजीविषा की रचना के पीछे यह एक कारण था।
दूसरा कारण बना देहात में अपने गांव व इसके आस पास के गांवों के अल्प शिक्षित युवाओं की मानसिक स्थिति। ये अपने परम्परागत स्थापित व्यवसायों को अपनाने में आज हीनता महसूस करते हुए अपने भविष्य के प्रति उदासीन हो गए हैं। ये या तो गांव में आवारा पड़े रहता चाहते हैं या फिर शहर की ओर पलायन की व्यग्रता में रहते हैं। मैं समझता हूं, यह स्थिति पहले वाली स्थिति से ज्यादा विकट है। जहां तक उच्च शिक्षित बेरोजगार के लिए अनिश्चितता की स्थिति का प्रश्न है, यह स्थाई नहीं है। देर सवेर उसे अपने स्तर या इसके आस पास का सरकारी अथवा गैर सरकारी रोजगार मिल ही जाता है। जबकि देहात से आया युवा अधिक की चाह में शहर में आकर भटक कर रह जाता है। शहर की वास्तविकता से सामना होते ही उसे अपने वे सपने धराशायी होते नजर आते हैं जिन्हें वह संजोकर यहां लाया था। देहात वह जाना नहीं चाहता, वस्तुतः वह दोराहे पर पहुंच जाता है।
इस स्थिति से मुक्ति के लिए अब इस भटके हुए युवा वर्ग को एक निस्वार्थी एवं समर्पित मार्गदर्शक की आवश्यकता है। जिजीविषा में ऐसे ही मार्गदर्शक के इर्द गिर्द सारा कथानक घूमता है।
जिजीविषा में मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति की अभिव्यक्ति किन किन स्तरों पर हुई है?
जिजीविषा विशुद्ध रूप से मानवीय संवेदनाओं का उपन्यास है। इसमें शहरी एवं ग्रामीण तथा निर्धन एवं सम्पन्न दोनों तरह के समाजों के व्यावहारिक जीवन को चित्रित करने का गम्भीर मनोयोग से प्रयास किया गया है। नायक तथा नायिका बिल्कुल असमान समाज से संबंधित है। नायक जहां अत्यंत निर्धन समाज से संबंधित है वहीं नायिका देश के गिने चुने धनाढ्य परिवारों में एक से संबंधित है। लेकिन इनका सामाजिक रिश्ता जिस सहजता से प्रगाढ़ होकर अपने लक्ष्य की प्राप्ति करता है उसमें कुछ भी असामान्य नहीं लगता। गावों में आपसी भाईचारा जो आज कहीं गुम सा हो गया है उसको फिर से पटरी पर लाने का प्रयास किया गया है। महानगरीय जीवन के दमघोटू वातावरण का चित्रण यह दर्शाता है कि वहां का सबकुछ उजला उजला सा दिखने वाला वास्तव में वैसा है नहीं।
अपने उपन्यास को आप किन किन वैचारिक कड़ियों के रूप में देखते हैं?
जिजीविषा को एक साथ विभिन्न श्रेणियों में रखा जा सकता है। यह यर्थाथवाद, आदर्शवाद, समसामायिक व मार्क्सवाद जैसी विचारधारा का मिश्रण है। वास्तविकता यही है कि आज हमारा समाज ही नहीं बल्कि समस्त भूमंडल विकराल समस्याओं से आक्रान्त है। मनुष्य की स्वार्थलोलुपता जिस तरह से अपना विस्तार करती जा रही है उसे देख कर यह कतई नहीं लगता कि इन समस्याओं का कभी हल निकल पायेगा। वस्तुस्थिति को देखते हुए इस स्वार्थलोलुप समाज में से ही किसी को जन्म लेना पड़े.गा जो निस्वार्थ एवं सर्वजन हिताय का आदर्श स्थापित करने के लिए कृतसंकल्प हो। समय की यही मांग है। ऐसा होने पर ही पृथ्वी पर जीव जाति के दीर्घ अस्तित्व की खुशफहमी की बात की जा सकती है।
उपन्यास में अपनी बात को कहने के लिए कौन सी शैली आपको बेहतर लगी?
जिजीविषा की रचना विश्लेषणात्मक, वर्णात्मक एवं संवाद शैली में की गई है। मैंने प्रत्येक शैली का प्रयोग कथानक की आवश्यकता के हिसाब से किया है रोचकता के हिसाब से किया है। इससे पहले कि एक शैली में प्रसंग की दीर्घता खलने लगे, दूसरी शैली का प्रयोग करके रोचकता को बनाए रखने का मेरा भरपूर प्रयास इस उपन्यास में रहा । इसमें मैं कितना सफल रहा, ये तो पाठक ही बता सकते हैं।
उपन्यास की उपादेयता आपकी नजरों में क्या रही?
मैं समझता हूं, हमारी वर्तमान सामाजिक परिस्थिति में यह उपन्यास एक दिशा निर्धारित कर सकता है। एक उपयोगी दिशा। लेकिन इसके लिए हमारे समाज के विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों को एक संकल्प के साथ आगे आना पड़ेगा। राजनेता को निस्वार्थ भाव से मार्गदर्शक बन कर आगे आना पड़ेगा। उच्च शिक्षित को आगे आना पड़ेगा। उसे अपना अर्जित ज्ञान अपने तक ही सीमित नहीं रखना होगा। उसकी शिक्षा की सही अर्थों में पूर्णता तभी मानी जाएगी जब उसके आलोक से जरूरतमंद लाभान्वित होंगे। जो युवा बेरोजगारी से पीड़ित है उन्हें इस यथार्थ को समझ लेना चाहिए कि यह समस्या अपने यहां ही नहीं दुनिया के सभी देशों में है, और यह हमेशा रहेगी भी। किसी भी देश में सबके लिए रोजगार कभी उपलब्ध हो ही नहीं सकता। इस सच्चाई को जानते हुए भी इसके पीछे भागते रहना समझदारी नहीं । समझदारी इसी में है कि वर्तमान में उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करके स्वरोजगार को अपनाने का निश्चय किया जाए। सबके लिए रोजगार अपने देश में ही नहीं दुनिया के किसी भी देश में उपलब्ध नहीं हो सकता। स्वरोजगार में सम्मान भी है और संतुष्टि भी, क्योंकि अकर्मण्यता की स्थिति में तो कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। देश के बड़े घरानों को आगे आना पड़ेगा। उनका एकमात्र उद्देश्य केवल लाभ कमाना ही नहीं होना चाहिए। उन्हें अपनी अकूत दौलत का कुछ भाग जन कल्याण के लिए निर्धारित करना चाहिए क्योंकि उनकी संपन्नता समाज की ही देन है।
इस उपन्यास में औपन्यासिक तत्वों की बात करें तो?
जिजीविषा में औपन्यासिक तत्वों का निर्वहन किया गया है। कथानक वर्तमान सार्वभौमिक समस्याओं के यथासंभव ठोस समाधानों को लेकर आगे बढ़ता है इसलिए रोचकता बनी रहती है।
उपन्यास का नायक ‘मीत' उदात्त्ा, विशाल हृदयी, सक्षम एवं समझदार है। इसका चरित्र भास्कर की मानिंद उभर कर सामने आता है। अन्य सहायक चरित्र भी अपनी अपनी भूमिका के साथ न्याय करते हैं। राजनेता भवानी प्रसाद अपने दृढ़ संकल्प से पाठक को अभिभूत कर देता है। हालांकि वर्तमान दौर के राजनेताओं में ऐसे चरित्र की छाया मात्र भी नहीं है लेकिन ऐसा चरित्र आज की प्राथमिकी है। ऐसे चरित्र की प्रेरणा से ही मीत जैसे नायक का जन्म संभव है। मां सावित्री, ममता की मूर्तिमान दिखती है। नायिका कल्याणी नए स्थान पर नए वातावरण में अपने को व्यवस्थित करने का स्तुत्य प्रयास करती है और वह इसमें सफल भी रहती है। खलनायक के रूप में यहां कोई व्यक्ति विशेष, समुदाय विशेष अथवा कोई विचार धारा नहीं है। खलनायक का रोल निभाया है वास्तविक परिस्थितियों ने जो विपरीत हो चुकी है। इनसे पार पाने के लिए संयम व समझदारी की आवश्यकता होती है। नायक यही सब करता है। इसलिए जिजीविषा में कोई खास किस्म की टकराहट नहीं है। इसमें एक समरसता है जो अपने आस्वादन से पात्रों के चरित्र को उत्तरोत्त्ार आलोकित करती जाती है। ।
क्या ये उपन्यास हमेशा वर्तमान बना रहेगा?
हां, वर्तमान संदर्भ में यदि जिजीविषा का आकलन किया जाए तो इसमें हर वक्त वर्तमान वैश्विक स्थिति का प्रतिबिंब नजर आयेगा। बात इतनी सी है कि हम स्वार्थी हो गए हैं। आने वाले वर्तमान में भी रहेंगे ही। बातें जितनी बड़ी करनी हो कर लीजिए। आज के समय में दूसरे को तो दूसरे को, अपने को भी स्वार्थी कहना इतना आम हो गया है कि इसकी ओर काई ध्यान ही नहीं देता। हमारी वर्तमान समस्याओं के मूल में यही स्वार्थ है। ऐसे में किसी भी वर्तमान में यदि समस्याओं से निजात पानी है तो हर वर्तमान में स्वार्थ का त्याग करना होगा। आज प्रश्न किसी व्यक्ति विशेष या समुदाय विशेष के ऊपर त्याग की जिम्मेवारी सौंपने का नहीं है, इसमें सामूहिक रूप से सबको अपनी अपनी हिस्सेदारी निभानी होगी। इसके अतिरिक्त, वर्तमान विपरीत हालातों से पार पाने का कम से कम मुझे तो कोई उपाय नजर नहीं आता। आज चाहे कोई कितना ही शक्तिशाली अथवा संपन्न क्यों न हो उसे इस भ्रम में कतई नहीं रहना चाहिए कि वह सुरक्षित है। वातावरण के प्रभाव से कोई अछूता नहीं रह सकता। और हमारा वातावरण प्रदूषित हो गया है। वायुमंडलीय वातावरण ही नहीं, हमारा सामाजिक वातावरण, सांस्कृतिक वातावरण हर तरह का वातावरण प्रदूषित हो चुका है। इन विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों से मुक्ति का एक प्रयास किया गया है जिजीविषा में। विशेष कर भूमंडलीय प्रदूषण से मुक्ति का प्रयास। मेरा यह मानना है कि हम चाहे कितनी ही परिष्कृत मशीनरी क्यों न बना लें लेकिन प्रदूषण की समस्या से निवारण में वृक्षों की उपयोगिता की बराबरी कभी नहीं कर सकते। प्रदूषण भक्षण वृक्षों का स्वाभाविक गुण है। विश्व बिरादरी यदि सच में ही प्रदूषण से मुक्ति के लिए गम्भीर है तो उसे मशीनरी की अपेक्षा ऐसे पौधों के शोध पर जोर देना चाहिए जो प्रदूषण का अधिकाधिक भक्षण करते हों। जिजीविषा ने इस दिशा में भी एक आशा कर किरण जगाई है।
हिमाचल प्रदेश में उपन्यास लेखन की गति व स्थिति के बारे में कुछ कहना चाहेंगे?
हिमाचल प्रदेश में उपन्यास की गति व स्थिति को मैं संतोषजनक हूं। सभी अपने अपने स्तर पर लिख रहे हैं । कुछेक पर नोटिस भी लिया जा रहा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में हिमाचल से ऐसे तीन ही उपन्यास हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित रहे हैं। श्री शान्ता कुमार का वृन्दा, श्री कटोच जी का पांच खण्डों में कालखण्ड तथा श्री हरनोट जी का हिडिम्ब। लेकिन ये नए नहीं, स्थापित एवं ख्याति प्राप्त लेखकों के है।
उपन्यास पर भी क्या अन्य साहित्यिक विधाओं सा पाठकीय संकट मानते हैं आप?
हां, यह सही है कि वर्तमान समय में उपन्यास के पाठकों में भी कमी आई है। खास कर सामाजिक उपन्यासों की पाठक संख्या में। कारण समाज का समाज न रहना है। इसके पीछे और भी बहुत से कारण है जिनमें प्रमुख है मनोरंजन के साधनों में बेतहाशा वृद्धि। भौतिकवादी लालसा की दौड़ में आज आदमी के पास यदि किसी चीज की सबसे ज्यादा कमी है तो वह है समय। आज आदमी थोडे. में ही बहुत कुछ पा लेना चाहता है। जब एक आध घण्टे में टीवी पर नाटक, सीरियल व फिल्मों में मनोरंजन का सारा मसाला मिल जाता हो तो फिर किताब पढ़ने का कार्य तो कोई साहसी ही कर सकता है। लेकिन यह भी सच है कि पुस्तकालयों में पाठक आज भी आते हैं, और जो आते हैं वे नियमित रूप से आते हैं। उन्हें कोई नाटक, सीरियल व फिल्म रोक नहीं पाती। यह सिलसिला यों ही चलता रहेगा। लेखन कार्य कभी रूकेगा नहीं, और सही अर्थों में जो पाठक है वह कभी डिगेगा नहीं। उतार चढ़ाव तो यात्रा का हिस्सा होते हैं।
चलते चलते ,उपन्यास में आंचलिकता भी देखने को मिलती है? इस बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
लेखक जिस परिवेश में पला बढ़ा या रहता हो, उस परिवेश के आंचलिक शब्दों का उसके लेखन में आना स्वाभाविक ही होता है। जिजीविषा का अधिकतर कथानक ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित है वस्तुतः इसमें देहाती शब्दों की बहुलता है। यथा चौंरटू, लबाणाघाट, धरोट, अलाव, चिड़न, पिठ्ठू, बिंदली, सुन्दरी, टणकू, खैरू इत्यादि। आंचलिक शब्दों का अपना ही सौंदर्य होता है। कथानक की रोचकता बढा.ने में इनका विशेष महत्त्व होता है। कई बार तो ऐसा भी होता है कि लाख पीछा छुड़वाने के बाद भी आंचलिकता छोड़ती ही नहीं। कई बार तो लगता है कि लिखते हुए आंचलिकशब्द का कोई पर्याय उसके बराबर दिखता ही नहीं। तब हार कर वही शब्द चलाना पड़ता है, और मैंने सहर्ष ऐसा किया भी है।
----
डॉ अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड
नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन- 173212 हि․प्र․
E mail- a_ gautamindia@rediffmail.com
श्री खेमराज शर्मा के उपन्यास “जीजीविषा (जीने की लालसा)” में मैंने पाया है कि वह सभी विशेषताएं हैं जो एक अच्छे लेखन में होनी चाहिएं। स्थानीय शब्दों के प्रयोग से इसकी रोचकता बनी रहती है । लेखक ने समसामयिक मुद्दों को बखूबी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है तथा यथासम्भव कुछ एसे दृश्य भी प्रस्तुत किए हैं जो साथ ही इन विकट परिस्थितियों से गुजरने वाले युवाओं को साहस बंधाते हुए सच्चारित्र्य और आदर्शवादिता से आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं । सच्चा लेखक एक मार्गदर्शक भी होता है और लेखक ने इसमें अपने बौद्धिक कौशल का बहुत ही अच्छा प्रयोग किया है। यथा समय रोचक प्रसंगों को जोड़ा गया है। कुछ लेखकों ने इसका कलेवर बड़ा होने का उल्लेख किया है किन्तु मैं समझता हूं कि प्रसंगों की रोचकता, कड़ियों के आपस में जुड़ाव तथा विषय-वस्तु के क्रमिक सम्प्रेषण से यह खलता नहीं । लेखक की यह पहली कृति है किन्तु प्राकृतिक दृश्यों का मनोरम चित्रण, प्रकृति को सहेजने तथा संरक्षण के प्रति लेखक की वचनवद्धता इसी से सिद्ध हो जाती है कि इसके लिए उन्होंने एक वैज्ञानिक नायक का ही चयन किया । उच्च शिक्षा प्राप्त नायक बेरोजगार होता हुआ भी गावं मे रहकर भी वैज्ञानिक तौर तरीकों से जहां अपना जीविकोपार्जन करता है वहीं एक ओर अपने गावं तथा देश का नाम दुनियां में रौशन करता है तथा दूसरी ओर प्रकृति मित्र की भी भूमिका निभाता है । गावों से शहरों की ओर होने वाले पलायन की समस्या को भी उन्होंने अपनी कल्पनाओं से ओझल नहीं होने दिया है। मेरे विचार में लेखक ने समाज के प्रति अपने दायित्व का निर्वहन सही प्रकार किया है । यह उपन्यास युवाओं के लिए एक मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है। आज छोटे पर्दे पर अनेकों धारावाहिक प्रसारित किए जाते हैं किन्तु प्रकृति,वातावरण, अनुशासन तथा समाज के प्रति जिम्मेदारी से युक्त इस प्रकार की विचारधारा के समाज में सम्प्रेषण के लिए अभी तक कोई लड़ीवार अथवा धारावाहिक नहीं बना । लेखक की यह कृति अपना निहित सन्देश प्रचालित करने में पूर्णतया सक्षम है ।
जवाब देंहटाएं