ओमप्रकाश कश्यप का बाल उपन्यास : मिश्री का पहाड़ (अंतिम किश्त)

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‘मां, गांधी जी भी तो अकेले ही थे.' टोपीलाल ने मां की बात काटी. हालांकि ऐसा वह कम ही करता था. ‘वो जमाना और था बेटा, तब का आदमी इ...

‘मां, गांधी जी भी तो अकेले ही थे.' टोपीलाल ने मां की बात काटी. हालांकि ऐसा वह कम ही करता था.

‘वो जमाना और था बेटा, तब का आदमी इतना काईंयां नहीं था कि पीठ पीछे से वार करे...'

‘तू बेकार ही परेशान हो रही है. बच्‍चों से कोई क्‍या दुश्‍मनी निकालेगा.'

‘तू अभी नादान है. कुछ समझता नहीं, कुछ दिनों से तरह-तरह की खबरें मिल रही हैं. शराब और नशाखोरी के विरोध में तुम सबने जो काम शुरू किया है, लोग उससे नाराज हैं. मजदूर बस्‍तियों में शराब की दुकानें की बिक्री तीन-चौथाई तक आ गई है. यही हाल पानमसाला और गुटका बेचने वालों का है. वे लोग इस नुकसान को आसानी से सहने वालों में से नहीं हैं. बद्री काका के बारे में तो उन्‍होंने पता कर लिया है. अगर वे इतने रसूखवाले न होते तो अब तक कभी के धर लिए जाते.' --- इसी उपन्यास से

मिश्री का पहाड़

(बालउपन्‍यास)

ओमप्रकाश कश्‍यप

BPSN PUBLICATION

G-571, ABHIDHA, GOVINDPURAM

GHAZIABAD, UP-201013

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सर्वाधिकार : लेखक

मूल्‍य : 175 रुपये

प्रथम संस्‍करण : 2009

प्रकाशक : बीपीएसएन पब्लिकेशन

जी-571, गोविंदपुरम्‌,

गाजियाबाद-201013

आवरण संयोजन : लेखक

कंप्‍यूटरीकृत : लेखक

Mishri Ka Pahad (Novel) : by Omprakash Kashyap

Price : Rs. - 175.00

इस बाल उपन्यास का मुफ़्त पीडीएफ़ ई-बुक यहाँ से डाउनलोड कर पढ़ें

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पिछले अंक से जारी…

 

पत्रों की बाढ़ आ चुकी थी. उसी बाढ़ के बीच एक पत्र बद्री काका को भी प्राप्‍त हुआ. उस समय वे कक्षा में पढ़ा रहे थे. पत्र पर भेजने वाले का नाम देखकर उन्‍होंने उसको संभालकर जेब में रख लिया. पाठशाला से छुट्‌टी के बाद सावधानी से पत्र को निकाला, देखा, उल्‍टा-पुल्‍टा और आंखों पर काला चश्‍मा लगाकर पढ़ने लगे. फिर उसमें डूबते चले गए.

उस छोटे से पत्र का एक-एक शब्‍द जैसे जादुई था. मोती-माणिकों के समान अनमोल. गंगाजल-सा पवित्र. सुबह की ओस जैसा स्‍निग्‍ध और मनोरम. रोम-रोम को हर्षाने, तन-मन को पुलकित कर देने वाला. पत्र राष्‍ट्रपति भवन से भेजा गया था. लिखने वाले थे स्‍वयं राष्‍ट्रपति महोदय. वह उनका निजी पत्र था. उनकी अपनी हस्‍तलिपि में लिखा हुआ.

राष्‍ट्रपति महोदय ने लिखा था-

पूज्‍य बद्रीनारायण जी!

देश के स्‍वाधीनता आंदोलन में आपके बहुमूल्‍य योगदान के बारे में पुस्‍तकों में बहुत पढ़ चुका हूं. आप इस महान देश की महान विभूति हैं, इसमें मुझे पहले भी कोइ

संदेह नहीं था. लेकिन आपके जीवन की पुरानी गाथाएं, स्‍वाधीनता आंदोलन से जुड़ी होने के बावजूद मुझे उतनी आह्‌लादित नहीं करतीं, जितनी कि आपके वर्तमान अभियान से जुड़ी हुई खबरें कर रही हैं. महात्‍मा गांधी ने जिस सामाजिक स्‍वतंत्रता की ओर संकेत किया था, आप अपने समाज को उसी ओर ले जा रहे हैं।

मैंने तो आपको एक जिम्‍मेदारी मामूली समझकर सौंपी थी. परंतु अपनी निष्‍ठा एवं कर्मठता से आपने उसको एक महान कृत्‍य में बदल दिया है. आपका यह प्रयास आजादी के आंदोलन में हमारे महान स्‍वतंत्रता सेनानियों के योगदान से किसी भी भांति कम नहीं है. इस बार आप व्‍यक्‍ति के सामाजिक-मानसिक स्‍वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जो उतनी ही अनिवार्य है जितनी कि राजनीति स्‍वतंत्रता. अगली बार मिलेंगे तो दिखाऊंगा कि आपके अभियान से जुड़ी एक-एक खबर को मैंने सहेजकर रखा है. आप सचमुच बेमिसाल हैं. कामना है कि आपका मार्ग प्रशस्‍त हो. आपकी सफलताएं लंबी हों.

मैं आपकी योग्‍यता, कर्तव्‍यपारायणता और आपके संगठन के हर नन्‍हे सिपाही और उनकी भावनाओं को सादर नमन करता हूं...

संघीय देश का प्रथम नागरिक

एक-दो नहीं, दसियों बार बद्री काका ने उस पत्र को पढ़ा. हर बार उनका मन अनिवर्चनीय आनंद से भर उठता. रोम-रोम से आह्‌लाद फूटने लगता. लेकिन हर बार उन्‍हें कुछ कचोटता. लगता कि उनपर अतिरिक्‍त बोझ डाला जा रहा है. इसी ऊहापोह के बीच उस पत्र का उत्तर देना जरूरी लगने लगा. लगा कि इस समय चुप्‍पी साध लेना, सारा श्रेय अकेले हड़प जाना पाप, अमानत में खयानत जैसा महापाप होगा. खूब सोचने-समझने के बाद उन्‍होंने पत्रोत्तर देने का निश्‍चय किया-

माननीय राष्‍ट्रपति महोदय जी,

सादर प्रणाम! मान्‍यवर, मैं देश के उन सौभाग्‍यशाली लोगों में से हूं जिन्‍हें आपका स्‍नेह और मार्गदर्शन सदैव प्राप्‍त हुआ है. आपने मेरे इस अकिंचन प्रयास को सराहा, मेरा जीवन धन्‍य हो गया. लेकिन मुझे विश्‍वास है कि जो श्रेय आप मुझे देना चाह रहे हैं, उसका मैं अकेला अधिकारी नहीं. आपके संघर्ष-भरे जीवन से प्रेरणा लेकर ही मैं इस रास्‍ते पर आया था. और यह भी आपकी ही प्रेरणा और आदेश था, जो मुझे यहां आने का अवसर मिला, जिससे मैं इन बच्‍चों से मिल सका, जो दिखने में दुनिया के सबसे साधारण बच्‍चों में से हैं. जिन्‍हें न ढंग की शिक्षा मिल पाई है, न संस्‍कार. न इनके तन पर पूरा कपड़ा है, न पेट-भर रोटी. पर अपनी भावनाओं, अपने संकल्‍प और अपनी अद्वितीय कर्तव्‍यपारायणता के दम पर ये मनुष्‍यता की सबसे विलक्षण पौध बनने को उत्‍सुक हैं.

जब मैं यहां आ रहा था तब मन के किसी कोने में कामयाबी का श्रेय लेने की लालसा जरूर थी. सोचता था कि मेरे प्रयासों के फलस्‍वरूप मजदूर बच्‍चों के जीवन म

यदि कुछ बदलाव आया तो उसका श्रेय मुझे ही मिलेगा. सच कहूं तो मैं यहां रेल का इंजन बनने का सपना लेकर पहुंचा था, जिसको छोटे-छोटे डिब्‍बेनुमा बच्‍चों को उनकी मंजिल का रास्‍ता दिखाने की जिम्‍मेदारी सौंपी गई थी. किंतु चमत्‍कार देखिए, यहां रहने के मात्र कुछ महीने पश्‍चात स्‍थिति एकदम उलट गई है.

सच यह है कि अपने सत्तर वर्ष के जीवन में मैं कभी भी इतना अभिभूत नहीं हुआ, जितना कि इन दिनों इन बच्‍चों के कारनामों को देखकर हूं. सब मानते हैं कि इन्‍हें मैंने सिखाया है. लेकिन जिस अनुशासन, कर्तव्‍यनिष्‍ठा, समर्पण एवं सद्‌व्‍यवहार की सीख ये मुझे दे रहे हैं, उसके बारे मेरे और ई-वर के सिवाय और कोई नहीं जानता. इनका संकल्‍प और उत्‍साह दोनों ही वंदनीय हैं. भगवान इन्‍हें बुरी नजर से बचाए.

यदि मैं खुद को आज भी रेल का इंजन माने रहूं तो ये बच्‍चे अपनी आंतरिक ऊर्जा से भरपूर छोटे-छोटे डिब्‍बे हैं, जो रेल के इंजन को उसकी मंजिल की ओर धकियाए जा रहे हैं. काश! आप यहां आकर इनकी ऊर्जा, इनके कारनामों को अपनी आंखों से देख सकें. तब आप जानेंगे कि दुनिया में आंखों देखे चमत्‍कार का होना असंभव नहीं है. और यहां जो हो रहा है वह ऐसी हकीकत है, जो किसी भी चमत्‍कार से बढ़कर है.

पत्र लिखने के बाद बद्री काका ने उसको दो बार पढ़ा और फिर सिरहाने रख लिया.

मन में अच्‍छे विचार हों तो नींद भी खिल उठती है.

जिज्ञासा से अच्‍छा कोई मार्गदर्शक नहीं है.

जिन दिनों अक्षर ज्ञान से वंचित था, उन दिनों भी टोपीलाल के मन में अखबार के प्रति अजीब-सा आकर्षण था. चाय की दुकान, ढाबों, बाजार, स्‍टेशन यानी जहां भी वह अखबार देखता, ठिठक जाता. बड़ी ललक के साथ अखबार और उसे पढ़ने वालों को देखता. खुद को उस स्‍थिति में रखकर कल्‍पनाएं करता. सपने सजाता. सपनों में नए-नए रंग भरता. अनचीन्‍हे शब्‍दों को मनमाने अर्थ देकर मन ही मन खुश होता.

जिस पाठशाला में वह कुछ महीने पढ़ा था, वहां छोटा-सा पुस्‍तकालय था. कई समाचारपत्र नियमित आते. टोपीलाल की मजबूरी थी कि उन दिनों वह अक्षर पहचानना और उनको जोड़ना सीख ही रहा था. अखबार पढ़ ही नहीं पाता था. मगर जब भी अवसर मिलता, वह वहां जाकर घंटों अखबारों और पुस्‍तकों को देखता रहता. राह चलते यदि कोई पुराना अखबार या उसकी कतरन भी दिख जाए तो उसे फौरन सहेज लेता. घर आकर एकांत में उसे देखता. अक्षर जोड़ने का प्रयास करता. न जोड़ पाए तो उसके चित्रों से ही अपनी जिज्ञासा को बहलाने का प्रयास करता था.

पाठशाला में अखबार आना चाहिए, यह मांग करने वाला टोपीलाल ही था. उसकी मांग मान ली गई. पाठशाला में नियमित रूप से दो समाचारपत्र आने लगे. समय मिलते

ही टोपीलाल उन समाचारपत्रों को चाट जाता. उसके अलावा एक-दो बच्‍चे ही ऐसे थे, जो अखबार पढ़ने में रुचि दिखाते. प्रकाशित खबरों पर बातचीत करते. उन्‍हें बहस का मुद्‌दा बनाते थे.

जैसे ही बच्‍चों के पत्रों का छपना आरंभ हुआ, टोले में समाचारपत्रों की पाठक-संख्‍या अनायास बढ़ने लगी. अखबार आते ही बच्‍चे उनपर टूट पड़ते. कभी-कभी हल्‍का-फुल्‍का झगड़ा भी हो जाता. उस स्‍थिति से निपटने के लिए एक व्‍यवस्‍था की गई. प्रतिदिन एक विद्यार्थी खड़ा होकर प्रमुख समाचारों का वाचन करता. पाठशाला से संबंधित समाचारों पर खास ध्‍यान दिया जाता. बाद में उनपर हल्‍की-फुल्‍की चर्चा होती. बच्‍चे खुलकर हिस्‍सा लेते.

अखबार में संपादक ने नाम छपे पत्रों ने बच्‍चों का उत्‍साहवर्धन किया था. उन्‍हें शब्‍दों की ताकत से परचाया था. बच्‍चे अखबार को बड़े प्‍यार से देखते. उसमें प्रकाशित शब्‍दों को सहलाते. मन ही मन उनसे संवाद करते. बाद में संपादक के नाम लिखी चिटि्‌ठयों को काट, सहेजकर रख लेते. कटिंग न मिलने पर उनकी नकल तैयार करते. अकेले में, दोस्‍तों के बीच उसको बार-बार पढ़ते, सराहते, बहस का मुद्‌दा बनाते.

पत्र-लेखकों में से अधिकांश अपने किसी परिजन की नशे की आदत के कारण परेशान होते. उसमें दर्ज ब्‍यौरे से बच्‍चे उसके लेखक के बारे में अक्‍सर अनुमान लगा लेते. कई बार इसी को लेकर बहस छिड़ जाती. व्‍यक्‍ति को लेकर मतांतर होते रहते, लेकिन वह अपने ही टोले का है, गरीब और जरूरतमंद है, इस बात पर न तो कोई बहस होती, न संदेह ही व्‍यक्‍त किया जाता था.

कुछ पत्र ऐसे भी होते जिन्‍हें सुनकर पूरी कक्षा में सन्‍नाटा व्‍याप जाता. यहां तक कि बद्री काका भी बच्‍चों को कुछ देर के लिए कक्षा में अकेला छोड़ बाहर चले जाते. वहां अपनी नम आंखों को पोंछते. मन को समझाते. तसल्‍ली देते. तब जाकर कक्षा में लौटने का साहस बटोर पाते थे.

बच्‍चों ही नहीं, बड़ों में भी अखबार के प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा था. शाम होते ही दिन-भर की खबरों को जानने के लिए लोग खिंचे चले आते. दोपहर को भोजन के लिए जैसे ही बैठते, पिछले दिन छपे समाचार पर बहस आरंभ हो जाती. जिसको संबोधित कर वह पत्र लिखा गया होता, उसके बारे में कयास लगाए जाते. बातचीत होती. लोग उसके सुख-दुःख में अपनापा जताते. उस समय यदि कोई उसी दिन छपे समाचार के बारे में बताकर सभी को चौंकाता तो सब उसकी बुद्धि की दाद देने लगते.

कुछ दिनों तक ऐसे पत्रों के आने का क्रम बना रहा. परंतु अचानक पत्रों की भाषा एवं उनका स्‍वर बदल गया. संपादक के नाम लिखे गए ऐसे पत्र भारी तादाद में छपने लगे, जिनमें बद्री काका की आलोचना होती. उनपर बच्‍चों को बिगाड़ने का आरोप लगाया जाता. उन्‍हें देशद्रोही, विदेश का जासूस आदि न जाने क्‍या-क्‍या लिखा जाता.

पत्रों के बदले हुए स्‍वर ने बच्‍चों को पहले तो हैरानी में डाला. जब ऐसे पत्रों की

संख्‍या बढ़ी तो बात चिंता में बदलने लगी. अपने अनुभव और वुद्धि के आधार पर वे ऐसे पत्रों के पीछे निहित सत्‍य का अनुमान लगाने का प्रयास करते. लेकिन नाकाम रहते. असफलता उनकी चिंता को और भी घना कर देती.

एक पाठक ने संपादक को संबोधित पत्र में तो हद ही कर दी-

‘जिस बद्री काका नाम के महानुभाव की प्रशंसा करते हुए हमारे समाचारपत्र और समाजसेवी रात-दिन नहीं अघाते, उनका अपना अतीत ही संदिग्‍ध है. नहीं तो कोई बता पाएगा कि ये सज्‍जन अचानक कहां से प्रकट हुए हैं. पाठशाला आरंभ करने से पहले ये क्‍या करते थे? रोज-रोज बद्री काका की शान में कसीदे पढ़ने वाले समाचारपत्र उनके अतीत में झांकने का प्रयास क्‍यों नहीं करते. यदि खोजबीन की जाए तो मुझे उम्‍मीद है कि वहां जरूर कुछ कालापन नजर आएगा. वरना कोई आदमी इस तरह की गुमनाम जिंदगी क्‍यों जिएगा.

दरअसल इन महाशय का उद्‌देश्‍य नशा-विरोध और शिक्षा के प्रचार-प्रसार की आड़ में बच्‍चों और उनके अभिभावकों को धर्म-परिवर्तन के लिए राजी करना है. इस बात की भी संभावना है कि ये सज्‍जन किसी विदेशी संस्‍था के दान के बूते धर्म-परिवर्तन जैसा निकृष्‍ट कार्य करने में जुटे हों. वरना शहर में दर्जनों सरकारी पाठशालाएं हैं, जो खाली पड़ी रहती हैं. उनके लिए विद्यार्थी ही उपलब्‍ध नहीं हैं. अगर इन महाशय का उद्‌देश्‍य सिर्फ मजदूरों के बच्‍चों को शिक्षित करना है, जो कि सचमुच एक पवित्र कार्य है, तो उन्‍हें सरकारी पाठशालाओं में भर्ती करना चाहिए. छोटे बच्‍चों को भूखे-प्‍यासे, सुबह-शाम नारेबाजी में उलझाए रखकर ये उनका कितना भला कर रहें, उसे या तो ये स्‍वयं जान सकते हैं या फिर उनका पैगंबर!'

पत्र लेखक ने अपना असली पता नहीं लिखा था. बद्री काका ने पूरा पत्र पढ़ा. फिर मुस्‍करा दिए. इस पत्र के प्रकाशित होने के बाद संपादक के नाम आने वाले पत्रों का रूप ही बदल गया. अधिकांश पत्र गाली-गलौंच वाली भाषा में आने लगे. कुछ में उन्‍हें देशद्रोही लिखा होता. कुछ में विरोधी देश का चमचा, जासूस आदि. चूंकि बद्री काका के पिछले जीवन के बारे में शहर में किसी को पता नहीं था, इसलिए ऐसे लोग उसके बारे में मनमानी कल्‍पना करते. आरोप लगाते. एक व्‍यक्‍ति ने तो शालीनता की सीमा ही पार कर दी थी-

‘बड़ी हैरानी की बात है कि पुलिस और प्रशासन की नाक के ठीक नीचे एक व्‍यक्‍ति, जिसका अतीत ही संदिग्‍ध है, खुल्‍लम-खुल्‍ला सरकारी कानून की खिल्‍ली उड़ा रहा है. जिस उम्र में बच्‍चों को अपना अधिक से अधिक समय पढ़ने-लिखने में लगाना चाहिए, वे जुलूस और नारेबाजी में अपना जीवन बरबाद कर रहे हैं. क्षुद्र स्‍वार्थ के लिए वह मासूम बच्‍चों का भावनात्‍मक शोषण कर रहा है. उनकी गरीबी का मजाक कर उन्‍हें अपने लक्ष्‍य से भटका रहा है. शिक्षा और समाजकल्‍याण के नाम पर बच्‍चों का यह शोषण किसी को भी व्‍यथित कर सकता है.

यह बात भी ध्‍यान में रखनी होगी कि वह पाठशाला एक निर्माणाधीन भवन में बिलकुल अवैध तरीके से चलाई जा रही है. इमारत की स्‍थिति ऐसी है कि वहां कभी भी बड़ा हादसा हो सकता है. पर उन महाशय को न तो बच्‍चों के स्‍वास्‍थ्‍य की चिंता है; और न उनके भविष्‍य की. सोचने की बात है कि प्रशासन क्‍यों उसकी ओर से आंखें मूंदे हुए है. इसका कारण तो यही हो सकता है कि ऊपर से नीचे तक सभी बिके हुए हैं. और जो आदमी पूरे सरकारी-तंत्र को मुट्‌ठी में रख सकता है, उसकी पहुंच का अनुमान लगा पाना असंभव है. पूरा मामला किसी बड़े षड्‌यंत्र की ओर इशारा कर रहा है, जिसकी गहराई से जांच होनी चाहिए.

दुःख की बात यह है कि हमारे सरकारी-तंत्र को चेतने के लिए हमेशा बड़े हादसों की प्रतीक्षा रहती है. यानी जो लोग इस उम्‍मीद में चुप्‍पी साधे हुए हैं कि मामला कानून और प्रशासन का है, वही आवश्‍यक कार्रवाही करेंगे, उन्‍हें किसी बड़े हादसे के लिए तैयार रहना चाहिए. जो हमारे आसपास कभी भी हो सकता है. सरकार को अवैध पाठशाला पर तत्‍काल रोक लगाकर बद्री काका नाम के शख्‍स को गिरफ्‍तार करके उसके अतीत के बारे में जानकारी जमा करनी चाहिए.'

विरोध में लिखे गए पत्रों पर भी बच्‍चों की नजर जाती. पढ़कर उनका आक्रोश फूट पड़ता-‘हमें संपादक को लिखना चाहिए कि वह ऐसे पत्रों को अखबार में प्रकाशित न करे?'

‘समझ में नहीं आता कि गुरुजी इस मामले में चुप्‍पी क्‍यों साधे हुए हैं. वे चाहें तो उनसे अकेले ही निपट सकते हैं.' अर्जुन बोला.

‘गुरुजी जो भी करेंगे, सोच-समझकर ही करेंगे.' टोपीलाल ने उनकी बात काटी.

‘इन हालात में बिल्‍डिंग का मालिक पाठशाला बंद करने को कह सकता है. तब हम कहां जाएंगे. अब तो आसपास का मैदान भी खाली नहीं है.'

‘मालिक तो कह ही रहा था कि इस भवन मेें पाठशाला रोक देनी चाहिए. लेकिन बद्री काका तक बात पहुंचने से पहले ही मामला शांत पड़ गया.' टोपीलाल ने रहस्‍य उजागर किया.

‘कैसे?' बच्‍चों का कौतूहल जागा.

‘मां बता रही थी. कल मालिक की ओर से संदेश आया था कि मजदूर उस पाठशाला को बंद करें या हटाकर कहीं और ले जाएं. इसपर मजदूरों ने भी संगठित होकर धमकी दे दी. कहा कि वहां उनके बच्‍चे पढ़ते हैं. उनके भविष्‍य के लिए वे उसको बंद हरगिज न होने देंगे. पाठशाला कहीं और गई तो वे सब भी साथ-साथ जाएंगे. आजकल शहर में मिस्त्री और मजदूर आसानी से मिलते नहीं. मालिक भी बीच में व्‍यवधान नहीं चाहता. इसलिए फिलहाल तो वह शांत है.'

‘क्‍या यह बात बद्री काका को मालूम है?'

‘हां, उन्‍होंने कहा कि यह तो होना ही था. यह भी बताया कि जो हमने सोचा था, वही हो रहा है. वे लोग खुद डर रहे हैं और हमें डराना चाहते हैं. यह समय धैर्य से उनकी बातों को सुनने, अपने मकसद पर दृढ़ बने रहने का है.'

‘वे किन लोगों की बात कर रहे थे?' कुक्‍की ने जानना चाहा. इसका टोपीलाल के पास कोई उत्तर न था-

‘यह तो उन्‍होंने नहीं बताया था.'

‘हमें क्‍या करना चाहिए?' अर्जुन ने कहा. जवाब टोपीलाल के बजाय सदानंद ने दिया, ‘गुरुजी ने कहा है कि अभियान रुकने वाला नहीं है. हमारे लिए तो साफ निर्देश है. हम उन्‍हीं का आदेश मानेंगे.'

उसी दोपहर बद्री काका पढ़ा रहे थे. तभी पुलिस के दो सिपाही वहां पहुंचे. वे पुलिस अधीक्षक की ओर से आए थे. उन्‍हें देखते ही बद्री काका कक्षा को छोड़कर आगे बढ़ गए. वे कुछ पूछें, उससे पहले ही दोनोें सिपाहियों ने उन्‍हें अभिवादन करते हुए कहा-‘एसपी साहब ने बुलाया है. आज शाम को ठीक आठ बजे आप थाने पहुंच जाना. कहें तो जीप भिजवा दें.'

‘जीप की आवश्‍यकता नहीं है...मैं पैदल ही आ जाऊंगा.' बद्री काका ने कहा और वापस जाकर पढ़ाने लगे. इस घटना के बाद बच्‍चों का मन पढ़ाई में न लगा. उनकी निगाह में वे दोनों सिपाही और पुलिस सुपरिंटेंडेंट का चेहरा घूमता रहा-

‘पुलिस आपको क्‍यों बुलाने आई थी?' जैसे ही पढ़ाई का काम पूरा हुआ, निराली ने बद्री काका से पूछा.

‘यह तो शाम ही को पता लगेगा. फिक्र मत करो, सब ठीक हो जाएगा.' बद्री काका ने समझाने का प्रयास किया.

‘हम भी आपके साथ जाएंगे?' टोपीलाल ने आग्रहपूर्वक कहा.

‘उन्‍होंने तो केवल मुझे बुलवाया है?'

‘इस काम में हम सब साथ-साथ हैं.' बद्री काका बच्‍चों की ओर देखते रहे. पल-भर को वे निरुत्तर हो गए. मुंह खोला तो प्‍यार से गला भर्राने लगा.

‘ठीक है, शाम को देखा जाएगा.' उन्‍हें लग रहा कि आने वाले दिन उग्र घटनाक्रम से भरे हो सकते हैं. परंतु बिना संघर्ष के परिवर्तन के वांछित लक्ष्‍य तक पहुंच पाना असंभव है. उसी क्षण उन्‍होंने एक बड़ा निर्णय ले लिया.

नेक मकसद में दमन की संभावना भी आदमी के हौसले को जवान बना देती है. -

बद्री काका पुलिस सुपरिंटेंडेंट से मिलने पहुंचे तो उनके साथ कुक्‍की और टोपीलाल भी थे. वे केवल टोपीलाल को अपने साथ चलने ले जाने को तैयार थे. किंतु जब चलने लगे

तो कुक्‍की भी अड़ गई. सुपरिटेंडेंट ने देखते ही खड़े होकर बद्री काका का सम्‍मान किया. उनके साथ आए बच्‍चों को देखकर उसकी आंखों में किंचित विस्‍मय उमड़ आया. टोपीलाल और कुक्‍की ने जब हाथ जोड़कर अभिवादन किया तो पुलिस अधिकारी भी प्रभावित हुए बिना न रह सका. दोनों को बैठने के लिए कुर्सियां मंगवाई गईं.

‘मेरे विद्यार्थी हैं. इनसे कुछ भी छिपा नहीं है.' बद्री काका बोले। आत्‍मविश्‍वास से भरी भाषा.

‘आज तो इन बच्‍चों की छुट्‌टी कर देते.' पुलिस अधिकारी ने संबोधित किया.

‘ये मुझे अपनी बात आपके सामने रखने में मदद करेंगे.'

‘आप जानते ही हैं कि हमारे ऊपर कितना दबाव रहता है...!'

‘सरकार की ओर से ही...?' बद्री काका ने प्रश्‍न अधूरा छोड़ दिया.

‘पुलिस तो जितना प्रशासन की मानती है, उतना ही मान जनता का भी रखना पड़ता है.' अधिकारी ने बात को घुमाने का प्रयास किया, ‘अखबारों में आजकल जो छप रहा है, उसे तो आप देख ही रहे होंगे. आपने बच्‍चों को नशा-विरोधी अभियान में लगाकर अनूठा काम किया है. इस अभियान की सफलता की गूंज संसद तक पहुंच चुकी है. खुद मंत्री जी आपके प्रशंसक हैं. कह रहे थे कि जो काम पुलिस और प्रशासन इतने वर्षों में, अपने भारी-भरकम तामझाम के बावजूद नहीं कर सके, वह आपने इन छोट-छोटे बच्‍चों के माध्‍यम से कर दिखाया है. व्‍यक्‍तिगत रूप में तो मैं भी आपका बहुत बड़ा प्रशंसक हूं. लेकिन आप तो जानते हैं कि पुलिस अधिकारी को कानून और व्‍यवस्‍था दोनों ही देखने पड़ते हैं. इस नाते मेरी कुछ और भी जिम्‍मेदारियां हैं.'

‘हमने तो ऐसा कुछ नहीं किया कि आप परेशानी में पड़ जाएं.'

‘आपने जानबूझकर तो ऐसा कुछ नहीं किया...'

‘यानी जो कुछ हुआ वह अनजाने में हुआ है?'

‘यही समझ लीजिए. दरअसल जिस अधबने भवन में आपका स्‍कूल चल रहा है, वहां ऐसी गतिविधियों की अनुमति नहीं दी जा सकती.'

‘तब तो ये बच्‍चे निरक्षर ही बने रहेंगे?'

‘उसके लिए सरकारी पाठशालाएं हैं. वहां इन बच्‍चों का प्रवेश आसानी से हो जाएगा. आप चाहें तो मैं खुद यह जिम्‍मेदारी उठाने को तैयार हूं.'

‘पर उससे लाभ क्‍या होगा. जिस जगह इन बच्‍चों के माता-पिता काम कर रहे हैं, वहां से सबसे निकट वाली पाठशाला भी कम से कम चार किलोमीटर की दूरी पर है. क्‍या आपको लगता है कि इतनी दूर ये बच्‍चे पढ़ाई के लिए जा पाएंगे? और इनके माता-पिता इन्‍हें वहां जाने की अनुमति देंगे. क्‍योंकि भले ही गरीब हों, अपने बच्‍चों की सुरक्षा की चिंता तो उन्‍हें भी है.'

‘जब तक नजदीक किसी पाठशाला का प्रबंध नहीं हो जाता तब तक तो इन बच्‍चों

को वहां जाना ही होगा.'

‘और बच्‍चों की सुरक्षा के लिहाज से इनके अभिभावक वहां जाने न देंगे, फिर तो बात जहां की तहां रही. तब इन बच्‍चों का क्‍या होगा?'

‘अवैद्य स्‍थल पर पाठशाला चलाने की अनुमति तो हरगिज नहीं दी जा सकती. अपनी नहीं माने तो विवश होकर हमें बल-प्रयोग करना पड़ेगा.' पुलिस अधिकारी ने दबंगई दिखानी चाही.

‘किस कानून के आधार पर आप बल-प्रयोग करेंगे. जहां हमारी पाठशाला है, वहां पाठशाला के नाम पर न कोई अवैध इमारत है, न पोस्‍टर, न बैनर. खुले में बच्‍चों को कुछ सिखाना भला कौन से कानून में अपराध है, जरा बताएंगे?' बद्री काका ने कहा तो पुलिस अधिकारी बगलें झांकने लगा.

‘आप मेरी मजबूरी को समझने की कोशिश कीजिए?'

‘आप हमारे संकल्‍प को बूझने की कोशिश कीजिए. आप जानते हैं कि शहर में हर वर्ष राशन की दुकान तो बामुश्‍किल एक बढ़ती है, लेकिन उसी अवधि में शराब के दर्जनों नए ठेकों को लाइसेंस दे दिया जाता है. बच्‍चों को कॉपी और पुस्‍तक भले न मिले, पर गुटका और पानमसाला खरीदने के लिए अब गली के नुक्‍कड़ तक जाना भी जरूरी नहीं रहा. वह आसपास ही टंगा मिल जाता है. यही हालत चरस, अफीम और गांजे की है. इलाज के लिए दवा खरीदते समय केमिस्‍ट की दुकान तक जाना पड़ता है. नशे की चीजें खुद अपने ग्राहक तक चली आती हैं.

बाकी नशों की बात तो अभी छोड़ ही दें, इस शहर में सिर्फ शराब से मरने वालों की संख्‍या सात हजार से ऊपर पहुंच चुकी है. विज्ञान ने महामारी को तो जीत लिया है, पर शराब और नशे पर नियंत्रण रखने की बात करोे तो कानून पीछे पड़ जाता है. जबकि देश में शराब और नशे की लत के कारण हर साल इतनी मौतें होती हैं, जितनी पूरी दुनिया में बड़ी से बड़ी महामारी के दौरान भी नहीं होतीं. नशा-पीड़ितों के उपचार के लिए सरकार को हर वर्ष इतना खर्च करना पड़ता है कि मात्र एक साल की रकम से देश के हर गांव में स्‍कूल खोला जा सकता है.

इन बच्‍चों के दिल से निकली आवाज ने इनके अभिभावकों के दिलों को छुआ है. उन्‍हें यह एहसास दिलाया है कि वे अभिभावक भी हैं. यही कारण है कि पिछले कुछ दिनों में ही शराब की बिक्री में तीस प्रतिशत गिरावट आई है. पानमसाला और गुटके की बिक्री भी पचीस प्रतिशत तक घट चुकी है. इससे वे लोग डरे हुए हैं जिनका नशे का कारोबार है. जो ज्‍यादा धन बंटोरने के लिए किसी भी सीमा तक गिर सकते हैं. जिनका कानून और इंसानियत से कोई वास्‍ता नहीं. वही लोग अखबारों में तरह-तरह की बातें लिखकर मुझे बदनाम करना चाहते हैं. अखबारों द्वारा कुछ नहीं कर पाए तो अब आपके माध्‍यम से दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं.'

पुलिस अधिकारी चुप था. टोपीलाल और कुक्‍की हैरान थे. बद्री काका को इस तरह बात करते हुए उन्‍होंने पहली बार देखा था. उधर बद्री काका कहे जा रहे थे-

‘एक गलतफहमी और दूर कर दूं. इस अभियान को शुरू करने में मेरा योगदान चाहे जो भी रहा हो, फिलहाल मैं इसका संचालक नहीं हूं. इसको तो ये बच्‍चे स्‍वयं, स्‍वयंस्‍फूर्त भाव से चला रहे हैं. मैं तो मात्र इनका प्रशंसक और मार्गदर्शक हूं. और बच्‍चों का ही निर्णय है कि आने वाली गांधी जयंती के दिन ये पूरे शहर में एक शांति जुलूस निकालें.'

‘जी!' पुलिस अधिकारी अपनी कुर्सी से उछल पड़ा, ‘सरकार इसकी कतई अनुमति नहीं देगी.'

‘हमें उसकी परवाह नहीं है. अपने राष्‍ट्रपिता की जयंती अगर ये बच्‍चे उनके आदर्शों पर चलकर, उनके अधूरे कार्यक्रमों को आगे बढ़ाते हुए मनाना चाहते हैं, तो इन्‍हें कौन रोक सकता है. उस जुलूस में पूरे शहर के बच्‍चे शामिल होंगे. संभव हुआ तो उनके माता-पिता भी. वे सब मिलकर नशे के विरुद्ध आवाज उठाएंगे. और हां, उसी दिन हम मजदूर बस्‍तियों के आसपास खुली शराब की दुकानों के आगे धरना-प्रदर्शन भी करेंगे.'

‘इससे तो हालात और ज्‍यादा बिगड़ सकते हैं. जबकि मैं चाहता हूं कि आप हमारी मदद करें.' पुलिस सुपरिंटेंडेंट नर्म पड़ने लगा था.

इसपर बद्री काका मुस्‍करा दिए, ‘आपने थोड़ी देर पहले ही माना है कि नशे पर रोक लगाना पुलिस और प्रशासन का काम है. मैं कहता हूं कि यह देश के हर जागरूक नागरिक का काम है. अपनी जागरूकता दिखाते हुए इन बच्‍चों ने थोड़े-से दिनों में वह कर दिखाया है, जो पुलिस और कानून कई वषोंर् में नहीं कर पाए थे. देखा जाए तो ये बच्‍चे आप ही की मदद कर रहे हैं. इसलिए आपका भी कर्तव्‍य है कि उस दिन कोई अनहोनी न होने दें.' इतना कहकर बद्री काका ने पुलिस सुपरिटेंडेंट को नमस्‍कार कहा और उठ गए. पुलिस सुपरिंटेंडेंट सहित सभी अधिकारी उन्‍हें ठगे से देखते रहे.

बाहर आकर निराली बद्री काका की तारीफ में कुछ कहना चाहती थी. मगर टोपीलाल ने चर्चा दूसरी ही ओर मोड़ दी-‘गुरुजी, हमारे प्रदर्शन में मजदूर औरतें भी हिस्‍सा ले सकती हैं?'

‘बिलकुल मैं तो चाहता हूं कि उन्‍हें आगे आना ही चाहिए. तभी हम पूरी तरह कामयाब हो पाएंगे.'

‘हम लोग जब घरों में जाते हैं तो वहां के मर्द हमें घूरते हैं. उनका बस चले तो हमें भीतर ही न घुसने दें. लेकिन औरतें हमें प्‍यार से बिठाती हैं. रसोई में कुछ बन रहा हो तो खाने को भी देती हैं. घर के मर्दों की नशाखोरी की आदत से परेशान औरतें चाहती हैं कि इस अभियान में उन्‍हें भी हिस्‍सेदार बनाया जाए.'

‘लेकिन, मैंने तो यह यूं ही, बस आवेश में, पुलिस अधिकारी को चिढ़ाने के लिए कह दिया था.' बद्री काका असमंजस में थे.

‘जब कह दिया है तो उसपर अमल भी करना होगा. वरना वे समझेंगे कि हम डर गए.'

‘वे कौन?' बद्री काका ने चौंककर पूछा.

‘वही, जो हमें रोकना चाहते हैं.'

‘क्‍या तुम उनके बारे में जानते हो?'

‘नहीं, पर बापू कह रहे थे कि शराब के ठेकेदारों, गुटका और पानमसाला बनाने वालों को बहुत घाटा सहना पड़ रहा है. वे इस कोशिश में हैं कि हमें कैसे रोका जाए.'

‘तुम्‍हारे बापू ने क्‍या तुमसे भी कुछ कहा था?'

‘कुछ भी नहीं, दो-चार दिनों से मैं उन्‍हें परेशान जरूर देख रहा हूं.' टोपीलाल ने सहज भाव से बताया.

‘तब?'

‘अगर अब हम पीछे हटे तो वे समझेंगे कि डर गए...' निराली ने जोड़ा.

‘तुम ठीक ही कहती हो. यह एक पुनीत कर्म है. मैं तुम्‍हें रोकूंगा नहीं. न डरने को ही कहूंगा. अब डरने की बारी तो असल में उनकी है. हम सफलता की डगर पर हैं. लेकिन हमें सावधान रहना होगा. हमारे दिलों को अपने आतंक के साये में रखने के लिए वे लोग किसी भी सीमा तक जा सकते हैं.' बद्री काका ने कहा.

उस दिन टोपीलाल घर पहुंचा तो मन थोड़ा उद्धिग्‍न था. किंतु चेहरा आत्‍मविश्‍वास से दिपदिपा रहा था.

लोककल्‍याण की भावना सबसे पवित्र एहसास है.

महानता उम्र देखकर नहीं जन्‍मती.

पुलिस सुपरिटेंडेंट के साथ बात सिर्फ छह जनों के बीच हुई थी. बंद कमरे में. बाद में टोपीलाल और निराली के साथ बद्री काका ने उस संवाद को अपनी तरह से आगे बढ़ाया. उनके व्‍यवहार में न तो आक्रोश था, न बदले की भावना. उससे अगले ही दिन समाचारपत्र में एक और बच्‍चे का पत्र छपा. जिससे पूरे शहर की आत्‍मा को विचलित कर दिया. खासकर किशोरों और युवाओं की.

पत्र टोपीलाल ने ही लिखा था-

‘मेरे पिता नशे की हर चीज से दूर रहते हैं. शराब, बीड़ी, गुटका, पान, तंबाकू को वे हाथ तक नहीं लगाते. इस तरह तो मैं दुनिया के सबसे भाग्‍यशाली बच्‍चों में से हूं. मेरे माता-पिता दुनिया के सबसे अच्‍छे माता-पिताओं में से एक. परंतु मेरे हमउम्र दोस्‍तों में से अधिकांश मेरे जितने भाग्‍यशाली नहीं हैं. क्‍योंकि उनके माता-पिता(ज्‍यादातर पिता ही) किसी न किसी नशे की लत के शिकार हैं. इस कारण उन्‍हें बाकी बच्‍चों के बीच बेहद

शर्मिंदा होना पड़ता है.

वे किसी से खुली बातचीत भी नहीं कर पाते. भविष्‍य को लेकर एक अनजाना-सा डर उनके दिलो-दिमाग पर हमेशा सवार रहता है. खुद से ज्‍यादा वे अपनी मां, बहन के लिए लिए चिंतित रहते हैं. जिन्‍हें उनके पिता के नशे का उनकी अपेक्षा अधिक सामना करना पड़ता है. जब-तब वे हंसते भी हैं, मगर उनकी हंसी महज लोक-दिखावा, एक रस्‍म अदायगी जैसी होती है.

जैसे कि मेरा एक दोस्‍त है. बहुत भला लड़का. उसकी एक छोटी बहन भी है. अपने भाई की तरह मासूम और भोली. पिता घरों की पुताई का काम करते हैं. दिहाड़ी का काम. रोज कमाना, रोज का खाना. उनके घर का चूल्‍हा तभी जल पाता है, जब उनके पिता कुछ कमाकर घर लौटते हैं. किंतु पिछले कई महीनों से मैं देख रहा हूं कि वे घर आने के बजाय रास्‍ते या नालियों में पड़े होते हैं. नशे की हालत में. यदि उनके घरवालों को पता लग जाता है तो जैसे-तैसे उठाकर ले जाते.

घर जाकर बच्‍चों की मां जेब टटोलकर देखती है. ताकि सुबह से बंद चूल्‍हे को गर्मा सके. उस समय मेरा दोस्‍त और उसकी बहन भूख से बेहाल हो रहे होते हैं. इसलिए उनकी मां अपने पति की जेब जल्‍दी-जल्‍दी टटोलती. कंपकंपाती उंगलियों से, डरते-डरते. यह सोचते हुए कि कहीं उस जेब को शराब की दुकान पहले ही खोखली न कर चुकी हो. यह डर भी बना रहता है कि कुछ बच जाए तो नशे की हालत में बेसुध पड़े शराबी की जेब को टटोलकर नकदी और कीमती चीज ले जाने वाले छिछोरे लोग भी कम नहीं हैं. ऐसा होता ही रहता है. उस दिन उन्‍हें भूखा ही सोना पड़ता है. कभी-कभार उनकी मजबूर मां घर की एकाध चीज बेचकर चूल्‍हा जलाने का इंतजाम कर लेती है.

ऐसे ही जब कई दिन भूख में गुजरे तो अपने बच्‍चों का पेट भरने के लिए वह औरत काम पर जाने लगी. एक दिन शाम को उसका मर्द घर लौटा तो उसने चूल्‍हे तो जलते हुए पाया. बस यह देखते ही उसका पारा चढ़ गया. बिना कुछ सोचे-समझे गालियां देने लगा. उस दिन उसने अपनी पत्‍नी को कुलटा, वेश्‍या, कुतिया और न जाने क्‍या-क्‍या कहा. उस समय दोनों बच्‍चे खड़े-खड़े रो रहे थे. औरत अपना माथा पीट रही थी. पूरा मुहल्‍ला जानता था कि औरत ने दिन-भर मजदूरी की है. अपने बच्‍चों का पेट भरने के लिए पसीना बहाया है, पर शराबी को समझाए कौन?

ऐसी एक नहीं दर्जनों घटनाएं हैं. मेरे कई अभागे दोस्‍त हैं, जो नशे के कारण त्रासदी भोग रहे हैं. उनकी जिंदगी नर्क बन चुकी है. ऐेसे ही कुछ बच्‍चों ने मिलकर इस दो अक्‍टूबर को गांधी जयंती के दिन एक जुलूस निकालने का निर्णय किया है. हमारा जुलूस पूरी तरह शांतिपूर्ण होगा. हमारे हाथ में नारे लिखे पोस्‍टर होंगे. हम मौन रहेंगे. यहां तक कि नारे भी नहीं लगाएंगे. हमारे हाथ में झंडे होंगे, डंडे नहीं. जो भी हमारे अभियान से, मेरे उन मित्रों से सहानुभूति रखता है, जिनका शांति और अहिंसा में विश्‍वास है, वह आगामी दो अक्‍टूबर को सच्‍चे, शांत मन से हमारे साथ सम्‍मिलित हो सकता है.

हम जब मिलकर आगे बढ़ेंगे, तभी कुछ सार्थक गढ़ सकेंगे!

टोपीलाल

इससे पहले के अधिकांश पत्र छद्‌म नाम से प्रकाशित हुए थे. परंतु इस पत्र में टोपीलाल का नाम गया था. प्रभातफेरी के माध्‍यम से शहर-भर में टोपीलाल और उसके साथियों की चर्चा थी. पत्र की खबर टोपीलाल की मां तक पहुंची. उसका मन आशंकाओं से भर गया. उस रात टोपीलाल घर लौटा तो वह खाना बना रही थी. बापू टोले के दूसरे मिस्त्रियों के साथ अगले दिन के काम की योजना बना रहे थे. टोपीलाल मां के पास चूल्‍हे के सामने ही बैठ गया. वह उसे मुस्‍कराई. पर उस मुस्‍कान में उतनी स्‍वाभाविकता न थी. टोपीलाल को उपले की मंदी आग में मां के माथे की लकीरें साफ दिखाई पड़ गईं. मां परेशान है, इस बात का अनुमान लगाते हुए उसको देर न लगी. मगर क्‍यों, काफी कोशिश के बाद भी वह इस बारे में अनुमान लगाने में नाकाम रहा.

‘तेरी गुरुजी पढ़ाई पर ध्‍यान तो दे रहे हैं, न!' बात मां ने ही आगे बढ़ाई.

‘गुरुजी, तो हमेशा ही हमारे भले का सोचते हैं.'

‘और जो काम वे तुमसे करा रहे हैं! मैं तो पढ़ी-लिखी नहीं. तेरे बापू को अपने काम के अलावा बहुत कम दुनियादारी आती है. हम अपने घर से सैकड़ों मील दूर इसलिए आए हैं कि जिस इज्‍जत की रोटी की हम उम्‍मीद रखते थे, गांव में जातिभेद के चलते वह संभव ही नहीं थी. शहर में वर्षों रहकर भी हम इतने समर्थ नहीं हो पाए हैं कि किसी बड़ी मुश्‍किल का सामना कर सकें. पेट भरने के लिए रोज पसीना बहाना पड़ता है. और तेरे गुरुजी, माना कि दिल के भले और रसूखवाले हैं, मगर आजकल की चालबाज दुनिया के आगे वे अकेले...'

‘मां, गांधी जी भी तो अकेले ही थे.' टोपीलाल ने मां की बात काटी. हालांकि ऐसा वह कम ही करता था.

‘वो जमाना और था बेटा, तब का आदमी इतना काईंयां नहीं था कि पीठ पीछे से वार करे...'

‘तू बेकार ही परेशान हो रही है. बच्‍चों से कोई क्‍या दुश्‍मनी निकालेगा.'

‘तू अभी नादान है. कुछ समझता नहीं, कुछ दिनों से तरह-तरह की खबरें मिल रही हैं. शराब और नशाखोरी के विरोध में तुम सबने जो काम शुरू किया है, लोग उससे नाराज हैं. मजदूर बस्‍तियों में शराब की दुकानें की बिक्री तीन-चौथाई तक आ गई है. यही हाल पानमसाला और गुटका बेचने वालों का है. वे लोग इस नुकसान को आसानी से सहने वालों में से नहीं हैं. बद्री काका के बारे में तो उन्‍होंने पता कर लिया है. अगर वे इतने रसूखवाले न होते तो अब तक कभी के धर लिए जाते.'

‘यदि तुम बद्री काका की पहुंच के बारे में जानती हो, तब तो तुम्‍हें निश्‍चिंत रहना

चाहिए, मां!' टोपीलाल ने तर्क करने की कोशिश की. पर मां के दिमाग में तो कुछ और ही घुमड़ रहा था-

‘दिन में कुछ आदमी आए थे. तेरे नाम का पता लगाते हुए. वे तेरे पिता से मिले. उन्‍होंने धमकी दी है कि तुझे समझाएं. कहें कि जिस रास्‍ते पर तू जा रहा है, वह हममें से किसी के लिए भी ठीक नहीं है. उन्‍होंने कहा कि अगर तू और तेरे दोस्‍त सचमुच पढ़ना चाहते हैं तो वे तुम सब के लिए शहर के किसी भी अच्‍छे स्‍कूल में इंतजाम करा सकते हैं. तू यदि शहर से बाहर जाना चाहे तो वे पूरा खर्च उठाने को तैयार हैं. लेकिन इसके लिए तुझे जुलूस वगैरह का चक्‍कर छोड़ना पड़ेगा.'

‘और तुम क्‍या चाहती हो, मां.'

‘मेरी तो यह बहुत पुरानी साध है कि तू पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बने. वे अच्‍छे स्‍कूल में पढ़ाई का खर्च देने को तैयार हैं. दाखिले में भी मदद करने का वायदा करके गए हैं. मां होने के नाते यदि मैं तेरे सुख की चाह रखती हूं तो इसमें बुरा ही क्‍या है?'

‘कुछ भी बुरा नहीं है, मां. लेकिन अगर पिताजी उतने अच्‍छे न होते, जितने कि वे अब हैं? यदि उन्‍हें भी शराब या जुए की लत होती? यदि अपनी कमाई घर आने से पहले ही वे शराब या जुए खाने की भेंट चढ़ाकर घर लौटा करते? यदि तू साधारण स्त्री की तरह घर पर पति का इंतजार किया करती, इस उम्‍मीद में कि उनके आने पर चूल्‍हा चढ़ाएगी और उस समय वे सबकुछ शराब के हवाले कर घर लौटते तो? क्‍या तब भी तू मुझे इसी तरह रोकती?'

टोपीलाल के तर्क ने उसकी मां को निरुत्तर कर दिया.

‘चल पहले रोटी खा ले...!' वह इतना ही कह पाई. टोपीलाल रोटी खाने लगा. खाना खाकर वह उठा तो मां की धीमी-सी आवाज आई-

‘अपना खयाल रखना बेटा...मां हूं न, तेरे सुख की चिंता कभी-कभी कमजोर बना ही देती है!' कहते-कहते उसकी आंखों में नमी उतर आई. टोपीलाल का गला भी भारी हो गया. उसके बाद अपनी मां पर गर्व करता, भविष्‍य के बारे में नए-नए स्‍वप्‍न सजाता हुआ वह चारपाई की ओर बढ़ गया. कुछ देर बाद काम निपटाकर मां भी उसके बराबर में आकर लेट गई. टोपीलाल ममत्‍व की चाहत में उससे सट गया.

प्रेम बिना ताकत, बिना अपनों के आशीर्वाद के जीवनसंघर्ष में जीत कहां!

भावना सच्‍ची हो तो आवाज दूर तक जाती है. उसका प्रभाव भी स्‍थायी होता है.

जैसी कि अपेक्षा थी टोपीलाल के पत्र की अनुकूल प्रतिक्रिया हुई. दो अक्‍टूबर के दिन स्‍वयंस्‍फूर्त भाव से सैकड़ों बच्‍चे उस अभियान दल के साथ थे. कतारबद्ध, अनुशासन में बंधे, एक ही संकल्‍प में ढले हुए. रंग-बिरंगे कपड़ों में, मानो तरह-तरह के सुगंधित फूल,

उल्‍लास से सजे-संवरे कतारे बांधे खड़े हों. अथवा किसी बड़े उद्‌देश्‍य के लिए तारे जमीन पर उतर आए हों. उनके अधरों पर पवित्र मुस्‍कान थी; जैसे भागीरथी की पवित्र लहरों पर नवअरुण की किरणें झिलमिला रही हों, मन में आत्‍मविश्‍वास जैसे समुद्र अपनी गंभीरता छिपाए रखता है.

बच्‍चों के कार्यक्रम की गूंज राजनीतिक गलियारों में छा चुकी थी. कई राजनीतिक दल उस आंदोलन को अपने समर्थन की घोषणा कर चुके थे. कुछ नेताओं ने उस कार्यक्रम से सीधे जुड़ने की इच्‍छा भी व्‍यक्‍त की थी. मगर दूरदर्शी बद्री काका ने विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया था. वे नहीं चाहते थे कि उस कार्यक्रम का राजनीतीकरण हो. मिथ्‍या वाद-विवाद में फंसकर वह असमय दम तोड़ जाए. इसपर कुछ नेताओं ने अपनी नाराजगी प्रकट की. बद्री काका पर घमंडी होने का आरोप भी लगाया. मगर वे अपने इरादे पर अटल बने रहे.

जुलूस-स्‍थल पर अनुशासन की पूरी व्‍यवस्‍था थी. पंक्‍ति में सबसे आगे था टोपीलाल, सिर पर पीली टोपी पहने. उसके पीछे निराली, तीसरे स्‍थान पर कुक्‍की खड़ी थी. उसके पीछे सदानंद. पांचवे स्‍थान पर बद्री काका स्‍वयं थे, एक विशाल छायादार बरगद की भांति. उनके पीछे बच्‍चों को दो पंक्‍तियों में नियोजित किया गया था. तीसरी पंक्‍ति मजदूर औरतों की थी. अपने तांबई चेहरे और ठोस इरादों के साथ वे जुलूस में हिस्‍सा लेने पहुंची थीं. उनके आंखों में विश्‍वास-भरी चमक थी. वे सबसे दायीं ओर ढाल बनकर, पंक्‍तिबद्ध खड़ी थीं. सबके चेहरे पर एकसमान उल्‍लास था. ढले थे सब एक ही अनुशासन में.

जुलूस आगे बढ़े उससे पहले बद्री काका ने बच्‍चों और बड़ों को संबोधित किया-

‘बच्‍चो और बहनो! यह हमारे इतिहास का पवित्रतम क्षण है; और विश्‍व-भर में अनूठा भी. संभवतः पहली बार सैकड़ों गरीब बच्‍चे और उनकी स्त्रियां किसी पवित्र उद्‌देश्‍य के लिए एकजुट हुए हैं. अपने संकल्‍प को मजबूत कर, बड़े आंदोलन के लिए आगे आए हैं. बच्‍चे किसी भी देश का भविष्‍य हैं. इस आधार पर हम कह सकते हैं कि भविष्‍य अपने वर्तमान को अनुशासित करने के लिए खुद एकजुट हुआ है. भटके हुए लोगों को राह दिखाने, समाज को नई दिशा देने के लिए यह एकता बहुत जरूरी है.

हमारा यह जुलूस नाम पाने के लिए नहीं है. न सिर्फ अखबारों में नाम छपवाने के लिए है. न ही इसके पीछे कोई राजनीतिक ताकत है. आज जो हमारे लिए जरूरी है, वह है समय पर भोजन, साफ-सुथरे कपड़े, सिर पर छत और शिक्षा. यहां आए बहुत से बच्‍चों को ये सब सुविधाएं मिल सकती थीं. यदि नशे ने उनके परिवार पर हमला न किया होता. नशे ने हमसे जीवन की इन बुनियादी चीजों को छीना है. हमारे अपनों को भटकाया है, इसलिए आज वह हमारा सबसे बड़ा दुश्‍मन है. हमें उसको खदेड़ देना है. मुक्‍ति पानी है उससे.

हमारे इस प्रदर्शन का मकसद नशे के दुष्‍प्रभावों के प्रति जागरूकता पैदा करना है.लोगों को बताना है कि नशा उनके तन और मन को किस प्रकार खोखला करता जा रहा है. यह एक व्‍याधि है जिसने पूरे समाज को ग्रस रखा है. इसलिए हम नशे से नफरत करते हैं, नशा पैदा करने वाली वस्‍तुओं से नफरत करते हैं, उन लोगों से नफरत करते हैं जो अपने स्‍वार्थ के लिए नशे की वस्‍तुओं का व्‍यापार करते हैं. लेकिन हम नशाखोरों से नफरत नहीं करते. वे तो हमारे अपने और खास हैं. नशे ने उन्‍हें हमसे दूर किया है. हमारा उद्‌देश्‍य उन भटके हुओं को सही रास्‍ते पर लाना है.

यह भी ध्‍यान रहे कि आज का कार्यक्रम हमारे लंबे अभियान की केवल शुरुआत है. नशे के विरोध की हमारी यात्रा आज से आरंभ होने जा रही है. यह बहुत लंबी यात्रा है. इसमें अनेक पड़ाव आएंगे. बहुत-सी परेशानियों और संकटों से हमारा सामना होगा. हादसे कदम-कदम पर हमारी हिम्‍मत और धैर्य की परीक्षा लेंगे. किंतु यदि हम डटे रहे तो विजय हमारी ही होगी. क्‍योंकि जीत हमेशा सच की होती है.

मित्रो, मैं तो बूढ़ा हो चुका हूं. संभव है कि इस अभियान में आपकी संपूर्ण विजयश्री को मैं अपनी आंखों से न देख सकूं. मगर आप सभी उस विजय दिवस के साक्षी बनें, इस कामना के साथ मैं आप सब को बधाई देना चाहता हूं.

आगे बढ़ने से पहले सिर्फ इतना ध्‍यान रहे कि हम महात्‍मा गांधी के शांति सैनिक हैं. मन, वचन और कर्म में से किसी भी प्रकार की हिंसा हमारे लिए त्‍याज्‍य है. इसलिए हम यह संकल्‍प लेकर आगे बढ़ें कि चाहे जो भी हो, हम शांति-भंग नहीं होने देंगे. अहिंसा हमारा धर्म है. महात्‍मा गांधी की...'

‘जय...!' बच्‍चों का समवेत स्‍वर गूंजा.

इसके बाद टोपीलाल ने मोर्चा संभाल दिया. अपनी पतली लेकिन ओज-भरी आवाज में उसने नारा लगाया-‘महात्‍मा गांधी की...'

‘जय...!'

जुलूस आगे बढ़ने ही वाला था कि वहां पर पुलिस की गाड़ी रुकी. उसके पीछे दो गाड़ियां और भी थीं. एक गाड़ी से धड़ाधड़ कई सिपाही कूदने लगे. तभी बद्री काका की निगाह सबसे आगे चल रहे पुलिस अधिकारी पर पड़ी. उन्‍हें पहचानते हुए देर न लगी. वह पुलिस सुपरिंटेंडेंट था. तेज कदमों से चलता हुआ वह बद्री काका के निकट पहुंचा. जुलूस में मौजूद औरतें और बच्‍चे सहम-से गए. परंतु टोपीलाल और उसके साथियों के चेहरों पर पहले जैसी दृढ़ता बनी रही.

बद्री काका का अभिवादन करने के उपरांत पुलिस सुपरिंटेंडेंट ने कहा-

‘आप हैरान हो रहे होंगे मुझे यहां देखकर. दरअसल मैं यह कहने आया हूं कि उस दिन आपने मेरी आंखें खोल दी थीं. मैं इस मसले को अभी तक केवल कानून की निगाह से देख रहा था. इन बच्‍चों के पवित्र उद्‌देश्‍य और उनकी भावनाओं को मैं उस समय तक

समझ ही नहीं पाया था. गलत था मैं. शायद आप के ही दर्शनों का सुफल है जो समय रहते सद्‌बुद्धि लौट आई. अब मैं पूरी तरह से आपके साथ हूं. आप जुलूस लेकर आगे बढ़ें. बस जरा शांति-व्‍यवस्‍था का ध्‍यान रखें. मैं और मेरी पूरी कमान आपके साथ है.'

‘धन्‍यवाद एसपी साहब! मैं आपकी भावनाओं का सम्‍मान करता हूं तथा उम्‍मीद करता हूं कि हमें आपकी जरूरत नहीं पड़ेगी.'

‘मैं भी यही चाहता हूं.' मुस्‍कराते हुए पुलिस कप्‍तान ने कहा और अपनी गाड़ी पर सवार हो गया.

ताकत नैतिकता के आगे सदैव नतमस्‍तक होती रही है.

नैतिकता मनुष्‍यता के लिए नए मापदंड भी गढ़ती है.

हाथों में झंडियां और पोस्‍टर उठाए बच्‍चे आगे बढ़ने लगे. मौन, पूरी तरह अनुशासित. संयमित और मर्यादित. चेहरे पर आत्‍मविश्‍वास और मनभावन मुस्‍कान लिए. मानो इतने सारे बच्‍चे एक साथ साधनारत हों. कि पवित्र जलधाराएं मौन, धीर-गंभीर गति से एक-दूसरे के समानांतर बही चली जा रही हों. अनेकानेक को जीवनदान देने. परोपकार की परंपरा को आगे बढ़ाती हुई. सींचती हुई पवित्र धरा को नई उमंगों, रंग-बिरंगे सपनों और महान संकल्‍पों से.

सबसे आगे था टोपीलाल. उन्‍नत ग्रीवा, घुंघराले बाल, तांबई, पका हुआ रंग. अपने दोनों हाथों से दंड रहित श्‍वेत-हरित ध्‍वजा को उठाए. दंड रहित ध्‍वजा की परिकल्‍पना बद्री काका ने की थी. अहिंसा के सिपाहियों के हाथों में दंड का क्‍या काम. जो अपनी नैतिकता से दुनिया जीतने निकला है, उसको बल या उसके बाह्‌यः प्रतीकों का सहारा क्‍यों. उनके पीछे मौजूद तीनों कतारों में सैकड़ों बच्‍चे और औरते खड़ी थे.

आरंभ में जुलूस में हिस्‍सा लेने आई स्त्रियों की संख्‍या कम थी. लेकिन जुलूस आगे बढ़ने के साथ-साथ महिला आंदोलनकारियों की संख्‍या भी बढ़ती चली गई. उनकी देखदेखी कुछ पुरुष भी आकर उनमें शामिल हो गए. जिनमें से एक व्‍यक्‍ति को देखकर बद्री काका, कुक्‍की और टोपीलाल सहित अनेक बच्‍चे विस्‍मय में डूब गए. वह जियानंद था. सदानंद का पिता. अपने पिता को वहां देख सदानंद के चेहरे पर उदासी छा गई. यह देख बद्री काका ने उसको संभाला. कंधा थामकर भरोसा जताया. जुलूस आगे बढ़ा तो जियानंद भी साथ-साथ बढ़ने लगा.

दोपहर बारह बजे के तय समय पर जब जुलूस अपने पूर्व निर्धारित पड़ाव-स्‍थल पर पहुंचा, उस समय तक स्त्रियों की कतार बच्‍चों की कतार जितनी ही लंबी हो चुकी थी. उसमें डेढ़ सौ से अधिक महिला आंदोलनकारी सम्‍मिलित थीं. श्रम और ममता की प्रतिमूर्ति. उत्‍साहित, आंखों में बदलाव का सलोना सपना सजाए हुए. नए विश्‍व की रचना

को समर्पित. पुरुषों की संख्‍या भी पचास से ऊपर थी.

पुलिस के सिपाही जुलूस को घेरे हुए चल रहे थे. उनके चेहरे पर नौकरी का तनाव कम, जुलूस के साथ होने की अनुभूति प्रबल थी. उनकी भावनाएं जुलूस में सम्‍मिलित बच्‍चों की भावनाओं के अनुरूप थीं, इसीलिए वे भी जुलूस का ही एक हिस्‍सा नजर आ रहे थे. शायद पहली बार पुलिस की मंशा बच्‍चों के जुलूस को सुरक्षाकवच प्रदान करने की थी. कानूनी ताकत नैतिकता की सहयोगी बनी थी. लोगों को अपनी कामयाबी का भरोसा भी था.

रास्‍ते के दोनों और लोग जमा थे. स्त्री-पुरुष, बूढे़े और बच्‍चे, धनी और निर्धन, मजदूर और व्‍यापारी. सभी हैरान थे. मैदान में इधर-उधर घूमने वाले बच्‍चे, जिन्‍हें आवारा, बदमाश, शैतान आदि न जाने क्‍या-क्‍या कहा जाता था. जो गलियों में बेकार घूमते, समय गुजारने के लिए कबाड़ का धंधा करने लगते थे.

पेट भरने के लिए छोटी-मोटी चोरी-चकारी से भी उन्‍हें डर नहीं था. उनके घरों में नशे की त्रासदी आम बात थी. अपनी नादानी के कारण जो स्‍वयं भी किसी न किसी नशे का शिकार होते आए थे, पहली बार वे नशे के विरुद्ध एकजुट हुए थे. पहली बार उन्‍होंने उस दानव के विरुद्ध मोर्चा खोला था. तमाशबीन दर्शकों के बीच चर्चा का यह एक अच्‍छा मसाला था.

जुलूस को मैदान तक पहुंचने में करीब डेढ़ घंटा लगा था. वहां स्‍वयंसेवी संस्‍थाओं की ओर से नाश्‍ते की व्‍यवस्‍था थी. मैदान तक पहुंचते-पहुंचते बच्‍चे थक चुके थे. हालांकि उनके चेहरे को देखकर उसका अनुमान लगा पाना कठिन था. बद्री काका ने नाश्‍ते के लिए विश्राम की मुद्रा में आ जाने को कहा. कुछ बच्‍चे वहीं जमीन पर बैठ गए. मैदान में बच्‍चों को संबोधित करने के लिए एक मंच बनाया गया था. मंच से बद्री काका द्वारा संबोधित किए जाने का कार्यक्रम था.

पार्क में अब सिर्फ बच्‍चे नहीं थे. बल्‍कि सैकड़ों की भीड़ जमा थी. जुलूस की खबर अखबार के माध्‍यम से पूरे शहर में फैल चुकी थी. इसलिए उसको देखने के लिए हजारों की भीड़ उमड़ चुकी थी. उत्‍सुक लोग सड़क के किनारे, चौराहों, घरों और दुकानों की छतों पर खड़े थे. बाजार में ग्राहक कम जुलूस देखने आए तमाशबीनों की संख्‍या अधिक थी. बच्‍चों के पहुंचने से पहले ही सैकड़ों लोग उस पार्क में जमा हो चुके थे. इससे बद्री काका का उत्‍साहित होना स्‍वाभाविक ही था.

बच्‍चों के उत्‍साहवर्धन के लिए एक बार फिर उन्‍होंने जिम्‍मेदारी संभाल ली. मंच पर आकर उन्‍होंने कहना आरंभ किया-

‘दोस्‍तो! मैं नशे के विरुद्ध बच्‍चों और बड़ों में चेतना तो लाना चाहता था. परंतु सच मानिए इतने बड़े और सफल जुलूस की कल्‍पना मैंने सपने में भी नहीं की थी. मेरी पाठशाला में तो मुट्‌ठी-भर ही बच्‍चे हैं, जो एक कमरे में समा सकते हैं. पर आज जो यहां

पर शहर-भर के बच्‍चों का हुजूम उमड़ पड़ा है, उसका श्रेय सिर्फ और सिर्फ टोपीलाल और उसके साथियों को जाता है.

इन बच्‍चों ने पूरी मेहनत और ईमानदारी के साथ अपनी भावनाओं को आप सब तक पहुंचाया. आपके दिल को छुआ. इसी का सुफल आज का यह कामयाब प्रदर्शन है.रास्‍ते में हमारे जुलूस को हजारों आंखों ने देखा. हजारों दिल-दिमागों ने हमारे कार्यक्रम के प्रति अपनी आस्‍था का प्रदर्शन किया है. आप सबकी भागीदारी ने, चाहे वह जिस रूप में भी हो, हमारा हौसला बढ़ाया है. हमारे मकसद को दृढ़ किया है. और इस संघर्ष में जीत के प्रति हमारे विश्‍वास को आगे ले जाने का काम किया है. इसकी खबर करोड़ों लोगों तक पहुंचेगी और यकीन मानिए हमें उनका भी आशीर्वाद मिलेगा.

आज जिस तरह से लोग हमारे जुलूस को देखने के लिए जमा हुए हैं, उससे लगता है कि लोग हमपर विश्‍वास कर रहे हैं. वे हमारी बात से सहमत हैं. हमारी भावनाओं के प्रति एकमत हैं, हमसे जुड़ना चाहते हैं. हमने आज लोगों की आंखों में चमक देखी. निश्‍चय ही उनमें कुछ आंखें ऐसी भी होंगी जिन्‍हें नशे की लत ने धुंधली बना दिया होगा. लेकिन यदि वे हमें देखने के लिए यहां तक आई हैं तो हमें यह मान लेना चाहिए कि वे बदलाव के लिए उत्‍सुक हैं. वे अपनी स्‍थिति से, बदनामी और पतन की पराकाष्‍ठा से ऊब चुकी हैं. यह सब हमारी एकजुटता का नतीजा है. हमारे उद्‌देश्‍य की पवित्रता ने इसको आसान बनाया है.

जुलूस को कामयाब बनाने में स्त्रियों का भी योगदान है. वे स्‍वयंस्‍फूर्त भाव से इसमें हिस्‍सा लेने आई हैं. जुलूस में स्त्रियों को सम्‍मिलित करने का विचार भी मेरा नहीं था. यह सुझाव भी टोपीलाल की ओर से आया. सच कहूं तो आजादी के बाद के अपने सार्वजनिक आयोजन में मैं स्त्री-शक्‍ति को इतने बड़े स्‍तर पर पहली बार संगठित देख रहा हूं. हमारे परिवारों में कमाना अब भी पुरुष की जिम्‍मेदारी माना जाता है, लेकिन उसका अस्‍तित्‍व पूूरी तरह अपने परिवार अर्थात स्त्री और बच्‍चों पर निर्भर होता है. कोई भी मनुष्‍य भले ही वह कितना ही संवेदनहीन क्‍यों न हो, स्त्री और बच्‍चों की उपेक्षा नहीं कर पाता. घर के मर्द जब नशे के शिकार होते हैं तो उसका सर्वाधिक नुकसान भी इसी वर्ग को उठाना पड़ता है. इसलिए अपने हित के लिए इन दोनों को संगठित होना पड़ेगा.

यह कोई राजनीतिक लड़ाई नहीं है. हम इसको राजनीतिक लड़ाई बनाना भी नहीं चाहते. अगर इसको राजनीतिक लड़ाई बनाया गया तो वोटों के सौदागर कूद पड़ेंगे. तब इस आंदोलन का भी वही हश्र होगा जो देश की अधिकांश राजनीतिक संस्‍थाओं का होता रहा है. यह एक सामाजिक आंदोलन है, जिसका संघर्ष घर की चारदीवारी के बीच, चौके-चूल्‍हे के सामने होना है. वहां पर बच्‍चों और स्त्रियों की एकजुटता इस आंदोलन को विजय की ओर ले जाएगी.

मित्रो! हमारा अगला कार्यक्रम मजदूर बस्‍तियों के आसपास स्‍थित शराब की पांच

दुकानों के आगे धरने-प्रदर्शन का है. गांधी जयंती के कारण सभी दुकानें आज बंद होंगी. मगर हमारा लक्ष्‍य अपनी विचारधारा को प्रशासन और आम जनता तक पहुंचाना है, इससे उनके बंद होने या खुले रहने से कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता. मैं चाहता हूं कि इस सांकेतिक धरने के नेतृत्‍व के लिए महिलाएं आगे आएं.'

बद्री काका ने बोलना समाप्‍त किया तो सभा-स्‍थल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. स्त्रियों की कतार से कुछ महिलाएं आगे आ गईं. बाकी बद्री काका के इशारे पर बच्‍चों की कतारों में बच्‍चों के बीच सम्‍मिलित हो गईं. फिर पूरे दल को पांच हिस्‍सों में बांट दिया गया.

‘महात्‍मा गांधी की जय...!' पीछे से आवाज आई तो टोपीलाल चौंक पड़ा.

‘मां!' कहते हुए उसकी निगाह महिलाओं की ओर दौड़ गई. आठ-दस महिलाओं के बीच अपनी मां को खड़ा देख टोपीलाल की आंखों में चमक आ गई-

‘तुम भी!' उसके मुंह से बरबस निकला. टोपीलाल को आंखों ही आंखों में आशीर्वाद लुटाते हुए उसकी मां ने दुबारा नारा लगाया-

‘सत्‍य और अहिंसा की...!'

‘जय!' टोपीलाल ने अपनी मां के स्‍वर में स्‍वर मिलाया. उसका साथ सैकड़ों आवाजों ने दिया. जुलूस धरने के लिए आगे बढ़ने ही जा रहा था कि एसपी की गाड़ी फिर उसका रास्‍ता रोककर खड़ी हो गई. आंखों में चिंता के भाव लिए वह बद्री काका के पास पहुंचा-

‘माफ कीजिए, यहां से आगे बढ़ने की अनुमति मैं आपको नहीं दे सकता?' पुलिस अधिकारी ने जोर देकर कहा. बद्री काका हैरान. कारण उनकी समझ के बाहर था.

‘ऐसा अचानक क्‍या हो गया एसपी साहब?' बद्री काका ने प्रश्‍न किया.

‘मुझे अभी-अभी सूचना मिली है कि उधर कुछ गुंडे लोग जमा हैं. वे जुलूस को नुकसान पहुंचा सकते हैं.'

‘आप उनको रोकें, समझाएं कि वे हमारे शांतिपूर्ण प्रदर्शन में बाधा न बनें.'

‘हमारी टुकड़ियां उधर जा चुकी हैं. हालात नियंत्रण में हैं. फिर भी बच्‍चों और महिलाओं के कारण मैं कोई खतरा उठाना नहीं चाहता. प्‍लीज, आप ही मान जाइए.'

‘चाहे कुछ भी हो जाए साहब, हम नहीं मानेंगे.' तब तक कई महिलाएं आगे आ चुकी थीं. टोपीलाल और उसके साथी भी उनके इर्द-गिर्द जमा हो गए.

‘आप बात समझने की कोशिश कीजिए. उन लोगों का कोई भरोसा नहीं. गुंडे-मवालियों के माध्‍यम से वे कुछ भी कर सकते हैं.'

‘तो आप उन्‍हें गिरफ्‍तार कर लीजिए...' महिलाओं के बीच से आवाज आई. एसपी के चेहरे पर बेचारगी छा गई. तब बद्री काका उसको सांत्‍वना देने के लिए आगे आए-

‘मैं आपकी मुश्‍किल समझता हूं कप्‍तान साहब. किंतु हमारी भी विवशता है. हम

हिंसा नहीं चाहते. लेकिन उसके डर से अपने बढ़े हुए कदम वापस भी नहीं ले सकते.' निकट ही खडे़ टोपीलाल को तो इसी बात का इंतजार था. उसने जोश के साथ नारा लगाया-

‘महात्‍मा गांधी की...!'

‘जय!' उतने ही जोश में डूबे जुलूस ने साथ निभाया. उनकी आवाज का दमखम देख दशों दिशाएं गूंजने लगीं.

‘सत्‍य-अहिंसा...!'

‘जिंदाबाद...!'

‘प्‍यार से जो आबाद हुए घर...'

‘...नशे ने वे बरबाद किए घर'

‘अगर तरक्‍की करनी है तो...'

‘...दूर नशे से रहना होगा.'

‘फंसा नशे के चंगुल में जो...'

‘...इंसां से हैवान बना वो.'

‘गुटका, पानमसाला, बीड़ी...'

‘...मौत की सीढ़ी, मौत की सीढ़ी.'

नारे लगाता हुआ जुलूस फिर आगे बढ़ने लगा. रास्‍ते में शराब की दुकान आई तो एक दल उसके सामने धरना देने के लिए बैठ गया. बाकी समूह आगे बढ़ा. वहां व्‍यस्‍त सड़क थी. वाहनों से भरी हुई. बद्री काका ने बच्‍चों को एक पंक्‍ति में चलने का कहा. वाहनों की भीड़ से बच्‍चे सावधानीपूर्वक गुजरने लगे. नारे लगाते, लोगों का ध्‍यान आकर्षित करते हुए.

दूसरी दुकान सड़क के ठीक पीछे स्‍थित मजदूर बस्‍ती में थी. वहां तक पहुंचने के लिए जुलूस को कच्‍ची नालियों और कीचड़ से होकर गुजरना पड़ा. सरकारी निर्देश के कारण दुकाने बंद थीं. दूसरा दल प्रतीकात्‍मक धरने के लिए वहीं रुक गया. बाकी रहा कारवां आगे बढ़ा. एक चौराहे और फिर चौड़े पार्क को पार करता हुआ वह खुले मैदान में आ गया. जुलूस जिस बस्‍ती से गुजरता वहां के बच्‍चे और महिलाएं उससे अपने आप जुड़ते चले जाते थे. मानो उस अभियान में कोई पीछे न रहना चाहता हो. सब अपना योगदान सुनिश्‍चित करने को तत्‍पर हों. इसलिए दो टोलियां पीछे छूट जाने के बावजूद आंदोलनकारियों की संख्‍या में कोई कमी नहीं आई थी. जुलूस में हिस्‍सा ले रहे बच्‍चों और महिलाओं का जोश भी पहले ही भांति बना हुआ था.

मैदान के एक सिरे पर झुग्‍गियां थीं. शहर के सबसे गरीब लोगों की गुमनाम-सी बस्‍ती. उसके दूसरे छोर पर कच्‍ची शराब की दुकान. बराबर में भांग का भी ठेका था. दुकान हाल ही में खुली थी. इस कारण उसके आगे लगा बोर्ड एकदम चमचमा रहा था. मानो

जुलूस में हिस्‍सा ले रहे आंदोलनकारियों को चुनौती दे रहा हो. तीसरे दल को वहीं धरना देने की जिम्‍मेदारी सौंपकर, बद्री काका आगे बढ़ गए.

अब भी जुलूस में सौ से ऊपर स्त्रियां और बच्‍चे सम्‍मिलित थे. पार्क को पार करने के बाद वे फिर एक व्‍यस्‍त सड़क पर आ गए. जिसके दोनों ओर ऊंची-ऊंची इमारतें थीं. आगे एक मोड़ था. उससे पचास कदम आगे ही दो दुकानें थीं. बड़ी-बड़ी और लगभग आमने-सामने. दुकानों की एक दिशा में शहर का सबसे बड़ा औद्योगिक क्षेत्र था. तीन ओर बड़ी-बड़ी मजदूर बस्‍तियां. उन दुकानों का मालिक शहर का शराब का सबसे बड़ा ठेकेदार था. हर कोई उसकी ताकत और राजनीतिक पहुंच से परिचित था.

पुलिस की मदद से कुछ देर के लिए यातायात को रोक दिया गया था. बद्री काका बच्‍चों ने को संभलकर रास्‍ता पार करने का निर्देश दिया. वे खुद जुलूस के बीच में चल रहे थे. बच्‍चे और महिलाएं सावधानीपूर्वक सड़क पार कर ही रहे थे कि अचानक एक पत्‍थर जुलूस के ऊपर आकर पड़ा. कोई बच्‍चों और महिलाओं पर भी हमला कर सकता है, बद्री काका को इसकी आशंका बहुत कम थी. पत्‍थर गिरते ही जुलूस में खलबली मच गई. बच्‍चे पंक्‍ति तोड़कर इधर-उधर जाने लगे. बच्‍चे इधर-उधर भागने लगे. जुलूस में आगे चल रहीं निराली और कुक्‍की बच्‍चों को रोकने के लिए चीखने लगीं.

‘भागिए मत. आराम से रास्‍ता पार कीजिए.' बद्री काका चीखे, ‘हौसला रखिए, यह हमला कायरतापूर्ण है. वे हमें डरा रहे हैं. पर हम डरेंगे नहीं. आगे बढ़िए...धीरे-धीरे आगे बढ़िए.' लगातार पत्‍थर गिरने से चौराहे पर खड़े वाहन चालकों में भी डर व्‍याप गया. मजदूर औरतें बच्‍चों को सड़क के दूसरी ओर सुरक्षित पहुंचाने के काम में लगी थीं. उनमें से भी कुछ को चोटें आई थीं. महिलाओं का ही एक दल घायलों को इलाज के लिए ले जाने में जुट गया.

अचानक पत्‍थरों की रफ्‍तार तेज हो गई. इतनी कि चौराहे पर खड़ा रहना असंभव दिखने लगा. जुलूस में शामिल आधे से अधिक लोग दूसरी दिशा में पहुंच ही चुका था. अपनी टोली का नेतृत्‍व कर रही कुक्‍की तेजी से दूसरी दिशा में जाना चाहती थी. तभी पत्‍थरों की मार से घबराया एक स्‍कूटर सवार तेजी से गुजरा. बद्री काका की निगाह उस ओर गई. वे कुक्‍की की ओर भागे.

‘गुरुजी बचिए...आह!' टोपीलाल की आवाज गूंजी. उसी के साथ गुरुजी और कुक्‍की की चीख भी. अकस्‍मात पूरा जुलूस बिखर गया. चीख-पुकार मचने लगी.

‘रुकिए मत! चलते रहिए...बद्री काका सिर्फ घायल हुए हैं. उन्‍होंने ही कहलवाया है-रुकिए मत. पूरे विश्‍वास कदम बढ़ाते रहिए. अभी हमारा अभियान अभी पूरा नहीं हुआ है. अभी एक और मोर्चा बाकी है. उसको फतह करने के लिए हमें जल्‍दी से जल्‍दी लक्ष्‍य तक पहुंचना है. मंजिल बस दस कदम दूर है.' टोपीलाल चिल्‍लाया और गुरुजी तथा कुक्‍की को संभालने के लिए झुक गया. टोपीलाल के आवाह्‌न पर नन्‍हे कर्मयोगी और महिलाएं

फिर आगे बढ़ने लगीं. पूरी दृढ़ता के साथ.

उस सनातन संघर्ष में कायरों ने अपनी क्रूरता का परिचय दिया. कर्मयोगियों ने अपनी संकल्‍पनिष्‍ठा का.

कर्मयोग और लक्ष्‍यसिद्धि परस्‍पर पर्याय हैं.

सफलता कर्मयोगी के वरण हेतु सदैव उत्‍सुक रहती है.

‘हमनें पांचों दुकानों के आगे सफलतापूर्वक धरना दिया. कई दर्जन लोग हमारे साथ थे. फिर भी हम हार गए!' टोपीलाल ने कहा और अपनी निगाह बद्री काका के पैरों पर टिका दी. उस दिन कुक्‍की को मोटर साइकिल से बचाने के प्रयास में बद्री काका स्‍वयं उससे टकरा गए थे. उसके साथ घिसटते हुए सड़क पर दूर तक चले गए. तभी सामने से आती एक तेज रफ्‍तार कार उनके पैरों को कुचलती हुई चली गई.

कुक्‍की को भी मामूली चोटें आईं थीं. उसको तीसरे दिन अस्‍पताल से छुट्‌टी दे दी गई. बद्री काका को डॉक्‍टरों ने उन्‍हें ठीक तो कर लिया, मगर उनके दोनों पैर काटने पड़े थे. इस बात का अफसोस बद्री काका से ज्‍यादा टोपीलाल और उसके सहयोगियों को था. जब उसको यह खबर मिली तो कई घंटों तक रोता रहा था.

‘हार कैसी, हम पूरी तरह कामयाब रहे हैं.' बद्री काका ने मुस्‍कराने का प्रयास किया.

‘हमारे कारण ही आपकी यह हालत हुई है...!' टोपीलाल ने कहा. उसकी आंखें एकदम लाल थीं. मानो कई रातें उसने जागकर बिताई हों.

‘जिस लक्ष्‍य के लिए हमने एकजुटता दिखाई है, उसके लिए यह तो बहुत मामूली कीमत है.'

‘अब हमारा मार्गदर्शन कौन करेगा?' सदानंद बोला, उसके स्‍वर में उदासी थी. इसपर टोपीलाल ने बात काटी-‘गुरुजी हैं, तो!' फिर बद्री काका की ओर मुड़कर बोला, ‘आगे आप सिर्फ आदेश दिया करना, सारा काम हम स्‍वयं कर लेंगे.'

उसी समय कुक्‍की दौड़ती हुई भीतर आई. उसके माथे पर पटि्‌टयां बंधी थीं. दौड़ने के कारण उसकी सांसे फूल रही थीं. उसके हाथों में एक पत्र था. उसपर छपा नाम-पता देखते ही बद्री काका की आंखों में खुशी की लहर दौड़ गई. कुछ पल वे उसको टकटकी लगाए देखते रहे, फिर उनकी उंगलियां पत्र को बहुत सावधानी से खोलने लगीं.

‘किसका पत्र है, गुरुजी?' सदानंद ने पूछा. उत्तर देने के बजाय बद्री काका मुस्‍करा दिए और अपना ध्‍यान पत्र पर लगा दिया. पत्र राष्‍ट्रपति आवास से आया था. राष्‍ट्रपति महोदय का एकदम निजी पत्र. लिखा था-

‘परमश्रद्धेय बद्रीनारायण जी,

दो अक्‍टूबर को महात्‍मा गांधी की जन्‍मतिथि पर देश-भर में सरकारी और गैरसरकारी

स्‍तर पर अनेक कार्यक्रम होते हैं. हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी हुए. देश के प्रथम नागरिक की हैसियत से मैं कुछ कार्यक्रमों में सम्‍मिलित भी हुआ. मगर मुझे जितनी उत्‍सुकता आपके कार्यक्रम के बारे में जान लेने की थी, उतनी किसी और की नहीं. इसलिए कि उन सब कार्यक्रमों में आपका आंदोलन सर्वाधिक मौलिक एवं रचनात्‍मक था. आपको मिली सफलता की सूचना से मेरा दिल गद्‌गद हो गया. मन हुआ कि वहीं जाकर आपको बधाई दूं. लेकिन जिस पद पर मुझे बिठाया गया है, उसकी जिम्‍मेदारियां मुझे वहां आने की अनुमति नहीं दे रही हैं.

बता दूं कि आपके अभियान की कामयाबी पर मुझे पहले भी पूरा भरोसा था. क्‍योंकि जिस समर्पण एवं निष्‍ठा के साथ आप काम को संभालते हैं, उसमें नाकामी संभव ही नहीं है. आपके आंदोलन की सफलता जहां मन को प्रफुल्‍लित कर देने वाली है, वहीं आपके साथ घटी दुर्घटना की खबर ने दिल को झकझोर कर रख दिया है. इस बारे में हालांकि आपने स्‍वयं कुछ नहीं बताया है. यह सूचना मुझे अस्‍पताल के माध्‍यम से मिली है. उन्‍हें न जाने कैसे मेरी और आपकी मैत्री की सूचना मिली, जो आपके साथ हुई दुर्घटना की खबर मुझे भेजने की कृपा की.

जिन लोगों ने आपके साथ यह घिनौनी हरकत की है, वे बहुत ही कायर और निर्लज्‍ज किस्‍म के लोग हैं. वे खुद टूट चुके हैं. उनका यह कदम उनके डर, हताशा और बौखलाहट का नतीजा है. आपका हृदय विशाल है. जानता हूं कि उनके प्रति आपके मन में कोई द्वैष या विकार नहीं होगा. आप तो माफ भी कर चुके होंगे. पर कानून भी अपना काम करे, मेरी यही इच्‍छा है. मुझे पूरी उम्‍मीद है कि स्‍थानीय प्रशासन उनका पता लगाकर उन सबको सजा जरूर दिलाएगा.

अपने पिछले पत्र में आपने लिखा था कि आंतरिक ऊर्जा से भरपूर बच्‍चों ने आपकी इंजन वाली जगह हथिया ली है. इससे लगता है कि वे बच्‍चे विलक्षण रूप से प्रतिभाशाली और साहसी हैं. उनमें देश के लिए कार्य करने का जज्‍बा है. मैं उनकी भावनाओं को नमन करता हूं. उम्‍मीद करता हूं कि वे इसी प्रकार लगातार आगे बढ़ते रहेंगे. मैं उनसे अवश्‍य मिलना चाहूंगा. आप स्‍वयं भी उनके साथ दर्शन दें तो मुझे बहुत प्रसन्‍नता होगी.

अंत में आपकी अद्वितीय सफलता के लिए आपको एवं आपके सभी बालसहयोगियोें को बधाई देता हूं और आशा करता हूं कि हमारी भेंट बहुत जल्‍दी होगी.'

संघीय देश का राष्‍ट्रपति

पत्र पढ़ने के पश्‍चात बद्री काका ने वह बच्‍चों की ओर बढ़ा दिया. टोपीलाल उसे लेकर पढ़ने लगा. सदानंद समेत बाकी बच्‍चे भी उसके ऊपर झुक गए. तभी पुलिस सुपरिंटेंडेंट ने प्रवेश किया. वह सादा लिबास में था. उसको देखकर बद्री काका ने बैठने का प्रयास किया. मगर घाव ताजे होने के कारण दर्द की लहर दिमाग को चीर-सा गई. उन्‍हें कराहकर उसी स्‍थिति में रह जाना पड़ा.

‘न...न! आप आराम से लेटे रहिए...मैं तो सिर्फ यह बताने आया था कि जिन लोगों ने आपपर हमला किया था, उन सभी को पुलिस गिरफ्‍तार कर चुकी है.'

‘वे सब नहीं जानते कि उन्‍होंने निर्दोष बच्‍चों और महिलाओं पर हमला करके कितना बड़ा पाप किया है.' बद्री काका के मुंह से कराह निकली.

‘मैं आपके लिए एक खुशखबरी भी लाया हूं.' एसपी मुस्‍कराया, फिर प्रतीक्षा किए बिना ही कहता गया, ‘एक आदेश के तहत सरकार ने मजदूर बस्‍तियों में चल रहीं, शराब की सभी दुकानों को तत्‍काल प्रभाव से बंद कराने का निश्‍चय किया है...'

‘धन्‍यवाद, और भी अच्‍छा होता यदि सरकार शराब की दुकानों के साथ-साथ तंबाकू और और नशे की दूसरी चीजों के निर्माण एवं बिक्री पर भी लगाम लगाने का काम करे. खैर, देर से ही सही आप बहुत अच्‍छी खबर लेकर आए हैं.'

‘आपके लिए एक खुशखबरी और भी है...'

‘अच्‍छा, लगता है आज आप थोक में खुशखबरी लेकर आए हैं.' बद्री काका मुस्‍कराए.

‘इन बच्‍चों के काम से खुश होकर सरकार ने टोपीलाल और उसके साथियों को पुरस्‍कृत करने का निर्णय लिया है, इस बारे में मुझे आपसे बातचीत करने का आदेश मिला है.' एसपी ने कहा. अचानक बद्री काका के चेहरे के भाव बदलने लगे. वहां पर हमेेशा रहने वाली मृदुलता गायब हो गई-

‘इन्‍हें पुरस्‍कार नहीं अच्‍छी शिक्षा की जरूरत है.' बद्री काका ने दो टूक स्‍वर में कहा, ‘शहर बढ़ता रहेगा. इमारतें भी ऊंची और ऊंची उठती रहेंगी. उनके लिए मजदूर और कारीगरों की जरूरत भी हमेशा ही रहेगी. मजदूरों के साथ उनका परिवार भी होगा. इसलिए जरूरत ऐसी सचल पाठशालाओं की है, जो मजदूरों के बच्‍चों को उनके कार्यस्‍थलों पर जाकर शिक्षा दे सकें. स्‍वयं सेवी संस्‍थाओं की मदद से सरकार यह काम आसानी से कर सकती है...'

‘आपका सुझाव बहुत अच्‍छा है...मैं स्‍वयं सरकार को लिखूंगा...'

‘यही इन बच्‍चों का पुरस्‍कार होगा.' बद्री काका ने दृढ़तापूर्वक कहा.

वहां उपस्‍थित महिलाएं एवं बच्‍चे चौंक पड़े. बद्री काका का दृढ़ निश्‍चय देख एसपी का कुछ और पूछने का साहस ही न हुआ. उसने बद्री काका से विदा ली. पुरस्‍कार न लेने पर बच्‍चे और औरतें अभी भी हैरान थे. एसपी के जाने के बाद वहां मौजूद औरतों में से एक ने पूछा-

‘सरकार बच्‍चों को ईनाम दे...इसमें बुराई ही क्‍या है?'

बद्री काका कुछ देर तक छत की ओर घूरते रहे. फिर उसी मुद्रा में धीर-गंभीर स्‍वर में बोले-‘टोपीलाल और उसके साथियों ने जो किया है, वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है. उसका सम्‍मान हो, यह मेरे लिए भी सम्‍मान की बात है. लेकिन आदमी का लक्ष्‍य यदि बड़ा हो

और मंजिल दूर तो उसे रास्‍ते के छोटे-छोटे प्रलोभनों और लालच से दूर रहना ही पड़ता है. एक कर्मयोगी के लिए सच्‍चा पुरस्‍कार तो उसकी लक्ष्‍य-सिद्धि है. ये मान-सम्‍मान और पुरस्‍कार तो कालांतर में उसको भटकाने, मंजिल से दूर ले जाने का काम ही करते हैं.' बद्री काका ने कहा. फिर टोपीलाल की ओर मुड़कर बोले-

‘तुम्‍हें बुरा तो नहीं लगा बच्‍चों?'

‘हमारे लिए तो आपका आशीर्वाद ही सबसे बड़ा पुरस्‍कार है.' कहते हुए टोपीलाल, सदानंद, कुक्‍की और निराली अपने बद्री काका के करीब आ गए.

‘तुम सबसे मुझे यही उम्‍मीद थी...अगर बड़े संकल्‍प साधने हैं तो मन को मजबूत करना होगा. सफर में ऐसे प्रलोभन बार-बार आएंगे. अगर उनके फेर में पड़े तो लक्ष्‍य तक पहुंच पाना असंभव हो जाएगा. यह सफलता तो बहुत मामूली है. अभी तो पूरा देश पड़ा है, जहां तुम्‍हें अपने अभियान को आगे बढ़ाना है.'

‘हम तैयार हैं, गुरुजी!'

‘मैं भी यही चाहता हूं.' बद्री काका ने खुश होकर कहा.

‘पर मैं तो कुछ और ही चाहती हूं.' निराली ने जोर देकर कहा, ‘कितने दिन हो गए बिना कोई किस्‍सा-कहानी सुने. आप बिस्‍तर पर पड़े-पड़े उपदेश ही देते रहेंगे या हमारी बात पर भी ध्‍यान देंगे.'

‘बहुत दर्द हो रहा है, बेटा!' बद्री काका ने कराहने का दिखावा किया.

‘तो दर्द की ही कहानी सुना दीजिए.' इस बार कुक्‍की ने मोर्चा संभाला.

बद्री काका मुस्‍करा दिए. बच्‍चे उनके करीब खिसक आए.

एक नई कहानी का सृजन होने लगा.

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(समाप्त)

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: ओमप्रकाश कश्यप का बाल उपन्यास : मिश्री का पहाड़ (अंतिम किश्त)
ओमप्रकाश कश्यप का बाल उपन्यास : मिश्री का पहाड़ (अंतिम किश्त)
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