आलेख - सवाल पत्रकारिता की पवित्रता पर ? - श्याम यादव दे श के पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिह शेखावत ने पद्मश्री से सम्मानित ...
आलेख
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सवाल पत्रकारिता की पवित्रता पर ?
- श्याम यादव
देश के पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिह शेखावत ने पद्मश्री से सम्मानित और वरिष्ठ पत्रकार अभय छजलानी के नागरिक अभिनन्दन के अवसर पर पत्रकारिता से वैसी ही उम्मीद और आशा की जैसी देश की आजादी के पूर्व पत्रकारिता ने देश की आजादी में निभाई थी । पत्रकारिता से उन्होंने उम्मीद जताई कि वह देश की जड़ों में जकडे भ्रष्टाचार को वह उखाड़ फैंकेगी। शेखावत ही क्यों, देश का आम आदमी भी प्रजातन्त्र के इस चौथे स्तम्भ से ऐसी ही उम्मीद की आशा कर सकता है ।
वैश्वीकरण के इस दौर में जब दुनिया सिमटती जा रही है ,सामाजिक परिवेश का तानाबाना, संस्कृति और सभ्यता को परे रख कर बुना जा रहा हो। उपभोक्तावाद और उदारीकरण ने व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं को सर्वोपरि कर दिया हो और इस महत्वकांक्षा को पाने के लिए तमाम वर्जनाओं को तोड़ने को तत्पर रहने वाले आम आदमी के बीच से जन्मे पत्रकार से पत्रकारिता के मापदण्ड़ों को छूने की अपेक्षा करना क्या उचित है ?
आज सब ओर जब बदलाव की बयार बह रही हो तो यह कैसे संभव हो सकता है कि समाज से ही उपजा पत्रकार और उसकी पत्रकारिता का मापदण्ड़ नही बदलेगा? यह कोई आरोप नहीं है, पत्रकार या पत्रकारिता पर । लेकिन यह सही है कि पत्रकारिता के स्वरूप में परिवर्तन आया है और यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है ,क्योंकि परिवर्तन ही संसार का नियम है । बदलाव की यह प्रक्रिया आज मजबूरी है और यह मजबूरी पत्रकारिता के साथ भी वैसे ही है जैसे कि अन्य व्यवसायों के साथ । वैसे भी पत्रकारिता अब मिशन की जगह व्यवसाय बन चुकी है ।
पत्रकारिता में व्यवसायिकता के आते ही इसका स्वरुप भी परिवर्तित हुआ। कागज और कलम की जगह पत्रकारिता में दृश्य और घटना आधारित दृश्य पत्रकारिता ने अपना ली । टेलीविजन पर समाचार दिखाए नहीं वरन् बनाएं जाने लगे। समचार दिन ब दिन कमतर होते जा रहे है और घटनाओं को जबरन समाचारों की शक्ल दी जा रही है । एक ही घटना का विश्लेषण धारावहिको की भांति कई कई दिनों तक प्रसारित कर टी आर पी को प्राप्त करने का जरिया बनाया जा रहा है। यह विश्लेषणात्मक समाचार शैली सनसनी लिए हुए रहती है और बिना किसी सीमा के जब चाहे तब ब्रेकिंग न्यूज बना कर एस एम एस के जरिए दर्शकों की जेब खाली करवा लेती है ।
आरुषी हत्याकाण्ड एक ऐसा ही एपीसोड था जो लगातार 50 -60 दिनों तक लगभग सभी चैनलों पर चला था । उस किशोरी की हत्या के बाद से ही नित नई कहानी चैनलों पर सनसनी फैलाती रही और उसके नौकर हेमराज की मौत के बाद तो कभी उसके साथ सम्बन्ध बताने की कोशिश की गई तो कभी उसके माता पिता के चरित्र को तार तार किया जा कर उसे ब्रेकिंग न्यूज बनाई गई ।
खोजी पत्रकारिता का ऐसा कृत्य शायद पहले नहीं हुआ हो ,मगर क्या पत्रकारिता के कारण उसके कातिल पकडे गए या वह थ्यौरी जिसे दृश्य पत्रकारिता सामने ला रही थी केवल मनगढ़न्त और केवल चैनजों की लोकप्रियता तक ही सिमट कर रह गई थी ।
प्रसिद्ध फिल्म स्टार अमिताभ बच्चन के पुत्र अभिषेक बच्चन की शादी का एक एक पल दिखाने के लिए जिस तरह चैनलों में होड़ मची थी उसने यह साबित कर दिया कि नवउदारवाद और बाजारबाद, जनसंचार के साधनों और माध्यमों पर कब्जा किए बैठे है । यही कारण है कि नर्मदा विस्थापितों के लिए लड़ने वाली मेधापाटकर और ऐसे अन्य आदिवासियों के आन्दोलन उन समाचार वैल्यू की पहुंच में नहीं आ पाते जो सनसनी या टी आर पी बढ़ा सके । या यूं कहा जाय कि इस तरह की व्यवस्था के दुष्प्रभाव या आम निरक्षर असहाय आदमी के हित में उठने वाले घटनाक्रम उन दर्शकों के कान सुन्न करने की क्षमता नहीं रखते जो दृश्य पत्रकारिता के दर्शक है।
जेम्स अगस्ट हिक्की या भारतेन्दु हरीशचन्द्र, बालगंगाधर तिलक , महात्मा गांधी ,गणेशशंकर विद्यार्थी या राजेन्द्र माथुर तक के महामना इसी भारतीय पत्रकारिता की देन है जिन्होंने पत्रकारिता की धार नहीं खोई ।
देश का एक पूर्व उपराष्ट्रपति जब यह कहता है कि उसके देश में भ्रष्टाचार एक गंभीर समस्या है और उसके द्रवित मन में जो आस उपजी है वह पत्रकारिता ही होती है । वे उम्मीद जताते है कि आज पत्रकारिता वैसेी ही भूमिका का निर्वहन करे जैसी उसने देश की आजादी में निभाई थी ।
जनसंचार माध्यम इस वैश्वीकरण और संकुचित हो रही इस दुनिया में एक हथियार बन गए है। एक ऐसे अमोघ अस्त्र जिनसे भ्रष्टाचार क्या पूरी दुनिया जीती जा सकती है ।प्रश्न तो सिर्फ इनके इस्तेमाल करने का है ? आम आदमी की सुन्न हो चुकी संवेदनाओं को जागृत करने उन्हें उन ताकतों के खिलाफ उठ खड़ा होने या देश की संस्कृति और सभ्यता तथा आकन्ठ भ्रष्टाचार में डूब चुकी लोकनीति को ठीक करने की जो आवश्यकता महसूस की जा रही है उसमें सिर्फ और सिर्फ पत्रकारिता की ओर आशा भरी निगाहों से देखा जा रहे है ।
प्रश्न फिर भी वही । व्यवसायिकता हर ओर है और प्रतिस्पर्धा भी हर जगह है। एक दूसरे से आगे निकलने की होड़। इस होड़ में क्या खोया जा रहा है इससे किसी को कोई सरोकार नहीं है । मिडिया भी इससे अछूता नहीं है । प्रिन्स यदि ट्युबवेल में गिरता है लाईव कवरेज के नाम पर मार्केटिंग के बन्दें उसमें भी एस एम एस के जरिए लाखों के वारे न्यारे कर लेते है ।
घटनाओं के दृश्यों से इस समय में पत्रकारिता से केवल और केवल मुनाफा कमाने और दर्शकों को दृश्यों से संवेदनहीन, सुन्न करने के लिए एंकरों के ग्लैमर से सजे, रट्टू तोते की तरह संचालित इस नई पत्रकारिता से सवालों के जवाब तलाशने की आज आवश्यकता है ? क्या होंगे इन सवालों के जवाब यह तो नहीं कहा जा सकता मगर इन सवालों को टटोलना तो होगा ही और इन्हें खोजने में अखबारों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है ।
सवालों का जाल घूम फिर कर वही आ जाता है कि क्या प्रजातन्त्र का यह चौथा प्रहरी अपनी जवाबदेहता को पूरी कर पाएगा । एक ऐसी जवाबदेहता जो विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में बिना किसी संवैधानिक अधिकार के पत्रकारिता को दे रखी हो ओर वह उसका निर्वहन भी करती आई है । बोफोर्स और कमला जैसे मामले पत्रकारिता ने ही उजागर किए है लेकिन अब बदली हुई परिस्थियों में जब देश में भ्रष्टाचार चरम पर चला गया हो तो इस चौथे स्तंभ का यूं मौन रहना और देश के पूर्व उप राष्ट्रपति द्वारा उसे उखाड़ फैंकने के लिए उससे आव्हान करना क्या यह नहीं दर्शाता कि पत्रकारिता को वापस उसी रास्ते पर आना चाहिए जिस के लिए उसकी पहचान है । अपनी इसी जवाबदेहता को यदि यह पत्रकारिता पूरी कर ले तो भारतीय लोकतन्त्र का यह चौथाप्रहरी सही मायने में अपनी भूमिका निभा कर लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचने के साथ अपनी पवित्रता को भी सिद्ध कर सकेगी ।
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©श्याम यादव ‘‘श्रीविनायक ’’22 बी, संचारनगर एक्सटेंशन इन्दौर 452016
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