“…चारूदत्त चुप रहते हैं। मौन का संवाद होता हैं। वर्षा आ रही है। मेघ गरज रहे हैं। बिजली चमक रही है। मैत्रेय तथा वसन्त सेना की दासी व चेटी दो...
“…चारूदत्त चुप रहते हैं। मौन का संवाद होता हैं। वर्षा आ रही है। मेघ गरज रहे हैं। बिजली चमक रही है। मैत्रेय तथा वसन्त सेना की दासी व चेटी दोनों को बाग में छोड़ कर अन्दर चले जाते हैं।
वसन्त सेना को देखते चारूदत्त श्रृंगार दिखाते हैं। प्रेम से आलिंगन करते हैं। दोनों बाहुपाश में बंध जाते हैं।
चारूदत्त-‘हे मुख तुम गरजो। हे बिजली तुम चमको। हे वर्षा तुम तेज धार से आओ। क्योंकि इस नाद प्रभाव से मेरी देह वसन्त सेना के स्पर्श से पुलकित होकर फूल के समान और रोमांचित हो रही है।‘
-- इसी उपन्यास से।”
रूमानी उपन्यास
वसन्तसेना
यशवन्त कोठारी
उज्जयिनी नगर में हर तरह की समृद्धि थी । राजा पालक अनार्य था। अक्सर उसके परिवार के सदस्यों के द्वारा प्रजा पर अत्याचार, किये जाते थे। राजा इन समाचारों की और ध्यान नहीं देता था। राजा के निवास में रहने वाली स्त्रियों के रिश्तेदार स्वयं को राजा का साला बताकर अत्याचार करते थे। इन लोगों की शिकायत नहीं की जा सकती थी राजा का एक प्रबल विरोधी आर्यक क्षत्रीय नहीं था, वह गोपपुत्र था। सामाजिक संरचना में अन्तर्विरोध थें, मगर प्रजा अपने आमोद प्रमोद छल प्रपंच तथा विलासिता में व्यस्त रहती थी क्षत्रीय राज पालजक और गोपपुत्र के आर्यक में राज का संघर्ष यदा कदा उभर कर आता था, इसी कारण पालक ने आर्यक को जेल में बन्दी बना लिया था। उज्जयिनी महानगर था और इसी कारण यहां पर व्यापार - व्यवसाय, कला, संस्कृति, साहित्य, आमोद प्रमोद के प्रचुर साधन थे। घूतक्रीड़ा एक व्यवसाय की तरह फल फूल रहा था।
नागरिक विलासी थे, आसव का प्रयोग प्रचुर रूप से होता था। आसव शालाओं में घूत क्रीड़ा एक अनिवार्य शर्त थी। नागरिक पत्नी के अलावा उप पत्नी , दासी , वधू आदि रखते थे और समाज विकृतियों से भरा पडा था। गणिकाएं सर्व सुलभ थी । समाज में उन्हें आदर प्राप्त था। वे सुख साध्य थी अस्थायी विवाह संबंध एक आम बात थी समाज में कुंवारी मां पुत्र या दासी पुत्र या गणिका पुत्र के सम्बोधन दिये जाते थे। कुल मिलाकर उज्जयिनी नगर की व्यवस्था, रीति रिवाज, भ्रष्ट , कामुक और अनैतिक थे। समाज के सभी वर्ग और वर्ण एक दूसरे से सम्पन्नता मंें होड़ ले रहे थे। स्त्रियों को काफी स्वतंत्रता थी, वे अपने प्रेमियों से खुले आम मिलती थी, अभिसारिकाएं वनों , उपवनों , बागों आदि में रमण करती थी। समाज में चारित्रिक विपन्नता व्याप्त थी।
घूत क्रीड़ा लोकप्रिय खेल था। अक्सर नागरिक घूत क्रीड़ा में कुछ भी दांव पर लगा देते थे। जुआ को शासकीय अनुमति थी। घूतक्रीड़ाध्यक्ष शासन की और से नियुक्त किये जाते थे। वे जुआरियों से राशि की वसूली करते थें।
ऐसे उज्जयिनी नगर के एक घूतक्रीड़ा गृह में घूत क्रीड़ाध्यक्ष माथुर एक जुआरी को पकडने के लिए चिल्ला रहा है।
पकड़ो। उसे पकड़ो। उस चोर , जुआरी संवाहक से हमें अस्सी रत्ती सोना वसूल करना है। उसे पकड़ो, भागने मत दो।
संवाहक नामक जुआरी जुएं में दांव में सब कुछ हार गया है, भागता है, मगर बचकर जाने का रास्ता उसे दिखाई नहीं दे रहा हैं वह मन में सोचता है यह जुआ भी केसी बुरी और बेकार लत है। अब कैसे जान बचाऊं ? कहां जाऊं ?। जीता हुआ जुआरी और घूताध्याक्ष माथुर मुझे ढूंढतें हुए इधर ही आ रहे हे। है भगवान। अब मैं क्या करूं? किसी मंदिर में मूर्ति बनकर बैठ जाउं तो कैसा रहे, यह सोच कर संवाहक पास के मंदिर में छुप जाता है। मूर्तिवत बैठ जाता है। संवाहक से दाव जीतने वाला जुआरी और माथुर दोनों संवाहक को ढूढते हुए मंदिर के पास आते हैं। मगर उसे आस पास न पाकर परेशान होते हैं। माथुर को जुआरी कहता है--
देखिये उसके पांवों के निशान है, शायद वो इस मंदिर में छुप गया है।
चलो उसको ढूंढते हैं।
माथुर और जुआरी मंदिर में आते हैं। माथुर और जुआरी वहीं मंदिर की मूर्तियों के सामने जुआं खेलने बैठ जाते हैं संवाहक इन दोनों को जुआ खेलते हुए देखता हैं और शीध्र ही उनमें शामिल होने को उत्सुक हो जाता है। संवाहक को देखकर माथुर औरा जुआरी उसे पकड कर अस्सी रत्ती सोना वसूलने का प्रयास करते हैं संवाहक के पास देने को कुछ नहीं हैं माथुर और जुआरी मिलकर उसे मारते हैं। संवाहक के नाक से खून बहने लग जाता है माथुर कहता है-
अब तू बच कर कहा जायेगा ? तुझे हर हालत में सोना देना होगा।
संवाहक - मगर मेरे पास है नहीं तो दू कहां से।
माथुर कहता है - नहीं हैं तो बचन दो।
संवाहक आधा सोना चुकाने का वचन देता हैं और आधा सोना माफ कर देने की प्रार्थना करता है।
यह समझोता हो जाने पर संवाहक जाना चाहता है, मगर माथुर उससे कहता है कि आधा सोना मिलने पर ही हम तुम्हें जाने देंगे। बेचारी संवाहक इस सम्पूर्ण प्रकरण में फंस गया है। राजा का भय दिखाने पर चिल्ला पड़ता है। अरे देखो न्याय करने वालो। ये लोग मुझे नहीं छोड रहें हैं एक बार सोना छोड देने पर भी फिर पकड लिया है। हे नगर वासियों मुझे बचाओ। लेकिन संवाहक को बचाने के लिए कोई नहीं आता हैं इधर माथुर और जुआरी उसे पकड़ कर सोना वसूलने के प्रयास जारी रखते हैं।
जा किसी को बेच कर सोना ला।
किसे बेचूं।
मां बाप को बेच कर ला।
मेरे मां बाप मर चुके है।
तो खुद को बेच डाल ।
हां मुझे राज मार्ग पर ले चलो। शायद वहां कोई मुझे खरीद लै।
संवाहक नागरिकों से स्वयं को क्रय करने का अनुरोध करता हैं मगर कोई उसे क्रय नहीं करता। संवाहक जो वास्तव में चारूदत्त का पुराना सेवक है, रो पडता है और माथुर उसे घसीटता है- पीटता है मारता है। संवाहक चिल्लाता है, रोता है। मार खाता है, मगर कुछ कर नहीं पाता।
एक अन्य जुआरी ददुरैक आता है वह भी माथुर से डरता हैं ददुरेक माथुर को प्रणाम करता हैं और संवाहक को छुडाने का प्रयास करता हैं माथुर कहता है-
मुझे संवाहक से अस्सी रत्ती सोना वसूल करना है, जो यह जुआ में हार गया है।
लेकिन माया तो आनी जानी है, तुम क्यों इसे परेशान कर रहे हो।
अच्छा तो तुम चुका दो।
अच्छा एक काम करो तुम इस संवाहक को अस्सी रत्ती सोना और दो, यदि यह जीत जाता है तो तुम्हारे दोनों दाव चुका देगा।
और यदि हार गया तो।
तो सारा सोना एक साथ ले लेना। ददुरैक के इस कथन पर माथुर चिल्लाता है।
तुम कुछ नहीं समझते । तुम चुप रहो। मैं माथुर हूं। किसी से नहीं डरता।
ये आंखे तुम मुझे मत दिखाओ। ददुरैक बोला।
नीच निकाल मेरा सोना। संवाहक को माथुर मारता है।
तुम संवाहक को छोड दो। तुम्हारा सोना मिल जायगा।
नहीं मैं तो संवाहक से ही वसूल करूंगा।
माथुर संवाहक को फिर मारता है। माथुर संवाहक के साथ साथ ददुरैक को भी मारता हैं गालियां देता है।
तुमने मुझे बिना गलती के मारा हैं कल मैं राज दरबार में तुम्हारी शिकायत करूंगा।
जा कर देना।
अचानक ददुरैक एक मुठ्ठी धूल लेकर माथुर की आंखों में झोंक देता है, माथुर जमीन पर गिर जाता है, संवाहक और ददुरैक भाग जाते हैं, ददुरैक गोप पुत्र आर्यक के पास चला जाता है। उसके गिरोह में भर्ती होता जाता है।
संवाहक एक भव्य प्रासाद के सामने आ खडा होता है, दरवाजा खुला देख कर उसमें प्रवेश कर जाता हैं प्रासाद में प्रवेश करते ही वसन्तसेनाको देखता हैं प्रणाम करता है। और कहता है।
देवी मेैं आपकी शरण में आया हूं । शरणागत की रक्षा करना आपका कर्तव्य है।
वसन्तसेना उसे अभयदान देती है। दासी को दरावाजा बंद करने को कहती है और दरवाजे की कुण्डी लगवा देती हे। अब संवाहक की घबराहट कुछ कम होती है।
संवाहक को देखने के बाद वसन्तसेना अपनी सेविका मदनिका को इशारा करती है। वह संवाहक से जानकारी लेती है कि संवाहक पटना शहर का निवासी है और मालिश का काम करता हैं इस शहर की प्रशंसा सुन कर यहां पर रोजगार की तलाश में आया है और मीठे, हंसमुख, छिपे हाथ से दान देने वाले, दूसरों की बुराई और अपनी भलाई भूल जाने वाले एक आर्य की सेवा में था। मगर वे निर्धन हो गये हैं और वह अनाथ।
हां आर्ये में आर्य का सेवक था। अब वे धनहीन हो गये हैंं।
हां गुण और धन का मेल नहीं होता हैं अक्सर गुणी व्यक्ति धनहीन हो जाता हैं वसन्त सेना बोली।
हां आर्ये। आर्ये चारूदत्त निर्धन हो गये हैं।
आर्य चारूदत्त का नाम सुन कर ही वसन्तसेना को अपार प्रसन्नता होती है। वह संवाहक को कहती है --
तुम इसे अपना ही घर समझो। मदनिका इनके आराम की व्यवस्था करो। इन्हे सब सुविधाऐं दो।
संवाहक यह सब सुन कर प्रसन्न होता है। वह सोचता है आर्य चारूदत्त के नाम मात्र से उसे सब सुविधाएं मिल रही है। वसन्तसेना आर्य चारूदत्त के बारे में और जानकारी चाहती है पूछती है --
अब वे कहां है ?
उनके धनहीन होने के बाद मैं जुआरी हो गया। मैं बरबाद हो गया। मैं अस्सी रत्ती सोना हार गया। माथुर पीछा कर रहा हे। उन्होने मुझे बहुत मारा।
इसी बीच माथुर और जुआरी खून की बूंदों का पीछा करते करते वसन्तसेना के घर पर दस्तक देते हैं। वसन्तसेना मदनिका को अपना कंगन देकर कहती है--
आर्य चारूदत्त के सेवक के ऋण का भार उतार दो। धूताध्यक्ष को सोने का कंगन दे देा। और कहना - इसे संवाहक ने भिजवाया है। मदनिका जाकर माथुर को सोना चुका देती हे। माथुर और जुआरी चले जाते हे। संवाहक कृत कृत्य हो जाता है।
मदनिका वापस वसन्तसेना के पास आती है, संवाहक मदनिका को देखकर खुश होता है। वह वसन्तसेना से पूछता है --
आर्ये मेरे लायक कोई सेवा हो तो बतायें।
सेवा तो आप आर्य चारूदत्त की ही करें। वसन्तसेना ने कहा।
मेरा बहुत अपमान हो गया है। मैं अब बौद्ध भिक्षु बन जाउंगा।
नहीं। आर्य नही। मदनिका कहती है।
लेकिन मैं निश्चय कर चुका हूं। संवाहक ने कहा। तभी वसन्तसेना के प्रासाद के बाहर शोर उभरता है।
वसन्तसेना का मस्त हाथी खुल गया है। कर्णपूरक वसन्तसेना के कक्ष में आता है।
क्या बात हैं कर्णपूरक । बहुत प्रसन्न दिखाई दे रहे हेा ।
हां आर्ये । प्रणाम । आज मैंने आपके मस्त हाथी को काबू में करके एक सन्यासी की जान बचाई है।
बहुत अच्छा कर्ण पालक तुमने एक बडे अनर्थ को होने से बचा लिया। मैं बहुत खुश हूं। वसन्तसेना ने कहा।
लेकिन आर्ये आगे सुनिये ज्योंहिं मैंने हाथी को काबू में किया एक सज्जन नागरिक ने आभूषण के अभाव में मेरे ऊपर बहुमूल्य दुशाला फेंक दिया।
दुशाले का नाम सुनकर ही वसन्तसेना कह उठती है---
जरा देखना क्या दुशाले में चमेली के फूलों की गन्ध है ?
क्या उस पर कुछ लिखा हे।
हां आर्ये इस पर चारूदत्त लिखा है।
वसन्तसेना दुशाले को लेकर औढ़ लेती है। मुस्कुराती है। शरमाती है।
वसन्तसेना कर्णपूरक को आभूषण इनाम में देती है।
कर्णपूरक चला जाता हे। वसन्तसेना मदनिका से चारूदत्त की बातें करने लग जाती है। वसन्तसेना चाव से दुशाला लपेट लेती है।
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निर्धनता मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है। निधर्न होना ही सबसे बडा अपराध है। यक्ष ने जब युधिष्ठिर से पूछा कि संसार में सबसे ज्यादा दुखी कौन है ? तो युधिष्ठिर का प्रत्युत्तर था- निर्धन व्यक्ति सबसे ज्यादा दुखी है। उपनिषदों में भी निर्धनता को पौरूषहीनता माना गया है। अर्थात् व्यक्ति मे पौरूष उतना ही है, जितना उसके पास धन हे। सभी गुण कंचन में बसते हैं। धनवान ही रूपवान , चरित्रवान , साहित्य, कला, संस्कृति का पारखी , सज्जन और सबल होता है। इर युग में धनवान की पूछ होती रहती है। राजा भी धनवान की बात ध्यान से सुनता हैं। इस कलि युग में इस धन का महत्व और भ्ाी ज्यादा हैं जीवन में निर्धनता का अभिशाप सबसे बडा अभिशाप है। धन से कलियुग में सब कुछ क्रय किया जा सकता हैं और इसी कारण व्यक्ति साम, दण्ड , दाम, भेद, सही , गलत सभी तरीकों से धन कमाने के लिए टूट पडता हैं, वह पैसे की इस अन्धी दौड में घुड दौड के घोडे की तरह दौड रहा हैं राज्याश्रय तथा राजाज्ञा निर्धन के लिए नहीं होती है, निर्धन तो हमेशा दुख ? कोप और दुभाग्य का मारा होता है, और यदि व्यक्ति धनवान से निर्धन हो जाता हैं तो उसके कष्ट और बढ़ जाते है, मित्र मुंह मोड लेते हे, रिश्तेदार पहचानना बंद कर देते हैं। और उपेक्षा , अपमान का जीवन जीने को बाध्य होना पड़ता है।
आज कल आर्य चारूदत्त इसी अपमान को जी रहे है। उनका सेवक बर्द्धमानक आवास में अकेला अपनी और अपने स्वामी की निर्धनता को कोस रहा हैं निर्धन , गरीब स्वामी का सेवक क्या कभी सुख पा सकता हैं नहीं। और धनवान का सेवक क्या कभी दुख पा सकता है? नहीं। वर्द्धमानक सोचता हैं और पश्चाताप करता है। लेकिन सेवक की अपनी मजबूरियां, सीमाएं , मर्यादाएं होती है। , जिस प्रकार हरे धान का लोभी सांड बार बार एक ही खेत में घुस जाता हैं वेश्यागामी पुरूष और जुआरी अपने व्यसन नहीं छोड सकते है, उसी प्रकार मैं भी अपने स्वामी को नहीं छोड सकता हूं । आर्य चारूदत्त अभी रात्रीकालीन संगीत सभा से लौटे नहीं हैं । वर्द्धमानक बैठक में उनका इंतजार कर रहा है।
चारूदत्त अपने मित्र विदूषक मैत्रेय के साथ आवास की ओर आ रहे हैं।
चारूदत्त रात्रीकालीन सौम्य वेशभूषा में हैं। वे एक संगीत सभा में रेमिल का गायन सुनकर आ रहें है। आर्य रेमिल के गायन की मुक्तकंठ से प्रशंसा कर रहें है। वे मैत्रेय से कहते हैःं-
मैत्रेय यह वीणा भी अपूर्व वाद्य है। वीणा तो व्याकुल मानव का सच्चा साथी हैं यह मन बहलाव का उत्तम साधन हैं यह प्रेम को जगाने वाला पवित्र वाद्य हैं सच में रेमिल बहुत सुन्दर गाते हैं। उनके गले में सरस्वती का वास हैं मैत्रेय अनमना सा साथ चल रहा हैं कहता हैः-
मुझे तो शास्त्रीय संगीत सुनकर हंसी आती है। ऐसी पतली आवाज में गाने वाले पुरूष तो मंत्र जपता पंडित सा प्रतीत होता है।
चारूदत्त संगीत के आनन्द में अभी भी आकंठ डूबे हुए हैं ? वे पुनः रेमिल की प्रशंसा करते हैः -
बहुत सुन्दर गाया। क्या गीत । क्या आवाज । जैसे पुष्प थपकिया देते हो । उसने मेरे मन के दुख को धो दिया। मेैत्रेय इस वार्ता से ऊब चुका था। कह उठाः -
अब जगह जगह श्वान समुदाय चैन से नींद ले रहे है। आकाश में चंद्रमा अंधकार के लिए स्थान बना रहेे हैं और हमें भी घर पहुंच जाना चाहिए। वे दोनों चलते हुए घर पहुंचते हैं। मैत्रेय वर्द्धमानक को आवाज देकर आवास गृह का दरवाजा खुलाता है। वर्धमानक आर्य चारूदत्त को देखकर आसन बिछाता है।
आर्य के पांव धुलाने की व्यवस्था करें। मैत्रेय कहता हैः -
वर्द्धमानक पानी डालने को उद्यत होता है, मगर मैत्रेय पानी डालता है और वर्द्धमानक चारूदत्त के पांव धेाता हैं मैत्रेय भी पांव धोता हैं । अब वर्द्धमानक कहता है‘- आर्य मैत्रेय दिन भर आभूषणों की रक्षा मैंने की है, अब रात में आप ध्यान रखें । वह मैत्रेय को गहने देकर चला जाता हैं चारूदत्त खो जाता हैं मैत्रेय वसन्तसेना के गहनों की पोटली सिरहाने रख सोने का प्रयास करता है।
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रात्रि का तीसरा प्रहर।
हर तरफ नीरव शांति । कभी कभी श्वान के भेांकने की आवाजें । या दूर से किसी चौकीदार की जागते रहो की आवाज। हर तरफ सुनसान । इस वक्त एक गरीब ब्राह्मण शर्विलक चोरी करने के विचार से आर्य चारूदत्त के घर में सेंध लगाता हैं शर्विलक एक कलात्मक चोर है, चोरी करता हैं मगर चौर्यकला में प्रवीणता के साथ। सुन्दर ढंग से । चांद डूब रहा हैं वह सोचता हैं रात्रि माता की तरह हैं मुझे सुरक्षा देती है। शर्विलक बाग से होकर रनिवास की दीवार के पास पहुंच जाता हैं वह चोरी को बहादुरी का काम मान कर करता है। उसके अनुसार यह एक स्वतंत्र व्यवसाय है। इस काम में किसी के पास गिडगिडाना नहीं पडता । शर्विलक सेंध लगाने लायक हिस्सा ढूंढता है। उसे भगवान कनकशक्ति की याद आती हैं जो सेंध लगाने के लिए नियम बना गये थे। उन्हीं नियमों के अनुरूप वह संेंध लगाता हैं दीवार में हुई सेंध को एक कलात्मक रूप प्रदान करता है। ताकि दिन निकलने पर आम आदमी उसके कार्य की प्रशंसा करें। वह जनेऊ से रस्सी का काम लेता है। अन्दर प्रवेश करने से पूर्व एक नकली पुतले को धकेलता हे। घर पुराना है। बैठक में शर्विलक प्रवेश करता हैं चारों तरफ ढूंढता है, कुछ नहीं मिलता हैं वह फर्श पर दाने बिखेरता है, मगर कुछ नहीं होता । वह सोचता है आज की मेहनत बेकार गई, मैं कहां निर्धन के घर आ गया। ःःःःः यहां पर तो मृदंग , वीणा , बांसुरियां और ग्रन्थों के अलावा कुछ नहीं हे। यह तो किसी निर्धन ब्रह्मण का घर लगता है। शर्विलक निराश हो जाता है।
बैठक में मैत्रेय सो रहा हैं सपने में सोचता है। किसी ने घर में सेंध लगादी है। वह सपने में ही गहनों की पोटली शर्विलक के हवाले कर देता हैं मैत्रेय उसे गाय और बा्रह्मण की शपथ दिलाकर जबरन पोटली सोंप देता हैं मैत्रेय सोचता हैं शर्विलक चारूदत्त हैं शर्विलक दीपक बुझा देता है। चारों तरफ अन्धकार छा जाता हैं वह पोटली ले लेता है। मन ही मन शर्विलक सोचता है, मैं चारों वेदों का ज्ञाता और दान न लेने वाला ब्राह्मण हूं मगर वसन्त सेना की सेविका मदनिका के लिए यह पाप कर रहा हूं मुझे उससे प्यार है, और उसे दासता से छुडाने के लिए धन की आवश्यकता हैं शर्विलक पोटली लेकर चल देता हैं वह सोचता है अब मैं मदनिका को वसन्त सेना के बंधन से छुडा सकता हूं मैं उससे विवाह कर के शेष जीवन आराम से गुजार सकता हूं। वह चल जाता हैं सुबह का हल्का प्रकाश फैलने लगता है। चिडियों की आवाजें आने लगती है। तभी पांवों की आहट आती है। रनिवास से रदनिका बैठक की ओर आती हैं वह चिल्लाती है।
अरे हमारे घर में सेंध लग गयी। चोरी हो गयी । आर्य मैत्रेय, उठो। वर्द्धमानक तुम कहां हो । जागो । हमारे यहां चोरी हो गयी। मैत्रेय , रदनिका सेंध देखते हैं। आर्य चारूदत्त को सूचित करते हैं । आर्य चारूदत्त सेंध देखकर कह उठते हैं-
चोरी करना भी एक कला है, क्या सुन्दर रास्ता बनाया गया हैं । और एक बात हैं हमारे घर में चोरी की नीयत से आने वाला कोई बाहरी व्यक्ति या नया चोर ही हो सकता है, पूरा नगर मेरी स्थिति और निर्धनता से परिचित है। बेचारा चोर भी सोचता होगा इस चारूदत्त के यहां कुछ नहीं मिला।
मैत्रेय चारूदत्त की बातें सुनकर हैरान हो गया।
आप चोर की चिन्ता कर रहें हैं लेकिन वसन्त सेना वे गहने कहां हैं जो मैेंने रात को आपको दे दिये थे।
फिर मजाक।
मजाक नहीं मैने रात को गहनों की पोटली आपको दी थी। उस वक्त आपके हाथ भी ठंडे थे। नहीं मुझे नहीं दिये। मगर एक शुभ बात ये हैे कि चोर खुश हो कर लौटा , खाली हाथ नहीं गया। चोर मेरे घर से खाली हाथ नहीं गया। वह वसन्तसेना के गहनों को ले गया। चोर कुछ अर्जित करके गया। यही सुखद हैं।
लेकिन वे गहने तो वसन्त सेना की धरोहर थे। आर्य।
-घरोहर। आह। ये क्या हुआ। अब मैं उसे क्या मुंह दिखाउंगा। चारूदत्त मुर्च्छित हो जाता हैं।
आप घबराते क्यों हैं ? हम मना कर देंगें कि गहने हमारे यहां नहीं रखे। मैत्रेय ने बात को संभालते की कोशिश की।
तो क्या अब मुझे मिथ्या भाषण भी करना होगा। हे भाग्य । मैं भीख मांगूंगा मगर गहने वापस लौटाउंगा।
इसी समय सेविका रदनिका सम्पूर्ण घटना का विवरण रनिवास में जाकर आर्य चारूदत्त की पतिव्रता पत्नी धूता को बताती है। धूता सब सुनकर बेहोश हो जाती है। रदनिका धूता की सेवा-सुश्रषा करती है। धूता सोचती है,अब इस नगर के लोग क्या सोचेगें कि निर्धनता से परेशान होकर चारूदत्त ने गणिका के गहने दबा लिये। निर्धन का भाग्य तो कमल के पत्तो पर गिरी पानी की बूंद की तरह होता है। मेरी रत्नावली देकर ही इस परेशानी से छूटा जा सकता है। वह कहती है-'तुम जाकर मैत्रेय को यह मेरी रत्नावली दे दो।'
रत्नावली लेकर मैत्रेय चारूदत्त के पास जाता है। दुःख में योग्य पत्नी की कृपा से बच जाने की बात मान लेता है और मैत्रेय को रत्नावली देकर वसन्त सेना के पास भेज देता है। मैत्रेय रत्नावली लेकर चला जाता है। चारूदत्त सोचता है, मैं निर्धन नहीं हूँ, मेरे पास योग्य पत्नी, अच्छा मित्र मैत्रेय सब कुछ है। वह प्रातःकालीन पूजा-अर्चना में व्यस्त हो जाता है।
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प्रेम जीवन का शाश्वत सत्य है ठीक मृत्यु की तरह। प्रेम ही जीवन है। प्रेम की अनुपस्थिति में जीवन निस्सार है। प्रेम का आधार ही जीवन को आधार देता है। प्रेम कभी भी, कहीं भी किसी से भी हो सकता है। धनवान स्त्री गरीब पुरूष से और गरीब स्त्री धनवान पुरूष से प्रेम कर लेती है। समाज इस आश्चर्य को देखता रह जाता है। सदियों से स्त्री पुरूष संबंधों पर ज्ञानी लोग चर्चा करते रहे हैं, मगर कोई ठोस सर्वमान्य परिभाषा का विकास आज तक नहीं हो पाया है। स्त्री-स्त्री है और पुरूष-पुरूष मगर मिलन, प्रेम, प्यार के क्षणों में सब कुछ मिल जाता है। समरस हो जाता है।
अपना वांछित प्यार पाने के लिए स्त्री हो या पुरूष कुछ भी करने को तैयार रहता है, कहा भी है कि प्रेम और युद्ध में सब कुछ जायज होता है। कुछ भी करो और वांछित को प्राप्त करो।
अपना वांछित पाने के प्रयासों में ही शर्विलक ने ब्राह्मण होते हुए भी अन्य कुलीन ब्राह्मण के घर से गहने चुराये ताकि अपनी प्रियतमा वसन्त सेना की सेविका मदनिका को दासत्व से छुड़ाकर पुनः प्राप्त कर सके। शर्विलक गहनों की पोटली को लेकर वसन्त सेना के प्रासाद की आरे चल पड़ता है। मन की मन सोचता है, आज वह कितना खुश है। उसने रात्रि पर, राजा के सुरक्षा कर्मचारियों पर तथा नींद पर विजय पाई। अपने उद्देश्य में सफल रहा। अब मैं सूर्योदय के साथ ही पवित्र हो गया हूँ। वह सोचता है उसने यह चोरी स्वयं के लिए नहीं की है। मैनें यह सब अपने प्रेम को पाने के लिए किया है। प्रेम में सब जायज हैं।
वसन्त सेना के आवास में वसन्त सेना अपने कक्ष में मदनिका के साथ वार्ता कर रही है। पास में रखे एक चित्र को देखकर वसन्त सेना कहती है -
'अहा। कैसा सुन्दर चित्र है। सखि यह चित्र आर्य से कितना मिलता है। है न मदनिका।' इसी समय शर्विलक वसन्त सेना के घर में प्रवेश कर मदनिका को आवाज देता है।
'मदनिका' ।
'आर्य शर्विलक आपका स्वागत है। प्रणाम। इतने दिन आप कहां थे।' मदनिका ने उसके पास आकर कहा।
मदनिका और शर्विलक एक दूसरे को भरपूर नजरों से देखते हैं। आँखों‘ आँखों‘ में प्यार की, मनुहार की बातें होती हैं। शर्विलक आज परम प्रसन्न है। मदनिका वसन्त सेना के आदेश को भूल गई है। वसन्त सेना पुनः आवाज देती है। सोचती है, अरे यह मदनिका कहां चली गयी। वह झांक कर देखती है, वसन्त सेना को मदनिका किसी पुरूष से वार्ता में संलग्न दिखाई देती है। वसन्त सेना मदनिका के व्यवहार को देखकर ठगी सी रह जाती है। वह सोचती है, यह पुरूष मदनिका को ले जायेगा। शायद इसी संबंध में वह मदनिका से बात कर रहा है। वह मदनिका को बुलाने का प्रयास नहीं करती।
मदनिका - शर्विलक आपस में वार्ता में व्यस्त रहते हैं। मदनिका कहती है -
‘शर्विलक तुम इतने दिन कहां रहे ? और तुम इतने परेशान क्यों दिखाई दे रहे हो। सब कुशल तो है।‘
शविलक मदनिका के मुंह को निहारता है और धीरे से कहता है -
‘मैं तुम्हें एक राज की बात बताना चाहता हूँ। ध्यान से सुनो।‘
‘कहो क्या बात है?‘
‘क्या वसन्त सेना तुम्हे‘ धन लेकर मुक्त कर देगी।‘
मदनिका यह सुनकर प्रसन्न होती है। कहती है- ‘आर्य देवी वसन्त सेना का दिल बहुत बड़ा है। वे कहती है मैं तो सब दास-दासियों को छोड़ना चाहती हूँ। मगर बताओं तुम्हारे पास कौनसा खजाना है।‘
‘मदनिका मैं तुम्हें क्या बताऊँ ? कल रात भर मैं सो नहीं पाया। मैनें हिम्मत करके चोरी कर डाली ।‘
‘क्या तुमने मेरे जैसी तुच्छ नारी के खातिर अपने चरित्र और शरीर को खतरे मैं डाल दिया ?‘
‘हां, आयें मैंने ऐसा ही किया। मैंने स्वर्ण आभूषणों की चोरी की है और ये आभूषण मैं वसन्त सेना को देकर तुम्हें मुक्त कराना चाहता हूँ।
गहने देखकर मदनिका सोच में पड़ जाती है। सोचती है ये गहने तो उसके देखे - पहचाने हैं। वह पहचान जाती हैं कि ये गहने तो वसन्त सेना के हैं। इसी बीच शर्विलक बताता है कि गहने चारूदत्त के आवास से चुराये गये हैं। वसन्त सेना की सेविका मदनिका इस सम्पूर्ण प्रकरण को समझ जाती है और डर से कांपने लगती हैं। वसन्त सेना के गहने चारूदत्त के पास धरोहर है, चारूदत्त से चोरी करके शर्विलक लाया है अपनी प्रियतमा को छुड़ाने, और प्रियतमा की मालकिन वसन्त सेना को देने। प्रेम का कैसा सुन्दर त्रिकोण बना है। मदनिका ने आगे विचार किया।
लेकिन वसन्त सेना के गहने चारूदत्त के पास धरोहर थे और धरोहर का चोरी हो जाना, बेचारे आर्य चारूदत्त पर क्या गुजरेगी।
सम्पूर्ण प्रकरण को मदनिका समझ तो गई, मगर अब हो क्या सकता है ? शर्विलक भी कुछ गंभीरता को समझने लगा। मगर अब क्या हो ?
‘तुम बताओ मदनिका। अब हम क्या करें। स्त्रियां ऐसे मामलों में ज्यादा समझदार होती है।‘
‘मेरी मानो तो ये गहने चारूदत्त को लौटा देा।‘
‘और अगर मामला न्यायालय में गया तो।‘
‘चाँद से कभी धूप निकलती है क्या ?‘
शर्विलक आर्य चारूदत्त के गुणों से परिचित है।
गहने वापस लौटाना नीति के अनुरूप नहीं है। कुछ और सोचो। एक उपाय और है -‘मदनिका बोली।‘
‘वो क्या ?‘
‘तुम चारूदत्त के दास बनकर वसन्त सेना को ये गहने लौटा दों न तुम चोर रहोगे और न चारूदत्त पर ऋण ही रहेगा।‘
‘लेकिन यह तो और भी मुश्किल है।‘
‘इसमें कुछ भी मुश्किल नहीं है। तुम कामदेव - मंदिर में ठहरो। मैं वसन्त सेना को तुम्हारे आगमन की सूचना देती हूँ। यह कहकर मदनिका तेजी से अन्दर चली जाती है। वसन्त सेना को सम्पूर्ण घटनाक्रम की पूर्व जानकारी झरोखे से सुनने पर प्राप्त हो जाती है, मगर वह मदनिका पर जाहिर नहीं होने देती। वसन्त सेना मदनिका को तुरन्त आर्य चारूदत्त के चैट को अन्दर लाने की आज्ञा देती है।
शर्विलक वसन्त सेना के पास आता है। शर्विलक अन्दर आता है। वसन्त सेना ब्राह्मण को प्रणाम करती है। शर्विलक आर्शीवाद देता है। वह वसन्त सेना से कहता है।
‘आर्य चारूदत्त ने मुझे आपके पास भेजा है और कहा है कि मैं इन गहनों को अधिक समय तक अपने पास नहीं रख सकता हूँ। कृपया आप इन्हें पुनः ग्रहण करें।‘
वसन्त सेना मुस्कराती है। मन ही मन सम्पूर्ण प्रकरण पर आनन्दित होती है। वह शर्विलक को मदनिका को स्वीकार करने का आग्रह करती हैं और कहती हैं -
‘आर्य चारूदत्त ने मुझसे कहा था कि जो गहने लाये उसे सेविका मदनिका को सौंप देना। सो मैं आपको मदनिका सौंपती हूँ। अब मदनिका आपकी हुई। ‘शर्विलक सब समझ जाता है। वसन्त सेना भी सब कुछ समझ जाती है।
वह चारूदत्त के गुण गाता है। वसन्त सेना एक गाड़ी मंगवाती है और मदनिका को उसमें बैठा कर विदा करती है। वसन्त सेना उसे उठाकर गले लगाती है। शर्विलक और मदनिका प्रस्थान करते हैं।
इसी समय राजाज्ञा की घोषणा होती है कि राजा पालक ने आर्य को बंदी लिया है। शर्विलक यह सुनकर अपने मित्र आर्य को छुड़ाने के लिए मदनिका को छोड़ कर चला जाता है। मदनिका को वह अपने मित्र गायक रैमिल के यहां छोड़ने को एक चैट को आज्ञा देता है। शर्विलक राजा पालक के िख्ालाफ जन समुदाय में आन्दोलन चलाता है। राजा कर्मचारियों को भड़काता है। आन्दोलन धीरे-धीरे राजा पालक की शक्ति को क्षीण करता है। वसन्त सेना की एक सेविका बताती है कि आर्य चारूदत्त ने एक ब्राह्मण को भेजा है। वह ब्राह्मण आर्य चारूदत्त की पत्नी की रत्नावली लेकर आता है।
वसन्त सेना कह उठती है - ‘आज का दिन कितना सुन्दर है।‘
कुल वधु और नगर वधू के आभिजात्य में बहुत अन्तर होता है। नगर वधू वसन्त सेना का भव्य प्रासाद और चारूदत्त के मुंह लगे सेवक मैत्रेय का उसमें प्रवेश। मैत्रेय की आंखें इस वैभव को देख कर ठगी सी रह जाती है, उसे लगता है वह किसी इन्द्रपुरी में प्रवेश कर गया है। वसन्त सेना की दासी के साथ वह प्रासाद में प्रवेश करता है। सर्वप्रथम प्रासाद के बाग की शोभा देखता है और आश्चर्यचकित हो जाता है। बाग की शोभा बहुत सुन्दर है। पेड़ फूलों-फलों से लदे हुए हैं। घने पेड़ों पर झूलें डले हुए हैं। शैफाली, मालती, आग्रम आदि पुष्पों से बाग की सुन्दरता बढ़ गयी है। कमल व तालाब की शांति का मनोहर दृश्य है। यह सब देखते हुए मैत्रेय अन्दर आता है। गृह द्वार से मैत्रेय मुख्य भवन में प्रवेश करता है। द्वार के दोनों और ऊँचे स्तम्भों पर मिल्लका की माला शोभायमान है। आम तथा अशोक के हरे पत्तों से कलश शोभायमान है। स्वर्ण के किवाड़ है और हीरों की कील से जुड़े हुए हैं।
मैत्रेय दासी से पूछता है-
‘आर्यें वसन्त सेना कहां है ?'
‘वे तो बाग में है। आपको अभी काफी चलना है।' मैत्रेय एक के बाद कई कक्षों में से होता हुआ बाग में पहुंचता है जहां पर वसन्त सेना बैठी हुई है। वसन्त सेना मैत्रेय को देखकर खड़ी हो जाती है। वह मैत्रेय का स्वागत करती है। बैठने का आदेश देेकर स्वयं भी बैठ जाती है। वसन्त सेना अपने प्रियतम आर्य चारूदत्त के कुशल समाचार जानने को अत्यन्त उत्सुक हो पूछती है-
‘आर्य मैत्रेय बताओ। उदारता जिनका गुण है, नम्रता ही जिनकी शाखाएं हैं, विश्वास ही जिनकी जड़ है और जो परोपकार के कारण फल-फूल रहे हैं, ऐसे आर्य चारूदत्त कैसे हैं? क्या उस विराट वृ.क्ष पर मित्र रूपी पक्षी सुख से रह रहे हैं।'
हां देवी सब कुशल मंगल है। देवी आर्य ने निवेदन किया है कि आपके स्वर्णाभूषण वे जुएं में हार गये हैं और जुआरी का पता नहीं चल पाया है।' वसन्त सेना समझकर भी नासमझ बनकर चुप रहती है। मैत्रेय चारूदत्त की दी हुई धूता की रत्नावली वसन्त सेना को देकर कहता है-
‘आप यह रत्नावाली स्वीकार करने की कृपा करें। उससे आर्य को परम सुख मिलेगा।‘
वसन्त सेना कुछ उत्तर नहीं देती चुप रहती है। मैत्रेय फिर कहता है तो वसन्त सेना कह उठती है।
‘क्या कभी मंजरियों से रहित आम के पेड़ से भी मकरन्द टपकता है।' आप आर्य से कहे सायंकाल में उनसे मिलने आऊंगी।‘ यह कह वसन्त सेना रत्नावली चेटी को दे देती है। वसन्त सेना पुष्प करण्डक उद्यान में मिलने हेतु मिलने उपक्रम करती हैं महाकाल के मंदिर पर आर्य पुत्र की गाड़ी की प्रतीक्षा करने को कहकर मैत्रेय को विदा करती है। मैत्रेय वहां से चल देता है।
मदनिका वसन्त सेना को अभिसार हेतु तैयार करती है। वसन्त सेना कहती है-
‘देखो आर्य कितने महान है। चुराये गये आभूषणों को वे जुंए में हार जाना बता रहे हैं और बदले में अपने प्राण प्रिय पत्नी की रत्नावली मुझे भिजवादी। वे महान है मदनिका। महान।‘
आप ठीक कह रही हैं देवी, उनकी उदारता पर तो सभी मुग्ध है।‘
‘अच्छा मैं तैयार होने जा रही हूँ।‘
‘देवी सावधान रहना पुष्पकरण्डक उद्यान शहर के बाहर है और वह निर्जन स्थान है। आपका अकेले जाना और भी अनुचित है।‘
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शकार वसन्त सेना के चक्कर में एक बार फिर वसन्त सेना के घर में घुस आता है। वह मदनिका को डराता है, धमकाता है और वसन्त सेना से मिलना चाहता है। मदनिका शकार को झूठ कह देती है कि वसन्त सेना तो अभिसार हेतु प्रस्थान कर गई है। इसी समय राजाज्ञा सुनाई देती है कि गोपपुत्र आर्यक काराग्रह को तोड़ कर निकल भागा है। मदनिका प्रसन्न होती है। क्योंकि अब शर्विलक भी आ जायेगा। शकार और विट उद्यान में वसन्त सेना को ढूँढ़ने के लिए चले जाते हैं। तभी वसन्त सेना अन्दर से अभिसार हेतु तैयार होकर निकलती है। मदनिका उनहें जाने से रोकना चाहती है। वह सूचना देती है कि गोपपुत्र आर्यक काराग्रह से भाग गये हैं।
‘लेकिन यह तो शुभ संवाद है।‘
‘लेकिन राजा का साला शकार-।‘
‘उस दुष्ट का नाम भी जबान पर मत लाना।‘
‘वह आया था। वह आपको नगर के सभी उद्यानों में ढूँढ़ रहा है।‘
‘लेकिन मेरा जाना आवश्यक है। नहीं तो आर्य चारूदत्त क्या कहेंगे।‘
लेकिन आपका जाना मुझे उचित नहीं जान पड़ता है।‘
‘अच्छा यह रत्नावली सुरक्षित रखना। उसे लौटाना है। वह एक कुल वधू की अमानत है, नगर वधू के पास।‘
वसन्त सेना चली जाती है। तभी मैत्रेय गाड़ी लेकर आता है, मगर मदनिका उसे सूचित करती है कि आर्या वसन्त सेना तो चली गयी। अनर्थ की आशंका व्यक्त करते हुए मैत्रेय गाड़ी लेकर पुनः चला जाता है। राजाज्ञा सुनाई देती है-‘गोपपुत्र आर्यक नगर में ही हैं। सभी सावधान रहे। आर्यक को पकड़ने वाले को उचित पुरस्कार दिया जायेगा।‘
मैत्रेय के जाने के बाद मदनिका भयभीत होकर मन ही मन डरती रहती है।
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चारूदत्त आकाश में काली घटनाओं को देख रहे हैं। बादल उमड़ आये हैं। अन्धेरा छा गया है। कोयल जंगल में चली गयी है। हंस मान सरोवर चले गये हैं। मैत्रेय अभी तक वसन्त सेना को लेकर नहीं आया है, पता नहीं क्यों ? आर्य का दिल आशंका से धधक रहा है तभी मैत्रेय आता है।
‘कहो मित्र कैसा रहा।‘
‘प्रभू उसने तो रत्नावली ले ली। और मेरा मजाक उड़ाया।‘
‘अच्छा।‘
‘आर्य मेरी माने तो इस गणिका से दूर ही रहे। ये किसी की भी सगी नहीं होती हैं। वैसे वसन्त सेना ने आज आने को कहा था। शायद वह रत्नावली से भी कुछ ज्यादा और चाहती है।‘
‘अच्छा उसे आने दो।‘
‘तभी वसन्त सेना के अनुचर कुंभीलक ने प्रवेश किया। आर्य चारूदत्त से तथा मैत्रेय से बातचीत करता है। वसन्त सेना के आने की जानकारी देता है। आर्य प्रसन्न होकर उसे दुशाला देते हैं।‘
वसन्त सेना सोलह श्रृंगार करके प्रवेश करती है। साथ ही दासी, विट भी है। छत्र लगा हुआ है। अद्वितीय सौन्दर्य, काम कला प्रवीण, नगर वधू वसन्त सेना के प्रवेश से ही बाग में बहार आ जाती है। वसन्त सेना सजी धजी मुग्धा नायिका सी लग रही है। वह स्वर्णाभूषणों से लदी हुई है। सुन्दर वस्त्रों ने उसकी सुन्दरता को और भी बढ़ा दिया है। बरसते पानी में वसंत सेना को देखकर वह अत्यंत प्रसन्न होता हैं। वसन्त सेना मैत्रेय को देखकर कहती है-
‘आपके जुआरी मित्र कहां है ?‘
‘वे सूखे बाग में है।‘
‘सूखा बाग---‘
‘हां वहीं चलिए।‘
‘दोनों चलते हैं। वसन्त सेना चारूदत्त को देखकर मदमस्त हो जाती है। धीमे स्वरों में पूछती है-
‘सांझ मीठी है न आर्य।‘
‘प्रिये तुम आ गई प्रिये।‘ बैठो। आसन पर बैठे। मित्र मैत्रेय इनके वस्त्र वर्षां से भीग गये हैं। इन्हें दूसरे वस्त्र लाकर दो।‘
‘जो आज्ञा।‘
‘वसन्त सेना अन्दर जाकर वस्त्र बदलती है। आर्य चारूदत्त और वसन्त सेना आपस में एक-दूसरे को तृषित नजरों से देखते हैं। मन ही मन प्रसन्न होते हैं। वे अपनी प्रसन्ता छिपा नहीं पाते।
वसन्त सेना-‘ आपने रत्नावली भेजकर अच्छा नहीं किया। गहने तो चोरी हो गये थे।‘
‘चोरी की बात कोई नहीं मानता। अतः मैैंने रत्नावली भेज दी।‘
‘आप मुझ पर तो विश्वास करते।‘
चारूदत्त चुप रहते हैं। मौन का संवाद होता हैं। वर्षा आ रही है। मेघ गरज रहे हैं। बिजली चमक रही है। मैत्रेय तथा वसन्त सेना की दासी व चेटी दोनों को बाग में छोड़ कर अन्दर चले जाते हैं।
वसन्त सेना को देखते चारूदत्त श्रृंगार दिखाते हैं। प्रेम से आलिंगन करते हैं। दोनों बाहुपाश में बंध जाते हैं।
चारूदत्त-‘हे मुख तुम गरजो। हे बिजली तुम चमको। हे वर्षा तुम तेज धार से आओ। क्योंकि इस नाद प्रभाव से मेरी देह वसन्त सेना के स्पर्श से पुलकित होकर फूल के समान और रोमांचित हो रही है।‘
‘प्रिये यह देखो इन्द्र धनुष। कैसा मनोरम।‘ आर्य चारूदत्त फिर कहते हैं-
‘वर्षा में भीगे हुए तुम्हारे वक्षस्थल कितने सुन्दर लग रहे हैं।‘ इनकी नोकों पर ठहरी जल की बूंदे नन्हें मोतियों जैसी आभा दे रही हैं।‘
‘तुम कितनी सुन्दर हो।‘
वसन्त सेना कुछ न कह कह कर आर्य के सीने में अपना मुंह छुपा लेती है। वे प्रगाढ़ आलिंगन में एक-दूसरे में समाहित हो जाते हैं। वसन्त सेना अपने आभूषणों को उतारती है, अभिसार को प्रस्तुत होती है।
बाहर वर्षा तेज होती जा रही है। आर्य चारूदत्त अभिसार में आनन्द ले रहे हैं। वसन्त सेना अभिसार में पूर्ण सहगामी है। वे एक-दूसरे में समा जाते हैं। रात काफी बीत चुकी है- वे अभिसारपरोन्त शिथिल हो निंद्रा देवी की गोद में विश्राम करते हैं।
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(क्रमश: अगले अंकों में जारी…)
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