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पता नहीं यह आपका आतंक था, रुआब था या आपकी मेधा और प्रतिभा की द्युति कि मैं चाह कर भी नजरें उठा कर आफ चेहरे को कभी भरपूर नहीं देख पाती थी. कभी साहस नहीं होता था कि आफ चेहरे को नजर उठा कर ध्यान से देखूँ. शायद आतंक, रुआब और मेधा तथा प्रतिभा सब एक साथ कारण थे. ऐसा भी नहीं था कि मैं आपको कभी देखती नहीं थी. मैं देखती थी आपका चेहरा कम से कम दिन में एक बार अवश्य. कभी-कभी एक से ज्यादा बार भी आफ चेहरे को निगाह भर कर देखती थी. पर तब आपका चेहरा वहाँ कहाँ होता था वहाँ होता था साबुन के झाग से भरी हुई एक आकृति मात्र. आपका चेहरा मेरी कल्पना में होता था, झाग से ढँके चेहरे के पीछे के चेहरे को मैं अपनी मन की आँखों से देखती. वो चेहरा जो सदा मेरे संग होता था. सोते जागते यहाँ तक कि स्वप्न में भी वह मेरा पीछा नहीं छोड़ता था.
आपकी आदत है कि आप बाहर से काम के बाद लौट कर हाथ और चेहरा अवश्य धोते हैं. मैं उन दिनों की बात कर रही हूँ जब घर में वाश बेसिन नहीं होती थी और मैं पानी भरे लोटा अथवा मग को लिए आपका हाथ मुँह धुलाने खड़ी रहती थी. आप साबुन की बट्टी हाथ में लेते मैं उस पर पानी डालती पहले आप हाथ धोते फिर बट्टी हाथ में लेते उस पर जरा सा पानी डलवाते बट्टी झाड कर वापस साबुनदानी में रखते हथेलियाँ रगड़ कर खूब झाग पैदा करते और उसे चेहरे पर लगाते, आपकी आँखें बन्द रहती और इसी समय मैं आफ चेहरे को देखती यह बहुत जरा सी देर के लिए होता क्योंकि तुरंत पानी के छफ डाल कर आप मुँह धोते. आप जितनी बार अंजुरी बढ़ाते मैं उसमें पानी डालती और पल भर में साबुन का झाग बह जाता. आपकी आँखें खुल जाती. आपकी आँखें खुलने के साथ मेरी आँखें नीचे हो जातीं. आपका चेहरा साफ हो जाता और फिर अगली बार मुँह धोने तक मैं चाह कर भी उसकी ओर देखने की हिम्मत नहीं कर पाती थी.
ऐसा था आपका मुझ पर आतंक. यह आतंक सिर्फ मुझ पर नहीं था यह पूरे परिवार पर था. आपकी माँ, बहनें, पत्नी, साली, छोटे भाई सब पर. वे सब आपका चेहरा देख पाते थे या नहीं, देखना चाहते थे या नहीं, मुझे नहीं मालूम. हाँ घर के सारे काम आफ चेहरे की लकीरों को पढ़ते हुए होते थे. आफ चेहरे के भावों के हिसाब से चलते थे. आपका रुआब और रुतबा भी काफी था. घर वालों पर, बाहर वालों पर. आफ ऊ पर, नीचे और संग काम करने वालों पर आपका खासा रुआब था. रिश्तेदारों और मिलने-जुलने वाले भी आपकी मेधा और प्रतिभा के कायल थे. तकनीकी क्षेत्र में सब आपका लोहा मानते थे. पर यहाँ मैं सिर्फ अपनी बात करूँगी.
आप मेरे जीवन के पहले पुरुष थे (अंतिम नहीं). पहला पुरुष जिसे मैंने प्यार किया, जिसे आदर दिया, जिससे संघर्ष किया, जिससे चिढी-खीजी. आप वो हैं जिस पर आज भी मुझे बहुत गुस्सा है, जिस पर मैंने दया अनुभव की है. जिससे नफरत करना चाह कर भी कभी नफरत न कर सकी. जिसके आतंक से निकलने की जद्दोजहद ने मुझे मेरी शक्ति और अस्मिता का आगाज कराया. जिसने मेरा बहुत नुकसान किया परंतु आज जो मैं हूँ उसके होने में जिसका बहुत बड़ा योगदान है यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है. जिससे मैं बहुत दूर चली जाना चाहती थी पर जिससे कभी दूर न जा सकी. आज हम एक दूसरे से बहुत दूर हैं. आज हमारे बीच बहुत फासला आ गया है. यह फासला भौतिक न होकर मानसिक है. विचार हमारे कभी नहीं मिले पर आज विचार की दृष्ठि से भी हम दो छोर पर खड़े हैं. मैं चाहती थी मेरे साथ-साथ आप भी बदलें पर ऐसा ना हो सका. आप छद्म का जीवन जीने लगे. कहते कुछ और करते कुछ और. आप एक गलती को बार-बार दोहराते गए मेरी कोशिश रही कि जो गलतियाँ आपने की हैं मैं उनसे बचती रहूँ.
एक समय था आपकी दहशत मेरे ऊ पर इस तरह हावी थी कि उसने मेरे सपनों पर भी अधिकार कर लिया था (क्या आज भी पूरी तौर पर उबर सकी हूँ?). आपकी गुस्से से जलती आँखें सदा मेरा पीछा करती थीं. सोते समय भी मेरा पीछा नहीं छोड़ती थीं. हँसते-बोलते, सोते-जागते, खाते-पीते, लिखते-पढ़ते यहाँ तक कि प्रेम और सहवास के समय भी ऐसा लगता मानों दो आँखें मुझे घूर रही हों. आपसे इतना भयभीत रहने के बावजूद मैं आपको छूना चाहती थी. शारीरिक और मानसिक दोनों रूप से. मैं आपको स्पर्श करना चाहती थी आपकी ऊँ चाई पाना चाहती थी. आफ साथ सामान्य व्यवहार करना और आपसे सामान्य व्यवहार पाना चाहती थी. पर हमारा व्यवहार कभी सामान्य न रहा. हमारा संबंध कभी सामान्य न रहा. पहले कभी यह हो न सका और अब इतनी देर हो चुकी है इतना समय और उम्र गुजर चुकी है कि अब सामान्य हो भी नहीं सकता है. अब हम एक दूसरे से दूर, बहुत दूर जा चुके हैं. हमारे बीच संवेदनात्मक खाई बहुत चौड़ी हो चुकी है. अब सारी परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं. क्या आधी से ज्यादा सदी के बीते समय को लौटाया जा सकता है? हम एक पल नहीं लौटा सकते हैं. इस बीच सब कुछ बदल गया है. मैं, आप, घर-परिवार, समाज, देश, दुनिया सब बदल चुकी है. बस नहीं बदला है तो मेरा और आपका रिश्ता. वह कभी बदलेगा भी नहीं. आप या मैं कितनी भी कोशिश कर लें यह नहीं बदल सकता है.
एक समय था जब मेरा मन करता था कि आपको खूब प्यार करूँ (प्यार तो आज भी करना चाहती हूँ अपनी तरह से पर वो आपको कभी स्वीकार नहीं होगा). एक समय मैं आपको छू कर प्यार करना चाहती थी, खूब दुलार करना चाहती थी. यह कभी संभव नहीं हुआ. उन दिनों यह इच्छा बराबर मेरे मन में पलती थी कि काश आप बीमार पड जाएँ ताकि मैं आपकी सेवा कर सकूँ. यह वह सेवा नहीं थी जो रोज मैं करती थी. खाना बनाना, खिलाना. रात-बिरात जब भी आप घर लौटते चूह्ला जला कर गर्मा गरम रोटियाँ बना कर परोसना, दौड़-दौड़ कर आपको खिलाना, कपड़े धोना, जूते साफ करना, नहाने के लिए पानी रखना, तौलिया, कच्छा, बनियाइन जगह पर रखना. यह मैं रोज करती थी. असल में मेरी इच्छा होती थी कि आप बीमार पड कर लाचार हो जाएँ ताकि मैं आफ करीब आ सकूँ आप मुझ पर आश्रित हो जाएँ. एक बार ऐसा मौका आ गया. आपकी बाँह में काफी दिनों तक दरद रहा. आप हाथ ऊ पर नहीं उठा पाते थे, पीछे नहीं मोड पाते थे. मुझे बड़ा सकून मिलता था आपकी पीठ पोंछने में, आपको बनियाइन, शर्ट पहनाने में. अन्दर बड़ी तृप्ति अनुभव होती थी जब आप बालों में कंघा करने, किताब या कोई अन्य चीज उठा कर देने के लिए मुझ पर निर्भर थे. आफ कंधे और बाँह पर दवाई और तेल की मालिश करके मुझे जो संतोष मिलता था आप उसकी कल्पना नहीं कर सकते हैं. आपकी अवशता भीतर मुझे कहीं आश्वस्त करती थी कि आप उतने शक्तिशाली नहीं हैं, जितना दिखाते हैं. मुझे यह सोच कर बड़ी राहत मिलती कि आप भी औरों पर निर्भर करते हैं. आपकी बाँह के दर्द से मुझे खुशी नहीं मिलती थी. मेरा मन दुःखी रहता था. आफ दर्द को अनुभव करती. एक मन चाहता आप स्वस्थ न हों, दूसरा मन चाहता आप जल्द-से-जल्द इस कष्ट से छुटकारा पा लें. आपका कष्ठ मुझसे देखा नहीं जाता था. जब-जब आप दर्द से कराहते थे मैं तड़फ उठती थी. आफ साथ-साथ मैं भी उस दर्द को भोग रही थी.
आपसे मैं कितनी भी गुस्सा रहूँ, कितनी भी चिढी रहूँ, आपका जरा-सा भी कष्ठ मेरे लिए असहनीय होता है. बहुत बाद में, एक बार जब करीब चार बजे (अभी काफी अंधेरा था) सुबह खबर मिली कि आधी रात को आपकी तबियत खराब हो गई थी. शायद दिल का दौरा पडा था और आपको अस्पताल में भरती किया गया है. तो अंधेरे की परवाह न करते हुए, बेटी की परीक्षाएँ चल रही थीं, उसे सुबह स्कूल जाना था, इसकी चिंता न करते हुए, पागल की तरह स्कूटर उठा कर सीधे अस्पताल पहुँच गई थी. सारे रास्ते सोच रही थी पता नहीं आप किस हालत में होंगे. होंगे भी या नहीं. शायद मुझे ठीक से आफ बारे में नहीं बताया गया है. यदि आप जा चुके होंगे तो मैं कैसे क्या करूँगी. अस्पताल जाकर जब पता चला कि आप आई सी यू में हैं, तो जान में जान आई. डॉक्टरों से मिन्नत करके आई सी यू के भीतर जाकर आपको देखा. डॉक्टर ने कहा कि जल्द ही आपको वार्ड में ले जाएँगे. और जब आपको वार्ड में ऑब्जरवेशन के लिए रख दिया गया तब तक मैंने हिम्मत बनाए रखी और उसके बाद खुद बेहोश हो गई थी.
आपसे जुडी मेरी अधिकतर स्मृतियाँ दहशत भरी हैं. एकाध सुखद भी हैं. सुखद स्मृतियाँ इतनी कम हैं कि अंगुली पर गिनी जा सकती हैं और दहशत भरी स्मृतियाँ अनगिनत हैं. भय के अनगिनत अनुभव हैं. फिर भी अच्छी स्मृति से शुरुआत करती हूँ. मन में एक चित्र खचित है. इटावा के बकेवर और भरथना के बीच किसी गाँव में मेला लगा हुआ है. गाँव का मेला. मेला जिसे आपने सदा मैला कहा और जहाँ आप हमें कभी नहीं जाने देते थे. इसी मेले से मेरी एक अच्छी स्मृति जुडी है. एक स्त्री और एक पुरुष मेले में घूम रहे हैं. मेले में आए गाँव गँवई के लोगों से उनकी पोशाक अलग है. स्त्री ने एक अच्छी साड़ी पहनी हुई है और पुरुष पैंट कमीज में है. स्त्री की गोद में एक बच्ची है. पुरुष की अँगुली पकड़े हुए भी एक थोड़ी बड़ी बच्ची है. सब मेले में घूम रहे हैं. वे लोग थक गए हैं. घर लौटते समय पुरुष कभी दोनों बच्चियों को अपने दोनों कंधों पर बैठा लेता है. कभी छोटी बच्ची को स्त्री उठा लेती है और बड़ी बच्ची को पुरुष अपनी गर्दन पर ले लेता है. बच्ची के दोनों पैर उसके दोनों कंधों से होते हुए उसके सीने पर झूल रहे हैं. बच्ची पुरुष के घने घुँघराले काले बालों से खेल रही है. सब खुशी-खुशी घर लौट रहें हैं. वह बच्ची अभी भी अपनी अँगुलियों को उन घने घुँघराले बालों में फिरती अनुभव कर सकती है. आज भी उसके नासापुटों में महा भृंगराज तेल की खुशबू भरी हुई है. यही महाभृंगराज तेल की खुशबू एक और सन्दर्भ में किसी और के साथ भी जुड़ी है पर उसकी बात फिर कभी और.
आफ बाल इतने घने और घुँघराले थे कि अक्सर उनमें मक्खी फँस जाती थी और उसे निकालने के चक्कर में कंघे के दाँते टूट जाते थे. इन्हीं काले बालों को एक सप्ताह के भीतर सफेद होते देखा. उम्र के कारण नहीं चिंता के कारण. आपकी बहन को कैंसर था. रोज हम दोनों अस्पताल जाते. आप स्कूटर चलाते और मैं पीछे बैठी होती. आप अपनी बहन को बेहद प्यार करते थे पर कुछ कर नहीं सकते थे. सब तरह के इलाज करवाए जा चुके थे. डॉक्टर जवाब दे चुके थे. बहन बच नहीं सकती है. उसके जीवन की घड़ियाँ गिनी-चुनी है. साँस कभी भी रुक सकती है. यही चिंता आपको खाए जा रही थी और एक सप्ताह के अन्दर आफ काले बाल सफेद हो गए.
दहशत की एक जड़ दिखाऊँ. बकेवर के घर की छत पर दो बच्चियाँ खेल रही थीं तभी आकाश में हवाई जहाज की आवाज सुनाई दी. बच्चे, जवान, बूढे सब अपना अपना काम छोड़ कर जहाज देखने बाहर आ गए. आप भी. उन दिनों आकाश में हवाई जहाज देखना अजूबा हुआ करता था, आज की तरह मिनट-मिनट पर हवाई जहाज नहीं दीखते थे. उसी समय छोटी लड़की ने पीने के लिए पानी माँगा. बड़ी लड़की (चार-पाँच साल की रही होगी) जहाज देखने में मगन थी. आपने उसे पानी लाने के लिए कहा. उसने नहीं सुना. बस आपको गुस्सा आ गया. गुस्सा आपकी नाक पर रहता है. जहाज ने अभी आकाश पार नहीं किया था. आपने आव देखा न ताव बड़ी लड़की को पैरों से पकड़ा और छत की मुरेड से लटका दिया. भय से उसकी घिग्घी बँधी हुई थी. छटपटाने से भी नीचे गिर जाने या गिरा दिए जाने की दहशत थी. एक बार और किसी बात पर गुस्सा आया और बच्ची को नीचे के बडे कमरे में बन्द कर दिया. कमरा जिसमें मकान मालिक के भाई ने कभी फाँसी लगा ली थी. लोग कहते थे उसका भूत जब-तब दिखाई देता था. दिन में बन्द किया और शाम को दरवाजा खोला. बच्ची जीवट वाली थी. न बेहोश हुई, न मरी.
जीवट आपमें भी गजब का है. क्या नहीं देखा आपने अपने जीवन में, पर जीए चले गए. पता नहीं यह जिद है या जिजीविषा. लेकिन जिद में कई बार बच्ची को कुँए में उल्टा लटका दिया करते थे जबकि आप पागल नहीं थे, न ही आप नशा करते हैं. कुँआ जिसमें चालीस हाथ की गहराई पर पानी था और जो सीढ़ियों के नीचे बना था. इस कारण दिन में भी वहाँ अंधेरा रहता था. नतीजन बच्ची खूब जिद्दी होती गई, जिसे आप बेशरम, बेहया, थेथर आदि नाम दिया करते. उन्हीं दिनों की कुछ अच्छी यादें भी हैं. आप ब्लेड से नाखून काट देते थे, खूब सफाई से जरा भी कच्चा नाखून न कटता, खून न निकलता. आपने बताया था कि नासूर को बाहर की दिशा में खींचना चाहिए, अँगुली की दिशा में नहीं, वरना कच्चा चमड़ा निकल जाएगा और बहुत दरद होगा, पक जा सकता है. आप तर्जनी और अँगूठे के बीच दबा कर मूँगफली के दाने निकाल कर देते जाते और मैं खाती जाती. यह तब की बात है जब मेरी तर्जनी और अँगूठे से दब कर मूँगफली नहीं खुल पाती थी.
पढने-लिखने में सहायता की या बाधा डाली, बताना मुश्किल है. हम देवबन्द आ गए तो उन्हीं दिनों नानावती केस चल रहा था. आप रोज उसकी रपट पढ कर अपनी पत्नी और साली को सुनाते और कोर्ट की सारी सुनवाई मैं दिलचस्पी लेकर सुना करती चोरी चोरी. आप ‘धर्मयुग’ और ‘हिन्दुस्तान’ लाते पर साहित्य को बकवास मानते थे, जबकि आफ संग्रह से चुरा कर मैंने जो पहली किताबें पढी उनमें से एक थी स्टीफन स्वाइग की ‘एक अनजान औरत का खत’. आफ पास विश्व की कुछ नायाब किताबें थी, पर वे इंग्लिश में थीं. आपको लिखने का शौक है. सदा लम्बे-लम्बे खत लिखते हैं. मोती जैसे सुन्दर अक्षर बिठाते हुए चाहे इंग्लिश हो या हिन्दी. मुझे बहुत कोफ्त होती है कि मेरी लिखावट बहुत गन्दी है. पर इसी गन्दी लिखावट में कॉपियाँ भर-भर कर कविताएँ लिखी और डायरी लिखी और जब यह भेद आप पर खुल गया आपने बहुत कुछ उल्टा सीधा कहा. एक लाइन अब भी जेहन में अटकी हुई है ‘अगर सब लिखने लगेंगे तो पढ़ेगा कौन?’ और इस एनकाउंटर का नतीजा हुआ मैंने गुस्से और अपमान से भर कर अपनी सारी डायरियाँ और कॉपियाँ जला डाली. यह सही है कि उन कॉपियों में उच्च कोटी का साहित्य या कोई अमूल्य खजाना नहीं था. एक किशोरी की भावनाओं का उबाल था. स्कूल में आशु कविता के लिए छात्रों तथा शिक्षिकाओं के बीच जानी जाती थी. हिन्दी में क्लास में मेरी अच्छी पोजीसन रहती थी. आपको वह कभी विशिष्ठ नहीं लगती थी. आपका जुमला होता था आखिर कोई गणित में भी अव्वल आता होगा. कितने बरसों तक फिर कुछ नहीं लिखा. उसके बाद जब भी कविता रचनी चाही कलम रुक जाती है. यह बात दीगर है कि आजकल आप मेरे लिखे-छपे को अपने परिचितों के बीच गर्व के साथ दिखाते हैं. और पहली बार जब मैंने इंग्लिश में कुछ लिखा था तो बेवकूफ की तरह आपको दिखाने और सही कराने गई थी और क्या किया आपने? उसमें ढेरों गलतियाँ खोज निकालीं और कहा इंग्लिश तुम्हारे बस की नहीं है, भूल जाओ इसे. एक-एक स्पेलिंग मिस्टेक के लिए कितना-कितना डाँटा था. कितना अपमानित किया था. हर गलती के लिए. मैं शर्म से धरती में गड जाना चाहती थी. नतीजन आज जब इंग्लिश मीडियम कॉलेज में पढा रही हूँ तब भी जब इंग्लिश लिखती हूँ स्पेलिंग को लेकर मन में सदा धुकधुकी लगी रहती है. आती हुई स्पेलिंग को लेकर भी संशय बना रहता है.
गुस्सा आपकी नाक पर रहता है. सडक चलता आदमी यदि गलती से भी आफ दरवाजे के सामने से दो बार पार हो जाए तो आप उसे गरदनिया देकर मारपीट कर सकते हैं. मुझे आप जितना मारते, मैं उतनी ढीठ बनती गई, आप जो करने को मना करते मैं वही करती. भले ही आपसे छुपा कर करती, पर करती जरूर. इसी जिद के कारण जब आपने मुझे इंजिनियरिंग पढाने का निश्चिय किया तो मैंने साहित्य पढने का पक्का इरादा कर लिया. क्या तमाशा चला था घर में कई दिन तक. आप एडमिशन का फॉर्म ले आए उन दिनों दाखिला आसान होता था स्टॉफ के लिए सीट होती थी. हम दोनों ने खाना नहीं खाया. धमकी का मुझ पर कोई असर ना हुआ. आपने अप्लीकेशन फॉर्म फाड कर फेंक दिया कुछ और दिन बाद एक और वाकये के तहत आपने मेरे सार्टिफिकेट्स और मेरी मार्कशीट फाड दी.
दोनों ही जिद्दी हैं. हमारे यहाँ जन्मदिन मनाया जाता था. केक बगैरह नहीं कटता था. हाँ अच्छा खाना बनता. सब मिलकर खाते-पीते. एक बार मेरा जन्मदिन पडा. सुबह से मैं इंतजार कर रही थी कि आप कुछ कहेंगे पर आपको याद नहीं था. शाम हुई और आप बाहर चले गए. काफी रात को लौटे. आफ आने की आहट पा मैंने चादर से मुँह ढँक लिया और नकल गाछ कर सोने का अभिनय करने लगी. सबने बताया कि मैंने खाना नहीं खाया है. आपको जब बताया गया कि मेरा जन्मदिन है आपने पहले मुझे जगाने की कोशिश की, फिर रसोई में जाकर अपने हाथों से असली घी से बेसन का हलुआ बना लाए. मुझे फिर उठाया. मेरे न उठने पर आपको गुस्सा चढने लगा और उसका अंत हुआ पूरा हलुआ कुत्ते को परोस कर. और हम सब बिना खाए-पीए सो गए.
काम करते हुए पढ़ना मेरी आदत है. अक्सर चूह्ले पर दूध चढ़ा कर पढने में मशगूल होने पर दूध उफनता. दूध उफनता और थप्पड़ पड़ता. एक बार किसी से माँगी हुई किताब पढ़ रही थी. दूध निकल गया. आपने आव देखा न ताव किताब मेरे हाथ से झटक कर आग में फेंक दी. धमकी मिली आगे से हाथ में कहानी की किताब देखी तो तुम्हारी खैर नहीं, आदत न छूटी. छिपा कर पढ़ना जारी रहा. रात को सबके सोने के बाद खिड़की से आती स्ट्रीट लाइट की रौशनी में पढ़ती. खिड़की के सामने सड़क पर बिजली का खम्बा था. उसी से काम चलाती क्योंकि आफ सोने के लिए सारे घर की बत्ती बन्द होनी आवश्यक थी. कई बार चाँद की रौशनी में भी पूरी-पूरी किताब खतम की. यह दीगर बात है कि बहुत जल्द आँखों पर चश्मा चढ़ गया. तुम डाल-डाल तो मैं पात-पात.
बात-बेबात पर जलते चूह्ले में पानी उंडेल देना, बने हुए खाने के बरतनों को उलट देना, आपके लिए आम बात थी. और आज भी है. इसका असर बच्चों पर क्या पड़ता है, इसे जानने समझने की कोशिश आपने कभी न की. बच्चे थर-थर काँपते रहते. लड़ाई आपकी अपनी स्त्री से होती लेकिन आपकी गर्जन-तर्जन से दिल बच्चों का थर्राता. एक दिन आप वेतन ले कर घर आए. घर आते समय किसी ने अपनी जरूरत का वास्ता देकर आपसे रुपए माँगे और आपने अपनी दरियादिली की शान में उसे रुपए दे दिए. घर में आकर रुपए देते हुए आपने बताया कि फलाने को रुपयों की सख्त जरूरत थी अतः आपने उसे रुपए दे दिए. जब आपकी स्त्री ने कहा कि इतने कम रुपए में घर कैसे चलेगा, इतने बडे परिवार का महीना कैसे खिचेंगा. इसी बात पर कहा-सुनी बढती गई. आपको ताव चढ़ गया. आपने उनके हाथ से रुपयों की गड्डी छीन ली और माचिस खोजने लगे. आपका कहना था कि यह आपकी कमाई है. आफ पैसे हैं. आप जिसे चाहें दे सकते हैं. चाहें तो नाली में फेंक सकते हैं. कोई आपको रोक नहीं सकता है. बच्चों ने डर से रोना शुरु कर दिया. माचिस न मिली. छिपा दी गई थी. पर गुस्सा उतरा लड़की को तड़ाक से चाँटा जड़ कर.
आप सदा जताते कि आफ पास परिवार की जिम्मेदारी है और उसे निभाते-निभाते आपकी जिन्दगी खाक हो रही है. इसके लिए आप जी तोड़ मेहनत करते हैं, करते भी हैं इसमें शक नहीं है. लेकिन हाड़ तोड़ कर कमाने के सिवा आपने कभी मुख्य जिम्मेदारियों को न जाना. न निभाया. आप बाहर अपनी छवि बनाए रखना चाहते थे. कई साल तक यह बनी रही. बाद में मुल्लमा उतर गया पूरे मोहल्ले को मालूम हो गया कि आप असल में क्या हैं. फिर भी लोग आफ बच्चों को नसीहत देते कि वे आपकी बात मानते रहें क्योंकि आप पिता है. अतः बडे हैं. इसीलिए आपकी बात मानी जानी चाहिए.
आपकी कमाई जो परिवार के भरण-पोषण के लिए नाकाफी थी, उसका आपको काफी घमंड है. आप सदैव जताते रहे कि आप परिवार पर अहसान कर रहे हैं. किसी बच्चे की पढ़ाई के लिए दौड़ धूप न की. लड़कियों के पिता की नींद हराम रहती है. आप किसी लड़की की शादी, किसी के रिश्ते के लिए कभी कहीं नहीं गए. आपकी पाँच-पाँच बेटियाँ हैं. आपने पहली बेटी के रिश्ते के लिए कभी कोई कोशिश न की. जिस बेटी ने अपनी शादी के लिए खुद इंतजाम कर लिया उसकी शादी हुई. जो आफ भरोसे रही. वह बैठी रही और वक्त निकलने के बाद जब उसे अकल आई तो काफी देर हो चुकी थी. जिस बेटी को शुरु से बच्चों और शादी, घर-परिवार की इच्छा थी. वह बिना पति परिवार के रह गई. आप कभी कहीं लड़का देखने न गए. अगर कोई हितु-रिश्तेदार कोई रिश्ता लाया तो उसमें आपको उसका स्वार्थ और लड़के और लड़के के परिवार में ढेरों खोट आपको नजर आती. नतीजा होता कि बेल कभी मेड न चढ़ती. आपकी नाक इतनी ऊँची है कि उसके नीचे आपको सब कीड़े मकोड़े नजर आते. देने के लिए दहेज न था. हाँ आप रिश्ता लाने वालों को नसीहतों का पुलिन्दा जरूर थमा देते.
जब बड़ी लड़की का जॉब लग गया तो आपको लगा कोई हाथ बँटाने वाला मिल गया. खुले तौर पर स्वीकार न करते पर आते रुपए लेने में आपको कोई उज्र न था. आपने इसे उसका कर्तव्य मान लिया. शुरु-शुरु में उत्साह में वह अपनी सारी आमदनी, जो बहुत कम थी, घर पर लुटाने लगी. जल्द उसको समझ आ गई कि घर फटा बोरा है, जिसे कभी नहीं भरा जा सकता है. जितना डालो और की माँग सदा बनी रहेगी. धीरे-धीरे ज्यादातर बच्चे अपने मन के हो चले थे.
गुस्सा आपकी नाक पर धरा रहता और जब आप मारना शुरु करते तो आपको होश नहीं रहता कि सामने स्त्री है, बच्चा है या सडक चलता आदमी है. हाँ आपको सडक चलते लोगों से उलझने की खास आदत है. मारने के लिए हाथ नाकाफी होता. आप पास पडा कोई सामान मारने के लिए प्रयोग करने से नहीं चूकते हैं. फिर चाहे वह हथोड़ा हो, डंडा हो या पेचकस. एक बार आपने अपने दो साल के लडके को उठा कर पटक दिया. कारण जब आप दोपहर का खाना खा कर आराम करने जा रहे थे वह रो रहा था. उसके सर और नाक से बहुत देर खून बहता रहा. इस उम्र में भी आप अपनी उस संतान को मारने पीटने से नहीं चूकते हैं जिसने सिर्फ इसलिए कभी उलट कर आपको नहीं मारा क्योंकि आप पिता है. हाँ, उसने सब तरह के नशे करने की आदत डाल ली है. सहन करने का अपना-अपना तरीका.
अपने घर को लेकर आपका अहंकार हिमालय से ज्यादा ऊँचा है. घर के किसी व्यक्ति (सदस्य नहीं कहूँगी, सदस्यों का कुछ हक होता है) को आप कभी भी घर से निकाल सकते हैं. अपनी औरत को कई बार घर से निकाल दिया. जब तक उनके पिता जीवित रहे वे उनके पास जा कर रहती. कई महीनों, एक बार एक साल तक रहीं. इस बीच खूब लम्बे-लम्बे खर्रे लिखे जाते. खूब शिकायतें होती. खूब गिले-शिकवे होते. खूब धमकी दी जाती. उन्हें अंत तक आपका घर अपना घर न लगा. लड़कों को घर से निकाल देते. बचपन में वे रोते-गाते माफी माँगते वापस आ जाते. बाद में घर से विमुख होते गए. लौट-लौट कर आफ घर में आते रहे क्योंकि वे कही अपना घर न बना सके, घर को घर न मान सके. बाद में मकान के लिए उनकी आँख गड़ी रही. लड़कियों को घर से निकाला. वे दरवाजे पर खड़ी रहती. बाद में चुपचाप अन्दर आ जाती. और तो और दामादों को भी घर से निकल जाने के लिए कहने से आप न चूके. आपकी भाषा और हाथ ने उनका सम्मान करने में कोई कोताही न की.
आपका पक्का विश्वास है कि कोई भी बेसहारा (आपकी नजर में सारी दुनिया बेसहारा है और आप उसके त्राता हैं) आफ घर शरण पा सकता है. शर्त एक है कि वह आफ आतंक तले थरथर काँपता रहे. जिन आँखों से आप भय उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं, उन्हीं के लिए मैंने अपनी डायरी में लिखा था, ‘पिता यदि धृतराष्ठ्र हो तो महाभारत (सत्यानाश) अवश्यंभावी है. आज आपकी कोई संतान सुखी नहीं है. जो सुखी हैं वे भी आपको लेकर दुःखी हैं. यह दुःख तो बना ही रहेगा. आतंक के साये से निकल आने के बाद भी.
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विजय शर्मा, १५१, न्यू बाराद्वारी, जमशेद्पुर ८३१००१. ई-मेलः vijshain@yahoo.com
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