रूमानी उपन्यास वसन्तसेना यशवन्त कोठारी यह उपन्यास शूद्रक के प्रसिद्ध संस्कृत नाटक ”मृच्छकटिकूम्“ ने मुझे हमेशा से...
रूमानी उपन्यास
वसन्तसेना
यशवन्त कोठारी
यह उपन्यास
शूद्रक के प्रसिद्ध संस्कृत नाटक ”मृच्छकटिकूम्“ ने मुझे हमेशा से ही आकर्षित किया है। इस नाटक के पात्र, घटनाएं और परिस्थितियां हमेशा से ही ऐसी लगी है कि मानो ये सब आज की घटनाएं हो। राजनीतिक परिस्थितियां निर्धन नायक, धनवान नायिका, राजा, क्रांति, कुलवधू, नगरवधू और सम्पूर्ण कथानक पढ़ने में मनोहारी, आकर्षक तो है ही, आनंद के साथ विचार बिन्दु भी देता है। इसी कारण संस्कृत नाटकों में इसका एक विशेष महत्व है।
यह नाटक ईसा पूर्व की पहली या दूसरी सदी में लिखा गया था। इस बात में मतभेद हो सकते है, मगर मेरा उद्देश्य केवल नाटक की पठनीयता से है। इस नाटक के मूल को भी पढ़ा, डा. रांगेयराघव के अनुवाद को पढ़ा। मंच रूपान्तरण के रूप में आचार्य चतुरसेन तथा डा.सत्यव्रत सिन्हा को पढ़ा। इस पर आधारित फिल्म ”उत्सव“ को देखा तथा उत्सव के संवाद लेखक स्व․ शरद जोशी से भी चर्चा की। मुझे ऐसा लगा कि इस नाटक मे औपन्यासिकता है। द्दश्य-श्रव्य काव्य के समस्त गुणों के बावजूद यह नाटक एक उपन्यास का कथानक बन सकता है, धीरे धीरे मेरी यह धारणा बलवती होती गई। रचना का ताना-बाना मेरे जेहन में घूमता रहा। कई बार थोड़ा बहुत लिखा, मगर लम्बे समय तक कोई निश्चित स्वरूप नहीं बन पाया अब जाकर इस का समय आया। और इसे एक लघु उपन्यास का रूप मिला।
उपन्यास या कहानी पर आधारित नाटकों के उदाहरण काफी मिल जायेंगे, मगर ऐसे उदाहरण साहित्य में कम ही है, जब किसी नाटक को उपन्यास में ढाला गया हो। मैंने यह प्रयास किया है। और कुछ अनावश्यक प्रसंगों तथा वर्तमान स्वरूपों में अशोभनीय शब्दों को छोड़ दिया है, लेकिन कथ्य व शिल्प का निर्वाह करने का पूरा प्रयास किया है।
वसन्त सेना समाज के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है जिसके पास सब कुछ होकर भी कुछ नही हे। चारूदत्त की निर्धनता में वसन्त सेना के सम्पूर्ण ऐश्वर्य को समा लेने की उद्दाम भावना ने ही मुझे आकर्षित किया है।
तमाम कमियों के बावजूद यदि यह रचना पाठकों को आकर्षित कर सकी , उनका थोड़ा बहुत भी मनोरंजन कर सकी तो में अपना श्रम सार्थक समझूंगा।
आपकी प्रतिक्रिया के इन्तजार में।
रामनवमी,
जयपुर।
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यशवन्त कोठारी
86,लक्ष्मी नगर ब्रहमपुरी बाहर,जयपुर-302002
फोनः-0141-2670596
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वसन्त सेना
यशवंत कोठारी
(शूद्रक कृत ”मृच्दकटिकम् “ नाटक पर आधारित उपन्यास)
प्राचीन समय में भारत में उज्जयिनी नामक एक अत्यंत प्राचीन वैभवशाली नगर था। नगर में हर प्रकार की सुख समृद्धि थी। नगर व्यापार, संगीत, कला तथा साहित्य का एक बड़ा केन्द्र था। ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र सभी मिलकर रहते थे। मगर अत्यधिक समृद्धि के कारण इस नगर के समाज में नाना प्रकार की बुराइयाँ व्याप्त हो गई थी। राजशक्ति का प्रभुत्व धन बल के कारण क्षीण हो गया था। जन रक्षण की व्यवस्था अच्छी नहीं थी। यदा कदा राज्य क्रांति के चलते राजा बदल दिये जाते थे। जुआं, चोरी , चकारी , लम्पटता , बदमाशी का बोल बाला था, राजसत्ता के चाटुकार, रिश्तेदार मनमानी करते थे। बौद्ध धर्म का प्रभाव तो था, मगर राजा की और से आश्रय नहीं था। बौद्ध विहारों में नाकारा लोग भर गये थे।
समृद्धि इस नगर में जिस तरफ से प्रवेश करती, अपने साथ जुआ, शराब, व वेश्यागमन आदि की बुराइयों को भी साथ लाती। आर्थिक उदारता ने लोगों के चरित्र को डस लिया था।
इसी समृद्ध, वैभवशाली उज्जयिनी नगर में एक भव्य राज मार्ग पर अन्धकार में प्रख्यात गणिका वसन्त सेना भागी चली जा रही है। चारों तरफ निविड़ अन्धकार। रात्रि का द्वितीय प्रहर।
रह रहकर वसन्त सेना के भागने की आवाजें। उज्जयिनी के राजा का साला संस्थानक अपने अनुचरों के साथ वसन्त सेना के पीछे पीछे तैजी से भाग रहा है। संस्थानक स को श बोलता है, इसी कारण शकार नाम से समाज में पहचाना जाता है। ‘वशन्त शेना रूक जाओ वशन्त शेना।‘
मगर वसन्त सेना का अंग अंग कांप रहा था, वह बेहद डरी हुई थी, वह जानती थी कि राजा के साले के चंगुल में एक बार फंस जाने के बाद बच निकलना असंभव है। शकार अपने अनुचरों के साथ चिल्लाता हुआ चल रहा था।
वशन्त शेना। वशन्त शेना।
भागते भागते वसन्त शेना ने पुकारा।
पल्लवक, पल्लवक।
माघिविके, माघिविके॥
मदनिके, मदनिके॥।
हाय। अब मेरा क्या होगा। मेरे अपने कहां चले गये हाय अब मैं क्या करूं। मुझे अपनी रक्षा खुद ही करनी पड़ेंगी। वसन्त सेना ने स्वयं से कहा।
दौड़ते दौड़ते शकार वसन्त सेना के नजदीक आ गया। बौला-ऐ दो कौड़ी की गणिका, तुम अपने आपको शमझती क्या हो? मैं राजा का शाला हूं - शाला । तुम किसी को भी पुकारो अब तुम्हारी रक्षा कोई नहीं कर सकता क्योंकि मैं राजा का शाला हूं। मेरे हाथों शे तुम्हें अब कोई नहीं बचा शकता ?
वसन्त सेना ने देखा अब बचना मुश्किल है। ऐसी स्थिति में उसने शकार से कहा।--
आर्य। मुझे क्षमा करें। मैं अभागिन अनाथ हूं।
शकार - तभी तो तुम अभी तक जीवित हो।
वसन्त सेना - आर्य आपको मेरा कौनसा जेवर चाहिए। मैं अपने सभी आभूषण आपको सहर्ष देने को तैयार हूं।
शकार - मुझे आभूषूण नहीं चाहिए देवी। तुम मुझे श्वीकार करो।
मुझे अंगिकार करों। मुझे प्यार करो। मुझे तुम्हारा शमर्पण चाहिए।
बश शमपूर्ण।
वसन्त सेना क्रोध से उबल पड़ी।
- तुम्हें शर्म आनी चाहिए। मैं ऐसे शब्द भी सुनना पसन्द नहीं करती।
शकार - मुझे प्यार चाहिए। शमर्पण चाहिए।
वसन्त सेना - प्यार तो गुणों से होता है।
शकार - अब शमझा। तुम उस निध्ार्न ब्राह्मण चारूदत्त पर क्यों मरती हो, जो गरीब, अशहाय है। और मुझे डराती है। और अब शुन बाइंर् तरफ ही तेरे प्रेमी चारूदत्त का घर है।
वसन्त सेना को यह जानकर आत्मिक संतोष होता है कि वह अपने प्रिय आर्य चारूदत्त के घर के आस पास है। वह सोचती है कि अब उसका मिलना अवश्य हो पायगा। अब उसे कौन रोक सकता है। वह अन्धेरे का लाभ उठाकर आर्य चारूदत्त के भवन में प्रवेश कर जाती है। शकार और उसके साथी अन्धकार में भटकते रहते हैं।
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आर्य चारूदत्त एक अत्यंत गरीब मगर सम्मानित ब्रह्मण है। वे दीनों- गरीबों के कल्पवृक्ष है। दरिद्रों की लगातार सहायता करने से वे स्वयं गरीब हो गये है। चारूदत्त के पितामह एक धनाढ्य व्यक्ति थे। उनका लम्बा चौड़ा व्यापार - व्यवसाय था, मगर काल के प्रवाह में लक्ष्मी और समृद्धि उनसे रूठ गई थी, मगर चारूदत्त का मिजाज रईसाना था। उनकी पत्नी धूता अत्यंत शालीन तथा पतिव्रता स्त्री थी। चारूदत्त का एक पुत्र रोहसेन था। जो छोटा बालक था। जिस समय कला प्रवीण उद्दान्त चरित्र तथा मुग्धानायिका वसन्त सेना ने आर्य चारूदत्त के आवास में प्रवेश किया, उसी समय चारूदत्त का सेवक मैत्रेय मातृदेवियों पर बलि चढ़ाने हतु सेविका रदनिका के साथ बाहर निकल रहा था। वसन्त सेना के आगमन से हवा के तेज झोंके से दीपक बुझ गया। इस वक्त आर्य चारूदत्त ने वसन्त सेना को रदनिका समझ लिया। मैत्रेय ने दीपक जलाने का प्रयास छोड़ दिया क्योकि घर में तेल नहीं था। इसी समय शकार व विट भी चारूदत्त के घर में वसन्त सेना को ढूंढ़ते हुए प्रवेश कर जाते हैं। मैत्रेय को यह सब सहन नहीं होता है। वो कहता है---
कैसा अन्धेर है। आज हमारे स्वामी निर्धन है तो हर कोई उनके घर में घुसा चला आ रहा है।
शकार व विट रदनिका को अपमानित करते हैं। आप रदनिका का अपमान क्यों कर रहे है। मैं इसे सहन नहीं करूंगा। मैत्रेय ने क्रोध से कहा।
मैत्रेय गुस्से में लाठी उठा लेता है। शकार का सेवक विट अपने कृत्य की क्षमा मांगता है। मैत्रेय को महसूस होता है। कि असली अपराधी तो राजा का साला शकार है, जिसका नाम संस्थानक है। वह विट को कहता हैं।
तुम लोंगों ने यह अच्छा नहीं किया है। मेरे स्वामी आर्य चारूदत्त गरीब अवश्य है, मगर इस पूरे नगर में अत्यंत सम्मानित नागरिक है। उनका नाम सर्वत्र आदर से लिया जाता है। आप लोंगों ने आर्य चारूदत्त के सेवकों पर हाथ उठाया है। दासी रदनिका के अपहरण का प्रयास किया है।
शकार - मगर हम तो वसन्तसेना को ढूंढ़ रहे है।
मैत्रेय - लेकिन यह तो वसन्तसेना नहीं है।
शकार - भूल हो गयी।
विट - हमें क्षमा करें । आर्य चारूदत्त को इस घटना की जानकारी नहीं होने दें।
ठीक है। आप लोग जाइये।
मगर शकार नहीं जाता । वो चारूदत्त के सेवक मैत्रेय को बार बार वसन्तसेना को अपने हवाले करने के लिए कहता है। शकार कहता है - अरे दुष्ट शेवक, उश गरीब चारूदत्त को कहना कि गहनों से शजी वेश्या वशन्त शेना तुम्हारे घर में है। उशे मेरे पाश भेज दो नहीं तो शदा के लिए दुश्मनी हो जायगी। मैं उसे नष्ट कर दूंगा। मैं राजा का शाला हूं शाला।
मैत्रेय समझा बुझा कर शकार व विट को वापस भेज देता है।
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मैत्रेय भवन के अन्दर जाता हैं । वो रदनिका को पुनः समझाता है कि आर्य स्वयं दुखी हे, उन्हें इस घटना की जानकारी देकर और ज्यादा दुखी मत करना । रदनिका मान जाती है। इसी समय चारूदत्त अन्धेरे मे वसन्त सेना को रदनिका समझ कर कहते हैं।
रदनिके पुत्र रोहसेन को अन्दर ले जाओ और उसे यह दुशाला औढ़ा दो, सर्दी बढ़ रही है। उसे हवा लग जायेगी। यह कह कर चारूदत्त अपना दुशाला उतार कर वसन्त सेना को दे देता है। वसन्त सेना समझ गई कि आर्य चारूदत्त ने उसे देखा नहीं है और उसे अपनी दासी समझ रहे है। वह दुशाला लेकर उसे सूघंती है, प्रसन्न होती है--
चमेली के फूलों की खुशबू वाला आर्य का दुशाला।
वाह․․․․․․․․। बहुत सुन्दर․․․․․․․। अभी आर्य का दिल और शरीर जवान है।
चारूदत्त पुनः रोहसेन को अन्दर ले जाने के लिए कहते हैं। मगर वसन्त सेना कुछ जवाब नहीं देती है। मन ही मन सोचती है। - आर्य मुझे आपके गृह प्रवेश का अधिकार नहीं है। मैं क्या करूं ?
चारूदत्त पुनः कहते है---
रदनिका तुम बोलती क्यों नहीं हो। तभी मैत्रेय तथा रदनिका अन्दर आते हैं। मैत्रेय कहता है।--
आर्य रदनिका तो ये रही ।
तो वो कौन है? बेचारी मेरे छू जाने से अपवित्र हो गई।
- नहीं नाथ मैै तो पवित्र हो गई। मेरी जनम जनम की साध पूरी हुई। वसन्तसेना ने स्वयं से कहा।
चारूदत्त -यह तो बहुत सुन्दर है। शरद के बादलों की चन्द्रकला की तरह लगती है। लेकिन मैंने पर स्त्री को छू कर अच्छा नहीं किया।
मैत्रेय - ऐसा नहीं है आर्य। आपने कोई पाप नहीं किया। ये तो गणिका वसन्तसेना है, जो कामदेवायतन बाग महोत्सव के समय से ही आप पर मोहित है। आप का कोई दोष नहीं है। यह तो स्वयं आपको चाहती है।
चारूदत्त - अरे तो ये वसन्तसेना हैं मैं निर्धन, गरीब, दरिद्री, ब्राह्मण। मैं कैसे अपने प्यार को प्रकट करूं। मैं मजबूर हूं वसन्तसेना मैं मजबूर हूं। मुझे क्षमा करें। मेरा आवास भी तुम्हारे लायक नहीं है।
आर्य चारूदत्त यह कह कर वसन्त सेना को प्रथम बार भर पूर निगाहों से देखते हैं। अप्रतिम सौन्दर्य, धवल रंग, सुदर्शन देह यष्टि , चपल नेत्र, मदमस्त चाल, गजगामिनी और मुग्धानायिका की तरह का व्यवहार चारूदत्त अपनी सुध बुध खो बैठते हैं। मगर तुरन्त संभलते हैं। मैत्रेय उन्हे सूचित करता है कि राजा पालक का साला संस्थानक आया था तथा वसन्त सेना को ले जाना चाहता है यदि ऐसा नही किया गया तो वह हमेशा के लिए हमारा शत्रु हो जायगा। राजा के साले के साथ शत्रुता हमें महंगी पड़ेगी।
मगर चारूदत्त इस बात पर कोई ध्यान नहीं देता है। वो तो वसन्तसेना के प्रेम में पागल हो जाना चाहता हैं कहता है--
आप एक दूसरे से क्षमा मांगते रहे, मैं तो आप दोनों को प्रणाम करता हूं । मेरे प्रणाम से आप दोनों प्रसन्न होने की कृपा करें।
दोनों हंस पड़ते हे। मानों हजारों पखेरू एक साथ आसमान में उड़ पड़े हो।
वसन्तसेना कह उठती है - आर्य अब मेरा जाना ही उचित है, यह भेंट मुझे हमेशा याद रहेगी। आर्य मेरे ऊपर एक कृपा करें, मेरे आभूषण व हार आप घरोहर के रूप में रखलें, ये चोर- बदमाश मेरा इसीलिए पीछा करते हैं।
चारूदत्त - वसन्तसेना। मेरा आवास धरोहर के लायक नहीं है।
वसन्तसेना - आर्य । यह असत्य है। धरोहर तो योग्य व्यक्ति के यहां रखी जाती है, घर की योग्यता को कोई महत्व कभी नही देता । मुझे आप सर्व प्रकार से योग्य लगते हैं।
चारूदत्त - ठीक है। मैत्रेय ये आभूषण ले लो।
मैत्रेय - आभूषण ले कर कहता है - जो चीज हमारे पास आ गई वो हमारी है।
चारूदत्त - नहीं हम आभूषण यथा समय लौटा देंगे।
वसन्तसेना घर जाने की इच्छा प्रकट करती है।
चारूदत्त दुखी मन से मैत्रेय को वसन्त सेना को छोड़ आने को कहता है, मगर मैत्रेय अवसर के महत्व को समझ कर स्वयं जाने से मना कर देता है, ऐसे अवसर पर चारूदत्त स्वयं जाने को प्रस्तुत होते है, दीपक जलाने के लिए कहते है, मगर सेवक तेल नहीं होने की सूचना देता हैं दीपक के अभाव मैं ही वसन्त सेना चारूदत्त के साथ बाहर निकलती है। चन्द्रमा की दूधिया रोशनी में वसन्त सेना का सौन्दर्य कई गुना बढ़ गया है। चारूदत्त प्यासी नजरों से वसन्त सेना को निहारता हैं वसन्त सेना भी प्यार भरी नजरों से देखती हैं नजरें मिलती है। शीध्र ही वसन्त सेना का आवास आ जाता हैं चारूदत्त से आज्ञा ले वसन्त सेना अपने प्रासाद में प्रवेश कर जाती है। चारूदत्त चोर नजरों से देखता है। वापस आकर वसन्त सेना के आभूषणों की रक्षा का भार मैत्रेय व सेवक वर्धमानक को सौंपता हैं चारूदत्त रात भर वसन्त सेना के सपने में खोया रहता है। वसन्त सेना भी अपने शयन कक्ष में चारूदत्त के विचार मन में लेकर निंद्रा के आगोश में समा गई ।
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वसन्तसेना का भव्य प्रासाद । अप्रतिम सौन्दर्य की मलिका वसन्तसेना का प्रासाद नगर वधू के सर्वधा अनुकूल। इस प्रासाद में कई कक्ष, कक्षों में सुन्दर तेल चित्र, अभिसार के, मनुहार के, वसन्त के, प्यार के, केलि- क्रीड़ा के , जलक्रीड़ा के और बाहर उपवन। उपवन में कोयल, पपीहें की आवाजें। सुन्दर, सुवासित पुष्प, पेड़ पौधे, फव्वारे , हर तरफ श्रृंगार , अभिसार, काम कला का वातावरण। यहां तो हर रात दिवाली हर दिन मधुमास। इस सुसज्जित प्रासाद का एक सुसज्जित कक्ष द्वार पर पुष्प मालाएं लटक रही है। बैठने के दो आसन है। मध्य में एक रत्नजडित आसन पर गणिका वसन्तसेना बैठी है ओर वीणा को हल्के स्वर में बजा रही है। पुष्पों से, घूप से पूरा कक्ष सुवासित हो रहा है। सम्पूर्ण वातावरण में अभिसार , विलास , केलिक्रीड़ा महक रही है। सम्पूर्ण साज- सज्जा कलात्मक है। आभिजात्य है। सम्पन्नता पग पग पर दृष्टिगोचर है। वसन्त सेना वीणा बजाते हुए विचारों में खो जाती है। एक पुष्प उठाकर मुस्कराती है।, सोती है। अपनी दासी मदनिका को बुलाती है। वसन्त सेना मदनिका को बुलाती है। वसन्तसेना मदनिका को देखकर अलसाई हुई अंगड़ाई लेती है, पुष्प मदनिका पर फेंकती हे। तभी मांजी की सेविका चेटी आती है। और वसन्तसेना से कहती है--
मांजी की आज्ञा है कि अब आप प्रातः कालीन स्नान करके स्वच्छ हो जाये तथा देवताओं की पूजा - अर्चना कर लें।
नहीं मांजी से कहों। आज मेरा मन ठीक नहीं है, मैं स्नान भी नहीं करूंगी, पूजा, ब्राह्मणों से करवा लो। मैं आज कुछ नहीं करूंगी।
चेटी इस जवाब को सुनकर चली जाती हैं मदनिका वसन्तसेना के बालों में हाथ फिराते हुए पूछती है।
आर्ये में आपसे स्नेह से पूछ रही हूं, अचानक आपको क्या हो गया है? आप का मन कहीं भटक गया है ? कहीं आपको किसी से आसक्ति तो नहीं हो गयी है।
मदनिके मेरी सखी, तुम ऐसा क्यों सोच रही हों। तुम मुझे ऐसी नजरों से क्यों देखती हो। क्या तुम्हें लगता है। कि मैं अन्यमनस्क हो गयी हूं। मदनिका ने वसन्तसेना की आंखों में आंखों डालकर कहा--
मैं आपको प्यार की नजर से देख रही हूं और मुझे विश्वास है कि आपको किसी से प्यार हो गया हैं।
वसन्तसेना - शायद तुम ठीक कह रही हो। तुझे दूसरों के मन का हाल बहुत जल्दी पता चल जाता है। तुम तो सब कुछ जान जाती हो।
आपको मेरी बात अच्छी लगी । यह मेरा सौभाग्य है। क्या आपकी आसक्ति किसी राजा या राज्याश्रित पर हुई है।
नहीं सखि। मेरी मित्र, मैं तो सेवा नहीं प्यार चाहती हूं। शुद्ध प्यार। व्यवसाय नहीं। व्यवसाय बहुत कर लिया। अब तो बस प्यार․․․․․․․․․समर्पण। वसन्तसेना ने आहत मन से जवाब दिया।
तो क्या आपके मन में किसी ब्रह्मण युवक की छवि बिराजी है या कोई धनवान व्यापारी ।
प्यारी। धनवान की प्रीति का क्या भरोसा वियोग देकर चला जाता है। ब्राह्मण हमारे लिये पूजनीय होते हैं। वसन्तसेना ने फिर कहा।
तो आर्ये बताइये न वह सौभाग्यशाली कौन है, जिसने हमारी प्राण प्रिय सखि का चित्त चुरा लिया है। मदनिका ने जोर देकर पूछा।
इस बार वसन्तसेना फंस गई। इन्कार करते नहीं बना कह बैठी।
तुम तो सब जानती हो। तू मेरे साथ कामदेवायतन बाग गई थी। फिर भी अनजान बनती हैं वहीं पर तो तुझे दिखाया था।
अच्छा समझ गई उन्हीं की याद में आप खोई हुई है। वे तो सेठो के मोहल्ले के निवासी हैं और․․․․․। मदनिका बोली।
उनका नाम क्या है ? आतुर स्वर में वसन्तसेना ने पूछा ।
अरे उनका नाम तो आर्य चारूदत्त है।
तू ने बिल्कूल सही पहचाना, मेरा रोग। इस नाम को सुनने मात्र से मेरे मन की अग्नि शीतल हो गयी है। ऐसा लगता है जैसे मेरे सम्पूर्ण शरीर में प्रसन्नता व्याप्त हो गई। सखि तू धन्य है।
लेकिन वे बहुत निर्धन है। मदनिका ने जानकारी दी।
अरे पगली। इसीलिए तो मैं उन्हें चाहती हूं। गणिका यदि निर्धन से प्यार करे तो कोई बुरा नहीं मानता। फिर उनके गुणों का क्या कहना। गुणवान होना भी तो समृद्धि है।
लेकिन क्या तितलियां बिना पराग के फूलों पर भी बैठती है।
चुपकर सखि। बिना पराग के फूलों में भी सुगंध और रंग हाेता है। मैं ऐसे ही पुष्प को प्यार करना चाहती हूं।
लेकिन आप उनसे मिलती क्यों नहीं ? सखि उनसे मिलना आसान नहीं। वियोग और इंतजार का अपना आंनद है, मैं इंतजार करूंगी।
और आप अपने आभूषण उन्हें दे आई।
चुप कर। शैतान। किसी से कहना नहीं।
नहीं कहूंगी।
दोंनों खिलखिला कर हंस पड़ती हैं। वसन्तसेना मदनिका की सहायता से दैनिन्दिन कार्य सम्पन्न करती है।
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(क्रमश: अगले अंकों में जारी…)
उपन्यास पसंद आ रहा है। लेकिन नाटक का रूपान्तरण प्रतीत होता है।
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