‘इससे खूबसूरत आवाज न पहले सुनी गई और न ही इतना सुन्दर मुखड़ा देखा गया.’, ‘हमने अब तक जितनी सिनेमा स्टार देखी हैं देविका रानी उनमें सर...
‘इससे खूबसूरत आवाज न पहले सुनी गई और न ही इतना सुन्दर मुखड़ा देखा गया.’, ‘हमने अब तक जितनी सिनेमा स्टार देखी हैं देविका रानी उनमें सर्वाधिक कोमल और मोहक हैं.’, ‘देविका रानी प्यारी हैं, हॉलीवुड की ढर्रे में बंधी सुनहरे बालों वाली सुन्दरियों उनके सामने पानी भरती हैं.’ गुलामों की किसी संतान की शायद ही कोई इतनी तारीफ करता हो. हाँ उस समय भारत गुलाम था और देविका रानी की यह पहली फिल्म थी परंतु लन्दन के अखबार उनकी प्रशंसा से रंगे हुए थे. देविका रानी हिन्दी रजत पटल का एक ऐसा शुरुआती जगमगाता सितारा हैं जो कभी धूमिल नहीं पड़ेगा.
यह ‘अछूत कन्या’ विश्वकवि रवीनद्रनाथ ठाकुर की रिश्तेदार थी, उनकी बहन सुकुमारी देवी की पोती और उनका पूरा नाम देविका रानी चौधुरी था. उनके पिता उस समय के जाने-माने सर्जन एम. एन. चौधुरी थे. उनकी माँ का नाम लीला चौधुरी था. उनके पिता प्रथम इंडियन सर्जन जनरल ऑफ मद्रास थे. देविका रानी का जन्म ३० मार्च १९०८ में आंध्र प्रदेश के वाल्टेयर नामक स्थान में हुआ था. दक्षिण भारत में जन्मी यह कन्या नौ साल की उम्र में पढने के लिए इंग्लैंड भेज दी गई. जहाँ वह अपनी प्रतिभा और सुन्दरता के कारण शीघ्र ही अंतरराष्ठ्रीय कलाकारों की टोली में शामिल हो गई. इस टोली में कलाकार, चित्रकार, अभिनेता आदि तरह-तरह के लोग थे. देविका रानी को स्कॉलरशिप मिली थी और उन्होंने रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रमेटिक आर्ट, रॉयल एकाडमी ऑफ म्यूजिक में शिक्षा ग्रहण की और आर्किटेक्चर का अध्ययन भी किया. जल्द उन्हें एक टेक्स्टाइल कम्पनी में पेसली डिजाइनर के रूप में काम मिल गया जहाँ वे काफी सफल थीं. पर भाग्य उन्हें कहीं और किसी और दिशा में ले जाना चाहता था.
वे फिल्म निर्माता हिमांशु राय से मिली जिन्होंने उन्हें एक इंडो जर्मन सह निर्माण का प्रस्ताव दिया. ‘लाइट ऑफ एशिया’ के सेट्स तैयार करने का यह प्रस्ताव शीघ्र शादी के प्रस्ताव में बदल गया और देविका रानी चौधुरी देविका रानी राय बन गई. उनका प्यार से पुकारने का नाम ड्रैगन लेडी था. शादी के लिए वे भारत आए थे. इस तरह टेक्सटाइल की दुनिया से वे फिल्म की दुनिया में पहुँच गई. देविका रानी की तरह ही हिमांशु का जन्म भी कलकत्ता के एक धनी मानी घर में १८९२ में हुआ था और वे पढने लिखने के बाद वकालत करने लन्दन पहुँचे थे. कलकत्ता यूनिवर्सिटी से उन्होंने लॉ की परीक्षा पास की थी. पर होनी को कुछ और मंजूर था. वे लन्दन में प्रारम्भ से नाटकों में रूचि लेने लगे और इस शौक के कारण बिपिन चंद्र पाल के पुत्र निरंजन पाल से उनकी मित्रता हो गई. निरंजन लिखते थे और हिमांशु अभिनय करते थे. उन्होंने ‘चू चिन चाऊ’ तथा ‘द गॉडेस’ नामक संगीत नाटकों में अभिनय किया. वे सदा बडे-बडे ख्वाब देखते थे. जब फिल्म बनाने का विचार किया तो इरादा था कि वे दुनिया के सब महान धर्मों पर फिल्म बनाएंगे और इसी विचार से उन्होंने १९४२ में म्यूनिख की यात्रा की और वहाँ एमेल्का फिल्म कम्पनी के अधिकारियों से मिलकर अपनी योजना उन्हें बताई. इस सौदे में पूँजी और कलाकार का इंतजाम हिमांशु को करना था और प्रोसेसिंग तथा एडिटिंग एमेल्का वालों को.
उस जमाने में उन्होंने भारत में इसके लिए नब्बे हजार इकट्ठे किए जो उस जमाने में भी एक बडी राशि थी. इस तरह ‘लाइट ऑफ एशिया’(प्रेम सयास), का निर्माण हुआ. देविका रानी ने इसके सेट को डिजाइन किया था. इसके यूरोप वितरण के अधिकार एमेल्का के पास थे. फ्रांज ऑस्टन के निर्देशन में बनी इस फिल्म में स्वयं हिमांशु गौतम बुद्ध की भूमिका में थे और नायिका एक एंग्लो इंडियन युवती थी. लेखन निरंजन पाल ने किया था. वियना, बुदापेस्ट, वेनिस लन्दन जिनेवा में अच्छा रिस्पांस मिला पर भारत में खास न चली. उन्होंने तुरंत एक और फिल्म ‘शिराज’ का अनुबंध कर लिया. एक और फिल्म कम्पनी यूफा के साथ उन्होंने ‘ए थ्रो ऑफ डाइस’ फिल्म का अनुबंध किया. इनके नायक वे स्वयं थे. ‘ए थ्रो ऑफ डाइस’ की नायिका देविका रानी थीं और यही से दोनों की प्रेम कहानी प्रारम्भ हुई.
१९३३ में वे हिमांशु राय के संग ‘कर्मा’ फिल्म में नायिका बनीं जो एक एंग्लो इंडियन सह निर्माण था जिसे हिन्दी और इंग्लिश दोनों भाषाओं में फिल्माया गया था. इस फिल्म का प्रीमियर लन्दन में हुआ और देविका रानी रातों-रात सितारा बन गईं. फिल्म समीक्षकों ने उनकी सुन्दरता और अभिनय की संवेदनशीलता से अभिभूत हो कर उनकी तारीफों पुल के अंतरराष्ठ्रीय स्तर पर बाँधे. उन्हें हॉलीवुड से काम करने के प्रस्ताव मिलने लगे पर उन्होंने उन प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया. वैसे भारत लौटने के फैसले से वे खुश न थीं दोनों में इस बात को लेकर विवाद भी चला पर अन्ततः वे पति की बात मान गई और पति के साथ भारत लौट आने का निश्चय किया. उन लोगों ने यह निश्चय एक खास उद्देश्य से किया था. वे भारत में इंडियन सिनेमा की नींव डालना चाहते थे. और उन्होंने यह किया. भारत आकर उन लोगों ने बाम्बे टाकीज का निर्माण किया. बाम्बे टाकीज अपने आप में एक दास्तान है. वैसे इस दौरान भारत में बम्बई प्रांत में ही करीब अस्सी से ज्यादा फिल्म कम्पनियाँ थीं पर बाम्बे टाकीज की बात निराली है. उन दिनों सब कम्पनियों के पास छोटे-बडे अपने स्टूडियो हुआ करते थे. इस दिशा में तकनीकी और व्यवसाय दोनों मामलों में भारत के सितारे उन दिनों बुलन्द थे.
बाम्बे टाकीज का शुभारम्भ १९३४ में हुआ. वैसे इसकी स्थापना उस समय के बम्बई के एक पिछड़े इलाके मलाड में हुई थी. यह वह समय था जब भारत गुलाम था और व्यापार पर अंग्रेजों की सत्ता कायम थी. पूँजी और प्रौद्योगिकी दोनों भारतीय के लिए आकाश के तारे थे पर इसी आकाश के तारे को तोड़ने का इरादा इस युगल का था और वे यह तारा तोड़ लाए. असल में हिमांशु को ‘एमेल्का’ और ‘यूफा’ जैसी नामी गिरानी कम्पनियों की कार्य प्रणाली को निकट से देखने का अनुभव था. इन्हीं अनुभवों के आधार पर उन्होंने इतना बड़ा जोखिम उठाने का साहस किया. उन्होंने लन्दन में फिल्म निर्माण की सूक्ष्म जानकारी का अध्ययन किया था. उन्होंने बाम्बे टाकीज का आधार सामाजिक रखा. यूफा के यहाँ देविका रानी ने एडीटिंग का काम सीखा और फिल्म निर्माण के अन्य पहलुओं का भी गहन अध्ययन किया जो बाद में उनके काम आया.
वैसे तो अपने फिल्मी जीवन में उन्होंने ‘कर्मा’, ‘जवानी की हवा’, ‘हमारी बात’, ‘जीवन नैया’, ‘अछूत कन्या’, ‘इज्जत’, ‘सावित्री’, ‘ममता’, ‘मियाँ बीवी’, ‘वचन’, ‘अनजान’ आदि करीब एक दर्जन से ज्यादा फिल्मों में काम किया. परंतु उनका नाम ‘अछूत कन्या’ के लिए अमर हो गया. बाम्बे टाकीज से पहली फिल्म बनी ‘अछूत कन्या’ जिसने हिन्दी फिल्मों को एक सदाबहार हीरो अशोक कुमार से परिचित कराया. यह फिल्म ब्राह्मण युवक और अछूत कन्या के प्रेम पर आधारित है. कहानी निरंजन पाल ने लिखी और संगीत सरस्वती देवी का था. यह फिल्म आज भी याद की जाती है. उस समय पार्श्व गायन (प्ले बैक सिंगर) का चलन नहीं था अतः उन्होंने भी अपने गाने गाए. अछूत कन्या का उनका एक गाना ‘मैं बन की चिड़िया...’ आज भी जब बजता है तो लोग संग में गुनगुना उठते हैं. अछूत कन्या गाँधी जी के विचारों से प्रभावित फिल्म थी. इसमें से ‘जीवन नैया’, ‘अछूत कन्या’, ‘जनमभूमि’, ‘इज्जत’, ‘सावित्री’, ‘निर्मला’, ‘वचन’ और ‘अनजान’ आठ फिल्में में अशोक कुमार उनके संग नायक थे.
स्त्री यदि प्रतिभाशालिनी होती है तो उसका जीवन फूलों की सेज नहीं हो सकता है यदि पति पत्नी दोनों में प्रतिभा हो तब और मुश्किल आती है ऐसी स्थिति में अक्सर स्त्री से त्याग, समर्पण की आशा की जाती है. वह सब भूल कर यदि गुमनामी को अपना ले तो समस्या तात्कालिक रूप से बाह्य तौर पर टल सकती है. रिंकी भट्टाचार्य इसका एक उदाहरण हैं. पर क्या समस्या वास्तव में समाप्त होती है? विरले ही पति पत्नी दोनों एक दूसरे के पूरक और प्रेरणा बन पाते हैं. देविका रानी जैसी बिन्दास युवती क्यों अपने पति और अपनी बनती फिल्म को बीच में छोड़ कर अपने सह-अभिनेता के साथ भाग निकली यह सोचने वाली बात है. पति के रूप में हिमांशु राय कैसे थे? क्या वे उन्हें पर्याप्त समय दे पाते थे? या देविका स्वभाव से रंगीली थीं? शायद दोनों के बीच इंग्लैंड में ही दरार पड गई थी जब देविका रानी को हॉलीवुड में काम करने का प्रस्ताव मिला और हिमांशु अपना काम करने के लिए भारत लौटने की जिद कर रहे थे. फिल्म ‘जवानी की हवा’ की शूटिंग चल रही थी उसी के सेट पर नायक-नायिका भी जवानी की हवा में बह निकले और निर्माण अधूरा छोड़ कर बीच में कलकत्ता भाग निकले. फिल्म निर्माण के दौरान फिल्म की नायिका देविका रानी नायक नजमुल हसन के संग कलकत्ता भाग गई. शशिधर मुखर्जी समझा बुझा कर उन्हें बम्बई वापस ले आए. पर क्या हिमांशु से उनके रिश्ते सामान्य हो सके होंगे? हिमांशु राय ने अपनी फिल्म पूरी करने के लिए उन्हें ले लिया था परंतु नायक हसन को दोबारा काम देने से स्पष्ट इंकार कर दिया था.
हिमांशु भी कम तनाव में न थे. हताशा, निराशा ने उन्हें मानसिक रूप से तोड़ दिया था. १९४० में हिमांशु राय की मृत्यु अकस्मात हो गई और बाम्बे टाकीज का सारा भार देविका रानी के कंधों पर आ पड़ा. देविका रानी एक कुशल प्रबंधक थीं या नहीं पर वे एक कठोर प्रबंधक अवश्य थीं. १९४० से १९४५ तक पाँच वर्ष उन्होंने बाम्बे टाकीज की देखभाल की. इस बीच यहाँ ‘पुनर्मिलन’, ‘आँखें’, ‘बंधन’, ‘झूला’, ‘नया संसार’, ‘कंगन’, ‘किस्मत’ जैसी यादगार फिल्में बनी. बाम्बे टॉकीज में बनी ‘किस्मत’ फिल्म ने एक समय सारे रिकॉर्ड तोड़े थे. यह कलकत्ता के रौक्सी सिनेमा में पूरे तीन साल हाऊस फुल चली थी. ३२ साल बाद ‘शोले’ ने इसका रिकॉर्ड तोड़ा था. पर उनकी अन्य लोगों से न पट सकी एक-एक कर सब पुराने लोग स्टूडिओ छोड़ गए. नायक, निर्देशक, एडिटर, तकनीशियन सब बाम्बे टॉकीज छोड़ गए. लोग कहते हैं कि देविका रानी का लोगों के साथ अपमानजनक व्यवहार इसका प्रमुख कारण था. देविका रानी ने स्टूडिओ बेच दिया.
पाँच साल बाद उन्होंने रूसी चित्रकार स्वेटोस्लाव रोरिच से विवाह किया और अभिनय से सन्यास ले लिया. स्वेटोस्लाव रोरिच के पिता प्रोफेसर निकोलस बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति थे जिन्होंने भारत में अपना स्थाई निवास बनाया था. साधु प्रवृत्ति के उनके पिता रोरिच ने पुरातत्व और दर्शन के क्षेत्र में बहुत काम किया था. पिता पुत्र अपनी कलात्मक रूचि के लिए जाने जाते थे. यदि इस कलात्मक रूचि के व्यक्ति की ओर देविका रानी आकर्षित हुई तो कोई आश्चर्य नहीं है. उस समय हिमांशु राय को गुजरे पाँच साल गुजर चुके थे. वे कुल्लू में रहने लगीं बाद में बंगलौर जा बसीं. उनका बाद का उनका जीवन कला को संरक्षण देने में व्यतीत हुआ. उनके दूसरे पति रोरिच की मृत्यु उनसे एक वर्ष पूर्व १९९३ में हो गई थी.
भारत सरकार ने १९५८ देविका रानी को पद्मश्री पुरस्कार दिया १९६७ में भारतीय फिल्म का सर्वोच्च पुरस्कार दादा साहेब फाल्के सम्मान मिला. १९७० में यह सम्मान पाने वाली वे प्रथम व्यक्ति थीं. इस स्वतंत्र विचार वाली सितारे की मृत्यु ८ मार्च अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के दिन १९९४ में बंगलौर में हुई. जब वे गुजरीं तो उन्हें पूरे राजकीय सम्मान के साथ विदाई दी गई. भारतीय फिल्म समीक्षकों का मानना है कि ग्रेटा गार्बो भी उनकी बराबरी नहीं कर सकती है.
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(देविका रानी चित्र – साभार http://en.rian.ru/analysis/20080330/102527477.html )
देविका रानीजी के बारे मे इतने विस्तार से जानकारी नहीं थी...आज उनके जीवन और उपलब्धियों से अवगत करने का आभार....
जवाब देंहटाएंregards
बढिया आलेख । देविका रानी के बारे में ज्यादा जानकारियां हैं नहीं । एक बात पर नज़र गयी रवि भाई, हालांकि आप गुरू हैं । पर इस पोस्ट का पर्मालिंक blog-post_1915 की बजाए रोमन में devika rani होता तो क्या शायद गूगल सर्च में फौरन सामने आती । कृपया टॉर्च दिखाएं ।
जवाब देंहटाएंयूनुस जी, आपका कहना सही है. परंतु ब्लॉगर में वर्डप्रेस जैसी पोस्ट स्लग सेट करने की सुविधा नहीं है. यदि मैं अंग्रेजी नाम दूं तो पोस्ट दो बार प्रकाशित करना होगी, जिसमें तमाम मुश्किलें हैं मेरे लिए.
जवाब देंहटाएंपर शुद्ध हिन्दी में सर्च अब चूंकि संभव है, अत: अब शायद बहुत फर्क नहीं भी पड़े.