लिंग समता : एक विश्लेषण सृष्टि के आरम्भ से ही नर व नारी एक दूसरे के पूरक रहे हैं। यह बात इस तथ्य से बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि...
लिंग समता : एक विश्लेषण
सृष्टि के आरम्भ से ही नर व नारी एक दूसरे के पूरक रहे हैं। यह बात इस तथ्य से बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि यदि नर व नारी दोनों में से कोई भी एक न हुआ होता तो सृष्टि की रचना ही सम्भव न थी। कुछेक अपवादों को छोड़कर विश्व में लगभग हर प्रकार के जीव-जन्तुओं में दोनों रूप नर-मादा विद्यमान हैं। समाज में यह किवदन्ती प्रचलित है कि भगवान भी अर्द्धनारीश्वर हैं अर्थात उनका आधा हिस्सा नर का है और दूसरा नारी का। यह एक तथ्य है कि पुरुष व नारी के बिना सृष्टि का अस्तित्व सम्भव नहीं, दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं किन्तु इसके बावजूद भी पुरुष व नारी के बीच समाज विभिन्न रूपों में भेद-भाव करता है। जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप ”लिंग समता“ अवधारणा का उद्भव हुआ अर्थात ”लिंग के आधार पर भेदभाव या असमानता का अभाव“।
जैविक आधार पर देखें तो स्त्री-पुरुष की संरचना समान नहीं है। उनकी शारीरिक-मानसिक शक्ति में असमानता है तो बोलने के तरीके में भी । इन सब के चलते इन दोनों में और भी कई भेद दृष्टिगत होते हैं। इसी आधार पर कुछ विचारकों का मानना है कि -”स्त्री-पुरुष असमता का कारण सर्वथा जैविक है।“ अरस्तू ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि - ”स्त्रियाँ कुछ निश्चित गुणों के अभाव के कारण स्त्रियाँ हैं“ तो संत थॉमस ने स्त्रियों को ”अपूर्ण पुरुष“ की संज्ञा दी। पर जैविक आधार मात्र को स्वीकार करके हम स्त्री के गरिमामय व्यक्तित्व की अवहेलना कर रहे हैं। प्रकृति द्वारा स्त्री-पुरुष की शारीरिक संरचना में भिन्नता का कारण इस सृष्टि को कायम रखना था । अतः शारीरिक व बौद्धिक दृष्टि से सबको समान बनाना कोरी कल्पना मात्र है। अगर हम स्त्रियों को इस पैमाने पर देखते हैं तो इस तथ्य की अवहेलना करना भी उचित नहीं होगा कि हर पुरुष भी शारीरिक व बौद्धिक दृष्टि के आधार पर समान नहीं होता। अतः इस सच्चाई को स्वीकार करके चलना पडे़गा कि जैविक दृष्टि से इस जगत में भेद व्याप्त है और इस अर्थ में लिंग भेद समाप्त नहीं किया जा सकता।
वस्तुतः समानता का व्यावहारिक रूप है ”अधिकार की समानता“। यह समानता शारीरिक पहलुओं से परे सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व पारिवारिक क्षेत्रों में व्याप्त है। इस प्रकार लिंग समानता का तात्पर्य है - ”जैविक भेदों या लिंग के आधार पर असमानता नहीं होनी चाहिए।“ इसी नैतिक सूत्र पर लिंग-समता का पूरा विचार टिका हुआ है। आज लिंग समता का प्रश्न किसी देश विशेष तक सीमित नहीं रहा वरन् एक विश्वव्यापी आन्दोलन का रूप धारण कर चुका है। चाहे वह राजनीति, अर्थनीति, सामाजिक या रोजगार का क्षेत्र हो, सर्वत्र नारी पुरुषों से कदम से कदम मिलाने का अधिकार माँग रही है। लिंग असमानता का विकृत रूप जन्म से ही देखा जा सकता है जब कन्या-भ्रूण की पेट में ही हत्या कर दी जाती है। शायद इसी कारण माना जाता है कि - ”स्त्री-पुरुष असमता का एक कारण स्त्री स्वयं ही है ।“ चाहे वह लालन-पालन हो, शिक्षा हो, रोजगार हो, हर जगह स्त्री ने ही अपनी बेटियों को बेटे के बजाय गौण स्थान प्रदान किया है। अतः जरूरत है कि नारी स्वयं ही नारी भेदभाव का कारण न बने।
यहाँ पर प्रश्न उठता है कि नर-नारी समानता माने क्या? क्या नारी द्वारा हर वो कर्म किया जाना समानता का प्रतीक होगा जो पुरुष कर सकते हैं। तमाम पाश्चात्य देशों में नारी-स्वतंत्रता के नाम पर स्त्रियों ने प्रतीकात्मक रूप में न्यायालयों में या सार्वजनिक जगहों पर अपनी छाती उघाड़ कर स्वतंत्रता का आगाज किया है पर इसे उचित ठहराना सम्भव नहीं। इस्लामिक देशों में स्त्री के मत को ”आधा मत“ माना जाता है तो तमाम देशों में अभी तक कोई महिला संसद में निर्वाचित होकर पहुंची ही नहीं है। इन सबके विरूद्ध लिंग समता एक प्रतिक्रिया के रूप में उभरी है। इस सबके पीछे एक तत्वमीमांसीय आधार भी सन्निहित है कि सभी में एक ही सत् ईश्वर का वास है अतः असमानता जायज नहीं। विभिन्न देशों ने संवैधानिक उपबन्धों द्वारा नर-नारी असमानता का उन्मूलन कर दिया है। भारतीय संविधान भी किसी विभेद को अस्वीकार करता है।
भारतीय परम्परा नारी को पूजनीय मानती है अर्थात जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता वास करते हैं पर यह भी समानता नहीं है क्योंकि यहाँ पर नारी आराध्य है और पुरुष सेवक है। नैतिक आधार पर दोनों हेतु समानता की माँग की जाती है अतः लिंग समानता को धार्मिक आधार पर विभ्रमित नहीं करना चाहिए।
नारी मुक्ति आन्दोलन से नारी ही प्रथमतः जुड़ी जिसकी अभिव्यक्ति उनके लेखों, नारों इत्यादि में दिखायी देती है। लिंगीय विभेद के प्रश्न को उठाने वाली प्रथम दार्शनिक चिन्तक साइमन डी बुआ (The second sex -1949 थीं। अस्तित्ववादी विचारों की पोषक बुआ ने स्त्रियों के विरूद्ध होने वाले अत्याचारों और अन्यायों का विश्लेषण करते हुए लिखा कि - ”पुरुष ने स्वयं को विशुद्ध चित्त (Being-for- itself : स्वयं में सत् ) के रूप में परिभाषित किया है और स्त्रियों की स्थिति का अवमूल्यन करते हुए उन्हें ”अन्य“ के रूप में परिभाषित किया है व इस प्रकार स्त्रियों को ”वस्तु“ रूप में निरूपित किया गया है। बुआ का मानना था कि स्वयं स्त्रियों ने भी इस स्थिति को स्वीकार कर लिया । वर्तमान में कुछ पुरुष चिन्तकों ने भी नारी आन्दोलन के पक्ष में बहुत कुछ लिखा है । वस्तुतः समाज का एक बड़ा वर्ग अब स्वीकारता है कि स्त्री को ”सेक्स“ का पर्यायवाची बनाकर ”यौन प्राणी“ मात्र बना दिया गया अर्थात पुरुष को विषयी, निरपेक्ष व स्वायत्त रूप में एवं स्त्री को विषय, अन्य, सापेक्ष व पराधीन रूप में माना गया । इस प्रकार एक चेतन वर्ग द्वारा दूसरे चेतन वर्ग को अधीनता प्रदान की गयी और दूसरे वर्ग ने अपनी अधीनता स्वीकार कर ली । इस प्रकार स्त्री पुरुष में एक द्वैत की स्थापना की गई है। एक प्रसिद्ध विचारक के शब्दों में - ”पुरुषों की नैतिकता महज सेक्स तक सीमित है लेकिन औरत की नैतिकता को उसके व्यवहार से जोड़ दिया गया है।“
आज जरूरत है नर व नारी के बीच जैविक विभेद को स्वीकार करते हुए सामंजस्य स्थापित करने और तद्नुसार सभ्यता के विकास हेतु कार्य करने की। नारी आन्दोलन मात्र एक पक्ष की आलोचना करके दूसरे पक्ष को मजबूत नहीं बना सकता है। यह सामाजिक स्वास्थ्य के लिए भी स्वास्थ्यप्रद नहीं है। लिंग समानता एक सुसंगत आदर्श है और इसके लिए हमें उन आदर्शों की ओर झांकना पडे़गा जहाँ से यह शुरू होती है । इस हेतु जरूरी है कि पुस्तकों के स्तर पर लिंग-अभिनति समाप्त किया जाये । स्त्रियों की शिक्षा, प्रशिक्षण, रोजगार व स्वास्थ्य के संबंध में ठोस कदम उठाने के साथ - साथ स्त्रियों में सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता व चिन्तन पैदा करने की परम आवश्यकता है। यद्यपि संविधान उन्हें शक्तियाँ प्रदान करता है पर स्त्रियों को इसमें स्वयं सक्रिय भूमिका निभानी होगी तथा हर प्रकार के भेद-भाव, शोषण, अन्याय, अत्याचार व दमन का डटकर मुकाबला करना होगा, तभी स्त्रियों की स्वतन्त्र पहचान बन पायेगी और एक व्यापक रूप में उनका स्वतन्त्र अस्तित्व कायम हो पायेगा । ऐसी ही स्थिति में लिंगीय समानता व्यावहारिक रूप में पूरे विश्व में स्थापित होगी । वर्तमान दौर में स्त्री ही स्त्री की प्रगति में बाधक बनी है। दहेज हेतु वधू को जलाने या प्रताड़ित करने में सास, परिवार में बहू एवं पु़त्री को अधिकारों से वंचित करने व नियंत्रण आरोपित करने में सास एवं माँ के रूप में स्त्री ही जिम्मेदार है तो कन्या भ्रूण की हत्या हेतु पत्नी भी उतनी ही जिम्मेदार है। भारत जैसे पारम्परिक समाज में इसे लागू करने में अभी कुछ कठिनाइयाँ है क्योंकि हमारी सांस्कृतिक परम्परा काफी लम्बी है जबकि कास्मोपॉलिटन समाज में यह परिवर्तन शीघ्रता से हो सकेगा।
इसमें कोई शक नहीं कि लिंग-समता को बौद्धिक स्तर पर कोई भी खण्डित नहीं कर सकता। नर-नारी सृष्टि रूपी परिवार के दो पहिये हैं। तमाम देशों ने संविधान के माध्यम से इसे आदर्श रूप में प्रस्तुत किया है पर जरूरत है कि नारी अपने हकों हेतु स्वयं आगे आय। मात्र नारी आन्दोलनों द्वारा पुरुषों के विरुद्ध प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण व्यक्त करने से कुछ नहीं होगा। पुरूषों को भी यह धारणा त्यागनी होगी कि नारी को बराबरी का अधिकार दे दिया गया तो हमारा वर्चस्व समाप्त हो जायेगा। उन्हें यह समझना होगा कि यदि नारियाँ बराबर की भागीदार बनीं तो उन पर पड़ने वाले तमाम अतिरिक्त बोझ समाप्त हो जायेंगे और वे तनावमुक्त होकर जी सकेंगे। यह नर-नारी समता का एक सुसंगत एवं आदर्श रूप होगा ।
कृष्ण कुमार यादव
भारतीय डाक सेवा
वरिष्ठ डाक अधीक्षक
कानपुर मण्डल, कानपुर-208001
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जीवन-वृत्त
नाम ः कृष्ण कुमार यादव
जन्म ः 10 अगस्त 1977, तहबरपुर, आजमगढ़ (उ0 प्र0)
शिक्षा ः एम0 ए0 (राजनीति शास्त्र), इलाहाबाद विश्वविद्यालय
विधा ः कविता, कहानी, लेख, लघुकथा, व्यंग्य एवं बाल कविताएं।
प्रकाशन ः समकालीन हिंदी साहित्य में नया ज्ञानोदय, कादम्बिनी, सरिता, नवनीत, आजकल, वर्तमान साहित्य,
उत्तर प्रदेश, अकार, लोकायत, गोलकोण्डा दर्पण, उन्नयन, दैनिक जागरण, अमर उजाला, राष्ट्रीयसहारा,
आज,द सण्डे इण्डियन, इण्डिया न्यूज, अक्षर पर्व, युग तेवर इत्यादि सहित 200 से ज्यादा
पत्र-पत्रिकाओं णमें रचनाओं का नियमित प्रकाशन। दो दर्जन से अधिक स्तरीय काव्य संकलनों में रचनाओं
का प्रकाशन। विभिन्न वेब पत्रिकाओं- सृजनगाथा, अनुभूति, अभिव्यक्ति, साहित्यकुंज, साहित्यशिल्पी, लिटरेचर
इंडिया, रचनाकार, हिन्दी नेस्ट, इत्यादि पर रचनाओं का नियमित प्रकाशन।
प्रसारण ः आकाशवाणी लखनऊ से कविताओं का प्रसारण।
कृतियाँ ः अभिलाषा (काव्य संग्रह-2005), अभिव्यक्तियों के बहाने (निबन्ध संग्रह-2006), इण्डिया पोस्ट- 150 ग्लोरियस
इयर्स (अंगेरजी-2006), अनुभूतियाँ और विमर्श (निबन्ध संग्रह-2007), क्रान्ति यज्ञ: 1857-1947 की गाथा
(2007)। बाल कविताओं व कहानियों के संकलन प्रकाशन हेतु प्रेस में।
सम्मान ः विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थानों द्वारा सोहनलाल द्विवेदी सम्मान, कविवर मैथिलीशरण गुप्त सम्मान,
महाकवि शेक्सपियर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान, काव्य गौरव, राष्ट्रभाषा आचार्य, साहित्य मनीषी सम्मान, साहित्य
गौरव, काव्य मर्मज्ञ, अभिव्यक्ति सम्मान, साहित्य सेवा सम्मान, साहित्य श्री, साहित्य विद्यावाचस्पति, देवभूमि
साहित्य रत्न, ब्रज गौरव, सरस्वती पुत्र और भारती-रत्न से अलंकृत। बाल साहित्य में योगदान हेतु भारतीय बाल
कल्याण संस्थान द्वारा सम्मानित।
विशेष ः व्यक्तित्व-कृतित्व पर एक पुस्तक ‘‘बढ़ते चरण शिखर की ओर : कृष्ण कुमार यादव‘‘ शोधार्थियों हेतु
प्रकाशित। सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार डा0 राष्ट्रबन्धु द्वारा सम्पादित ‘बाल साहित्य समीक्षा’(सितम्बर 2007) एवं
इलाहाबाद से प्रकाशित ‘गुफ्तगू‘ (मार्च 2008) द्वारा व्यक्तित्व-कृतित्व पर विशेषांक प्रकाशित।
अभिरूचियाँ ः रचनात्मक लेखन व अध्ययन, चिंतन, नेट-सर्फिंग, फिलेटली, पर्यटन, सामाजिक व साहित्यिक कार्यों में
रचनात्मक भागीदारी, बौद्धिक चर्चाओ में भाग लेना।
सम्प्रति/सम्पर्क ःकृष्ण कुमार यादव, भारतीय डाक सेवा, वरिष्ठ डाक अधीक्षक, कानपुर मण्डल, कानपुर-208001
ई-मेलः kkyadav.y@rediffmail.com वेबपेज : http://www.kkyadav.blogspot.com
अच्छे लेखन के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएंरायटोक्रेट कुमारेन्द्र
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