पिता-पुत्र प्रातःकाल पिता ने अपने सुत को चूम जगाया। सिर सहला उसको दुलारे से अपनी गोद उठाया। पास सटी फ़ुलवारी में ले उसको लगा घुमा...
पिता-पुत्र
प्रातःकाल पिता ने अपने सुत को चूम जगाया।
सिर सहला उसको दुलारे से अपनी गोद उठाया।
पास सटी फ़ुलवारी में ले उसको लगा घुमाने ।
फ़ूल-फ़ूल पर नाच रही तितलियां लगा दिखलाने।
घर में आज बहुत ही पहले प्यारा बेटा जागा ।
देखा छत पर शोर मचाता उड़कर बैठा कागा ।
पूछा, पूज्य पिताजी छत पर आया कौन हमारे?
बोला, यह कौवा है मेरे राजा-बेटा प्यारे ।
कुछ ही क्षण में वही प्रश्न फ़िर बच्चे ने दुहराया।
'बाबूजी यह कौन हमारे छत पर उड़कर आया?"
बड़े प्यार से कहा बाप ने, "यह कौआ है बेटा।
खुली हवा में फ़ुदक रहा है रह न सकेगा लेटा।
बेटे ने फ़िर उत्सुकता से वही प्रश्न दुहराया ।
बड़े प्यार से कहा पिता ने बेटा कौआ आया।
बार-बार पूछता रहा वह "कौन-कौन है आया?"
"कौआ है,कौआ है बेटे," पिता यही बतलाया।
बेटे का उत्तर देने में पिता न थका न हारा ।
उसको तो प्राणों से प्रिय था उसका पुत्र दुलारा।
कुछ ही दिन में बाप हो गया बुड्ढा गयी जवानी।
अब उसकी बुढ़िया देती थी उसको दाना-पानी।
बात एक दिन की है कोई दरवाजे पर आया ।
पूछा "कौन?" पिता ने बेटे ने तब नाम बताया।
कम सुनता था पूछ पड़ा फ़िर,"कौन द्वार पर बेटे?"
वह गुस्से में झल्लाया, "बुड्ढे रह चुपके लेटे ।
तुमको क्या चुपचाप कोठरी में न लेटने आता ।"
सह बूढ़ा एक ही बात को बार-बार दुहराता ।
जब भी कुछ पूछता जोर से डांट पुत्र चिल्लाता।
"नाकों में दम किया, क्यों नहीं यह बुड्ढा मर जाता।"
देख पुत्र का ढंग बाप को हुई बहुत हैरानी ।
माथ ठोकने लगा उमड़ आया आंखों में पानी।
यह कैसा हो गया जमाना कौन किसे समझाये।
लाज-हया हो गयी विदा अपने हो गये पराये ।
कई बार बेटे को उसने अपने पास बुलाया ।
फ़िर तुरंत टेकते लकुटिया पास पुत्र के आया।
कहा,"सुनो तुम छोटे थे, था छत पर कौआ आया।
तुमने पूछा तो मैंने था कई बार बतलाया ।
मैने गुस्सा किया न मेरी जीभ थकी बतलाते ।
एक बार पूछा तो बेटे, तुम इतना गुस्साते ।
बाहर-भीतर दोनों से ही भला आदमी दीखो ।
प्यारे-पुत्र बड़े बूढ़ों का आदर करना सीखो ।
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भूखी लोमड़ी
किसी बाग से गुजर रही थी एक लोमड़ी भूखी ।
उसे दिखायी पड़ी पेड़ की डाल न कोई सूखी ।
हरे-भरे पेड़ों से लिपटीं थीं अंगूर लतायें ।
पके फ़लों की गंध समेटे बहती रहीं हवायें ।
ठिठक गयी लोमड़ी भूख से थी उसको हैरानी ।
ललच गयी फ़ल खाने को,मुंह में भर आया पानी।
सोच रही थी किसी तरह ये फ़ल उसको मिल पाते।
या तो वही वहाँ उड़ जाती या फ़ल ही गिर जाते ।
हर पेड़ों के पास पहुंचकर लगी छलांग लगाने ।
सरक गिरी पर नहीं पा सकी अंगूरों के दाने ।
अंगूरी गुच्छा लटका था ऊंचाई पर प्यारा ।
उछल-कूद कर थकी लोमड़ी व्यर्थ हुआ श्रम सारा।
कोई चारा चला नहीं तो लौटी मुंह लटकाये ।
खट्टे हैं अंगूर, मिला जो उसको यही बताये ।
मिट्टी में मिल गयी लोमड़ी की सारी चालाकी।
जो झूठे मक्कार, बनाते बातें यहाँ वहाँ की ।
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लालच बुरी बला है
एक गाँव के पास, बह रही सरिता बड़ी सुहानी ।
बहता रहता उसमें कलकल छल-छल निरमल पानी।
पेड़ों बीच चहकती चिड़िया बच्चे गाते गाना
उसमें गाँववासियों का था होता रोज नहाना ।
पशु भी हरी घास चरने को पार नदी के जाते ।
धोबी नीचे कपड़ा धोता बच्चे तैर नहाते ।
उसी गाँव में रहा लालची कुत्ता मोटा-काला ।
उसकी झबरी पूंछ गठीली बड़ा बली मतवाला ।
घूम रहा था बड़े सवेरे वह कुत्तों का राजा ।
देखा किसी ग्रामवासी का खुला पड़ा दरवाजा।
चुपके-चुपके पैठा घर में अपने पाँव दबाये ।
रोटी चुरा भगा झटके से कोई देख न पाये ।
भाग चला पुल पर, लटकी थी मुँह में मोटी रोटी।
बहुत खुशी था आज हमारी लाल हो गयी गोटी ।
कुछ ही दूर पहुँच कर नीचे अपना मुँह लटकाया ।
उसे दिखायी पड़ी साफ़ जल में उसकी ही छाया ।
सोचा अरे, दूसरा कुत्ता क्या नीचे घुस आया ।
मेरी जैसी ही रोटी मुँह में वह चोर दबाया ।
अभीं झपट कर मैं छीनूंगा उसके मुँह से रोटी।
दोनो खाऊँगा, उसकी काटूँगा बोटी-बोटी ।
गुर्राया गुस्से में उसका काँप रहा तन सारा ।
जल में गिरा छपाक सरक रोटी का टुकड़ा प्यारा।
डूब गयी पानी में रोटी हुई मुसीबत भारी ।
कुत्ता खड़ा लार टपकाते, बड़ी गजब लाचारी।
फिर जल में झाँका तो वैसी पड़ी दिखायी छाया ।
भों-भों कर भागता बिचारा, रोटी किन्तु न पाया ।
आधी रही न सारी पाया कोशिश किया करोड़ों ।
लालच बुरी बला है प्यारे बच्चों लालच छोड़ो ।
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मेल-जोल का फल
बसी शहर से दूर एक थी बस्ती बड़ी पुरानी ।
मेहनत-मजदूरी कर अपना पेट पालते प्राणी ।
निर्धन गाँव-निवासी करते थोड़ी बहुत किसानी।
कुआँ खोदना-खाना ही थी, उनकी राम कहानी।
दूर शहर से गाँव, न बिजली बत्ती घोड़ा-गाड़ी ।
पगडंडी से आना-जाना घेरे झुरमुट-झाड़ी ।
घास-फूस की बनी झोपड़ी में रहते नर-नारी ।
भैया-बहन खुशी से रहते खुश थे बाप-मतारी ।
ताल-तलैया में लहराता रहता निर्मल पानी ।
रोह बड़े-बूढ़ों से बच्चे सुनते नई कहानी ।
गाय-भैंस बकरी-भेड़ों को खेतों बीच चराते ।
दूध-दही-घी-मक्खन खाते, बिरहा-कजरी गाते।
बच्चे गलियों में करते थे, उछलकूद अठखेली ।
घूँघट काढ़े आँगन आतीं दुलहन नयी नवेली ।
युवक दौड़ते कसरत करते, हृष्ट-पुष्ट तन वाले ।
आपस में मिलजुल रह्ते थे प्राणी भोले-भाले ।
थोड़ी ही दूरी पर बहती एक नदी बरसाती ।
कभी उमड़ सावन-भादों में घर खलिहान डुबाती।
जाति-पाँति या छुआछूत का रहा न वहाँ झमेला।
पास सटे मंदिर पर लगता नवरात्रि का मेला ।
जाति-पाँति या छुआछूत का रहा न गोरखधंधा ।
पास सटे घर में रहते दो प्राणी लँगड़ा-अंधा ।
टूट गया था पाँव एक का, एक आँख से खाली ।
घर वाले ही देखभाल करते उनकी रखवाली ।
एक बार की तुम्हें सुनाता हूँ मैं सुनो कहानी ।
रहा मूसलाधार बरसता सात दिनों तक पानी ।
जिधर नजर दौड़ाओ दिखता बस पानी ही पानी ।
बाढ़ देख घर-द्वार छोड़ कर भाग चले सब प्राणी ।
अंधा घर में बैठ बिचारा हाय-हाय चिल्लाये ।
बेबस लँगड़ा बिलख रहा था कैसे जान बचाये ।
जल से घिरे मवेशी सारे बाँय-बाँय चिल्लाते ।
नहीं किसी की कोई सुनता सभी भागते जाते ।
अंधा बोला लँगड़े भाई पाँव नहीं हैं तेरे ।
किन्तु शक्ति तो घटी नहीं है इन पाँवों मे मेरे ।
चलो सुरक्षित हम भी खोजें कोई ठौर-ठिकाना ।
बैठ हमारे कंधे पर तुम राह बताते जाना ।
भाग चला अंधा लँगड़े को कंधे पर बैठाये ।
गड्ढा कहाँ, कहाँ ऊँचा लँगड़ा बतलाता जाये ।
बहुत दूर जा कर दोनों ने अपनी जान बचाई ।
तुम भी होगे सफल, मेल से रहना सीखो भाई ।
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हिमांशु कुमार पाण्डेय
सकलडीहा, चन्दौली (उ0प्र0) 232109
चिट्ठा : सच्चा शरणम
हिमांशु जी की लेखनी अद्भुत है! कहानियों को कवितारूप में बदलकर बहुत अच्छा काम किया है! रवि जी, सच मानिये, आज आपने बचपन की याद दिला दी!
जवाब देंहटाएंहिमांशु जी की सभी कविताएं बहुत पसंद आई।आभार।
जवाब देंहटाएंबाल कविताएं और बाल कहानियों का आभाव है ब्लाग जगत पर । हिमांशु जी को धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबच्चों के लिए प्रेरक प्रसंगों और कहानियों को कविता के रूप में प्रस्तुत करने का बहुत अच्छा ढंग है हिमांशु जी का ... उनको धन्यवाद।
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