उनके जाल में फंसी पद्मश्री और मैं यशवन्त कोठारी हर काम बिल्कुल सुनिश्चित पूर्व योजना के अनुरूप हुआ। इसमें कुछ भी अप्रत्य...
उनके जाल में फंसी पद्मश्री और मैं
यशवन्त कोठारी
हर काम बिल्कुल सुनिश्चित पूर्व योजना के अनुरूप हुआ। इसमें कुछ भी अप्रत्याशित नहीं था। मुझे यही उम्मीद थी, और मेरी उम्मीद को उन्होने पूर्ण निष्ठा के साथ पूरा किया था। किस्सा कुछ इस तरह है, उन्होने इस बार अपने कांटे में एक बड़ा केंचुआ बांधा, जाल डाला और किनारे पर बैठकर मूंगफली का स्वाद चखने लगे। मैं भी पास ही खड़ा था। पूछा तो उन्होंने बताया, इस बार उन्होने इस बड़े केंचुए को इसलिए बांधा है कि कोई बहुत बड़ी मछली उनके जाल में फंसे ; और उन्हें इस बात का विश्वास था कि केंचुआ उन्हें निराश नहीं करेगा ।
मैंने उनको मन-ही-मन प्रणाम किया और किनारे पर बैठकर मूंगफली के छिलके कुतरने लगा, क्योंकि अब छिलके ही उपलब्ध थ्ो ।
कुछ समय बाद उनके कांटे में झटका लगा और मुझे करेण्ट लगा । मैं समझ गया-उनके कांटे में कोई बहुत ही बड़ी मछली फंसी है। उन्होंने विजयी भाव से इधर से उधर तक, याने उत्तर से दक्षिण तक अपनी अकड़ी हुई गर्दन घुमायी । मगर अफसोस, उनकी इस विजयी मुस्कान को देखने वाला मेरे सिवाय और कोई नहीं था। उन्हें इसका हार्दिक दुःख हुआ तथा इस महान् दुःख से दुःखी होकर उन्होंने जाल समेटा और कांटा उपर खींचा।
दुनिया के आठवें आश्चर्य की तरह उनके कांटे में कुमारी पद्मश्री फंसी हुई थी । मैं उसे फटी-फटी आंखों से देखने लगा-वह मुस्करा रही थी, उसके हाथ में वरमाला थी ; और यह माला उसने बड़े प्रेम से उनके गले में डाल दी मैं टापता रह गया ।
निश्चित बात है कि इस सम्मान के बाद उनके पैर धरती पर पड़ने बन्द हो गए ; उन्होंने मुझे भुला दिया । लेकिन गरीबी की तरह मैंने उनका दामन नहीं छोड़ा और लगातार उनके पीछे लगा रहा ।
यह उनका सौभाग्य था कि वे इतनी जल्दी इस सम्मान को प्राप्त का गए। जो लोग कई दशकों से कलम धसीट रहे हैं , उन्हें इनसे ईर्ष्या हुई और मेरे -जैसे नवोदित खुश हुए ।
कुछ नवोदितों ने कहा-‘‘देखा, ‘जीनियस ' इसे कहते हैं ! एक डुबकी मारी और पद्मश्री । बेचारे वर्षों से कलम रगड़-रगड़-कर बुड्ढे हो गए । अब कइर् तो आत्महत्या के लिए राष्ट्रीय कृत बैंकों से ऋण ले रहे हैं । ''
पुरानी पीढ़ी के साहित्यकारों को यह बुरा लगा ;कहने लगे-‘‘किसी को शुरू में ही एकदम उपर उठाकर बैठा देना , उसके उत्साह को कम करना है । देख लेना , अब इसकी साहित्य-साधना खत्म ! कइर् लोग इसी तरह प्रतिभाहीन हो गए । बेचारा ! '' उन सम्पादकों की आफत आयी , जो उनकी रचनाएं वापस कर देते थ्ो ; तथा वे खुश हुए, जिन्होंने इनकी निरर्थक रचनाएं भी छापीं , कहेंगे, हमीं ने इनको प्रकाशित किया-मानो वे सूर्य हों !
चूंकि ये मेरे पड़ोसी हैं तथा मैं इनका पड़ोसी ; अतः पड़ोसी-धर्म के नाते इनको बधाई देने पहुंचा । वे अपने डाइंग रूम में बनियान पहने बैठे थ्ो ;एक तरफ कुछ अंग्रेजी व्याकरण की पुस्तकें थीं , दूसरी तरफ सोफा था, जो बेटे की शादी में दहेज में आया था ।
उनकी श्रीमतीजी अब ‘श्रीमती पद्मश्री ' के अन्दाज में पड़ोस की श्रीमती खन्ना से बतिया रही थीं । श्रीमती खन्ना को यह पद्मश्री-पुराण अच्छा नहीं लग रहा था ं अतः उन्होंने अपना क्लिंटन काण्ड का अड्डा कहीं दूसरी ओर लगाया , और श्रीमती पद्मश्री कहीं और चल दीं ।
मैंने उन्हें गम्भीर देखकर कर्णप्रिय आवाज में बधाइर् दी । वे पहले शरमाये , फिर मुस्कराये ओर अन्त में इतराये । मेरे पास कैमरा नहीं था , नहीं तो इस वक्त अत्यन्त उत्तम चित्र आते , जो किसी भी अन्तरराष्ट्रीय फोटो प्रतियोगिता में पुरस्कृत होते । ख्ौर , मैंने उनकी अभ्यर्थना की ।
मैंने उन्हें अभिनन्दन के लिए ‘ नगर साहित्य सभा ' की ओर से आमन्त्रित किया । वे दुःखी नहीं हुए ; क्योंकि वे जानते हैं , यह सब अनिवार्य है ।
कुछ अन्य बुद्धिजीवियों ने दबे स्वर में इस सभा में कहा- ‘‘ देखो, बेचारे को सरकार ने पद्मश्री दे दी । अच्छा-खासा बुद्धिजीवी था , पढ़ता-लिखता था ; मगर सरकार तो सिर उठाते ही कुचल देती है । परिणाम देख लो,पढ़ना-लिखना बन्द , जैसे साठोत्तरी अभिनन्दन हो गया हो ! इसे कहते हैं साहित्यिक हत्या !''
पद्मश्री खुश है कि वह पद्मश्री है , मैं खुश हूं कि मैंने इनका अभिन्दन कर दिया , बुद्धिजीवी खुश हैं क्योंकि अब उनकी बारी है-बेचारे अपनी जोड़-तोड़ में लगे हैं, कभी तो लहर किनारे पर आएगी । बेचारे कुछ वर्षों में पद्मश्री हो ही जाएंगे । सरकार ने एक ख्ौरातखाना खोल रखा है, वह किसी को निराश नहीं करती । जो पद्मश्री की मांग करते हैं ,उन्हें कम-से-कम एक राज्यस्तरीय पुरस्कार तो दिया ही जाता है । वे समझदार थ्ो, बड़े केंचुए की मदद ली और बातचीत ‘भारत रत्न 'से शुरू की ; और सरकार ने समझौते के रूप में पद्मश्री दे दी ।
अब वे कस्बे में वी. आई. पी. की हैसियत से धूमते हैं, और मैं उनके चमचे की हैसियत से । वे जिधर से गुजरते हैं,लोग कहते हैं,‘‘देखो,सरकारी पद्मश्री जा रहा है ! '' ऐसा सम्मान तो आयकर-अधिकारी को भी नहीं मिला होगा ! कोई उन्हें अब शक की निगाहों से नहीं देखता ; वास्तव में पद्मश्री थानेदारी से भी उंची चीज है ।
मित्रो ! किसी भी साहित्यकार को पद्मश्री न मिलना उनका अपमान , देश व साहित्य का दुर्भाग्य तथा समाज व समाजवादी सरकार की कृतध्नता है । अतः हे मेरे देश- बन्धुओं , पद्मश्री बांटो- जितनी जल्दी बांट सको , बांटो , ताकि पुराने पद्मश्री लिखना बन्द करें ओर नयों को मौका मिले । और जो लिखते - लिखते सो गये हैं , उन्हें पद्मश्री की चादर से ढक दो ! यही न्यायसंगत है अपने कांटों में केंचुआ फांसो और पद्मश्री लूटो !
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यशवन्त कोठारी 86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर-302002
e_mail: ykkothari3@yahoo.com
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