चूँकि सुमन ने जीवन की जिम्मेदारियों को उठाना सीख लिया था । इसलिए जीवन की प्राथमिकताएँ, सिध्दान्त, लक्ष्य भी निर्धारित करने का कार्य स...
चूँकि सुमन ने जीवन की जिम्मेदारियों को उठाना सीख लिया था । इसलिए जीवन की प्राथमिकताएँ, सिध्दान्त, लक्ष्य भी निर्धारित करने का कार्य सोच-समझकर सुमन ने तय किया था । वह चाहती थी कि कहानी की तरह जिन्दगी का अच्छी होना आवश्यक है, लम्बी होना नहीं ।
पिता उसके विवाह की कहते-कहते चल बसे, तो भाइयों को बहाना मिल गया, उसकी जिम्मेदारियों से मुक्त होने का । सुमन के व्यक्तित्व की खासियत है कि वह किसी को भी अपनी नीचता पर शर्मिन्दा नहीं होने देती । इसलिए भाई यदा-कदा औपचारिकता वश विवाह की कहते तो वह साफ कहती-‘‘विवाह करना होता तो बाबूजी की आत्मा को छटपटाने न देती, तभी न कर लेती ।''
सुमन ने अपने इर्द-गिर्द के पुरूषों में एक बात पाई थी, कितना भी कलाकार पति क्यों न हो, कहीं ना कहीं उसके आदमखोर बनने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता । इससे सर्वाधिक प्रभावित उसकी पत्नी ही होती थी । इसलिए वह किसी भी पुरूष की पत्नी नहीं होना चाहती थी, क्योंकि भारत में जितना समाज उसने देखा उसमें पति का सब कुछ बचा रहता था । क्षणिक ही नष्ट होता था । इसलिए उसने अनेक कलाओं से खुद का परिवार बसा लिया था । कुछ कलाओं में वह दृष्टा थी, कुछ में दर्शक । चित्रकला, अभिनय,और लेखन में दक्षता हासिल की तो संगीत, नृत्य में विशिष्ट समीक्षक बनी । इन कलाओं के प्रारम्भिक बिन्दु से लेकर शिखर तक की प्रत्येक छोटी-बड़ी बात , कलाकारों की निजी जीवन शैली, सम्बन्धों का कला पर पड़ने वाला प्रभाव, समाज के प्रति संवेदनशील कलाकारों के प्रति समाज के अपेक्षित संवेदनशील न होने के कारण, जैसे विषयों पर सुमन सटीक टिप्पणी किया करती थी ।
सुमन ने कभी भी उस व्यक्ति से मिलने, सीखने का अवसर नहीं त्यागा जो उसे कला की ऊँचाईयों को स्पर्श करने में सहायक, अनिवार्य होता । भले ही उसे कुछ आत्मीयों, परिचितों की नाराजगी क्यों न झेलनी पड़ी हो । नतीजा जितनी प्रशंसा सुमन की कला की होती, उससे कहीं अधिक दिलचस्पी उसके निजी जीवन में लोग लेने लगे । आश्चर्य तो यह था कि बहुत से उसके नक्शे-कदम पर चलना चाहते थे, पर समाज से टकराने का अतिरिक्त साहस न होने से वे लड़कियाँ विवाह कर-‘‘गुलामी के सुख'' में लिप्त हो जाती । उन्हें अपना बर्थ-डे नहीं,
बच्चों का बर्थ-डे, कुल-देवी, हड़ताली तीज, करवा चौथ याद रहते और स्मृति पटल पर मायका एवं बचपन धूमिल होते होते एक उम्र पर जाकर मायका परियों का देश लगने लगता ।
खुद की ही तरह उसी समाज के लिए एक और प्रतिरूप पैदा कर,उसकी परवरिश करती, जो वर्तमान समाज के खोखले मूल्यों को किस्मत एवं विरासत के नाम पर खुशी-खुशी ढोता रहे ।
हम उसी समाज से डरते हैं । जिनमें वर्तमान नेता, अपराधी, भ्रष्टाचार करने वाले भरे पड़े हैं । परिवार का प्रत्येक सदस्य अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अपने ही परिवार के सदस्यों का भी इस्तेमाल करने लगा है । समाजशास्त्रीय समीकरण व्यवहार में शेष नहीं रह गये ।
इसी समाज से टकरा गई थी सुमन । वह जानती थी कि मध्यमवर्गीय जीवन में दो शामें भी एक-सी नहीं होती या एक ही शाम उम्र भर ढलती रहती है । यदि वह नाटक की रिहर्सल में जाएगी तो एक महीने में किसी ना किसी दिन उसका पति खीझ जाएगा, उसकी घर में अनुपस्थिति से । फिर किसी दिन कहेगा-‘‘ तुम एक के बाद एक कब तक नाटक करती रहोगी ?''
केवल एक ही नाटक कर रंगमंच के नए कीर्तिमान/प्रतिमान स्थापित कर सकने की आशा थी ही नहीं । यदि पति रंगमंच में रूचि रखने वाला हुआ भी तो अभिनय की श्रेष्ठता का दम्भ उनके दाम्पत्य जीवन में जहर घोलेगा । हर नाटक में उसे ही केन्द्रीय भूमिका मिले यह आवश्यक तो नहीं ।
इसीलिए सुमन जीवन का यह सफर अकेले ही तय कर रही है । ऐसा नहीं कि पुरूष मित्रों एवं प्रशंसकों की ओर से उसे मौन आमंत्रण नहीं मिले थे । पर उसने उसी शालीनता से उन्हें वहाँ से अस्वीकार किया जहाँ से वे अस्वीकृत किये जाने योग्य थे ।
उसे वैसे तो टेबल के दूसरी ओर बैठे प्रत्येक व्यक्ति से बात करना पंसद था जो सही गम्भीर जानकारी रखता हो, पर उसे मित्रता वहीं पसंद आती, जिस बिन्दु पर पुरूष उसे स्त्री मान कर व्यवहार न करें । पर उसे तो आमंत्रण ही इसलिए दिया जाता था कि वह स्त्री भी थी और सुन्दर भी ।
इसलिए वह रिहर्सल तक ही पुरूषों का साथ पसंद करती थी । पर एक दिन जब उसे रात को अचानक डर लगा । खिड़की के पल्ले
जोर से हिले और वह अन्दर तक काँप गई । इस अनुभव को उसने
अपने मन के उस भाग में संजोया, जो उसे अभिनय में मदद देता था ।
उस दिन वह बहुत लम्बी बहस में पड़ गई थी । यथार्थ या आदर्श दोनों में से किसी एक का चयन बहुत मुश्किल था, पर कला में जीवन प्रतिबिम्बित न हो तो कैसे खुद के लिए असीमित प्रशंसक लाएगी और जो जीवन जिया जा रहा है उसे देखने के लिए कौन समय नष्ट करेगा । फिर आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की बात आई इतना सन्तुलन बनाने की क्षमता हो तो धरती के स्वर्ग और मनुष्य के देवता बनने में इतनी देर ही क्यों लगती ?
सुमन अपने कार्य के प्रति कुछ अतिरिक्त सजग थी । यह अतिरिक्त सजगता ही हमारी श्रेष्ठता तय करती है । सुमन अभिनय के लिए एक ही विषय भाव पर पूर्ववर्ती, समकालीन ही नहीं, नवोदित कलाकारों का अभिनय देखती थी । परन्तु सुयश ने उसे इन भावों की संगीत में, साहित्य में प्रस्तुति की शैली को आत्मसात करने को कहा । सुयश की सलाह ने उसे अभिनय को जीवन बनाने की सहजता प्रदान की । उसके चेहरे पर भाव अनायास आने लगते । उसके अभिनय की प्रशंसा उसके मन में सुयश के प्रति सम्मान पैदा कर रही थी । सुयश उसे सलाह देकर भूल नहीं पाया था ।
सुमन कमरे में सुयश की काल्पनिक उपस्थिति का अनुभव करने लगी थी । कुछ सम्बन्ध हवा में तैरते हैं, रंग, गंध,पहचान से परे । ऐसे ही संबंध का एक सिरा सुमन की ऊँगलियों से लिपटा था और दूसरे सिरे को सुयश छू चुका था । पकड़ने की कोशिश कर रहा था, चाह कर भी पकड़ नहीं पा रहा था । इसी बीच उसे बहुत दिनों के बाद बहुत बड़ा पुरस्कार मिला, जब निर्देशक ने उससे कहा कि नायक का किरदार सुयश निभा रहा है ।
सुयश ने रिहर्सल के पहले ही दिन सहकर्मियों के तीन बार रीटेक होने के बाद कहा-‘‘सागर किनारे मछली पकड़ने वालों की जिन्दगी समुद्र में बीत जाती है,लेकिन वो तमाम उम्र सागर की ऊपरी सतह पर मात्र लहरों से खिलवाड़ करते रहते हैं, और उनकी तमाम उम्र जाल के जंजाल में गुजर जाती है ।जबकि कहीं, कभी कोई गोताखोर थोड़ी सी आक्ॅसीजन और बहुत सा उत्साह लेकर आता है । कुछ ही पलों में सागर की गहराई नाप कर, सीप उठा लाता है, मोती पा जाता है, सागर से उसका मूल्य, नवनीत ले जाता है । कुछ व्यक्ति तालाब होते हैं, कुछ पोखर, कुछ झील, कुछ पहाड़ी नदियों से, जिनमें गहराई नहीं, बहाव होता है, कुछ मैदानी नदियाँ, जिनमें गहराई होती है । सागर बहुत कम होते हैं,जबकि हर सागर,सीप, मोती किसी गोताखोर की प्रतिक्षा में रहते हैं ।
सुमन ने मन में कहा-‘‘ सुयश, काश, तुम मेरी किस्मत,मेरी मुस्कराहट और मेरे ईश्वर होते ।''
पूरे नाटक में कई बार पति-पत्नी के झगड़े के दृश्यों को सुमन ने कहा के सहारे जीवन्त किया पर सुमन-सुयश के प्रणय-प्रसंगों में सुमन को अभिनय नहीं करना पड़ता था ।
सहज अभिनय की साम्राज्ञी कहलाने लगी, इस नाटक के बाद सुमन। सुमन को सुयश के साथ प्रणय - प्रसंगों में लजाने का अभिनय नहीं करना पड़ता था,क्योंकि उसे आभास नहीं था कि वह स्टेज पर है और निर्देशक ने उसे अभिनय डूबना कहा था । तब वह जानती थी कि वह अचेतन में डूब जाती थी । सुमन ने जो कमरे में सोचा था वह स्टेज पर साकार हो रहा था । कमरे में जीवन था, खुशियाँ थी, स्टेज पर कला थी, प्रशंसा थी, सम्मान था। वह कला और जीवन में साम्य की एक दूसरे की
पूर्णता के लिए, एक दूसरे को सुन्दर, प्रभावशाली बनाने के लिए दूसरे
की महत्ता स्वीकार करने लगी थी ।
अनायास उस दिन जब नाटक का सौंवा प्रदर्शन था । सुमन ने कहा-‘‘आप मेरे साथ उम्र भर रह सकते हैं ?''
‘‘मैं तुम्हारे विचारों, तुम्हारे अभिनय का प्रशंसक हूँ । तुम्हारा सम्मान करता हूँ । मैं जाँत-पाँत भी नहीं मानता, परन्तु मेरी माँ ने मेरे पिता की मृत्यु के बाद बहुत त्याग कर मुझे बड़ा किया है.......................ं।
‘‘प्लीज मुझे माफ कर दो,मुझसे गलती हो गई सुयश । मैं यह क्यों भूल गई कि पुरूष हर वक्त जिम्मेदारी से मुक्त नहीं होता । उसके प्रेम के साथ साथ उसकी जिममेदारी, उनके सिध्दान्त चलते हैं, जिन्हें वह अपना मानता है । मैं रंगमंच पर ही तुम्हारा साथ पाकर खुश रह लूँगी ।''
सुमन अब कला और जीवन के एक से लगने वाले रूपों का वास्तविक अन्तर जान पा रही थी । बड़ा ऐसे भी हुआ जाता है ।
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दो कविताएँ
कुछ बातें,/ सम्बन्ध,
हवा में तैरते हैं,
गंध भी होती है उनकी अपनी,
पर ये बातें/ सम्बन्ध,
अदृश्य होते हैं,
हवा की तरह,
पकड़ से दूर
कोई सिरा नहीं होता उनका,
नहीं यह वह डोर,
जिस डोर का,
एक सिरा मेरे हाथों में हो,
दूसरा कहीं और लिपटा हो,
बस प्रतीक्षा होती है,
किसी चमत्कार की,
एक स्वीकार की,
अविश्वास होता है,
यकीन ही नही आता,
कि बिल्कुल हमारी ही तरह,
कोई और भी सोचता है ।
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सुन्दर चेहरे,
सलीकेदार वस्त्रों से सजे, शालीन व्यक्तित्व,
संस्कृतनिष्ठ ,परिनिष्ठित, परिमार्जित,राष्ट्रभाषा में,
टेबल पर,
आमने-सामने बैठते हैं,
विचार मुहरें होते हैं,
जिन्दगी बिसात बन जाती है,
उपलब्धियाँ शह,
यथास्थिति मात हो जाती है ।
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सम्पर्क:
योगेन्द्र सिंह राठौर,
ललिता-कुन्ज,
अशोका होटल के पीछे,
नया बस स्टेन्ड रोड़,
, जगदलपुर(छ0ग0)
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