आखिर हिम्मत कर के मैंने स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले ही ली। काफी पुरानी परम्परा है हिन्दी में। जिन्दगी भर नौकरी कर के समय पूर्व ...
आखिर हिम्मत कर के मैंने स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले ही ली। काफी पुरानी परम्परा है हिन्दी में। जिन्दगी भर नौकरी कर के समय पूर्व अवकाश लेकर हिन्दी की सेवा करने की। मैंने भी इसी परम्परा का निर्वहन किया है। अब समय से उठने , तैयार होने , संस्था जाकर पढ़ाने की जिम्मेदारी से पूर्ण रूप से मुक्त हो गया हूं। अब बस कागज , कलम , पुस्तकें , लेख , कहानियां , कविता और बस ऐसे ही दूसरे काम। अब बस लिखो। पढ़ो !छपो, छपाओ ! पुस्तकाकार करो। प्रकाशकों के, सम्पादकों के चक्कर लगाओ। दूरदर्शन, आकाशवाणी के आगे पीछे घूमो। किसी संस्था से सम्मान का जुगाड़ करो। यही तो सब साहित्य की सेवा का मेवा है।
वास्तव में मैं काफी समय से सेवानिवृत्ति के लिए प्रयासरत था , अवसर आया , मैंने त्यागपत्र लिखा और दे दिया। मगर काफी दिनों तक कोई सुनवाई नहीं हुई। सरकार ऐसी चीजों की चिन्ता भी नहीं करती। कोई आये या जाये सरकार के क्या फरक पड़ता है। फरक मेरे पड़ता था सो मैंने एक स्मरण पत्र दिया। मंत्रालय ने तुरन्त कार्यवाही की ओर मुझे दो दिन में ही सेवानिवृत्ति की स्वीकृति दे दी। उस दिन सब कुछ सुहाना सुहाना था। छात्र-छात्राएं मेरी विदाई की तैयारियां , कर रहे थे , अध्यापक साथी , अपने विदाई भाषण तैयार कर रहे थे। बाबू लोग मेरे गुण गा रहे थे। विदाई शानदार थी। शानदार नाश्ता। शानदार सजावट। शानदार भाषण। सच पूछो तो मुझे इसी दिन पता न चला कि मैं इतना महान इतना प्रतिभाशाली और छात्रों का प्रिय अध्यापक था। मुझे स्मृतिचिन्ह , साफा , गुलदस्ते , फूल मालाएँ दी गई। एक अभिनन्दन पत्र भी मुद्रित कर के मेरी सेवामें प्रेषित किया गया। छात्र-छात्राओं का उत्साह देखने लायक था। वे मेरा आशीर्वाद लेने को आतुर थे। मैंने भी कोई कंजूसी नहीं बरती। मैंने अपने विदाई भाषण में छतीस वर्षों का अनुभव बयां किया। मुझे नौकरी के प्रारम्भिक दिन याद आये मैंने अपने गुरूओं माता पिता तथा पुराने साथियों का आदर के साथ स्मरण किया भविष्य में सहयोग का वादा किया। साथियो ने मेरी कर्तव्यपरायणता , ईमानदारी के पुल बान्धे। मुझे प्रसिद्ध लेखक बताया। धीरे धीरे विदाई समारोह पूरा हुआ। मैं एक मित्र की कार में धर आया। पत्नी ने आरती उतारी। मैंने सांयकाल मित्रों को डिनर पर बुलाया। मित्रों ने शाल ओढ़ाकर मुझे सम्मानित किया। मैं अभिभूत था। आनन्दित था। धीरे धीरे उत्साह समाप्त हुआ। अब केवल यादें रह गई। न प्रयोगशाला, न तकनीशियन ,न छात्र ,न छात्राएं ,न शोध प्रोजेक्ट, न बीकर न टेस्ट ट्युब न ब्यूरेट , न मीटिंगें , न फाइलें न किचकिच न काम चोरी न बाबुओं की उपेक्षा न चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की चिरोरी अब सब कुछ निवृत्त हो गये। किसी के कक्ष में जाने की आवश्यकता नहीं अपनी मरजी का मालिक मैं स्वयं मैं ․․․․मैं और केवल मैं।
न शोध , न चाक , न डस्टर , न ब्लेकबोर्ड , न प्राचार्य का डर , न विभागाध्यक्ष का खौफ , न छात्रों के प्रश्न , न छात्राओं की हंसी। सब कुछ पीछे बहुत पीछे छूट गये। सेवानिवृत्ति के लाभों के लिए भी चक्कर नहीं लगाने पड़े , सब समय पर मिल गये। काश स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति नहीं लेता कुछ और मौज मार लेता। मगर मन तो साहित्य में रमता है न। सो मन की मान ली।
कभी मन हुआ तो राजनीति के फटे में अपनी टांग अड़ा लूगां। या कभी शुद्ध पत्र कारिता करने लग जाउगां मगर फिलहाल केवल कुछ स्तम्भ लेखन करना ठीक रहेगा। लिखा और भेज दो ऐसा सोच कर ही कागज - कलम ले लिए है।
बच्चे अक्सर फोन पर पूछते है पापाजी आजकल टाइम पास हो जाता है। मैं आनन्द से जवाब देता हूं टाइम है ही नहीं वही पुराना नित्यकर्म चल रहा है कालेज का समय लेखन में चला गया है। एक बच्चे ने कहा लेखक कभी सेवानिवृत्त नहीं होता है , वो तो अन्तिम दम तक लिखता रहता है , लिखना ही उसकी नियति है।
गली-मोहल्ले की महिलाएं पत्नी से पूछती ‘ अभी से ही सेवानिवृत्ति ----- इतने बूढ़े तो नहीं लगते। कामवाली बाई ने कहा … अभी से ही धर में बैठ जाओगे तो खाओगे क्या ? उसका प्रश्न वाजिब था। पत्नी ने कोई जवाब नहीं दिया। सेवा निवृत्ति के बाद गली में ताश , शतरंज , चौपड़ खेलने वाले बहुत ही कुछ लोगो ने सामाजिक कार्यो का बीड़ा उठा लिया है। सफाई , नल , बिजली , सड़क की शाश्वत समस्याओं पर ये लोग चिन्तन करते है , अधिकारियों को पत्र लिखते हैं और जवाब का या कार्यवाही का इन्तजार करते हैं।
सेवानिवृत्ति के संकटों का भी कोई अन्त नहीं है। मन ही मर जाता है। शरीर भी धीरे धीरे साथ छोड़ने लग जाता है। स्वास्थ्य की समस्याएं भी उभर आती है। समाज , परिवार , परिवंश भी उपेक्षित समझने लगता है। बाबा तुम्हारा समय गया। अब रामराम भजो। सरकार , समाज भी दया का पात्र समझने लगती है। वास्तव में व्यक्ति सेवानिवृत्ति के दिन का इन्तजार नौकरी की शुरूआत के साथ ही करने लग जाता है। कई बार वो अधिवार्षिकी की आयु में वृद्धि की सुखद कल्पना करता है कभी खुद ही अपनी सेवा वृद्धि के उपाय करता है और कभी किसी दूसरी वृति की तलाश में भटकने लग जाता है। और इस भटकाव का कोई अन्त नहीं है।
मेरे कई मित्र भी सेवानिवृत्त है। कुछ टायर्ड कुछ रिटायर्ड है और कुछ अभी भी केवल टायर है। एक पुलिस अधिकारी सेवा निवृत्ति के बाद राधा बन गये। कृष्ण के इश्क में पागल हो गये। वैसे भी बुढ़ापे में रोमांस की आवश्यकता ज्यादा होती है। एक अन्य मित्र बोले प्यार सेवानिवृत्ति के पैसे से बेटी की शादी करूंगा फिर हरिद्वार में बस जाउँगा। एक अन्य मित्र बोले मैं तो राजनीति में कूद पड़ूंगा। ये सबसे चोखी जगह है। एक और सेवा निवृत्ति के बाद बच्चों के पास जाकर रहने की सोच रहे थे कि बच्चे ही आ गये और सेवा निवृत्ति के लाभों को लेकर झगड़ने लगे। एक अन्य सज्जन पत्नी के साथ तीर्थों पर जाना चाहते थे मगर घुटनों का दर्द , कमर का दर्द ,उच्च रक्त चाप मधुमेह , गठिया आदि ने ऐसा झकड़ा की खाट ही पकड़नी पड़ी।
सेवानिवृत्ति के संकटों की माया अनन्त है , यह कथा कभी खतम नहीं होती है।
सेवानिवृत्ति की उम्र राजनेताओं पर भी लागू होनी चाहिये। सेवानिवृत्ति विज्ञान पर भी शोध की आवश्यकता है। वैसे भी राजनेता सेवा निवृत्ति के बाद भी निगम , वार्डों, राजभवनों में घुस जाते है। खिलाडी बेचारे वैसे जवानी में ही सेवानिवृत्त हो जाते है मगर फिर भी चयनकर्ता बन कर ही दम लेते है। अफसरों का क्या कहना कुर्सी पर होते है तो किसी को कहीं पूछते कुर्सी से हटते ही उन्हें कोई नहीं पूछता।
कायर लोग रिटायर नहीं होना चाहते। गठिया से बेदम है , शरीर आराम चाहता है मगर मन का क्या करे वैसे भी शायर ने कहा है
तुम्हारे हुस्न का हुक्का तो बुझ चुका है बेगम !
ये हमीं है जो गुड़गुड़ाये जा रहे है।
ते ये सेवानिवृत्ति का हुक्का है जो हम भी गुड़गुड़ाये जा रहे है। देखें कब तक इसमे आंच रहती है। साहित्य की गुड़ गुड़ को चलाये रखने की इजाजत दीजिये।
सेवानिवृत्ति के बाद अफसर , नेता के पास न कार न डाइवर न अर्दली , न फाईलें , बेचारे क्या करे।अध्यापक को कक्षा की याद आती है। कई बार घर पर ही इतना बोल देते है कि घर वाले घन्टी बजा कर पीरियड समाप्ति की सूचना देते हैं और व्याख्यान बन्द हो जाता है।
सेवा का मेवा खाने की आदत पड़ जाने पर सेवा निवृत्ति के संकट बहुत बढ़ जाते हैं सरकार सभी निशुल्क सुविधाएं वापस ले लेती है और बेचारा अफसर धर पर बैठा बैठा घर वालों को कोसता रहता है।
सेवा में आया है तो जायगा। यह जानते हुए भी व्यक्ति सेवा के प्रति मोह को त्याग नहीं पाता है। हर व्यक्ति सेवा के बाद का समय भी सेवा में ही बिताना चाहता है, वो कुछ न कुछ करता है और दुख पाता है। मुझे भर्तहरी याद आ रहे हैं कालो न भुक्त्वा वयमेव भुक्तवा ….। सोचता हूं चलो चाकरी से छुट्टी अब साहित्य का दामन पकड कर बाकी का समय आराम से गुजारूगां क्या खयाल है आपका।
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यशवन्त कोठारी 86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर-302002 फोनः-2670596
ykkothari3@yahoo.com
व्यंग्य के साथ चित्र मेरा
जवाब देंहटाएंयशवंत कोठारी जी का
क्यों नहीं छापा ?
रसवंत (यशवंत) जी की
जवाब देंहटाएंकोठरी (कोठारी) में से
निकले व्यंजन (व्यंग्य)
मन की जिव्हा को रस
से तरबतर कर देते हैं
।
यह रस डायबिटीजग्रस्तों
के लिए भी नुकसानदेह
नहीं है, ऐसी इसकी देह
ही नहीं है।
सेवानिवृत्ति के रसों का
सांगोपांग वर्णन मानस
को भा गया।
(गया नहीं मानस में ही समाया)।
लेखक कभी रिटायर नहीं होता. कोठारी जी कैसे हो गये? कहीं कोई घपला लगता है. किसी विदेशी हाथ का षडयंत्र तो नहीं है? क्यों न एक जांच आयोग बिठा दिया जाए, यह पता करने को कि यश्वंत कोठारी रिटायर हुए भी हैं या नहीं? अगर हुए हैं तो किससे? लेखन से या नौकरी से? क्या खयाल है?
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