“….तो फिर जाओं कहीं से हड्डी लाओ । हर कुर्सी एक हड्डी है । चूसो और फेंक दो । यार मंहगाई से चले मंदी तक पहुंचे । शेयर - सेन्सेक्स धडाम...
“….तो फिर जाओं कहीं से हड्डी लाओ । हर कुर्सी एक हड्डी है । चूसो और फेंक दो ।
यार मंहगाई से चले मंदी तक पहुंचे । शेयर - सेन्सेक्स धडाम ।
ब्याज दरें धडाम ।
रूपया धडाम ।
बड़े मॉल धड़ाम ।
बड़े उद्योग धड़ाम ।
बस धड़ाम ही धड़ाम ।
पत्रकारिता धड़ाम । राजनीति धड़ाम । कूटनीति धड़ाम ।
सत्य । धड़ाम ।
शिवम् धड़ाम।
सुन्दरम् । धड़ाम ।
कलयुग शरणम् गच्छामि । चलो प्रजातन्त्र बचाने की कसमें खाते हैं। ….” – इसी उपन्यास से.
॥ श्री ॥
असत्यम्।
अशिवम्॥
असुन्दरम्॥।
(व्यंग्य-उपन्यास)
महाशिवरात्री।
16-2-07
-यशवन्त कोठारी
86, लक्ष्मी नगर,
ब्रह्मपुरी बाहर,
जयपुर-302002
मोबाइल: 9414461207
Email: ykkothari3@yahoo.com
समर्पण
अपने लाखों पाठकों को,
सादर । सस्नेह॥
-यशवन्त कोठारी
(बेहद पठनीय और धारदार व्यंग्य से ओतप्रोत इस उपन्यास को आप पीडीएफ़ ई-बुक के रूप में यहाँ से डाउनलोड कर पढ़ सकते हैं)
प्रजातन्त्र , राजनीति , कुर्सी , दल , विपक्ष , मत मतपत्र , मतदाता , तानाशाही , राजशाही , लोकशाही , और ऐसे अनेको शब्द हवा में उछलने लग गये । जिसे आम आदमी प्रजातन्त्र समझता था वो अन्त में जाकर सामन्तशाही और तानाशाही ही हो जाता था । हर दल में आन्तरिक अनुशासन के नाम पर तानाशाही थी , लोकतन्त्र के नाम पर सामन्तशाही थी ।
इन्ही विपरीत परिस्थितियों में हमारे कस्बे के नेताजी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे थे , वे राजनीति के तो माहिर खिलाडी थे मगर इस नई , उभरती हुई युवा पीढी के नये नेता कल्लू - पुत्र से पार पाना आसान नहीं था । उन्हें इन्हीं सब बातों के साथ - साथ पुरानी अपने जमाने की राजनीति की याद आ रही थी । चरखा , सूत , गांधी जी की नौआरवाली यात्रा , नेहरू जी का समाजवाद और पंचशील के सिद्धान्त । श्शान्ती के कबूतर । चीन का हमला । तब राजनीति श्शालीन थी । निजि आक्रमण नहीं थे । अब तो बस हर किसी को नीचा दिखाने के लिए कुछ भी किया या कराया जा सकता था । गांव हो या कस्बा या महानगर राजनीति एक क्रूर मजाक बन गई थी ।
नेताजी एकान्त के क्षणो में आत्मावलोकन , आत्म निरीक्षण करते थे । आज भी वे अपने एकान्त कक्ष में यही सब कर रहे थे । राजनीति में जिंदा रहने के लिये कितनो की हत्याऐं की । कितनी बार चाकू , छूरे , गोलियां चलवाई । कितने लोगो को राजनीति से सन्यास दिलवाया । कितने अफसरों को तबादले , निलम्बन , आदि के भय दिखाये । कहीं कोई लेखा - जोखा भी नहीं । लेकिन श्शायद उपर वाले के , कम्यूटर में सब डेटा , सूचनाएॅं अवश्य होगी । उन्होनें सोचा । एक बार मन किया सब छोड़ छाड़ कर सन्यास ले ले । चले जाये हिमालय ऋपिकेश के किसी बाबा की श्श्ारण में । मगर ये सब इतना आसान भी नहीं था । अपने पापों की सोच सोच कर उन्हें स्वयं अपने पर ग्लानि होती । यदि वे स्वयं की आत्मा को अपनी खुद की अदालत में खड़ा करे तो उन्हें श्शायद कई प्रकार की सजाएं मिलेगी और इन सजाओं की कुल लम्बाई भी शायद कई जन्मों के बराबर होगी । व्यक्ति का सोच उसकी मजबूरियों और मजबूतियों के सहारे चलता है नेताजी ने अपने आप को संभाला । कल्लू -पुत्र से ऐसे हार मानना ठीक नही होगा । उन्हें संधर्प करना होगा । आखिर पूरी उमर उन्होने संघर्प ही तो किया था । फिर आज ये केसे विचार । उन्हें गीता और कृप्ण के उपदेश याद आये । वे स्वयं अर्जुन ओर यह चुनावी महाभारत नजर आने लगा । चुनावों में हार जीत की चिन्ता करना उन्हें अच्छा नहीं लगा । खूब राज किया । खूब ठाठ - बाट से जीवन बिताया । फिर किस बात का गम। किस बात का डर । कल तक जो छुटभैये पांव छूते थे वे ही आज कन्नी काट कर निकल रहे है , निकल जाने दो सालो को । कौन परवाह करता है । नये लड़के आयेंगे । नयी राह बनायेंगे । ये सब सोच साच कर नेताजी ने स्थानीय ब्लाक स्तर के अपने कार्यकर्ताओं को अपने महलनुमा भवन में सांयकालीन भोज हेतु आमन्त्रित किया कुछ अन्य लोगो को भी बुलवा भेजा । कुछ पत्रकार भी आ गये । नेताजी ने भोजन से पूर्व ही मिटींग ले ली । बोले
भाईयों । बहनो । प्रजातन्त्रका उत्सव आ गया है । हमें अपनी स्थिति को मजबूत करना है । विरोधी पक्ष खेल बिगाड़ सकता है । खेल बना नहीं सकता । खेल केवल हमारी पार्टी बना सकती है । मुझे आप सभी का सहयोग चाहिये ।
‘ हम तो वर्पो से आप के साथ है । '
‘ ‘हां वो तो ठीक है मगर इस बार मामला थेाड़ा गम्भीर है । '
न्ेाताजी आप तो मीडिया को मैनेज कर लो । जमीन से जुड़ने की चिन्ता छोड़ो । एक मंुह लगे पत्रकार बोल पड़े ।
न्ोताजी ने कुछ जवाब नहीं दिया । वे बोलते गये । प्रदेश और अपने खेत्र के विकास के लिए हमें आला कमान के हाथ मजबूत करने है और उसके लिए इस खेत्र की जिमेदारी मेरी है ।
‘ वो तो ठीक है , मगर आपने कभी भी द्वितीय स्तर का नेतृत्व विकसित नहीं होने दिया । - एक युवा नेता बोल पड़ा ।
‘ अरे भाई कौन मना करता है । आओ । काम करो । काम करने से ही नेतृत्व का विकास होगा । इतने वर्पोसे कार्यकर्ता कार्यकर्ता ही रह गया । '
‘ हां भाई हां । सब को अवसर मिलेगा । ''
न्ोताजी ने ठण्डे छीटे दिये ।
धीरे धीरे विरोध श्शान्त हो गया । भोजन हुआ । अखबारों नेें फोटो छापे । स्थानीय चेनल पर समाचार आये । नेताजी में नया आत्मविश्वास आया । वे पूरे जोश जुनून से काम में लग गये । मगर कल्लू पुत्र भी कमजोर नहीं था । उसने एक नया पांसा फेंका । उसे कहीं से यह जानकारी मिली कि नेताजी के चारो तरफ जो लोग है वे भ्रप्ट , निकम्मे और आलसी है । उन्हें आसानी से बरगलाया जा सकता है । मौका आने पर उन्हें तोड़ा और अपने से जोड़ा जा सकता है । पैसा फेंक तमाशा देख कार्यक्रम शरू करवाया जा सकता है । अभी चुनाव की आचारसंहिता दूर थी ।कुछ पांसे फेंके सकते थे ं जुआं खेली जा सकती थी और किसी द्रोपदी का चीर हरण करवाया जा सकता था ं कल्लू पुत्र ने अपनी एक विश्वसनीय प्रेस पर नेताजी के चरित्र से सम्बन्धित पोस्टर छपवाये और एक काली रात में , शहर में ये पोस्टर लग गये । एक छुट भैये सम्पादक - प्रकाशक -पत्रकार ने अपने समाचार पत्र में पूरा पोस्टर ओर विवरण , अफवाह या समाचार जो भी आप कहना चाहे छाप दिया । नेताजी सुबह उठे तब तक हाहाकार मच चुका था । धर के बाहर ही जिन्दावाद के स्थान पर मुर्दाबाद के नारे लगाने वाले , थू - थू करने वाले एकत्रित हो कर चिल्ला रहे थे । मगर नेताजी धबराये नहीं उन्हें यह सब एक पडयन्त्र की तरह लग रहा था । सो उन्होने तसल्ली से पूरी बात अपने विश्वस्त मालिसिये की जबानी सुनी और समझी । समझ कर वे मन ही मन मुस्काये और नहाने चले गये । भीड़ धीरे धीरे छंट चुकी थी । कुछ गिने - चुने लोगों को सुरक्षा कर्मियों ने निकाल दिया था ।
न्ेाताजी नहा - धोकर बैठक में आये । पोस्टर को पुनः पूरा पढ़ा । अखबार भी पढ़ा , और चेले से बोले
‘ प्यारे ये सब क्या है ?
सर । ये तो विपक्षी पार्टी का स्थायी खटराग है । इससे पता चलता है कि उन्होने चुनाव से पहले ही हार मान ली है । .....खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे ।
‘ कभी ये कल्लू ओर उसका ये लेाण्डा मेरे चरणों में पड़ा रहता था । दिन भर में तीन बार चरण छूता था । घुटनाे के ढोक देता था और आज । '
‘ जाने दीजिये सर । ये तो सब खानदानी हरामी है जो अब जाकर राजनीति में आये है । '
‘ मेरे चरित्र पर अंगुली उठाता है । ' इसे मैं बताउगा । साला कहता है कि चाहो तो डी. एन. ए. टेस्ट करालो । नेताजी की आशिकी की पोल खुल जायेगी । अब उस बेचारी का क्या होगा? मेरा तो क्या है ?
‘सर । सुना है कोई सी. डी. भी बनवाली है ।
‘ सीडी - वीडी से क्या होना है । नेताजी ने कहां मगर मन ही मन डर गये थे नेताजी । कहीं सीडी आलाकमान तक पहुॅच गई तो क्या होगा ?
न्ेाताजी सोच में पड़ गये । काफी सोच विचार के बाद उन्होनें एक जबावी पासा फेंकने का तय किया । उन्हाेने एक प्रेसकान्फे्रस बुलाई और कल्लू पुत्र के विश्कविधालय के दिनों का कच्चा चिठ्ठा खोला । इस कच्चे चिठ्ठे में लड़की की हत्या का आरोप भी नेताजी ने स्वयं ही लगाया हालाकि वे जानते थे कि इस आरोप से कल्लू पुत्र बरी हो चुका था । मगर पूरी पत्रावली और केस को पुनः खुलवाने की धोपणा उन्होने कर दी । अखबारों में सुर्खियां लग गई कल्लू पुत्र के हाथ - पावं फूल गये । दोनो पक्षों ने एक दूसरे की कमजोर नस पकड़ ली थी ।
कल्लू पुत्र ने नेता पुत्र के सहारे तथा अपने बाप की मदद से नेताजी के पास संदेसा भिजवाया ।
हजूर । माई बाप । गलती हुई । भविप्य में ध्यान रखूगां ।
इधर नेताजी ने कल्लू को कहा ‘ उसे समझा देना मेरे चरित्र पर कीचड़ नहीं उछाले । चुपचाप चुनाव लड़े । जो जीतेगा वो ही सिकन्दर कहलायेगा ।' बस शालीन्ाता से प्रजातन्त्र के नियमों की पालना करें ।
बेचारा कल्लू न तीन में न तेरह में , कल्लू पुत्र का जोश पार्टी के कारण बरकरार था । दोनों पक्षों ने व्यक्तिगत छीटाकंशी से किनारा कर लिया । चुनावों की माया अभी दूर थी ।
पार्टियों को जनाधार - धनाधार , तथा बाहुबली आधार की तलाश थी । कल्लू पुत्र ने इस घटनाक्रम से सबक सीखा कि राजनीति में कोई सगा नहीं और नेताजी ने सबक सीखा आस्तीन का सॉंप कब डस जाये कुछ पता नहीं ।
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राजनीति हो या अफसरशाही सब ज्योतिप , ज्योतिपियों ,ग्रह , नक्षत्रों , के चक्कर में पड़ते रहते हैं । शुभ मुहूर्त शुभ फल , शुभ नग , शुभ ग्रह , शुभ समय कब और कैसे आयेगा , इसे हर कोई जानना चाहता है । बुध पुप्य नक्षत्र आ गया है । चले , बाजार । साेमवती अमावस्या चलो नहाने । सोम पुप्य चले सेवा करने । ज्योतिप का जंजाल धीरे धीरे फैलता ही जा रहा है । कभी केवल जन्म और शदी के समय ग्रह , कुण्डली , दशा , महादशा , आदि पर विचार होता था । आजकल हर काम में ज्योतिपी की सलाह काम आती है । नेस्त्रेदेम्स ने जो अमर भविप्य वाणियां कर रखी है उससे आगे क्या है ? कीरो ने जो हस्तरेखा विज्ञान लिख दिया वो सबको नचाता है । हर बस , टेन , मोहल्ले में ऐसे स्वनामधन्य ज्योतिपी मिल जाते हैं जो आप को भवसागर की सैर करा सकते हैं । इधर मीडिया ने भी बहती गंगा में हाथ धोने के बहाने सभी प्रकार के ज्योतिपियों को छोटे पर्दे और मुद्रित माध्यम में उतार दिया है । दैनिक भविप्य फल , साप्ताहिक भविप्यफल , मासिक भविप्य , वार्पिक भविप्य , राशि के अनुसार भविप्य , टेरो कार्ड के अनुसार भविप्य , अंक ज्योतिप के अनुसार भविप्य , हस्तरेखा के अनुसार भविप्य । रत्नों , उपरत्नों , महारत्नों , अंगुठियों पर टिका है स्वयं ज्योतिपियों का भविप्य । ऐसे ही एक स्वनामधन्य पण्डित जी को नेताजी ने अपने आवास पर बुलाया ‘ पण्डित जी चुनाव का ज्योतिप क्या कहता है ?
‘ महाराज समय बडा़ बलवान है । आप अपने जीवन के स्वर्णिम काल का उपभोग कर चुके है ? ''
‘ तो क्या मैं चुनाव हार जाउगा । ''
‘ ऐसा तो मैंने नहीं कहां सर । '
‘ तो फिर ........। '
‘ फिर ये महाराज की इस बार आपके बड़े क्रूर ग्रह है और सामने एक नये जमाने का नया लड़का । '
‘ तो क्या मेरा अनुभव कुछ नहीं .......।'
‘ सवाल अनुभव का नहीं ' सवाल ये है कि उस कल्लू पुत्र के ग्रह उच्च के है ? हो न हो वह किसी सवर्ण की सन्तान है ..... । '
‘ ये तुम्हे कैसे पता । नेताजी की जुगुप्सा जागी । '
‘ अब सूर्य की गति को कौन टार सकता है । कल्लू की बीबी तो चली गयी यह संसार छोड़ कर । ल्ेकिन ऐसा उन्नत उर्वरा मस्तिप्क , विशाल अजान बाहू , गौर वर्ण क्या कभी िकसी नीची जात में देख्ाा है ।'
‘ नेताजी गम्भीर हो गये । '
‘ तो पण्डित जी कोई उपाय । '
है महाराज एक उपाय है , आप चुनाव में अपने कपूत बेटे को खड़ा कर दो ।
‘ मगर वह तो पहले से ही मेरे खिलाफ है । कल्लू पुत्र के गलबहि़यां डाल कर घूमता है। '
‘ अब ये आप जानो महाराज । आप बुढा गये है । आपके ग्रह भी बूढ़ा गये है और आप का चुनाव जीतना भी मुश्किल है । आप चाहे तो अपने अनुभव का लाभ बच्चे को दे । आलाकमान भी श्शायद आपको यहीं सलाह देगी । वैसे भी आप अस्सी पार कर चुके है । '
‘ ये सब मुझे मत समझाओ पण्ड़ित । नेताजी क्रोध में भर गये । '
पण्डित जी ने अपना पोथी , पथरा समेटा और बाहर आ गये । दक्षिणा में मिले नाश्ते की डकार आई मगर यह खट्टी ड़कार थी ।
नेताजी सोच -विचार में डूब उतर गये । चारों तरफ अन्धकार । पुत्र तक साथ छोड़गया । निराशा में उन्हें कुछ नहीं सूझ रहा था । राजनीति की शतरंज पर वे हार मानने को तैयार न थे ।
ज्योतिपी यहां से निपट कर सीधा कल्लू पुत्र के आवास पर गया । वहां उसने कल्लू पुत्र के विजय तिलक किया । आशीर्वाद दिया । और बोला ..........
बेटे आज मैं भगवान शिव , गण्ोशजी और हनुमानज सभी की आराधना कर आया हूॅ और नेताजी को स्पप्ट कह आया हूॅ कि आप की जीत संभव नही है ।
हे कल्लू पुत्र विजयी भव ।
कल्लू ने आशीर्वाद लिया । पण्डितजी को भेंट चढ़ाई और बोला ।
‘ पण्डित जी अगर मैं जीत गया तो आपको किसी राजनीतिक कुर्सी पर बिठा दूगां ।
‘ वेा क्या होती है ? '
‘ पार्टी अपने कार्यर्कताओं , दानदाताओं को छोटी - छोटी कुर्सियां बांटती है , एक आपकेा भी दिला दूगां । '
‘ पण्डित जी ने तथास्तु कहा ओर चल दिये ।
कल्लू पुत्र ने नेता पुत्र को फोन लगाया । मगर नेतापुत्र अभी प्रातः कालीन क्रिया कलापो में व्यस्त थे । कल्लू पुत्र ने लम्बी सांस ली और चुनाव चकलस हेतु चेनलो की उलट - फेर शरू की । हर चेनल पर चुनावी विज्ञापन , नीचे भी उम्मीदवार का प्रचार । विशेपज्ञों की बकबक । नेताओ प्रवक्ताओं की झांय झांय । बीच बीच में विज्ञापन । या फिर अन्य कार्यक्रमों के प्रोमो । राखीसावन्त , और इस प्रकार की सैकड़ो अन्य कन्याओं के नृत्य , अभिनय , संवाद । कल्लू पुत्र ने सोचा चैनलो के मामले में हमने विदेशियों को भी पीछे छोड़ दिया ।
कल्लू पुत्र स्वयं के बारे में सोचने लगा । उसे सम्पूर्ण भारत में अपने जैसे करोड़ो किरदार दिखने लगे । भारत मेे रेलवे स्टेशन , बस स्टेएड , झूगी झाोपड़ियों में हर रहने वाला हर चेहरा उसका अपना चेहरा है । मजदूर , किसान , गरीब का चेहरा उसका चेहरा है । ज्योतिपी कुछ भी कहे संक्रमण के इस काल में भारतीय समाज खासकर निम्न मध्यवर्गीय भारतीय समाज की कहानी एक जैसी है । प्रत्येक समाज ओर प्रत्येक व्ािक्यत आपस में जुड़कर सच्चाई का सामना करे तभी जीत हो सकती है । इस श्रेणीके लोगो में आदर्श , उत्साह , उमंग का मिश्रण है । धर्म , अध्यात्म , जाति , सम्प्रदाय सभी मिलकर ही जीवन की समस्याओं को हल कर सकते हैं । आम आदमी की इच्छा उसे बेहतर जीवन की ओर ले जा सकती है ।
वर्तमान युग की त्रासदी ही ये है कि जीवन विसंगतियों , विद्रूपताओं , कशमकश , कदाचार , रहस्य , रोंमाच से भरा हुआ है । हर व्यिक्त इस व्यवस्था से इस अराजकता से लाचार है । अराजक अव्यवस्था कहीं सब को लील न ले । चुनाव तो एक बहाना है प्रजातन्त्र को सही दिशा में ले जाने का । मगर कदम बहक क्यों जाते हैं कल्लू ने फिर नेता पुत्र को फोन मिलाया ।
कल्लू पुत्र ने नेता पुत्र की टेलीफोन की धंटी क्या बजाई , जैसे खुदकी घंटी बज गई । कल तक जो नेतापुत्र अपने पिता को गाली देकर उसकी गोद में बैठा रहता था वो ही आज कड़क आवाज में बोल पड़ा
‘ क्या है यार । सोने भी नहीं देता । सुबह से तू तीन बार धंटी बजा चुका है । और कोई काम - धाम नहीं है क्या ? नेता पुत्र उवाच ‘ काम का क्या है प्यारे । चुनाव के दिन है । काम ही काम है । बिनाहाथ - पैर - लाठी , बंदूक चलाये बिना बूथ छापे कोई काम होता है क्या ?तेरा भेजा कैसे फ्राई हो रहा है ? कल्लू पुत्र उवाच ।
‘ भेजा फ्राई नहीं अब ध्यान से सुन । डेड का टिकट केंसिल । अब मेरा नाम चल रहा है ।'
ताे अब तू लड़ेगा मेरे से तू । मच्छर .............। जो मेरे टुकड़ो पर पल रहा है और मेरी राजनैतिक सीढ़ी के सहारे चढ़ रहा है । मैंने तेरे से वादा किया था तुझे कहीं किसी छोटी कुर्सी पर चिपका दूगां ।
‘ अब तू क्या चिपकायेगा । मुझे यदि टिकट मिल गया तो तेरी तो जमानत भी गयी । '
‘ ये मुहं और मसूर की दाल ।
त्ूा भी अपना मुंह अच्छे साबुन से धो कर रखना तभी विधान सभा का मुंह देख पायेगा ।
क्यो मजाक करता है ? तेरी पार्टी में यदि तेरे बाप को टिकट नहीं भी मिलता है तो ओर पच्चासों है क्या पूरे गांव के सारे मर गये जो तेरा नम्बर आ रहा है । ....
मरे नहीं है , मगर बापू भी कम नहीं है मैं नही ंतो मेरा बेटा और बेटा नही ंतो कोई नही ।
‘ ये कैसी राजनीति है भाई ।
ये राजनीति - कूटनीति नहीं । राजनैतिक प्रपन्च है , गुण्ड़ा गर्दी है ।
‘ तो क्या तू वास्तव में मेरे खिलाफ लडेगा । '
‘ अब ये तो विचारधारा पार्टी और प्रजातन्त्र की लड़ाई है । इसमें मित्रता - भाई बन्दी के लिए जगह नही होती । वैसे तुम मेरे विरोधी पार्टी में मित्र हो और मैं तुम्हारे हितों की रक्षा मेरी पार्टी में करूगां । '
‘ ठीक है । '
‘ हां ठीक है , मगर एक बात ओर चुनाव प्रचार में व्यक्तिगत या चारित्रिक आखेप नहीं लगायेगें।'
‘ ओ . के . डन. प्रोमिस । ' ये कह कर उसने फोन रख दिया ।
राजनीति के इस परिदृश्य को आप क्या कहेगें श्री मान् ।
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चुनाव होगे तो चुनाव प्रचार भी होगा । चुनाव प्रचार होगा तो प्रचार में नित नये नये तरीके भी होगे । इस बार चुनाव प्रचार के लिए पार्टी के केन्द्रीय बोर्ड ने एक विज्ञापन एजेन्सी को अनुबंधित कर उसे चुनाव प्रचार की बागडोर सौंप दी । आश्चर्य की बात ये कि इसी विज्ञापन एजेन्सी ने पिछले चुनाव में विरोधी पार्टी का प्रचार किया था और उसे सत्ता में पहुॅंचा दिया था । एक अन्य राज्य में यहीं विज्ञापन एजेन्सी एक अन्य विरोधी पार्टी का प्रचार कर रही थी । पिछले चुनाव में इस विज्ञापन एजेन्सी ने उस राज्य में भी ऐसा धुआधांर प्रचार किया था कि सत्ता - धारी पार्टी की लुटिया डूब गई थी ।
वास्तव में विज्ञापन एजेन्सी को तो अपने व्यापार से मतलब है । पार्टी , विचार धारा , सिद्धान्त , समीकरण , गठबन्धन आदि से उसे क्या करना धरना है ।
एक विज्ञापन गुरू इस प्रकार के कार्यो में बहुत सिद्धहस्त थे उनहोने पार्टी की आलाकमान को प्रस्तुतिकरण देकर विज्ञापन का ठेका प्राप्त कर लिया । कभी एड गुरू के पिता एक धार्मिक पत्रिका चलाते थे , लेकिन पिता के जाने के बाद अब वे एक बडी विज्ञापन एजेन्सी चलाते हैं ।
विज्ञापन गुरू अक्सर सांय काल इधर उधर मिल जाते थे । प्रेसक्लब में दिन भर की थकान उतारते हुए बोले
‘ यार पूरी जिन्दगी गुजर गई । विज्ञापनो से तेल - साबुन बेचते बेचते। लोगो की संवेदनाओं से खेलते हुए । '
‘ मगर एक बार मैं एक कैंसर पीड़ित बच्ची की संवेदना नहीं बेच सका । '
‘ क्यों ? '
मैंने पूरा प्रयास किया कि इस बीमार लड़की की मदद करूं । पैसा जुटा के मैंने विज्ञापन बनाया । दूरदर्शन , मुद्रित माध्यम में दिखाया मगर लोगों की संवेदनाओं को नहीं उभार सका । मुझे इस का दुख ताजिन्दगी रहेगा ।
‘ लेकिन आप जेसा महान विज्ञापन बाज असफल कैसे हो गया । '
बस हो गया । पप्पू पास हो गया । कुछ मीठा हो जाये जैसे विज्ञापन बेचना आसान है एक बीमार , विकलांग को बचाने का विज्ञापन बेचना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है ।
लाइफबाय है जहां तन्दुरूस्ती है वहां क ेलेखक को कौन जानता है । ' '
सब विज्ञापनों की आंधी में उड़ जाता है । एड गुरू ने श्शून्य में देखा । चश्मा साफ किया । दाढी़ पर हाथ फेरा। गिलास में पानी मिलाया । गटक गये ।
विज्ञापन की इस रंगीन , खूबसूरत , जवां दुनिया का अन्धेरा और दुख उनके चेहरे पर साफ साफ पढ़ा जा सकता है ।
चमचा पत्रकार विज्ञापन गुरू के पैसे से पी रहा था । पूछ बैठा
‘ इस बार का कैम्पेन कैसा होगा । '
‘ कैम्पेन तो श्शानदार ही होगा । ' श्शानदार फिल्मी सितारे । श्शानदार विज्ञापन । जानदार भाव । आक्रामक तेवर । साम्प्रदायिक उन्माद । सब कुछ । ........कुल मिला कर हमारा ग्राहक ही जीतेगां ।
‘ च्ुानाव में केवल प्रचार के बल से नहीं जीत सकते सर । '
‘ च्ुाप रहो । चुनावों में एक दो प्रतिशत वोटो को इधर - उधर करवा देना ही प्रचार का खेल है और इसी से सीटो में दस - पन्द्रह प्रतिशत का फरक पड़ जाता है । '
‘और वैसे भी चुनावी सर्वेक्षणों पर रोक लगा दी गई है । '
‘ हां ये तो है । '
‘ तभी तो हमारा महत्व ओर बढ़ गया है । '
‘ सर । विपक्षी ग्राहक ने भी कोई बड़ी विज्ञापन एजेन्सी पकड़ी है। '
‘ हर एक को प्रयास करने का अधिकार है । अपन तो व्यापारी है । वे भी व्यापारी है । व्यापारी , व्यापारी आपस में लड़ते नहीं है । ''
‘ हां आप ठीक कहते हैं । '
‘ ओर सुनाओं पत्रकारजी जनताकी नब्ज क्या कहती है ।
‘ सोलिड ओर फिप्टी - फिप्टी । '
‘ क्या मतलब ? '
‘ सर । कुछ जगहो पर हमारी पोजीशन सोलिड है और बाकी स्थानों पर फिप्टी , फिप्टी ।
‘ ये फिप्टी फिप्टी क्या बला है ?
सीधा सा मतलब है इन स्थानों पर कांटे का मुकाबला है ।
बस इन्ही स्थानों पर चुनावी - प्रचार से स्थिति हमारे ग्राहक के पक्ष में हो जायेगी ।
यदि पार्टी सत्ता में आई तो आप को क्या लाभ मिलेगा ?
‘ हमें लाभ तो पहले ही मिल जायेगा । इस विज्ञापन - प्रचार का ठेका करोड़ो का है । '
म्ुद्रित माध्यम और दृश्य - श्रव्यमाध्यम में सब पैसा हमें ही बांटना है ।
‘ वाह गुरू वाह ।
अबे साले चुप । चुपचाप पी ......खा और जा ।
पत्रकार ने मन ही मन एड- एजेन्सी के मालिक और एड गुरू को एक भद्दी गाली दी । अपनी दुकान समेटी और चला गया । विज्ञापन गुरू पीछे से चिल्लाया ' ईश्वर इसे सद्बुद्धि दे या सद्गति । '
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विज्ञापन एजेन्सी के कर्ता - धर्ता उर्फ मुख्यकार्यकारी अधीकारी के दादा जी गांव में ब्याज का छोटा मौटा धन्धा करते थे । आसामी थे । बोरगत थी । दादाजी चल बसे । ब्याज का धन्धा डूब गया । पैसा डूब गया । मा - बेटा जमा पूंजी लेकर शहर आ गये । मां ने कठिनाई से पाल पोस कर बड़ा किया । बेटे ने भी मेहनत की । पहले एक छोटे अखबार में विज्ञापन लाने - ले जाने - देने का काम काज शरू किया । अपने तेज दिमाग के कारण जल्दी ही इस लधु समाचार के कुख्यात सम्पादक - प्रकाशक , मुद्रक सेठजी की नजरों में चढ़ गया । सेठजी ने उसे अधिक कमीशन पर विज्ञापन का काम सोंपा । लड़का तेजी से सीढ़िया चढ़ गया और स्वयं की एजेन्सी लगा ली । पिछले चुनाव से भी उसने सबक सीखा और इस बार भी जीतने वाली पार्टी का प्रचार काम पकड़ लिया । अब बड़ा दफतर था । स्टाफ था । बड़े अखबार लघु समाचार पत्र तथा चैनलों के विज्ञापन मैनेजर उसके चक्कर लगाते थे कि उनके अखबार , चैनलो को विज्ञापन मिले । समय पर भुगतान मिले । अच्छा कमीशन मिले । मगर विज्ञापन गुरू भी कुछ कम न थे । वे सबसे पहले अपना स्वार्थ - अपना हित चिन्तन करते थे , जो स्वाभाविक भी था । पिछली सरकार की जीत की कृपा का प्रसाद उन्होने भी जी भरकर जीमा था । प्रसाद स्वरूप्ा उन्होने खेल परिपद पर कब्जा किया था । एक बड़ी निर्माण कम्पनी को अत्यन्त महंगी जमीन सस्ती दरों पर उपलब्ध कर वादी थी । और सबसे उपर एक पार्टी - कार्यकर्ता को एक राजनीतिक कुर्सी दिलाने के लिए उसके बेहद आलीशान मकान की रजिस्टी अपने परिजन के नाम करवा दी थी ओर ये सब सत्ता के श्ाीर्प पर बैठे बैठे । इस समय एड- गुरू अपने भव्य कार्यालय के दिव्य कक्ष में बैठे थे ।
उनके प्रबन्धक उन्हें मिलने आये ।
‘ शभ प्रभात सर । '
‘ हूॅं । शभ प्रभात । बोलो क्या काम है ?'
‘ सर ये कुछ विज्ञापन बनवाये है । देख ले ।
‘ दिखाओं । '
‘ सर ये इस नई पार्टी के पक्ष में है । '
‘ लेकिन ये तो पुरानी पार्टी का विज्ञापन है । '
‘ इसे ही अब नई पार्टी के लिए भी बनाया है । '
‘ नहीं । नहीं ऐसे नहीं चलेगा । चार कदम सूरज की ओर । सुशासन । भूख । भय । गरीबी। के दिन गये । कुछ नया लाओ । '
‘ सर आप बताये नया क्या ? '
‘ अरे सब मुझे ही करना है तो इस फौज की जरूरत ही क्या है । '
‘ मैनेजर ने चुप रहने में ही भलाई समझी ।
सुनो । इस बार बेरोजगारी और आंतकवाद पर फोकस करो । '
‘ जी अच्छा । ' लेकिन ये तो राजस्तरीय चुनाव है ।
ल्ेकिन रोटी -कपड़ा -मकान , सबको चाहिये । नई सरकार सबको रोटी -कपड़ा -मकान देगीं ।
‘ ऐसे लुभावने विज्ञापन बनाओं । '
‘ ज्ाी अच्छा । '
ओर कुछ अच्छे गीत बताओ । विकास के गीत । प्रगति के गीत । नई अर्थव्यवस्था के गीत । उनका फिल्मी करण कराओ और स्थनीय चैनलो पर जारी करवा दो । एक मास में सभी अखबारो , चैनलो पर हमारी पार्टी के कैसेट , झिगंल्स , । शरू करवा दो ।
पि्रन्ट मीडिया में आकंडो की खेती शरू करवा दो । आज का वोटर पढ़ा लिखा समझदार है उसे शब्दो के मायाजाल में उलझा दो । '
जी सर ।
और सुनो । ये जो लड़किया रखी है ये क्या काम करती है । केवल दफतर में चीयर गर्ल ही है न ये सब ।
जी नहीं इनसे भी काम ले रहे है । डोर- टू डोर व माउथ पब्लिसिटी में ये बड़ी काम आ रही है । गांवो में भीड़ इकठ्ठा करने में भी ये सहयोग दे रही है । बडे नेताओ की मिटींग से पहले इनके डांस , लटके , झटके , गाने , गीत , हाव-भाव बडे काम आ रहे है । सब खुश है । ''
‘ अच्छा । लेकिन खर्चा बहुत है । बदनामी भी हो सकती है ।
नहीं सर अपन तो व्यापारी है । अपन अपनी कमाई पर ही ध्यान दे रहे है ।
‘ यदि जरूरी हो तो मुम्बई से आर्टिस्ट बुक कर लो । किसी भी कीमत पर पार्टी - प्रचार में कमी नहीं रहने पाये । सामने वाली राजनैतिक पार्टीर् ने भी काफी बडी एड कम्पनी को बुक किया है ।
‘ अच्छा । सर । किसे । '
‘ तुम अपने काम पर ध्यान दो ।
‘ जी अच्छा । '
और सुनो । किसी भी लड़की के साथ कोई एसी वैसी घटना नहीं धटे । ओर जो भी हो आपसी सहमति और सांमजस्य से हो । कास्टिगं काउच के झझंाल से बच के रहना - खुद भी ओर कम्पनी को भी बचाये रखना ।
‘ आप बेफिक्र रहे सर । '
मैनजर ने बाहर आकर कापी राईटर को बुलाया । प्रिन्ट मीडिया में नये विज्ञापन बनाने को कहा । एक गीतकार से पार्टी के विकास पर गीत बनवाये । गीत संगीत - विजुल्स बनाने के निर्देश दिये ।
चीयर गर्ल्स को बुलाकर पार्टी मीटिंग से पहले भीड़ जमा करने के नुस्खे बताये ।
चुनावी चकल्लस धीरे धीरे बढ़ने लगी थी । दोनो प्रमुख पार्टिर्यां चुनावी महाभ्ाारत में उतर चुकी थी । अन्धे धृतराप्ट ओर कलयुगी कृप्ण सब देख समझ रहे थे ।
चुनाव की चर्चा हर गली मोहल्ले में थी । छुट भैये नेता और कार्यकर्ता पार्टी के टिकट धारियो से मोल भाव कर रहे थे । कुछ नखरे कर रहे थे । कुछ ने प्रचार के बाद की सौदे बाजी करना शरू कर दिया था । पार्टियां अपनी जीत के प्रति आश्वस्त न थी मगर उपर से आत्मविश्वास से लवरेज दिखती थी । खूब पैसा था । खूब ऐशो आराम थे । कार्यकर्ताओं क ेमजे थे । वे चाहते सोेे पाते । चुनाव का अर्थशास्त्र भी उनके पक्ष में था । चुनाव आयोग की आर्थिक खर्च की सीमा को कोई नहीं मानता था । सब खर्चे पेटियों स ेचल कर खोकों तक पहुॅच गये थे । खेाके के खर्चे के बाद भी जीत सुनिश्चित नहीं थी । जीत जाये तो निवेश हार जाये तो बरबादी मगर राजनीति तो एक नशा है जो शराब , भांग , चाय , काफी , डग्स , की तरह चढ़ता है और चुनाव के समय तो यह नशा अपने चरम पर रहता है ।
चुनावी चकल्लस से सब व्यस्त थे । हालत ये थी कि यदि एक पार्टी से टिकट न मिले तो बन्दा तुरन्त दूसरी पार्टी के कार्यालय की ओर जेट-गती से दौड़ पड़ता था । दूसरी पार्टी से निराशा हाथ लगने पर तीसरी पार्टी में प्रयास करता था ं और अन्त में अपनी नाक बचाने के लिए निर्दलीय तक लड़ने को तैयार हो जाता था । आखिर जो काली लक्ष्मी बन्दे ने इकठ्ठी कर रखी है उसका कोई तो सदुपयोग हो । चुनाव लड़ने का एक फायदा ये भी है कि यकायक कोई सरकारी अधिकारी हाथ नहीं लगाता अपने व्यवसायिक हितों के लिए भी चुनावों में खड़े होने की परम्परा रही है । एक प्रसिद्ध उधोगपति तो हमेशा चुनाव में कुछ राशि खर्च करके आयकर के करोड़ो रूप्ये बचा लेते हैं और एक अन्य व्यवसायी का पूरा ब्यापार ही चुनावों पर अाधारित था । वे चुनाव - सामग्री का ठेका लेते हैं । हर पार्टी की चुनाव सामग्री तैयार और उचित दर पर जरूरत पड़ने पर उधार भी । चुनाव के दिनो के क्या कहने । चुनावी कार्यकर्ता के क्या कहने । चुनाव मनोरंजन भी करता है और गली - मौहलें को व्यस्त भी रखता है ।
च्ुानाव एक नशे की तरह छा गया है । सत्ता की चंादनी के सब दीवाने । सत्ता का चांद सबको चाहिये । चुनाव के दिन । रूठने मनाने के दिन । चुनाव के दिन । टिकट के दिन । आश्वासनों के दिन । वादेों के दिन । चुनाव के दिन हॅंसने - मुस्कुराने के दिन । झूठ बोलने के दिन । वादे करके भूल जाने के दिन । पार्टी मुख्यालय में चक्कर लगाने के दिन । पैसा पानी की तरह बहाने के दिन । चुनाव के दिन मतदाताओं के मनुहार के दिन । चुनाव के दिन विरोधी की धोती खोलने के दिन । चुनाव के दिन । जूतम पैजार के दिन । चुनाव के दिन लत्ती लगाने के दिन । चुनाव के दिन । धोती फाड़ने के दिन । चुनाव के दिन चोराहों पर कपड़े फाड़ने के दिन । चुनाव के दिन मतदाताओं को सामूहिक ष्ोज देने के दिन । चुनाव के दिन पत्रकारों केा पटाने के दिन । चुनाव के दिन विरोधियों को हराने के दिन । चुनाव के दिन खुशी , अंासू , उदासी - के दिन । चुनाव के दिन पोस्टरों , झण्ड़ेां , बैनरो के दिन । चुनाव के दिन जुलूसों , रेलियों , सभाओं के दिन । चुनाव के दिन हाथी के दांतो के दिन - दिखाने के और खाने के ओर । चुनाव के दिन गिरगिट की तरह रंग बदलने के दिन । सियार द्वाराश्शेर की खाल पहनने के दिन । चुनाव के दिन शिखण्डी बनने के दिन । निर्दलीय बनकर पार्टी फण्ड खाने के दिन । चुनाव के दिन मान - मनुहार - अपमान के दिन । चुनाव के दिन सब को रिझाने के दिन । चुनाव के दिन आंधी - तूफान , लहर , हवा के दिन । हर पार्टी अपनी लहर बताती है। चुनाव के दिन कर्मचारियों - अधिकारियों के लिए मुसीबत के दिन चुनाव के दिन चुनाव आयोग की परेशानी के दिन । पुलिस - प्रशासन के खटने के दिन । लाल बत्ती और लाल पट्टी वालो के लिए चुनाव के दिन याने दुख के दिन । कल तक जो मजे कर रहे थे , उनके धूल खाने के दिन । चुनाव के दिन कुर्सी के दिन । धरती चूमने के दिन । आसमान पर उठने के दिन । चुनाव के दिन । गुट बनाने के दिन । लंगर चलाने के दिन । जातिवाद के दिन ।
चुनाव के दिनो के क्या कहने । हर एक की जेब में एक आश्वासन एक वादा एक वचन एक वरदान । बोलो क्या चाहते हो । राजनीतिक पार्टीयेां के पास जाने से ही आदमी स्वयं को महफूज समझने लगता है । चुनाव के दिन प्रजातन्त्र रूपी कामदेव के दिन । चुनाव के दिन मखमली कालीनों के दिन । टाट के दिन । ठाट के दिन । सुबह सुहानी श्शाम मस्तानी । चुनाव के दिनो में दिन ही नहीं चुनाव की राते राते नहीं सुहाग का सिदूंर है । चुनावी काम देव किसे वरण करेगा । किसे ष्स्म कर देगा ये सब तो चुनावी दिन ही तय करेगा । चुनाव है तो प्रजातन्त्र है । ये उत्सव के दिन । उल्लास के दिन । नारे लगाने और नारे गढने के दिन ।
च्ुानाव के दिन रूठी जनता रूपी प्रेमिका को मनाने के दिन । चुनाव के दिन झूठ , बेईमानी , मक्कारी , काला बाजारी के दिन । नलों में पानी , तारों में बिजली आने के दिन । सड़क बनाने के दिन । चुनाव के दिन डीजल , पेटोल फूकने के दिन । धूआं उड़ाने के दिन । चुनाव के दिन कमजोर उम्मीदवार को अपने पक्ष में बिठाने के दिन । चुनाव के दिन अन्धों का हाथी बनने के दिन । चुनाव के दिन चिन्ता , चिन्तन , मनन करने के दिन । चुनाव के दिन चैनलों , अखबारों के दिन । चुनाव के दिन सम्पादकों , संवाददाताओं के दिन । चुनाव के दिन बस चुनाव के दिन । ये दिन ठीक ठाक निकल जाये फिर सब को देख लेंगे ।
च्ुानाव के दिन अपराधियों , उठाईगिरों , स्मगलरों के दिन । जेल से छूटकर आये हिस्टीशीटरों के दिन । नारों के दिन। हवाओं में जहर घोलने के दिन । चुनाव के दिन अच्छी ष्ूगोल और खराब इतिहास की बालाओं के दिन । चुनाव के दिन गेाली , लाठी , तलवार चलाने के दिन । चुनाव के दिन प्रजातन्त्र की जय बोलने के दिन । चुनाव के दिन हंसने खिलखिलाने - मुस्कुराने के दिन । जीतने - हारने जमानत जब्त कराने के दिन । चुनाव के दिन चुल्लू ष्र पानी में डूब मरने के दिन । चुनाव के दिन स्वस्थ मनोरंजन के दिन । सच में चुनाव के दिन याने प्रजातन्त्र रूपी कामदेव के वाण चलाने के दिन । चुनाव के दिन घात , प्रतिघात , श्शोपण , अन्याय के दिन । चुनाव के दिन मस्त मस्त दिन । मौजा ही मौजा । खाने - खिलाने के दिन । कम्बल , रोटी , कपड़ा बांटने के दिन । चुनाव के दिन हारकर जीतने के दिन । जीत कर हारने के दिन । चुनाव के दिन सब मिलकर प्रजातन्त्र को सफल बनाने के असफल दिन ।
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चुनाव हुए और खूब हुए । हमारे बूढे नेताजी की नाव डूब गई । कल्लू मेाची का लड़का जीत गया । नेताजी के खेमे में उदासी , खामोशी तारी हो गई । कल्लू माची एम.एल.ए. का बाप बन गया । सरकार बनी मगर कल्लू मोची के लड़के का नम्बर मंत्रि पद पर नहीं आया । वैसे भी पहली बार एम.एल.ए. बना था । उसे विधानसभा , पार्टी के तौर तरीके सीखने थे । चमचे उसे धीरे धीरे सब सिखा रहे थे । वो सीख रहा था । राजनीति , कूटनीति , घूसनीति । अफसरों से बात करने के तौर-तरीके । विधानसभा में भापण देने , प्रश्न पूछने की व्यवस्थाएॅं । धीरे धीरे उसने अंग्रेजी बोलने का अभ्यास भी शरू कर दिया था । एक अंग्रेजी का
मास्टर भी रख लिया था जो उसे अंग्रेजी बोलना सिखा रहा था । कल्लू मोची की बीरादरी व गांव में पैठ जम गई थी वह सबसे बड़ा लीडर बन गया था । बिरादरी में उसे हर तरह से मान सम्मान मिलने लग गया था ।
कल्लू पहली बार राजधानी आया । लड़के की बड़ी सारी कोठी नौकर-चाकर देख कर उसका दिल बरबस लड़के के ममत्व में पगा गया । सब उसे अच्छा लग रहा था । गाड़ी बंगला , टेलीफोन , नौकर -चाकर , चमचे , छुटभैया , अफसर सब उसे सलाम ठोकते थे । वो सब को जैरामजी की करता था । धीरे धीरे उसे सब समझ आ रहा था । गांव में नेताजी के दरबार में जमीन पर बैठने वाला कल्लू यहॉं पर सर्वे सर्वा था । हर कोई उसकी सिफारिश चाहता था । मगर अभी कल्लू का लड़का जिसे सब एम.एल.ए. साहब कहते थे राजनीति में रमा नहीं था । वो महत्वाकांक्षी था । उसे उपर जाने की इच्छा थी । अब पांच साल गांव से क्या काम था । अगला - चुनाव आयेगा तब देखेंगे । तब तक राजधानी में जमे रहो । राजधानी को भोगो । पार्टी कार्यालय भी अब कोई नहीं जाता था । सब अगले विधानसभा चुनाव तक मस्त थे । एम.एल.ए. साहब व्यस्त थे । बाकी गांव में सब अस्त - व्यस्त थे , कल्लू जानता था कि गांव में बिरादरी के काम करने से ही अगले चुनाव में साख जमी रह सकती थी । इसी बीच गांव में राप्टीय ग्रामीण रोजगार योजना शरू हुई । एम .एल. ए. साहब ने कल्लू को इस योजना का स्थानीय कर्ता धर्ता बनवा दिया । कल्लू गांव लौट आया और पूरी योजना में अपनी जाती - बिरादरी के आदमियों और लुगाईयों - छोरे छोरियों को भर दिया । सब खुश । बिना काम के वेतन । साल में सौ दिन की मजदूरी । एक जाओ । चार के नाम लिखाओं । तीन का पैसा पाओ । एक का पैसा खर्चे - पानी में लग जाता था । मगर किसी को शिकायत नहीं थी । गांव के सवर्ण चुप रहने में ही अपनी भलाइ्र समझते थे , वैसे भी हारे को हरिनाम । नेताजी चुप थे । उनके चमचे अब कल्लू के इजलास में हाजरी बजाते थे । तहसीलदार बीडिओ , सरपंच , ग्रामसेवक , पटवारी , इन्सपेक्टर ,मास्टर , मास्टरनियां , नर्स - कम्पाउण्डर , वैध , हकीम , सब कल्लू मोची की सेवा में बिना नागा उपस्थित होते थे ं गांव के बनिये , ब्राहमण , राजपूत , सब एम. एल ए. साहब की चौखट चूमते थे ।
ऐसे ही माहोल में गांव के अन्दर एक टयूबवेल में एक बच्चा गिर गया । बच्चें को बचाने के सभी उपाय असफल रहे । बच्चे को बचाने के समाचार सभी चैनलो पर छा गये । बच्चा सवर्ण था और कुंआ एक निम्न जाती के किसान के खेत में खुद रहा था । सब हैरान परेशान । चैनलो - समाचार पत्रों में खूब छपा । प्रसारित हुआ । बच्चा जिंदा नहीं बचाया जा सका ।
एम. एल. ए. साहब पहुॅचे । बच्चे के मॉ बाप के घर । खूब रोना-धोना मचा । मुआवजा मिला । सब श्शान्त हो गया । एम.एल.ए. साहब राजधानी चले गये । गांव में पूरे वक्त सब तरफ श्शान्ती छाई रहीं । मगर नेताजी के खेमे ेमे इस धटना को खूब उछाला ओर अगले चुनाव तक इस धटना को जनता के जेहन में जिंदा रखने के लिए एक दिन का अनशन भी किया । नेताजी ने अपने स्तर पर मामले को पार्टी के मुखिया तक पहुॅचाया । विधान सभा में भी हो हल्ला मचवाया , मगर दलित को बचाने के लिए सभी दलो के दलित एक हो गये । विधावसभा का सत्र पहले स्थ्गित हुआ फिर सत्रावसान कर दिया गया ।
एम.एल.ए. साहब इस धटना से अन्दर ही अन्दर दुखी थे । मुआवजा बांटने वे स्वयं गये । फिर सब श्शान्त हो गया । लेकिन एम.एल.ए. साहब यह समझ गये कि राजनीति तलवार की धार है और उस पर सफलता पूर्वक चलना आसान नहीं । वे एक कुशल राजनेता बनना चाहते थे । मगर आज की भारतीय राजनीति के कीचड़ में खिलना या खिल खिलाना क्या इतना आसान था । राजनीति के दल दल में दल दल ही दलदल था । कीचड़ ही कीचड़ था । हाथ पकड़ कर खींचने वाले लगभग नहीं थे , सब कुछ अनिश्चित था मगर एम.एल.ए. साहब के भाग्य का छींका कभी भी टूट सकता था और कहते हैं न कि भगवान देता है तो छप्पर फाड़कर देता है ओर कई बार यह फटा हुआ छप्पर लगातार कुछ न कुछ देता रहता है । साहब मेहरबान तो गधा पहलवान या यों भी कहा जा सकता है कि गधा पहलवान तो साहब को मेहरबान होना पड़ता है । ऐसी ही कुछ हमारे कल्लू पुत्र एम.एल.ए. साहब के साथ हुआ । उन्हें साहित्य का कुछ भी अता पता नहीं था और उन्हे चुप करने के लिए प्रान्तीय साहित्य अकादमी का अध्यक्ष बना दिया गया । पहली बार कल्लू पुत्र को अपने नाम की सार्थकता नजर आई अब एम.एल.ए. साहब मोहनलाल असीम अध्यक्ष साहित्य अकादमी थे । उन्होने साहित्य के पुरोधाओं की किताबों के नाम रट लिए और उन्हें इधर उधर मंच पर उच्चारण के साथ बोलने लगे । कबीर ,तुलसी , मीरा , रैदास से लगाकर चन्द्रकुमार वरठे तक की दलित कविताएं बोलने लगे । अकादमी का कार्य भार ग्रहण करने के बाद वे स्वयं उच्च कोटि के साहित्यकार मान लिए गये । साहित्य के उद्भव , विकास , इतिहास , भूगोल के झरने उनके श्री मुख से अविरल बहने लगे । लेकिन एम.एल.ए. साहब को साहित्य रास नहीं आया । कुल बजट पच्चीस लाख का । वेतन भत्तेा को बांटने के बाद बची हुई योजना मद की राशि की बंदर बांट में लेखकों , कवियों के बीच राेज फजीहत होने लगी । हर लेखक के पास अखबार - पत्रिका थी , वे रोज कीचड़ उछालने लगे । कीचड़ ूसे एम.एल.ए. साहब अपनी जेब भरने के प्रयास में असफल हो ्रगये । बदनामी हुई सो अलग । उन्होने साहित्य का दामन छोड़ना ही उचित समझा , मगर जिस तरह रीछ अौर कम्बल का किस्सा है उसी तरह इस बार साहित्य ने एम.एल.ए. साहब को छोड़ना उचित नहीं समझाा । एक जांच हमेशा के लिए उनके पीछे लग गई जो स्तीफे के बावजूद नहीं सुलझी । इस जांच के कारण विधानसभा में बड़ी किरकिरी हुइ्रर् । यें तो भला हो विधानसभा अध्यक्ष का जिन्होने सब ठीक-ठाक करवा िदया । कल्लू पुत्र ने साहित्य से हमेश्ाा के लिए तोबा कर ली । साहित्य राजनीति में से एक चुनने का अवसर आये तो आदमी को क्या चुनना चाहिये ये गम्भीर बहस का विपय है ।
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भेार भई । मुर्गे ने बांग दी । मुद्दे अब कहॉं , मगर मुर्गो की क्या कमी । राजनीति से लगाकर साहित्य , संस्कृति , कला , पत्रकारिता , टीवी चैनल सब जगह मुर्गे बांग दे रहे है । राजनीति में मुर्गे मुद्दे तलाश रहे है । बुद्धिजीवी धूरे पर जाकर दाने तलाश रहे है । दाना मिला खाया फिर कूडे के ढेर में दाना तलाशने लग गये । फिर बांग देने लग गये ।
मुर्गे कभी अकेले बांग नहीं देते । वे मुर्गियों केा भी साथ रखते हैं । मुर्गियां अण्डे भी देती है और मुर्गे के साथ बांग भी देती है । बांग देना और भोंकना भारतीयता की निशानी है । जो ये सब नहीं करता उसे अन्यत्र जगह तलाशनी चाहिये ।
भोर भई । दूधवाले , अखबार वाले , कामवाली बाईया सब काम पर आने लगे । कालोनी में जाग हो गई ।
माध्ुारी विश्वविधालय की स्थायी कुलपति के आवास पर काम वाली बाई धुसी तो कुत्ता जोर से भोंका । काम वाली बाई ने कुत्ते को एक भद्दी अश्लील अकम्पोजनीय गाली दी और धंटी बजाई । अन्दर से कोई आवाज नहीं आई । माधुरी मेमसाहब धोडे बेचकर सो रही थी । धर पर एक नौकरानी और थी , उसने धीरे धीरे आकर दरवाजा खोला । कामवाली बाई ने बिना कुछ बोले अपना काम-काज सम्भाल लिया । सबसे पहले उसने फि्रज से दूध निकाला और खुद के लिए चाय बनाई ,नौकरानी को भी चाय का आधा कप दिया । चाय पीकर उसने पल्ला कमर में खौंसा और साफ सफाई में लग गई । बाहर लॉन में कुत्ता फिर भोंका मगर किसी ने ध्यान नहीं दिया ।
म्ााध्ुारी इस कुत्ते की आवाज से जाग गई । उसने एक जिमहाई ली । अंगडाई तोडी और बाथरूम में धुस गई । उसे तभी याद आया कि आज शहर के नामी गिरामी परिवारों की महिलाओं की एक किट्टी पार्टी उसके आवास पर है । उसने बाथ्ारूम से ही चिल्लाकर आवाज दी ।
‘ अरे सुगनी । सुन । आज मेरी किट्टी है । डाईंग रूम खूब अच्छे से साफ करना । '
‘ जी बीबी जी । '
अोर सुन । किचन में देख ले करीब दस महिलाएॅं खाना खायेगी ।
‘ क्या बनेगा बीबी जी । '
‘ अरे वही जो हर किट्टी में बनता है । एक मिठाई , नमकीन , पूरी सब्जी , दाल , चावल , रायता बस ओर क्या ?'
‘ और आते ही ''
‘ हां आते ही कोल्ड डिक ।'
माधुरी बाथरूम से बाहर आई । सधःस्नाता माधुरी अभी भी आकर्पक थी । लम्बे गाउन में उसका गदराया बदन गजब ढा रहा था । उसने स्वयं को आईने में देखा ओर खुद से बोली -
माधुरी इस उमर में इतना सुन्दर दिखने का तुम्हे कोई अधिकार नहीं है । स्वयं को बचाकर रखो । ये पूंजी ज्यादा दिनो तक नहीं रहेगी । वो खुद ही शरमा गई । उसने चाय पी । स्वयं को संवारा । कपड़े बदले । धीरे धीरे ग्यारह बज गये । किट्टी की सदस्याओं का आना शरू हो गया ।
सर्व प्रथम माधुरी की पुरानी साथिन श्री मती शक्ला आ गई । एड एजेन्सी की मालकिन भी पहॅंच गई ।
हिन्दी के िवभागाध्यक्ष की पत्नी भी जल्दी ही आ गई । उसे काम काज में हाथ बंटाना था । विश्वविधालय के मुख्य लेखाधिकारी जी की पत्नी , एस.पी. साहब की पत्नी और जिलाधीश की पत्नी पूरे रोब दाब के साथ सरकारी लाल बत्ती की गाड़ी में आई । माधुरी ने सबको अपनी विशाल बैठक में बिठाया ।
ठीक बारह बजे किट्टी पार्टी की शरूआत हो गई । ये सभी सौभाग्यशाली महिलाएॅं थी । सभी सुन्दर , स्वस्थ , सॅभ्रान्त और प्रभावशाली थी । सब अपने अपने पति के पद , प्रतिप्ठा को समझती थी ओर भुनाती रहती थी । कुछ महिलाएं व्यापारिक घरानों से बात चीत शरू करती थी । शेयर मार्केट , मनीमार्केट , कारेाबार पर चर्चा करते करते फिल्म ,टेलीविजन के धारावाहिक पर उतर आती थी । उन्हें कौन किस का पति है और कौन कब नई श्शादी करने वाला है जैसे वर्णनों में बड़ा मजा आता था । इन महिलाओं का ज्यादा तर समय सौन्दर्य प्रसाधनो पर चर्चा में बीतता था । दिन उगने के साथ ही वे स्वयं को सजाने संवारने में लग जाती थी । इन्हें काम की जरूरत नहीं थी मगर समय काटने के लिए समाज सेवा , स्वयं सेवी संस्था आदि में धुसपैठ करती रहती थी । ये महिलाएं देशी अंगेे्रजी लेखकों के उपन्यास अपने पर्स में रखती थी ओर बिना पढ़े ही उस पर चर्चा करने की सामर्थ्य रखती थी । अधिकांश के पतियों के पास गांव में भी एक पुरानी पत्नी थी मगर वो सोसायटी के लायक नहीं थी सो उन्होंने इनसे शदी कर ली । कुछ महिलाएं उम्र में कम थी मगर व्यापक अनुभवों के संसार में विचरण कर चुकी थी । एक-दो ने छोटी मोटी विदेश यात्राएं भी करली थी और गाहे व गाहे अपना विदेशी - बाजा बजाती रहती थी । अन्य महिलाएं इन कइ बार सुने जा चुके किस्सों को मुंह बनाकर सुनती थी । वे सब समझती थी । कुछ महिलाओं का शगाल ही श्शापिंग था । कौन से मॉल में नया माल आया है इसकी पूरी जानकारी उन्हें हर समय रहती थी । वे डायमण्ड , कुन्दन , पुखराज , ज्यूलरी और ब्यूटी पार्लर का अभिन्न हिस्सा थीं । वे ब्यूटी पार्लर में ही खपजाने को तैयार रहती थी । समय मिलने पर किसी गरीब को खाना भी खिला देती थी । कभी किसी गरीब बच्चे के स्कूल की फीस या उसे डेस या कापी किताबे भी दिला देती थी और ये सब करते हुए के फोटो वे अखबार के तीसरे या किसी भी पेज पर छपवाने की ताकत रखती थी । वे पत्रकारो की सेवाएं लेने की भी विशेपज्ञ थी ।
ये स्त्रियॉं स्त्री-मुक्ति , स्त्री विमर्श , स्त्री सशक्तिकरण , स्त्री के श्शोपण और इसी तरह की सेमिनारों में अक्सर पाई जाती थी ।
किट्टी शरू हो चुकी थी । ठण्डे पेय को पिया जा चुका था । पेट में कुछ जाते ही इन की वाचालता मुखर होने लगी थी । उच्चतम पद के कारण श्री मती जिलाधीश बौस थी मगर मेजबान और एक विश्वविधालय की कुलपति होने के कारण माधुरी स्वयं को सर्वेसर्वा समझ रही थी । और थी भी ।
‘ ताश की बाजी जम चुकी थी । नाश्ते की टे लेकर नौकरानियां इधर - उधर दौड़ रही थी । तभी पत्ता फेंकते हुए माधुरी बोल पड़ी -
‘ इस देश का क्या होगा ? हम कहॉं जा रहे हैं । देश में छापों का डर विदेशों में एडस का डर । आखिर हम औरते कहॉं जाये । क्या करे ? '
डरने की क्या बात है ? एडस के लिए विदेश जाने की जरूरत नहीं है । हमारे देश में ही एडस बिखरा पड़ा है । जिलाधीश पत्नी बोल पड़ी ।
लेकिन आखिर पुरूप चाहता क्या है ? वो कभी ये क्यों नहीं सोचता की स्त्री क्या चाहती है ? उसने आगे कहा
‘ वे फिर बोली ।
‘ पुरूप का सोच कभी भी नारी के सोच के समकक्ष नहीं आ सकता है । नारी का सोच विस्तृत और अनुभव सिद्ध होता है । '
‘ मगर पुरूप प्रधान समाज में नारी को पूछता कौन है । श्री मती हिन्दी विभागाध्यक्ष बोल पड़ी ।
‘ क्यों ? क्यों ? कौन नहीं पूछता । सब पूछते हैं और पूजतें है , पुजवाने बाला चाहिये । एड एजेन्सी की मालकिन ने शीतल पेय का घ्ंाूट भरते हुए कहां ।
‘ इतना आसान कहां है भई । ठण्डे स्वर में माधुरी बोल पड़ी ।
‘ तुम्हारी बात अलग है । हम सब अपनी अपनी नियति से बंधे है । खूंटा और गाय का सम्बन्ध है हमारा इस समाज में । ' श्री मती शुक्ला ने अपने अनुभवों का निचोड़ प्रस्तुत किया ।
लेकिन हमारा मूल प्रश्न यथावत है । हम क्या चाहते हैं और पुरूप क्या चाहता है । आज यही बहस का विपय है । श्री मती शक्ला ने पत्ता फंकते हुए कहा ।
देखिये मेडम इस विपय पर हजारों बारा सोचा-विचारा जा चुका है । अन्तिम निर्णय न कभी आया है और न कभी आयेगा ।आखिर ज्यादातर पुरूप क्यों नहीं समझते की स्त्री क्या चाहती है । वे कहते हैं कि स्त्रियां उन्हे गुमराह कर देती है । महिलाओं को समझना मुश्किल ही नही नामुमकिन है । यह बहस अनन्त है । इसका कोई अन्तिम परिणाम नहीं आ सकता है । मुझे मेरे मित्रों ने बताया है कि यदि महिलाएं ये बता दे कि वो वास्तव में क्या चाहती है तो जीवन सुखी , संतुप्ट और आनन्दमय हो सकता है , मगर पुरूप के अनुसार स्त्री स्वयं नहीं जानती की वो पुरूप से आखिर चाहती क्या है ?
‘ और इसका उल्टा भी सत्य है कि पुरूप नही जानते कि स्त्री उनसे क्या चाहती है यदि पुरूप बतादे कि वे वास्तव में क्या चाहते हैं तो पारिवारिक जीवन स्वर्ग हो जाये । '
‘ हां ओर परिवार के सदस्य स्वर्गवासी । '
सबने मिल कर अट्टहास किया ।
बात को अब तक हवा में उड़ जाना चाहिये था । मगर श्री मती शक्ला हाल में पढ़ी एक पुस्तक से अपना ज्ञान बधारना चाहती थी सो बोल पड़ी
स्त्री को खुश करना आसान है । उसे समझना कठिन ।
इसलिए सभी पुरूप स्त्री को खुश रखने के आसान रास्ते ढूढते रहते हैं । और भटक जाते हैं ।
‘ भटकाव के बाद भी श्शाम को या रात के वापस धर ही आते हैं । '
‘ और कहां जायेगा बेचारा खूंटे और गाय और बैल के सम्बन्ध जो है हमारे । कभी कभी महिला झूठ भी सुनना पसन्द करती है , उसे केवल शरीर नहीं समझ भी चाहिये । परपुरूप की प्रशन्सा किसी भी पुरूप को अच्छी नहीं लगती ओर पर स्त्री की प्रशन्सा किसी भी स्त्री को अच्छी नहीं लगती । प्यार के आगे -पीछे भी जीवन है जिसे जीने की तमन्ना हर स्त्री-पुरूप की रहती है । ‘ जिलाधीश पत्नी ने आत्रेय अनुशासन दिया ।
‘ लेकिन जब पति शाम को थका , हारा धर आता है तो उसे भी तो शिकायतों का पुलिन्दा नहीं चाहिये।
‘ तो फिर किसे सुनाये दिन भर की रामायण ।
ल्ेाकन रामायण सुनाने के लिए महाभारत की क्या जरूरत है ।
ये आप नहीं समझेंगी , अकेली जो रहती है ।
‘ चलो छोड़ो ये सब । चलते हैं । खाना खाते हैं । खाने के बाद काफी पर फिर चर्चा करेंगे ।
खाने की मेज पर सबसे खाने के वििभन्न व्यजनों के साथ खूब न्याय किया । खूब तारीफ हुई माधुरी की पाक-कला की । घर के सुगढ़ नौकरों की ।
कॉफी के समय माधुरी ने फिर कहा -
‘ अगली दीपावली पर क्या कार्य क्रम है ।
कर्यक्रमो का क्या है । दीपावली मिलन। चाहो तो कुछ और कार्यक्रम रख लो ।
‘ सुनो एक आइडिया आया है ?
क्या
हम अगली दीपावली पर इस लेडीज क्लब में पति प्रदर्शनी प्रतियोगिता करेंगे । सब अपने अपने पतियों को नहला -धुला कर तैयार कर के लाये जिसका पति सबसे अच्छा दिखेगा उसे पुरस्कार दिया जायेगा । एड एजेन्सी की स्वामिनी बोल पड़ी
‘ वाह क्या आइड़िया हे मजा आजायेगा । और जिसके पति नही है वो क्या करे ।
‘ करे क्या चाहे तो प्रियतम , प्रेमी , मित्र किसी को भी ध्ाो , पोंछ ,मांझ , तैयार करके ले आये हम क्या मना करते हैं । बूट - प्रणाली भी चलाई जा सकती है । मुस्कुराते हुए जिलाधीश पत्नी बोली ।
‘ भई वाह ! इस कार्यक्रम में तो मजा आ जायेगा , मगर क्या हमारे पति मान जायेंगे ।
‘ अगर तुम इतना भी नहीं कर सकती तो किस मुंह से पति को उगिलयों पर नचाने की बात करती हो ं सीधे मर्म पर चोट की गई थी । कैसे बर्दास्त किया जाता । सो सब मान गई । मगर ये विचार पतियों ने सिरे से खारिज कर दिया ।
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दीपावली आई चली गई , मौसम बदले । हवा बदली । फिजा बदली । फूल मुस्कुराये । इसी बीच एक दिन माधुरी के पुराने स्कूल में एक अघटनीय धटना धट गई । माधुरी के स्कूल की प्राचार्या ने अध्यापक अभिभावक उपवेशन आहूत किया । इसमे सभी अध्यापकों , अध्यापिकाओं , अभिभावकों का आना आवश्यक था । स्कूल के कुछ बाबू भी काम में लगे थे । एक बड़े हाल में सब व्यवस्थाऐं की गई थी । लम्बा चौडा़ पाण्डाल लगा था , अभिभवको के साथ उनके बच्चे भी थे । चाय-पानी-बिस्कुट की माकूल व्यवस्था थी , मगर अघ्यापकों , कर्मचारियों को निर्देश थे कि उन्हे खाना नही केवल खिलाना था मनुहार करनी थी । कार्यक्रम सुचारू रूप से चल रहा था , कि दुर्धटना धट गई । एक बाबू ने अपने एक परिचित के साथ चाय ले ली । प्राचार्य ने देख लिया । बाबू से पहले से ही नाराज थी । ये अवसर अनुकूल था । उन्होने बाबू से कुछ नहीं कहा अनुशासन हीनता की रिपोर्ट बनाकर माधुरी से अनुमोदित कराकर बाबू को निलम्बित कर दिया । बाबू और अन्य कर्मचारी बेचारे सकपका गये । स्तब्ध रह गये । बाबू को गलती तो समझ में आ गई , मगर इस गलती का परिमार्जन समझ में नही आ रहा था । प्राचार्य तथा माधुरी ने बाबू से मिलने से मना कर दिया था । निजि स्कूलो में कर्मचारी संगठन या तो होते ही नही या फिर कमजोर या प्रबन्धन के अनुकूल ं निलम्बित बाबू संगठन की सेवा में गया । मगर संगठन क्या करता । एक कप चाय पीने की इतनी बड़ी सजा । जो पत्र उसे दिया गया था उसमें कई तरह के आरोप लगाये गये थे । कुछ प्रमुख आरोप इस प्रकार थे -
1 . आप समय पर नही आते ।
2. समय समाप्त होने से पहले ही चले जाते हैं ।
3. कार्यलय में आप का कार्य संतोप प्रद नही है ।
4. आपने लेखाशाखा , प्रतिप्ठापनशाखा तथा गोपनीयशाखा का काम ठीक से नही किया ।
और अन्त में एक गम्भीर आिथ्र्क आरोप लगाया गया था , जिसका कारण बाबू की समझ में नही आया था । बाबू आधे वेतन के लिए भी भटक रहा था । अचानक संगठन के अध्यक्ष ने उसे बुलाया और प्राचार्य के कक्ष में ले गये ।
बाबू के नमस्कार का कोई प्रत्युतर प्राचार्य ने नही दिया । कर्मचारी संगठन के अध्यक्ष ने कहा -
‘ मेडम बाबू ने आरोप पत्र का जवाब देते हुए आप से रहम की भीख मांगी है ।
‘ रहम ! किस बात का रहम । ये काम चोर , मक्कार , आदमी है , कोई काम ठीक से नही करता ।
‘ मगर मेडम ये अपनी जाति का है । अपन ब्राहमण , मैं भी ब्राहमण ये भी ब्राहमण । ब्रहमहत्या का पाप अपने सिर पर क्यों लेती है आप ।
‘ देखो ज्यादा से जादा ये कर सकती हूं कि इसे बरखास्त करने के बजाय इसका त्यागपत्र मंजूर करवा दूं ।
‘ बरखास्त होने पर तो ये बेचारा मर ही जायगा । इसे प्रबन्धन से कुछ भी नही मिलेगा ।
‘ वही तो मैं कह रही हूं । ये सेवा से त्यागपत्र दे दे ।
‘ लेकिन मेडम अभी तो मेरी काफी सर्विस बाकी है । बच्चे छोटे छोटे है ।
‘ तो मैं क्या करू ?
कर्मचारी संगठन के अध्यक्ष ने उसे समझाया । बाहर लाया और त्यागपत्र के लिए राजी किया । मरता क्या नही करता । बाबू ने अपने पैसे प्रबन्धन से लिए और सदगति पाई ।
माधुरी को सम्पूर्ण प्रकरण की जानकारी थी । मगर इस तरह के हल्के-फुल्के मामलेां की वो जरा भी परवाह नही करती थी । वैसे भी संस्था के विभिन्न दैनिक कार्यक्रमों में वो दखल नही देती थी । अनुशासन के नाम पर तानाशाही चलती थी मगर वो मजबूर थी । माधुरी अपना ज्यादा ध्यान विश्वविधालय में लगाती थी । विश्वविधालय तथा इससे सम्बन्धित महाविधालयों की राजनीति ही उसे रास आती थी । नेताजी का सूर्य अस्त हेाने के बाद उसने कल्लूपुत्र को साधने के लिए कल्लू मोची को विश्वविधालय की प्रबन्धन -समिति में अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधि के रूप में श्शामिल कर लिया था । कल्लू मोची कभी किसी उपवेशन में नही आया था , मगर बैठक भत्ता , यात्रा व्यय , लंच आदि के रूप में एक निश्चित राशि भेजने की परम्परा का निर्वहन किया जाने लगा था । बड़े बड़े बुद्धिजीवी प्रोफेसर , डीन , प्राचार्य , निर्देशक किस्म के प्राणी उसकी चौखट पर आ कर हाजरी देते थे । जो नही आते उन्हे दूसरे लिवा लातेेेेेेेे थे । कल्लू पुत्र जो अब एम.एल.ए. साहब थे इस प्रक्रिया से परम प्रसन्न थे । वे स्वयं भी अमचो , चमचो से गिरे रहते थे , उनकी बैठक अरजी , गरजी और दरजी किस्म के लोगों से भरी रहती थी । आप पूछोंगे ये अरजी , गरजी ,दरजी , क्या बला है तो उत्तर सीधा सपाट है श्री मान् जो अरज करे सो अरजी , गरज करे सो गरजी और पैबन्द लगाये , सिलाई करे , चुगली खाये वो दरजी ।
अभी भी एम.एल.ए. साहब अरजी-गरजी-दरजी किस्म के लोगों से गिरे हुए थे ।
ये लोग हर नेता , अभिनेता , मंत्री , संत्री की चौखट चूमते रहते थे । अपना काम करवा लेना ही इनका सिद्धान्त था । एम.एल.ए. साहब भी यह सब समझते थे । आज के दरबार में उपस्थित एक मंुह लगे चमचे ने कहा
‘ सर अपने इलाके में एस.पी. एक महिला को लगा या जा रहा है ।
‘ हां तो ठीक है महिलाओं के सशक्तीकरण का दौर है ।
‘ लेकिन सर ! कानून-व्यवस्था का क्या होगा ।'
‘ कानून-प्रशासन नर-मादा में भेद नही करता । ' फिर एस.पी. साहब को कौन सा खेत्र में जाना है , उनका मुख्य काम प्रशासनिक है । '
‘ वो तो ठीक है पर ....सर ! अगले चुनाव में हमारे गुट को परेशानी हो सकती है । सुना है बहुत कठोर है ।
अभी चुनाव बहुत दूर है । उसे गृह मंत्रालय ने एक विशेप काम से भेजा है । प्रदेश में हमारी सरकार है और मुख्य मंत्री चाहते हैं िक इस खेत्र में कानुन-व्यवस्था का कठोरता से पालन हो ।
‘ लेकिन सर यदि ऐसा हुआ तो हमारे अपराधी मित्रों का क्या होगा ? '
‘ वे सब बच जायेगें इसलिए तो इन्हे लगाया गया है भाई । ' जरा समझा करेा ।
‘ ठीक है सर !'
इतनी ही देर में एक ग्रामीण अध्यापिका एम.एल.ए. साहब से डिजायर लिखवाने हेतु एक प्रार्थनापत्र लेकर आई । एम.एल.ए. साहब ने उसे सिर से पैर तक देखा-पढ़ा-समझा । कागज देखे । कागजों के मध्य में एक लिफाफा था । लिफाफे में पांच सौ का एक नोट था , नेताजी ने तुरन्त डिजायर लिखकर दे दी । लिफाफा रख लिया । महिला अध्यापिका धन्यवाद देकर चली गई । लेकिन एम.एल.ए. साहब ने उसे वापस बुलाया ।
बहिन जी स्थानन्तरण की अर्जी पर मैंने डिजायर लिख दी है यदि आप वास्तव में काम करना चाहती है तो राजधानी चली जाईये । अभी स्थानान्तरण खुले हुए है पता नहीं कब बन्द हो जाये ।
‘ बहिनजी रूक गई । एम.एल.ए. साहब को ध्यान से देखा फिर धीरे से बोली
‘ सर ! क्या ये काम आप नहीं करवा सकते । आखिर मैं आपके खेत्र की मतदाता हूं ।
‘ हां हां क्यों नही मगर मेरी फीस है । राजधानी आने - जाने का खर्चा , वहां का व्यय सब कुछ आप लोगों को ही वहन करना पड़ेगां ।'
‘ कितना ! महिला अध्यापिका ने स्पप्ट पूछा ।
‘ अब ये तो काम पर निर्भर है । वैसे आप कोई रिक्त स्थान पर स्थानान्तरण करा ले तो व्यय कम आयेगा । किसी को हटाने में खतरे बहुत है ।
हटाना तो मैं भी नही चाहती । पर यदि जिला मुख्यालय के आस पास स्थानान्तरण हो जाये तो बच्चेां की पढ़ाई ठीक से हो जाये । पति भी यहीं काम करते हैं । '
त्ोा ठीक है आप मेरे बाबू से बात करले । आपकी परेशानी मेरी परेशानी । सब ठीक हो जायेगा ।
‘ सब राशी अग्रिम लगेगी । बहिनजी ने फिर पूछा ।
‘ अब ये तो सब आप भी समझती है काम होने के बाद कौन फीस देता है । '
‘ फिर फीस जमा करा दूं । '
‘ हां हां अगले सप्ताह में मैं जा रहा हूॅं । आप कागज मेरे लिपिक को दे दे । सब हो जायेगा ।
म्हिला अध्यापिका ने अपने स्थानान्तरण के कागज और एक वजनी लिफाफा लिपिक को थमा दिया ।
एक अन्य दरजी नुमा व्यक्ति भी खड़ा था । महिला के जाने के बाद बोला -
‘ ‘सर ये बड़ी वो .....है । पिछले कई दिनो से विरोधियों के यहां चक्कर लगा रही थी ।
‘ होगा उससे अपने को क्या ? अपने देवरे में भेंट चढ़ा दी है तो काम करना अपना धर्म है । भेंट - पूजा मिलने के बाद तो देवता भी प्रसन्न हो जाते हैं । '
‘ हां सर ये तो है । सभी अरजी - गरजी -दरजी हंस पड़े । '
एम.एल.ए. साहब ने लिपिक को बुलाया ।
‘ आज के लिफाफे खोले गये । कुल मिलाकर दस स्थानान्तरण के काम थे । राशि भी अच्छी खासी एकत्रित हो गई थी ।
प्रसाद बाटंने के बाद एम.एल.ए. साहब को एक पेटी माल मिल गया था । वे इसी दर से भविप्य के सपने बुनने लग गये । जैसे उनके दिन फिरे वैसे सबके फिरे ।
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और अन्त में !
र्धम का गठबन्धन !
गठबन्धन का र्धम !
गठबन्धन का कर्म !
सी. डी. नाम सत्य है।
आतकवाद नाम सत्य है।
चुनाव मे अश्वेत राप्टपति का बनना भी राजनीति में एक इतिहास हैं।
काशी हो या काबा , कविता हो या शायरी।
हिन्दी में साहित्य-कविता से रोटी। क्यों मजाक करते हो भाई ।
मसिजीवी की चर्चा । मुगालतें में मत करना । भूखोंमर जाओगे । साहित्य की सीढी पर चढ़कर किसी कुर्सी पर बैठ जाओं या फिर एक छोटी-मोटी नौकरी पकड लो । भव सागर तर जा ओगे ।
इस लेस्वियन मौसम में कुछ भी ठीक-ठाक नहीं है। सीडी देखे गत है।
सब तरफ छा गये है । उटपटांग नजारे । उटपटांग किस्से। उटपटंाग गप्पे । उटपटांग अफवाहे । अफवाहों को समाचार बनते क्या देर लगती है। और छपने-प्रसारित होने वाले अधिकोश समाचार अफवाहे ही तो है।
कुत्तो, गधो, मुर्गो, मतदाताओं के दिन । कब तक चलेगे । आखिर तो सरकार ही चलेगी । गठबन्धन की सरकार । धमाधम । धडा़म । जोर से हुई आवाज । कौन बनेगा मंत्री । कौन बनेगा संत्री । सब तरफ बस त्राहि त्राहि ।
जीतने वाले भी हारे और हारने वाले भी जीते ।
ऐसे अजीबो गरीब माहोल में मित्रों इस व्यंग्य उपन्यास का यह अन्तिम अध्याय अन्तिम सांसे ले रहा है।
न सत्य है, न शिव है और न सुन्दर है ।
गान्धी से चले । गान्धी तक पहुॅचे । अहिंसा से चला देश आंतकवाद तक पहुॅचा । आंतकवाद से कहॉ जायेगे । कोई नहीं जानता । सच पूछो तो हम कहां जा रहे है ये कोई नहीं जानता ।
किस्सा तोता मैना की तरह हर तरफ अजीबो गरीब किस्से , गप्पे ,अफवाहे । समाचार , विचार बस सब तरफ लतरांनी ही लतरांनी । लफफाजी ही लफफाजी ।
सरकारों का क्या है ? उनका चरित्र एक जैसा होता है। उनके मुखौटे बदलते रहते हैं । कभी किसी का मुखौटा कभी किसी का ।
अपने स्वार्थ के लिए किसी की भी राजनैतिक हत्या को तैयार बड़े नेता । साहित्यक हत्या को आतुर आलोचक महाराज सामाजिक हत्या को निपटाते समाज के ठेके दार । धार्मिक हत्या को अंजाम देते धार्मिक साधु , सन्त , सन्यासी , ऋपि , मुनि , आचार्य , पूज्यपाद आदि ।
इन्हीं सब तानो बानो में फंसी कविता , कहानी , उपन्यास । एक फतवा जारी हुआ उपन्यास की मौत का । दूसरा फतवा जारी हुआ कविता की वापसी का । तीसरा फतवा जारी हुआ व्यंग्य साहित्य का पत्रकारिता बन जाने का । यारो साहित्य एक ललित कला है और पत्रकारिता एक व्यंवसाय । कला में वयवसाय तो ठीक है मगर कला को व्यवसाय घोपित करना अपने आप में व्यंग्य है ।
खबरिया चैनल तक समाचारों के लिए तरस रहे है । राजनीतिक समाचारों के अलावा कुछ भी नहीं सूझ रहा है सब तरफ अन्धकार । अन्धकार में एक प्रकाश , एक किरण की तलाश है साहित्य , कला , संस्कृति ।
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एम. एल. ऐ. साहब का दरबार लगा हुआ है । बडे़ बड़े भूतपूर्व महारथी इस दरबार में हाजरी दे रहे है । नये चुनावों में जीति एक निर्दलीय महिला पार्टी में श्शामिल होना चाहती है कारण ये कि जिस जाति प्रमाणपत्र के सहारे जीत कर आई थी विवादास्पद हो गया । वह जन जाति में है या अनुसूचित जनजाति में यह बहस मीडिया ने शरू कर दी । हवा दी हारे हुए उम्मीदवारों ने । बात बढ़ गई । अब रास्ता ये निकला कि विजयी महिला किसी बड़ी पार्टी में मिल जाये तो बेड़ा पार हो जाये । विजयी पार्टी को भी ऐसे चेहरेा की आवश्यकता रहती हैं । सो विजयी जनजाति की महिला ने पार्टी सदस्यता हेतु के दरबार में हाजरी दी । नेताजी ने पूछा
क्यो क्या बात हो गई ?
मैंने जाति प्रमाण पत्र में पिताजी की जाति लिखी ।
तो क्या हुआ ?
उसे मान लिया गया ।
फिर ।
मैं चुनाव जीत गई । तो विपक्षी चिल्लाने लगे ।
‘ अब क्या । '
अब मुझे पार्टी की शरण में ले लीजिये । वैसे भी पार्टी को जरूरत है ।
‘ हां जरूरत तो है । '
ठीक है तुम्हें पार्टी की प्राथमिक सदस्यता दे देते हैं । कोई पद नहीं मिलेगा ।
पद तो मेरे पास विधायक का है ं बस सदस्यता चाहिये ।
ठीक है । महिला ने पार्टी का फार्म भरा । और विरोध दब गया । सरकार बन गई । महिला मंत्री पद पा गई ।
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कल्लू मोची के दरबार में अविनाश , कुलदीपक , सब आये हुए थे ं सब इस दरबार में नियमित हाजरी बजाते थे ।
इन सब लोगों के अपने अपने दुख । अपने अपने सुख । अपने अपने सपने । और सपनो को हकीकत में बदलने के अपने अपने तौरतरिके । देखते देखते खादी , की राजनीति , चमड़ी और दमड़ी की राजनीति बन गई । समाज का सोच आर्थिक बन गया । एक खोके से कम में चुनाव जीतना एक सपना बन गया । निर्दलीय हो या दलीय सब खोके पर बैठ कर वैतरणीय पार करने में लग गये ।
कुलदीपक बोला -
‘ कल्लू जी इस बार मैंने करीब चालीस-पचास खेत्रो का दोरा किया । हर तरफ पैसा पानी की तरह बह रहा था । दलों ने भी खूब पैसा बहाया । हर खेत्र मे स्थानीय नेता ओर जाति वाद हावी था ।
ज्ाातिवाद हर युग में रहा है । गरीबी हर युग में रहीं है । अविनाश ने कहा ।
लेकिन मंत्री , मुख्यमंत्री , प्रधानमंत्री तक जाति के आधार पर बनेगे तो प्रजातन्त्र का क्या होगा ?
प्रजातन्त्र का कुछ नहीं होगा वो तुम्हारे भरोसे नही है । एक छुटभैये नेता ने कहा ।
‘ तो क्या जातिवाद प्रजातन्त्र पर हावी हो जायेगा । '
‘ नहीं ऐसा नहीं होगा मगर जिताउ उम्मीदवार तय करते समय ये सब देखना पड़ता है । कल्लू बोला । '
‘ ठीक हे । हार जीत चुनावों में चलती रहती है । '
और सुनाओ , तुम्हारे विश्वविधालय में क्या हो रहा है ।
‘ सब ठीक चल रहा है । , माधुरी विश्वविधालय में एक बडी गैर सरकारी संस्था एक बडा आयोजन करना चाहती है । करोड़ो का बजट है । '
‘ अच्छा फिर । '
ब्ास छोरो ने फच्चर फंसा दिया है ।
क्या किया ?
व्ो अपना वेतन बढ़ाने की मांग कर रहे है ।
त्ोा फिर ।
प्रिन्सिपल ने मना कर दिया ।
लड़कों ने हड़ताल कर दी । अखबारों में प्रिन्सिपल , विश्वविधालय के खिलाफ चिल्लाने लगे । दिल्ली से भी अफसर आ गये है ।
‘ अच्छा मामला इतना आगे बढ़ गया है । '
‘ हां नही ंतो क्या । हो सकता सेमिनार रूक जाये या स्थगित हो जाये । या डीन-एकेडेमिक को हटाना पडे । '
बेचारा डीन क्या करे । उसके हाथ में क्या है ।
आखिर किसी की तो बली लेनी ही पडती है न । हडताल भवानी का अवतार है बिना बली लिए मानेगी नहीं ।
और क्या क्या हुआ ।
छात्र तोड़ फोड़ पर उतर आये । गाली - गलोच तो नियमित त्रिकाल संध्या की तरह होता है ।
अच्छा । ये तो ठीक नहीं है ।
अधिकारियों की कारों को नुकसान । कार्यालय को नुकसान कुल मिलाकर प्रिन्सिपल का धन्धा चौपट ।
माधुरी क्या कर रही हे । कल्लू ने पूछा ।
माधुरी मामले केा दूर से देख रही है । मजे ले रही है । यदि आवश्यक हुआ तो कार्यवाही करेगी ।
कब करेगी कार्यवाही ।
यह तो वो ही जाने ।
नई सरकार का निजि विश्वविधालयों में कोई हस्तखेप नहीं है ।
तो फिर ।
बस माधुरी सर्वेसर्वा है ।
सेमिनार का सचिव बदल दो ।
सब गड़बड़ हो जायेगा । करोड़ो का बजट-खाने-पीने की सुविधा-सब गुड़ गाेबर हो जायेगा ।
‘ तो फिर कैसे चलेगा । '
प्रजातन्त्र तो ऐसे ही चलेगा । हम सब कहां जा रहे है ?
हम सब जहन्नुम में जा रहे है ।
कोई रोक सके तो रोक कर दिखाये ।
हर कोई मदारी है हर कोई बन्दर है । हर कोई डुगडुगी बजा रहा है । हर कोई भोंक रहा है हर कोई बारा मन की धोबन को देख रहा है । हर कोई हाथी दांत की मीनार पर चढ़ा हुआ है । हर कोई भाग रहा है । कहीं न कहीं जा रहा है । मगर दिशाहीन भागना भी क्या और दौड़ना भी क्या ।
ऐसी विकट परिस्थिति में कुत्ते ने मुर्गे से पूछा इस देश का क्या होगा यार ।
देश की चिन्ता छोड़ो । खुद की चिन्ता करो । घूरे पर दाने बीनों , यही तुम्हारी नियति है।
मगर मैं बुद्धिजीवी हूॅ ।
तो क्या भूखो मर सकते हो ।
नहीं ।
तो फिर जाओं कहीं से हड्डी लाओ । हर कुर्सी एक हड्डी है । चूसो और फेंक दो ।
यार मंहगाई से चले मंदी तक पहुंचे । शेयर - सेन्सेक्स धडाम ।
ब्याज दरें धडाम ।
रूपया धडाम ।
बड़े मॉल धड़ाम ।
बड़े उद्योग धड़ाम ।
बस धड़ाम ही धड़ाम ।
पत्रकारिता धड़ाम । राजनीति धड़ाम । कूटनीति धड़ाम ।
सत्य । धड़ाम ।
शिवम् धड़ाम।
सुन्दरम् । धड़ाम ।
कलयुग शरणम् गच्छामि । चलो प्रजातन्त्र बचाने की कसमें खाते हैं।
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