“….कल्लू पुत्र रोज देखता था बड़े घरों के एक कोने में अपने लेपटाप पर कैनेडा , अमेरिका से अपने बच्चों से चेटिंग करते , विडियो क्राफेंसिंग करते...
“….कल्लू पुत्र रोज देखता था बड़े घरों के एक कोने में अपने लेपटाप पर कैनेडा , अमेरिका से अपने बच्चों से चेटिंग करते , विडियो क्राफेंसिंग करते लोग और अपने पड़ोस से अनजान लोग । एक ही बिल्ड़िगं में रहने वाले एक दूसरे को नहीं पहचानते । नहीं पहचानना चाहते । समय सर्प की तरह चलता है । निःशब्द । आकाश । हवा । पानी । मौसम सब बदलते रहते हैं । मानव भी बदलता रहता है । कल्लू पुत्र सड़क किनारे के काफी हाउस में आ गया । कभी यह गुलजार रहता था । …..”
॥ श्री ॥
असत्यम्।
अशिवम्॥
असुन्दरम्॥।
(व्यंग्य-उपन्यास)
महाशिवरात्री।
16-2-07
-यशवन्त कोठारी
86, लक्ष्मी नगर,
ब्रह्मपुरी बाहर,
जयपुर-302002
Email:ykkothari3@yahoo.com
समर्पण
अपने लाखों पाठकों को,
सादर । सस्नेह॥
-यशवन्त कोठारी
(बेहद पठनीय और धारदार व्यंग्य से ओतप्रोत इस उपन्यास को आप पीडीएफ़ ई-बुक के रूप में यहाँ से डाउनलोड कर पढ़ सकते हैं)
विश्वविधालय में नये सत्र की शुरूआत थी । छात्र चुनाव चाहते थे । प्रशासन सर्वसम्मत्ति से मेधावी छात्र को अध्यक्ष बनाना चाहता था कि रेगिंग के एक मामले में उक्त चारों होनहार छात्रों को पुलिस ढूढने आ पहुॅची । ईमानदारी की पुलिसिया परिभापा भी कुछ काम नहीं आई क्योंकि मामला एक कन्या की रेगिंग से सम्बधित था ।
हुआ यो कि माधुरी विश्वविधालय जो कभी टीन-टप्पर की छोटी सी थड़ी हुअा करती थी ,अब एक आलीशान सौ एकड ़का परिसर बन गई थी । नित नये कोर्स ,नित नये दिमाग वाले प्रोफेसर ,नित नये फैशन वाले छात्र और ग्लेमर ,फैशन , माडल को अपनाने वाली नित नई छात्राएं ।
नये छात्र-छात्राओं की रैगिंग एक सामान्य प्रक्रिया की तरह देश-विदेश के कालेजों ,विश्वविधालयों में एक नियमित अतिरिक्त क्रिया कलाप की तरह चलती थी , सो इस विश्वविधालय में भी चलती थी । लेकिन लम्बे चौड़े परिसर में लम्बे चौड़े लान थे । केन्द्रीय पुस्तकालय को छात्र आपस में सी . एल . याने लव पोइन्ट कहते थे । इस के आस पास सन्नाटा सा रहता था । पढ़ाकू- किताबी कीड़े साझ होते होते पुस्तकालय को छोड़ छाड़ कर चले जाते थे । साझ के झुरमुट में हास्टॅल में रहने वाले छात्र - छात्राएं विश्वविधालय के विशाल परिसर में घूमते - घामते मस्ती मारते रहते थे । जो भी नया छात्र - छात्रा नजर आ जाता उसे ‘ बॉस को सलाम करो । ' के आदेश दिये जाते थे । ऐसी एक छात्रों के झुण्ड़ ने नई आई छात्रा को दूर से ही भांपा और कहा।
‘ ए छिपकली ! क्या अनारकली की तरह मटक - मटक कर चल रही है । ' दीवार में चुनवा देगें ।
लड़की देखने में भोली - भाली थी ,मगर विश्वविधालयों के माहोल से श्शायद परिचित थी । बोल पड़ी ।
हे मेरे सलीम ! जरा अपने अब्बा हजूर शहशाहं अकबर से तो इजजत ले लेते । '
ये सुनना था कि लड़को को रेगिंग के सभी सूत्र याद हो गये । वे सूत्रों का मन ही मन पारायण करते हुए बोले - अब तुझे भगवान भी नहीं बचा सकता ।
लड़की को इस बात का गुमान भी नहीं था कि मजाक में कहीं गई यह बात गम्भीर हो जायेगी । मगर अब क्या हो सकता था सो चुप रहीं । परििस्थ्ति को वह समझ गई थी । रेगिंग का फण्ड़ा ही डराने से शरू होता था । सो लडको ने उसे डराने ,धमकाने का काम शरू कर दिया । उसे नाचने - गाने काे कहा गया । लड़की ने कर दिया । उससे उल्टे - सीधे सवाल किये गये । लड़की ने सहन कर लिये । अब लड़कों को और भी ज्यादा गुस्सा आया । श्शाम का समय था । बीयर पेट में थी । लड़की अकेली थी । विश्वविधालय में सन्नाटा था । हर तरफ से माहोल लड़को के लिए अनुकूल था । वे जो चाहे कर सकते थे । लड़की सकते में थी । चाह कर भी भाग नहीं सकती थी । चिल्लाने का कोई फायदा नहीं था ।
समय बीतता - जा रहा था । परिस्थितियां और बिगड़ रही थी । अचानक बीयर के बोझ तले दबे लड़के ने लड़की का हाथ पकड़ लिया और एक जोर दार झटका दिया ।
लड़की के मुख से चीख निकल गई । लड़के ने पकड़ और मजबूत कर दी । लड़की र्दद से दोहरी हो गई । अब तक लड़की टूट चुकी थी । उसे अपनी गलती का अहसास हो गया था । वो माफी मांग रही थी । वे पानी भी देने को तैयार न थे । बात बिगडी तो बिगडती चली गई । लड़को ने लड़की के कपड़े फाड़ दिये । बलात्कार के प्रयास किये और रेगिंग के नाम पर परिचय के नाम पर घिनोना खेल खेल गये ।
लड़की कि किस्मत में कुछ सुधार आया कि उधर से एक स्थानीय चैनल की कैमरा टीम निकली । मामले को भॉपते में एक मिनट लगा । टीम ने लड़को के विजुलस ले लिये । लड़की की बदहवास शकल कैमरे में कैद कर ली । और ब्रेकिंग न्यूज देने स्टुडियो में चले गये । चलते कार्य क्रम को रोक कर यह न्यूज दिखाई गई । फिर तो सभी चैनलों ने न्यूज - कैपसूल बनाकर पूरे एक सप्ताह तक राग अलापा । लड़की इस चैनल - चर्चा से ज्यादा धबरा गई और हास्टल के कमरे में दुपट्टे से फंदे में झूल गई । अब मामला चैनलों के हाथ से खिसक कर पुलिस - प्रशासन के हाथ में आ गया था । लड़को की शिनाख्त हो गई थी । ये लड़के वही थे जिम की उपस्थिति कम थी याने कल्लू मोची का लड़का ,रजिस्टार श्श्ाुक्ला जी के सुपुत्र , नेताजी के कपूत तथा गुलकी बन्नों के दोहित्र ।
अब पुलिस इन को ढूढंने के प्रयास करने लग गई । लड़के भूमि गत हो गये । इनके बापों ने दौड़ भाग शुरू की । लेकिन लड़के पुलिस के हत्थे चढ़ गये । शाम को चारों बापो की मीटिगं शक्ला जी के यहां पर शरू हुई । उन्होंने बचाव के प्रयास शरू किये । लेकिन बात बनी नहीं ।
क्योंकि सभी जानते थे कि न्यायपालिका इन्साफ का मन्दिर है और न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बन्धी हुई है । अर्थात न्याय कुछ देख नहीं सकता है । वैसे भी नैसर्गिक न्याय का नियम है कि हजारो दोपी छूट जाये मगर किसी निर्दोप को सजा नहीं दी जानी चाहिये । वैसे भी मुकदमे बाजी एक महामारी की तरह है और यह एक राप्टीय श्शौक है जो कालान्तर में जाकर श्शोक हो जाता है । अदालते , जज ,इजलास ,वकील ,गवाह ,पेशकार ,रीडर ,पक्षकार ,विपक्षी ,मुद्धई आदि सैकड़ो शब्द रोज हवा में घुलते रहते हैं ।
लाल फीतो में बंधी फाइले ,दस्तावेज ,दिवानी ,फौजदारी , कागज , रसीद बयाने ,मसौदा ,नकल ,स्टांम्प ,पाइप पेपर ,वकालतनामा ,सम्मान ,कुर्की ,रजिस्टी ,पुर्जा ,सुलहनामा मिसल ,रजिस्टार ,पटवारी ,पंच आदि शब्दों के मकड़ जाल में न्याय फंस जाता है । ऐसे ही निरीह स्थिति में पुलिस की ओर से पब्लिक - प्रोसीक्यूटर ने चारों किशोरों को आत्महत्या के लिए उकसाने , रेगिंग करने तथा बलात्कार के प्रयास की विभिन्न धाराओं के साथ चारों केा कोर्ट में पेश कर दिया ।
पुलिस ने स्पप्ट कह दिया अभी इन युवाओं से और भी राज उगलवाये जाने है अतः इन्हे पुलिस रिमाण्ड दिया जाये । पुलिस रिमाण्ड के नाम से ही लड़कों की हवा खिसक गई । लड़कोंं के बापों ने अपने वकील की ओर देखा मगर वकील नीची गरदन किये चुपचाप बैठा रहा । सरकारी पक्ष को पूरा सुनने के बाद ही जज ने लड़कों की ओर देखा और बचाव पक्ष के वकील को बोलने का अवसर दिया ।
हजूर ! मी लार्ड ! ये बच्चे है । नादान है । अभी पढ़ते हैं । इन्हें क्षमादान दिया जाये । वैसे भी उस लड़की ने आत्महत्या की थी ,जिसका कारण मीडिया में बदनामी थी ।
‘ सर ये सही नहीं है । लड़की इन लड़को की रेगिंग से तंग हो गई थी । इसी कारण उसने यह कठोर कदम उठाया । सरकारी वकील ने दलील दी । न्यायाधीश चुप रहे । फिर बोले '
‘ इन चारों को एक सप्ताह के लिए न्यायिक हिरासत में रखा जावे ।
शक्लाजी ,कल्लू ,कम्पाउण्डर और नेताजी कुछ न कर सके ।
संायकाल शक्लाजी अपनी मेडम के साथ नेताजी से मिलने पहुॅंचे । वहीं कम्पाउण्डर और कल्लू भी मिल गये । गम्भीर परिस्थिति में गम्भीर चिन्तन - विचार हाेते हैं । इधर नेताजी ने अपने सुपुत्र को बचाने के प्रयास तेज कर दिये । शक्लाजी को देखकर बोले -
यार तुम्हे युनिवरसिटी में इसलिए लगवाया था कि हमारे ही बेटे को फंसवा दिया ।
‘ मैं क्या करता सर ! मुझे तो सूचना ही देरी से मिली । मेरा बेटा भी तो फंस गया है ।
‘ और फिर ये कम्पाउण्डर साहब के सपूत । ये वहां क्या कर रहे थे ? और कल्लू - तेरी ये हिम्मत ।
‘ हजूर माई बाप है । सौ जूते मार ले । मगर मेरे बेटे को कैसे भी बचा ले ।
‘ ठीक है कुछ करते हैं ?
तभी शक्लाइन बोल पड़ी
‘ ओर ये आजकल की लड़किया । इन्हें पता नहीं क्या हो गया है । वो श्शाम को वहॉं क्या रोने गई थी ?
इस फैश्ान और टीवी चैनलों से सब कबाड़ा कर दिया है। हर चैनल पर इस मुकदमे के समाचार - विचार - वार्ता - गोप्ठियां ,विश्लेपण आ रहे है ।
‘ इन पत्रकारों का कोई दीन ,ईमान ही नहीं होता । सब कुछ सच-सच दिखा डालते हैं । शक्लाजी बोले ।
‘ शक्ला तुम चुप रहो । कुछ सोचने दो ।
‘ थोड़ी देर की चुप्पी के बाद नेताजी बोले -
इस लड़की के मां बाप को पकडो और उन्हे दे-दिलाकर मामला सुलटाओ । उससे कहों देखो लड़की तो वापस आयेगी नहीं पांच -दस लाख में काम हो सकता है ।
लेकिन क्या लड़की का बाप मान जायेगा ।
मानेगा क्यों नहीं गरीब है ,लड़की मर गई है । चश्मदीद गवाह है नहीं । पुलिस - प्रोसीक्यूटर को भी समझा देंगे । और क्या ?
‘ यदि ऐसा हो जाये तो ठीक ही रहेगा ।
‘ शक्ला तुम लड़की के बाप के पास जाओ । कम्पाउण्डर को भी साथ ले जाना । हाथ पैर जोड़ना । साम -दाम - दण्ड - भेद से उसे मनाने की कोशिश करना । '
जी अच्छा ! ' और सुनो । कैसे भी कोर्ट से केस वापस लेले ।
अदालत के बाहर समझोता ही विकल्प है ।
कल्लू अब तक चुप था ।
हजुर मेरी हैसियत कुछ देने की नहीं है ।
तो चुप तो रह सकता है । तुम बस चुप रहो । बाकी हम देख लेंगे ।
अगली पेशी पर लड़की के बाप ने पुलिस के मार्फत केस उठा लिया । अदालत को ज्यादा परेशानी नहीं हुई । मुकदमा खतम । लड़के न्यायिक हिरासत से वापस आ गये । और उछलने -कूदने - खेलने लग गये । इस बार नेताजी ने भी काफी सावधानी से दांव खेला था ,क्योकि चुनाव सर पर थे । कल्लू जैसा कार्यकर्ता मिल गया । मुसलमानों के वोट के लिए कम्पाउण्डर फिर फिट था और शक्लाजी ब्राहमणों के वोट दिलाने में माहिर थें ,नेताजी जीत के प्रति आश्वास्त थे , मगर नियति को कुछ और ही मंजूर था ।
अचानक नेताजी को राजधानी से बुलावा आ गया । गठबन्धन सरकारों का यही दुर्भाग्य होता है ,उन्हें स्वयं पता नहीं चलता कि यह विकलांग गठबन्धन कब तक चलेगा । जैसा कि नियम है सिजारे की हांडी हमेशा चौराहे पर फूटती है , और नेताजी राजधानी पहुॅचे तब तक हांडी फूट चुकी थी । जूतों में दाल बंट चुकी थी और सरकार अल्पमत में आ गई थी । सदन के अध्यक्ष ने बहुमत सिद्ध करने के निर्देश मुख्यमंत्री को दिये । मुुख्यमंत्री जानते थे कि बहुमत है ही नही ंतो सिद्ध कैसे करेंगे । तमाम जोड़ - तोड़ - अंकगणित और संख्या बल के सामने वे नतमस्तक थे । उन्हें आजकल में स्तीफा देना था ,मगर कोशिश करने में क्या हर्ज है ,अतः केबिनेट की बैठक बुलवा कर विधान सभा का आपातकालीन सत्र बुलाने का निर्णय ले लिया गया । हमारे कस्बे वाले नेताजी का उपयोग कुछ एम. एल. ए. को तोड़ने में किया जाना था । नेताजी ने अपने संभाग के एस. सी. एस. टी. ओ.बी. सी. व महिला एम. एल. ए. की एक मिटिंग बुलाई । पांच सितारा होटल में सर्वसुविधा युक्त इस मिटिंग के बाद सभी विधायको को एक रिसोर्ट में नजरबन्द कर दिया गया ताकि कोई इधर -उधर न हो । मगर विधायकों कौ कोन रोक सकता था। विपक्षी पार्टी ने मीडिया में हल्ला मचाया । विधायको को छोड़ा गया। खाने - पीने -उपहार आदि में लाखों का खर्चा आया । लेकिन एक फायदा हुआ जो कीमती नकद उपहार दिये गये उन्हे कैमरे में कैदकर लिया गया । इस सीडी के उपयोग से मुख्यमंत्री जी ने विधायको को बलेक मेल किया और सदन में विश्वास मत पर बड़े आत्मविश्वास के साथ भापण दिया । कुछ भापण का प्रभाव कुछ नेताजी की करामात सरकार एक वोट से बच गई । विधानसभा अध्यक्ष का यह वेाट सरकार को बचा गया । मुख्यमंत्री ने नेताजी की पीठ थपथपाई । नेताजी ने अपना टिकट का रोना रोया ।
‘ सर ! मेरा खेत्र तो परिसीमन में आ गया है ?अब मेरा क्या होगा ।
‘ होना - जाना क्या है ? किसी दूसरे खेत्र से प्रयास करना । '
‘ अन्य खेत्र से जीतना मुिश्कल है । '
‘ जीत हार तो जीवन में लगी ही रहती है ?
‘ कोई और रास्ता बताईये । देखिये सरकार बचाने में मेरे लोगों के लाखों रूपये खर्च हो गये ।
‘ तो क्या हुआ श्श्ाराब लाबी और भूमाफियाओं ने आपके माध्यम से सरकार को करोड़ो का चूना लगाया है ।
‘ सर ! लेकिन मेरे राजनीतिक जीवन के लिए कुछ तो करें । मैं खेत्र में जाकर क्या मुंह दिखाउूंगाा ।
‘खेत्र तो परिसीमन में चला गया है। तुम एक काम करो ।
‘ कहिये ।
यदि अगले चुनाव में भी हम जीते तो तुम्हें राज्यसभा में भेजने की कोशिश करेगें । तब तक तुम संगठन में काम करो ।
‘ संगठन में तो पहले ही दूसरे गुट का कब्जा है ।
त्ो उस गुट को उखाडने की कोशिश करो । देखो हर पार्टी के अ्रन्दर कई पार्टियां होती है और ये कई पार्टियां मिलकर सत्ता या सगंठन को आपस में बांट लेती है ।
‘ मैं समझा नहीं ।
देखो इस राजनैतिक कूटनीति का बड़ा महत्व है । कांग्रेस में कई कंग्रेस भाजपा में कई भाजपा ,कम्यूनिस्टो में कई पार्टियां ,ये सब सत्ता और सगंठन के खेल है । इन्हे ख्ेालो । आनन्द करो मैं पार्टी अध्यक्ष व हाइकमाण्ड से बात करके तुम्हे पार्टी में कोई पद दिला दूगां । चुनाव का समय है सगंठन में अच्छे आदमियों की बड़ी जरूरत है ।
जैसा आप ठीक समझे । मगर बुर्जुग नेताओं के सामने मेरी क्या चलेगी ।
‘ चलेगी । हम नये ,युवा ,उत्साही लोगो को टिकट देने के प्रयास करेंगे । हम कोशिश करेंगे कि सत्तर पार के शिखर टूट जाये ।
‘ लेकिन ये लोग पार्टी को डुबा देने की हैसियत रखते हैं ।
‘ प्रजातन्त्र में जीत - हार चलती रहती है ।
न्ेाताजी ने मुख्यमंत्री जी के चरण स्पर्श किये । अन्दर जाकर भैाजी को प्रणाम किया और पारिश्रमिक स्वरूप्ा अटैची लेकर वापस कस्बें में लौट आये । कस्बे में कल्लू मोची के लड़के ने चुनावी बिगुल परिसीमन के आधार पर बजा दिया था । उसे माधुरी विश्वविधालय के छात्रों ,कर्मचारियों ,अध्यापको ,व जातिवादी समर्थन प्राप्त था । यह देख सुन कर नेताजी के पांव तले की जमीन खिसक गई ।
कल्लू पुत्र राजनीति में नया नया था । मगर युवा था । जोश था । तकरीर करने लग गया था । सुबह समाचार पत्र ,सम्पादकीय व राजनीतिक विश्लेपण पढ़ कर बहस कर लेता था । पार्टी कार्यालय में चक्कर लगाता रहता था । पार्टी के स्थानीय अध्यक्ष की गोद में बैठने को तैयार था । विपक्षी दलों के वक्तव्यों के खिलाफ अपने वक्तव्य छपवाने लग गया था । सुबह समाचार पत्र में छपे वक्तव्य पढता ,दोपहर में प्रेस नोट तैयार कर श्शाम को छपने दे आओ । प्रेस - विज्ञप्ति के सहारे नेता बनना आसान था , कभी कदा कोई छोटा अखबार फोटो भी छाप देता था । कल्लू पुत्र राजनीति के दांव पेंच सीख रहा था । नेता पुत्र अब उसका अनुगामी बनने को तैयार था । नेताजी रूपी सूर्य अस्ताचल को जा रहा था । शक्ला जी का बेटा नाकारा था और लड़की के काण्ड़ में शहीद हो गया था । कम्पाउण्ड़र का मुस्लिम बेटा अपने बाप के ठीये पर जमकर बैठने लग गया था ।
चुनाव के चक्कर और चुनावी चकत्लस शरू हो गई थी । कई राजनैतिक पार्टियों को उम्मीदवार नहीं मिल रहे थे । अन्य पिर्र्ार्टयों के पास एक - एक पद हेतु कई - कई उम्मीदवार थे । कुछ धूर्त उम्मीदवारो ने कई पार्टिर्यों से सम्पर्क साध रखा था । कांग्रेस से टिकट नहीं मिले तो भाजपा स ेले लेगे । दोनो मना कर दे तो तीसरे मोर्चे की शरण में जाने को तैयार बैठे थे । कुल मिलाकर टिकट प्राप्त करना ही सिद्धान्त था । यहीं सिद्धान्तवादी राजनीति थी । सब तरफ से निराश ,हताश कमजोर उम्मीदवार निर्दलीय चुनाव लड़ने को तैयार थे , ताकि कुछ चन्दा कर अगले चुनाव तक का चणा -चबैणा इकठ्ठा कर सके । चारों तरफ चुनावी बादल मण्डरा रहे थे । मानसून तो बिना बरसे चला गया था ,मगर चुनावी मानसून की वर्पा होने की पूरी संभावना थी और राजनीति के नदी ,नाले ,तालाब ,पाेखर ,झीलें ,कुए ,बावड़ियेा के भरने की संभावना उज्जवल थी।
समझदार बूढे राजनेता तेल और तेल की धार देख रहे थे । युवा उत्साही नेता सीधे लाल पट्टी व लाल बत्ती वाली गाड़ी देख रहे थे । सब सपने देख रहे थे । सपनों को पूरा करने के लिए रात रात भर जाग रहे थे । चुनावी बाढ़ की आंशकाएं बढ़ गई थी ।
ऐसे ही अवसर पर कल्लू पुत्र ने कुछ आर्थिक संयोजन हेतु एक विराट - विशाल पुस्तक मेले का आयोजन एक स्थानीय अखबार को मीडिया पार्टनर बनाकर कर डाला । एक स्थानीय चेनल को चेनल पार्टनर बना दिया । कल्लू पुत्र का किताबों से कोई लगाव नहीं था । स्मारिका , स्टाल ,बेच बाच कर राशि एकत्रित करना ही उसका उधेश्य था । उसने स्टाल बेचे । खाने -पीने के स्टाल्स सबसे पहले और सबसे मंहगे बिके । पुस्तक प्रकाशकों ,विक्रेताओं ने ज्यादा रूचि नहीं ली । मगर स्थानीय पुस्तकालयों द्वारा थोक खरीद की संभावना दिखने पर वे भी आये । स्टाल लग गये । निर्धारित समय पर पुस्तक मेला खुल गया । बुद्धिजीवियों ने भी मेले में आने में कमी नहीं रखी । पुस्तके खूब थी । मगर पुस्तको के विपय अलग थे। साहित्य के बजाय केरियर ,कुकरी ,प्रबन्धन ,कम्यूटर आदि से बाजार अटा पड़ा था । कुछ स्टाल्स पापड़ ,बड़ी ,मंगोड़ी ,अचार ,चाय ,नमकीन ,तिलपट्टी आदि की थी ,और उनपर बड़ी भारी भीड़ थी । लेाग बाग घर जाते समय पुस्तकों के बजाय ये ही चीजे खरीद रहे थे । खाने पीने के स्टालो पर भी बड़ी भारी भीड़ थी । पानी पूरी ,दहीबड़े ,कचौडी ,छोले - भटूरे के बीच बेचारी किताब को कौन पूछता ?
पुस्तके न के बराबर बिकी । बहुत सारे प्रकाशक घाटे में रहे । जो गोप्ठियॉं ,सेमिनार ,आदि हुए उनमें से गजल ,पुस्तकों की फैशन परेड़ आदि में बड़ी धूम रहीं । ड़ंास कार्यक्रमों से पुस्तक मेले की सफलता आंकी गई । पुस्तकों के संसार में समोसेा , दहीबड़ो का योग दान अविस्मरणीय रहा । मगर कल्लू पुत्र कमजोर नहीं था । वो भावी नेता था । नेताजी का रोंद कर आगे जाना चाहता था । अतः उसने सरकारी खरीद की घोपणा करवा दी । प्रकाशकों ,विक्रेताओं की बांछे खिल गई । एक ही पुस्तक कई प्रकाश्ाको -विक्रेताओं ने सबमिट कर दी । निर्णय लेना मुश्किल हो गया । जो पुस्तक मेले में दस प्रतिशत कमीशन पर मिल रही थी वो ही पुस्तक बाहर बाजार में पचास प्रतिशत कमीशन पर उपलब्ध थी । कुछ बड़े प्रकाशक अधिकतम् मूल्य पर पुस्तक बेचना चाहते थे , सरकारी खरीद में घोटालों की संभावनाएं बहुत बढ़ गई थी ।
पुस्तक क्रय समिति और पुस्तक चयन समिति बनी ,मगर निर्णय लेने में सफल नहीं हुई । लेकिन आखिरी दिन सब ठीक - ठाक हो गया क्योंकि सभी पुस्तक विक्रताओं के यहॉ से सरकार ने कम से कम एक पुस्तक अवश्य खरीद ली । विरोध की गुंजाईश ही समाप्त हो गई । सब खुश । सब का खर्चा - पानी निकल गया । पुस्तक लेखक खुश । प्रकाशक खुश । पुस्तकालय - अध्यक्ष खुश । क्रय समिति खुश । पुस्तक चयन समिति खुश क्योंकि सब का मुंह बन्द । लेकिन जिन लेखकों की कम पुस्तके क्रय हुई वे भला कैसे चुप रहते , लेखक संगठनो के नाम पर अखबार बाजी हुई । इसी प्रकार जिन प्रकाशकों को ज्यादा लाभ मिला ,छोटे प्रकाशको ने उन्हें लपेटा ,लेकिन धीरे धीरे सब श्शान्त हो गया । लोग सब भूल गये उन्हे केवल फैशन परेड में पुस्तक हाथ में लेकर रैम्प पर चलती कन्याओं के ठुमके याद रहे ।
पुस्तक संस्कृति का श्शायद यह अन्तिम अध्याय था ।
पुस्तके जीवन है । पुस्तके मशाल है । हर पुस्तक कुछ कहती है । हर पुस्तक जीवन जीने की कला सिखाती है । पुस्तक प्रेम जीवन से प्रेम है । ज्ौसे नारे जो सैकड़ो वर्षों से हवा में पुस्तक मेले में तैरते रहते थ्ेा वे सब हवा हो गये । उूपर से चैनल ,टी. वी. इन्टरनेट कम्यूटर आदि ने पाठको का समय छीन लिया । चैन छीन लिया ।
पुस्तको में समोसे ,दहीबड़े ,और पानी पुरी घुस गई । साहित्य के बजाय कुकरी ,फिटनेस ,कताई - बुनाई साहित्य , सेक्स ,हिन्सा ,आदि की पुस्तकेा ने बाजार को ढ़क लिया ।
सब कुछ बदल गया । पुस्तक क्रान्ति एक भ्रान्ति बन गई । सरकारी खरीद के कारण पुस्तक प्रकाशको के गौदाम से निकल कर सरकार के गौदामों में बंद हो गई और पाठक तरसते रहे ।
शहर को आंतकवादियों ने अपनी हिट सूची में श्शामिल कर लिया था । समाचार पत्रों , ईमेल आदि के द्वारा आंतकवादियों ने खुले आम धमकियां देना शरू कर दिया गया था । पुस्तक मेले में भी एक लावारिस बेग एक साइकल पर पड़ा मिला था । जिसे पुलिस ने कब्जे में कर लिया था ।
पिछले दिनों जयपुर ,बेंगलौर ,हैदराबाद ,अहमदाबाद ,सूरत ,बड़ौदा में भी आंतकी कार्यवाहियां हुई थी । पुलिस ,प्रशासन ,सी. बी. आई. आई. बी. आदि सरकारी एजेन्सियां नाकारा साबित हो रही थी । सरकार के रटे रटाये वक्तव्य जारी हो रहे थे । दोपियों को बख्शा नहीं जायेगा । दोपियों को पकड़ा जायेगा । मीडिया सरकार की जबरदस्त खिचांई करता ,दूसरे दिन जीवन वापस उसी पुराने ढर्रे पर चल पड़ता । मीड़िया जनता की सहनशीलता की तारीफ करता मगर इस तारीफ से क्या हो ? जिस परिवार ने अपना खोया है उससे पूछेा दर्द क्या होता है ? आंतक क्या होता है?खून क्या होता है ? कुछ दिनो में सरकार चेक बांट देती । चेक बांटते नेताओं के समाचार -चित्र चैनलों ,समाचार पत्रों में छप जाते और बस हो गया आंतकवाद से मुकाबला । फिर वहीं सरकार की ,नौकरशाही की राजनीति की बेढगी चाल । एक तरफ चुनाव में टिकटों की मारामारी और दूसरी तरफ आंतक की निशाने बाजी ।
- बेचारेशक्लाजी की कार ऐसे ही माहोल में चौराहे पर खड़ी थी ,वे पास में खड़े थे कि एक भयकंर विस्फोट हुआ । रजिस्टार साहब और उनकी कार के परखचे उड़ गये । दूर दूर तक खून केवल लाल खून ....। एक के बाद एक शहर में धमाके ........। चीख पुकार .....। घायल .....। अफवाहे .....। समाचार .........। शहर कांप उठा । सरकारी कर्मकाण्ड । पुलिस की घेरा बन्दी । मृतकों को मुआवजा । घायलों का ईलाज । स्वयंसेवी सस्थाओं का योगदान ......। शक्लाजी के नाम पर विश्वविधालय में श्शोक । श्शोकसभा । वक्ताओं ने अपनी अपनी बात कहीं । दर्द की सबसे बड़ी चट्टान शक्लाईन की छाती पर आई । लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी । आंतक के साये में जीना क्या और मरना क्या ? हर तरफ एक अपना वीराना । कल तक जो चाटुकार थे । धर के बाहर हाथ बांधे खड़े रहते थे ,वे ही नजरे फेर गये । अविश्वास का अन्धेरा छा गया । मगर आशा की डोर नहीं छोड़ी । शक्लाईन कर्मकाण्ड़ से निपट कर कार्यालय जाने लग गई । बेटा अलग फंसा हुआ था । लेकिन जीवन तो जीना था । जीवन है तो परेशानियां भी है । उसने सोचा विधवा जीवन की यहीं कहानी ,सूनी कोख और आंखो में पानी । '
ऐसे ही दुरूह समय में शक्लाईन को ड़ाक से एक पुस्तक मिली । जिसे पढ़कर उन्हें अच्छा लगा । पुस्तक आनन्द का सागर थी । पुस्तक एक िवधवा की इच्छाओं पर आधारित वृहद उपन्यास की शक्ल में थी ।
श्री मती शक्ला ने सोचा ईश्वर क्या हैं ? भगवान कौन हैं ? साधु - सन्त ,सन्यासी ,ऋपि ,मुनि ,महाराज ,कथा- वाचक ,प्रवचनकार ,र्कीतनकार सब कौन है और क्या चाहते हैं । सब श्शायद अपनी अधूरी इच्छाअों की पूर्ति के लिए धर्म - अध्यात्म का मार्ग ढूढते हैं । यह मार्ग भी भौतिकता से भरा पड़ा है । इसमें भी कुकर्मी है और सब कुछ छोड़ - छाड़ कर सन्त - महात्मा बनने वालों में भी धन -ऐपणा ,यश - ऐपणा और पुत्र -ऐपणा किसी न किसी रूप में जीवित है । इन्ही ' ऐपणाओं की पूर्ति के लिए वे जगत में नाना छल ,प्रपन्च करते हैं । करते रहेंगे । करते थे ।
श्री मती शक्ला ने फिर सोचा छोटी छोटी इच्छाएं ,छाेटी छोटी कामनाएं ,छोटी छोटी बाते मगर जीवन को ये कितना बड़ा बना देती है ।
साझ उदास थी । श्री मती शक्ला उदास थी । बेटा सांयकाल चला जाता । रात को तीन - चार बजे खा पीकर या पी खाकर आता और बाहर वाले कमरे में सो जाता । नौकरी वे छोड़ चुकी थी । अकेला पन । उदासी । और एकान्त में पुराने दिनों की यादों को ताजा करना । वे खिड़की से उठकर अपनी टेबल पर आ गई । अचानक ख्याल आया जीवन के बचे हुए समय में मुझे क्या करना चाहिये । यही सब सोचकर उन्होने एक कागज पर अपनी छोटी छोटी अपूर्ण इच्छाओं को लिखना शरू किया । प्रारभिक जीवन में जो कुछ छूट गया था उसे पकड़ने की कोशिश की । उसे पूरा करने की एक जिद श्री मती शक्ला में दिखाई दी । उन्होने लिखा -
1 . एक श्शानदार जूतों की जोड़ी खरीदनी हैं ।
2 . कढ़ाई ,बुनाई ,सिलाई जो बचपन में नही सीख सकी उसे शीघ्र सीखने की कोशिश करूंगी ।
3 . किसी स्वयं सेवी सस्ंथा ,स्कूल के बच्चों के साथ दोपहर का भोज और बच्चों की भोज में सहायता करना चाहूॅगी ।
4 . जीवन के बारे में एक अच्छी बात को खोज करने का प्रयास करूगी ।
5 . जीवन में हॅंसने के क्षणों को प्राप्त करने के लिए प्रयास करूगीं ।
6 . गाना गाने का प्रयास फिर से करूगीं एक नृत्य सीखने का प्रयास भी करूगीं ।
7. एक पियानो खरीद कर गाने - नाचने का अभ्यास करूगीं ।
8. बहुत अधिक यात्राएं करूगीं मगर धार्मिक यात्राओं से बचने का प्रयास करूगीं ।
9. किसी पार्क में जाकर ढ़लते हुए सांयकालीन सूर्य को तब तक निहारूगीं जब तक वो अस्त नहीं हो जाता ।
10. प्रेमचन्द का सम्पूर्ण साहित्य पुनः पढूंगी ।
11. जूड़ो - कराटे िसखूगीं । योगाभ्यास करूगीं अपना वजन नहीं बढ़ने दूगी ।
12. शेप भौतिक जीवन आनन्द से गुजारूगी ।
श्री मती शक्ला ने ये इच्छाएं कागज पर उतार ली । उन्हें बार बार पढ़ने लगी । उन्हें लगा कि जीवन कितना ही छोटा हो , व्यक्ति उससे बहुत कुछ प्राप्त कर सकता है । हर दिन किसी कोने में छुपा बैठा अन्तर्मन उसे कोई न कोई प्रेरणा अवश्य देता रहता है । उन्हें बेटे की कोई फिकर नहीं थी । जवान है । पैसा है । कुछ भी करो । वैसे भी नई पीढी को क्या चाहिये । ऐश । उन्होनें फिर मन में कहा बेटे डू ऐश बट डुनोट विकम ऐश .............। श्री मती श्श्ुाक्ला ने विचारो को मोड़ा । साझ गहरा गई थी । सर्दी बढ़ने लग गई थी । वे कमरे में आ गई । तभी टेलीफोन की घंटी बजी
‘ हेलो ।'
‘ हेलो । मैं अस्पताल से बोल रहा हूॅ । आपक बेटा दुर्धटना में घायल हो गया है । हालत नाजुक है । आप जल्दी आये ।
श्री मती शक्ला के हाथ - पांव फूल गये । वे अस्पताल भागी । लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी ,शुक्ला जी की तरह उनका बेटा भी उन्हें अकेला छोड़ कर चला गया था । वो रोई । पीटी । लेकिन सब सामाजिक दायित्व निभाये ।
श्री मती शक्ला इस दोहरे दुख से अन्दर तक टूट गई थी । मगर हिम्मत रखी । वे फिर उसी खिड़की के पास आकर खड़ी हो गई ।
उदास संाझ । उदासी से भरपूर बादल । सूर्य अस्त हो रहा था । क्षितिज पर उदासी थी । श्री मती शक्ला ने आंखों में घिर आये आंसूओं को पोंछा ओर टेबल पर फड़ फड़ते कागज को पुनः पढ़ा । उनकी अधूरी इच्छाओं का कागज लगातार फड़फड़ा रहा था ।
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िवशाल का प्रापर्टी बेचने - खरीदने का दफतर । दफतर में कर्मचारी । सब खुश । मानव संसाधन विभाग ने एक ई -चिठृठी भेजी ,कल कार्यालय में आधा दिन का अवकाश । लंच के बाद पार्टी । पार्टी में सब का आना-होना आवश्यक । सब लंच यहीं करेगें । ई चिठ्ठी ने सब को खुश कर दिया । मस्ती का माहौल हो गया । लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है ,सब यह जानने को बैचेन थे , मानव संसाधन विभाग भी बेताब था ।
आखिर में विशाल की निजि सचिव ने रहस्य खोला - अपनी कम्पनी के दस वर्प पूरे हो गये है । पिछली बार आयकर विभाग ने जो सर्वे किया था उसमें भी कम्पनी को क्लीन -चिट मिल गई है ।
‘ मेडम क्लीन चिट दिलाने में लेखाधिकारी का भी तो योगदान रहा होगा ।
‘ हां हां बिलकुल ' सब की मेहनत से सब ठीक ठाक हो गया है । विशाल सर ने वित्त मंत्रालय ,दिल्ली तथा कम्पनी मंत्रालय के उच्च अधिकारियों से बात की । '
‘ अच्छा फिर '
‘ फिर क्या । मंत्रालय के उच्च अधिकारियों के सामने स्थानीय आयकर वाला क्या बोलते । बेचारे चुप लगा गये । '
‘ लेकिन इस चमत्कार में कम्पनी का काफी पैसा खरच हो गया होगा ।
‘ हां हां क्यों नहीं । पैसा कम्पनी के हाथ का मेल है । '
‘ मैडम इस शभ समाचार में क्या ‘ कम्पनी अपने कर्मचारियों के लिए भी कुछ करेंगी । '
‘ क्यों नहीं कम्पनी अपने वफादार कर्मचारियों को कैसे भूल सकती है । ' कर्मचारियों को अतिरिक्त कृपा - राशि का भुगतान किया जायेगा ।
‘ और । '
‘ ओर । और जिन लोगो ने कम्पनी के खाते बनाये । लेखा ,आडिट सीए. आदि को अतिरिक्त वेतन व वृद्धि दी जायगी । हर -एक को कुछ न कुछ मिलेगा । विशाल सर पार्टी में घोपणा करेंगे ।
पार्टी का दिन आ गया । सब सजे - धजे दफतर में पहुॅच गये । लंच के पहले भी कोई काम- धाम नहीं हुआ । बादमें तो पार्टी थी ही । कर्मचारी विशेप कर महिला कर्मचारी बहुत खुश थी , कुछ तो अपने लाड़ले बच्चों को भी पार्टी में ले आई थी । पार्टी शरू होने के ऐन पहले विशाल सर श्शानदार सूट में अवतरित हुए । कर्मचारियों ने तालिया बजाकर उनका स्वागत किया । स्वागत भापण में विशाल ने कहा -
मित्रों ' आज से ठीक दस वर्प पहले मैं गांव से यहां आया था । छोटी - मोटी दलाली का काम करता था । ईश्वर पर मुझे अटूट विश्वास था । मैंने जमीनो के धन्धे में हाथ डा़ला । भगवान ने मेरा हाथ पकड़ा । मैंने स्थानीय नेताओं की मदद से पहली टाउन शिप बनाई । बेची । विकास प्राधिकरण , शहरी विकास विभाग , नगर निगम सभी को यथा योग्य नेगचार दिया । भेंट पूजा चढ़ाई ,प्रसाद बांटा । हर पत्रावली पर ,पेपर वेट रखा । चान्दी के पहिये लगवाये और आज इस कम्पनी का यह स्वरूप्ा आप देख रहे है ।
एक ओर खुशखबरी आप सभी को देना चाहता हूॅ ' सेज का जो प्रोजेक्ट हमने भेजा था उसे पर्यावरण मंत्रालय से अनापत्ति प्रमाण पत्र मिल गया है । शीघ्र ही आगे की कार्यवाही होगी । सभी ने फिर तालियां बजाई । विशाल ने फिर घोपणा की
‘ कम्पनी के सभी व्यक्तियो को अतिरिक्त बोनस के रूप्ा में राशि मिलेगी । सब अपने चेक ले । पार्टी का आनन्द ले ।
पार्टी की बहार हो गई । कर्मचारियों की मौज हो गई ऐसे में कर्मचारियों में खुसर - पुसर शुरू हुई ।
‘ अरे इस विशाल से क्या होता जाता है? सब ससुराल वालो की कृपा है ।
‘ पूरा घर जमाई है । '
ल्ेकिन खूब पैसा बना रहा है ।
ब्ेाचारे कर्मचारियों को मामूली बोनस। क्या करे । अपनी अपनी किस्मत लेकिन दस वर्प में फर्श से अर्श तक सफर तय करना आसान नहीं ।
‘ सर पर नेता और अफसर हो तो सब कुछ आसान हो जाता है ।
ल्ेकिन देखो कम्पनी की जनसम्पर्क अधिकारी को कितनी लिफट दे रखी है ।
‘ बेचारी चारों तरफ सम्बन्ध बनाये रखती है । सुना है आयकर वाले मामले में भी बड़ी दौड़ भाग की थी ।
‘ हां हमने तो ये भी सुना हैकि सारा लेन - देन इसी ने किया । '
‘ तो बीच में .......।
अब थोड़ा बहुत तो हर जगह चलता है । कम्पनी को करोड़ों की बचत -लाखों का खरचा । सब ठीक ही है । '
‘ और फिर हमें क्या ? हम कम्पनी के मामूली कर्मचारी है । समय से काम समय से दाम । लेकिन सेज तो दस हजार करोड़ का प्रोजेक्ट होगा ।
‘ हां इतना तो होगा हीं ।
फिर तो कम्पनी स्टाक मार्केट में जायेगी ।
‘ और भी अच्छी बात है ।
चलो पार्टी में खाते हैं ।
कर्मचारियो की चकचक चलती रहती है । पार्टी भी चलती रहती है।
‘ ये लड़कियां काम तो कुछ करती नही ंहैं ।
‘ खूब काम करती है भाई ,लेकिन दफतर में चहकती रहती है । अच्छे कपड़े पहन कर आती है ,इस कारण हम सभी भी स्मार्ट बन कर आते हैं । ये काम क्या कम है? और महिलाएं .............पार्टी में उन से ही रौनक होती है । एक अन्य कौने वे भी खिलखिला रही है । बितयां रही है । फैशन ,माडल , फिल्म ,ज्वेलरी ,कपडों ,सिरियलो पर अत्यन्त गम्भीर चर्चा कर रही है । म्यूजिक बजा । पांव थिरके । डा़स हुए । पार्टी देर रात तक चलती रही ।
िवशाल जल्दी चला गया था मगर उसका दिल बैचेन था । ये सफलताएं किस कीमत पर ? ये सब क्यों ? शीर्प पर रह कर अकेलापन । उदासी । वह सोचता सोचता कब सो गया उसे खुद पता नहीं ।
कस्बे के छोटे अखबार कभी कभी बड़ा काम कर देते थे ।इन अखबारों को सामान्यतौर पर लीथडे - चीथड़े पेम्फलेट ,दुपन्नीया ,चौपन्नीया कहने वाले पाठक भी जब कभी कुछ अच्छा पढ़ लेते तो कृताथ्र्ा हो जाते । पत्रकार - सम्पादक स्वयं को दैनिक ,साप्ताहिक ,पाक्षिक या मासिक का मालिक सम्पादक बनाते और सफेद झक्क कपड़ेा में रहते । डनहिल सिगरेट पीते ,महंगे होटलों में महगी शराब और महंगे डीनर करते । गम उनको भी बहुत होते थे मगर आराम के साथ । प्रजातन्त्र व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का असली मजा तो कस्बाई अखबार ही लेते थे ।
एक ही प्रेस से छपते पच्चीसों दैनिक ,साप्ताहिक ,पाक्षिक एक - दो पन्नों के ये अखबार स्थानीय नेताओं ,अफसरों ,व्यापारियों ,उधोगपतियों आदि का भविप्य ,भूत ,वर्तमान बनाने - बिगाड़ने - संवारने का महता काम करते थे । एक मित्र सम्पादक ने राज की बात खोली ।
‘ यार मेरा तो साप्ताहिक पत्र है। कस्बे के बावन बड़े , प्रतिप्ठित ,इज्जतदार लोगों की सूची बना रखी है , रविवार सुबह किसी एक को फोन करता हूॅ ,और कहता हूॅ , मेरा खरचा इतना है और अखबार का इतना । सोमवार सुबह या अधिक से अधिक श्शाम तक सारी राशी मुझे मिल जाती है । अखबार और घर का काम चलता रहता है । मैं सोमवार का व्रत रखता हूॅ । पीने - खाने ,शबाब से परहेज करता हूॅ ,मगर व्रत पानी से तोड़ता हूॅ । सब ठीक - चलता रहता है । सम्पादकजी ने आगे कहा '-यार साल में एक व्यक्ति का नम्बर एक बार आता है ,काेई मना नहीे करता । इस प्रकार मै काली लक्ष्मी का सदुपयोग कर लेता हूॅ । वैसे भी मीडिया इज कम्पलीटली मैनेजेबल । कह कर सम्पादक जी ने अपना गिलास खाली कर दिया ।
इस सप्ताह के लिए सम्पादकजी ने विशाल को फोन किया था ,मगर किसी कारण वश या अहंकार वश या इमानदारी के चलते विशाल सोमवार श्शाम तक सम्पादकजी की सेवा करने में असमर्थ रहा । अगला अंक जो छपा वो विशाल के सेज प्रोजक्ट के कारण किसानाे में आक्रोश पर केन्द्रित था । वैसे किसानों में आन्दोलन ,आक्रोश नहीं था , मगर सम्पादक जी ने अपने तथा अन्य पत्रों में इस समस्या को इतना बढ़ा -चढ़ाकर बताया कि सेज में निवेश को आतुर उधोगपति पीछे हट गये । एक कम्पनी ने तो अपना उधोग अन्यत्र लगाने की घोपणा कर दी ।
एक किसान ने अपनी जमीन जबरन ग्रहण करने पर आत्महत्या की धमकी दी । छुट भैया नेता अपनी फसल काटने लगे । ़ ं मीडिया ने मामला स्थानीय ,से प्रादेशिक और प्रादेशिक से राप्टीय कर दिया ।विशालको अपनी गलती का अहसास हुआ । मगर अब क्या हो सकता था ।
ऐसी पवित्र स्थिति में कुछ अपवित्र कार्य करने पड़ते हैं । विशाल पत्नी के साथ नेताजी के बंगले पर हाजरी बजाने पहुॅचा । नेताजी ने मिलने से मना कर दिया , विशाल के पांव तले की जमीन खिसक गई । इधर निवेशकों के भाग जाने से विशाल की हालत खराब हो गई । विशाल ने राजधानी के अपने तारों को हिलाया । परखा । जांचा । कुछ ने आश्वासन दिया । कुछने वायदे किये । कुछ ने अपनी कीमते बताई । कीमंत सुन कर विशाल फिर गच्चा खा गया । िस्थ्तियां इतनी बिगड़ जायेगी ऐसा विशाल को पता न था । उसने फिर माधुरी की सेवा में हाजरी दी । माधुरी ने भी आश्वासन ही दिये । उसे भी जो जमीन मिली थी वो वादे के अनुरूप्ा नहीं थी । लेकिन मुसीबत में पड़े विशाल के प्रित कुछ दया भाव कुछ ममता और कुछ भिवप्य को ध्यान में रखकर वे विशाल को लेकर नेताजी की कोठी पर हाजिर हुई ।
न्ेाताजी मिले । मगर विशाल की तरफ नहीं देखा । विशाल ने चरण छू लिये । नेताजी का दिल पसीजा ।
‘ सर मुझे इस मुसीबत से बचाईये ।
‘ ये तुम्हारा खुदका किया - धरा है । अरे तुम्हारी कम्पनी इतना कमा करी रही है । कुछ दान ,पुण्य ,भेंट ,नेग -चार ,प्रसाद बांटा करो । बेकार में तुमने एक बुजुर्ग , वयोवृद्ध सम्पादक को नाराज कर दिया । मुझे सब पता है । तुम ने गलती की है ।
विशाल ने चुप रहने में ही बहादुरी समझी ।
माधुरी ने भी उसे चुप रहने का ही संकेत किया ।
‘ अब क्या होगा ! ‘ सर ?'
‘ हेागा मेरा सिर ! '
‘ किसी छोटे किसान से यह वक्तव्य दिलाओं कि सेज में मेरे दो लड़को को नौकरी मिली थी , यदि सेज चला गया तो मैं ओर मेरे जैसे सैंकउ़ो लोग बर्बाद हो जायेंगे । भूखे मर जायेंगे । मुआवजा कितने दिन चलेगा । ' '
और ! ......
और क्या ऐसे सौ -पचास लोगो को एकत्रित करके जुलुस निकलवाओ ,धरना दो , प्रदर्शन करो । मीडिया - अखबारो में अपनी बात पहुॅचाओं । ' '
धीरे धीरे समाज की समझ में आना चाहिये की सेज आवश्यक है , यदि ये बात समझ में आ गयी तो सेज को सरकार भी पुनः समर्थन पर विचार करेगी ।
हां ये कोशिश मैं कर लूंगा । विशाल बोला ,मगर माधुरी ने कहा '
‘ ये सब आसान नहीं है सर ।'
ये बात भी फैलाओं कि सेज से एक लाख रोजगार मिलेंगे । सड़क ,भवन ,गार्डन ,माल ,मल्टीपलेक्स बनेगे । जीवन स्तर उूंचा उठेगा । ''
ल्ेकिन ये राजनैतिक पार्टियों के वक्तव्य ?
‘ ये सब ऐसे ही चलता रहेगा ।
तुम पार्टी फण्ड में पैसा जमा करा कर मुझसे बाद में मिलना । तब तक मेरे बताये अनुसार काम करते रहना । '
ये कहकर नेता जी चले गये । माधुरी और विशाल बाहर आये ।
कार में माधुरी ने भी अपनी कीमत मांग ली सेज के आ.ई टी. सेक्टर में एक विकसित खेत्र । विशाल ने हां भरी ।
विशाल ने माधुरी को छोड़ा । कम्पनी आया और छोटे किसानो को मीडिया के सामने पेश किया ।
मीडिया के दोनों हाथें में लड्डू हो गये ।
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कभी जहॉं पर कल्लू मोची का ठीया था और सामने हलवाई की दुकान थी ठीक उस दुकान की जगह पर कुछ अतिक्रमण करके कल्लू मोची के नेता पुत्र ने एक छोटा श्शापिंग मॉल बनाकर फटा फट बेच दिया । नगर पालिका सरकार ,शहरी विकास विभाग ,जिलाधीश ,खेत्र के पटवारी ,तहसीलदार ,थनेदार ,बी. डी. ओ. ,आदि टापते रह गये ं आंखे बन्द कर के बैठे रहे । कौन क्या कहता । कौन सुनता । जिसकी जमीन थी उसे खरीद लिया गया । काम्पलेक्स में एक श्शोरूम अताः फरमाया गया । सब जल्दी से ठीक -ठाक निपट गया ।
कल्लू का ठीया वैसा ही सड़क के इस पार पड़ा था । जबरा कुत्ता स्वर्ग सिधार गया था । कल्लू के ठीये पर एक नाई ने कब्जा जमा लिया । एक पुराना ध्ंाुधला कांच , एक टूटी हुई कुर्सी ,एक उस्तरा और ऐसे ही कुछ और सामान .......। दुकान नहीं हो कर भी दुकान थी । ठीये पर दिन भर में पांच - दस लोग दाढ़ी , हजामत के लिए आते । कुछ लोग वैसे ही आस -पास खड़े हो जाते । ठीया एक चौगटी का रूप्ा ले लेता । सुबह-शाम मजदूर कारीगर ,बेलदार ,हलवाई का काम करने वाले पुड़िया बेलने वाली औरते सब सुबह शाम इसी ठीये के आस पास विचरण करते रहते । श्शाम होते होते नाई का धन्धा लगभग बन्द हो जाता क्योंकि अन्धेरे में उस्तरा चलाना खतरनाक था । सुबह दस बजे से पांच -छः बजे तक कुछ ग्राहक आ जाते । आज ठीये पर विशेप रूप्ा से एक राजनैतिक दल का युवक काय्रकर्ता जनता की नब्ज टटोलने के नाम पर नाई की कुसी्र पर जम गया था । नाई ने पूछा -
सर ! दाढ़ी बनवायेंगे या कटिंग । युवानेता ने धुधले कांच में निहारा और बोला कांच तो अच्छा लगा । अबे साले चुप । हम तेरे से काम कराएंगे ।
तुम इस देश के भाग्य विधाता हो । वोटर हो । कर्ण धार हो । हम तो तुम्हें सरकार बनाने के लिए बुलाने आये है ।
‘ सर ! क्यो मजाक करते हैं । मैं एक गरीब आदमी हूॅ । लोंगो की दाढ़ी मूण्ड कर अपना गुजारा करता हूॅ । हुजूर की दाढ़ी श्शानदार क्रीम से ,नई ब्लेड से बना दूगां ।
‘ अरे छोड़ तू दाढ़ी का चक्कर । ये बता हवा किस ओर बह रही है ।
‘ हजूर कौन सी हवा ,किसकी हवा ......।
‘ अबे इतना भोला मत बन । इच्छा तो तुम्हें झापड़ मारने की हो रही है ,मगर ये साले चुनाव के दिन । ......। अच्छा बता इस बार कौन जीतेगा ।
‘ अब तक नाई समझ चुका था कि आज के दिन बोहनी होना मुश्किल है । नेताजी को नाराज करने पर पिटने का डर था । वे नगरपालिका को कह कर उसका सामान जब्त करवा सकते थे । अतः बोला
‘सर ! आप किस की तरफ है ? '
मैं तो जीतने वाले की तरफ हूॅ ।
‘ सर तो हवा भी जीतने वाले की ही बह रही है । ' जिसकी हवा वो ही जीतेगें ।
युवा नेता ने अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरा । उसने दाढ़ी से एक सफेद बाल खीचां और कुछ प्रश्न हवा में उछाले । दाढ़ी और मूंछो में प्रश्नों के पेड़ लगे हुए थे ।
ल्ेकिन सरकार किसकी बनेगी ?
कौन बनेगा मुख्यमंत्री ।
‘ अब सर इतनी बड़ी बात मैं क्या जानू ।
‘ अच्छा चल बता किसको वोट देगा । '
व्ोा तो बिरादरी की पंचायत बैठेगी । वो ही तय करेगंी और सभी एक साथ वोट छाप देंगे ।
ब्ोवकूफ ! अब छापने के दिन गये अब तो नई बिजली की मशीन में सिर्फ बटन दबाना पड़ता है ।
त्ोा बटन दबा देगें । हजूर ! नाई नम्रता की प्रतिमूर्ति बना हुआ था । उसे भी मजा आ रहा था । युवा नेता भी भविप्य में किसी राजनैतिक नियुक्ति के सपने देख रहा था ।
‘ अच्छा चल तेरी दुकान पे इतनी देर बैठा बोल क्या करेगा । चल दाढ़ी बना दे ।
नाई ने युवा नेता की दाढ़ी खुरची ,पैसे लिये और देश का भविप्य दूसरी ओर चल दिया ।
नाई थोड़ी देर ठाला बैठा रहा । बतकही करने के लिए आसपास लोग खड़े थे । बातचीत के विपय बदलते रहते थे , लेकिन कनकही के सहारे नई - नई बातें हवा में उड़ती रहती थी । नाई र्ने नाले के पास अपनी अपनी दाढ़ी का गन्दा पानी खाली किया और प्रवाह मान नाले में प्रदूपण बढ़ाया । उसे याद आया सरकार प्रदूपण से चिन्तित थी और समाज सरकार में घुले प्रदूपण से चिंितत थी । इन दोनों चिन्ताओं पर चिन्तन करने वाले चिन्तक इस बात से चिन्तित थे कि विपयों ,समाचारों और विश्लेपणों का अकाल कब समाप्त होगा । अफवाहों की दुनिया में रह रह कर लहरें उठती थी और हिलोरे लेती थी ।
प्रदूपण प्रेमी एक सज्जन बोल पड़े ‘ अब सरकार प्ार्यावरण सुधार योजना के अन्तर्गत अपने कस्बे की हवा पानी भी सुधारेगी ।
‘ क्या खाक सुधारेगी सरकार का खुद का प्ार्यावरण बिगड़ा हुआ है । एक अन्य सज्जन ने बीड़ी का सुट्टा लगाते हुए कहा
‘ और फिर पर्यावरण - प्रदूपण कोई एक ही तरह का है क्या ? सरकार क्या क्या सुधारेंगी? हर तरफ रोज नया प्रदूपण ,हवा प्रदूपण ,ण्वनि प्रदूपण ,ओजोन प्रदूपण ,साहित्यिक प्रदूपण सांस्क्रतिक प्रदूपण , राजनैतिक प्रदूपण , अफसरी प्रदूपण और सबसे उूपर भ्रप्टाचारी प्रदूपण । सरकार सफाई अभियान शरू करती है और गन्दगी प्रसार योजना लागू हो जाती है । बेचारी सरकार क्या करे ।
‘ त्ोा फिर प्रजा ही क्या करे ? ''
प्ूारे कुॅए में ही भंग पड़ी हुई है ।
अरे नहीं यह पूरी दाल ही काली है ।
‘ देखो अब अपने इस नाले को ही लो । कई बार इसको ढ़कने के टेण्डर हो गये । कागजों में ढ़क भी गया लेकिन नाला ऐसे ही बदबू दे रहा है ।
नाले को पाट कर दुकाने बनायेंगे ।
‘ लेकिन ये सब कब होगा । '
‘ जब सतयुग आयेगा ।'
‘ लोग नाले पर अतिक्रमण कर रहे है । '
‘ अतिक्रमण को संवैधानिक मान्यता दी जानी चाहिये । नाई ने बड़ी देर बाद अपनी चुप्पी तोड़ी ।
नाई बोला - अब इस कस्बे को देखो । चारों तरफ गंदगी ही गंदगी । प्रदूपण ही प्रदूपण । अतिक्रमण ही अतिक्रमण । हर तरफ जीन्स ,बेल्ट पहने नई पीढ़ी । लड़के ही लड़के । छोटे बच्चे नाले पर गंदगी फैला रहे है । उनकी पसलियां शरीर से बाहर निकल रही है । पेट बढ़े हुए है । कुपोपण के शिकार है ।
लड़को से बचो तो भिखारी । अब पांच - दस पैसे कोई नहीं मांगता । रोटी खिला दे । चाय पिला दे । आटा दिला दे । आज अमावस है । व्रत है । कुछ सैगारी दिला दे । बाबा । धरम होगा । तेरे बेटे -पोते जियेंगे । और यदि भीख नहीं मिले तो सब अपशब्दो पर उतर आते हैं ।
हां यार खवासजी ये तुमने ठीक कही । कल ही एक भिखारिन मेरे पीछे पड़ गई । नास्ता करा दो । मैंने ठेले से उसे नाश्ते के लिए ठेले वाले को पैसे दिये और कुछ ही देर बाद ठेले वाले ने अपना कमीश्ान काटकर नकद राशि भिखारिन को लौटा दी । देखो कैसा धोर कलियुग ।
हां तुम बिलकुल ठीक कह रहे हो । सरकार को भीख - प्रदूपण पर भी ध्यान देना चाहिये ।
‘ अब देखो मिन्दर में दोपहर के दर्शन को सभी सासे ,प्रोढ़ाएं आती है और पूरे रास्ते अपनी बहुओं के गीत गाती चलती है । बहुएं भी कम नहीं है , सासों के बाहर जाते ही कालोनी में सासों के खिलाफ बहू - सम्मेलन शरू हो जाते हैं । सब जानती है सास अब दो घन्टे में आयेगी । बिल्ली बाहर तो चूहे मस्त वाली बात ।
‘ हा ओर सांयकाल के दर्शनो में बूढे ,सेवा निवृत्त ,ससुर खूब नजर आते हैं ।
‘ बेचारे क्या करे । घर से चाय पीकर निकलते हैं और रात के खाने पर पहुॅच जाते हैं । तब तक फ्री है , गार्ड़न ,मन्दिर में घूमते हैं । अपने बेटे - बहुओं से परेशान आत्माएं ऐसे ही विचरण करती रहती है ।
‘ और इनके बातचीत के विपय भी ऐसे ही होते हैं ।
‘ बेटा ,लड़की सास , ससुर ,देवरानी ,जिठानी ,कंवर साहब ,पोता ,दाहिती आदि ............।
नाई अभी तक एक ग्राहक की हजामत में व्यस्त था । काम पूरा कर बोला अब हालत ये है भाई साहब कि यदि कोई मर भी जाता है तो शव -वाहन मंगवाना पड़ता है , कंधे पर जाने के दिन अब नहीं रहे । इस वाक्य के बाद एक दार्शनिक चुप्पी छा गई । और सभा को विसर्जित धोपित कर दिया गया ।
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इधर कुछ सिर फिरे लोग शहर में नये मुहावरे की खोज में निकल पड़े थे । वे पुराने मुहावरेां पर मुलम्मा चढ़ाते , उन्हें चमकाते और अपना नया मुहावरा घोपित कर देते । इस नई घोपणा के बाद वे लोग साहित्य ,संस्कृति ,कला ,विज्ञान , आदि खेत्रों के चकलाधरों में घूमते - घामते स्वयं को बुर्जुआ कामरेड या कामरेडी बुर्जुआ धोपित करते रहते । कुछ लोग बहस को और चोड़ी करने के लिए फटी जीन्स पर महंगा कुर्ता पहन लेते । कुछ लोग वाईंस डालर का विदेशी चश्मा लगाकर कार्ल मार्क्स पर अपनी पुरानी मान्यताएॅं पुनः पुनः दोहराते । समय अपनी गति से चलता । सुबह होती तो वे कहते सुबह हो गई मामू । श्शाम होती तो कहते श्श्ााम- ए - अवध का क्या कहना । इसी खीचांतानी समय में अचानक अमेरिकी बाजार में भयंकर मंदी छा गई । कई बैंक डूब गये । वित्तीय संस्थानों ने अपनी दुकाने बन्द कर दी । इस मंदी का असर देश ,प्रदेश में भी पड़ रहा था । चारों तरफ जो विकास की गंगा दिखाई दे रही थी ,वह धीरे धीरे गटर गंगा बन रहीं थी जो लोग विकास की गंगा में नहा रहे थे , उनका जीवनरस गंगा की बदबू से दुखी ,परेशान ,हैरान और अवसाद में था ।
मंदी की मार को मंहगाई की मार की हवा भी लग रहीं थी । शहर के बीचों - बीच नाई की थड़ी के पास ही लोग बाग जमा थे । पास ही एक ए. टी. एम. पर भयंकर भीड़ थी ,यह अफवाह उड़ चुकी थी बैंक दिवालिया हो चुका है । सभी जल्दी से जल्दी अपना पैसा निकालना चाहते थे । इसी मारामारी में धक्कामुक्की हो रहीं थी ।
लोगो को कुछ समझ में नहीं आ रहा था । क्या करें । क्या न करें । अफवाहों ,अटकलों को बाजार गरम था । लोगों को अफ्रीका ,नाइजीरिया ,रूस के किस्से याद आ रहे थे ।
वित्तीय संकट के इस दौर में भी नाई ,कल्लू मोची जैसे लोगों को कोई परेशानी नहीं थी क्योकि उनके पास खोने को कुछ भी नहीं था । बैंक खातो की चिन्ता भी तभी तक करते जब तक ग्रामीण रोजगार योजना के पैसे जमा होते । पैसे निकाले । काम खतम । अगली बार रोजगार मिलेगा तो सोचेगें ।
नाले के उपर कुछ कच्ची - पक्की झोपड़ पटि्टयां उग आई थी । ये गरीब लोग जिन्हें कुछ लोग बिहारी ,कुछ बंगाली और कुछ बगंलादेशी कहते थे । धीरे - धीरे शहर की धारा में अपनी जगह बना रहे थे । औरते घरो में झाडू़ ,बुहारी ,पौंचा ,बर्तन ,भाण्डे करती ओर मरद रिक्शा चलाते । मजदूरी करते । शराब पीते । अपनी ओरतों और बच्चों को पीटते और खाली समय में आवारागिरी करते । ताश खेलते । आपस में लड़ते - झगड़ते और फिर एक हो जाते । झोपड़ पटि्टयों में गरीबी थी मगर जीवन था । जिन्दगी थी । यदा - कदा वे सब मिलकर त्योहार मनाते । खुश होते रात -भर नाचते -गाते । मस्ती करते और दूसरे दिन काम पर नहीं जाते । औरते भी उस दिन छुट्टी कर लेती । दूसरे दिन पूरा परिवार नहा - धोकर रिक्शे में बैठ कर शहर घूमता -खाता -पीता मस्ती करता । कभी कभी पुलिस का डण्डा भी खाता । इन झोपडपट्टी वालों का उपयोग चुनाव के दिनों में खूब होता हर नेता चाहता कि ये वोट हमारे हो जाये । चुनाव के दिनों में रैलियों में, जुलूसों में , पोस्टर चिपकाने में ऐसे कई कामों में ये गरीब बड़े काम के आदमी सिद्ध होते । कई पढ़े लिख्रे मजदूरों ने अपने राशन कार्ड व वाटर कार्ड बनवा लिये थे ,इस कारण वे बाकायदा इस देश के वाशिंदे बन गये थे । एक मुश्त वोटो की ऐसी फसल के लिए पार्टियां उनसे एक मुश्त सौदा कर लेती थी । सौदों के लिए बस्ती में ही छुट भैये नेता को कल्लू पुत्र भावी चुनाव के सिलेसिले में पटा रहा था।
कल्लू पुत्र - ‘ और यार सुना ....क्या हाल चाल है । '
‘ सब ठीक है सर । '
क्या सर - सर लगा रखी है ।
‘ इस बार वोट कहॉं । '
‘ जहॉ आप कहे सरकार । '
‘ क्या रेट चल रहीं है । '
रेट कहॉं साहब ! दो जून रोटी मिल जाये बस ।
‘ अब एक चुनाव से जिन्दगी की रोटी तो चल नहीं सकती । '
‘ फिर '
‘ फिर क्या । '
-बोल इस बार की रेट ........।
हजार रू. प्रति वोटर ।
‘ ये तो बहुत ज्यादा है । '
‘ तो जाने दे साहब । '
‘ वैसे तेरे पास कितने वोट है । '
‘ बिरादरी के ही पांच सौ है । '
और ........।
ये पूरी वार्ता बस्ती के बाहर ही सम्पन्न हो रही थी कि अचानक बस्ती में एक विस्फोट हुआ । किसी का गैस सिलेण्डर फट गया था । मानो बम फट गया । चारों तरफ चीख - पुकार । फायर ब्रिगेड , पुलिस , प्रशासन ,ने जाने कौन - कौन । कल्लू पुत्र ने मौके का नकदीकरण करने में जरा भी देर नहीं की । तुरन्त घायलों की सेवा में अपनी टीम लगा दी । बस्ती वाले उसके गुलाम हो गये । प्रशासन से मुआवजा दिलवा दिया । वोट और भी पक्के हो गये । लेकिन कल्लू पुत्र जानता था कि एक छोटी बस्ती के सहारे विधान - सभा में नहीं पहुॅचा जा सकता । उसने अपने प्रयास जारी रखे ।
महत्वाकांक्षा की मार बुरी होती है । महत्वाकांक्षा का मारा कल्लू पु.त्र नेताजी को नीचा दिखाने के लिए राजनीति के गलियारों में , सत्ता के केन्द्रों में तथा संगठन के मन्दिरो में धूमता रहता था । उसने अपने सभी धोड़े खोल दिये थे , ये घोड़े उसे भी दौड़ाते थे । वो दौड़ता भी था , मगर बलगाएं किसी और के हाथ में होती थी । दिशाएॅं कोई ओर तय करता था ।
इसी महत्वाकांक्षा का मारा कल्लू पुत्र राजधानी आया । संगठन के दफतर के बाहर जब वह रिक्शे से उतरा तो उसके सामने संगठन का विशाल भवन था । चौकीदार - सिक्यूरिटी ने उसे बाहर ही रोक दिया । वो पार्टी कार्यालय में धुसने के रास्ते ढूंढ रहा था , मगर रास्ते इतनी आसानी से कैसे और किसे मिलते हैं । पास ही एक श्शापिंग माल के सिक्यूरिटी गार्ड से उसने परिचय बढ़ाया , उसने पार्टी कार्यालय के बाहर झण्डो , बैनरों को बेचने वाले से मिलाया । झण्डे बैनर वाले ने उसे सिक्यूरिटी गार्ड से परिचित करवा दिया । इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में सांझ हो गयी । पार्टी कार्यालय में आब गहमागहमी बढ़ गई थी । उूचे कद के बड़े नेता , नेत्रियॉं , बड़े सरकारी अफसर , बड़े ब्यापारी , उधेागपति सब मिल कर पार्टी को अगले चुनाव में जिताने का वादा एक दूसरे से कर रहे थे । कल्लू पुत्र मौका पाकर मिडिया के नाम पर अध्यक्ष के कक्ष में घुस गया था । अध्यक्ष जी मंत्रणा कक्ष में थे।
कल्लू ने अध्यक्ष के पी. ए. से बात कर ली ।
‘ भाई साहब विराट नगर से टिकट किसे मिलेगा । '
‘ अरे विराट नगर के नेताजी की संभावना हे। '
ल्ेकिन वे सीट नहीं निकाल सकेंगे ।
‘ यह सब तो चलता रहता है । '
मैंने भी आवेदन किया है । '
‘ अध्यक्ष जी से बात कर लेना । '
‘ तभी कक्ष में किसी खेत्र के समर्थक और विरोधी एक साथ घुस गये थ्ेा। हो हल्ला मच गया । बड़ी मुश्किल से भीड़ को बाहर निकाला गया। ' कल्लू पुत्र ने अध्यक्ष जी के पांव छुएं , अपनी बात कहीं ‘ सर विराट नगर से टिकट चाहिये । युवा हूॅ । लीडर हूॅं । तथा एस. सी . से हूॅ । दूसरे उम्मीदवार बूढ़े है ।
‘ उनके अनुभव का लाभ लेंगे । '
‘ ठीक हे सर क्या मुुझे आशा रखनी चाहिए । '
‘ आशा अमर धन है । '
कल्लू पुत्र बाहर आया । रात बढ़ गई थी । उसने पार्टी के हाइ-फाइ-फाइवस्टार दफतर को निहारा और ठण्ड़ी सांस भर कर अपने शहर चल पड़ा ।
शहर आकर कल्लू पुत्र ने अपनी टीम को एकत्रित किया । चुनाव में टिकट मिलने की संभावना को बताया और प्रचार में जुट जाने की बात कहीं । मगर मामला धन की व्यवस्था पर आकर अटक गया । नेता पुत्र ने भी अपना विरोध दर्ज कराया ।
कल्लू ने पुत्र ने अपने स्तर पर चन्दा करने के बजाय पार्टी से उम्मीदवारी का ऐलान होने का इन्तजार करना बेहतर समझाा । यदि पार्टी टिकट देती है तो फण्ड भी देंगी । प्रचार , प्रसार का काम अब हर पार्टी में विज्ञापन कम्पनियां करने लग गई थी । टी . वी . रेडियो , कम्ंयूटर , इन्टरनेट , एस. एम. एस. प्रिंट मीडिया , होर्डिंग सभी स्थानों पर विज्ञापन - एजेन्सीज के माध्यम से प्रचार होगा । करोड़ो रूपये खर्च होने का अनुमान लगाया जा रहा था । पार्टियो के दफतरों में हर तरफ महाभारत मचा हुआ था । हर पार्टी की िस्थ्ति एक जैसी थी । हर पार्टी जीत के प्रति आश्वस्त थी । हर पार्टी अपने आपको सरकार बनाने में सक्षम मानती थी । हर पार्टी में आन्तरिक घमासान मचा हुआ था । युद्ध स्तर पर चुनावी युद्ध जीतने के लिए पैतरे बाजी थी ।
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शक्ला जी के पुत्र के असामयिक निधन के बाद श्री मती शक्ला ने सब छोड़ छाड़ दिया था । वे एक लम्बी यात्रा पर निकलना चाहती थी , उन्होने एक टेवल एजेन्ट के माध्यम से अपनी यात्रा का प्रारूप हिमालय की तरफ का बनाया । सौभाग्य से टेवल एजेन्ट ने एक अच्छी मिनी बस से यह यात्रा एक महिला समूह के साथ तय कर दी । बस में कुल दस महिलाएॅं थी । बाकी स्टाफ आदि थे । इस यात्रा में श्री मती शक्ला ने अपनी इच्छाओं पर पुनर्विचार किया । उसे एक पूर्व में पढ़ी पुस्तक भी याद आई , जिसमे अरबपति नायक सब कुछ कुछ बेच - बाच कर हिमालय चला गया था । वापसी पर वह दुनिया को श्शान्ति का सन्देश देने विश्व भ्रमण पर निकल गया । मगर उसकी श्शान्ति की आवाज आंतकवाद के धमाको में डूब गई और एक दिन वो वापस अपने धर लौट आया कुछ दिनों बाद उस सन्त का अवसान हो गया । श्री मती शक्ला ने कुछ अधूरी इच्छाएॅं तो पूरी करली थी और कुछ बाकी थी ।
ज्ाीवन के बारे में वो जितना सोचती , उतना ही उसे अधूरापन लगता । जीवन को सांचे या बन्धी बन्धायी लीक पर चलाना उसे मुश्किल लग रहा था ।
यात्रा प्रारम्भ हुई । एक प्राथमिक परिचय हुआ । सभी प्रोढ़ वय की महिलाएं थी केवल दो कालेज स्तर की कन्याएॅं थी । श्री मती शक्ला को समूह - लीडर बना दिया गया । उसे अपने लायक काम भी मिल गया था । श्री मती शक्ला ने सर्व प्रथम अपने समूह को अपनी आप बीति सुनाई्र । सभी उसके दुख से दुखी हुए । मगर श्री मती श्श्ाुक्ला बोल पड़ी
‘ जीवन तो चलने का नाम है । जीवन नहीं है । पानी है । वेग है । प्रकृति है । '
हमें मिल जुल कर अच्छी - बुरी सभी बातों को सहन करना पड़ता है । आईये अगले पड़ाव पर चलते हैं।
यात्रा फिर शरू हुई ।
तुम्हारी क्या कथा हैं ?बच्चियों ं श्री मती शक्ला ने दोनाे बच्चियों से यात्रा की वापस शरूआत पर पूछ ही लिया । वैसे उसे लग रहा था कि बच्चियां नहीं किशोरियां है , युवतियां है ओर चेहरे और आंखेा में जमाने का दर्द भरा हुआ है ।
कुछ देर बस में चुप्पी छाई रहीं । केवल इंजन की आवाज बोलती रही । लड़कियों के जेहन में समन्दर तैर रहे थे । लहरे उठ रही थी । वो चुप थी मगर बोल रही थी । इस अजीब खामोशी के बर्फ को तोडा़ उम्र में कुछ बड़ी लड़की ने -आन्टी हम दोनो विदेयाो में पली बढ़ी है । वहॉं की सभ्यता - संस्कृति में जो कुछ होता है हमने भी वही सब देखा और भोगा है । हमारे मॉं बाप ने हमें अपने देश की जमीन ,जड़े , देखने भेजा है । हम खुश है । कि कभी हमारे पूर्वज भी इस देश के बाशिंदे थे । आंटी हमारे दादाजी फलोरिडा चले गये । वहीं बस गये । पिताजी का जन्म भी वहीं हुआ , फिर हम आये । हमारी मॉं का देहान्त हो गया । पिताजी ने दूसरी श्शादी कर ली । उससे उन्हें कोई बच्चा नहीं हुआ । बस हम दो बहने । धीरे धीरे पिताजी बूढ़े होते गये । नई मां चली गई नया धर बसाने । पिताजी हिन्दुस्तान लौटना चाहते थे मगर आना मुश्किल था ।
‘ और तुम्हारे श्शादी विवाह । एक सह यात्रीणी ने पूछा '
‘ आन्टी ! वहॉ पर ये सब बेकार की बाते हैं । सह - जीवन । रोज बदलते बाय फ्रेण्ड व गर्ल फ्रेण्ड । खाना ,पीना , एश......। मौज मस्ती ।
‘ हॉं भाई तुम्हारे तो मजे ही मजे । एक हम है कि एक ही के सहारे जीवन ही नहीं सात जनम काटने का वादा करते हैं । '
‘ हिन्दुस्तान के बाद कहॉं जाओगी । '
‘ आन्टी यह देश बहुत प्यारा है यहॉं के लोग भी अच्छे है । इच्छा तो ये हो रही है कि यही श्शादी करके घर बसा लूॅ । यहीं रह जाउंू । छोटी लड़की ने चहकते हुए कहा ।
ल्ेकिन क्या यह इतना आसान है । बड़ी लड़की ने कहा । पापा वहां अकेले है ।
व्ो तो ठीक है ........मगर ओर हम कर भी क्या सकते हैं ।
‘ वैसे तुम कितनी पढ़ी लिखी हो । '
ळम ने एम. बी. ए. किया है । नौकरी भी की थी । मगर पापा का काम संभाल ने के लिए सब छोड़ छाड़ दिया फिर घूमने फिरने निकल गई ।
ब्ास हरिद्वार से आगे बढ़ रही थी । िऋसिकेश के किनारे लग गई थी । श्री मती शक्ला ने आपरेटर को कह कर बस रूकवाई । सभी ने गंगा स्नान किया । श्शाम को हरिद्वार में आरती के दर्शन किये । तभी रात में श्री मती शक्ला ने अपने पास लेटी महीला से उसकी जीवन - यात्रा के बारे में पूछा ।
मिहला चुपचाप रही । आंखों में पानी आंचल में दूध की कहानी फिर दोहराई गई । बच्चे उसे वृन्दावन में छोड़ गये थे । मन नही लगा । यात्रा पर निकल पड़ी । रात में श्री मती शक्ला ने एक उदास गीत छेड दिया । सभी उसी में समवेत स्वरों में गाने लगी ।
जीवन की यात्रा और यात्रा का जीवन कब क्या मोड़ ल ेले कोई नहीं जानता ।
दूसरे दिन सुबह नाश्ते के बाद यात्रा फिर शरू हुइ्र ।
एक अन्य महिला ने श्री मती शक्ला की मौन सहमति के साथ अपनी कहानी बयान की ।
दुख , अपमान , अवसाद , कप्ट ,मार - पीट , गाली - गलोच और घृणा से भरपूर जीवन की यह कहानी एक पूर्व पत्रकार की थी । पिता की मरजी के खिलाफ श्शादी , श्शादी के बाद पति का अन्यत्र प्रेम .........। दुख ........अपमान ......। सब सहते सहते इस किनारे आ लगी ।
पाठको । यह सब असुन्दर । अशिव है लेकिन एक सच्चाई है जिसे हर कदम पर यथार्थ के धरातल पर देखा जाना चाहिये । अखबार में पढ़कर या समाचारों में देखकर भूल जाना अलग बात है और वास्तव में भोकना अलग बात है ।
व्यक्ति के जीवन में यात्रा चलती रहती है । किसी देश के जीवन में पच्चीस वर्प ज्यादा नहीं होते मगर व्यक्ति के जीवन में पच्चीस वर्प बहुत होते हैं ।
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अब वापस कस्बें में लौट कर आते हैं जहॉं पर टूटी सड़के , गन्दा पानी ,बन्द बिजली , खराब स्वास्थ , नये मल्टीफेक्स , टटपूजिये नेता , भावी समाज हमारा इन्तजार कर रहा है ।
स्ामाज में बदलाव , हवा - पानी में बदलाव , राजनीति में बदलाव ,जातियों और समूहो में बदलाव , जैसे कि बदलाव ही जीवन है । बदलाव में भटकाव । व्यक्ति भाग रहा है । मगर क्या दिशा सही है ? या उसका लक्ष्य क्या है । उसके लिए श्रेप्ठ क्या है । वह भी उसे नहीं मालूम । वह दूसरों को श्रेप्ठ की सलाह देता है , मगर उसे खुद नही मालूम कि उसके लिए तथा दूसरो के लिए श्रेप्ठ क्या है ? वह स्वयं को श्रेप्ठ समझता है । दूसरो को हीन समझता है , मगर उसके अन्दर हीन - भावना है जिसे वह नहीं पहचान पाता । हीनता और श्रेप्ठता के बीच झूझता आज का आदमी सरपट दौड़ रहा है । पिछले वर्पो में देश में आंतक वाद ने बड़ी तेजी से पांव पसारे । राजीवजी की जान ले लि । इसके पहले श्री मती गान्धी की नृशसं हत्या हो गई थी और इसके पहले महात्मा गान्धी को मौत के घ्ााट उतार दिया गया था ।
महत्वपूर्ण व्यक्ति भी असुरक्षित । अविश्वसनीयता का एक वातावरण । सब एक दूसरे से डरे डरे । खौफ खाये हुए । विश्वास की डोर टूट गई । अविश्वास , असुरक्षा , आंतक , अन्धा युग सब पर हावी - भारी हो गया ।
ऐसे समय में कस्बे की राजनीति में घृणा पसर गई । सम्प्रदायवाद हावी हो गया । जीवन के मूल्यों में तेजी से हृास हो रहा है । मानव मूल्य कहीं खो गये है । मानवता ढूंढे नहीं मिलती । राजनीति की रोटी सब को चाहिये । विकास के नाम पर काम काम के नाम पर विकास । दोनो के नाम पर वोट सब कुछ राजनीतिमय । घरों तक में हिंसा और राजनीति । महिला सशक्ती करण के नाम पर कुछ का कुछ .......। सब कुछ । .......कुछ भी नहीं । तन्दूर में जलती लड़की ....। हर कोख में मरती लड़की । मातृ - शिशु मृत्युदर में वृद्धि । कोई सुनवाई नहीं । ऐसी स्थिति में कोई किसी को क्या दोप दे । श्शेयर बाजार में उछाल .....गिरावट । नौकरियों में कटौती । कम्पनियों तक की विश्वसनीयता समाप्त । कल तक जो नौकरी पर था उसे श्शाम को पिंक स्लिप । या घर पर नोटिस । कहीं कोई स्थायित्व .....ठहराव नही । हर तरफ अनिश्चितता का माहौल ।
कोई चाहकर भी कुछ नही कर सकता । सरकार भी असमर्थ । कम्पनियां भी असफल । बाजार की सिट्टी पिट्टी कब गुम हो जाये कोई नहीं जानता । कब अच्छा भला खाता पीता परिवार किसी श्शेयर किसी बाजार , किसी बैंक की भेटं चढ़ जाये , कब कोई भ्रूण हत्या हो जाये । कब कोई ड़ाक्टर , किसी की किडनी निकाल दे । कब कोई आतंकी बम फट जाये । कब कोई बुरा समाचार आ जाये ं कब कोई सरकार गिर जाये , कब कोइ्र अफसर उूपर वालों की गलती से मारा जाये । कब कोई चपरासा नौकरी से हाथ धो बैठे । कोई नहीं जानता । कस्बा हो या गांव या शहर या महानगर सब की स्थिति अत्यन्त विचित्र । अत्यन्त दयनीय । अत्यन्त निराशाजनक ।
मगर नहीं अन्धों के इस युग में भी रोशनी की किरण कहीं न कहीं है । वो राजनीति हो या साहित्य या कला या संस्कृति । सब तरफ से अन्धकार में भी उजासा आता है ।
श्री मती शक्ला यात्रा करके आ गई थी । कस्बे के अपने मकान में उदास बैठी यात्रा की यादे ताजा कर रही थी ।
उसे बार बार पुराने अच्छे दिन याद आ रहे थे । शक्ला जी के वर्चस्व के दिन । अपने पुत्र के बचपन के दिन । खुद की नौकरी के दिन । सब चले गये । उसे अकेला छोड़ कर ।
म्ागर अपनी कुछ छोटी छोटी इच्छाओं की पूर्ति के लिए शक्लाइन जीवित थी । उसने एक पियानो खरीद िलया था । सुबह श्शाम उस पर रियाज करती थी । पास के स्कूल के बच्चों को इन्टरवेल में देखती थी। हॅंसते - खिलखिलाते बच्चें । दौड़ते बच्चें । मुस्कराते बच्चें । अपने नन्हें हाथें से टिफिन खोलकर खाते बच्चें । कपड़े गन्दे करते बच्चे । ऐक दूसरे से लड़ते बच्चें । लड़कर मिल जाते बच्चें । गाते - नाचते बच्चें । कभी कभी वह स्कूल के अन्दर रिसेस में चली जाती । किसी बच्चें को खाना खाने में मदद करती । उसे खुशी मिलती । उस खुशी के सहारे उसका दिन कट जाता ।
स्कूली बच्चों की जीवन चर्या उसे प्रेरणा देती । वह बच्चों की सहायता के लिए स्कूल जाती । स्वंय सेवीसंस्था के माध्यम से बच्चों के दोपहर का भेाजन बनवाती । बंटवाती । मगर कभी कभी खाने की गुण्ावत्ता से परेशान हो जाती । चावलों में इल्लियां , गेहूॅं सड़ा हुआ , सब्जी पुरानी बासी मगर ऐसा कभी कभार ही होता । सामान्यतया दोपहा का खाना बच्चेां में बंटवाने में उसे मजा आता । सुख मिलता । संतोप , मिलता । आनन्द मिलता । आनन्द संतोप में वह अपना दुख भूल जाती ।
शक्लाईन ने अपने मकान में एक स्कूल अध्यापक - दम्पत्ति को रख लिया । इससे उसके सूने धर में रौनक हो गई । मगर पड़ोस के लोगों को ये सब कैसे सुहाता । पड़ोसियों ने पड़ोस - धर्म का निर्वाह करते हुए दम्पत्ति को भडकाने का शभ काम आरम्भ कर दिया । श्री मती शक्ला के बरसों पुराने किस्से उन्हे सुनाये जाने लगे । बेचारे अध्यापक दम्पत्ति जल्दी ही किनारा कर गये ।
श्री मती शक्ला फिर अकेली रह गई ।
उसे फिर जीवन की नीरसता की याद आई । मगर जीवन को तो जीना ही है ।
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कस्बे का एक पार्क । पार्क की बेंच पर लिखा था -
सत्यमेव जयते ।
किसी ने काट कर लिख दिया ।
असत्यमेव जयते ।
बेशर्म मेव जयते ॥
दूसरे किनारे पर लिखा था ।
अहिंसा परमो धर्म ः ।
किसी ने काट कर लिख दिया ।
हिंसा परमो धर्म ः ।
एक तरफ गान्धीजी की मूर्ति खड़ी थी और सब कुछ देख समझ रही थी । मगर मूक थी ।
मूर्ति चारों दिशाओं से आने वाली आहटों को सुन् समझ रही थीं । मगर कुछ भी करने में असमर्थ थी । मूर्ति के पास ही कल्लू का युवा बेटा भावी नेता अपने आपको चिन्तन में दिखा रहा था । उसे गान्धी , नेहरू , अम्बेडकर , और आजादी के पूर्व के दीवानों की कथाएॅं याद आ रही थी । उसने देखा कि एक पक्षी गान्धी जी की मूर्ति पर बैठ कर चिल्ला रहा था , मगर पार्क में चारों तरफ श्शोर था । किसी का भी ध्यान पक्षी की आवाज की ओर नहीं गया । पक्षी चारों तरफ देखकर प्रकृति के सौन्दर्य को जी रहा था । कुछ ही देर में पक्षी फड़ फड़ाकर उड़ गया । कल्लू - पुत्र मानव और उसके आस -पास के परिवेश पर सोच रहा था । गरीबी , बेकारी , मजबूरी , मजलूमी , कहीं कोई सराेकार नहीं था ।
तकदीर , तदबीर और तकरीर के सहारे ही प्रगति की सीढ़िया चढ़ी जा सकती है वेा , महत्वाकांक्षा का मारा था । राजनीति में नया था , मगर जोश और जुनून था । उसे टिकट मिलने की पूरी संभावना थी ।
वह सोच रहा था , मनुप्य क्या है ? क्यों होता है नीच । क्यों करता है समझौते । मानव की आत्मा को देखो। खोल को हटाओ । एक दम नीचे कहीं आत्मा होती है । मगर आत्मा की आवाज कौन सुनता है । उसने राजनीति के कीचड़ में कमल भी देखा । कीचड़ भी देखा । संड़ान्ध भी देखी । गिर गिट भी देखे । रंग बदलते , खोल बदलते गिरगिट देखे । मगरमच्छ देखे । हाथी देखे श्शेर की खाल में सियार देखे ओर शहर में रंगे सियार देखे ।
क्या हमारे नेताओ ने आदमी में उग आई झूठी , निर्भम , मक्कार , स्वार्थी और व्यक्ति वादी सोच की कल्पना की थी । कहॉं है देश की प्रगति और फिक्र करने वाली निस्वार्थ पीढ़ी के लोग । सब कहॉं चले गये । समुद्र की लहरों की तरह नये , उंचे महत्वाकांक्षी लोग सब तरफ हावी हो गये । वो स्वयं भी तो उन्हीं में से एक हैं। उसे पुराने , बुजुर्ग , वयोवृद्ध नेताजी को पटकनी देने का काम सौंपा जा रहा है और वो मानसिक , श्शारिरिक और आर्थिक रूप्ा से स्वयं को इसके लिए तैयार कर रहा है ।
सब एक दूसरे को जानते हैं , मगर अजनवी है । सब अपरिचित । सब एक दूसरे का गला काटने को तत्पर । सब अनैतिक मगर सब स्वच्छ लिबासी । विलासी । व्यवसायी ।
अजीब विरोधाभास । अजीब अकर्मण्यता । सत्य अप्रिय , कठोर मगर यथार्थ । यथार्थ को समझने की कोशिश सत्य को सत्य , सुन्दर को सुन्दर और शिव को शिव बनाने का कोई प्रयास नहीं । सब कुछ गलत हाथेंा में । सब कुछ रेत की तरह मुठ्ठी से फिसलता हुआ ।
सर्वत्र अशान्ति । हाहाकार । चुनाव । सरकार । गठ बन्धन । गिरती सरकार । बचती सरकार । कल्लू को याद आया कल ही प्रान्तीय सरकार केवल इसलिए गिर गई की मुख्यमंत्री एक बलात्कारी मंत्री - पुत्र को सजा दिलाना चाहते थे । मंत्री ने पुत्र को बचाने के लिए सरकार ही हेाम कर दी । एक अन्य प्रदेश में सरकार एक जाति विरोध के धर्म स्थलों को बचाने के लिए होम कर दी गई । एक प्रान्तीय सरकार तो गठ बन्धन धर्म को भूल गई और स्वाहा हो गई । कल्लू -पुत्र सोच रहा था ये कब तक । कैसे । लेकिन उसे एक और चीज याद आई , इस देश की जनता राजा को नहीं सन्त , साधु , महात्मा को याद करती है । पूजा करती है । महात्मा गान्धी , जयप्रकाश नारायण का सम्मान राजाओं , मुख्यमंत्रियों , प्रधानमंत्रियों , राप्टपतियों से ज्यादा है क्यों ?क्या जबाब दिया जा सकता है इस क्यों का ।
कल्लू पुत्र महात्मा जी की मूर्ति से उठा । सूरज चढ़ रहा था । चारों तरफ उजासा था । सड़को पर कोलाहल था । शहर जाग चुका था । भाग रहा था । दौड़ रहा था । कल्लू ने मन ही मन महात्मा जी से देश सेवा का आशीर्वाद लिया । क्या पता महात्मा जी ने क्या कहा , मगर कल्लू खुशी - खुशी एक ओर चल दिया ।
कल्लू पुत्र के मन में खुशी के लड्डू फूट रहे थे । टिकट मिलने की देर है । जीवन की समस्त लालसाएॅं पूरी हो जायेगी । परिसीमन का असली मजा आने वाला था । उसकी व्यस्तता बढने वाली थी । उसने पार्टी के घोपणापत्र पर ध्यान केद्रित किया । इसी के सहारे आगे चला जा सकता है । प्रजातन्त्र में यहीं तो सुख है राजा रंक और रंक राजा । मजदूर - किसान गरीब बेटा भी सत्ता के शीर्प तक पहुॅंचने का प्रयास कर सकता है । सफल हो सकता है । मन में कहीं तृप्ति नहीं । कहीं संतोप नहीं । कहीं सुख नहीं बस भूख ही भूख रोटी की भूख । सत्ता की भूख । शक्ति की भूख । सम्मान की भूख । कुरसी की भूख । राजनीित की भूख । विरोधी को धूल चटाने की भूख । प्यार की भूख । तन की भूख । मन की भूख । धन की भूख । बस भूखा ओर भूखा व्यक्ति क्या पाप नहीं करता । संापिंन तो अपने बच्चों तक को खा जाती है । कुतिया भी अपने बच्चों को खा जाती है । और मानव समाज की तो चर्चा करना ही व्यर्थ है ।
इन वर्षों में देश -दुनिया ने बड़ा भारी सफर तय कर लिया है । समय बदल गया है । पंचशील , समाजवाद से चलकर खुली अर्थ व्यवस्था , तक आ गया है देश । पूरा विश्व एक गांव बन गया है और अपना गांव और गांववाले खेा गये है । कल्लू पुत्र रोज देखता था बड़े घरों के एक कोने में अपने लेपटाप पर कैनेडा , अमेरिका से अपने बच्चों से चेटिंग करते , विडियो क्राफेंसिंग करते लोग और अपने पड़ोस से अनजान लोग । एक ही बिल्ड़िगं में रहने वाले एक दूसरे को नहीं पहचानते । नहीं पहचानना चाहते । समय सर्प की तरह चलता है । निःशब्द । आकाश । हवा । पानी । मौसम सब बदलते रहते हैं । मानव भी बदलता रहता है । कल्लू पुत्र सड़क किनारे के काफी हाउस में आ गया । कभी यह गुलजार रहता था । बुद्धिजीवी , लेखक , कवि , आकाशवाणी , दूरदर्शन के कलाकार , षवी राजनेता सब आते थे , मगर धीरे धीरे शहर के विस्तार के साथ साथ यहॉं की राैनक भी कम हो गई थी । कल्लू पुत्र ने एक डोसा व काफी ली । अखबार चाटें ओर धर की ओर चल पड़ा ।
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bahut sundar rachna hai. badhai. agar aapko kabhi waqt mile to mera blog b dekhen.
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