मे रा और उनका रिश्ता तबका है जब हम दोनों एक साथ ऊपर नीचे की रसोई में एक ही वक्त कुंडी में डंडे से प्याज लहसुन कूटा करते थे और एक साथ अपनी अप...
मेरा और उनका रिश्ता तबका है जब हम दोनों एक साथ ऊपर नीचे की रसोई में एक ही वक्त कुंडी में डंडे से प्याज लहसुन कूटा करते थे और एक साथ अपनी अपनी ईमानदारी पर आंसू बहाया करते थे। डीए की कोई किश्त मिलती तो एक दूसरे के जी भर गले लगकर एक दूसरे को बधाई देते। बाद में वे वैष्णव हुए तो घर में ग्राइंडर ले आए, पर मैं कुंडी डंडे के साथ ही चलता रहा। चार दिन बाद वे फुली आटोमैटिक वाशिंग मशीन ले आए। पर मेरे घर में पटड़ी से कपड़े धोती मेरी पत्नी पसीना पोंछती रही, मेरे कबाड़ी के कुरतों के बटन और बाथरूम का फर्श तोड़ती रही। देखते ही देखते वे मालामाल हो गए। मैं आदमी होकर ही रो पीटकर चलता रहा, कभी इस लाले के उधार पर तो कभी उस लाले के उधार पर सगर्व पलता रहा। जबसे वे उपाधि धारक वैष्णव हुए तबसे कुछ ज्यादा ही मनचले भी हो गए। उनके चांदी कूटने के दिन रात शुरू। मुझे जब भी मिलते ,समझाते,‘यार! क्या रखा है कोरे आदमी होकर जीने में! ठाठ से जीना है तो मेरी तरह वैष्णव हो जा।’ पर मैं कोढ़ी नहीं समझा तो नहीं समझा।
उस दिन अपना होने के कारण उन्होंने मुझे फिर समझाया,‘ यार ! ये क्या हाल बना रखा है? कुछ लेता क्यों नहीं?’
‘लूं कैसे? बिना लिए ही शक की सुई मेरे ऊपर घूमती रहती है।’ मैंने अपने मन की व्यथा कही तो मुझे ही नहीं एक सच्चा दोस्त होने के नाते उन्हें भी रोना आ गया। मुझे तभी पता चला कि वक सच्ची को अब भी मेरे सच्चे दोस्त हैं।
‘ तो एक काम कर! मेरी मान और मेरी तरह वैष्णव हो जा।’
‘इससे क्या होगा! वैष्णव होना माने और मन को मार कर जीना।’
‘नहीं न यार! गए वो दिन। अब तो वैष्णव होना माने कपड़े उतार कर जीना।’ उन्होंने इधर उधर देखा और जब पाया कि आसपास कोई नहीं है तो जोर का ठहाका लगाया।
‘ मतलब!!!’
‘ मतलब, चैबीसों घंटे माथे पर बड़ा सा तिलक लगाना, शौचालय में भी राम राम रटते रहने का नाटक करना। दफ्तर में कोई काम करवाने आए तो उसकी ओर ध्यान न देकर धर्म कर्म की डींगें मारते हुए उसकी जेब पर अपना ध्यान केंद्रित करना। गले में रुद्राक्षों की माला, लंबी सी चोटी....’ बस, हो गया काम। महीने के लिए सौ का निवेश और हजारों की इनकम! फिर देखना चार दिन में ही अगर वारे न्यारे न हुए तो मेरा नाम बदल कर रख देना।’ वे कहते हुए कतई भी न झेंपे।
‘पर ये सब चीजें...’
‘बाजार में सब मिलता है,धोती से लेकर चोटी तक सब। कहे तो अभी मंगवा दूं ?’
‘पर क्या मुझे इस बदले रूप में लोग पहचान लेंगे?’ मन में शंका थी सो जाहिर कर दी।
‘पहचानेंगे क्या! लोग तो लोग,देवता भी आकर तुम्हारे चरण चूमेंगे।’
‘उसके बाद मैं सब करने के लिए अधिकृत हो जाऊंगा न!’मुझे अभावों से भरा घर लग्जरी वस्तुओं से भरता नजर आने लगा।
‘ हो जाएगा, सौ प्रतिशत। मुझे देख तेरे सामने खड़ा हूं। साक्षात् वैष्णव! जब से वैष्णव हुआ हूं न! पौबारह हैं। अब तो लोग भगवान पर शक कर सकते हैं पर मुझ पर नहीं। जबसे वैष्णव हो दफ्तर जाने लगा हूं खुल कर रिश्वत लेता हूं। पर क्या मजाल जो मुझ पर किसी को शक हो! मुहल्ले में सबसे बेईमानी करता हूं और वह भी निसंकोच! बाले काले कर कभी कभी इधर उधर मुंह भी मार लेता हूं। पर पत्नी की तो छोड़, औरों को भी मुझ पर आज तक शक नहीं हुआ। पहले पत्नी के सिर के बालों के लिए चम्मच भर तेल न होता था पर जबसे वैष्णव हुआ हूं हर चौथे दिन उसे तो उसे चार औरों को भी ब्यूटी पार्लर मजे से भेजता हूं। अच्छा, तो पूछ कैसे??’
‘कैसे??’ मेरा मुंह खुला तो खुला का खुला रह गया।
‘बस, ऐसे! ये वैष्णवपन का चोला जो है न! ये सब बुराइयों को अच्छाइयों का लेप लगा सबकी आंखें फोड़ देता हैै। और जनता तो वैष्णवों को हाथों हाथ उठाए रहती है।’कुछ देर तक वे कुछ चुप रहे। उसके बाद अपने कोट की जेब मुझे बताते बोले,‘ बता इसमें क्या हो सकता है?’ कह उन्होंने अपने गले में पड़ी रूद्राक्ष की माला को प्रोफेशनल टच दिया।
‘पहले तो मूंगफलियां हुआ करती थीं।’
‘वह भी पहली को! गए वो दिन यार! और आज ये चौबीसों घंटे काजू बादाम से भरी रहती हैं। काजू बादाम खा खाकर मेरा तो मुंह का स्वाद खराब हो ही गया इन जेबों का भी हो गया है। याद है न तुझे! पहले तो हमें यार औरों के मुंह से ही सुरा की खुशबू सूंघ तृप्त होना पड़ता था और आज घर में ही बार बना रखा है।’
‘पर यार! मेरे तो अभी भी वही हाल हैं।’
‘पहले कर्ज लेकर जीता था और आज बीसियों को सूद पर कर्ज देता हूं। कुल मिलाकर जबसे ये साला वैष्णव हुआ है न! सुरा, सुंदरी,संपत्ति के अंबार लगे हैं।’ कह वे मुस्कुराए तो मुस्कुराते ही रहे।
‘तो कोई कुछ कहता नहीं?’
‘वैष्णव हूं न! कौन कहेगा! पिटना है किसी को क्या वैष्णव पर उंगलियां उठाते हुए। दूसरे किसी को पूछने का वक्त है ही कहां किसी के पास। यहां तो लोगों के पास अपने लिए ही वक्त नहीं।’
‘पीठ पीछे भी नहीं?’
‘ आगे की सोच यार, आगे की। पीठ पीछे तो लोग भगवान को भी गालियां देते नहीं थकते।’’
‘सच??’
‘ आंखें ठीक हैं न तेरी?’
‘ हां तो!’
‘तो समाज में दिखता नहीं क्या?? जो जितने बड़े वैष्णव उनके उतने बड़े ठाठ।’
‘यार, आलू प्याज से नजरें हटें फिर तो कुछ और देखूं भी।’
‘अब तुझसे छिपाना क्या! अब तो मांस- मदिरा का नाम कोई मेरे सामने लेता भर है तो नाम सुनते ही मेरी जीभ मूत करना शुरू कर देती है और तब तक मूतती रहती जब तक वह मांस मदिरा का सेवन नहीं कर लेती। जो कोई आंख को भा जाती है तो तब तक चैन नहीं मिलता जब तक उसे अपने वैष्णवपन से नहला नहीं लेता। ज्यादा ही हुआ तो बाद में प्रायश्चित के लिए वैष्णवपन के तालाब में गोता लगाया और पाप मुक्त हो फे्रश हो गए। अब तो यार बस मजे ही मजे हैं। वैष्णवपन के इतने फायदे हैं कि मैं गिनाते गिनाते नहीं थकूंगा पर तुम सुनते सुनते थक जाओगे ।....तो शाम को घर आकर मुझसे दीक्षा ले लो और हो जाओ वैष्णव!’
‘तो दीक्षित अभी कर दो।’ मैं उनके चरणों में गिर पड़ा।
‘यार, इतने उतावले न हो! शुभ मुहूर्त में वैष्णव बनोगे तो सात पुश्तें तक तर जाएंगी।’
‘ हे गुरू! उतावला न हूं तो क्या करूं! मैंने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वैष्णव होने के इतने लाभ हैं।’
‘इससे भी अधिक लाभ हैं गहराई से सोचो तो...’
‘ सच!!!’ मेरा मुंह एक बार खुला तो खुला का खुला रह गया।
कह वैष्णव मेरे पास से कमर मटकाते रेडलाइट एरिया की ओर हो लिए। कोई भला मानस मेरा आकर मेरा मुंह बंद कर जाए प्लीज!!
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अशोक गौतम
द्वारा-संतोष गौतम,निर्माण शाखा,
डॉ. वाय.एस. परमार विश्वविद्यालय नौणी-173230 सोलन ,हि.प्र.
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