गोमती बुआ हमारे साथ कई वर्ष से रह रही थी। मैंने अपने बचपन से युवावस्था तक उन्हें एक ही रूप में देखा था। रूई के समान सफेद बाल, पोपला सा मु...
गोमती बुआ हमारे साथ कई वर्ष से रह रही थी। मैंने अपने बचपन से युवावस्था तक उन्हें एक ही रूप में देखा था। रूई के समान सफेद बाल, पोपला सा मुँह, झुकी हुई कमर उनकी पहचान थी। बुआ की आँखें हमेशा पूरी तरह बंद रहती। जब उन्हें कहीं देखना होता तो वे अंगूठे तथा ऊंगलियों की सहायता से पलकें उठाकर कुछ देख पाती थीं। उन्हें सुनाई भी बहुत कम देता था। जब किसी बात को सारा गांव सुन समझ ले उसके बाद ही वे बातें बुआ को समझ में आ पाती थीं।
वे मेरे पिताजी की सगी बहन नहीं थीं। उनका विवाह आठ वर्ष की आयु में हो गया था। विवाह के पश्चात वे केवल एक बार ही ससुराल गई थीं। उसके पश्चात जो वापस आई तो फिर कभी भी दोबारा वहाँ नहीं गई। उन्होंने अपनी पूरी उम्र गाँव के मकान के पिछवाड़े बनी एक छोटी सी कोठरी में ही गुजार दी।
वे गाँव भर की बुआ थीं। आठ वर्ष के बच्चे से लेकर अस्सी वर्ष के वृद्ध भी उन्हें बुआ कहकर पुकारते। बहुत हुआ तो बुजुर्ग उन्हें सम्मान से गोमती बुआ कह लेते। मुझे अच्छी तरह याद है, मेरे पड़ोस में रहने वाले लच्छू काका ने एक बार उन्हें गोमती बाई कह दिया था। उस दिन बुआ ने लच्छू काका को जी भर कर कोसा था। वे तीनों पहर लच्छू काका की पिछली सात पीढ़ियों से लेकर आगे आने वाली सात पीढ़ियों का सत्यानाश करके शांत हुई थीं। वह भी तब, जब वे पूरी तरह थक हार कर पस्त पड़ गई थीं।
हमारे परिवार में किसी ने भी गोमती बुआ को गहरी नींद में सोते नहीं देखा था। किसी चपल श्वान के समान थी उनकी नींद। ज्यों ही कोई खटका होता बुआ खट से चारपाई पर उठ बैठती और लाठी को चार छः बार जमीन पर पटक-पटक कर हम सब लोगों को पुकारती। वे चाचा को आवाज देती, “देखना परेम कौन है? वहाँ पर,? ठठरी बँधा।” दो चार बार बुआ के पुकारने पर चाचा की नींद में खलल पड़ता वे बिस्तर पर पड़े-पड़े ही कहते, “सो जा बुआ कोई नहीं है, क्यों आधी रात को पूरे गाँव की नींद बर्बाद कर रही है।” यह सुनकर बुआ मन ही मन बड़बड़ाती रहती। न जाने कौन सा मंत्र पढ़ती रहती। यह सिलसिला जाने कब से चला आ रहा था, मुझे याद नहीं है। बुआ के सोने का कोई समय तय नहीं था। जब वे भोजन कर लेती, राम नाम की माला जपते हुए वे कोठरी में चली जातीं। कभी-कभी तो माला उनकी खाट के नीचे होती और वे राम नाम का जाप कर रही होती। उसी अवस्था में वे नींद की आगोश में समा जाती थीं। चाहे उस समय शाम के छः ही क्यों न बजे हों। लेकिन उनके उठने का समय तय था। वे प्रायः चार बजे के आसपास उठ बैठती थीं। मैंने तो कई बार अपने भाई बहनों से इस बात को लेकर शर्त लगाई थी कि देखना आज बुआ ग्यारह बजे सोई है, सुबह सात से पहले नहीं उठने वाली। लेकिन मैं अपनी शर्त हमेशा हार जाया करता था, क्योंकि वे मेरी आशा के विपरीत प्रातः चार बजे ही उठ बैठती थीं। वे बिस्तर पर पड़े-पड़े कुछ देर तक राम नाम जपतीं। उसके पश्चात लालटेन जलाकर मंदिम सी रोशनी में शौचकर्म से निवृत्त हो जातीं। पिताजी हमेशा चिंता किया करते थे कि कही ऐसा न हो ये बुआ रात अंधेरे में कही गिर गिरा पड़े और लेने के देने पड़ जाएँ। लेकिन बुआ ने यह कष्ट कभी किसी को नहीं दिया। मैं उस वक्त सबसे कहा करता था कि बुआ की भले ही आँखें नहीं है पर उनके हाथों में रखी लाठी में शायद जादुई आँखे हैं, जिसके सहारे वे कभी भी, कही भी, आ जा सकती हैं।
कड़ाके की सर्दी हो, उमस भरी गर्मी अथवा मूसलाधार बरसात वे हमेशा प्रातः ही स्नान कर लेतीं। उसके पश्चात कमरे में रखी हुई रामलला की मूर्ति के सामने घी का दीपक जलाकर दो अगरबत्ती लगातीं। फिर माला लेकर जो जाप करने बैठती तो पिताजी के पुकारने पर जाप समाप्त कर चाय पीने आतीं। वे अपना पीतल का गिलास कटोरी साथ ही रखती थी। वे चाय पीने के पश्चात बर्तनों को धो मांजकर जतन से अपनी संदूक में रख देतीं।
बुआ को कुत्तें-बिल्लियों से हमेशा नफरत रही। वे उन्हें देखते ही चिढ़ जाती थी। एक दिन रामदास के बड़े बेटे भगवान दास ने एक पिल्ला बुआ की कोठरी के अंदर छोड़ दिया था। बुआ ने उस पिल्ले को बाहर निकालने के प्रयास में कोठरी के अंदर रखी चीनी मिट्टी की बरनी तथा मिट्टी के अन्य पात्रों को मिटा दिया था। पिल्ला तो कोठी के एक कोने में दुबक कर कांय-कांय करता रहा लेकिन सामान की बर्बादी होती रही। बाद में बुआ ने कुँए से पानी लाकर कोठरी को अंदर बाहर से अच्छी तरह धोकर उसकी लिपाई पुताई की थी। वे उस दिन रामदास के घर तक भी गई थीं यदि वह घर मिला जाता तो शायद बुआ के प्रवचनों तथा लाठी की मार से उसका बच पाना कठिन था।
पिताजी हमेशा बुआ को समझाया करते पर वे घर में अपनी ही चलाती रहती। पिताजी उनसे खाने के बारे में पसंद पूछते कहते, “बुआ, कौन सी सब्जी खाओगी ला देता हूँ।” प्रत्युत्तर में वे दीवान की बागुड़ से लौकी गिलकी के नीहे (छोटे फल) तोड़कर अम्मा के सामने पटक देतीं। उन वेस्वाद नीहा की सब्जी बघारने को कहतीं। अम्मा हमेशा उनका आदर करती थीं, इसलिए उनकी मन पसंद सब्जी बाजार से मंगवाकर बना देती और कहती, “लो बुआ ,आज तुम्हारी तोड़ी हुई सब्जी ही बनाई है, इन्हें तथा बच्चों को यह बहुत पसंद है।” यह सुनकर बुआ की प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं रहता। वे कभी पिछवाड़े लगे नीबू के वृक्षों से गिरे अधपके नीबू बीनकर चाची के सामने धर देती। बुआ की जिद होती कि इन नीबू का ही अचार डाला जाए। चाची बुआ से बहस करती, उन नीबू से अचार न बनने की बात कहती, लेकिन बुआ कहाँ मानने वाली थीं। वे माँ से उन नीबुओं का आचार बनाने को कहतीं। माँ बहुत ही होशियारी से बुआ की निगाह बचाकर पिताजी से अच्छे नीबू बाजार से मंगवा लेती और उनका आचार बनाकर बुआ को पेश करती। इस तरह उनके साथ सामंजस्य बिठा पाना कोई हँसी खेल नहीं था। कभी कभी तो घर का हर सदस्य उन पर खीज उठता था। लेकिन वह खीज अधिक देर तक नहीं रह पाती थी। बुआ भी जितनी जल्दी गुस्सा होती, उससे भी जल्दी वे सामान्य हो जाती थीं। उनकी स्वभावगत विशेषताओं को समझ पाना कभी-कभी कठिन हो जाता था। लेकिन वे हमेशा पिताजी का सम्मान करती थीं।
जब भी कभी गाँव में कुछ कार्यक्रम होते वे तुरंत उसका प्रमुख हिस्सा बन जाती। गाँव में प्रतिवर्ष होने वाली रामलीला, रासलीला तथा गणेश उत्सव आदि पर गोमती बुआ सब की डांट खाने को बावजूद अपनी क्षमता से अधिक कार्य कर सहयोग देती। पिताजी ने कई बार बुआ को टोका था, “क्या जरूरत है तुम्हें बुआ गांव के लोगों के काम में टांग अड़ाने की? कुछ तो शर्म करो। गाँव के लोग क्या सोचेंगे?” बुआ हँस कर टाल जाती, वे कहती, “बेटा यह बूढ़ा शरीर गाँव के कुछ काम आ जाए तो अपने आप को धन्य समझूँगीं। ये तो मेरा सौभाग्य है कि तुम सब मुझे सम्मान देते हो, उसके बदले में क्या कुछ सेवा भी नहीं करने दोगे?”
“बुआ, फिर भी तुम अपनी उम्र का कुछ ख्याल तो करो।”
“बेटा उम्र का ख्याल किया तो मैं गई इस दीन दुनिया से।” बुआ दार्शनिक अंदाज में गहरी सांसें लेते हुए कहतीं।
“तुम्हें तो समझाना ही बेकार है,” पिताजी हमेशा की तरह झल्ला उठते। बुआ अपने पोपले मुंह, गढ़्ढों भरे गाल और धंसी हुई आंखों द्वारा प्राप्त अनुभवों को समेटते हुए कहतीं, “बेटा तूने मुझ बाल विधवा को रखकर मुझ पर जो उपकार किया है उसका कुछ तो बदला चुका लेने दे मुझे?” बुआ की अंतरात्मा की पुकार सुनकर पिताजी हर बार उनके सामने नतमस्तक हो जाया करते। वे अपनी डबडबाई आंखों से बुआ का सामना कर पाने की स्थिति में नहीं रह पाते थे। उस वक्त उनमें बुआ का सामना करने का साहस नहीं रहता था। वे बुआ से दूर हटकर किसी और कार्य में लग जाते थे।
गोमती बुआ गांव के लिए सेवा की प्रतिमूर्ति थी। बुआ ने कभी किसी से सहारा नहीं लिया, उल्टे उन्होंने वक्त जरूरत लोगों पर उपकार ही किया था।
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प्राथमिक कक्षाओं को उत्तीर्ण करने के पश्चात मेरे भाई बहन शहर में मेरे पास पढ़ने के लिए आ गए थे। घर में बड़ा होने के कारण मेरा भी फर्ज बनता था कि मैं उन्हें अपने पास रखकर उनकी अच्छी शिक्षा की व्यवस्था करूँ। हम सबके शहर आ जाने के पश्चात गांव में माँ-पिताजी तथा बुआ ही रह गए थे। पिताजी हर रविवार शहर आकर हमारे हालचाल ले जाते तथा गाँव की जानकारी दे जाते। कभी-कभी वे सप्ताह भर का सामान रख जाते। उस सामान में बुआ द्वारा प्यार से भेजी गई कुछ खाने पीने की चीजें भी होती। वे मौसम के अनुसार इमली, अमरूद, आम आदि जरूर भेजतीं।
पिताजी का गाँव से आना और बुआ द्वारा भेजी गई सामग्री लाने का यह क्रम वर्षो तक चलता रहा। एक दिन कंपकपा देने वाली सर्दी में जब हम स्कूल जाने की तैयारी कर रहे थे, गाँव से खबर आई कि गोमती बुआ नहीं रही। उस दिन रोते बिलखते हम भाई बहन तुरंत गाँव चले गए थे। बुआ की मृत्यु की खबर से पूरा गाँव शोकमग्न हो गया था। गाँव का प्रत्येक व्यक्ति उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हुआ था। सभी ने उन्हें सम्मानपूर्वक अंतिम विदाई दी थी। उस दिन गाँव के किसी भी घर में चूल्हा नहीं जला था।
बाद में माँ पिताजी भी शहर आ गए थे।
तब से लेकर आज तक गोमती बुआ मेरी यादों में बसी हुई है।
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अखिलेश शुक्ल
63, तिरूपति नगर
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फोन. 07572 243090
(मो.) 09424487068
पहले के हर गांव में मिल जाया करती थी.....गोमती बुआ की तरह ही एक दो बाल विधवा....बहुत सही चित्रण किया है।
जवाब देंहटाएंहिंदी-साहित्य में रेखाचित्र कम ही पढ़ने को मिलते हैं। इस विधा में सर्जन हेतु रचनाकारों को प्रोत्साहित करने के लिए रचनाकार के संपादक बधाई के पात्र हैं। आशा है कि भविष्य में रचनाकार पर और भी अधिक प्रभावशाली रेखाचित्र पढ़ने को मिलेंगे।
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